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जैन धर्म में अहिंसा है, इसमें विजयघोष ने 'यज्ञ' और 'ब्राह्मण' पर प्रकाश डालते हुए कहा है
"जो त्रस और स्थावर प्राणियों को संक्षेप या विस्तार से जानकर त्रिकरण-त्रियोग से हिंसा नहीं करता, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥२३॥"
__"सभी वेद पशुओं के बध के लिए हैं और यज्ञ पापकर्म का हेतु है। ये वेद और यज्ञ, यज्ञकर्ता दुराचारी का रक्षण नहीं कर सकते क्योंकि कर्म अपना फल देने में बलवान है ॥३०॥""
अध्ययन छब्बीस में 'प्रतिलेखना' की विवेचना करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिलेखना के समय प्रमाद करता है, वह पृथ्वीकाय, अटकाय, तेजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय जीवों की विराधना करता है और ठीक इसके विपरीत जो बिना प्रमाद के प्रतिलेखना करता है, वह इन षट्कायों की रक्षा करनेवाला होता है। जहाँ तक भोजन-ग्रहण करने या त्यागने की बात है, एक धैर्यवान साध या साध्वी के लिए १. रोग होने पर, २. उपसर्ग आने पर, ३. ब्रह्मचर्य रक्षार्थ, ४. प्राणियों की दया के लिए, ५. तप करने के लिए तथा ६. शरीर से संबंध छोड़ने के लिए भोजन त्याग देना संयम-उल्लंघन नहीं समझा जा सकता।
अध्ययन उनतीस में अपरिग्रह को प्रकाशित करते हए कहा गया है कि 'क्षमा' करके जीव परीषहों पर अधिकार पा जाता है। १. सूत्र २३, ३०; सम्पूर्ण अध्ययन भी देखें। २. पुढवी आउक्काए तेऊ वाऊ वरणस्सइ तसाणं ।
पडिलेहणापमत्तो छण्हं पि विराहो होइ ॥३०।। पुढवी आउक्काए तेऊ वाऊ वस्सइ तसारणं।
पडिलेहणा पाउत्तो छण्हं संरक्खो होइ ॥३१।। ३. सूत्र ३५. ४. खंतीए णं भंते जीवे किं जणयइ? खंतीए णं परीसहे जिणेइN४६||
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