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जैन धर्म में अहिंसा षष्ठ उद्देशक -इसमें त्रसकाय जीवों की चर्चा की गई है तथा कहा गया है कि उनकी हिंसा करने से बचना चाहिए।'
सप्तम उद्देशक-अन्य उद्देशकों की तरह इसमें वायुकाय का वर्णन हुआ है। वायुकायिक जीवों की हिंसा भी उसी प्रकार दुःखदायी होती है, जैसे अन्य प्राणियों की हिंसा। अतः इस तथ्य को समझने वाला व्यक्ति वायुकायिक जीवों की रक्षा करता है। जो अपने सुख-दुःख को जानता और समझता है वही अन्य प्राणियों क सुख-दुःख को भी जानता है। जो अन्य जीवों यानी जगत् के सुखदु.ख को जानता है वह अपने सुख-दुःख को भी जानता है । इसलिए मुनि को चाहिए कि अपने तथा अन्य सभी के सुख-दुःख को एक तरह समझे और ऐसा समझते हुए सभी प्राणियों की रक्षा करे।' ___इस प्रकार प्रथम अध्ययन में षट्कायों की सजीवता पर बल देते हुए यह निर्देशित किया गया है कि मुमुक्षु को यह जानना चाहिए कि षट्काय के आरम्भ-समारम्भ से बन्धन होता है, अतः किसी भी प्रकार के आरम्भ-समारम्भ से उसे बचने का प्रयास करना चाहिए।
द्वितीय अध्ययन-इस अध्ययन के नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें लोकविजय प्राप्ति के साधन का ज्ञान कराया गया है। लोक का अर्थ कषाय यानी राग-द्वेष होता है, जिसे भावलाक कहते हैं। द्रव्य-लोक, लोक का वह रूप है, जिसका सम्बन्ध इन्द्रियों से होता है। लेकिन भाव-लोक पर विजय प्राप्त कर लेने पर व्यक्ति स्वतः द्रव्य-लोक पर विजय प्राप्त कर लेता है। राग-द्वेष के अभाव में इनसे उत्पन्न होने वाली कोई भी क्रिया नहीं होती। इस अध्ययन में छः उद्देशक हैं। इसके दूसरे उद्देशक में अहिंसा के सिद्धान्त पर जोर दिया गया है।
तृतीय अध्ययन-शीत और उष्ण के अर्थ क्रमशः ठण्डा और गर्म होते हैं किन्तु इस अध्ययन में ये परीषहों के दो रूपों में आए हैं, १. प्राचारांग-आत्मारामजी, प्रथम भाग, पृष्ठ १६३, १६५. २. वही, पृष्ठ १७५. ३. सूत्र ८१.
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