Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
१९
प्रथम अध्ययन : सूत्र ५१-५६ ५१. तए णं से सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे ५१. कुमार अभय द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट चित्त, आनन्दित यावत् हट्टतुट्ठ-चित्तमाणदिए जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियए अभयं कुमारं हर्ष से विकस्वर हृदय वाले राजा श्रेणिक ने कुमार अभय का सत्कार सक्कारेइ समाणेइ पडिविसज्जेइ।।
सम्मान कर प्रतिविसर्जित किया।
अभयस्स देवाराहण-पदं
अभय द्वारा देवाराधना-पद ५२. तए णं से अभए कुमारे सक्कारिए सम्माणिए पडिविसज्जिए ५२. राजा श्रेणिक द्वारा सत्कृत, सम्मानित और विसर्जित किया हुआ
समाणे सेणियस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता कुमार अभय राजा श्रेणिक के आवास से बाहर निकला। बाहर जेणामेव सए भवणे, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे निकलकर जहां अपना भवन था, वहां आया। आकर सिंहासन पर निसण्णे।।
बैठा।
५३. तए णं तस्स अभयस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए
पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--नोखलु सक्का माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालदोहलमणोरहसंपत्तिं करित्तए, नन्नत्थ दिव्वेणं उवाएणं। अत्थि णं मझ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगइए देवे महिड्डीए महज्जुइए महापरक्कमे महाजसे महब्बले महाणुभावे महासोक्खे। तं सेयं खलु ममं पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स ववगयमालावण्णगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबीयस्स दब्भसंथारोवगयस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता पव्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणस्स विहरित्तए।
तए णं पुव्वसंगइए देवे मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालमेहेसु दोहलं विणेहिति--एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभचारी जाव पुन्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठइ।।
५३. कुमार अभय के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित,
अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मानवीय उपायों से मेरी छोटी मां धारिणी देवी के अकाल दोहद का मनोरथ पूरा नहीं किया जा सकता। यह केवल दिव्य उपाय से ही पूरा किया जा सकता है।
सौधर्म कल्पवासी एक देव मेरा पूर्वसांगतिक (पूर्व जन्म का मित्र) है। वह महर्द्धिक, महाद्युतिक, महापराक्रमी, महायशस्वी, महाबली, महाप्रभावी और महासुखसम्पन्न है। अत: मेरे लिए यह उचित है कि मैं ब्रह्मचर्य को स्वीकार कर मणि-सुवर्ण को त्याग, माला, सुगन्धित चूर्ण और विलेपन को त्याग, शस्त्र-मूसल को छोड़, अकेला, अद्वितीय, डाभ के बिछौने पर बैठ, अष्टम भक्त (तीन दिन का उपवास) स्वीकार कर पौषधशाला में पौषध निरत हो अपने पूर्वसांगतिक देव के साथ मानसिक तादात्म्य स्थापित करता हुआ" विहरण करूं।
वह मेरा पूर्वसांगतिक देव मेरी छोटी मां धारिणी देवी के इस अकाल मेघ के दोहद की सम्पूर्ति करेगा--अभय कुमार ने इस प्रकार संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर जहां पौषधशाला थी, वहां आया। आकर पौषधशाला का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन कर उच्चार-प्रस्रवण भूमि का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर डाभ के बिछौने पर बैठा। बैठकर अष्टमभक्त स्वीकार किया। अष्टमभक्त स्वीकार कर पौषधशाला में पौषध व्रत में निरत ब्रह्मचारी यावत् अपने पूर्वसांगतिक देव के साथ सतत मानसिक तादात्म्य स्थापित करता हुआ विहरण करने लगा।
देवागमण-पदं ५४. तए णं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाणे पुव्वसंगइयस्स
देवस्स आसणं चलइ॥
देव का आगमन पद ५४. कुमार अभय के अष्टमभक्त तप के परिणत होने पर उसके
पूर्वसांगतिक देव का आसन प्रकम्पित हुआ।
५५. तए णं से पुव्वसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे आसणं चलियं
पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ।।
५५. उस पूर्वसांगतिक सौधर्मकल्पवासी देव ने अपने आसन को प्रकम्पित ___होते देखा। देखकर अपने अवधिज्ञान का प्रयोग किया।
५६. तए णं तस्स पुव्वसंगइयस्स देवस्स अयमेयारूवे अज्झथिए
५६. उस पूर्वसांगतिक देव के मन में इस प्रकार का आन्तरिक,
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