Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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प्रस्तावमा
चारों दिशाओं की यारियों का भी वर्णन किया गया है। विभिन्न ग्रहों के साथ बुध का फलादेश बताया गया है ।
उन्नीसवें अध्याय में 39 श्लोक हैं। इसमें मंगल के चार, प्रवास, वर्ण, दीप्ति, काष्ठ, गति, फल, वक्र और अनुवक का विवेचन किया गया है। मंगल का चार बीस महीने, वक्र आठ महीने और प्रवास चार महीने का होता है। वक्र, कठोर, श्याम, ज्वलित, धूमवान, विवर्ण, क्रुद्ध और बायीं ओर गमन करने वाला मंगल सदा अशुभ होता है। मंगल के पाँच प्रकार के वक्र बताये गये हैं--उष्ण, शोषमुख, व्याल, लोहित और लोहमुद्गर । ये पांच प्रधान वक्र हैं । मंगल का उदय सातवें, आठवें या नवें नक्षत्र पर हुआ हो और वह लोट कर गमन करने लगे तो उसे उष्ण वक्र कहते हैं । इस उष्ण वक्र में मंगल के रहने से वर्षा अच्छी होती है विष; कीट और अग्नि की वृद्धि होती है। जनता को साधारणतया कष्ट होता है। जब मंगल दसवें, ग्यारहवें और बारहवें नक्षत्र से लौटता है तो शोषमुख वक्र कहलाता है। इस वक्र में आकाश से जल की वर्षा होती है। जब मंगल राशि परिवर्तन करता है, उस समय वर्षा होती है । यदि मंगल चौदहवें अथवा तेरहवें नक्षत्र से लौट आये तो यह उसका व्याल चक्र होता है । इसका फलादेश अच्छा नहीं होता । जब मंगल पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र से लौटता है तब लोहित वक्र कहलाता है। इसका फलादेश जल का अभाव होता है। जब मंगल सत्रहवें या अठारहवे नक्षत्र से लौटता है, तब लोहमृद्गर कहलाता है । इस बक्र का फलादेश भी राष्ट्र और समाज को अहितकर होता है । इसी प्रकार मंगल के नक्षत्रभोग का भी वर्णन किया गया है ।
बीसवें अध्याय में 63 श्लोक हैं । इस अध्याय में राहु के गमन, रंग आदि का वर्णन किया गया है । इस अध्याय में राहु को दिशा, वर्णन, ममन और नक्षत्रों के संयोग आदि का फलादेश वणित है । चन्द्रग्रहण तथा ग्रहण की दिशा, नक्षत्र आदि का फल भी बतलाया गया है 1 नक्षत्रों के अनुसार ग्रहणों का फलादेश भी इस अध्याय में आया है।
__इक्कोसवे अध्याय में 58 श्लोक हैं । इसमें केतु के नाना गद, प्रभेद, उनके स्वरूप, फल आदि का विस्तार सहित वर्णन किया गया है । बताया गया है कि 120 वर्ष में पाप के उदय से विषम केतु उत्पन्न होता है । इस केतु का फल संसार को उथल-पुथल करनेवाला होता है,। जन्म विषम केतु का उदय होता है, तब विश्व में युद्ध, रक्तपात, महामारी आदि उपद्रव अवश्य होते हैं । केतु के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन भी इस अध्याय में फल सहित विया है। अश्विनी आदि नक्षत्रों में उत्पन्न होने पर केतु का फल विभिन्न प्रकार का होता है । क्रूर नक्षत्रों में उत्पन्न होने पर केतु भय और पीड़ा का सूचक होता है और सौम्य नक्षत्रों में केतु के उदय होने से राष्ट्र में शान्ति और सुख रहता है । देश में धन-धान्य की