________________
जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा
३५
स्थली है। यह परम संयम है, परम दान, परम ज्ञान, परम फल, परम मित्र तथा परम सुख है। इतना ही नहीं, यदि सभी यज्ञों में दान किया जाय, सभी तीर्थों में स्नान किया जाय, सब प्रकार के स्नान-दान के फल प्राप्त हों तो भी अहिंसा-धर्म से प्राप्त फल की तुलना में कम ही रहेंगे।
अहिंसा सभी धर्मशास्त्रों में परम पद पर सुशोभित होती है। देवताओं और अतिथियों की सेवा, सतत धर्मशीलता, वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, दान, गरु और आचार्य की सेवा तथा तीर्थयात्रा ये सब अहिंसाधर्म की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं।' __ अतः जो अहिंसा के पथ पर चलता है उसकी तपस्या अक्षय होती है, वह हमेशा वही फल प्राप्त करता है जो तप करने से प्राप्त होता है और वह सभी प्राणियों के माता-पिता की तरह है। लेकिन क्या यहीं अहिंसा की मर्यादा सीमित हो जाती है ? कदापि नहीं । इससे प्राप्त होनेवाले सुयश का वर्णन तो सौ वर्षों में भी समाप्त नहीं हो सकता। इसके विपरीत जो स्वाद के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा करता है वह बाघ, गिद्ध, सियार और राक्षसों के समान है। अतः जैसे अपने शरीर का मांस काटने पर स्वयं को
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः । अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् । अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् । सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम् । सर्वदानफलं वापि नैतत् तुल्यमहिंसया ।। अनुशासनपर्व ( महाभारत ),
अ० ११५, श्लोक २३; अ० ११६, श्लोक २८-३०. १. अहिंसा परमो धर्मो ह्यहिंसा परमं सुखम् ।
अहिंसा धर्मशास्त्रषु सर्वेषु परमं पदम् ।। देवतातिथिशुश्रूषा सततं धर्मशीलता। वेदाध्ययनयज्ञाश्च तपो दानं दमस्तथा । प्राचार्यगुरुशुश्रूषातीर्थाभिगमनं तथा। अहिंसाया वरारोहे कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।। अनु० प०, अ० १४५.
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only
Jain Education International