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जैन धर्म में महिसा
इन्हें कष्ट पहुँचाये अथवा मारे रहते हैं ।' जीव को पीड़ा न दे और बाहर एवं भीतर से करता हुआ संयमित जीवन-यापन करे । २
नवम अध्ययन में बताया गया है कि जो साधु है उसे हिंसा का पूर्णरूपेण परित्याग कर देना चाहिए। उसे बोल चाल, पाखानापेशाब-त्याग आदि जीवन के सभी क्रिया-कर्मों को करते हुए अहिंसा का ध्यान रखना चाहिए । अ
दशम अध्ययन में कहा गया है कि साधु किसी प्रकार का आरम्भ न करता हुआ संयमित जीवन पालन करे, त्रस और स्थावर प्राणियों को पीड़ा न पहुँचावे, क्योंकि हिंसा से पाप होता है, और सबको अपने समान समझे । इसके अलावा इस अध्ययन में क्रूरतापूर्ण काम को पाप कहा गया है और इस पाप से बचने के लिए भाव-समाधि निर्देशित की गई है । इसलिए विचारशील पुरुष भाव-समाधि में रत रहकर किसी जीव के प्राणघात से अपने को वंचित रखे । साधु न हिंसायुक्त कथा कहे और न हिंसायुक्त कार्य करे, क्योंकि हिंसा सर्वदा दुःखदायी होती है । "
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अतएव साधु किसी इन्द्रियों का दमन
एकादश अध्ययन में भी अहिंसा का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि व्यक्ति किसी भी प्राणी को कष्ट न दे, यही अहिंसा का सिद्धान्त है और यही उत्तमज्ञान भी है ।" इसमें अन्नदान, जलदान की भर्त्सना भी की गयी है । क्योंकि जो ऐसे दान की प्रशंसा करते हैं वे बध-क्रिया को बढ़ाते हैं और जो दान कर्म को रोकते हैं वे प्राणियों की वृत्ति पर आघात करते हैं । "
१. वही ।
२. सूत्र २०.
३, सूत्र १५, १६, २५, २७ ओर ३१.
४. सूत्र १, २, ३, ५, ६, ७, ६, १०, १२, १३ तथा २१. ५. एयं खुपाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचण ।
श्रहिंसा समयं चेव, एतावंतं विजाणिया ॥ १० ॥ ६. सूत्र १६, २०.
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