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जैन धर्म में हिंसा
गया है। इसी के आधार पर महाभारत के रचना काल का भी अन्दाज किया जा सकता है।
महाभारत काल में भारतीय संस्कृति अपनी चोटी पर थी और इसका बहुमुखी विकास हो चुका था। अतः इसमें अहिंसा का पूर्ण विवेचन हुआ है, जिसमें अहिंसा-संबंधी पहले से आती हुई आशंकाओं का निवारण किया गया है।
शांतिपर्व ( महाभारत का बारहवाँ पर्व ) में युधिष्ठिर को राजधर्म या क्षत्रियधर्म समझाते हुए अर्जुन के कथन से लगता है कि क्षत्रिय या कोई गृहस्थ हिंसा का परित्याग कर ही नहीं सकता। सख-शांति प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि दूसरे को कष्ट दिया ही जाय । वे कहते हैं
"मछली मारने वाले मल्लाहों की तरह दूसरों के मर्मस्थानों का उन्छेद और दुष्कर कर्म किये बिना तथा बहुसंख्यक प्राणियों को मारे बिना कोई व्यक्ति बहुत बड़ी सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता ॥१४॥ जो दूसरों का वध नहीं करता, उसे इस संसार में न तो कीर्ति मिलती है, न धन प्राप्त होता है और न प्रजा ही उपलब्ध होती है। इन्द्र वत्रासुर का वध करने से ही महेन्द्र हो गये ।।१५।। संसार में किसी भी ऐसे पुरुष को मैं नहीं देखता, जो अहिंसा से जीविका चलाता हो; क्योंकि प्रबल जीव दुर्बल जीवों द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं ।।२०।। हे राजन् ! नेवला चहे को खा
1. “Considering also that the Purăņas place more than
twenty generations between Janmejaya II and Janmejaya IJI and counting the date of Janmejaya III to be about 1400 B. C. we may conclude that the time of Parikshita I and Janmejeya II and of Śatapatha and the Aitareya Brahmanas should be about 2000 B. C." Hindu Civilization ( Radha Kumud Mookerji), pp. 158-159.
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