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जैनेतर परम्पराओं में महिंसा दूसरा पक्ष-यज्ञ के लिये मांस-भक्षण की गणना दैवी विधि में होती है। इसके विपरीत यदि कोई मांस खाने के लिए ही हिंसा करता है और मांस खाता है तो उसे राक्षसोचित कार्य कहा जाता है। किसी भी विधि से प्राप्त जैसे, खरीदा हुआ, स्वयं कहीं से लाया हुआ, भेंट में प्राप्त.मांस यदि देवता या पितृ को अर्पित करके लाया जाता है तो खाने वाला दोषी नहीं होता। विविध ओर निषेध का जाता यदि सामान्य अथवा सुख की अवस्था में विधि का उल्लंघन करके मांस खा लेता है तो जन्मान्त में वे पशु ( जिनके मांस वह खाता है ) उसे खा जाते हैं। धन के लिए यदि कोई मृग को मारता है तो वह उतना पापी नहीं समझा जाता जितना कि मांस खाने वाला होता है । श्राद्ध और मधुपर्क में विधिवत् नियुक्त होने के बाद भी जो व्यक्ति मांस खाने से इनकार करता है उसे इक्कीस जन्म तक पशु होना पड़ता है। ब्राह्मण को कभी भी बिना मंत्र-संस्कार के मांस नहीं खाना चाहिए लेकिन यज्ञ में मंत्रों से पवित्र किए हुए पशुओं के मांस वह खा सकता है। इच्छा की प्रबलता के कारण वह घत या मैदे का पशु बनाकर खा सकता है लेकिन व्यर्थ (यानी यज्ञ के अलावा) पशुवध न करना चाहिए। पशुओं को व्यर्थ मारने वाला मरने के बाद उतनी ही बार पशुजन्म धारण करता है जितनी मरे हुए पशु की रोमसंख्या होती है जब मारा जाता है। ब्रह्मा ने यज्ञों की समृद्धि के लिये पशुओं की सृष्टि की है। अतः यज्ञ में किया हुआ वध वध नहीं समझा जाता। पशु, वृक्ष,
बभूवुर्हि पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् । पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च ॥२३॥ प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया । यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये ॥२७॥ प्राणस्यान्नमिदं सर्व प्रजापतिरकल्पयत् । स्थावरं जंगमं चैव सर्व प्राणस्य भोजनम् ॥२८॥ चराणामन्नमचरा दंष्ट्रिणामप्यदंष्ट्रिणः । अहस्ताश्च सहस्तानां शूराणां चैव भीरवः ।।२६।। नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि । धात्रव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च ॥३०॥ मनुस्मृति, प्र० ५.
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