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जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा
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के छिद्र में प्रवेश करना संभव मान लिया जा सकता है लेकिन एक धनी व्यक्ति का ईश्वरीय राज्य में स्थान पाना बिल्कुल संभव नहीं है ।' इन बातों से ईसा मसीह ने अहिंसा के आर्थिक एवं सामाजिक रूप पर प्रकाश डाला है ।
दान को भी इस परम्परा में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है । इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि आध्यात्मिक प्यार दान का ही साररूप है यानी दान के द्वारा ही आध्यात्मिक जीवन व्यतीत किया जा सकता है । जिस प्रकार जहाँ आध्यात्मिक या देवी ज्ञान एवं प्यार होता है वहाँ ईश्वर होता है, ठीक उसी तरह वास्तविक आस्था एवं दान में भी ईश्वर का वास होता है । या यों कहा जाए कि सच्ची आस्था एवं सही दान ही ईश्वर है तो कोई अनुचित न होगा । ईश्वर, आस्था एवं दान को अलग नहीं किया जा सकता । कारण, ईश्वर से अलग होने के बाद या तो इन दोनों का अस्तित्व ही नहीं रह जाता और यदि रहता भी है तो अपूर्ण या असफल रूप में । यदि कोई ईश्वर को जानने का दावा करता है और वह दान के महत्त्व को नहीं जानता है इसका मतलब है कि वह ईश्वर को अधूरा ही जानता है । वह ईश्वर को ओठों से ही जानता है दिल से नहीं, अर्थात् उसे केवल किताबी ज्ञान की प्राप्ति हो सकी है हार्दिक ज्ञान की नहीं। क्योंकि दान ही तो उस आस्था का सार है, जिसके द्वारा ईश्वर को जाना जा सकता है ।
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ईसा ने अपने अनुयायियों को समझाते हुए ऐसा भी कहा है- 'मेरा मांस ही वास्तविक मांस है और मेरा खून ही शुद्ध पेय है । जो मेरा मांस खाता है और मेरा खून पीता है वह मुझ में रहता है और मैं उसमें रमता हूँ । इससे यह नहीं समझा जा सकता कि मसीह मांस आदि ग्रहण करने के पक्ष में थे । उन्होंने मांस तथा खून का व्यवहार प्रतीकात्मक ढंग से किया है । उनके व्यवहार में
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1. G. W. R., p. 182.
2. True Christian Religion, p. 420.
3. G. W. R., p. 422:
4. Bible, John VI, 53-5, 56.
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