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जैन धर्म में अहिंसा कि बहुत बड़ा दुर्भिक्ष आ जाने के कारण एक बार विश्वामित्र एक चाण्डाल के घर से मरे हुए कुत्ते की टाँग लेकर उसका मांस पका कर खाना चाहते हैं और जब चाण्डाल उन्हें मना करता है तो वे कहते हैं कि आदमी के लिए यह जरूरी है कि सर्वप्रथम वह अपने प्राण की रक्षा करे, भले ही रक्षा करने के साधन जो भी हों। क्योंकि जीवित रहकर ही किसी धर्म का पालन किया जा सकता है। इसी प्रकार समाज और राष्ट्र की रक्षा के लिए राजाओं तथा क्षत्रियों को युद्ध करने यानी हिंसा करने की स्वतंत्रता दी
किन्तु किसी भी हालत में धर्म के नाम पर यज्ञ में पशुबलि के लिए शान्तिपर्व में विधान नहीं किया गया है। इस सम्बन्ध में राजा विचक्षण तथा नारद के विचार एवं ऋषियों और देवताओं के बीच होने वाला तर्क-वितर्क बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। राजा विचक्षणु ने किसी यज्ञशाला में आर्तनाद करते हए बहत से बैलों एवं गायों को देखकर निम्नलिखित शब्दों में हिंसा का विरोध और अहिंसा का प्रबल समर्थन किया है-२
१. येन येन विशेषेण कर्मणा येन केनचित् । अभ्युज्जीवेत् साद्यमानः समर्थो धर्ममाचरेत् ।।६३॥ अ० १४१.
सम्पूर्ण अध्याय भी देखें। २. अव्यवस्थितमर्यादैविमूढ स्तिकैनरैः ।
संशयात्मभिरव्यक्तैहिंसा समनुवरिणता ॥४॥ सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । कामकाराद् विहिंसन्ति बहिर्वेद्यां पशून्' नरा: ॥५॥ तस्मात् प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता। अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मभ्यो ज्यायसी मता ॥६॥ यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोद्दिश्य मानवाः । वृथा मांसं न खादन्ति नैष धर्म: प्रशस्यते ॥८॥ सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृसरोदनम् । धूर्तेः प्रवत्तित: ह्य तन्नतद् वेदेषु कल्पितम् ॥६॥ प्र० २६५.
सम्पूर्ण अध्याय भी देखें।
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