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जैन धर्म में हिंसा है।' यद्यपि वरुणनाग के पौत्र एवं उसके बालमित्र के युद्ध में भाग लेने के बाद स्वर्ग में जाने की चर्चा भी हुई है, लेकिन साथ . ही यह भी कहा गया है कि युद्ध से अलग होकर उन दोनों ने ही संथारा आदि करके समाधि ली, फिर स्वर्ग गए। यहाँ पर स्पष्टतः नहीं किन्तु अस्पष्ट ढंग से इस सिद्धान्त का विरोध किया गया है कि युद्ध में मरने वाले स्वर्ग जाते हैं। उत्तराध्ययन :
इस मूलसूत्र में ३६ प्रश्नों ( अथवा विषयों ) के उत्तर संकलित हैं जो महावीर के द्वारा उनके अन्तिम चातुर्मास के समय ( किन्तु उनसे न पूछने पर ही ) दिये गये थे, जो कि इसके ३६ अध्ययन के रूप में हैं, और इसी कारण से इसका नाम उत्तराध्ययन है। यह एक धार्मिक काव्य है। इसमें विनय, परीषह, अकाममरण, प्रव्रज्या, यज्ञ, समाचारी, मोक्षमार्ग, तपोमार्ग, कर्मप्रकृति, लेश्या आदि के वर्णन हैं जो उपमा, रूपक एवं संवादों की बहलता के कारण अत्यन्त रोचक हैं। डा०विण्टरनित्ज ने इसकी तुलना महाभारत, धम्मपद एवं सुत्तनिपात आदि के साथ की है। भद्रबाहु तथा जिनदासगणि ने इस पर क्रमशः नियुक्ति एवं चूणि लिखी है। शान्तिसूरि, नेमिचन्द्र सूरि, लक्ष्मीवल्लभ, जयकीर्ति, कमलसंयम, भावविजय, विनयहंस और हर्षकुल ने क्रमशः शिष्यहिता आदि विभिन्न टीकाएँ लिखी हैं। शाण्टियर तथा जैकोबी ने क्रमशः इसका संशोधन एवं अंग्रेजी अनुवाद किया है।
इसके छठे अध्ययन में कहा गया है कि अज्ञानी जन दुःख भोगने वाले हैं, इसलिए पण्डित लोगों को चाहिए कि मोह-जाल से निकल कर सत्य की खोज करें तथा प्राणियों में मंत्री की भावना रखें। चूँकि सभी प्राणियों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय मालूम होता है, सबको अपनी आत्मा से प्यार होता है, वे किसी भी प्राणी की हत्या नहीं करें। १. सूत्र १६,१०६. २. निरयावलिका, प्रथम अध्ययन, पृष्ठ ६५. ३. समिक्स पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू।
अप्परणा सच्चमेसेज्जा, मेत्ति भूएसु कप्पए ॥२॥
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