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अहिंसा-संबंधी जैन साहित्य
१०५ अर्थात् जो परीषह सुखद हैं वे शीत कहलाते हैं तथा जो दुःखद हैं वे उष्ण । अतः साधक को शीत एवं उष्ण दोनों प्रकार के परीषहों को समान दृष्टि से देखना चाहिए । इसमें चार उद्देशक हैं।
चतुर्थ अध्ययन-तत्त्वार्थ की श्रद्धा करने को सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहते हैं ।' यहाँ पर कहा गया है कि सम्यक्त्व को अच्छी तरह सम्पादित करके ही कोई व्यक्ति मुक्ति पा सकता है। इस अध्ययन में भी चार उद्देशक हैं। इसके दूसरे उद्देशक में यज्ञादि से सम्बन्धित ब्राह्मण-वचन को अनार्य-वचन कहा गया है।
पंचम अध्ययन-चूकि सम्यग्दर्शन के लिए सम्यकचारित्र की आवश्यकता होती है, सम्यक चारित्र को संसार का सार बताते हुए इस अध्ययन में यह सम्पादित किया गया है कि लोक का सार धर्म, धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम और संयम का सार निर्वाण है। इसमें छः उद्देशक हैं तथा इसके प्रथम उद्देशक में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन जीवों की हिंसा करता है, वह सदा छः काय जीव-जन्तुओं में जन्म-मरण धारण करता रहता है तथा मोक्ष नहीं पाता।
षष्ठ अध्ययन-धूत का अर्थ होता है शुद्धि, जो दो प्रकार की होती है-द्रव्य-धूत यानी शरीरादि का मैल दूर करके शरीर की शद्धि प्राप्त करना और भावधूत यानी मन के मैल को दूर करना । इस अध्ययन में राग-द्वेष आदि मन के मैल को त्यागकर मन की शुद्धि करने को कहा गया है ।
सप्तम अध्ययन-यह अध्ययन विच्छिन्न होने के कारण लुप्त समझा जाता है।
१. प्राचारांग-प्रात्माराम जी, प्रथम भाग, पृष्ठ ३६८. २. वही, पृष्ठ ३८७. ३. लोगस्स सारो धम्मो धम्मपि य नाणसारियं विति ।
नाणं संजमसारं संजमसारं च निव्वाणं ।। भाचारांग-मात्मारामजी, प्रथम भाग, पृष्ठ ४०५.
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