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जैन धर्म में हिंसा
इसके मूल गुणाधिकार में हिंसा त्याग, सत्य आदि पाँच महाव्रतों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणास्थान, कुल, आयु, योनि इन सभी में प्राणियों को जानते हुए कायोत्सर्ग आदि कर्मों में हिंसा को त्यागना ही अहिंसा महाव्रत है । ' इसके अलावा समिति और आवश्यक कर्म भी इस अधिकार में वर्णित हैं । .
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बृहत्प्रत्याख्यान अधिकार में सामायिक के लिए प्रत्याख्यानविधि बताते हुए प्रत्याख्यान करनेवाले के मुख से कहलाया गया है
जो कुछ मेरी पापक्रिया है, उस सबको मन, वचन, काय से मैं त्याग करता हूँ और समताभावरूप निर्विकल निर्दोष सब सामायिक को मन, वचन, काय व कृतकारितअनुमोदित से करता हूँ । जीवघातरूप हिंसा, झूठ वचन, अदत्तादान ( चोरी ) - इन सभी पापों को मैं छोड़ता हूँ । शत्रु मित्र आदि सब प्राणियों में मेरी तरफ से समभाव है, किसी से वैर नहीं है । इसलिए सब तृष्णाओं को छोड़कर मैं समाधिभाव को अंगीकार करता हूँ, मैं क्रोधादि भाव छोड़ शुभ - अशुभ परिणामों के कारणरूप सब जीवों के ऊपर क्षमाभाव करता हूँ और सभी जीव मेरे ऊपर क्षमाभाव करें। मेरा सब प्राणियों पर मैत्रीभाव है, किसी से मेरा वैरभाव नहीं है ।
संक्षेप प्रत्याख्यानाधिकार में भी सामायिक करने काले के प्रत्याख्यान - वचन प्रस्तुत किए गए हैं । 3
समाचाराधिकार में 'समाचार' को परिभाषित किया गया है । रागद्वेष से रहित जो समता का भाव है, वही समाचार है, या अतिचाररहित जो मूलगुणों का अनुष्ठान है या समस्त मुनियों का
१. गा० ४, ५, १७.
२. मूलाचार – सं० पं० मनोहरलाल शास्त्री, पृष्ठ १८ - २०, २७.
३. गा० ११०.
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