________________
जैन धर्म में अहिंसा इसके बावजूद भी गुरुग्रन्थ साहब में कहा गया है
"जे रत लग्गे कपड़े जामा होए पलीत । जे रत पीवें मांसा तिन क्यों निर्मल चीत ॥"
अर्थात् रक्त या खून लग जाने से वस्त्र गन्दा हो जाता है, उस में दाग लग जाती है, फिर कैसे माना जाए कि रक्तयुक्त मांस खाने से या मांस के साथ लगे हुए खून को पीने से किसी व्यक्ति का मन मैला नहीं होता? यानी मांस खाने से चित्त अवश्य ही दूषित होता है। इसलिए मांसादि ग्रहण करना दोषपूर्ण है। इस प्रकार सिक्ख परम्परा में विशुद्ध सात्त्विक भोजन करने का विधान है, जिससे अहिंसा के नियम का पालन होता है। इस सम्बन्ध में कबीरदास जी का कहना है कि लोग इतना जुर्म क्यों करते हैं कि दूसरे जीवों की जान तक ले लेते हैं। वे खिचड़ी क्यों नहीं खाते जिसमें डाला गया नमक अमृत के समान होता है। खुदा. जब उनके कर्मों का लेखा-जोखा करेगा तब वे क्या जवाब देंगे?' मतलब यह कि जितनी भी वे हत्याएं करते हैं उन सबका सही हिसाब ईश्वर के आध्यात्मिक कार्यालय में लिखा होता है और हिंसक को उसकी सजा भुगतनी पड़ती है।
१. कबीर जो किया सो जुलुम है,
कहता न वो हलाल। दफ्तर लेखा मांगिए, तब होएगो कोन हवाल । खूब खाना खोचड़ी जामें अमृत लोण, हेरा रोटी कारणे गला कटावे कौन ।
गुरुग्रन्थ साहब, पृ० १३७४. कबीर जो किया सो जुलुम है, ले जवाब खुदाए। दफ्तर लेखा निकसै, मार मुए मुह खाए।
गुरुग्रन्थ साहब, पृ० १३७५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org