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अनेकान्त
उपासक नहीं कहा जासकता - वे भी उस पूज्य व्यक्तिका उपहास करने—कराने वाले ही होते हैं। अथवा यह कहना होगा कि वे अपने उस आचरण के लिये जड़ मशीनों की तरह स्वाधीन नहीं हैं । और ऐसे पराधीनका कोई धर्म नहीं होता । सेवा धर्म के लिये छापूर्वक कार्यका होना आवश्यक है; क्योंकि स्वपरहित साधन की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक अपना कर्तव्य समझकर जो निष्काम कर्म अथवा कर्मत्याग किया जाता है, वह सच्चा सेवाधर्म है।
जब पूज्य महात्माओं की सेवा के लिये गरीबों, दीन-दुखितोंकी, पीड़ितों- पतितोंकी, असहायोंश्रममर्थोकी, अज्ञों और पथभ्रgat at अनिवार्य है- उस सेवाका प्रधान अंग है, बिना इसके वह बनती ही नहीं -तब यह नहीं कहा जा सकता और न कहना उचित ही होगा कि 'छोटों श्रममर्थो अथवा दीन-दुःखितों आदिकी सेवा में क्या धरा है ?' यह सेवा तो अहंकारादि दोषों को दूर करके आत्मा की ऊँचा उठाने वाली है, तद्गुण-लब्धि के उद्देश्य की पूरा करने वाली है और हर तरह से आत्मविकास में सहायक है, इसलिये परमधर्म है और सेवाधर्मका प्रधान अंग है । जिस धर्म के अनुष्ठान से अपना कुछ भी आत्मलोभ न होता हो वह तो वास्तवमें धर्म ही नहीं है ।
इसके सिवाय अनादिकाल से हम निर्बल, असहाय, दीन, दुःखित, पीड़ित, पतित, मार्गच्युत और अज्ञ जैसी अवस्थाओं में ही अधिकतर रहे
[ वर्ष २, किरण १
हैं और उन अवस्थाओं में हमने दूसरों की खूब संवाएँ ली हैं तथा सेवा-सहायताकी प्राप्ति के लिये निरन्तर भावनाएँ भी की हैं, और इसलिये उन अवस्थाओं में पड़े हुए अथवा उनमेंसे गुजरने वाले प्राणियोंकी सेवा करना हमारा और भी ज्यादा कर्त्तव्यकर्म है, जिसके पालनके लिये हमें अपनी शक्तिको जरा भी नहीं छिपाना चाहियेउसमें/ जी चुराना अथवा आना-कानी करने जैसी कोई बात न होनी चाहिये । इसीको यथाशक्ति कर्त्तव्यका पालन कहते हैं ।
एक बच्चा पैदा होते ही कितना निर्बल और असहाय होता है और अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कितना अधिक दूसरों पर निर्भर रहता अथवा आधार रखता है। दूसरे जन उसकी खिलाने-पिलाने, उठाने-बिठाने, लिटानेसुलाने, ओढ़ने-बिछाने, दिल बहलाने, सर्दी-गर्मी आदिसे रक्षा करने और शिक्षा देने दिलाने की जो भी सेवाएँ करते हैं वे सब उसके लिये प्राणदान के समान है । समर्थ होने पर यदि वह उन सेवाओं को भूल जाता है और घमण्ड में आकर अपने उन उपकारी सेवकों की--माता-पितादिकों की— सेवा नहीं करता - उनका तिरस्कार तक करने लगता है तो समझना चाहिये कि वह पतनकी ओर जा रहा है। ऐसे लोगों की संसार में कृतघ्न, गुणमेट और अहसानफरामोश जैसे दुर्नामोंस पुकारा जाता है। कृतघ्नता अथवा दूसरोंके किये हुए उपकारों और ली हुई सेवाओं को भूल जाना बहुत बड़ा अपराध है और वह विश्वासघातादिकी तरह ऐसा बड़ा पाप है कि उसके भारसे पृथ्वी भी काँपती है ।