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जैनेतर परम्परामों में अहिंसा 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि' तथा 'अग्निषोमीयं पशुमालभेत' दो पक्ष हैं । ये कहते हैं कि ऐसा कहा जा सकता है कि यज्ञ में की गई हिंसा, स्वतंत्ररूप में की गई हिंसा से भिन्न है क्योंकि इनमें प्रथम तो धर्मों. पदेशानुसार होती है और दूसरी किसी लोभ या मोह के कारण है। किन्तु बात ऐसी नहीं, क्योंकि यज्ञ में जो हिंसा होती है वह भी इस लोभ या फलप्राप्ति के कारण होती है कि आगे चलकर यज्ञकर्ता को स्वर्ग या स्वर्ग का आनन्द मिले । क्योंकि कहा है'स्वगंकामो यजेत' =स्वर्गकामी यज्ञ करे। तै० सं० २.५.५.
अतः यज्ञ में की गई हिंसा और स्वतंत्र रूप से अन्यत्र की गई हिंसा में कोई अन्तर नहीं है। ऐसी बात वहाँ भी पाई जाती है जहाँ कहा गया है-'सर्ववर्णानां स्वधर्मानुष्ठाने परमपरिमितं सुखम्' आश्वलायन धर्मसूत्र-२. १. २. २. __ अपने धर्म के पालन में सभी वर्गों को परम सुख की प्राप्ति होती है, यानी धार्मिक क्रिया-कर्मों के पालन में सुख की अभिलाषा रहती ही है। इस लोभ के कारण धार्मिक कर्मों का पालन अशुद्ध है और हिंसा आदि पापकर्मों के कारण ही धान्य आदि स्थावर योनि में जीव जन्म पाता है। जैसा कि मनु ने कहा है--
शरीरजः कर्मदोषेति स्थावरतां नरः । मनुस्मृति-१२.६.
किन्तु रामानुज के अनुसार बात ऐसी नहीं है। यज्ञ में जो हिंसा होती है उसकी विशेषता कुछ और है । बलि देने के समय पशु को स्वर्ग में भेजने की कामना करते हैं और उससे कहते हैं कि हम तुम्हें मार नहीं रहे हैं, तुम्हें सुनहली देह के साथ, सहज ढंग से वहाँ भेज रहे हैं जहाँ दुष्कर्मी नहीं बल्कि बड़े-बड़े कर्मयोगी अनेकों प्रकार की कठिनाइयों को झेलने के बाद जाते हैं; इस राह पर सूर्य तुम्हारा पथ प्रदर्शन करें।'
यज्ञ में की गई हिंसा उस प्रकार की है जैसे किसी डाक्टर के द्वारा की गई चीर-फाड़ । ढाक्टर घाव को चीरते समय घाव-ग्रस्त १. न वा उ वै तन्म्रियसे न रिष्यसि देवानिदेषि पथिभिः सुमेभिः ।। यत्र यन्ति सुकृतो नापि दुष्कृतस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥ तै० ब्रा०
३.७.७.१४.
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