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जैन धर्म में अहिंसा
और इनकी नैतिक समस्याओं में हिंसा - अहिंसा का प्रश्न भी एक रहा है ।
योग - इसके अनुसार योग में आठ अंग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि । और अहिंसा सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह- ये यम के ही रूप हैं । ये महाव्रत हैं जो जाति, देश, काल, समय तथा परिस्थितियों में ही सीमित नहीं रहते । इसी प्रकार शौच, सन्तोष, तप आदि नियम हैं । किन्तु यम और नियम के अभ्यास के समय वितर्क या विरोधी बातें यानी कुविचार मन में आते हैं और ये कुविचार हिंसा या अन्य कुकर्म अथवा पाप करने को प्रेरित करते हैं। हिंसा की जाती है, कराई जाती है तथा करने को अनुमोदित होती है, अर्थात् कोई व्यक्ति स्वतः हिंसा करता है, दूसरे को आज्ञा देकर हिंसा करवाता है और हिंसामय कार्य देखकर चुप रह जाता है, उसका विरोध नहीं करता । ये लोभ, क्रोध और मोह के कारण होती हैं । इनके तीन स्तर होते हैं - मृदु, मध्य और तीव्र । इस प्रकार कृत, कारित एवं अनुमोदित, तथा लोभ, क्रोध एवं मोह के आधार पर होने के कारण हिंसा प्रकार की होती है। चूंकि ये तीन स्तरों (मृदु, मध्य एवं तीव्र ) की होती हैं, इसलिए ६ x ३ = २७ प्रकार हुए। फिर मृदु, मध्य एवं तीव्र के भी अलग-अलग तीन-तीन स्तर हो सकते हैं; जैसे - मृदु-मृदु, मृदु-मध्य, मृदु- तीव्र ; मध्य-मृदु, मध्य-मध्य, मध्य- तीव्र और तीव्र - मृदु, तीव्र - मध्य, तीव्र तीव्र । इन सबके आधार पर हिंसा ८१ प्रकार की होती है । इस तरह अहिंसा के प्रतिष्ठान से वैर का सर्वथा त्याग हो जाता है ।
१.
यमनियमासनप्रारणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि ॥ २६ ॥ श्रहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः || ३० ॥
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१ ॥
शौच संन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ||३२||
वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदित लोभक्रोधमोहपूर्वका सृदुमध्याधिमात्रा
दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३४॥
हिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधी वैरत्यागः ||३५|| योगसूत्र, प्र० २.
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