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जैनेतर परम्परामों में अहिंसा
७६ को कहा है । लेकिन गुरु साहब के कहने का वास्तविक अर्थ क्या था उसे गौण करके रसलोलुपतावश सिक्खों (गृहस्थ ) ने उनके वचनों का अपने अनुसार अर्थ लगाया या समझा है। यदि उन्होंने कहा भी तो उसके पीछे कोई और राज था। वे असल में यह चाहते थे कि यदि किसी की प्रकृति इतनी बलवती हो जाती है कि वह मांस खाए बिना अपने को रोक नहीं सकता है तो ऐसी हालत में वह स्वयं किसी पशु का वध करके उसका मांस भक्षण करे, ताकि पशु की हत्या करते समय उसके मन में दया भाव जग सके। इस सम्बन्ध में सदन कसाई की कथा प्रसिद्ध है। सदन को राजा से आज्ञा मिली मांस प्रस्तुत करने की। लेकिन जब वह मांस प्राप्त करने के लिए बकरे को मारने चला तब रात होने वाली थी। अतएव उसने सोचा कि बकरे को जान से मार देने पर उसका पूरा मांस खर्च न हो सकेगा और वह खराब हो जाएगा, इसलिए अच्छा है कि उसका एक अंग ही काटा जाए। इस विचार से वह बकरे के निकट गया। किन्तु सदन को देखते ही बकरा हंस पड़ा। बकरे को हँसते हुए देखकर सदन बहुत ही आश्चर्यित हुआ क्योंकि उस दिन तक उसने कभी बकरे को हँसते हुए नहीं देखा था, यद्यपि उसने बकरे आदि अनेक पशुओं का वध किया था। फिर उसने बकरे से हंसने का कारण पूछा। तब बकरे ने उत्तर स्वरूप कहा कि मेरा-तेरा अदला-बदला पूर्व जन्मों से होता आ रहा है। कभी तुम बकरा बनते हो तो मैं कसाई और कभी मैं बकरा तो तुम कसाई । हम दोनों बहुत दिनों से एक-दूसरे की हत्या करते आ रहे हैं लेकिन इस बार जो तुम सोच रहे हो यह तुम्हारा एक नया उपक्रम होगा। यह सुनकर सदन को ज्ञान हो गया कि संसार में जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है और ऐसा सोचकर उसने अपने विचार को बदल दिया। आगे चलकर वह एक प्रसिद्ध भक्त बन गया और आजीवन अहिंसा के पथ पर चलता रहा। हो सकता है कि यह कथा मनगढंत ही हो, लेकिन सामान्यतः भी ऐसा देखा जाता है कि मांस-मछली खाना तो बहुत से लोग पसन्द करते हैं परन्तु जीव-जन्तुओं की हत्या अपने हाथ से करना नहीं चाहते हैं। कारण, किसी जीव को मारते समय उनके दिल में दया आ जाती है ।
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