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( ४० )
अष्टाङ्गहृदये
लंघन और पाचनों करके जीतेहुये दोष कदाचित् कुपितभी होजाते हैं और जो संशाधन करके शुद्धहुये दोष तिन्होंका फिर संभव नहीं होता है ॥ २७ ॥
यथाक्रमं यथायोगमत ऊर्ध्वं प्रयोजयेत् ॥
रसायनानि सिद्धानि वृष्ययोगांश्च कालवित् ॥ २८ ॥ उसके उपरांत यथाक्रम और यथायोग सिद्धरूप रसायनोंको और वृष्यरूप योगोंको कालका बाननेवाला वैद्य प्रयुक्तकरै ॥ २८ ॥
भेषजक्षपिते पथ्यमाहारैबृंहणं क्रमात् ॥
शालिषष्टिकगोधूममुद्गमांसघृतादिभिः ॥ २९ ॥
शोधन करके कर्षित किये मनुष्यके अर्थ पथ्यरूप बृंहण अन्नको क्रमसे देवै परंतु शालि आरें शाठीचावल गेहूं मूंग मांस घृत इन आदि भोजनोंके संग देवै ॥ २९ ॥ दीपन भैषज्यसंयोगाद्रुचिपक्तिदैः
॥ साभ्यङ्गोद्वर्त्तनस्नाननिरूह स्नेहवस्तिभिः ॥ ३० ॥
और मनोहररूप दीपनसंज्ञक अर्थात् सूंठ पीपल अदरक दालचीनी इलायची इन्होंके संयोग से रुचि और पाकको देनेवाले पूर्वोक्त भोजनोंके संग देवे और अभ्यंग उद्वर्तन - स्नान - निरूहण अनुवासन बस्ति इन्होंकोभी सेवै ॥ ३० ॥
तथा स लभते शर्म सर्वपावकपाटवम् ॥
वर्णेन्द्रियवैमल्यं वृषतां दैर्घ्यमायुषः ॥ ३१ ॥
तिस प्रकारकरके प्रथम शोधन, पीछे बृंहण, पीछे रसायनप्रयोग ऐसे सेवनेवाला मनुष्य सुख और स्वस्थपनाको प्राप्त होता है, और वृभ्यरूप अर्थात् पुष्टि करनेवाली औषधियों को सेवनेवाले म नुष्यों के बुद्धि-वर्ण- इंद्रिय- इन्होंका विमलपना और आयुकी दीर्घता प्राप्त होती है ॥ ३१ ॥ ये भूतविषवाय्वग्निक्षतभङ्गादिसम्भवाः ॥ कामको भयाद्याश्च ते स्युरागन्तवो गदाः ॥ ३२ ॥
मूत - विष-वायु - अग्नि-क्षत-भंग - आदि से संभव और काम-क्रोध-भय-आदि से सत्र आगंक रोग कहते हैं || ३२ ॥
त्यागः प्रज्ञापराधानामिन्द्रियापशमः स्मृतिः ॥ देशकालात्मविज्ञानं सद्वृत्तस्यानुवर्तनम् ॥ ३३ ॥
बुद्धिका अपराध असाध्य आचरण इन्होंका त्याग इंद्रियोंकी शांति - स्मृति- और देश काल आत्मा - इन्होंका विज्ञान - सज्जनों के चरित्रका अनुवर्तन अर्थात् अनुष्ठान ॥ ३३ ॥
अनुत्पत्त्यै समासेन विधिरेष प्रदर्शितः ॥ निजागन्तुविकाराणामुत्पन्नानां च शान्तये ॥ ३४ ॥
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