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जैनेतर परम्पराओं में महिसा
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कर्मों का अनुष्ठान और कठोर तपस्या से व्रत की प्राप्ति होती है ।" अहिंसा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता और इन्द्रियनिग्रह ये चारों वर्णों के लिए उपयुक्त हैं । यही बातें बारहवें अध्याय में मिलती हैं। साथ ही यह भी कहा गया है कि सभी प्राणियों को अपने में और सभी प्राणियों में अपने को देखनेवाला आत्मयाज्ञी ब्राह्मण स्वराज्य यानी मुक्ति पाता है । स्थिरचित्त होकर सत्असत् सबको अपने अन्दर देखनेवाला व्यक्ति अधर्म से अपने को अलग रखता है । सभी देवता आत्मस्वरूप हैं, समूचा जगत् आत्मा में स्थित है और आत्मा के ही द्वारा शरीरधारियों के कर्मयोग का निर्माण होता है । इस तरह जो भी व्यक्ति अपने को सभी जीवों में देखता है वह सबमें समन्वय-भाव की सृष्टि करता है, और इसी वजह से वह ब्रह्मपद की प्राप्ति करता है ।
अतः यद्यपि मनुस्मृति में वैदिक विधियों की प्रबलता देखी जाती है फिर भी अहिंसा का सिद्धान्त काफी आगे बढ़ा हुआ मालूम पड़ता है | अहिंसा की राह पर चलनेवाले को इसने उस महापुण्यफल का भागी बताया है जो अनेकों वर्षों तक अश्वमेध यज्ञ करने से होता है, और मुक्तिदायिका तो यह ( अहिंसा ) है ही जिसे अनेक स्थलों पर उद्घोषित किया है ।
१. श्रहिंसयेन्द्रियासंगैर्वेदिकेश्चैव कर्मभिः ।
तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम् ॥७५॥ मनुस्मृति, अ० ६.
२. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
एतं सामासिकं धर्मं चतुर्वर्ण्येऽब्रवीन्मनुः ॥ ६३ ॥ मनुस्मृति, अ० १०.
३. यादृशेन तु भावेन यद्यत्कर्म निषेवते ।
तादृशेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते ||८१|| वेदाभ्यासस्तपोज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ||८३ ॥ सर्वमात्मनि संपश्येत्सच्चासच्च समाहितः । सर्वं ह्यात्मनि संपश्यन्नाधर्मे कुरुते मनः ॥ ११८ ॥ श्रात्मैव देवताः सर्वाः सर्वमात्मन्यवस्थितम् ।
श्रात्मा हि जनयत्येषां कर्मयोगं शरीरिणाम् ॥ ११६ ॥ मनुस्मृति, प्र० १२.
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