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अहिंसा-संबंधी जैन साहित्य दोष तो बहुत से हैं, जिनमें से हिंसा या पीड़ा देना एक है। जो व्यक्ति ऊपर, नीचे, तिरछा रहने वाले जीवों की हिंसा से निवत्त रहता है उसे निर्वाण की प्राप्ति होती है।'
पंचम अध्ययन में भी निर्देशित किया गया है कि वे अज्ञानी जीव जो अपने जीवन की रक्षा के लिए अन्य जीवों को दुःख देते हैं, उनकी हिंसा करते हैं, नरक में जाते हैं, जहां उन्हें अत्यन्त पीड़ा भोगनी पड़ती है । अतः जो विद्वान् व्यक्ति हैं उन्हें नरक की पीड़ा को ध्यान में रखते हुए अपने को सभी हिंसापूर्ण कार्यों से बचाना चाहिए तथा सभी में श्रद्धा रखते हुए कषायों का ज्ञान करना चाहिए और उनसे बचना चाहिए ।
सप्तम अध्ययन में यह बताया गया है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, तृण, वृक्ष, बीज और त्रस तथा अण्डज, जरायुज, स्वेदज और रसज सभी के अपने-अपने शरीर हैं और इन सब में सुख प्राप्त करने की कामना रहती है। इसलिए इन प्राणियों की हिंसा करने वाले बारबार इन्हीं जीवों के रूप में जन्म लेते और मरते हैं। आगे चलकर अग्निकाय के आरम्भ से बचने के लिए कहा गया है।
अष्टम अध्ययन में कहा गया है कि जो कपटी या छली हैं वे अपने सुख के लिए दूसरों का छेदन-भेदन करते हैं, वे असंयमित जीवन व्यतीत करते हुए मन, वचन और काय से इस लोक और परलोक दोनों के लिए ही जीवहिंसा करते हैं। जिसके कारण हिंसित जीव उन्हें भी दूसरे जन्मों में वैसे ही कष्ट देते और मारते हैं जैसे वे
१. उद्देशक ४, सूत्र २०. २. उद्देशक १, सूत्र ३-५.
उद्देशक २, सूत्र २४. ३, पुढवी य माऊ अगरणी य वाऊ, तण रुक्ख बाया य तसा य पारणा ।
जे अंडया जे य जराउ पारणा, संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥१॥ एयाई कायाई पवेदिताई, एतेसु जाणे पडिलेह सायं ।
एतेण कएण य प्रायदंडे, एतेसु या विपरियासुविति ॥२॥ ४. सूत्र ५-७.
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