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जैन धर्म में अहिंसा जो सुगन्ध के वश में आ जाता है वह अनेक त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा करता है।
जीभ का विषय रस है, अतः प्रिय रस राग और अप्रिय रस द्वेष के कारण हैं; जो वीतरागी है वह दोनों प्रकार के रसों में समता का भाव रखता है। किन्तु रस के वशीभूत व्यक्ति त्रस एवं स्थावर जीवों को पीड़ा पहुंचाता है तथा उनकी हिंसा करता है।
शरीर का ग्राह्य विषय स्पर्श है, इसलिए सुखदायक स्पर्श राग और दुःखदायक स्पर्श द्वेष पैदा करता है। जो वीतरागी हैं, वे दोनों प्रकार के स्पर्शों को बराबर समझते हैं। लेकिन जो सुखद स्पर्श की आशा में रहता है वह अनेक चराचर जीवों की हिंसा करता है।
अध्ययन चौंतीस में लेश्या के प्रकारों तथा कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है--
____ "पांचों आस्रवों में प्रवृत्त, तीन गुप्तियों में अगुप्त, छः काय की हिंसा में रत, तीव्र आरम्भ वर्तनेवाला, क्षुद्र, साहसी, निर्दय, नृशंस, इन्द्रियों को खुली रखनेवाला, दुराचारी पुरुष कृष्ण लेश्या के परिणाम वाला होता है।"
घाणस्स गंधं गहणं वयंति तं रागहेतु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं ममणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥४८॥ गंधाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ गरूवे । चित्तेहि ते परितावेई बाले पीलेइ प्रत्तद्वगुरु किलिढें ॥५३॥ जिब्भाए रसं गहणं वयंति तं रागहेउ तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥६१॥ रसाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ णेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तगुरु किलिट्ठे ॥६६॥ ३. फासस्स कायं गहणं वयंति तं रागहेतु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥७४।। ४. सूत्र २१, २२.
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