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जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा
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से ही उन्होंने अपना उपदेश दिया । फिर भी उनके उपदेशों की जानकारी के ये पाँच स्रोत हैं
१. गॉसपेल्स तथा नयी टेस्टामेंट ( Gospels and the writings of New Testament)
२. एपोक्राइफा ( Apocrypha )
३. फिलो की कृतियाँ ( Works of Philo )
४. एनॉक का ग्रन्थ ( Book of Enoch )
५. डेनियल का ग्रन्थ ( Book of Daniel )
ईसा से पूर्व प्रचलित धर्मादेशों में ये सब उपदेश प्रसिद्ध थे - व्यभिचार मत करो, हिंसा मत करो, चोरी मत करो, गलत साक्षी मत बनो एवं माता-पिता के प्रति श्रद्धा का भाव रखो। इन नैतिक नियमों को ईसा ने स्वीकार किया, इसमें कोई सन्देह नहीं, लेकिन इन सभी का विश्लेषण उन्होंने अपने ढंग से किया । उन्होंने सर्व साधारण को सूचित करते हुए कहा कि यद्यपि पहले से ऐसा कहा गया है कि किसी की हत्या न करो अन्यथा जो किसी की हत्या करेगा वह निर्णयात्मक दोष का भागी होगा । लेकिन मैं कहता हूँ कि जो बिना किसी कारण ही अपने भाई से नाराज हो जाता है वह निर्गयात्मक दोष का भागी बन जाता है । अतएव यदि तुम किसी वेदी पर कुछ चढ़ाने जा रहे हो यानी कोई पूजा-पाठ करने जा रहे हो और इस बात से तुम्हारा भाई सहमत नहीं है तो पहले अपने भाई की सहमति ले लो फिर पूजा-पाठ प्रारम्भ करो । कारण, ऐसा न करने से आपस का प्रेम भंग हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक परेशानियाँ आ सकती हैं। आगे चतुर्थ धर्मादेश को सामने रखते हुए उन्होंने कहा है कि 'जैसे को तैसा' का सिद्धान्त बिल्कुल गलत है । आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत निकाल लेने से समस्या का वास्तविक समाधान नहीं मिल सकता । ऐसा करने से शान्ति मिल जाए यह भी नहीं कहा जा सकता । अतएव किसी भी दुर्व्यवहार का प्रतिकार न करो । यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मार देता है तो दूसरा भी गाल उसके सामने
1. Bible, Matthew V.
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