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डा० पाठकजी तक चकधिन्नी काटते थे फिर हम जैसों की तो बिसात ही क्या थी। पर नारियल की ऊपरी कठोरता के नीचे सुस्वादु नमकीन जल तथा स्निग्ध मधुर गिरी प्राप्त हो गई। उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दो। वह पाण्डुलिपि उनके पास कुछ दिनों के लिए छोड़ दी गई। थोड़े दिन बाद वह उन्होंने लौटा दी।
मैंने उसे पुनः पढ़ा और देखा कि यह पूज्य पाठकजी को भावना के अनुकूल अब भी नहीं हो सकी। पाठकजी इस असार संसार को सर्वदा के लिए छोड़ चुके थे और कराल काल के ग्रास बन चुके थे। मेरी पुस्तक न पाठकजी का आशीर्वाद पा सकी न उनसे प्राकथन ही जुटा सकी। बोच में कई पुस्तकों का लेखन और विशेषाङ्कों का सम्पादन भी हो चुका था। समय बदल गया था और इस नये वातावरण के अनुकूल पुरानी पाण्डुलिपि मुझे अँच नहीं रही थी। अतः नये सिरे से तीसरी बार इसे लिखा। ८-८ घण्टे घोर परिश्रम करना पड़ा। एक-एक शब्द का हिन्दी पर्याय जुटाने के लिए सप्ताहों खोज करनी पड़ी। काम में परिश्रम बहुत था और लिखा कम जाता था। कई बार तो एक-एक अध्याय चार-चार बार बदलना पड़ा । लिखने का जब कभी उत्साह कम हो जाता था तो चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय के अध्यक्ष श्रीमान् जयकृष्णदासजी गुप्त के अनुजश्रीकृष्णदासजी गुप्त की पत्रवर्षा होने लगती थी-कापी अभी तक नहीं भेजी है। काम कब तक होगा, विज्ञापन कर दिया गया है। माँग आ रही है। हमें मुँह छिपाना पड़ रहा है, कापी जल्दी भेजिए आदिआदि । बड़ी कठिनाई से कापी पूरी हुई। इसे श्रीकृष्णदासजी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आयुर्वेद कालेज के सुप्रसिद्ध प्राध्यापक श्री पं० गङ्गासहाय पाण्डेयजी के पास ले गये। उन्होंने कहा-यह एक नहीं, दो पुस्तकें हैं । एक दोषधातुमलविज्ञान पर है जिसे स्वतन्त्र छपाइये और दूसरी अभिनवविकृति विज्ञान । इसका मुद्रण अविलम्ब आरम्भ कर दीजिए । अतः ग्रन्थ का मुद्रण चालू हो गया, जो महीनों चलता रहा । इधर मैं अपना निवास स्थान पुरदिलनगर (अलीगढ़ ) छोड़ कर पुनः काशी वापस आ गया अतः मुद्रण कार्य भी द्रुतगति से पूर्ण होने लगा। जब पुस्तक छप गई और पुनः पाण्डेयजी को दिखाई गई तो उन्होंने इसमें चित्रों का अभाव बतलाया और प्रकाशन रोक दिया। चित्रों की खोज की गई। भारतीय लेखक जो वैज्ञानिक विषयों पर लिखते हैं, चित्रों की बड़ी कठिनाई उनके सामने आती है। चित्र कैसे तैयार किये जायें यह समस्या थी । न चित्रकार मिलते, न उसका भाव ही कोई समझ कर चित्र बना पाता। राधारानी का चित्र बनाकर कला को चिरस्थायी करना जहाँ रुचता है वहाँ विकृत ऊतियों के चित्र बनाना कैसे रुचे ? अस्तु, जो डिजाइनें बनवाई भी गई वे बड़ी भद्दी थी अतः विकृतिविज्ञान की प्रसिद्ध पुस्तकों से ही चित्रों की प्रतिलिपि विवश होकर लेनी पड़ी। विषय के निर्वाचन में और उसे क्रमानुसार सजाने में भी विशेष कष्ट का अनुभव हुआ।
एक परम्परा आधुनिक विकृति विशेषज्ञों ने अपना रखी है जिसके अनुसार वे पहले सामान्य वैकारिकी का विचार उपस्थित करते हैं फिर उसी के आधार पर विशिष्ट वैकारिकी का प्रतिपादन करते हैं। यह परम्परा मुझे कभी रुची नहीं है। इसीलिए मैंने वैकारिकी के इन दो भेदों को अपने इस ग्रन्थ से हटा कर विषयानुसार प्रतिपादन किया है । व्रणशोथ का सामान्य विवेचन पहले करके उसी शृङ्खला में शरीरावयवों में उसका प्रभाव चित्रित कर दिया है। इसके कारण सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का ज्ञान विद्यार्थी को एक ही स्थल पर मिल जावेगा। ___ आधुनिक विकृतिशास्त्र से सम्बद्ध प्रायः सभी विषयों का समावेश मैंने इस ग्रंथ में किया है। कुछ विषय जिनका सम्बन्ध जीवाणुविज्ञान या कीटाणुविज्ञान से है इस ग्रन्थ में जानबूझ कर सम्मिलित नहीं किए गये। उन्हें पाठक तत्सम्बन्धी ग्रंथों में देख सकते हैं। कुछ अन्य भी ऐसे
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