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जैन धर्म में अहिंसा प्राप्ति होती है। जो किसी प्राणी को कष्ट नहीं पहुंचाता उसे बिना प्रयास ही मनचाहे धर्म की उपलब्धि हो जाती है। पशुओं के वध के बिना मांस प्राप्त नहीं किया जा सकता है और पशु-हिंसा स्वर्ग दिलानेवाली नहीं होती; अत: मांस-भक्षण त्याग देना चाहिए। मांस की उत्पत्ति रज-वीर्य तथा वध-बन्धन से होती है अतः इसको ध्यान में लाते हुए मांस खाना छोड़ देना चाहिए। जो सौ वर्षों तक अश्वमेध यज्ञ करता है और जो मांस नहीं खाता, दोनों ही समान पुण्य के भागी होते हैं। पवित्र फल, फूल तथा हविष्यान्न आदि खाने से उस पुण्य की प्राप्ति नहीं होती जो सिर्फ मांस-भक्षण के त्याग से होती है। इस लोक में जिसका भक्षण में करता हैं दूसरे लोक में वह मेरा मांस खायेगा। यही मांस का मांसत्व है। इस प्रकार नियमानुसार मांस खाना, मद्य पीना तथा स्त्री-संभोग करना दोषपूर्ण नहीं कहे जा सकते, कारण, ये तो प्राणी के स्वभाव हैं लेकिन इन सबसे निवृत्त होना श्रेयस्कर तथा महाफलदायक है।' ___ इसके अलावा मनुस्मृति में अन्य जगहों पर भी बहुत से श्लोक ऐसे मिलते हैं जिनसे पूर्णतः अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि होती है, जैसे-प्राणियों के कल्याण के लिए अहिंसापूर्ण अनुशासन होना चाहिए। इन्द्रियनिग्रह, रागद्वेषत्याग तथा अहिंसा से संन्यासी मोक्ष प्राप्त करता है। अहिंसा, इन्द्रियसंयम, वैदिक
१. वर्षे वर्षेऽश्वमेघेन यो यजेत शतं समाः ।
मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥५३॥ फलमूलाशनेमध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः। न तत्फलमवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् ॥५४॥ मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥५५॥ न मांसभक्षणे दोषो न मधे न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥५६।। मनुस्मृति, प्र० ५. २. अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम्।१५६। मनुस्मृति, प० २. ३. इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च ।
महिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥६०॥ मनुस्मृति, म० ६.
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