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जैन धर्म में अहिंसा
द्वितीय अध्याय ज्ञेयतत्त्वाधिकार में बताया गया है कि जीव यदि अपने या दूसरे के प्राणों का घात करता है तो उसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का बन्ध प्राप्त होता है। आगे चलकर अशुभोपयोग का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। जीव अशुद्ध चैतन्य हो, इन्द्रियविषय तथा क्रोधादि से ग्रस्त हो, मिथ्या शास्त्र का सुननेवाला हो, अशुभ ध्यान में रत मनवाला तथा दूसरों की शिकायत करनेवाला, साथ ही (उग्र) हिंसादि करने में लीन और वीतराग आदि के पथ के विपरीत (उन्मार्ग पर) चलनेवाला हो तो निश्चय ही उसे अशुभोपयोग की प्राप्ति होती है ।
तृतीय अध्याय चारित्राधिकार में द्रव्यलिंग और भावलिंग की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि परमाणु मात्र के परिग्रह से रहित, लोंच करनेवाले, हिंसा आदि पापों से विरत, शरीर की सजावट से विमुख मुनीश्वर को द्रव्यलिंग होता है। इसी अध्याय में श्रामण्य पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि मुनि जो कुछ भी करे यत्नपूर्वक करे ताकि किसी प्रकार की हिंसा न हो।
१. पाणाबाचं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं ।
जदि सो हवदि हि बंधो गाणावरणादिकम्मेहिं ॥५७।। २. विसयकसानोगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोठ्ठिजुदो ।
उग्गो उम्मग्गपरो उवमोगो जस्स सो असुहो ॥६६।। ३. जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्ध।
रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्म हवदि लिगं ॥५॥ अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे। समणो विहरदु पिच्चं परिहरमाणो णिबंधाणि ॥१३॥ अपयत्ता वा चरिया सयणासपठाणचंकमादीसु । समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतत्तिय त्ति मदा ॥१६॥ मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स रात्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥१७॥ अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो ति मदो । चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले रिभरुवलेवो ॥१८॥
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