Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
वेदान्तसार के अनुसार परिणामवाद और विवर्तवाद में अन्तर है। जैसा कि कहा है
सतत्त्वोऽन्यथा प्रथा विकार इत्युदीरितः।
अतत्त्वोऽन्यथा प्रथा विवर्त इत्युदीरितः।। परिणामवाद का अर्थ है- जब कोई वस्तु अपने यथार्थ स्वरूप को त्यागकर अन्य स्वरूप को ग्रहण कर लेती है तो यह स्वरूप ग्रहण करना ही विकार या परिणाम कहलाता है। यथा- दही दूध का विकार या परिणाम है। अपने स्वरूप का त्याग न करने पर भी उसी वस्तु विशेष में अन्य किसी वस्तु की मिथ्या प्रतीति होना विवर्तवाद है। यथा- रज्जु में सर्प की भ्रान्ति। इस प्रकार ब्रह्म का विवर्त रूप जगत् होने से सर्वत्र ब्रह्म ही कारण है। असत्कार्यवाद
. न्याय-वैशेषिक के कारण-कार्य सिद्धान्त को 'असत्कार्यवाद' अथवा 'आरम्भवाद' के नाम से जाना जाता है। वास्तववादी न्याय-वैशेषिक के अनुसार कारण में कार्य पहले से नहीं रहता, वह नया उत्पन्न होता है। कार्य को कारण में पहले से स्वीकार न करने के कारण उसे असत्कार्यवाद कहा गया है। कारणता के संबंध में न्याय-वैशेषिक का मत रचनात्मक विचारधारावाला है। कारण तथा कार्य में भेद को स्वीकार करते हुए नैयायिक कार्य की रचना नए सिरे से मानते हैं। उत्पत्ति के पूर्व कार्य का प्रागभाव होता है तथा कार्योत्पत्ति के बाद अभाव नष्ट हो जाता है। कारण कार्य का उत्पादक होता है, जैसे- तन्तु से वस्त्र। यहाँ तन्तु कारण और वस्तु कार्य है। उत्पत्ति के पूर्व वस्त्र तन्तु रूपी कारण में विद्यमान नहीं रहता अर्थात् कार्य कारण में असत् होता है। अत: यह मत 'असत्कार्यवाद' कहलाता है। कार्य का नवीन आरम्भ होता है ऐसा स्वीकार करने के कारण असत्कार्यवाद को आरम्भवाद भी कहा जाता है।
न्याय-वैशेषिक की मान्यतानुसार तन्तु पट में परिणमित नहीं होते हैं, अपितु स्वयं के अस्तित्व को टिकाए हुए अपने साथ-साथ रहने वाली एक नयी वस्तु पट को उत्पन्न करते हैं। पट तन्तुओं में समवाय संबंध से रहता है। समवाय संबंध ही वह कड़ी है, जो तन्तु व पट की भिन्नता में अभिन्नता बनाए रखती है। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि तन्तु पट के रूप में बदल गए, क्योंकि पट के उत्पन्न होने के बाद भी तन्तु विद्यमान हैं। इस प्रकार पूर्व में असत् पट सत्ता में आता है।
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