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जैनेतर परम्पराओं में श्रहिंसा
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वे आगे अर्जुन को युद्ध करने को प्रेरित करते हुए कहते हैं : "मैं लोकों का नाश करनेवाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित हुए योद्धा लोग हैं वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे - ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं । तू तो केवल निमित्तमात्र ही होगा । द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओं को तू मार और
भय मत कर .......१
इतना ही नहीं, अपने कर्तापन को वे निम्नलिखित शब्दों में दढ़ करते हैं :
"जिस पुरुष के अन्तःकरण में मैं कर्त्ता हूँ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में अथवा संपूर्ण कर्मों में लिप्त नहीं होती वह पृरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है ।"२
ऊपर कथित सभी विचार एक भक्त के हृदय में आ सकते हैं । क्योंकि वह अपने को पूर्णरूपेण भगवान् के प्रति समर्पित कर देता है, अत: वह समझता है कि जो कुछ भी उसके जीवन में या संसार में होता है, भले ही वह बुरा हो या भला, उसका कर्ता परमात्मा होता है | अतः हिंसा-अहिंसा का प्रश्न ही यहाँ नहीं उठता क्योंकि
१. कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न मयैते निहताः पूर्वमेव,
प्रत्यनीकेषु योधाः ||३२||
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||३३||
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च करणं तथान्यानपि योधवीरान् ।
या हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ||३४||
गीता, श्र० ११.
२. यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।। १७ ।। गीता, श्र० १८.
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