________________
१०३
अहिंसा-संबंधी जैन साहित्य प्राप्त करने, पूजा-पाठ सम्पन्न करने, जन्म-मरण आदि से मुक्ति पाने के हेतु हिंसा आदि दुष्कर्म करते हैं।'
द्वितीय उद्देशक-इसमें यह बताया गया है कि किस प्रकार पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा होती है और साधु को उस हिंसा से कैसे बचना चाहिए।
तृतीय उद्देशक-इस उद्देशक में बताया गया है कि अपकाय में भी चेतना होती है, इसे भी स्पर्शादि से पीड़ा पहुँचती है । अतः मुनि को अपकाय जीवों की रक्षा का उतना ही ध्यान रखना चाहिए जितना कि और जीवों के लिए।
चतुर्थ उद्देशक-इसमें तेजस्काय की हिंसा को त्यागने का विधान किया गया है क्योंकि अप काय की तरह तेजस्काय भी चेतनायुक्त होता है और उसे भी कष्ट की अनुभूति होती है। अग्निकाय यानी तेजस्काय के आरम्भ का निषेध करते हुए कहा गया है
"अग्निकाय के आरम्भ से होने वाले अनर्थ को जानकर बुद्धिमान पुरुष इस बात का निश्चय करे कि प्रमाद के कारण मैं पहले अग्निकाय के आरम्भ को करता रहा हूँ, इस समय उसका परित्याग करता हूँ।"२ - पंचम उद्देशक-इस उद्देशक में वनस्पतिकाय का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति जीवाजीव को अच्छी तरह जान लेता है तथा मुनिधर्म को अंगीकार करके यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं वनस्पतिकाय का आरम्भ-समारम्भ नहीं करूँगा, वह वनस्पतिकाय के आरम्भ से निवृत्त समझा जाता है और ऐसे त्यागपूर्ण जीवन की साधना सिर्फ जैन मार्ग में ही संभव है। ऐसे त्यागी पुरुष को अनगार की संज्ञा दी गई है। १. इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए
दुक्खपडिघायहेउं ॥११॥ सूत्र १४ एवं १५ भी देखें। २. पाचारांग-हि० अनु० आत्मारामजी, प्रथम भाग, पृष्ठ १२६. ३. तंणो करिस्सामि समुद्राए, मत्ता मइमं, अभयं, विदित्ता, तं जे णो करए,
एसोवरए, एत्योवरए, एस प्रणगारेत्ति पवुच्चई ॥४०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org