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जैन धर्म में अहिंसा आगे इन षट्कायों की रक्षा के लिए (अहिंसादि) पंच महाव्रत
का उपदेश दिया गया है।' - पिण्डषणा नामक अध्याय में उन विधियों को बताया गया है, जिनका पालन एक साधु को उस समय करना चाहिए जब वह गोचरी के लिए जाता है । २
महाचारकथा में साधुओं के अठारह स्थानों को निरूपित किया गया है तथा इन स्थानों में प्रथम स्थान अहिंसा का माना गया है। सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। अतएव घोर प्राणिवध हमेशा त्याज्य है। चूंकि सभी प्राणी जीना चाहते हैं, किसी भी जीव का जाने-अनजाने घात नहीं करना चाहिए ।
भाषाशुद्धि नामक अध्याय में भाषा की शुद्धि का विवेचन किया गया है। शुद्धि से मतलब यहां पर व्याकरण की शुद्धि नहीं बल्कि भावशुद्धि से है। यानी उन शब्दों या वाक्यों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिनके सुनने से सुननेवालों को कष्ट हो । सत्य होने पर भी जो बात अन्य प्राणियों को दुःख देनेवाली हो उसे नहीं बोलना चाहिए।
१. सूत्र ११-२२. २. पुरो जुगमायाए, पेहमाणो महिंचरे ।
वज्जंतो बीय हरियाई, पाणेय दगमट्टियं ॥३॥ प्रोवायं विसमं खाणूं, विज्जलं परिवज्जए । संकमण न गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कमे ।।४॥ सूत्र ५-८ भी देखें। सिमा य समाए, गुम्विणी कालमासिणी। उट्रिया वा निसीयज्जा, निसन्न वा पुणुट्ठए ॥४०।। तं भवे भत्तपारणंतु, संजयारण अकप्पियं ।। दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४१॥ थणगं पिज्जमाणी, दारगं वा कुमारियं ।
तं निक्खिवित्तु रोयंतं, आहारे पाणभोयणं ॥४२।। ३. सूत्र ८-११ और सूत्र २७-४६. ४. सूत्र ११.
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