________________
४८
जैन धर्म में अहिंसा शिवपुराण-शिवपुराण ने सामान्य तौर से हिंसा की गणना पापकर्मों में की है, यानी अहिंसा पुण्यकर्म है। इसके अनुसार अभक्ष्य का भक्षण करना हिंसा, दूसरों का धन हरण करना, मातापिता को त्याग देना, तथा शिव भक्तों के द्वारा मांस भक्षण करना, झूठ बोलना आदि पापकर्म हैं। जो व्यक्ति पाप-कर्मों में रत है यानी क्रोध करता है, हिसा करता है, तथा अपनी आजीविका के लिए दान-यज्ञ करता है वह नरकगामी होता है अर्थात विभिन्न प्रकार की यातनाएँ पाता है ।
बृहद्धर्मपुराण एवं कूर्मपुराण-बृहद्धर्मपुराण ने अग्निपुराण की तरह ही अहिंसा का बहुत विस्तृत रूप बताया है और कहा है कि श्रद्धा, अतिथि-सेवा, सबसे आत्मीयता, आत्मशुद्धि आदि सभी अहिंसा की ही विभिन्न विधियां हैं। 3
कूर्मपुराण ने (जैसा कि हम लोगों ने अन्य जगहों पर देखा है ) अहिंसावत को सिर्फ ज्ञानी या ब्राह्मणों के लिए ही आवश्यक नहीं कहा है अपितु अन्य आश्रमों या वर्गों के लिए भी इसे आवश्यक बताकर इसकी व्यापकता को और बढ़ा दिया है। इसने कहा है कि क्षमा, दम, दया, दान, अलोभ, आर्जव, अनसूया, सत्य, सन्तोष, श्रद्धा आदि ब्राह्मणों की विशेषताएँ हैं। किन्तु अहिंसा, प्रिय वचन,
१. अभक्ष्यभक्षणं हिंसा मिथ्याकार्य निवेशनम् ।
परस्वानामुपादानं चतुर्द्धा कर्मकार्यकम् ।।५।। पितृमातृपरित्यागः कूटसाक्ष्यं द्विजानृतम् ।
प्रामिषं शिवभक्तानामभक्ष्यस्य च भक्षणम् ॥३३॥ शिवपुराण,प्र०५. २. ये पापनिरता: क्रूरा येऽपि हिंसाप्रिया नराः ।
वृत्त्यर्थं येऽपि कुर्नति दानयज्ञादिकाः क्रिया: ।।२१।। शिवपुराण, प्र. ६ ३. अहिंसात्वासनजयः परपीडा विवर्जनम् । ऋद्धाचातिथिसेवा च शान्तरूपप्रदर्शनम् ।। आत्मीयता च सर्वत्र आत्मबुद्धिः परमात्मसु । इति नानाविधाः प्रोक्ता अहिंसेति महामुने ॥११-१२।।
बृहद्धर्मपुराण, प० २.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org