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जैन धर्म में अहिंसा फिर कहा है कि जो यह मानता है या समझता है कि मैं दूसरे जीवों को मारता हूँ अथवा दूसरे जीवों के द्वारा मैं मारा जाता हूँ, तो यह उसका मोह है, अज्ञान है, ज्ञानी लोग ऐसा नहीं समझते । अपना आयुकर्म क्षीण होने पर ही कोई जीव मरता है और यह आयुकर्म एक जीव से दूसरे जीव का हरा नहीं जा सकता या नष्ट नहीं किया जा सकता। अतएव यह मानना कि एक जीव दूसरे को मार देता है, बिल्कुल ही अज्ञानता है। जो जीव यह मानता है कि मैं परजीवों को दुःखी अथवा सुखी करता हं तो वह मोह और अज्ञान के वशीभूत है।
इस प्रकार समयसार में कर्म की प्रधानता दिखाई गई है।
नियमसार:
नियमसार के चौथे अध्याय व्यवहार-चारित्र में शरीरधारी, बीज आदि किसी भी प्रकार के जीव का घात करने या कष्ट
जह पुण सो चेव णरो गेहे सव्वम्हि प्रवरिण ये सन्ते । रेणु बहुलम्मि ठाणे करेइ सत्थेहि वायामं ॥२४२।।
एवं सम्मादिट्ठी वटैतो बहुविहेसु जोगेसु ।
अकरतो उवनोगे रागाई ण लिप्पइ रयेण ॥२४६।। १. जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तहिं ।
सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२४७।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । पाउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कयं तेसि ||२४८।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
पाउं न हरंति तुह कह ते मरणं कयं तेहिं ।।२४६।। २. जो अप्पणा दु मण्णदि दुहिदसुहिदे करेमि सत्तेति ।
सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२५३।।
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