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जैन धर्म में अहिंसा "भिक्षुओ! इसलिए, तुम्हें ऐसा सीखना चाहिए-मैत्रीचेतोविमुक्ति मेरी भावित होगी।''
कल्याणमित्त सुत्त में कल्याणमित्रता को मोक्ष के शुभागमन का लक्षण बताया है और कहा है कि जिस प्रकार आकाश में लालिमा देखने से सूर्योदय की आशा हो जाती है, उसी प्रकार कल्याणमित्रता आ जाने पर अष्टांगिक मार्ग से लाभान्वित होने की आशा हो जाती है
"भिक्षुओ ! अष्टांगिक मार्ग के लाभ के लिए एक धर्म बड़े उपकार का है। कौन एक धर्म है ? जो यह 'कल्याण मित्रता'।"२
इस प्रकार संयुत्त निकाय में अहिंसा, हिंसा का परिणाम, हिंसारहित यज्ञ, अप्रमाद, एवं मैत्री-भावना के विवेचन अहिंसा के सिद्धान्त की अच्छी तरह पुष्टि करते हैं । ___ सुत्तनिपात-इसके 'मेत्तसुत्त' में सभी प्राणियों के प्रति मित्रता के भावप्रदर्शन को ब्रह्मविहार कहा गया है, जिसे वैदिक साहित्यानुसार ब्रह्म-ज्ञान या ब्रह्म-साक्षात्कार कहा जाये तो शायद अनुचित न होगा। यहाँ कहा गया है कि शान्तिपद को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह अत्यन्त ऋजु बने; उसके वचन प्रिय एवं विनीत हों, वह सरल एवं संतोषी हो; वह छोटा से छोटा कोई ऐसा कार्य न करे, जिससे उसे ज्ञानी लोग दोषी ठहरायें। सभी प्राणियों के सूख एवं कल्याण की कामना करे। वह सदा सोचे-'जंगम या स्थावर, दीर्घ या महान्, मध्यम या हस्व, अणु या स्थल, दृष्ट या अदष्ट, दूरस्थ या निकटस्थ, उत्पन्न या उत्पत्स्यमान जितने भी प्राणी हैं, वे सभी सुखपूर्वक रहें' । वह किसी की वंचना तथा अपमान न करे। सभी प्राणियों को वह उस प्रकार देखे जैसे एक मां अपने एकलौते पुत्र को देखती है। वरबाधा से रहित हो, ऊपर-नीचे-तिरछे सभी स्थानों के प्राणियों की १. संयुत्त निकाय, पहला भाग, पृ० ३०६-३०७. २. संयुत्त निकाय, दूसरा भाग, पृ० ६३३-६३५.
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