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महिंसा-संबंधी जैन साहित्य
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__अध्ययन सात में अज्ञानी, हिंसक, मृषावादी एवं मांसभक्षक आदि को नरकायु को प्राप्त करनेवाला बताया गया है।'
अध्ययन आठ में साधु के कर्त्तव्य पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि साधु को चाहिए कि सब प्रकार के परिग्रह एवं क्लेश का त्याग करे, सभी जीवों की रक्षा करे। अपने को साध घोषित करने के बाद भी जीववध ( यानी जीववध आदि के कूपरिणाम ) से अनभिज्ञ न रहे अन्यथा नरकगामी होना पड़ेगा। तीर्थंकरों ने प्राणिवध के अनुमोदन को भी दूःखमय बन्धन का कारण बताया है, अतः हिंसा-विरत होना ही साधु के लिए श्रेयस्कर होता है। जो व्यक्ति प्राणियों का घात नहीं करता, वह छः काय और पाँच समिति को धारण करनेवाला होता है और उससे पाप वैसे अलग हो जाते हैं, जैसे ऊँची जगह से पानी। अतएव साधु मन, वचन और शरीर से संसार के त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा न करे।
अज्झत्थं सव्वो सव्वं दिस्स पाणे पियायए।
न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए ॥६॥ १. हिसे बाले मुसावाई श्रद्धाणम्मि विलोवए ॥५॥
माउयं नरए कंखे जहाएसं व एलए ॥७॥ २. सव्वं गंथं कलहं च विप्पजहे तहाविहं भिक्खू ।
सन्वेसु कामजाएसु पासमाणो न लिप्पई ताई ॥४॥ समणानुएगे वदमारणा पारणवह मिया प्रयाणंता । मंदा निरयं गच्छति बाला पावियाहिं दिट्ठीहि ॥७॥ न हु पाणवहं अणुजाणे सुच्चेज्ज कयाइ सव्व दुक्खाणं । एवारिएहिं प्रक्खायं जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो पारणे य णाइवाएज्जा से समीए त्ति वुच्चई ताई । तो से पावयं कम्मं निज्जाइ उदगं व थालाउ ।।६।। जगनिस्सिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंडं मरण सा वयसा कायसा चेव ॥१०॥
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