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जैन धर्म में हिंसा अध्ययन नव, ग्यारह तथा बारह में क्रोध, मान एवं प्रमाद आदि को नरक का कारण एवं शिक्षा प्राप्त करने में बाधास्वरूप बताया गया है तथा हिंसा को पापसंचय का मूल स्रोत। अतएव इन्द्रिय-दमन करनेवाले लोग षड़काय जीव की हिंसा से वंचित रहते हैं।'
अध्ययन अठारह में कंपिलपुर के राजा तथा अनगार की कहानी प्रस्तुत की गई है, जिसमें अनेक मृगों की हत्या करने वाला राजा अनगार के सामने नतमस्तक होकर खड़ा होता है और क्षमा याचना करता है। तब अनगार निम्नलिखित शब्दों में राजा को उपदेश देता है :
__ "हे पार्थिव ! तुझे अभय है। अब तू भी अभय दाता बन । इस नाशवान् संसार में, जीवों की हत्या में क्या आसक्त हो रहा है।" अर्थात् जीवहिंसा न करने वाला अभय-दाता हो जाता है।
अध्ययन उन्नीस में माता-पिता एवं पुत्र-संवाद में माता-पिता के द्वारा कहा गया है कि मित्र या शत्र जो भी हों जीवन पर्यन्त उनके साथ समता का भाव रखना तथा हिंसा से विरत रहना बहुत ही कठिन व्यापार है। आगे के सूत्रों में यह भी मिलता है कि समता का निभाना तभी संभव है जब व्यक्ति ममत्व, अहंकार, सर्वसंग आदि का त्याग कर दे यानी सुख-दुःख, जीवनमरण सबको बराबर देखे । ३ १. अध्ययन ६, सूत्र ५४; अध्ययन ११. सूत्र ३,७; अध्ययन १२, सूत्र १४,
३६.४१. २. सूत्र ११. ३. समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे।
पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करं ।।२६।। णिम्ममो रिणरहंकारो णिस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य ॥६॥ लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो गिदापसंसासु तहा माणावमाणो ।।६१५
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