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जैन धर्म में अहिंसा वे कहते हैं न कोई मेरा शत्रु है और न कोई मित्र ही। मेरे लिए सभी समान हैं, मेरी तो सबसे बनती है।
सिक्ख परम्परा में पांच धर्मगत चिन्हों को महत्त्वपूर्ण समझा गया है-कड़ा, कछहरा, कृपाण, केश एवं कला । कृपाण सामान्यतः हिंसासूचक माना गया है। अत: कोई ऐसा समझ सकता है कि सिक्ख धर्म में हिंसा की प्रवृत्ति बलवती है। किन्तु जहां तक कृपाण की बात है, वह अहिंसा के पोषण के निमित्त रखा जाता है। उससे काम वहाँ लिया जाता है जहाँ अन्याय न्याय को दबाता है। सिक्ख धर्म अन्याय को चुप-चाप सह लेने की राय नहीं देता। यह ईसाई मत की तरह प्रतिपादन नहीं करता कि कोई एक गाल पर एक तमाचा मार देता है तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो। यह उस चोट को सहने को कभी भी तैयार नहीं होता जो किसी अनुचित कारण से पहँचाई गई हो। इसके अनुसार दैवी प्रवृत्ति या शुभ प्रवृत्ति को फैलाने के लिए राक्षसी या अशुभ प्रवृत्ति को मिटाना आवश्यक है, चाहे वह हिंसात्मक तरीके से ही क्यों न हटाई जाए। कृपाण ही से सही, लेकिन दृष्टजन को दबाना या दूर करना तो आवश्यक है ताकि सज्जन सचाई के मार्ग पर चल सकें और धार्मिक एवं नैतिक विचारों का विकास हो । इसीलिए गुरुओं ने कहा है कि बिना शस्त्र के कभी भी नहीं रहना चाहिए, तथा हिम्मत के साथ अन्याय का सामना करना चाहिए।
जहाँ तक खान-पान की बात है, इस परम्परा में विशेष भोजन को दो नामों से जाना जाता है-कड़ाह प्रसाद तथा महा प्रसाद । महा प्रसाद में मांस आदि आते हैं। इसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि शिकार से प्राप्त मांस ग्रहण करना चाहिए और यदि शिकार से मांस न मिल सके तो झटके से मारे गए पशु का मांस खाना भी दोषरहित है। इस सम्बन्ध में गुरु गोविन्द सिंह के वचन का हवाला दिया जाता है। मांसभक्षी सिक्ख कहते हैं कि गुरु साहब ने अपने हाथ से काटे गए पशु के मांस को ग्रहण करने १. कच्छ, कृपारण न कबहूँ त्यागे।
सम्मुख लरै न रण ते भागै ॥ रहितनामा-भाई नन्दलाल ।
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