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जैन धर्म में अहिंसा कष्ट पर नहीं। महात्मा जरथुस्त्र ने सबके प्रति प्रेम एवं मित्रता का भाव रखने को कहा है। हो सकता है उनका मतलब केवल मानव जाति से ही हो, सम्पूर्ण जीव-जन्तुओं से नहीं। या हो सकता है उनके अनुयायियों ने बाद में चलकर उनके प्रवचनों को अपने लाभ-हानि को देखते हुए विश्लेषित किया हो । कारण, एक महात्मा मात्र मानव-हित की बात को ध्यान में रखकर अन्य जीवों की अवहेलना करे, यह महात्मोचित आचरण के अन्दर नहीं आता। यहूदी परम्परा : __ जातिगत उत्पत्ति के दृष्टिकोण से यहूदी लोग सेमीत्स (Semites) थे। वे बहत दिनों तक क्रमशः सौल (Saul), डेविड (David ) तथा सोलोमन (Solomon) की छत्रछाया में स्वतंत्र रूप से आनन्दमय जीवन व्यतीत करते रहे। सोलोमन के शासनकाल में उनका प्रसिद्ध शहर जेरूसलम (Jerusalem ) अपने उत्थान की चोटी को छू रहा था। उसी समय यहवेह (Yahveh) के प्रति अगाध श्रद्धा के रूप में एक मन्दिर की स्थापना हुई जिसके फलस्वरूप तत्कालीन धार्मिक प्रवाह बहुदेवतावाद से मुड़कर एक सर्जनात्मक धर्म-चेतना की ओर चला। यहदी परम्परा के प्रारम्भ में चट्टानों, पशुओं ( भेड़ आदि ), गुफाओं और पर्वतों की देवीदेवताओं, सों आदि की पूजा होती थी। लेकिन धीरे-धीरे यहवेह को ईश्वर के रूप में स्वीकार किया गया जिससे यहूदी धर्म में दृढ़ता और एकता की भावना का आगमन हआ। किन्तु शीघ्र ही उसपर मिश्रवालों ने आक्रमण कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यहदी लोग गुलाम बन गए और उनके जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यतिक्रम आ गया। बाद में मोजेज (Mozes) नामक एक यहूदी ने ही उन्हें फिर से स्वतंत्र किया और उनके सामाजिक, नैतिक एवं धार्मिक जीवन को प्रकाशित किया। उस समय से मोजेज ही उनका धर्मगुरु बना और उसने ही उनके धार्मिक नियमों का प्रतिष्ठापन किया।
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