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— सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४१) निज और आगंतुक विकारोंकी नहीं उत्पत्तिके अर्थ और उत्पन्न हुये विकारोंकी शांतिके अर्थ यह विधि विस्तार करके दिखाईहै ॥ ३४ ॥
शीतोद्भवं दोषचयं वसन्ते विशोधयन् ग्रीष्मजमभ्रकाले ॥ घनात्यये वार्षिकमाशु सम्यक् प्राप्नोति रोगानृतुजान्न जातु॥३५॥ शीतकालमें उत्पन्नहुए दोषचयको वसंतऋतुमें शोधनों और ग्रीष्मऋतुमें उपजे दोषचयको वर्षा कालमें शोधनेसे और वर्षाकालमें उपजे दोषचयको शरदकालमें शोधनेसे मनुष्य कबी भी ऋतुओंसे उपजे रोगोंको नहीं प्राप्त होताहै ॥ ३५॥
नित्यं हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः॥ दाता समः सत्यपरः क्षमावानातोपसेवी च भवत्यरोगः ॥३६॥ नित्यप्रति हितरूपभोजन और क्रीडाको सेवनेवाले और अच्छीतरह देख विचारकर करनेवाले और विषयोंमें असक्त और दान करनेवाले और समदृष्टिवाले और सत्यको बोलनेवाले और क्षमाको धारनेवाले और शरणागतको तथा दुःखितको सेवनेवाले मनुष्यके शरीरमें रोग नहीं उपजतेहैं।।३६।।
इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशाम्यनुवादिताऽष्टांगहृदयसंहिता
__ भाषा कायां सूत्रस्थाने चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
पंचमोऽध्यायः।
अथातो द्रवद्रव्यविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ इसके अनंतर द्रवद्रव्यविज्ञानीयनामक अध्यायको व्याख्यान करेंगे ।
जीवनं तर्पणं हृद्यं हादि बुद्धिप्रबोधनम्॥
तन्वव्यक्तरसं मृष्टं शीतं लघ्वमृतोपमम् ॥१॥ __ जीवन और तृप्तिका करनेवाला, मनोहर और आनंदका करनेवाला, बुद्धिको जगानेवाला, स्वच्छ और अव्यक्तरसवाला ( जिसमें छः रसोंमें कोई प्रगट नहीं है ) स्वादु मीठा मन प्रसन्न करनेवाला शीतल और अमृतके समान उपमावाला ॥ १॥
गङ्गाम्बु नभसो भ्रष्टं स्पृष्टं त्वन्दुमारुतैः॥ हिताहितत्वे तद्भूयो देशकालावपेक्षते ॥२॥ और आकाशगंगासे निकला आकाशसे वर्षाहुआ पानी सूर्य चन्द्रमा वायुसे स्पृष्ट हुआ वही जल हित और अहित पनेमें बारंबार देश और कालको अपेक्षित करता है अर्थात् देशकालके अनुसार जल हित और अहित करता है ।। २ ॥
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