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(४२)
अष्टाङ्गहृदये- घनाभिवृष्टममलं शाल्यन्नं राजतस्थितम् ॥
अक्लिन्नमविवर्णं च तत्पेयं गाङ्गमन्यथा ॥ ३॥ पानीकरके अच्छीतरह सींचाहुआ चांदीके पात्रमें स्थित शालि या चावल क्लेदसे और विवर्णसे रहित जल गांगजल कहाता है, यह पीने और स्नान आदिमें पथ्य है और इससे विपरीत।।३।।
सामुद्रं तन्न पातव्यं मासादाश्वयुजाद्विना ॥
ऐन्द्रमम्बु सुपात्रस्थमविपन्नं सदा पिबेत् ॥ ४॥ समुद्रका जल होता है, यह आश्विन मासके विना पीना योग्य नहीं है, चांदीके पात्रमें स्थित आकाशका जल जो दूषित नहीं होवै वह सबकालमें पीना योग्य है ॥ ४ ॥
तदभावे च भूयिष्ठमन्तरिक्षानुकारि यत् ॥
शुचि पृथ्वीस्थितेश्वेते देशेऽर्कपवनाहतम् ॥ ५॥ तिस पूर्वोक्तजलके अभावमें विशेषकरके स्वच्छआदि गुणोंसे संयुक्त और पवित्ररूप पृथ्वीके श्वेतदेशमें स्थित सूर्य और वायुकरके चारों तर्फसे आक्रांत जल पीना चाहिये ॥ ५ ॥
न पिबेत्पङ्कशैवालतृणपर्णाविलास्तृतम् ॥
सूर्येन्दुपवनादृष्टमभिवृष्टं धनं गुरु ॥ ६॥ - और कीचड-शिवाल-तृण-पत्तों से मलीन और आस्तृत तथा सूर्य-चन्द्रमा-वायु-का प्रवेश जिसमें नहीं होता और तत्काल पतित होके दूसरी वर्षाके पानीसे मिश्रित हो और घन अर्थात स्वच्छतासे रहित, और भारीहो, ऐसे जलको नहीं पीवे ॥ ६ ॥
फेनिलं जन्तुमत्तप्तं दन्तग्राह्यातशैत्यतः ॥
अनातवं च यदिव्यमार्तवं प्रथमं च यत् ॥ ७॥ फेनसे और कीडोंसे संयुक्त, गरम और अतिशीतलपनेस दन्तोंको ग्रहण करनेवाले जलको भी न पीवे और जो अकालमें आकाशसे वर्षा हुआ जलहो और जो कालमेंभी प्रथम वर्षा हुआ जलहो तिसको नहीं पीवे ॥ ७ ॥ 'लूतादितन्तुविण्मूत्रविषसंश्लेषदूषितम् ॥
पश्चिमोदधिगाः शीघ्रवहा याश्चामलोदकाः॥८॥ और मकडी आदि जीवोंके तंतु-विष्ठा-मूत्र-विष–के मिलापसे दूषित हो, तिस जलकोभी नहीं पावै, पश्चिमके समुद्रमें जाके मिलनेवाली और शीघ्र बहनेवाली और निर्मलपानीसे संयुक्त।।८।।
पथ्याः समासात्ता नद्यो विपरीतास्त्वतोऽन्यथा ॥ उपलास्फालनाक्षेपविच्छेदैः खेदितोदकाः॥९॥
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