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जैन धर्म में अहिंसा इसका चौथा अध्याय 'प्रतिक्रमण' है। प्रतिक्रमण कहते हैं उस शुभ स्थिति या गति को जिसमें प्रमादवश च्युत होकर पायी हुई गति से ऊपर उठकर व्यक्ति आता है। अर्थात अपने प्रमाद और अपनी गलती का उसे ज्ञान हो जाता है और उन्हें वह त्यागना चाहता है। इस अध्याय में अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रतिक्रमण-विधि पर प्रकाश डालते हुए किया गया है। इसके अन्त में कहा है
खामेमि सव्व जीवे सव्वे जीवा खमंतु मे ॥ मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे भी क्षमा प्रदान करें। दशवकालिक :
दशवकालिक जैन आगमों के मूलसूत्रों में है। इसमें दस अध्याय हैं-द्रुमपुष्पित, श्रामण्यपूर्विक, क्षुल्लिकाचार-कथा, षड्जीवनिकाय, पिण्डैषणा ( जिसमें दो उद्देश हैं), महाचार-कथा, वाक्य शुद्धि, आचारप्रणिधि, विनयसमाधि (जिसमें चार उद्देश हैं ) तथा सभिक्ष । इसका पाठ विकाल यानी सन्ध्या समय किया जाता है, इसलिए इसे दशवकालिक कहते हैं। इसके कर्ता शय्यंभव हैं। अपने पुत्र को कम समय में ही शास्त्र का ज्ञान कराने के लिए शय्यंभव ने दशवकालिक को रचना की थी। दशवकालिक में दो चलिकाएँ भी हैं-रतिवाक्य तथा विविक्तचर्या, जिनके रचयिता शय्यंभव नहीं माने जाते ।
दशकालिक के द्रुमपुष्पित नामक अध्याय में धर्म को सभी मंगलों में श्रेष्ठ कहा गया है। इस धर्म के तीन रूप हैं -अहिंसा, संयम तथा तप। इस धर्म के पालन करने वाले साधु आहार आदि की गवेषणा वैसे ही करते हैं जैसे ब्रमर पूष्पों को बिना कोई कष्ट दिए हुए रस का पान करते हैं । अर्थात् गवेषणा के कारण उनके द्वारा गृहस्थों को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचता ।' १. धम्मो मंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो..."॥१॥
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो भावियह रसं....॥२॥
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