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मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक 16
महाकइपुप्फयंतविरइउ
महापुराणु [ महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण ]
द्वितीय भाग
[ नाभेयचरिउ उत्तरार्ध ] आदितीर्थंकर ऋषभदेव का जीवन-चरित
(सन्धि 19 से 57)
अपभ्रंश मूल – सम्पादन डॉ. पी. एल. वैद्य
हिन्दी - अनुवाद डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर
भारतीय ज्ञानपीठ
दूसरा संस्करण : 2001 2 मूल्य : 200 रुपये
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पुरोवाक्
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महाकवि पुष्पदन्त द्वारा अपभ्रंशमें विरचित महापुराणके नाभेय चरितके में. देवेन्द्रकुमार जैनके हिन्यो अनुवादका यह दूसरा खण्ड है। वैदिक मान्यता विपरीत जन पाराणिक मान्यता अनसार जिन भरतके नामपर इस देशका नाम भारत पड़ा वे प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के पुत्र थे। इस खण्डमें दिग्विजयके बाद प्रथम चक्रवर्ती भरतके द्वारा प्रवर्तित समाज और राज्य-व्यवस्थाओंके वर्णनके साथ प्रमख पात्रोंके पूर्व और उत्तर भवोंका वर्णन है। काग्यके अन्त में सभी प्रमुख पात्र तप और पैराग्यके द्वारा मोक्ष प्राप्त करते है।
प्रस्तुत माभय परित--महापुराणका महत्वपूर्ण अंश होते हुए भी-अपने आपमें सम्पूर्ण परितकाध्य है, जो तीथंकर ऋषभनाथके परिसके द्वारा बताता है कि मानक संस्कृतिका मूल कर्म है। कर्ममूलक मोग उसका एक पक्ष है और दूसरा पक्ष है रागद्वेषसे मुक्त होते हुए अपने पूर्ण आध्यात्मिक व्यनित्वका विकास करमा । राग-विरागके ताने-मानेमे जुने हुए मानव जीवन कर्म बौर माग दोनों संतुलन रखते हैं। ऋषमके चरितमें जिस कर्ममूलक वीतरागताका क्रमशः विकास होता है उसकी तुलमा गीताके अनासक कर्मयोगसे की जा सकती है । ऋषमके निर्वाण प्रास होनेपर कहे गये ये शब्द, "मा मोहें तुहं संचहि दुकामु" ( 37. 24. 9.) "तुम मोहके द्वारा दुष्कर्मका संचय मत करो" अनायास गीताका स्मरण दिला देते हैं, "कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् (2. 2)।" दोनोंमें जो असमानता है वह दो कालोंकी असमानता है। कममूलक मानव संस्कृतिके प्रवर्तक हीर्थकर ऋषभनाथ स्यागमलक आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिष्ठाता भी थे। वे श्रीकृष्णसे पहले इए बताये जाते है। प्रवृत्ति और निवत्तिके दू तया संन्यासमें पासण्डके प्रवेश कारण समाज व्यवस्थामें आयी विषमताको देखते हुए गौताकारने अनासक्तिकर्मयोगके द्वारा समाजको सन्तुलित किया और कहा कि फलको आसक्तिसे शूम्य कर्म, फलको प्राप्तनिपूर्ण संन्याससे लास गुना अच्छा ।
____ महाकवियों की रचनाओं में हमारे इतिहासके विभिन्न युगोंकी प्रवृत्तियोंका संवेदनशील विश्लेषण है। ऊपरसे भिन्न नामों बौर रूपोंवाली इन रचनाओंकी मूल प्रवृत्ति और चेतना एक है । मैं आशा करता है कि वर्तमान पीढ़ी तुलनात्मक अध्ययन द्वारा एकताके उस मल स्वरको खोजेगो जिसमें दर्शन और संस्कृतिकी प्रात्मा है तथा उसे अपने जीवन में साकार देकर काव्यके महत्त्वपूर्ण प्रयोजनको सफल बनायेगी।
इन्दौर, 12 मई 1979.
देवेन्द्र शर्मा भूतपूर्व कुलपति, गोरखपुर विश्वविद्यालय
एवं कुलपति, इम्योर विश्वविद्यालय
इन्दौर
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भूमिका
वर्ण व्यवस्था
प्रस्तुत खण्ड कविके 'नाभेप परित' का उत्तरार्ध है जिसमें दिग्विजयके पाब, एक पक्रवर्ती सम्राट्के रूममें भरतके पासनसे लेकर तीर्थंकर ऋषभ आदिके निर्वाण तकका कपानफ सम्मिलित है। चूंकि ऋषम तीर्थकर, कर्ममलक संस्कृति के आदि संस्थापक है। उनके द्वारा स्थापित समाजव्यवस्था और प्रशासन तन्त्रको भरत विस्तार करता है। महापुराण के अनुसार ऋषमने क्षत्रिय, वैश्य और वाद-तीन वोकी स्थापना की थी। ब्राह्मण' वर्ण की स्थापना बाद में उनके पत्र चक्रवर्ती भरतने को। वैदिक मतके अनुसार ब्राह्मणों का जन्म सबसे पहले ब्रह्माके मुखसे हया। यह बात दिलचस्प है। एक दिन भरत सोचता है कि धान के बिना घन शोमा नहीं पाता, उसी प्रकार जिस प्रकार हमसे आहत कमलवन । प्रशासन सम्बके द्वारा संचित धनको शोभा बढ़ाने के लिए भरत बुद्धिमान् सुपावोंको खोजकर उन्हें दान देता है। इसका कहना है कि धन मरनेपर एक भी कदम साथ नहीं जाता।
"धणू मुयहो पर विण गच्छह । 19/! ब्राह्मण कोन
वह दोनों के उद्धारमें धनको सार्थकता मानता है। भरत क्षत्रियों को बुलवाता है और उनमें जैनधर्मक नियमोंका पालन करनेवाले धार्मिक क्षत्रियको ब्राह्मण घोषित करता है। ब्राह्मण को परिभाषा करते हुए भरत दूसरी बहुत-सी बातों के अलावा कहता है : जो हिल कपास और द्रव्य विशेषौंको होम फर ग्रहोंको प्रसन्न करता है, पशु और जीवको नहीं मारता, मारनेवालोंको ममा करता है, जो स्व और परको समान समझता है । ( वस्तुतः यह कविके समय के विचारोंको झलक है जब सामन्तवाद अपनो चरम सीमा पर था)। कविक ममय ऐसे लोगोंको जैनदीक्षा देने की प्रथा यो जो हिसासे विरत थे और जैन तीर्थंकरों में श्रद्धा रखते थे। उन्हें न केवल वर्णाश्रममें सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया अपितु उन्हें सुन्दर परिसम्पन्न कन्याएं अलंकृत करके दी गयीं, उन्हें श्रो-सुखसे भरपूर परतीर दिये गये, पानी से सिचित जमौने दो गयीं, उन्हें मणि, रस्त, मुकुट, फटिंसूत्र, कड़े, घड़े-भर दूध देनेवालो गायें, देशान्तर करसहित धरतो अंग्रहार नगर आराम ग्राम सीमाएं और सरोवर प्रदान किये गये। 19/7.
ऋषभकी आलोचना
लेकिन राजा भरत खोटा सपना देखता है और उसका फल पूछने के लिए तीर्थकर ऋषभके पास जाता है। और दुःस्वप्नके साथ 'बाह्मण वर्ण के निर्माणपर उनकी राय जानना चाहता है ! ऋषम भरतके कार्यका समर्थन नहीं करते। वह कहते हैं-“हे पुत्र, तुमने यह पापकार्य क्यों किया, क्योंकि द्विजवंश कुत्सित न्याय और नाशका कारण होगा? वे पापोंका समर्थन करेंगे" 199. भविष्य कथममें वह भावी मादि महापुरुषों के होने की घोषणा करते हैं । उनके अनुसार दुषमाकाल में उन्हों सद बुराइयों, उत्पात, नसिक पतन और अभान्तिका बोलबाला होगा, जिनका उल्लेख हिन्दू पुराणों में कलियुगके नामसे मिलता है ।
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महापुराण
ब्राह्मणोंके विषय में ऋषभ जिन कहते हैं :
ये लोग ( ब्राह्मण ) पशु मारकर उसका मांस खायेंगे। यश में रमण करेंगे, स्वम् क्रीड़ा करेंगे, मधुर सोमपान करेंगे । पुत्रको कामना करनेवाली परस्त्रीको ग्रहण करेंगे। दूसरों को अपनी पत्नी देंगे ? मद्यपान करते हुए भी दूषित नहीं होंगे। प्राणिवधसे भी दूषित नहीं होंगे। वे जो करेंगे उसीको धर्म कहेंगे । में शून्यागारों, वेश्याकुलों और पापोंसे अम्धे राजकुलोंके कर्मको धर्म कहेंगे ! हे पुत्र, वहाँ मैं पापका क्या fe ? वे गाय और आगको देवता कहेंगे । पुत्री और पवनको देवता कहेंगे। मासके निश्य भोजनको व्रत कहेंगे । वे दूसरे दूसरे पुराण लिखेंगे - देखोके द्वारा यह किया गया। स्वयं अपने कुलोंको चाहकर धोकरीपुत्र ( व्यास ) और गर्दनी पुत्र ( दुर्वासा ) जैसे कपट-आगमों को करने वालोंको परम ऋषित्वकी संज्ञा प्रदान की जायेगी । 19/10
ऋषभ जिन यह भी घोषित करते हैं कि कलिकालमें जैन मुनियोंको मन:पर्यय और अवधिज्ञान होगा | 19/12. और यह कि जैन मुनि भी कषाय बाँधने वाले होंगे। 19/13.
भावलिंगी भरत
अपने पिता तीर्थ
और उपदेश सुनकर भरत अयोध्या लौटकर जिन प्रतिमाका अभिषेक करता है । उसका विश्वास है कि जनपद राजाका अनुकरण करते हैं : 'रामाणुवट्टि जगि संचरह
जिइ परवह तिह जगवठ' 28 /.
भरत भागी है, और भारतेश्वर होकर भी जिनवरके धर्मका बाचरण करता है। वह रोज यह अनुभूति करता है :
"होउ होउ रायतें गंधे अणु दिणु य शायं कयं
हजं मुणिव परिदिउ वरचें ।
व चह्निवि जंति रागपरमाणु ॥ 28 / 2.
हो हो, राज्यस्त्र और परिग्रह। मैं मुनिवर हैं, पर वस्त्रोंसे घिरा हुआ। प्रतिदिन यह ध्यान करते हुए उसके ( भरत के ) रागपरमाणु धूलके समान जाने लगते हैं ।
राजनीतिशास्त्र
•
भरतका राजनीति विज्ञान यह है कि जिसमें शत्रु के द्वारा मन्त्रभेदन न हो, तलवारसे जिसका प्रताप दूर तक फैलता है जो प्रातः परमात्मा की उपासना कर न्यायशासन में मन लगाता है, प्रजाके वाचरणकी चिन्ता करता है। अधिकारियोंको नियोग में लाता है, विभिन्न क्रियाओंसे लोगोंका आदर करता है, शत्रुमण्डलमें घर भेजता राज्यकार्य से निवृत्त होकर घरमें स्वच्छन्द विहार करता है, भोजनके उपरान्त नृपगोष्ठी में आघात से सीसरे प्रहरका ज्ञान होनेपर, विनोदसे वेश्याओं के साथ क्रीड़ा विलास करता है । यह अच्छ वाविलासिणिहि सह फीलाई बिपो 28 3.
रहता है, घड़ी
कविके इस कथनमें भरतका चरित्र एक प्रतीक है, जिसके माध्यम से कवि अपने समय के सामन्त राजाओं के चरित्र की गिरावटका सांकेतिक वर्णन करता है, उक कपनकी यही व्याख्या की जा सकती है। नहीं तो, जो चक्रवर्ती सबैरे यह ध्यान करे कि मैं मुनिवर है, दस्त्रोंसे लिपटा उसी दिन शामके तीसरे पहर वार विलासिनियोंके साथ कीड़ा करें, इन दो बालोंमें संगति बैठाना असम्भव है, एक समाधान यह भी दिया जा सकता है कि वस्तुतः यह वसवीं सदी के भारतीय सामन्तवादी प्रत्ता पुरुषों को यथार्थ स्थितिका अंकन है जिसमें वीर लोग कभी एक कामसे युद्धकी ललकार और दूसरे कानसे नूपुरकी शंकार सुनने के बादी
1 पुष्पदन्त के समय सबेरे परम वीतरागताकी अनुभूति और शामको वारवमिताओंके साथ विलास ।
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Bada
भूमिका
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पुष्पदन्त का कहना है भरत सभी शास्त्रों का जानकार था। कवि भरतको मन्त्र तन्त्र और संगीत का आवि कारक मानता है । उस भरतके समान राजा न हुआ है--और न होगा
"तहु मरहहु सरिसु महाणिव जगि ण हुम ण होस ।" 28/4.
भरत राजाओं के पांच प्रकारके पारिथ्यका उल्लेख करता है। और कहता है कि जिनवर ऋषय क्षत्रिय कुलके विधाता हैं। 28 4-5 / वह बस लक्षण धर्मका कथन करता है । वह राजा धर्मका आचरण अनिवार्य मानता है ।
पुष्पदम् भरतके मुखसे यह महत्वपूर्ण कथन करवाते है
"विश्कारण मारण जो राण मिसु मंfि हलहर संघाय है सिहंदि वहिवरायहं ।
कक्षा ६५, बुदुढणार विभय संतामण
जो घण हरण करक भीसावणु । अणणीसास सिहिहि सो अणुवि विक्रय कम्में वह । लग्ग पण जियत्र दुखहुया सद
बस देसु विसद्द परदेस ।" 2818.
जो राजा अकारण बहाना बनाकर कृषक समूहों, बेचारे ब्राह्मण, बनियों को मारनेवाला, वृद्ध स्त्रियों और बच्चों को सतानेवाला है और भीषण घनका अपहरण करनेवाला है वह लोगों की आहोंकी ज्वालामें जल जाता है, तथा पापकर्मसे लिप्त होता है । लगी हुई दुःखकी ज्वालासे जीवित नहीं रहता। वह देश में नहीं रह सकता, उसे परदेश जाना पड़ता है । पुष्पदन्तसे छह सौ वर्ष बाद होनेवाले महाकवि तुलसीदास कहते हूँ
"तुलसी आइ गरीब को कबहुँ न खाली जाय । मुए नाम के योग तँ लोह भस्म हुई जाय ॥ "
पुष्पदन्तने राजाके पाँच चारित्र्य ( करने योग्य काम ) का उल्लेख किया है। उसका पहला काम है अपने कुलकी रक्षा करना। दूसरा काम है, इसके लिए शुद्ध माचरण होना जरूरी है । राजाको अपना विवेक शुद्ध रखना चाहिए। मिथ्या क्रीड़ाओंने राजाका विवेक चला जाता है अतः उसे बरहन्तोंकी शिक्षाएँ ग्रहण करनी चाहिए।
कुगुरु कुदेव कुलिंग पसंगें 2816.
प्रजाका निरीक्षण करना चाहिए; उसे न्यायका पक्ष
'णासह शिवम मिच्छारंगे
तीसरे, राजाको धर्माचरण करना चाहिए, लेना चाहिए। 2818.
राजकुलका अस्तित्व
राजकुलकी सत्ताके विषय में कविका कहना है रहे हैं और समय-समयपर जिनवर उसकी स्थापना
उत्पन्न हुआ दिखाई देता है । इस प्रकार बीजांकुर म्यायसे कुल चला आ रहा है ।
कि भारतमें राजाधोंके द्वारा राजकुल नष्ट किये जाते करते रहे हैं। इसलिए वह सावि अनादि होकर भी,
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महापुराण "साह बणाई वि दीसह मायउ बीयंकुरकोण कुलु आय
भरहेगवहिं कुलु सिज्जइब्रालि कालि जिणणाहहि मिजा।" 2815. भरहेरावहिं पक्के दो अर्थ सम्भव है-भरत और ऐरावत क्षेत्रों में अपवा भरत क्षेत्रके राजाबोंके द्वारा। अन्तम मरत चक्रवर्ती कहता है :
"जिह गोवउ पालह गोमंडलु तिह पासह गोवह गोमंहलु ।" 2018. जिस तरह ग्वाला गायोंके मण्डलका पालन करता है उसी तरह राजा भूमिमणलका पालन करता है। कृपणका चित्रण
जिसके पास धन नहीं है, उसके पंचम कोने न दो का पाल नहीं करता... लेकिन को सम होते भी खर्च नहीं करता उसकी भरत आलोचना करता हुआ कहता है।
पंजूस व्यक्ति न नहाता है, न लेपन करता है, न वस्त्र पहनता है, वह सधन-सन स्त्रियोंको भी नहीं मानता । सिरपर रखे हुए शो के डंठलोंके गुन्छोंवाले घान्यफण तथा प्रोणोमर अलसीका तेल रखता हुआ वह स्वजनों को निकाल बाहर करता है। उसके मन में निरन्तर इतना लोमधन होता है कि बड़े त्योहारके दिन भी दोनकी तरह खाता है। लोगोंका मनोरंजन करनेवाले पात्रको हाथमे लेकर नगरमें घूम-घूमकर ऋण मांगता है । एक सड़ी सुपारी इस तरह म्हाता है कि एक ही सुपारीमे पूरा दिन बीत जाये ।
__'णिपरया पूयफल वंति किह एककेण जि रवि अत्मद बिह' 19-1 वह बन्धेरै एकान्तमें बन टटोलता रहता है।
"बंषद मेला पूर्ण पण मवह । वसु गुज्ज पवेहिं पुणु ठवह ॥ सा सढि ण पूरइ किह मरमि। मणि जूरह काई दश्य फरमि ||
लोहिद्छ दुल पावि पलु। पाहणयह उत्तर खस्नु । पत्ता-गहिगि गम गामहो दनिय कामहो मणु णं भल्लिा भिज्जा ।
मम वि दुक्खा सिंच तुहु आप घर भणु एहिं कि किज्जा ।।" धन छोड़ता है, पार-बार मापता है 1 घनको गुप्त स्थानमें फिर रखता है। यह साठकी संस्था पूरो नहीं होती किस प्रकार उसे भरा जाए ? मनमें अफसोस करता है कि हे देव, पया कह ? दुष्ट-पापो-लोभो व्यक्ति बहुत चंचल होता है। यह दुष्ट अपने अतिषिसे कहता है-"पत्नी अपने प्रिय गांवको गयो है और मेरा मन जैसे मालोंसे छिया जा रहा है, मेरा सिर भी फटा जा रहा है । तुम पर आये हुए हो ? मेरो समाम नहीं का रहा है ।" 19-3. जिनति
___ खराब सपने देखने के बाद भरत ऋषभ जिनके दर्शन करने के लिए कैलास पर्वतपर पाता है, उनको स्तुति करते हुए कहता है
तुम चिन्तामणि कल्पवृक्ष हो, तुम अमृतमय सरस रसायन हो, कामधेनु और अक्षयनिधि हो, तुम पुषोत्तम और लोगोंकी परमनिधि हो; तुम सिसमन्त्र और सिद्ध पौषषि हो । इसके बाद नामका महत्व बताया गया है।
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भूमिका "तुह गामें गड भासह अहि वि। तुह पामें णासह मस्तकरि कर देंत विधाइ गरह हरि । तुह गानें हुपबह पड रहा
परबलु गय पहरण भउ वहद, . .....वह णाम संतोसिय सलउ
तुट्टैवि जंधि पमसंखलउ । सुह जामे पायरि तरइ णव, मोसरह कोह कंप्य-जरु । तुइ णाम केबल किरणरवि
गीरोय होति रोया तर वि 1918 भरत के इन सद्गारों में भामरस्तोत्रको छाया स्पष्ट रूपसे है कहीं-कहीं अक्षरषः अनुवाद है। एक उदाहरण देखिये :
"मसदिपेन्द्र-मगराज-दवानलाहिसंग्राम-वारिधि-महोदर बंधनोत्पम् । सस्थाशु नाशमुपयाति भभियेव यस्तावकं स्तवमिम भतिमानधीते ॥" भक्ता046
सेक्षणं समदकोकिलकंठनीलं क्रोधोवतं फणिनमुत्फणामापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशकस्वन्नाभनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ।।" भक्का 4i
श्रीपालको भागमे-से निकलने पर कविकी प्रतिक्रिया इस प्रकार है
जिनवरको स्मरण करनेवालोंको नाग नहीं खाता । विषसे धर्मद नाग सामने नहीं आता। तलबारो के संघर्षसे उत्पन्न अग्निवाले युद्ध में जिनका नाम स्मरण करनेवालोंको अच्छेसे अच्छे योवा घेखकर भाग जाते है? 33-11
यह भाव भन्नामरस्तोत्रके पलोक 39-40 में देखा जा सकता है। ऋषभदेवके महानिर्वाणपर भरतके उद्गारोंमें उसको मनोदिया देसी जा सकती है
'हे जिन, आपके बिना नेत्र अन्धे है। अशेष दिशाएँ सूनी है। प्रजा हाथ उठाये रो रही है। हे विश्वरूपी बालकके पिता, तुम मेरे पिता हो, तुम्हारे बिना कला विकल्प कौन बतायेगा ? तुम्हारे बिना इस प्रजाका पालन कौन करेगा ? महान् तपश्चरण निष्ठा कौन सहन करेगा? तुम्हारे बिना तत्वभेद कौन जानेगा ? हे देव, तुम्हारे बिना घेवाधिदेव कौन होगा ? हे स्वामी, तुम्हारे बिना यह त्रिलोक मनाथ है।'
"पई विपु जिण अंधई लोयगई दिसत असेसउ सुणियउ । जग्मिवि इत्य ओम्माहियर पर परायर प्रणियउ॥"37-23
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महापुराण
सुहं मह वपु जगदिमवप्प पई विणू को कहा कलावियप्यु। ५६ विणु को पालइ इट्ट सिट्ठ को विसहइ गुरु तवचरण-णिटु पई विशु को जान तवभेठ को होह देव देवहि विदेव ।
पई विणु प्रणाह सामिय तिलोउ 37-24 मेषस्वर ( जयकुमार ) सुन्दर वाणो जिनवरकी स्तुति करता है । स्तुतिमें संसारको वृक्ष का रूप देते हए जयकुमार कहता है कि यह संसाररूपी घुस मिथ्यात्वफे मोजसे उत्पष्ट है, जो मोहकी अहोंसे फैला हुआ है, चार गतियां जिसके स्कन्ध है, और सुखको आशाएँ ही शाखाएं है, पुत्र-कला इसके प्रारोह हैं । इतना है ), शरीररूपी पत्तोंका यह त्याग-महण करता रहता है । पुण्य-पाप इसके फूल हैं । इस प्रकार सुखदुःखरूपी फलोंकी श्रीसे परिपूर्ण इस संसारवृक्षपर इन्द्रियरूपी पक्षी बैठे हुए हैं, ऐसे संसारवृक्षको भएनी ध्यान-अग्निसे भस्म कर देनेवाले हे जिन, आपकी, जय हो ।
"बहुमिसमास-वीय उप्पण्णउ । मोह विसाल मूलु वित्यिण्णत ॥ चजगह खंधू सुहासासाह तकल हाय पारीहरु
: गहिय मुक्त वहुविह तणु पत्तउ । पुष्णपाव कुसुमेहि णि उत्तउ ॥ सोक्त दुक्स फल सिरि-संपण्णउ । इंदिय पक्सि उलहि पहिवण्णत ॥" पत्ता-इय भवत शाण-हयासणेण पई दड्डउ परमेसर ।
जिण जम्मि-जम्मि महूं तुई सरणु जय-जय जिय वम्मीसर ।। 28-37 प्रकृति या संसारका स्वरूप समझाने के लिए वृक्षका रूपक बहुत पहलेसे प्रयुक्त है। श्वेताश्वतर उपनिषदमें उल्लेख है।
"ढा सुपर्णा समुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते, ___ तयोरभ्यः पिपलं स्वास्ति मनश्नन्यो अभिचाकयोति ।"
दो मुन्दर पंखोंवाले साथ-साथ रहनेवाले मित्र पक्षो समान वृक्ष ( प्रकृति ) पर बैठे हुए है। उनमें से एक पीपलको स्वादसे खाता है और दूसरा उसे नहीं खाता हुआ हो प्रकाशमान है। भगवद्गीतामें संसाररूपी वृक्षको कल्पना इस प्रकार है
ऊम्बमूलभधःशाखमश्वरयं प्राहुरव्ययम् । छान्दासि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।। अपरमोध्वं प्रसूतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।। अषपच मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबम्धीनि मनुष्यलोके ।। 15-1,2 न रूपमस्येह तपोपलभ्यते नान्तो न चादिनं च संप्रतिष्ठा । अश्वत्यमेन मुविस्तनूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छिरवा 1 ततः पदं तत्परिमागितव्यं पस्मिन्गता न निवर्तन्त भूयः ।
तमेव चाचं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसूता पुराणी ।। 15.3,4 श्रीकृष्ण भगवान् कहते है-हे अर्जुन, जो मनुष्य उस संसाररूपी वृक्षको ( मूल सहित ) जानता है, यह वेद के तात्पर्य को जानता है। जिस वृक्षकी जड़ पर है (मायापति बासुदेव, सगुण रूपसे इस वृक्षके
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भूमिका कारण है ) और शाखाएं नीचे है (ब्रह्मा इस संसारका विस्तार करता है जो परमात्मासे उत्पन्न है और उनके मीचे ब्रह्मलोकमें पास करनेके कारण नीधे है) जिसे अविनाशी कहते है, और वेद जिसके पत्ते है । उस वृक्षाकी जड़ें बढ़ो इई है, और विषयरूपी कोंपलोंवाली शाखाएं कपर-नीचे फैली बुई है। तथा मनुष्ययोनिमें कर्मों के अनुसार बांधनेवाली ममता और वासनारूप जड़ें नीचे ऊपर-फैली हुई है।
इस संसाररूपी वृक्ष का पैसा स्वरूप कहा गया है, वैसा वह विचारकालमें नहीं पाया जाता। इसका न तो अन्त है और न आदि और न इसकी अच्छी प्रकारसे स्थिति ई, अतः दृढ़ मूलोंवाले इस वृक्षको असंग ( वैराग्य ) रूपी शस्त्रसे काटकर उसके बाद उस परम पदकी खोज करनी चाहिए कि जिसमें गये हुए पुरुष धापस संसारमै नहीं आते। मैं उसो आदि पुरुषको शरणमें हूँ कि जिससे संसारवृक्षको प्रवृत्ति विस्तार पा सकी। थीमद्भागवतमें संसारको सनातन वृक्ष कहा गया है जो प्रकृतिस्वरूप है
एफायनोऽसौ डिफलस्त्रिमू महचतूरसः पञ्चविषः षडात्मा । सातत्वगटविटपो नवाक्षो दशच्छदो द्विखगो ह्याविवक्षः ।। 10-3-27 त्वमेक एवास्य सलः प्रमूलिस्वं मनिषानं त्वमनुग्रहण ।
स्वन्मायया संवृतवेलसत्त्वां पश्यन्ति नाना न विपश्चिती ये 10-3-23. दह संसार एक सनातन वृक्ष है. इसका आश्रय -एक प्रकृति । इसके दो फल है-मुल और दुन्न । तीन जड़ें है-सत्य, रज और तम । चार रस है-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । इसे जानने के पाँच प्रकार है-बोटललानेत्र, रसना और सिमट सके छह स्वभाव है-पैदा होना, रहना, पढ़ना, पदलना, घटना बौर नष्ट हो जाना । इसकी सात छाल है-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । इसकी बाट शाखाएं है-पंच महाभूव, मन, बुद्धि, महंकार । इसमें नौ द्वार है (शरीरके नौ छिद्र)। प्राण, अपान, पान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कमल, देवदत्त और धनंजय मे इस प्राण दस पत्ते हैं । इस संसाररूपी वृत्तपर दो पक्षो बैठे है-जीव मौर ईश्वर | इस संसाररूपी वृक्षकी उत्तिके एकमात्र आषार बाप ही है। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके हो अनुपहसे इसकी रक्षा होती है। आपको मायासे आवृत चित्तवाले जो तत्त्वज्ञानी पुरुष नहीं है, ये आपको नाना रूपोंमें देखते हैं । श्रीमद्भागवत 1012127-28
तुलमारमा दधिसे देखनेपर स्पष्ट है कि बक्षका रूपक ईश्वर जीव और संसारको पारस्परिक स्थिति को समझाने के लिए है। उपनिषद् यह कहती है कि संसार ( प्रकृति ) के वृक्षपर दो पक्षी बैठे है-सुन्दर पंखोंवाले, जो साथी है. मित्र. एक वापर आसीन है। एक बक्षक फलको ला रहा है, जबकि दूसरा नहीं खाता । गीताकारका कहना है कि इस संसाररूपी वृक्षके जनक वासुदेव है, ब्रह्मा जिसे विस्तार देते है, वेद उसके पसे हैं, इसी प्रकार वह बढ़ता जाता है, उसका न तो आदि है और न अन्त है । गोताकारके अनुसार वृक्षाकी परम्पराको वैराग्यसे काटकर ही व्यक्ति परमपदको पा सकता है, यह तभी सम्भव है कि जब आदिपुरुषको शरणमे जाया जाये । श्रीमद्भागवत संसारको सनातन वृक्ष कहती है। वह अपने रूप में कुछ नयी बातें जोड़ देतो है, इस वृक्षका सृजन-संहार-संरक्षण ईश्वरके हाथमें है। 'पुष्पदन्त' अपने वृक्षरूपक में कुछ नयी बातें जोड़ देते हैं। एक तो वह जनतत्वों को इलमें घटित करते है। दूसरे जीव और ईश्वर के स्थानपर इन्द्रियोंको पक्षी माननेके पक्ष में है। तोसरे, ईश्वरको जगह मिथ्यात्वको संसारका कारण मानते हैं जिसे ध्यानकी अग्निमें भस्म किया जा सकता है। गीलाकार भी कहते है कि दर भूलवाले इस संसाररूपी वृक्षको वैराग्यसे काटकर आदिपुरुष में मिलाया जा सकता है। प्रश्न यह है कि जब जीव संसारवृक्षसे स्वतः नहीं बंधा, तो सस बन्धनको बह वैराग्यसे कसे काट सकता है, यह भी एक प्रश्न है कि पहले-पहल जोवफा मिथ्यात्वसे किसने बांधा ? संसारको वृक्ष कहनेका अभिप्राय यही है कि वह एक अन्तहीन अनादि प्रवाह है।
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दार्शनिक विचार
भरतको विज्ञासाके समाधानमें ऋषभदेव कहते है कि जिसमें ग्ध स्पित रहते है और दिखाई देते है वह लोक है, उसे किसीने नहीं बनाया, और न कोई उसे धारण किये हुए है। नह-चेतमसे भरा हुआ वह स्वभावसे रचित है। किसी चीजकी रचनाके लिए उपादान और निमित्त कारणोंका होमा जरूरी है । शिव, पृथ्वी आदि उपादान कारण कहाँ पाता है ? किसी रचनाके मूल में इच्छा होती है, व्याधिहीन शिवम इच्छा कैसे ? कुम्भकार अपनेसे भिन्न घड़ेकी रचना करता है-पानी रचनासे रचयिता भिन्न है। कर्ता-कर्म एक नहीं हो सकते, और कर्ताके बिना कर्म नहीं हो सकता । कुम्मकारके बिना यदि प्रा बन सकता है तो मिट्रीका पिण्ड स्वयं कलश बन सकता है। जो सम्भव नहीं है। शिव यदि इस सुष्टिका परित्राण करता है तो सपने दामों की रचना ही पथीं की ? यदि वत्सलता के कारण सृष्टिको रचना की जाती है तो समोके लिए भोगोंकी रचना क्यों नहीं की गयो?
जह वच्छलेण जि कियन लोउ।
तो किं ण किया सम्बह बिहोत ॥ ऋषम तीर्थकरके कपनका निष्कर्ष यह है कि लोक ( Space ) में जो कुछ स्थित और दृश्य ई, वह स्वतः है, वह अनादि-अनन्त है। किसीको ( चाहे वह कोई हो ) उसका की मानना मानवी तर्कको मबहेलमा करना है।
राजा महाबलका मन्त्री स्वयंधि अपने साथी मन्त्रियोंके दार्शनिक मतों का खण्डन करता हुआ पाक मतको मूतयोगवादी कहता है। उसका मुख्य तर्क है कि पृथ्वी आदि पार महाभूतोंके मेलसे जीवकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं । क्योंकि एक तो इनमें परस्पर विरोष है, माग पानीको सोख लेती है, और पानी मागको बुप्ता देता है। दोनोंका मिश्रण असम्भव है। जड़ और चेतन, दोनों भिन्न स्वरूपवाले है। अतः जनमें मिलाप सम्भव नहीं। क्षणिकवावका खण्डन करते हुए स्वयंति कहता है कि संसारमै सम्बरके बिना कोई वस्तु नहीं। जो पोष है ही नहीं उसका अस्तिस्त्र क्षणमें कैसे हो सकता है। यदि प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर है, तो वासना क्षण नाशको प्राप्त क्यों नहीं होती ? असः बस्तु क्षणजीवी नहीं है, प्रत्युत क्षणान्तरगामी है। यस्तुतः जिसके रहनेसे काल परिणमम करता है, वह काल है। जहाँ वह काल है वह बाकाशतल है, गलिमें सहायक धर्म ब्रण्य है और स्थिरतामें सहायक अधर्म तव्य है । पुद्गल अचेतन है । सचेतनमें जानका कारण जीव है। बिना जीवके पुद्गल न देख सकता है, न चिल्ला सकता है। बतः अबमें किया घेतनाके बिना सम्भव नहीं हो सकती । प्रकृति-चित्रण
मामेयचरितके इस उत्तरार्ध भागमें प्रकृति-चित्रणका विस्तार नहीं है । काशीराज-पुत्री सुलोचनाके स्वयंषरके प्रसंगके पूर्व वसन्तका वर्णन है । सुलोचनाका रूप-चित्रण करते-करते मन्त्री कहता है
लोलान्दोलनकी युक्तियां वसन्तके आगमनपर शीघ्र आ गर्यो । वसम्तके प्रागमनका समय अंकुरित, कुसुमित और पल्लवित होकर खिल उठा। जिस ऋतु चेतनाशून्य वृक्ष खिल उठते है यहाँ मनुष्यका मन क्यों नहीं खिलेगा?
"वियति बचेयण तरु वि जहि ।
सहि पर कि गउ वियसइ ॥' 28-13. कवि प्रकृतिके एक-एक वृक्षकी हलचलका कम मानवी चेतनाके प्रतिक्रिया के द्वारा करता है : “पदि आम्रवृक्ष कंठकित होता है तो वसम्तकी शोभा उसे आलिंगनमें बांध लेती है। यदि पम्मक वृक्ष अंकुरोंसे
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भूमिका अंचित होता है तो ऐसा लगता है कामदेव रोमांचित हो उठा हो । पोड़ा-थोड़ा परलवित अशोक ऐसा फगता है जैसे पिघाताको चित्रकारी हो । मन्दारकी दालमें यदि कोंपल फूटे है तो लगता है कि वसन्तने पलदलको नवा दिया हो । यदि पुनागवृक्ष में कलियाँ जाती है वो लगता है कि वह पीघ मतवाले चकोरों और शुकोंके शब्दोंसे भर उठा हो। वनमें खिला हुया पलास ( टेसू ) ऐसा मालूम होता है जैसे राहगीरों के लिए विरहकी आग जला दो गयी हो। मालती फूलह क्या बिग मात कपडभोंमे रसिका: लालच फैल गया । कुन्दवृज अपने कुसुमल्पी दांतोंसे हैसने लगे । और कोयलने कामका नगाड़ा बजाना शुरू कर दिया।" 28-14.
उस अवसरपर जो केलिगृह बनाये गये उनका निराला ठाठ-बाट पा
"सधन मधुके छिड़कावोंसे और परागोंकी रंगोलीसे घरती व्यार हो उठी। वसन्त राषा सपवनरूपी भवनमें, मवपुष्पोंकी फलियों-कपी दीपों, ममूरोंकी नृत्यमुद्राओं, पवल कुसुम मंजरियोंको पुष्पमालाओंपर गूंजते हए भ्रमरोंको गीतावधियों तथा राज-इसिनियोंकी रमणशील कोदाक साथ आसन ग्रहण करते है।" 28-15.
नारीरूप चित्रण
बहुपत्नी प्रथा सामन्तवादकी सबसे बड़ी विशेषता रही है। नारियोंकी भरमार होनेसे उनके रूप चित्रपकी बहुलता होनो स्वाभाविक है। स्त्रीको लेकर होनेवाले इसके मूल, उसके प्रति यो पुरुषोंका आकर्षण है, और जहाँ ऐसा है-वहाँ पर होना अनिवार्य है। कविके शब्दों में
"एक्काहि भिसिणिहि दो हंसवर । एकहि किसकलियहि दो भमर 1; जद होति होंतु ण घडा अवा ।
सरु संघस विषत कुसुमसा ॥" एक कमलिनी और दो श्रेष्ठ हंस हों, एक दुबली-पतली कली और दो भ्रमर हों, तो यह होना नहीं घट सकता, केवल कामदेव सर-सम्मान करता है और बेषता है। एक तरुणोफे उरोजोंका क्या दो भावमी अपने कोमल हाथोंसे धानन्द ले सकते हैं? यह सोचकर दोनों विद्याधर कुमारोंमें लड़ाई उन गयी। यह दुहराने की आवश्यकता नहीं कि अपभ्रंश काश्योंमें वर्णित अधिकांश युद्धका कारण 'नारीरूप' है। और यह सामन्तवादो समाजको या पुरुष प्रधान समाज व्यवस्थाकी विशेषता नहीं-प्रत्युत मनुष्प प्रकृतिको विशेषता है। यह मनुष्यको ही प्रकृति नहीं, समूचे चेतन जगत्को प्रकृति है, चेतनाके विकासस्तरके साथ रागचेतनाका विकास होता जाता है। सारी आध्यात्मिक साधनाएँ इसी रागचेतनाको प्रतिक्रियासे जम्मी साधनाएं है । आस्तिक दर्शन इस पेठमाको ईश्वरको आस्मरतिका बाह्य विस्तार मानते है, अनीश्वरवादी दर्शन उसे क्षणिक दाखमलक या परभाव मानते हैं। नारीरूप चित्रण या श्रृंगारकी अभिव्यक्ति पपातका अन्तिम उद्देश्य नहीं है ? परन्तु वैराग्यकी अनुभूतिके लिए रागकी मांसल अनुभूतिका वर्णन जरूरी है। सभी देशों और समयोंके मनुष्य प्रेमके मामले में जो एकाधिकारवादी रहे है, वह इसलिए कि अपनी प्रिय वस्तुपर एकाधिकारकी भावना प्रेमकी विशेषता है।
श्रीमतीका नरस-शिख वर्णन करता हमा पुष्पदन्तका काय स्वीकार करता है: कुंकुमसे बारक्त उसके परोंको मैं कामदेवकी भुजाएं मानता हूँ। पराग मणियोंकी तरह लाल लाल पर क्या नक्षोंकी तरह नहीं जान पड़ते ? चस युवतीके घुटनों के जोड़ोंको देखकर मुनि कामदेवका सन्धान करने छगते है। ऐसा कौन है कि जिसकी वेवारी मनरूपी गैर-मश्चक्रीड़ा मैदानम ( पौगानके खेल के मैदानमें) चल नहीं हो सकती ?
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महापुराण
"तंबई पोमराय रुह पोखर रस्ता कि राति ण णलाई पेण्ठिवितणि जाण संघाणई मुणिविकरति मयणसंपागाई करूवाहयामि अंतरि चुन
कासु ण चल बप्प मणदुई" 22-7, श्रीमतीफे विवाहके अवसरपर वरवधूको आशीर्वाद देते हुए लोग कहते हैं
जाव गंगाणई जाव मैरूगिरी ताम्ब भुजेह तुम्हे वि णिचं सिरी। होतु मुत्ता महंता पहाभासुरा
जंतु बधिमण्णणेहेण वो वासरा ।। 24-13. जबतक गंगानदी और मुमेपर्यत है तबतक तुम भी मित्म श्रीका उपभोग करो। तुम्हारे महाप्रभाव पाली पुत्र हों, तुम्हारे विन अविछिन्न स्नेहसे बोते।
इसके बाद कार्य दोनोंको सम्भोगतमालकान करत यथार्थवादको भी मात देनेवाला है। लेकिन उसे श्रीमती और धनबाहके समूचे जीवन (जो जस्म-जन्मान्तरों में भी व्याप्त है ) के सन्दर्भमें देखना चाहिए । श्रृंगारके इस प्रकार खुले वर्णनके कई कारण है । उनमें एक कारण यह है कि कवि नताना चाहता है, रागानुभूति जितनी तौर होगी, उसको प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीच होगी।
देवी सुलोचनाके रूपवित्रणमें कवि प्रश्नवाचक चित्र लगा देता है। जिसका अर्थ है कि उसका रूप सीमातीत है।
कि तरुणीवयणह सबमिज्जाद ।
बासु सरिच्छन तं जि भणिज्जइ ।। 28-13. पुष्पदन्त को सबसे प्रिय प्रवृत्ति है नर-नारी रूपकी तुलना प्रकृतिसे करना। जयकुमार अपनी पत्नी सुलोचनाके साथ गंगा पार करते हुए उसके बीचमें पहुंचता है। वह गंगा, अपनी नववधू सुलोचनाका प्रतिबिम्ब देखता है।
जसमें तैरता हुआ सारस-जडा देखकर देखता है प्रियाके स्तनकलश युगल । गंगाकी सुन्दर तरंगोंको देखकर प्रियाको विलितरंगको देखता है। गंगाके बादत भ्रमणको देखकर प्रियाके श्रेष्ठ माभिरमण को देखता है, गंगाके खिले कमलको देखकर प्रियाके मुखकमलको देखता है, गंगाके फैले हुए मत्स्यों को देखकर प्रिया के चंचल और दोघंतर नेत्रोंकी देखता है। गंगामें मोतियोंको पंक्तियोंको देखकर प्रियाकी दन्तपंकिको देखता है। गंगामें मतवाली भ्रमरमाला देखकर कान्ताकी नीली चोटी देखता है? 29-7, इस तुलनाका उद्देश्य यह बताना है कि सुलोचना कामकी नदी है।
"णिय गहिणि बम्मबाहिणि देवि मुलोयण जेही
मंदाइणि जणमुहदाइणि दीसइ राएं तेहो ।" 29-7. अपनी गृहिणो कामकी नदी देवी सुलोचना जैसी है जनोंको सुखदेनेवाली मंगानदी भी उसे वैसी दिखाई देती है। युद्धवर्णन
माभय चरिउके इस उत्तरार्ष भागमे युद्धके प्रसंग भी कम है। प्रमुख उल्लेखनीय युद्ध भरतके पुत्र अर्कफोति और जयकुमारके बीच हुआ, वह भी सुलोचनाके स्वयंवरको लेकर । सुलोचना जयकुमारको
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भूमिका
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वरमाला डालती हूँ। अर्ककोति शक्रमणसे उसे छीनना चाहता | मन्त्रीका समझाना आगमें धौका काम ) धर्ककीति जयकुमारसे पहलेसे ही चिड़ा हुआ था-वरण तो एक
करता है। (णं पण सित्तड घुम बहाना पा । व्यर्ककीर्ति कहता हूँ :
वारिण पतिहि ब अज्जू सयंवर माला-तुप्प सो दूसह पज्जलित वट्ट रिट लोहियसिस मोहट्टर 28-25
"जिस आगका पिताने प्रच्छन्न उक्तियोंसे निवारण किया था आज वह स्वयंवरकी मालारूपो पीसे मसरूपसे प्रज्वलित हो उठी है अब जित हो उठी है अब वह शत्रुके रक्तले रक्तसे सींची जानेपर ही शान्त होगी" ।
फिर क्या था ? सगरमेरि बज उठो, कलकल होने लगा । एक पलमें चतुरंग सेना दौड़ी प्रशिक्षित और सुरक्षित वीर योद्धा महागजों पर बैठ गये। महावतोंसे प्रेरित वे गरजते हुए महामेघकी तरह दौड़े। तीखे खुरोंसे घरीको लोदते हुए, उत्तम कामिनियोंके भनके समान चंचल घोड़े ला दिये गये ।
esोंके हिलते हुए वाडम्बरवाले दीप्ति और विचित्र छत्रोंसे आकाशको आच्छन्न करनेवाले, water पेट विषरोंके सिरोंको दूरदूर करनेवाले, तलवार, अस, सूसल, लकुटि और हल हाथों में लिये हुए बड़े-बड़े योद्धा युद्धके मैदान में पहुँचे। 23-24
लड़ते हुए प्रगलित व्रण रुधिरवाले सैम्य ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो युद्धकी लक्ष्मीने दोनोंको टेके फूल बांध दिये हों ।
जुज्यंत बिट्टई विसरिसई पयक्रियणरुहरुल्ल
for विष्णणं रणसिरिए वद्धई फेसु फुल्लई ॥ 28-26.
हारते हुए अकीतिकी ओरसे सुनभि जयकुमारको ललकारता है तो वह उसका मुंह तोड़ उत्तर देता है
"परस्त्रीके ( अपहरण के ) तुम प्रमुख कारक हो, अर्ककीति स्वयं कर्ता है। मैं न्यायनियुक्त हूँ और इस परोपर अपने स्वामीका भक्त हूँ" 28-3.
तु कार परयारउपमुह अक्ककित्ति सई कल ।
हवं णामणिज घरणियले यि पढपायहं भराउ 1128-35.
अन्तमें सोमप्रभके पुत्र जयकुमारने दुष्ट शत्रुओंको पीड़ा देनेवाले दृढ़ नागपाश चक्रवर्ती भर के प्रिय पुत्र को पकड़ लिया ।
निर्नामिकाकी गरीबी
"कूरारितासेण वढणायवासेण
परियो रूसारण चक्कवपि खणउ" 28-36.
अपनी गरीबीका वर्णन करती हुई निर्मानिका कहती है
।
माठ भाई-बहन । पीतल के दो हृष्टे छाल वसन लपेटे हुए, स्फुट हाड़, रूखे बाल दूसरेको गाली-गलौज देते हुए
कुल और चनोंका मुट्ठीभर आहार करनेवाले । कमरपर इस प्रकार हम दस स्वजन, आपस में लड़ते हुए और एक सफेद विरल लम्बे दाँत, दूसरोंका काम करनेवाले 11 22-15 बहुभाउ इंडई दो पियरई ।
कम खल चणय मुट्ठि महारई ॥ फरियल वैयि वक्कल वास । हड हट फुट्ट फरस सिर केसई ॥
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२०
नर्मदा अ
महापुरान
अम्बई दह बणाएं वहि सयणई । कई मासिम दुव्ययणहं ॥ पहरेदारहर
जवच्छ परकम्मु कतई | 22-16.
निर्नामिकाका यह कथन वस्तुतः कवि पुष्पदन्तका कथन है, जो इस बातका प्रमाण है कि गरीबीभारतीय इतिहासको जन्मधुटीसे मिली । आध्यात्मिकता की सामन्तवादी व्याख्याओंोंने उसमें चार चाँद लगा दिये। जिस घर में वसन्स लानेवाले हों, कमानेका साबन मजदूरी हो वहाँ मुट्ठीभर घना और खल हो मूलकी ज्वाला शान्त करनेका एकमात्र साधन है ! गरीबोका यह चित्र दसवीं सदीका है । यह काल्पनिक नहीं, बल्कि वास्तविकताका प्रतीक कथन है। ऋषभ तीर्थंकर जैन मान्यताके अनुसार करोड़ों वर्ष पहले हुए, निर्नामिकाका परिवार, उनके तीर्थंकर वननेसे बहुत पहले हुआ। इसका अर्थ है कि इस देशमें घी-दूधकी नदियाँ कभी नहीं नहीं, यह सफेद मूठ है कि यह देश कभी सोनेकी चिड़िया था। वह जितना सोनेको चिड़िया का उतना अमीरोंका भारत था। इसमें कोई शक नहीं कि निर्मामिकाकी गरीबी दूर हुई, मिहिताब मुनिके सदुपदेश से यह मैनधर्म ग्रहण करती है, और कई उत्तम पर्यायके बाद श्रेयांस राजा बनती है । ऐसे उदाहरण दूसरे मतोंके पुराणोंमें भी मिलते हैं। भगवान् रामको शवरीके जूठे बेर जितने पसन्द हैं, उतने सेटका ऐश्वर्य नहीं। परन्तु भगवान्की पूजा-उपासनाका काम तो बमसे ही चलता है, गरीबो नहीं। मुझे इसमें सन्देह नहीं कि निर्मामिकाकी गरीबी मिट गयी, परन्तु क्या इसे देशकी गरीबी मिटानेका मुसखा बनाया जा सकता है ? भारतीय माध्यात्मिक विचार समाजमें सन्तुन बनाये रखनेके लिए स्वाग सादगी और सीमित भोग पर जोर देते हैं, जिससे विषमताकी खाई कम हो, व्यक्ति तनावोंसे मुक्त हो ।
समयचक्र: काळ हट्ट
अच्युते वेग पुष्पमाला मुरझानेपर मृत्युकी कल्पनासे काँप उठता है । वह कहता है :
अद्य सोमसहाय महारत । संचल्लिय चल सति रवि बल ॥
किह कि काल रहट्ट पार । घडिमालइ कंषिट बाउणीरु |
महाकालरूपी रहटके संचार में कैसे बच सकता हूँ। उसके चंचल चन्द्र और सूर्यरूपी बैल चल रहे हैं, उनमें एक सौम्य भावका है और दूसरा महारौद्र है। घड़ियों ( घटिका ) की मालाबोंसे आयुरूपी
जल
रहा है ।
भाग्य ही सब कुछ है।
प्रथम भवमें जयवर्मा ( ऋषभ ) के पिता श्रीषेणने दीक्षा लेते समय छोटे पुत्र श्रोवर्माको राज्य दे दिया । जयवर्माको बुरा लगा। वह सोचता है
सुस बुद्धिवुहसणु ।
विहि बसेसु वि जलहि जले ॥
किं गुणगणु मण्णा सज्ज ऋष्णइ पुण्ण
जि मल्लत भुवणयले || 124.
सुमटपन बुद्धिका बुषपन सब समुद्रके जल में फेंक हो । गुणगणको क्यों माना जाता है, सज्जनका वर्णन किया जाता है, संसार में पुण्य ही भला है ।
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भूमिका
स्वर्गसे च्युत होने के पूर्व ऋषभ जिनके पूर्वभवका जीव लळितांग देव कहता है :-- जणु विपणट्टाई रंगणा इव भावविचित्त ।
मेल्लिवि सासय सिद्धि सिरि सुरतहाई पर होंति सुरसई ॥
रंगन की तरह भावकी विचित्रताएं उत्पन्न होती है और फिर नाशको प्राप्त होती हैं, शाश्वत सिद्धिको छोड़कर सुरतिवेतनाएँ ( कामचेतनाएँ ) दुर्लभ नहीं होतीं ।
जयवर्मा जिस वनमें वर्णन करने जाता है उसमें सुमरों द्वारा अंकुर खाये जा रहे थे, दूसरी ओर मे आसमान को छू रहे थे, वह वन स्वरोंसे आवाज कर रहा था, बड़े-बड़े बाँसोंसे युक्त था, जो लताओं और प्रिया लताओं सहित था, जो शहरियोंके लिए प्रिय था, जिसमें अंकुर निकल रहे थे, जिसमें विचित्र अंकुरोंका समूह था, जिसमें भ्रमर गन्धका पान कर रहे थे. जिसमें नागराजोंका दास है, जो मधुसे आई है, और जो दावानलसे प्रज्वलित है, जहाँ पीलू वृक्ष बढ़ रहे हैं और पोलू ( गज ) गर्जना कर रहे हैं ।
भा
f "कीडी बद्धकवं पयासीण कद सरेण सर्वतं महावंसवंतं सल्ली पियाल पुलिंदी पियाल विणितं कुरो विचितं कुरो हं अलीपीयवासं फणिदाहिवासं महूहि पलितं वग्गी पलितं पीलुं पगतपीलुं" 21-6.
२१
कुछ उक्तियाँ
'महापुराण में कुछ उक्तियां ऐसी है जिनके उद्धरणका लोभ संवरण कर पाना कठिन है। कुमार वाघ श्रीमतीको धाय द्वारा प्रदर्शित चित्रपटमें अपने पूर्वभवकी लीलाओंका अंकन देखकर कहता है : "पट्टद्द लिहित हियवइ लिहित
को संसद डिल लिहिय" 24-9.
जो चीज चित्रपटपर अंकित है, हृदय में अंकित है और ललाटमें लिखी है---तसे कौन मेट सकता है | तं रणा वयशु समस्थिउ ।
खिच्चह उपरि मिति | 24-11,
राजाने उस वचनका समर्थन किया मानो खिचड़ीमें घी उडेल दिया ।
"कम्मर दिण्णव सरसु भोज्जु
लघुवि दाणेण करे कज्ज | 25-20.
लोभी आदमी भी दान ( स ) देकर अपना काम बना लेता है। उसने कर्मकर ( मजदूर ) को सरस भोजन दिया।
रंगंग गड बहुवारि अणवरय दुविइ कम्माणुधारि । सागर पति जहि जिवण जाउ ॥ 27-11,
रंगमंच पर गये हुए नदी पर बहुरूप धारण करमेवाला, अनवरत दुविध कमका धारण करनेवाला यह जीव, ऐसी स्थिति नहीं है कि जिसमें न जन्मा हो ।
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महापुराण संसारमें इतनी चीजें कठिन है
"णिगवसीलु को संपयाइ' 33-13. गह पालको सम्पादन कौन कर सकता है ?)
'पारद्धिड को सेबिज दयाई' 33-13, ( ऐसा कौन अहेरी है जो प्यासे सेवित है ?)
मणु सासिन रायपस्राउ फासु 33-13, ( बताओ किसे शाश्वत रूपसे राजप्रासाद मिलता है ?)
___'सघरत्यु विनं ण म्हह हयासु' 33-13.
(अपने घरमें भी रहनेवाली आग किसे नहीं जलाती?) ऋषभनायके पूर्वभवः
कथानककी दृष्टिसे नाभेयचरितके पूर्वाद्धमें ऋषभ तीर्थकरका उत्तरचरित ( इस पोवनका चरित है। है, जब कि उत्तरार्द्ध में पूर्व परित, नयोंकि इसमें उनके पूर्वभोंका कथन है । भरतके अनुरोषपर ऋषभ तीर्थकर मलकापुरी के राजा अतिबलसे अपनी पूर्वमव कपा शुरू करते हैं । यतिमलको पत्नी मनोहरा है । पुत्र महाबलको राजपाट देकर वह दीक्षा ग्रहण कर लेता है । महाबलके माचो महामति सम्मिन्नमति और स्वयंमति उसे गलत परामर्श देते हैं परन्तु स्वयंबुद्ध उसे सही मार्ग बताता है। स्वयंल जैन श्रावक है। नाना दृष्टान्त और पूर्वजन्म-कपनके द्वारा वह राणाकी जैनधर्ममें भाषा दृढ़ करता है । राजा अरविन्दके मायान के बाद महाबलको उसके पितामह सहलमल और सबलका पूर्वजन्म बताता है। स्वयंबुद्धि और महाबल सुमेपर्वतकी वन्दनाभक्ति करने जाते हैं। स्वयंबुद्ध चारण युगल मुनि { बादित्यगति और परिजय) से अपना और राजाका पूर्वभव पूम्सा है। बड़े मुनि बताते हैं कि यह विद्याधर राजा दसर्वे मवमें तीमंकर होगा । पश्चिम विदेह के गन्धिल्ल देशके सिंहपुरमै राजा श्रीषेण है, उसकी रानी सुन्दरी देवी । उनके दो पुत्र जयवर्मा और श्रीवर्मा । दीक्षा लेते समय थोपेणने छोटे पुत्रको राज्य दे दिया। बड़ा भाई जयवर्माको इससे बुरा लगा। दैवको बलवान् मानकर वह वैराग्य धारण कर लेता है। नवप्रवषित संन्यासी (अपवर्मा ) महीपर विद्याघरका वैभव देखकर निदान करता है कि मैं भी वैसा ही बनें। सांप काटनेसे उसकी मृत्यु होती है, वही जयवर्मा यह महाबल है । महाबल मन्त्रो स्वयंबुद्धका सपकार मानता है । अतिबलको राजपाट देकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । संलेखना मरणसे वह ईशान स्वर्ग में देव हुआ। उसका नाम कलितांग था। स्वयंप्रभा और कनकप्रभा उसकी महादेवियाँ थीं। वहाँसे वह उत्पललेट नगरके राजा वजवाहको वसुम्परा रानोसे वनजंघके नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। ईशान स्वगमें देवी स्वयंप्रमा विलाप करतो है । वह पुण्डरीकिण नगरीमें राजा बमदन्तको श्रीमती नामकी कन्या हुई । एक रात यशोधर मुनिके उद्यानमें खानेपर उसकी नींद खुलती है और उसे पूर्वभवका स्मरण हो आता है, वह पूर्वजन्मके प्रिय ललितांगके लिए व्याकुल हो उठती है। पिता उसे सान्त्वना देते हैं। श्रीमती बायको पूर्वमन्म बताती है कि वह गम्पिल देशके पाटली गांवमें नागदत्त पनिया था। उसके पांच पुत्र और तीन पुत्रियाँ थों, सबसे छोटी निर्वामिका (श्रीमती ) पी। सिरपर लकड़ियोंका गठ्ठा और मोलो में माहुर भरकर अब वह बंगलसे लौटती है तो पिहितात्रय मुनिको धर्मसभामें पहुँचती है । मुनिसे अपने पूर्व जन्मके निन्य कर्मको आनकर (मुनिके शरीरपर सग़ कुत्ता फेंका पा) वह जैनधर्म ग्रहण करती है, और १५० उपवास करनेका निश्चय करती है। मरकर वह स्वयंप्रभा देवो हुई। दोनोंका ( वसच और श्रीमतीका ) विाह । वजवाहकी कन्या अनुन्धराका विवाह बदन्तके पुत्र ममिततेजसे । दोनों संन्यास ग्रहण करते है। लक्ष्मीवती गणपकी सहायता मांगती है । रास्ते में वह धारणयुगल मुनिको वन्दना करता है। मुनि अपना परिचय देते हैं, ये पूर्वमबके
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भूमिका दमधर और मतिसेन थे । देवयोगसे धूपके धुएंस वसगंध दम्पति मर जाते है और उत्तर कुरुभूमिमें अग्म सेते हैं। स्वयं ऋषभ तीर्थकर कहते है
भूलतः 1. मैं जयवर्मा था 1 2, फिर धर्मका आचरण कर विद्यापरेन्द्र हुवा। 3. फिर महाबल टुमा । स्वयंशिसे धर्म संबित किया । 4. ईशान स्वर्ग में ललितांग । 5. च्युत होकर वनजंघ 1 6. कुम्भूमिका मनुष्य । 7.धीधर देव । 8. विधि। 9. अहमेन्द्र। 10. वचनाभि । 11. सर्वार्थसिदिमें महमेछ। और अब तीर्थकर। इसी प्रकार I, निर्नामिका 2. ललितांगको पत्नी 3. वनजंघकी श्रीमती। 4. स्वयंप्रभ देव 5.केशव 6. प्रतीन्द्र 7. घमदेव 8. सर्वार्थसिद्धि अहमेन्द्र 10. राजा यांस जो कुरुवंशके सरोवरका हंस है 1 27-9,
पस्तुतः 'नाभेयरित' का उत्तरार्द्ध ऋषभ तीर्थकर और उनसे सम्बद्ध प्रमुख व्यक्यिोंके पूर्वजन्म कपनोंसे भरा पड़ा है। प्रारम्भमें वर्णाश्रम, राजनीति और समाजव्यवस्था, विभिन्न दर्शन और संसार स्वरूपका कपन है। जयकुमारका आख्यान
जयकुमार, कुरुवंशी राजा सोमप्रभका सबसे बड़ा पुत्र है जो अपने चौदह भाइयोंमें जेठा है । राजा श्रेयांस उसके चाचा थे। एक बार वह नन्दन वालो नागफे लोरेको लनि पर्म मानते हुए देखा है.! सालभर बाद, जब वह नन्दनवन में जाता है तो देखता है कि नाग नहीं है, और नागिन किसो दूसरी जातिके नागसे कोड़ारत है। जब उसे लीलाकमलसे आहत करता है। नामिन वहांसे भाग जाती है। राजा गजभवन वापस भाता है। रातमें वह नागिनका किस्सा अपनी पत्नीको बताने जा रहा था कि एक देव अवतरित होकर उसे नागिनको चोट पहुँचानेको बात कहता है। वह बताता है कि मैं ( मार नाम) भवनवासी नाग हुआ हूँ तथा नागिन गंगामें काली हुई है । नामदेव जयकुमारको उपहार देता है। एक मन्त्री जयको काशीराजकी कन्या सुलोचनाके स्वयंवरकी बात करता है। अयकूमार स्वयंवरमें सम्मिलित होता है। सुलोचना जयकुमारका वरण करती है । भरतपुत्र अर्ककीर्ति कुद्ध होकर अकम्पन राजा धौर जयकुमारसे मिलता है यह जानते हुए भी कि जा कम्पा किसीका वरण कर ले तो उसका अपहरण करना नोतिविरुद्ध है 1 अर्ककीतिको युद्ध में मुंहको खानी पड़ती है । जयकुमार उसे बन्दी बनाकर छोड़ देता है ! बकम्पन अर्ककीतिको मनाना है और सुलोचनाकी बहन लक्ष्मीबतीसे उसका विवाह कर देता है। अर्ककीर्ति जब भरतके सम्मुख पहुंचता है तो यह उसकी आलोचना करता है। राजा अकम्पन अपने मन्त्री समतिके द्वारा राजा भरतके सम्मुख अपने तीन दोष स्वीकार करता है-यह कि उसने अर्कोतिको कन्या नहीं दी. यह कि उसने स्वयंवर किया. यह कि सुलोचनाने जयकुमारका वरण किया । यह कि परस्त्रीका अपहरण करनेवाले तुम्हारे पूत्रसे मेरे बेटेने युद्ध किया। भरतकी न्यायप्रियता और उदारता यह है कि वह मन्त्री के सम्मुख स्वीकार करता है कि वह पिता ऋषभकी जगह राजा सोमप्रभको मानता है। भरतके उत्तरसे कुरुवंशी सोमप्रभ और नागवंशी कम्पन राजा सन्तुष्ट हए । रास्ते लौटते समय राजा गंगाके तटपर डेरा डालता है। सुलोचनाको वहीं छोड़कर जयकुमार साकेत जाकर भरतसे भेंट करता है। मुलोचनाके हाथीको मगर पकड़ लेता है । वनदेवो उसका सवार करती हुई अपने पूर्वभवका परिचय देती है कि वह विन्ध्याचलके राजा विन्ध्यकेतुको पत्नी प्रियंगुथीको पुत्री विन्ध्यत्री है, जिसे पिलाने कलाएँ सिखानेके लिए तुम्हारे पास सौंप दिया था और एक दिन वनमें सांप के काटनेपर तुमने णमोकार मन्त्र सुनाया था। वह कालीका मी पूर्वभव ( नागिन ) सुनाता है। पर
आकर विद्याधरकी जोड़ी देखकर दोनों मूच्छित हो जाते हैं। होश मानेपर मुलोचना पूर्वमवका कथन करती है जो इस प्रकार है : .
पाोभापुरके राजा प्रजापालका सामन्त शक्तिषण था। उसकी पत्नी पटषीश्री थी। दोनों एक बालकको पालते है (जिसे सौतेली माके व्यवहारके कारण घरसे निकाल दिया गया पा) शक्तिषण अनागार वेलावती
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महापुराण था। शनिषेण दम्पति पालिसपुत्र सत्यदेवके साथ ससुराल जाते हए सर्पसरोवरके वटपर ठहरते है । मृणालवती नगरीके सेठ सुकेतुका पुत्र भवदेव दुष्ट था। वह अबपि देकर बाहर जाता है। श्रीदत्त और विमलत्री अपनी कन्या रतिवेगाका विवाह मशोकदत्त और जिनदलाके पुत्र सुकातसे कर देते हैं। भववेव इतने में लौट आता। और वह नवदापतिका पीछा करता है। सुकान्त और रतिवमा भागकर जंगल में पाक्षिणकी पारण लेते हैं। बह उनकी रक्षा करता है। इस बीच सार्थवाह मेरुदत वहाँ उहरता है । शनिषेण वहाँ दो चारणयुगल मुनियोंको लाहार देता है । मेदस निदान करता है-शक्तिषेण अगले जन्ममें मेरा पुत्र हो । भूतार्थ अपने पुत्र सत्यदेवको लेने पाता है परन्तु वह नहीं जाता। पिता संन्यास ग्रहण कर लेता है। शनिषेणने नवदम्पतिको सेठ सुक्त्तको सौंपा कि वह इसे राजाके पास रख दे। परन्तु शक्तिषेण शोध समुरालसे लौट पाया। पाक्विणने सुकान्त दम्पतिको बसा दिया। भवद दोनोंको जला देता है। नगरसेठके घरमें कतर होते है और पूर्वजन्मकी. कया कहते हैं । मेरुदत्त मरकर कुबेरमित्र नामका वणिक इया । पारिणी सेठानी हुई। सुकान्त बम्पधिने इन्हीं के घर जन्म लिया । कबूतरी सुलोचना थी मोर जयकुमार कबूतर (क्रमशः रतिसेना और रतिवेग)। पारितषेण कुबेरमित्रका पुत्र हा कुबेरकान्तके नामसे । पूर्वजन्मको षट्वोत्री सेठ सागरदत्तकी कन्या हुई प्रियदाताके नामसे 1 कुबेरकान्त और प्रियवत्ताका विवाह । वे दोनों पारणयुगल मुनिको माहार देते हैं, कबूतर-कबूतरी अपना पूर्वपरिचय देते हैं। प्रियदत्ता तपस्या ग्रहण करती है, कबूतर-कबूतरीको पिलाब खा लेता है । कभूतर ( रतिवेग ) विद्याधर पुत्र हिरण्यवकि नामसे उत्पन्न हुया, मोर दूसरी, रतिषणा कबूतरो प्रमावतीके नामसे तत्पन्न हुई । हिरण्यवर्मा नन्दनवन में समूतरका योग देखकर अपनी पूर्वजन्म-कया लिख देता है। प्रभावती विरहसे पीड़ित हो उठी। स्वयंवरके पत्राय दोनोंका विवाह । धान्यमालक वनमें भ्रमण करते हुए ससरोवरके बिल देखकर हिरण्यवर्मा विरक्त हो गया। प्रभावतीने मी दीक्षा | आगे लेकर ये जयकुमार और सुलोचना में उत्पन्न हुए ।
जयकुमारके दीक्षा ग्रहण करने पर सुलोचना भी उसी मार्गपर पानेका आमाह पूर्वजन्म परम्पराक उस्लेख के साथ करती है:
जामहं वणिवरकुलि बणि बराई। रिज भायहं छहिय मंदिराई॥ कय कम्म-पहा विडियाई । णासंतईकाणणि गिहियाई॥ प्रिय कंतर सह मुहि हिययपेणु । जयहं सरि मिलियन सत्तिसेगु ।। जइबई मुणिवेनावाचु कियउ। हिय उल्ल काई वि पम्मि विषल 15 जय१ जापहं पारावयाई। लइयई पोहि विसावय बयाई। जइयई सप्पण्णई खेय राई । लीलालंषिय वितललंबराई ॥ रिसि दसणेण विभिय म णाई। जापई सुराई विणि वि षणाई ॥
तझ्यहुँ लग्गिवि बहु प णिमस्तु । भो तुझ चरितु वि सह परितु ॥ इन पंक्तियों में वणिककुल (सुकान्त-रतिवेगा ) से लेकर जय-सुलोचनाके जन्मोक कथनके पार सुलोचना इस निष्कर्षपर पहुँचती है कि हम दोनों वर-वधूकी भूमिकाका निर्णाह करते रहे है। तुम्हारा-मेरा चरित्र एक है । और इसलिए प्रिय यदि विरक्तिके मार्गपर जाता है तो वह भी जायेगी। विकारके अवलोकन छोड़ती हुई सुलोचना सपश्चरण अंगीकार कर लेती है। बम्म-जन्मान्तरों में फैली हुई, वात्माको कसनेपाली रागचेतनासे कटकर 'बास्मसत्य' को अनमतिके पथपर चल देती है।
महामोरजयन्ती
६-५-७३
-देवेन्द्रकुमार जैन
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कारणं मच्चुणो कि जणो कंखए होइ सत्थं सिरीसं पि आउक्खए ।
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क्या मनुष्य मृत्युका कारण चाहता है ? आयुके क्षय होनेपर शिरोष भी हथियार हो जाता है।
अरहंतु सरंतहं होइ धम्मू मा मोहे तुहुँ संचहि दुकम्मु ।
37/24
अरहन्तका स्मरण करनेवालोंको धर्म होता है। मोहसे तुम पाप कर्मका संचय मत करो।
[४]
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विषय-सूची
सन्धि १९
(१) भरत दान के बारेमें सोचता है । (२) कंजूस व्यक्तिको निन्दा । ( ३ ) गुणी व्यक्ति कौन ! { ४ ) राजाओंको बुटाया गया । ब्राह्मण वर्णकी स्थापना। (५) ब्राह्मणों के बाद शपिय पर्णको स्थापना । ( ६-७ ) ब्राह्मणकी परिभाषा । श्राह्मणों को दान । (८) अशुभ स्वप्नावलीका दर्शन । (१)। भरा द्वारा ऋषभ जिनके दर्शन घोर अशुभ स्वप्नका फल पूछना । (१०) ऋषभ जिन द्वारा ब्राह्मणोंको आलोपना । (११) भविष्य कपन । {१२) अशुम स्वप्न फल कपन : (१३) भविष्य कषम |
सन्धि २०
(१) पुराणको परिभाषा । (२)शिक्के कर्तृत्वका खण्डन । (३-४) लोकका वर्णन । (५) विजया पर्वतका वर्णन । (६-७) अलकापुरीका वर्णन । (८) राजा अतिबलका वर्णम । (१) रानी मनोहराका धन(१) रामसिंह
पुत्र महाबलको गद्दी और उपवेषा । (१२) राजा महावक चोर उसके मन्त्री। (१३) स्वयंमुखका उपदेश । (१४) इन्द्रियसुखकी निम्दा । (१५) विषय-सुखको निन्दा । ( १६ ) स्वयं बुद्धका उपदेश जारी रहता है । (१७) मन्त्री महाभूत द्वारा चार्वाक मतका समयन । (१८) स्वयंवृद्धि द्वारा खण्डन । ( १९) क्षणिकवादोका खण्डन । (२०) सियार और मछलोका उदाहरण । ( २१ ) जिनकथनका समर्थन । पूर्वज अरविन्द और उसके पुत्र हरिश्चन्द और कुलविन्दका रुख । (२२) पिता अरविन्दको वाहवर । { २२) अरविन्द रक्तसरोवर बनवाने के लिए कहता है । ( २४ ) कृत्रिम रक्तसरोवरमें राजाका स्नान । राषाका क्रोध । उसने छुरीसे पुत्रको मारना चाहा, परन्तु उसपर गिरकर स्वयं भर गया।
सन्धि २१
४२-५७ (१) स्वयंवृद्धि महाबलको सहारा देता है। मन्त्री द्वारा पूर्वजोंका कयन । (२) राजाके विस्ती शान्ति । सुमेरू पर्वतका वर्णन । ( ३) चारण मुनियों का आगमन । उनका वर्णन । ( ४ ) मुनियों का उपदेश । राजाके दसवें भवमें तीर्थकर होने का उपदेश । (५) रामा अपवर्माने ( जो महाबलका बड़ा पुष या ) भी छोटे माईको राज्य देने के कारण संन्यास ले लिया। (६ ) वनमें गकर तपस्या करना । वनका वर्णन ! (७) मुनि जयवर्माका निदाम । (८) सापके काटनेसे मृत्यु। अलकापुरी में मनोहराका पुत्र । (९) स्वयंका राजाको समझाना। (१०) स्वयंट महाबलसे कहता है कि मुनिका कहा सूर महीं हो सकता । (११) महाबल द्वारा स्वयंबुद्धकी प्रपांचा । (१२ ) बिनवरती
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महापुराण पूजा-वन्दना । संस्लेखनासे मरण । (१३) महाबलका देवकुलमें उत्पन्न होना । अवधि
जानसे वह सारी बात जान लेता है। सन्धि २१
५८-८१ (१)कालतांग देवकी मालाका मुरमाना । उसको चिन्ता । (२) धर्मावरण । (३) पुष्कलावती उत्सलखेड नगरमें, राजा पछवाहके यहा, ललितांग, वम नामका पुत्र हुमा । (४) पुत्र दिन दुना रात चौगुना पड़ता है। देवी स्वयंप्रभाका विलाप । वह पुण्डरीमिणी । (५) नगरीका वर्णन । (६) श्रीमती नामको कन्या हुई । (७) ललितांगका स्मरण | वियोग । (८) उसने सब कुछ छोर दिया। पिताका सममाना । (२) पूर्वजन्मक वर ललिगको याव । पिताफा यशोपरके केवलज्ञान-समारोहम बाना । (१०) यशोघरका वर्णन । राजाको पूर्वभवको याद माती है। (११) पर पाकर अपनी कन्या को समझाता है और पूर्वभवका कथन करता है। (१२) शय पुत्रीका मर्म पूछती है । (१३) गघिल्ल पेशके भूतनामका वर्णन । मापदत्त वणिक् । उसके कई पत्र पुत्रियाँ थीं। अन्तिम कन्या निमिका । (१४) सिरपर ककड़ियोंका गट्ठा रखे हुए वह जन मुनिके दर्शनका योग पाती है। (१५) मुनिको नमस्कार किया । ( १६) मुनि पिहितात्रय द्वारा पूर्वभव कथन । {१७ ) जैनधर्मका उपदेश । (१८) उपवासका विधान । (१९) मुनिनिन्दाका फल। {२) निनामिका घर आती है। मरकर स्वर्गमें स्वर्यप्रभा नामकी
देवी पत्ला हो। सन्धि २३
८२-१०९ (१) पायका श्रीमतीका चित्रपट लेकर जाना। (२) चित्रपट देखकर विभिन्न राजमारोंको प्रतिक्रिया । ( ३-१५) पिताका विषययावासे लौटकर अपनी पुत्रीको बावासम देना और अपना पूर्वमव कथन । (१६) दार्शनिक विवेचन (१७-२१)
पूर्वभव स्मन । सन्धि २४
११०-१२५ {1) पिता श्रीमतीसे कहता है कि बाज उसका भावी ससुर बानेवाला है। पायका मागमन । (२-३) भावी परका वर्णन । ( ४-५ ) वरका विषपटको देखकर पूर्वभवका स्मरण । (1) बाप बोर वरको बातमोतका विवरण । (७) वरकी कामपीपाका वर्णन । (८) पिता बजवाहका पुत्रको सममाना । (९) बजाका पुणरीकिणी नगर पाना । पुत्रको देखकर नगर-बनिताओं की प्रतिक्रिया । { १० ) प्रतिक्रिया । ( ११ } राजा द्वारा बबाहुका स्वागत | बनगाह अपने पुत्र पजंषके लिए श्रीमती मांगता है ।
{१२) विवाह मण्यम । (१३) विवाह । (१४) दहेजका वर्णन | सन्धि २५
१२६-१५१ (१) रतिक्रीडाका वर्णन। (२) बच्चबाह और बजषका प्रस्थान | (२) वरवष्का मिवास । पशडका दीक्षा ग्रहण करना । (४)वजयको विरकि होना । बह कमलमें मृत भ्रमर देखता है । (५) राषाका विरक्ति बिम्वन । (१) पुत्र अमिततेजको राबराट सौपनेका प्रस्ताव । (0) पुत्रकी अस्वीकदि। (८) सनोका परिताप । (१)रामी
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विषय-सूची
लक्ष्मीवतीका चिन्तन । उसका वजजंघको लेख भेजना। (१०) वनजंघका पत्र पढ़ना। (११) वनजंघका प्रस्थान । ( १२ ) वनमें मुनियों को आहारदान । (१३) पूर्वभवका स्मरणः । ( १४-२०) पूर्वभव कथन । ( २१ ) हलवाईका आख्यान । ( २२ ) वनजंघका
पुण्डरी किणी पहुँचना । बह्नका राज्य संभालना । सन्धि २६
१५२-१७३ (१) श्रीमती और उसके पतिका निधन । (२) उत्तर कुरुभूमिमें जन्म । ( ३ ) कुरुभूमिका वर्णन । ( ४ ) दोनोंका सुखमय जीवन । (५) शार्दूल आधिका कुरुभूमिमें जन्म लेना । (६) पूर्वभव कपन । (७) वेदका अर्थ । (८) सच्चे गुरुको पहचान । ( १) तत्त्वोंका कथन । शार्दूल आदिके जीवोंको सम्बोधन । (१०) मुनियोंका आकापा मार्गसे जाना । व्याघ्र आदिका स्वर्गमें जाना । (११) पूर्वभव कथन । ( १२-१८) सम्मिन्नमति आदिक
पूर्वभवका कथन । सन्धि २७
१७४-१८९ (१) आयुके क्षीण होनेका वर्णन ।। २) पूर्वभवका कथन । (३) लोकान्तिक देवोंका वनसेनको प्रबोष देना । (४) पूर्वभव वर्णन । (५) वचनाभिके तपमा वर्णन । (६) ऋद्धियों की प्राप्ति । वजनाभिका महमिन्द्र होना । (७) अवधिज्ञानसे पूर्वभवका ज्ञान । 16-१९) पूर्वभव कपन । (११) पूर्वभव कथन और भरतका प्रश्न । (१२) ऋषभ द्वारा भावी तीर्थंकरों और चक्रवती आदि की पूर्व घोषणा । (१३ ) भविष्य कयन ।
(१४) मरत द्वारा ऋषभ जिनकी स्तुति । सन्धि २८
१९०-२३१ (१) भरत द्वारा शान्तिकर्मका विधान । राजाके बापरणका कथन । (२) भरतका शात्मचिन्तन । (३) राजनीतिविज्ञानका कयन । ( ४ ) भरतको दिनचर्या ! (५) राजाका कथन । (६) कुमुनिकी संगतिका परिणाम । (७) धर्म कपन । (८) प्रजाके धर्म और न्यायकी रक्षा 1 (९) सोमवंशीय राजा श्रेयांसके पूर्वमवका कपन । (१.) दीवर जातिके नाग और नागिनकी कथा । (११) जयकुमारस द्वारपालकी भेंट । राजा अकम्पनकी रानी सुप्रभाका वर्णन । (१२) सुप्रमाके सौन्दर्यका वर्णन । उसकी कन्या सुलोचना । ( १३ ) उसके सौन्दर्यका चित्रण । वसन्तका आगमन | { १४ } वसन्तका चित्रण । ( १५) कन्याका ऋतुमती होना । राजाकी चिन्ता । स्वयंवरकी रपना । (१६) सुलोचनाका स्वयंवरमें प्रवेश । (१७-१८) राजाओं के प्रतिक्रिया। (१९) सारथिका जयकुमारकी ओर रय होकना। (२०) जयकुमारके गलेमें वरमाला डालना । (२१) भरतपुत्र अर्ककोतिका आक्रोश । (२२) नोसि कपन 1 (२३) युद्धके नगाड़ोंका बजना । ( २४ ) योद्धाओंका जमघट । ( २५-२६ ) युद्ध का वर्णन । (२७) घमासान युद्ध । (२८) धनुषका आस्फालन । ( २९) हापियों और घोड़ोंमें भगदड़। (३०) तीरोंका तुमुल युट। (३१) धर्फ कीतिको गर्वोक्ति । ( ३२ ) जयकुमारको चुनौतो। गोंका, आहत होना। ( ३३ ) युद्धभूमिका वर्णन । रात्रिमें युद्ध करनेसे मना करना । (३४) स्त्रियोंको प्रतिक्रिया । (३५) प्रातःकाल युद्धका वर्णन । (३६) जयकुमारके युद्ध कौशलकी प्रशंसा । ( ३७) सुलोचनाको प्रतिज्ञा । अर्ककोतिका पकड़ा जाना ।
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महापुराण सन्धि २९
२३२-२५९ (१) अकोतिका आत्मचिन्तन । (२) मरतको प्रताड़ना । ( ३ ) अकम्पम भरतसे क्षमा पाचना करता है, भरतका नीति कथन । (४) जयकुमार द्वारा ससुरकी प्रशंसा । {५) पुचोकी विदाई। (६) गंगातटपर पड़ाव और जयकुमारका भरतसे जाकर मिलना । (७) जयकुमारको भरत द्वारा विदाई । (८) मगरका हाथोको पकड़ना । देवी द्वारा सुलोपनाकी रक्षा। (९) देवी द्वारा पूर्व भव कपन । (१०) नागिनकी कया। (११) गंगा देवी द्वारा सुलोचनाको स्तुति । विद्याधर जोड़ी देखकर जयकुमारको पूर्वभव स्मरणसे मूछ । (१२) सुलोचना द्वारा पूर्वमव कथन । (१३) पूर्वमव कथन । शक्तिषेण और सत्यदेवको कया। ( १४-१५) पूर्वभव कपन । (१६) धनेश्वरका डेरा गालना । दो पारण मुनियोंको आहारदान । (१७) मेदत्तका निदान । ( १८) मुनि द्वारा पूर्वभव कपन । ( १९) भूतार्थ और सत्यदेवका परिचय । सत्यदेव घर वापस नहीं बाता।। २० शक्तिषेण, नवदमतिको सेठको सौंपता है परन्त शक्तिषेण शोभायरमें बाकर उसे आश्रय देता है।।२१) भवदेव सत्यदेव दमतिको मागमें जला देता है। वे सेठके घरमें कबूतर-कतरो हुए। वे पूर्वभवका कपन करते है। ( २२-२५) पूर्व भव कथन । { २६ ) बूढ़े मन्त्री कुबेरमित्रका उपहास । (२७) वापिकाके पानीका लाल रंग होनेका कारण । ( २८) सुलोचना कथा कहना जारी रखती है ।
सन्धि
३०
२६०-२८५
(1) राजा लोकपाल और वनुमतीका कथानक । ऋषिको देखकर पक्षियोंका पूर्वभव स्मरण । (२) पूर्वभव कथन । मुनि उनके पूर्वभव बताते है । ( ३-१०) पूर्वभव कपन । (११) प्रभावतोके वैराग्य का कारण । ( १२ ) पूर्वभव कपन । विद्याधरीका सरिके काटनेका बहाना । (१३) विद्याधरका दवा लेने जाना । (१४) कुरैरकान्तका विमान स्खलित होना । श्रावक धर्मका उपदेश । (१५) मुनियों के सम्मान पार प्रस्थान । (१६) रतिषेण मुनिकी वन्दगा। (१७)कुबेरप्रियाका दोक्षा ग्रहण करना। ( १८ ) पूर्वभव कथन । ( ११ ) तलवर भृत्यका बायिकासे प्रतिशोध । उसे जला दिया । (२०) प्रजाको करुण प्रतिक्रिया । (२१) स्वर्णवर्मा विद्याधरका बही पहुँचना । (२२ ) मनिको मन्चमा । { २३ ) मालोको कन्याओं द्वारा जैनधर्म स्वीकार करना । ( २४) सुलोचना जयको पूर्वभव मताना जारी रखदी है।
सन्धि
३१
२८४-३११
(१-५) मणिमाली देवका पूर्वभव स्मरण । (७) सुनारकी कया। (८) राषा गुणपालकी कहानी । (९) नवतोरण नाट्य मालोको कपा। (१०) वेश्यासे सेठका प्रेम । (११) बह सेठका अपहरण करवाती है। (१२) हारको घटना । (३) राजा द्वारा दण्ड और सेठ द्वारा क्षमायाचना । (१४) कामरूप धारण करनेवाली अंगूठी । ( १५) प्रतिमायोगमें स्थित सेठकी परीक्षा। (१६) पुरवताका हस्तक्षेप। (१७) सेठका तप करनेका संकल्प । (१८) पूर्वजन्म संकेत । ( २१ ) व्रतधारण । (१९) देव-मुनि संबाद । (२०) मुनिको केवलज्ञान ।
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विषयाचा ...... ...... .....
करनेवाली दासियोंका देयो होना । ज्यन्तर देविया । ( २२) राजा धर्मपालको पुत्रोका घाम । ( २३) पूर्वभव कथन । (२४-२८) नागदसका बास्यान । ( २९) नागदत्तका नागको वशमें करना ।
सन्धि ३२
(१) जयकुमारके पूछनेपर सुलोचना श्रीपालका परित कहती है । पुण्डरीकिणी मगरीमें कुबेरषी अपने पति के लिए चिन्तित है । महामुनि गुणपालका मागमम । (२) वह वन्दनाभक्ति के लिए गयी। उसके पुत्र भी दूसरे रास्तेसे वन्दना-भक्ति के लिए गये। उन्होंने जगपाल यक्षका मेला देखा । (३) नर-नारीफे जोडेका नृत्य । (४) जोरेका परिचय । श्रीपाल पुरुष रूपमें नाचती हुई कन्याको पहचान लेता है, जो राजकन्या पी। एक चंचल घोड़ा उसे ले जाता है। (५) घोड़ा श्रीपालको विजया पर्वतपर के गया। (६ ) वेताल बताता है कि धोपाल ने पूर्वभवमें उसकी पत्नीका अपहरण किया था। जगपाल यक्ष उसकी रक्षा करता है। (७) यसका वतालसे दन्त । (८) वेताल कुमारको छोड़कर भाग जाता है ! सरोवरम पानी पीने जाना। एक बालासे भेंट। (१) कुमारका वर्णन । (१०) कन्या परिचयके साथ अपना संकट बताती है । (११) वह श्रीपालको अपना पति मानती है, और बपना हाल बतातो है। (१२) अशनिवेगने उन्हें यहाँ लाकर छोड़ दिया है। (१३) श्रीपाल उनकी रक्षाका उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता है। विद्युद्धेगाको देखकर लड़कियां वनमें भाग जाती है। (१४) विद्यापरीसे कुमारकी बातरोत । विधापरी उसे छिपाकर जाती है । भेरुण्ड पक्षो उसे ले जाता है। (१५)ोपालको सिवकूट मिनारूयके मिकट छोड़कर पक्षी भागता है । जिनवरफी स्तुति । ( १६ ) सिद्धकूटके किवार खुलना । वस्तुस्मितिका पता चलना । मोगावती से विवाहका प्रस्ताव । ( १७) भोगावतीको भोपाल वारा निन्दा । पिता कुमारको प्रेतवनमें विद्या देता है। (१८)कुमारको सर्वोषधि विधासी सिदि । कुमार को नवयुवा बना देता है, औषषिके प्रभावसे । (१९) एक वृद्धा स्त्रोसे भेट | कुमार परपर उठाकर रखता है । वृद्धा र देती है। (२०)ोपाल उन्हें खाता है। (२१) कुमार अपना परिचय देता है । (२२) श्रीपालका पारम्परिचय । (२३) प्रज्ञा यौवनको प्राप्त अपना परिचय देती है। (२४) पमिलाकी प्रेमकथा ! ( २५) कुमारको मालूम हो जाता है कि वह अशनिवेग विद्याधर द्वारा यहाँ लाया गया है। (२६ ) विद्युवेगाका वियोग कवन । श्रीपालकी कथाकी समाप्ति ।
सन्धि ३३
३४०-५३ {१) जिनालय में जिनवरकी स्तुति । (२) भोगावती आदिका वहाँ पहुँचना । (३) जिनेन्द्र भगवानको स्तुति । विद्या सिद्ध करते हुए राजकुमार शिवकी गर्दन टेडी होना । (४) श्रीपाल उसके गलेको सीषा कर देता है। राजाका कुमारके पास जाना। (५) जिममन्दिरम पहुँचना । सुखोदम वावड़ीमें पहुँचना । ( ६ ) सुखावतीका काम । (७) अशनिवेगका आना। (८) अशनिवेगका आक्रमण । शत्रुसेनाका उपद्रव । (९) विद्यारियां क्रीड़ा कर अपने घर जातो है । (१०) उसिराबतोके हिरण्यवर्माको चिन्ता । श्रीपाल आपत्तियोंमें सफल उतरता है। (११) जिनेन्द्रकी महिमा । (१२) श्रीपाल सुरक्षित रहता है । ( १३ ) विद्याधरीका दुश्चरित 1
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सन्धि ३४
महापुराण
३५४-३६७
( १ ) कमलावतीका सूत्रसे ग्रस्त होना । कुमार उसका भूत भगाता है। ( २ ) पिता द्वारा विवाहका प्रस्ताव । ( ३ ) श्रीपालका पानी लेने जाना। सुखावती नदीका पानी सुखा देती है। ( ४-५ ) श्रीपाल द्वारा सुखावती की प्रशंसा | दो विद्याधर भाइयोंमें तू युद्ध) (६) श्रीपालके मन्तःपुर इकट्ठा होना । ( ७ ) श्रीपालको वास्तविक रूप प्रकट होना । (८) सुखावतो का रूठना । ( ९ ) सुखावतोफा प्रच्छन्न रूपमें सुरक्षाका आश्वासन । ( १०-११ ) मदोन्मत गजको वश में करना । ( १२ ) श्रीपालको विद्याबर कन्याओं की प्राप्ति ।
सन्धि ३५
१) श्रीपालका सुखावतौके साथ घरके लिए प्रस्थान । घोड़ेका दिखना । ( २ ) घोड़ेका वर्णन । ( ३ ) कुमारका तलवार से सम्भेपर आघात । ( ४ ) महानाग। (५) सर्पका रत्न बनना । ( ६ ) अन्य कन्याओंसे विवाह । ( ७ ) सुखावती और घूमवेग 1 (८) दोनोंका तुमुलयुद्ध । मुग्धा सुखावती श्रीपालको पहाड़पर रखकर युद्ध करती है । ( ९-११ )
TADA
वजन कस कुत्सा | अपना परिचय देती है। ( १२ ) सूर्यास्तका चित्रण | पंचणमोकार मन्त्रका महत्त्व । १३ ! पानी में विरतो जिन भगवान्की प्रतिमा । उसे स्थापित कर अभिषेक ( १४ ) यक्षिणी द्वारा अनेक उपहार (१५) नगरीकी मोर प्रस्थान | (१६) स्कन्धावारका वर्णन । ( १७ ) माता पुत्रसेवैभवका कारण पूछती है। (१८) सुखावती की प्रशंसा । ( १९ ) चरित्रको समाप्ति ।
३६८-३८५
AIM
सन्धि ३६
३८६-४०७
( १ ) सुखावती द्वारा खासको नमस्कार। विवाह । ( २ ) सुखाबसी वृतान्त सुनाती है। उसका मान करना । ( ३ ) विद्याधरका पत्र लेकर जाना । श्रकम्पनका आगमन । ( ४ ) अतिथियोंका आगत स्वागत । (५) सुखावतीका आक्रोश | यशस्वती से ईर्ष्या । ( ६ ) श्रीपालका अपना वृत्तान्त कहना । ( ७ ) अन्य कन्या से विवाह । ( ८ ) सुनावती और यस्तोकी स्पर्धा । ( ९ ) यशस्वती के सौभाग्यका कथन । ( १० ) सेठका निवेदन । ( ११ ) गुणपालका जन्म । ( १२ ) अतिशयों से युक्त तीर्थकर हुए। (१३) मोक्षकी प्राप्ति । ( १४ ) जयकुमारकी विरक्ति । (१५) तीर्थयात्रा पर्वतपुर । ( १७ ) तडित्मालिनीका अपना परिचय । ( १८ ) तीर्थंकरोंकी वन्दना
(१६ ) हिमगिरि
सन्धि ३७
४०८-४३१
( १ ) सुन्दरी द्वारा वेत्थ वन्दना । ( २ ) जयकुमार नाभेयके चरणों में बैठता है । ( ३ ) ऋषभनाथ दर्शन । ( ४ ) ऋषभ जिनकी स्तुति । ( ५ ) विभिन्न उदाहरण । ( ६ ) जयकुमार दम्पति द्वारा स्तुति (७) जयका तप करनेका आग्रह । ( ८ ) पूर्वभव मरण । ( ९ ) दूसरोंके द्वारा अनुकरण । (१०) पूर्वभव कथन ( ११ ) विद्याओंका परिरयाग | ( १२ ) ऋषभका उपदेश । ( १३ ) भविष्य कथन । ( १४ ) मदत द्वारा वन्दना । ( १५ ) तरख कथन ( १६ - १८ ) उपवेषा । (१९) भरतका अष्टापद शिखर पर जाना । (२० ) ऋषभको मोक्ष । ( २१ ) पाँचवें कल्याणक की पूजा । ( २२ ) अग्निसंस्कार । ( २३ ) भरतका अनुताप । ( २४ ) भरत द्वारा स्तुति ( २५ ) स्तुति |
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महापुराण
भाग २
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पुष्पदन्त-विरचित महापुराण
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2
चितइ भरहेसरु महिपरमेसह दविणे किं किर किज्जा ॥ जइणियमियचितह एवं सुपत्तहं दियहि दियहि ण विजइ ।। ध्रुवकं ॥
एकहि दिणि पर्यणावियणियह वसेवाहिव णियमणि चिंतवाह। कि छनइ विणु चंद गयणु किं छज्जइ छिपणणासु वयणु। किं छज्जहणाणु णिरुषसमउं कि छज्जइ रज्ज अविकम। कि छज्जइ वर्णयविरहिउ कुटु कि छज्जइ पिक कदुयफलु । किं छलइ मीठहि गज्जियाई कि छन भडयणलज्जियर्ड । किं छज्जा मयडहु भूसण कि छज्जइ विणियरूसणउं। किं छउजइ हिमयकमलवणु फि छजह सलिलविरहिउ घणु । किं छज्जा परवसजीचे जणु किं छज्जा सिट्ठालुयदविणु। पत्ता-जं दिण्णु ण पचहु गुणगणवंतह एहन बुह्यणु पेच्छह ॥
मणुयहु मलबंघणु तं संचिउँ घणु मुयहो पर वि पड गच्छा ||१||
णउ हाणु विलेषणु परिहण यविदु ण माणिर घणथणउं । अवोलतंबसिस्थई खरई ताई वि सीसकभारघरई। ऐसीरसु दोणि कुलत्थकर्ण अच्छड कजिन घारिवि सैयण | असरालु लोहघणु धरिवि भणे जेवंति कीर्ण गार वि छणे। रिणु मग्गमाण हिंडंति पुरे जणरंजणु पत्तु फरेवि करे। णित्वरैयर पूयफलु खंति किह एकेण जि रवि अथवा जिह । MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :
श्यामरुषि नयनसुभगं लावण्यप्रायमगमादाय ।
भरतच्छलेन संप्रति कामः कामाकृतिमुपेतः ॥ १।। १. १. MBP णामिय । २. MBP वसुहाहिउ । ३. M कि ण तासु । ४. MBP णि विक्कम ।
५. MBP तणएं रहिन । ६. MBP कडुय पिक्कफलु । ७. MBP विप्पियरूसणउं । ८. MBP
सलिलें रहिउ ! . MBPK जीवि । १७. B संचियषणु । ११. P मुयइस पर विप गच्छ।। २. १. MBP सिविंदु । २. MB जवणालवंत । ३. M एरसीरस । ४ MBP कण । ५. MBP
सपशु । ६. P हीण । ७. M णिग्मस पूयफल: BP णिबह पूयफल । ८, MP एस्केण वि: B पक्केण वि। ९. MBP अत्यमइ ।
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पुप्फयंतविरइउ महापुराणु
( हिन्दी अनुवाद)
सन्धि १९
धरतीका परमेश्वर भरतेश्वर विचार करता है कि यदि संयत चित्तवाले सुपात्रोंको दिनप्रतिदिन यह नहीं दिया जाता तो धनका क्या किया जाये ?
एक दिन राजाओं को अपने पैरों में झुकानेवाले उस पृथ्वीश्वरने अपने मनमें विचार किया, "क्या आकाश चन्द्रमाके बिना शोभा पा सकता है? क्या नकटा मुंह शोभा देता है, क्या उपशम भावक बिना शान शोमा देता है ? क्या पराक्रमके बिना राज्य शोभा देता है ? क्या पुत्रविहीन कुल शोभा पाता है ? क्या एका हुमा कड़वा फल शोभा पाता है ? क्या भीरु व्यक्तिको गर्जना शोभा पाती है ? क्या वेश्याको लज्जा शोभा पाती है ? क्या मृतकके आभूषण शोभा पाते हैं ? क्या अविनीतका रूठना शोभा पाता है ? क्या हिमसे आहत कमलवन शोभा पाता है ? क्या जलविहीन घन शोभा पाता है? क्या दूसरों के अधीन जीववाला मनुष्य शोभा पाता है ? क्या तष्णा रखनेवालेका धन शोभा पाता है ?
घत्ता-बुधजनोंका कहना है कि जो धन गुणवान बुद्धिवान् सुपात्रको नहीं दिया जाता, मनुष्यका वह संचित धन पापका कारण है और मरनेके बाद वह एक पैर भी नहीं जाता ।। १ ।।
(कृपण व्यक्ति ) न नहाता है, न लेप करता है, और न वस्त्र पहनता है, सघन स्तनोंवाले स्त्रीसमूहको भी नहीं मानता। जिसके पास, जो के डण्ठलोंवाले तुषके भारसे युक्त, कठोर कुलथीके कण और एक द्रोणी अलसीका तेल है, ऐसा कंजूस व्यक्ति अपने लोगोंको निकालकर रहता है। अपने मनमें व्यापक लोभ धारण कर, वह बड़े भारी महोत्सवके दिन दीनको तरह खाता है। लोगोंको प्रिय लगनेवाले पात्रको हाथमें लेकर ऋण मांगता हुआ नगरमें घूमता रहता है । अत्यन्त सड़ी हुई सुपाड़ीको वह इस प्रकार खाता है कि जिससे एक सुपाड़ीमें हो सारा दिन समाप्त हो
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१०
५
to
पंचिदित्थु चियउं जरचीरणियासण फरससिर वियाण दुकंती यिइ
१२
नइ पुणु पुणु मवइ सासणिपूर कि भरमि लोहि पावि च
महापुराण
हि अप्पा बंचिय । दालिदिय सण वि किविण गर । हृत्यु ण पत्तियइ ।
यि
वसु 'गुज्झपवेसहिं पुणु ठवइ । मणि जूरइकाई दश्त्र करमि ।
धत्ता - गेहिणि गय गामो इच्छियकामहो मणुं णं भलि भइ ॥ मज्झवि दुक्खइ सिरु तुहुं आयन घर भणु एव किं किइ ॥२॥
कि किज्जइ धेरै कामुण कुलपुत्तएण कि पित्तवेण अवि विज्जाहरवरकिणरेण धरणिय रंध पडिपूर एण साई जा ससिविष्फुरिय साबिजा जा सरु विणिय ते 'बुह जे बुह ण मच्छारिय घणु जं मुत्तरं दिणि जि दिनि घचा-सा सिरिंजा गुणणय गुण ते गुणि ते हवं मण्णमि पुणु पुणु
३
किस पपुरिएण । समएण वि किं फिर णित्तवेण ।
निव्त्रिणएं समयं किं णरेण । कि दक्षिणपन्भारपण । सा कंता जाहियवइ भैरिय | तं रज्जु जम्मि बुझ्यणु जियइ । ते मित्तर्ण ने वितरिय । जं पुणरवि दिष्णडं विलयणि । जे गय गुणिहिं चित्त हयदुरियन || वष्णमि जेहिं दीण उद्धरियउ ॥३॥
४
[ १९.२.७
इय चिंतिविराएं दविणगड् आइय संविधमण तरगुणपरिकखसुपयासिरयं तरुपल्लवपिदियं पंगणयं चप्पति ण ते विरया गिहिणो कय जेहिं तसंतहुं तसहुं दय णादण कहिं वि स मिच्छिय उं
१०. MBP दियत् । ११. MB गुज्झपएसहि परिवध; P गुज्झपएहि परिद्वय १२, M सिट्ठ १३. MBP महू मणु मल्लिइ ।
३. १. MRP पापसं सिएण । २. MBPK कुलउत्तएण | ३. MBP परिपूरए । ४. B रमणी । ५. B हरिय । ६ MBP सप। ७ M महहिं ण मउच्छरिय; BP बुहहि ण मच्छर । ८. Pजे वि । ९. MBP गुणहि । १०. M हवं गुण से मण्णमि; B गुण हढं ते मभ्यमि | P गुणि हवं ते मणमि
४. १. MR ते गुणं । २. MBP परताविर K ताबिर but corrects it to ताविर । ३. MP and after this: 7g mag gilera 1 8. MBP and after this: fere forming (P जोगु ) पडिच्छियचं, फुलवंत विवाहित बंछिपउ 1
इकाराविय णाणा णिवह । जे जो किरणगणसुद्धमण । सनीय वीयणितं कुरयं । णं वर्णसिरिदिण्णा लिंगणयं । परिपालयसात्रयवयविहिणो । पतावरि अलियवाय विरयै । अणु कत्तु यच्छियैवं ।
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१९. ४.७]
हिन्दी अनुवाद जाये । पाँची हॉन्द्रयोंके अर्थीस यक्त अपने को स्वयं लोभियोंक द्वारा वंचित किया जाता है। पुराने कपड़ों की लंगोटो पहननेवाले और कठोर सिरवाले कंजूस लोग धनवान होते हुए दरिद्र होते हैं । वे पास आती हुई नियतिको नहीं जानते । अपने हाथसे अपने हायका विश्वास नहीं करते। वह बांधता है, छोड़ता है, फिर बार-बार मापता है। फिर धनको गुह्य प्रदेशों में रख देता है, वह साठकी संख्या पूरी नहीं होती उसे कैसे भरू! अपने मन में पीड़ित होता है कि हे देव, क्या करूं? लोमो, दुष्ट, पापो और चंचल वह अतिथिको उत्तर देता है।
पता-घरवाली गाँव गयी है, कामको इच्छा रखनेवाला मेरा मन जैसे भालेसे भिद रहा है, मेरे सिरमें पोड़ा है, तुम घर आये हो, बताओ में इस समय क्या करूं ||२||
बूढ़े कामुक व्यक्तिसे क्या किया जा सकता है ? पापो पुरुषके द्वारा सुने गये शास्त्रसे क्या ? लज्जासे शून्य कुलीन पुत्रसे क्या ? बिना तपक सम्यवत्व से क्या? उदासीन विद्याधर और किन्नरसे क्या ? घमण्डोसे क्या ? धरणोतलके छिद्रोंको सम्पूरित करनेवाले, लोभीके बनके बढ़नेसे क्या ? रात वही है जो चन्द्रमासे आलोकित है, स्त्री वही है जो हृदयसे चाहती हो, विद्या वही है जो सब कुछ देख लेती है। राज्य वही है जिसमें विद्वान् जीवित रहता है, पतित वही हैं जो पण्डितोंसे ईर्ष्या नहीं करते, मित्र वे हो हैं जो संकट में दूर नहीं होते। धन वही है जो दिन-दिन मोगा जाये, और जो फिर दीन-विकल जनोंको दिया जाये।
पत्ता-लक्ष्मी वही जो गुणोंसे नत हो, गुण वे जो गुणियोंके साथ जाते हैं, चित्त वह जो पापरहित होता है। मैं गुणी उनको मानता हूँ, और बार-बार कहता हूं कि जिनके द्वारा दोनोंका उद्धार किया जाता है।" ||३||
धनकी गतिका, इस प्रकार विचार कर राजाने अनेक राजाओंको बुलवाया। वे आये जो धर्मधनका संचय करनेवाले और योगक्रिया-समूहसे शुशमनवाले थे। जो गुणोंकी परीक्षासे प्रकाशित हैं, जिनमें सजीवरूप बीज नित्य अंकुरित है, जो वृक्षोंके पल्लदोंसे आच्छादित हैं, ऐसे प्रांगणको, कि जिसका मानो वनश्रीने आलिंगन दिया है, जो विरक्त गृहस्थ नहीं रोषते, जो श्रावकोंकी प्रतविधिका परिपालन करनेवाले हैं, जिन्होंने सजीवोंके प्रति दया की है, जो दूसरों को सन्ताप देनेवाली झूठ बातसे विरत हैं, जिन्होंने नहीं दिये गयेको कभी भी इच्छा नहीं की, न
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[१९. ४, ८
महापुराण घरसंगपमाणु जेई गहिउ रयणीभोयणविरईसहिउ । दिसिविदिसागमणमाणकरणु भोगोत्रभोयसंखाधरणु । विरमणु अणत्थदंडासियउं भाचियउं जेहिं जिणभासियउँ । घत्ता-सामाइ पोसह अतिहिपरिगहु कामकोहपरिहरणं ||
किउ जेहि पसत्यहि पवरघरत्यहिं सहुं सण्णासणमरणे ||५||
5 :
ते भरहें विप्प परिद्वविय कर मउलिवि सई सिरेण णविय । उववीयहु केरउ चिंधधर
दसणरि घल्लिउ एक सरू। वयचंति णिरूविय दोणि सर सामाइयदि पुणु तिणि सर । सेसा यंत्र हासिलर
सभित्तविरत्तइ पंच सर । अणिसाभोयणि जेडुमाण सर दढबंभचेरैधरि सत्त सर। आरंभविवजिइ अट्ठ सर
अपरिग्गहि कय पवसुत्त सर । अणुमोयणमुक्का दह जि सर एयारह सर हयमयणसर । उरिट्टचायकारिहि विडिय ए दियवर राएं सुहुं णिहिये । तयु बंभ जेण घोसंति जए बंभणकृलु संठिउ तेण वए । घत्ता-धिरु सञ्चु जि मागुसु पुणु णीई वसु रिसहें खत्तु पर्वत्तिक ।
जिणपुजाधारन धम्मपियारउ भरहेण वि फज सोत्तिल ।।५।।
वणि वाणिज्जारउ जाणियां किसिया हलधार भाणियर। सो सोत्तिउ जो जिणवरु महइ सो सोतिर जो सुतचु कहा। सो सोत्तिष्ठ जो ण दुद भणइ सो सोत्तिउ जो उ पसु हणइ । सो सोत्तिउ जो दियेएण सुइ सो सोत्तिस जो परमत्यरुइ । सो सोक्ति जो णं मासुगमइ
सो सोत्तिउ जो ण सुयणि भसइ । सो सोत्तिउ जो जागु पहि थवइ सो सोति जो सुतवें तवइ । सो सोत्तिउ जो संतहुं वइ सो सोत्तिउ जो पण मिच्छु चवइ । सो सोसिउ जोण मजु पियइ सो सोत्तिउ जो चारइ कुगइ । सो सोत्तिउ जो जिणदेसियउ पण्णासतिकिरियहिं भूसियन । घता-जो तिलकप्पासई दवविसेसई हुणिवि देव गह पीणइ ॥
पसु जीव ण मारइ मारय वारइ परु अप्पु वि समु जाणइ ।।६|| ५. B°गमणकरणु । ६. MRP भोग । ७. MBP समहि । ५. १. MB उदुमाण 1 २. P चेरु परि । ३. MBP संमिहिय । ४. MBP तब बंभु । ५. MP पत्ति
यज । ६. MBPK पावियारउ । ६. १. M सुप्तच्च । २. P पसु गउ । ३. MBP हियवयणु सुणह । ४. M परमत्य मुण; P परमत्यु
मुणह । ५. B मासु ण ।
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१९.६.११]
हिन्दी अनुवाप जिन्होंने दूसरेको स्त्रीको कभी देखा, जिन्होने अपने गृह संगके प्रमाणस्वरूप ग्रहण किया है, जो रात्रिभोजनकी विरतिसे सहित हैं। जिसने दिशा और विदिशामें जानेका परिमाण किया है, भोगोपभोगकी संख्या निर्धारित की है। अनर्थदण्डके आश्रयसे जिन्होंने विराम लिया है और जिन्होंने जिनेन्द्र भगवान् द्वारा माषितका विचार किया है।
घत्ता-सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिपरिग्रह तथा काम-क्रोधका परिहार किया है ॥४||
ऐसे उन ग्राह्मणोंको भरतने प्रतिष्ठित किया, और हाथ जोड़कर सिरसे नमस्कार किया। उन्हें यज्ञोपवीतका चिह्न धारण करनेवाला बनाया। सम्यग्दर्शन धारण करनेपर एक व्रत, पांच अणुवत लेनेपर दो यत निरूपित किये गये, सामायिकसे युक्त होनेपर तोन, प्रोषधोपवास करनेपर चार, सचित्ताचितसे विरत होनेपर पांच, रात्रिभोजनके त्यागपर छह, दृढ़ब्रह्मचर्य व्रत धारण करनेपर सात, आरम्मका परित्याग करनेपर आठ, और अपरिग्रह करनेपर नौ, अनुमोदन छोड़नेपर दस, कामदेवको नष्ट करने और उद्दिष्टका त्याग करनेपर ग्यारह इस प्रकार राजाने सुखपूर्वक ये द्विजवर बनाये। चूंकि वे व्रत द्वादशविध तप या ब्रह्मको जय घोषित करते हैं इसलिए उन्हें ब्राह्मणकुलमें घोषित किया गया ।
__ पत्ता-और भी जितने मनुष्य नीतिके वशमें थे, ऋषभने उन्हें क्षत्रिय घोषित किया। भरतने भी जिनकी पूजा करनेवाले और धर्मका प्रिय करनेवालेको ब्राह्मण बना दिया ||५||
वाणिज्य करनेवाला वणिक् जाना गया, हल धारण करनेवाला कृषक कहा गया, ब्राह्मण वह है जो जिनवरकी पूजा करता है, ब्राह्मण वह है जो सुतत्त्वका कथन करता है, वह ब्राह्मण है जो दुष्ट कथन नहीं करता, ब्राह्मण वह है जो पशुका वध नहीं करता, ब्राह्मण वह है जो हृदयसे पवित्र है, वह ब्राह्मण है जो मांस भक्षण नहीं करता, वह ब्राह्मण है जो स्वजनमें बकवास नहीं करता। वह ब्राह्मण है जो लोगोंको सुपथपर लगाता है, वह ब्राह्मण है जो सुन्दर तप तपता है, वह ब्राह्मण है जो सन्तोंको नमस्कार करता है, वह बाह्मण है जो मिथ्या नहीं बोलता, वह ब्राह्मण है जो मद्य नहीं पीता, वह ब्राह्मण है जो कुगति का निवारण करता है, वह ब्राह्मण है जो जिनमगवानके द्वारा उपदेशित त्रेपन क्रियाओंसे भूषित है।
पत्ता-जो तिल, कपास और द्रष्य विशेषोंको होमकर देवों और ग्रहोंको प्रसन्न करता है, पशु और जीवको नहीं मारता, मारनेवालेको मना करता है। परको और स्वयंको समान समझता है ।।६।।
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१०
सो सोत्तिष्ट जाण एक जिह aartaa कोडिचडावियई
दिण्णाई ताई सु दिण्णाई ताई परतीरयई दिण्णा ताई मराइयई दिणाई ताहं मणमोहई दिण्णाई ताहं संतरई दिण्णाई वाह जियस सहरई fruits वाह कर भरघर आरामगामसीम सरई
अहं दिणि सुते सयगहरे fast दुकिय सिविणावलिय सुपहाकालि गै सज्जिय संधु परमेस परमप तु सरसुरसायगु अमयम उ तु कामधेणु अक्खीणणिहि तु सिद्धमंतु सिद्धोसहि त्रि हार्मे णासह मत्तरि तुह णामें हुबहु च डहइ तु णामें संतोसियखलब
महापुराण
हा सायरि तरह रु तु णामें केवल किरणरवि
७
पत्ता - महि कसणरवणी घेषलि विदिण्णी विप्प जिणतणुजाएं || तिह जिह उ खिज्जइ अँजि वि दिजइ विद्दिले विइनिहाएं ॥७॥
लक्खाई दिएसह तेण तिह | गुणगणा भावियई । भूविका सियहुमई सिचयां णोरेयई । कत्ति कमाई ।
पूरणदुद्ध गोहण | हयगय रहछत्त पंडुरई । araणभरियई विविध घरई । सासणलिहियाहारपुरई । दिण्णाई ताहूं णयरायरई ।
८
राणिसि पच्छिम पड़रे । आगामिदोसति व मिलिया । केलासु गंपि जिणु पुनियड । जिण तुडुं चिंतामणि अमरतरु तुहुं मयरकेत रेणि लद्धज तु पुरिसुतमु जणदिष्णदिहि | तुह गार्मेण भक्खर अहि वि । कैदेतु वि थक्क रहु हरि ।
परबलु गयपहरणु भव बद्दइ । तुट्टे वि जैति पयसंखउ । ओसर कोहकंदपरु | पीरोय होंति रोयाडर षि ।
पत्ता - फलइ दुम्सित्रिणडं जणि अवसवणडं तिहुँबणभवणुकिइ || पूरति मणोरह गहू साणुग्गह होति देव पई दिट्ठ ||८||
६. MBP भविसेस |
७. १. गोरियई । २. MBPK धवल वि. । ३. MBP म
८. १. MBP सुप्तइ । २. MBP विडिय । ३. MP गए । ४. MBP सुरसु । ५. MB रणं तु B कर सउ; Pकमु तख । ७. BP संकलन | ८. P सायद । भुकिदह ।
[ १९, ७.१
। ६. M कम
९. MB] विणु
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१९ ८. १४ ]
हिन्दी अनुवार
जिस प्रकार उस एक ब्राह्मणको जानते हो उसी प्रकार लाखों ब्राह्मणोंको समझो। उन्हें वर्णाश्रमको परम्प रामें सबसे ऊपर रखा गया, गुणोंके गणनाभेदसे उन्हें माना गया। उन्हें शद्धभाववाली सैकड़ों उत्तम कन्याएँ विभूषित करके दी गयीं, उन्हें नदियों के दूरवती किनारे दिये गये जा श्रीसुखमय | और जलों से सिंचित थे। उन्हें मणिरत्नोंकी राशियाँ दी गयीं। कटिसूत्र, कड़े और मुकुट आदि दिये गये। उन्हें मनमोहन घड़ा भरकर दूध देनेवाली गायें दी गयीं। उन्हें देशान्तर, अश्व, गज, रथ और सफेद छत्र दिये गये। उन्हें चन्द्रमाको जीतने वाले, धान्यकोंसे भरे हुए विविध घर दिये गये। उन्हें करभार धारण करनेवाली धरती और शासनके द्वारा लिखित अग्रहार नगर दिये गये । आराम, ग्राम सीमाएँ, और सर राजाके द्वारा प्रदान किये गये ।
घत्ता-आदि जिनेन्द्र के पुत्र भरतने ब्राह्मणों के लिए कृषिसे रमणीय भूमि और बैल (गाय) इस प्रकार दिये कि जिससे कि वह नष्ट न हो, और इसीलिए आज भी समस्त राजसमूहके द्वारा दान दिया जाता है ||७||
दूसरे दिन अपने शयनकक्षमें राजाने रात्रिके पिछले प्रहरमें एक मशुभ स्वप्नावलि देखो जो आगामी दोषयुक्ति के समान मिली हुई थी। प्रातःकाल यह सज्जित होकर गया और कैलास पर्वतपर जाकर उसने ऋषभजिनको पूजा और स्तुति की-“हे परमेश्वर परमपर जिन, तुम चिन्तामणि और कल्पवृक्ष हो, तुम अमृतमय सरस रसायन हो, युद्ध में लब्धजय तुम कामदेव हो, तुम वामधेनु और अक्षयनिधि हो, नुम जनोंके भाग्यविधाता पुरुषोत्तम हो। तुम सिद्धमन्त्र और सिद्धौषषिके समान हो, तुम्हारे नामसे साँप तक नहीं काटता । तुम्हारे नामसे मतवाला गज भाग जाता है। पैर रखता हुआ भो सिंह मनुष्यसे डर जाता है। तुम्हारे नामसे आग नहीं जलाती, गदा प्रहरणसे युक्त शगुसेना भय धारण करतो है। तुम्हारे नामसे खल सन्तुष्ट हो जाते हैं, और पैरोंकी शृंखलाएं टूट जाती हैं । तुम्हारे नामसे मनुष्य समुद्र तर जाता है। और क्रोध-कामका ज्वर हट जाता है । है केवलज्ञान किरणोंवाले रवि, तुम्हारे नामसे रोगातुर मनुष्य नोरोग हो जाते हैं।
घत्ता-दुःस्वप्न नहीं फलता, और न अपश्रवण फलता है, त्रिभुवनरूपी भवनमें उत्कृष्ट तुम्हें देख लेनेपर मनोरथ सफल हो जाते हैं, और ग्रह भी सानुग्रह हो जाते हैं" ||८||
२-२
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५.
१०
ܐ
१०
इय दिवि लभरब होहित अहिंसवित्तियर कि अक्खमि हवं तु केवलिहि फलुकाई भडारा वज्जरक्षि परमेसर णाहिणरिंदसुङ पुण्णेण केण हउं चक्कर कंपावियसिहरिणियंबथलि पट्टिदार
सोम
महापुराण
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मई दियवर णिम्मिय परमजइ । काले किं भणु तिर । णिसि दिहिं मई सिविणावलिहिं । संदेह महारण अवहरहि । पुणे के हुं अरु उ । जाय भारभूयलविजइ । पुणे के बाहुबलि बलि । पुणे केण से संप |
हू संभवु सोमप्पहहो । संभूयासयल वि तु तणये ।
पुण्णेण कंण पालियचिणय
पत्ता - वा णवजलहरणि कहइ महामुणि सुणसे' पुत जं पुच्छि लें || पई कि वियसासणु णयविद्धंसणु कार्ले होसइ "कुच्छिउ ||९||
१०
हा पुत्त काई किउ पात्रमलु रमिर्हिति जेविण कीलड़ सरु लेहिंति सुत्थिणि परधरिगि
उ दूसिहिंति पिज्जेतु मद्दु कहिहिंति धम्भु जो जं करइ सूणागार साउ भणिहित कुल पुणे जहि भणिर्हिति गाइ देवय जलणु वणसं तेषय जल देवयई
भारेपणु मयखाहिति पलु । णिविहिति सोमवाणउं महुरु । rung देहिंति व नियतरुणि । ण विसिहिंति नृवि प्राणिवहु । सो तेण जि कम्में उत्तरइ । अवरु वि पावंधई राउलहं । किं वण्णमिदुकित पुत्त तहि । भणिति पुइ देवय पक्षणु । भणिहिंति णत्तभोयणबयई । लिहिहिति पुराणई अवरई वि । लहू पोसिहिंति जड दुकियई । पत्ता - सई सकुल छिबि अबरु दुर्गाछिवि जगि धीवरखरिपुत्तहूं || देत पण परभरित्तिणु कयकव डागमधुत्तई ॥१०॥
मासई मज्जइ परयार वि
sus देवि कियई
[ १९.९.१
९. १. P छ । २. MB पवत्तियरं । ३. MBP णु । ४. P अरहंतु हउ । ५. MB "मूल; P "अ । ६. MBP केण उ बाहुबलि । ७. MBP सेयंसु 1 ८. MBP संभव । ९. MBPK add after this मई पई जेहा होहितिक (P पई मई), कइ हलहर हरि पडित ( Bपत्तिसत्तु ) क; MBP add fucher तवमटुकामिणिहि वयम (१ तवभट्ट य कामिणिबद्धरह ), कह होस यह उद्दमासु वि फिर होसह कवण गद्द, मो मयणकरिदमयाविद एच ( P हहु ) सलु दिलहि परम १०. PK तो । ११. P पिसुणि । १२. MB पुछियत P पुंछिउ | १३. P णि । १४. MB कुछियर ।
१०. १. MB अण्णु; P जंणु । २. MBP मुद्दह । ३. MB] नि । ४. MBP पाणिच । ५ PK पूष्णु । ६. MBP दणसय । ७. M जितं । ८. MBP एव यई ।
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१९.१०.१३ ]
हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार वन्दना करके, भरतका अधिपति भरत पूछता है-"हे परमयति, मैंने ग्राह्मणवर्णकी रचना की है। वे भविष्यमें समयके साथ अहिंसाकी प्रवृत्तिवाले होंगे या नहीं ? हे तीर्थंकर, बताइए? आप केवलज्ञानोको मैं क्या बताऊँ? रात्रि में मेरे द्वारा देखी गयो स्वप्नापलिका क्या फल होगा? हे आदरणीय देव, कहिए और मेरा सन्देह दूर कीजिए ? हे परमेश्वर नाभिराजके पुत्र, तुम किस पूण्यसे अरहन्त हुए हो ? किस पुण्यसे मैं चक्रवर्ती तथा भारतभूमि तलका विजेता हुआ है? पर्वत नितम्बतटका कपानवाला बाहुबलि किस पुण्यसे बलवान हुआ ? किस पुण्य दानरूपी रथका प्रवर्तन करनेवाला श्रेयांस राजा उत्पन्न हुआ ? किस पुण्यसे सोमप्रभके समान सोमप्रभ राजाका जन्म सम्भव हुआ? किस पुण्यसे तुम्हारे सभी पुत्र विनयका पालन करनेवाले हुए ?"
पत्ता-तब नवमेधके समान ध्वनियाले महामुनि ऋषभ कहते हैं- "हे पुत्र, तुनने जो पूछा है वह सुनो। तुम्हारे द्वारा निर्मित द्विजशासन, समयके साथ कुरिसत न्याय और नाश करनेवाला हो जायेगा" ||२||
"हे पुत्र, पापकार्य क्यों किया। ये लोग ( ब्राह्मण ) पशु मारकर उसका मांस खायेंगे । यज्ञ-में रमण करेंगे, स्वच्छन्द क्रीड़ा करेंगे, मधुर सोमपान करेंगे। पुत्रको कामिनी परस्त्रीका ग्रहण करेंगे, और दूसरोंके लिए अपनी पत्नी देवेंगे, मद्यपान करते हुए भी दूषित नहीं होंगे। हे राजन्, प्राणिवधसे भी वे दूषित नहीं होंगे। वे जो करेंगे उसीको धर्म कहेंगे, और वह भी उसी कर्मसे तरेगा। शून्यागारों, वेश्याकुलों और भी पापोंसे अन्धे राजकुलोंके कुलकर्मीको जहाँ धर्म कहा जायेगा, हे पुत्र वहाँ मैं पापका क्या वर्णन करूं। वे गाय और मागको देवता कहेंगे। पृथ्वी और पवनको देवता कहेंगे, वनस्पतिको देवता और जलको देवता कहेंगे। मांसके नित्यभोजनको व्रत कहेंगे, मद्य और परस्त्रियोंके साथ । और दूसरे-दूसरे पुराण वे लिखेंगे । देवीके द्वारा यहयह किया गया, लो इस प्रकार मूर्ख पापोंका पोषण करेंगे।
पत्ता-स्वयं अपने कुलोंको चाहकर, दूसरेके कुलकी निन्दा कर धीवरी पुत्र ( व्यास) गर्दभी पुत्र ( दुर्वासा ) जैसे कपटपूर्ण आगमोंको पूर्तता करनेवालोंको परम ऋषित्व और प्रभुत्व देंगे ॥१०॥
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महापुराण
[१९.११.१
एहा यंभण होहिंति सुय .. ...किं किया गप्प सलीम पुणु भणइ भडारच गज रहामि सिविणोलिफलु वि णिसुणहि कहामि । पंचाणण जे तेवीस पई
दिहा ते जिणवर मुणिय मई। वज्जियकुसमयकुसंगमालिण सुपसाहियधम्मतित्थपुलिण | जो दिट्ट सजंबुडणे? मउ केसरिकिसोरु चउग्रीसमउ । सो अंतमिल्लु जिणु जोइयउ कामुयकुलिंगिपच्छाइय। जे दिट्ठा हरि करि भारहय भजतपट्टि कह कह व गय । ते अंतिमेरिसि भत्रपंकहरु रिहिंति ण ते चारिसमा । जं विट्ठल जिर्णपण्णपडलु संणीरसु होही घरणियलु । जे दिट्ठा दुरयारूढ कह
ते णिव होहिंति कुकुल कुमइ । जं दिट्ट उलूयहं हुयउ र
त होसइ बहुणयलीणु जणु । जं दिटुन भूयहं णचणउं करिही तं कुसुरसमच्छणर्ड। घत्ता-जं मज्झि असुंदरु पई सुक्खई सरु दिट्ठप जलु तीरंतहि ।
तं धम्मु महारस उबसमगारउ थाही महिपञ्चतहिं ।।११।।
जं दिई रयणई रययहई तं मुणिउलाई मलसंगहई। पंचमजुगि रिद्धिविधज्जियई होहिंति सइंदियविन्जियेई । जं विद्वा ऍज्जिय पई कविल तं जे विड सुहलंपड कुडिल । जे गुरु आसत्ता तरुणियणे
पुजारुह ते होहिं ति जेणे। सिवितरि णिषकुलकुमुयससि पई अवलोइय भो रायरिसि । जे तरुण बसह कलकंठझुणि ते तरुणमय होहिं ति मुणि । जिह जिह जराइ तणु परिणविही तिह तिह घणास गुरुबी हविही । दुस्समकालइ तिहाइ सहुं मरिहिंति धेर ध्रुयु क्यणु महं। घत्ता-जं ससिपरिवेसउ दिट्ट दुरामउ तं कलिकालि ससीसहं ।।
उणिव मणपज्जउ अवहिदुइजउ होही पाणु रिसीसह ।।१२।। ११. १. MBP सिविणवाल तुई णितुणहि । २. M13P गट्ठमउ । ३. MBP अंतिमिल्लु । ४. P पुट्ठि ।
५. P कह दि । ६. ABP अंतिमि । ७. AMBE पा जिणचारित । ८, MBP जुषण । ९. P ता ।
१०. 31BP सुबकर। ११. P तीरंतरह। १२. १. पंचमि जुगि । २. MPP णिज्जियई। ३. MHP पई पुज्जिय । ४. MRP मुहर लंपर ।
५. MB जिणे । ६. " कलयंठ । ७. ABP गहवी । ८. MBP धुउ । ९. M बयण ।
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१९.१२.१०]
हिन्दी अनुवाद
हे पुत्र, ये ब्राह्मण इस प्रकार होंगे। स्यूल बांहोंवाले तूने इनका निर्माण क्यों किया ?" आदरणीय जिन पुनः कहते हैं--"मैं छिपाकर कुछ भी रतूंगा नहीं । स्वप्नावलिका फल भी कहता हूँ, सुनो। तुमने जो तेईस सिंह देखे, मैंने जान लिया कि वे जिनवर देखे हैं, जो खोटे सिद्धान्तों और खोटो संगतिकी मलिनताओंसे व िऔर धर्म निलो डापित करने का है। जो तुमने जम्बूक सहित नष्टमद सिंहशावकको देखा है वह तुमने अन्तिम चौबीसवें तीर्थकरको देखा है जो कामुक और खोटे लिंगधारियोंका आच्छादन करनेवाले हैं। और जो तुमने भारसे आहत भग्नपीठवाले जाते हुए अश्यों और गजोंको देखा है, वे भवरूपी कीचड़को हरण करने. वाले अन्तिम मुनि है, जो चारित्रके भारको धारण नहीं करेंगे: तुमने जो जीणं पत्रपटल देखा है, वह यह कि धरणीतल नीरस हो जायेगा। जो तुमने गजोंपर आरूढ़ वानरोंको देखा है, उससे राजा खोटे कुल और खोटी मतिके होंगे । और जो तुमने उल्लुओंमें हुआ युद्ध देखा, उससे लोग बहुत-से नयोंमें लीन हो जायेंगे। जो तुमने भूतोंका नाचना देखा, उससे खोटे देवोंको पूजा की जायेगी।
__घत्ता-जो तुमने बीच में असुन्दर और सूखा सरोवर और किनारोंके अन्तमें जल देखा, उससे हमारा उपशम करानेवाला धर्म धरती के किनारों पर होगा ॥११॥
१२
जो तुमने धूलघूसरित मणिरत्न देखे, वे मलसे सहित मुनिकुल हैं, पांचवें कालमें ये ऋद्धियोंसे रहित स्वेन्द्रिय चेतना (विद्या ) वाले होंगे। और जो तुमने कपिलको पूजित होते हुए देखा बे विट सुख-लम्पट और कुटिल जन हैं। जो गुरु तरुणीजनमें आसक्त हैं वे लोगोंमें पूजाके पात्र होंगे। हे राजर्षि, जो तुमने स्वप्न में नूपकुल कुमुदचन्द्र देखा और जो कलकण्ठध्वनिवाले तरुण बैल देखे, उससे तरुणजन मुनि होंगे, जैसे-जैसे बुढ़ापे में शरीर परिणत होगा, वैसे ही वेसे लोगोंमें भारी धनाशा होगी। दुषमा कालमें मुनि लोग तृष्णाके साथ मरेंगे यह मेरा ध्रुवकथन है।
अत्ता-और जो तुमने दुष्ट फलदायी चन्द्र परिवेश देखा है, वह हे नवनूप, कलिकालमें शिष्यों सहित मुनियोंका मनःपर्ययज्ञान और दूसरा अवधिज्ञान होगा ॥१२॥
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५
१०
१४
जं दिवड धवल तर गणु संघारण भमिर्हिति जह जं पई सिविल तक्किय जं मेहहिं जगु अंधारिय जो दि सुक्ख दर्खेत रु पुत्तई उल्लंघिय पिउवयई किस काई विउ सहिहिंति परे होहितमित्त कैड्डिय होति विडेव णिष्फल विरस
महापुराण
१३
तं घरही उ एक्कु जि सर्वेणु । जाणेपिणु दुस्समकालगइ | जं दियरमंडल कियनं । तं केवल पुर निवारियउ । सो रणारिहिंदुचरितं । होहितिकलाई पररयई । काणीण दीण खल घरि जि घरे । पिप्पल बयूलपायेव खयर । होहिंति मुणि वि श्रद्धामरिस |
पता- जिद्द जिह जिणु जंपइ वयणु समप्पइ भरद्दि भुवणपंकयरचि || तिति तमु हर दर्स दिसु पसरइ कुंदपुप्फतच्छवि ॥१३॥
[ १४५ १३. १
इस महापुराणे तिसट्टमहासिगुणालंकारे महाकपुष्ठयंतजिरइए महामन्वभरद्वाणुमणिए महाकचे महसिणियसंस्याच्छणं णाम एक्कुणबीसमो परिच्छेओ समत्तो ||१९|| नमक- अभि ॥१९॥
१३. १. MBP समणु । २. MET डंक । ३. P दुरितु । ४ MBPT वङ्क्षिय । ५. MB |
६. MBP विडव । ७. MB भुवणु । ८. P दसदिसि । ९. MBP भरसंसउच्णं ।
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१९. १३. ११]
हिन्दी अनुवाद
जो तुमने बैलोंका गण देखा है उससे एक भी श्रमण विचरण नहीं करेगा 1 यति लोग दुषमा कालको गति जानकर समूहमें विचरण करेंगे। जो तुमने स्वप्न में दिनकर-मण्डलको ढंका हुआ देखा है, वह मेघोंसे अन्धकारमय है, और केवलज्ञान सामनेसे हटा लिया गया है; और जो तुमने सूखा पत्र-पुष्प-फलरहित वृक्ष देखा है वह नर-नारियोंका दुश्चरितका भार है। पुत्र पिताके वचनोंका उल्लंघन करनेवाले होंगे। स्त्रियाँ दूसरेमें रति करनेवाली होंगी। दूसरे लोग कुछ मी क्रिया हुआ सहन नहीं करेंगे, कुमारीपुत्र दीन और खल घर-घरमें होंगे। मित्र देर निकालनेवाले होंगे। पीपल, बबूल और खदिर (खैर) वृक्ष होंगे एकदम विरस। मुनि भी कषाय बांधनेवाले होंगे।"
पत्ता-जैसे-जैसे भुदायमादि जिनःहते. जर गवत समर्पित करते हैं, वैसे-वैसे भरतमें अन्धकार नष्ट होता है, और कुन्दपुष्पके समान उनके दांतोंको कान्ति दसों दिशाओंमें प्रसरित होती है ॥१३॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंगाळे इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामण्य भारत द्वारा अनुमत महाकान्यका भरतविनय और संशयोरछेदन
नामका तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१५॥
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ܐ
१५
अादिकः साक्ष श्री सुि
संधि २०
रिस भरहु भासिय चिरु एवहिं हुई गुज्नु ण रक्खमि || भास गोतमु से सुणि तिसद्धिपुराणई अक्खमि ॥ ध्रुव ॥
यादेत्तु एम तेल्लोकु देसु पुरु रज्जु तित्थु अवि पानिपुणठाणि लोलंति पलोइति जेथु सोविया वि घरिउ eg fung सो सहावघडिउ बालिस कहति जडयण देव roars लोउपायणाई जगत्थि ताई तो लहइ केल्यु किं गयणि होइ पंकयपविति धम्मत्थकाम व अस्थि जासु किरि कहिं किरियाविसे सु विणु तितं उ फळंति fara किं सत्र
*
१
णिमुहि णंदण हो मधुयदेव 1 दाग सुँपसत्थु । साहेवा होलि महापुराणि । Poet " छोउ भणति ऐत्यु । जीवाजीवद्दं णिखुब्सु भरित | आवासणिवासु वि य पडिठ । ta सट्टा किलो । महिमा वेसारवणाई ।
बहु होs fro वि चत्यु | दीपा दीवि पजल वत्ति । कहि लब्भर इच्छापसरु तासु । णिकलुस होइ पण हरिसु रोसु । कि करण हरणबुद्धी होंति । सिबि लैग्गी कि कतारवाहि । कुंभु तं महु मणि भावइ || करिषि काई गुणवंत सावइ ||१||
छाहि
घत्ता -- कुंभड भिण्ण कुंभयक कर सिं अपे जगु पर्व जि
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza ;फणिनि विमुह्यतीव मे रुचि कचनिचयेषु योषितामलकिषु मूर्च्छतीव हसतीच तमालतले पुजितम् । मदमृचि माद्यतीय लोलालिनि वरकरिगण्डमण्डले दिशि दिशि लिम्पतीव पिबतीय निमीलयतीव खङ्गणे ॥
P Reads खण्डणे for णे | GK do nol give it !
१. १. P भासिए । २. MBP तेलोक्क । ३. MBP तबदाणगईहलु । ४. MP सह । ५. MBP तं लोच । ६. P तेत् । ७. MBP किज के विण धरिव । ८. MB वित्त P शिखुत्तुः T णिक्कुम्भा निरंतरम् । ९, K कय 3 1 १०. MBP ण रूचि वत्थू K ण परु वि वायु and glass] मरोऽपि वस्वं पि न भवति । ११. MBP तिट्ठातर्तें: 'T' तृष्णा करणहरणाभिलाषः सैव तन्त्रम् । १२. MBKT साबद्द; P छायदइ । १३. P लग्गउ । १४. MBP सिउ । १५. P अध्ाणु
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सन्धि २०
"ऋषभके द्वारा भरतसे ( पहले ) जो कुछ कहा गया, उसे मैं इस समय छिपाकर नहीं रखूँगा । सुनो, मैं त्रिषष्टि पुराण कहता हूँ ।"
आर्थिक
१
तब वहीं ऋषभदेवने इस प्रकार कहा, "हे मनुष्य देवपुत्र सुनो, पुराणमें-- त्रिलोक देशपुर-राज्य तीर्थं तप-दान- शुभ-प्रशस्त गति फल आठों प्रारम्भिक पुण्यस्थान आदि बातें कही जाती हैं। जिसमें द्रव्य स्थित रहते हैं और दिखाई देते हैं, उसे लोक कहा जाता है। उसे न तो किसी ने बनाया है, और न वह किसके द्वारा धारण किया गया है। वह निरन्तर जीव- अजीवों से भरा हुआ है, चल और अचल वह अपने स्वभावसे रचित है। तथा आकाश में स्थित होते हुए भी वह गिरता नहीं है । लेकिन मूर्ख जड़जनों को इसका कारण बताते हैं कि सृष्टि करनेवाले देवने इस लोकका निर्माण किया है। पृथ्वी, पवन, अग्नि, जल और लोकके उपादान द्रव्य यदि नहीं हैं, तो वह स्रष्टा उन्हें कहीं पाता है ? निराकार से क्या कोई वस्तु हो सकती है ? क्या आकाश में कमलोंकी रचना हो सकती है। दीपक दीपक बाती जलती है ? परन्तु जिसमें धर्म, अर्थ और काम नहीं है, उसमें इच्छाका प्रसार कैसे हो सकता है । निष्कियमें क्रिया विशेष कैसे हो सकती है, जो निष्पाप है, उसमें हमें और को नहीं हो सकता । तृष्णारूपी तन्त्र के बिना फल नहीं हो सकते। उसके बिना (करना-हरमा ) आदि बुद्धियाँ नहीं हो सकतीं। क्या बिना छत्र छाया आ सकती है ? शिवको कर्ताकी व्याधि किस प्रकार लग गयो ।
क
धत्ता - घड़ेसे भिन्न कुम्भकार घड़े को बनाता है, यह बात मुझे जंचती है। शिव अपने से विश्वकी रचना करता है, फिर गुणवानों को शाप क्यों देता है ? ॥१॥
२-३
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१०
१०
१८
विणु घडेयारेण सव इ तो एकम् are गमि जर ईसरु मुवणय णिमित्त जड़ णि ण तो परिणाम रिद्धि विरपप्पिणु भजेर मुणकोसु जय सयल वि पसु णिकिरिय कर पुणु पासु ताहं संजोयमाणु जर लिप्पइ गज दुरिएण सिधु जय पण सिवु सिधंसु चंडु पुरदाह वरिव रुहिरपाणु परियाणि होत जइ हरे जर वच्छले ft forष्ठ लोड
मिडिज सई कलसु होइ । तो पुणु भेविभिशु गणमि । तोता कवणु तं विचित्तु | foपरिणाम कहिं कम्म सिद्धि । जपही दीसइ कील तासु । संघारसमइ सरीरि धरइ । पावेण ण लिप्प किं अयाणु । तो किं अग्रेसरचणि असुधु । तो गाउं होइ किं मखंडु | किं संतािणु तो दाव णिम्मिय काई तेण । तो किंण कि सब विहो । मिच्च्छाविस बिंदुयणीसंद || किं वणिय कुवाय सिवरायणारविंदमई (13)
महापुराण
२
धत्ता - जिणंणाणण दिट्ठाई
पण या सई जि भग्गु जइ जाइ जीउ सिषपेरणार कोजाइ केही हरहु चेट्ट कम्माय सा अइ भणसि एम माईसर किं गोवइ थवंति अणिर्वेद्धरं महु णरजम्मयारि जिह सिबु तिह यंभु ण विण्हु अस्थि वि संता म सत्तेकपणे कसुरज्जुपिडुलि वेत्तासारिरयरूचि तहु मज्झि परिट्टि तिरियलोड पण एकु वेढियेउ ताम
[२०.२.१
३
णिव णरयविवरु सग्गापत्रम् । तो कि काय तवभात्रणाइ । sis भीषण पिट्ठविट्टु | तापलइ सुवण संहर केम | जह मत्त पिसाय किं चति । पिंद्य वंभयारि जणणि वि कुमारि । विणु इत्थिसलेण ण होइ इत्थि । अणु अाइ जगु सिद्ध एम । अहमज्वर्भुवणाकुलि । चोच्छेदभाव । गय संखदीय अलणिहि समे । सयंभूरमणु जाम |
छ
२. १. K विण । २ MB घडयारएण । ३. MBP रूट । ४ MBP हिडिव ।
५. MT तंगुणु विचित्तु । ६. MBP मण्णई । ७. M जर जयल; नइ सयल । ८. P अयसिरि लुंचणि । ९. MBP सिख । १०. MBP जिणनाग वि । ११. P विट्टियई ।
३. १. MBP कयाइ । २. MBP होही । ३. MEPT कम्माणुवसा । ४. MPK अणिबद्ध । ५. MBP भणु विष्व । ६. MBP भूयणं कुर्यालि । ७. NM मरवरूवि; IP सुरवरूवि । ८. BP चलदह । ९. MB विडियउ । १० MBP शेपल्लू ।
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२१.३.१२]
हिन्दी अनुवार
पड़ा यदि बिना कुम्भकारके स्वरूप ग्रहण कर लेता है, और मिट्टीका पिण्ड स्वयं कलश हो जाता है, तो में कर्ता और कर्मको एक कहता हूँ और नहीं तो भेदसे दोनोंको भिन्न मानता है। यदि ईश्वर भुवनतलका निमित्त है तो उसका कर्ता कौन है? यदि वह नित्य है तो उसमें परिणामवृद्धि नहीं हो सकती। परिणामरहितके कर्मसिसि कैसे हो सकती है ? भुवनकोपकी रचना कर यदि वह उसे नष्ट कर देता है, यदि उसकी ऐसी क्रीड़ा है, यदि वह समस्त जग और जीवोंको निष्क्रिय होकर भी बनाता है, और संहारके समय अपने शरीरमें धारण कर लेता है, उनके बन्धनका संयोग करता हुआ वह पापसे लिप्त नहीं होता? तो क्या वह अज्ञानी है ? यदि वह निडा है मोड से लिप नहीं होगा तो फिर ब्राह्मणका शिर काटनेसे वह अशुद्ध क्यों है ? यदि यह कहते हो कि शिव नहीं शिवका अंश चण्ड होता है, तो क्या हेमखण्ड नाग हो सकता है ? (यह कहलायेगी शिवकला ही ) नगरदाह, शत्रुवष, रक्तपान और नृत्य करना क्या यह सन्तोंका विधान है ? यदि शिवके द्वारा परित्राण किया जाता है, तो उसने फिर दानवोंकी रचना क्यों को ? यदि उसने वत्सलभावसे लोककी रचना की, तो उसने सबके लिए विशिष्ट भोग क्यों नहीं बनाये?
पत्ता-जिससे मिथ्यात्वरूपी विषको बंदे झरती हैं, कुवादियोंके ऐसे शिवरूपी आकाशकमलके मकरन्दोंको जिन भगवान्ने नहीं देखा है, उनका क्या वर्णन किया जाये ॥२॥
अज्ञानी स्वयं अपना मार्ग नहीं जानता, नरक-श्विर स्वर्ग और अपवर्ग यदि जीवके लिए शिक्की प्रेरणासे होते हैं, तो फिर की गयो तपको भावनासे क्या? कौन जानता है कि शिवको चेष्टा कैसी है, क्या वह इष्टको नष्ट करनेवाली भीषण होगी? यदि यह कहते हो कि वह कर्मके अनुसार होती है, तो वह स्वजनोंका प्रलयमें संहार क्यों करता है ? शेव उसे गोपति ( इन्द्रियोंका स्वामी) क्यों कहते हैं ? जड़, पिशाच और मस्त असम्बद्ध ये मुझसे क्या कहते हैं ? नर जन्म देनेवाला पिता ब्रह्मचारी है और माता भी कुमारी है। जिस प्रकार शिव, उसी प्रकार ब्रह्मा और विष्णु मी नहीं हैं। हस्तिकुलके बिना हाथी नहीं हो सकता। इसी प्रकार बिना मनुष्य परम्पराके मनुष्य कैसे? इस प्रकार जग अनादि-निधन सिद्ध हो गया ।" सात, एक, पाँच और एक रज्जू विस्तारवाले क्रमशः अधोलोक, मध्यलोक, ऊवलोक ( ब्रह्म-अझोत्तर स्वर्ग तक ) और उसके भागेके लोकका भूतल है । अधोलोक वेत्रासनके समान, मध्यलोक झल्लरो और ऊर्ध्वलोक मृदंगके समान, कुल चौदह रज्जू प्रमाण ऊंचा है। उसके मध्यमें तिथंच लोक बसा हुआ है, जो असंख्य द्वीपों और समुद्रोंसे सहित है । एकने एकको वहाँ तक घेर रखा कि जहाँ तक स्वयम्भूरमण समुद्र है।
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५
१०
५
१०
२०
धत्ता
1- तहि लेवेण्ण्णव मेहलह मंद
मंडई गाव ||
जंबूदी पसिधु' जगि सबलहु दीवहु राम णावद्द || २ ||
महापुराण
दहखेत्तभाय जहिं रिद्धिवंत दृढकुलिसकवार्ड चिया सरिस चित्तु जिविसी फलिम कुसुममंजरि मुसेउ जंबूतर जंबूदेवठा जगद्दि भूमवियार क्खत संखण मुणि मांति हिंदीवि मेरुपच्छिम दिसाहि
*
[ २०. ३.१३
छन्त्ररिसधार बरसाणुमंत । चदाई चोदाइमुहाई । परिमण्डलुम परिणमणिकेल । असु देवहि दिgs ध्रुवु णिवाणु) जब भमंति दो चंदसूर । अम्हारिस जब कह कि मुर्णति । सीओ जलकी लियशसाहि ।
पत्ता - दक्खिणतीरि रम्मि बिउले फीलइरिहि उत्तरदिसि मंडियि || farafts थिउ महिबहु णावर अवरुंडिवि
५
जो पारियाचं पयकेलंत्रमुचुकुंदकुंदमंदारसारमेरिंध गंधगुगुगुभियमध्यरात्रीमिलन मोर कीरकलाई सकुररका रंडकोइलारावरम् ||१||
जो मतदं तिगंडयल गलियमै यतुष्प बिंदुचित्तलियवारिवियरंतततियसिंदकामिणी सिणिघुसिणपिंगलियफेण सोहियस रंतो ||२||
जोणिफलवियछेत्त कणसुरद्दिपरिमलामी घुलियर उलकुद्धइणिविमुको करण कलरवोदिष्णकृपण थियचरणहरिणी ||३||
जो कलबर्कगुजब मुम्गमाससंतुङ्कुमं थेरो गाणो हिदुधदद्दियवाज्जित थिय समूहो ||४||
जो रुंद व किरणाहि रामसामारमंगोवालगोबियागीय गेय रस व सविसण्णसुद्दाणिहिराणीसासताषविहगो सिहंगडी ||५||
जो बसह सिंगलय खोल्लम हि यलुच्छ लियस रसथलकमलमंद मेयरंदपुंज पिंजरियतुं - गणग्गोहरोह पारोह डालडोल्लायेमोण जब बी बिलुपिया सामरोहो ||६||
११. MBP लवणंबुद्दि । १२. MP मंदिरं । १३. P बेढि | १४. MBP पसत्यु | ४. १. सावंत २. PT कवाडई चियपहाई । २. MBP मेहलणिके । ४. MBP देवें । ५. MBP घुट । ६. MBP जगलच्छिहि णं । ७. MBP उत्तरखीरि । ८ MBP दक्षिणदिसि 1 सोतोदायां उत्तरदिशि इति संबन्धः दक्षिणतीरे गोलदरि इति संबन्ध: MEK गंधिलु ।
५. १, MBP° कयंबळे । २. MBP महमरोतीं । ३. MB कुरलं; P कुरुल । ४. 13° मयपबिदु चंदु bur gloss स्निग्ध । ५. MBP " भरियं । ६. M संरोमंय; BP सच्छरोमयं । ७. K महिसोह' । ८. MBP मतजंतपंथिय । ९. M गोहो । १०. MP नरंदपुंजरियो । ११. MBP डोलायमाण ।
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२१. ५. १२]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-उसमें लवण समुद्रको मेखलासे घिरा हुआ और मन्दराचल के मुकुट से शोभित राब वीपोंमें श्रेष्ठ जगमें प्रसिद्ध जम्बूद्वीप है ||३||
उसके ऋद्धिसे सम्पन्न दस क्षेत्रमाग हैं { भरत, हैमवत, हरि, रम्यक, हैरण्यवत्व और ऐरावत, पूर्वविदेह, अपर विदेह, कुम और उत्तरमा दिवाले छह लाइ पर्वत है। दृढ़ व किवाड़ोंसे जिनके पथ अंचित (नियन्त्रित ) हैं, ऐसे चार द्वार और चौदह नदीमुख हैं। वहाँ जम्बूदेवका स्थान जम्बूवृक्ष है जो ससुरुषके चित्तकी तरह विशाल है, जिसको मरकत रत्नोंकी शाखाएं फैली हुई हैं, जो स्फटिकमय कुसुम मंजरियोंसे शोभित है और प्रवर इन्द्रनील मनियों के फलोंका घर है, जिसके निर्माण संस्थानको निश्चित रूपसे देवों द्वारा देखा गया है। उसके ऊपर दो चन्द्रसूर्य घूमते हैं, जो मानो निश्चित रूपसे विश्वरूपी लक्ष्मीक भूषणविकार हैं। नक्षत्रोंकी संख्या मुनि नहीं बताते, तो फिर हम-जैसे जड़कत्रि उसका क्या विचार कर सकते हैं ? उस द्वीपके सुमेरु पर्वतकी पश्चिम दिशामें सीतोधि है जिसमें मय जल-क्रीड़ा करते हैं।
पत्ता-उसके रम्य और विशाल दक्षिण तटपर, नीलगिरिको उत्तर दिशाको अलंकृत कर, गंधेलु नामका विषयविद्ध है जो मानो धरतीरूपी वधूको आलिगित करके स्थित है ||४||
जो पारिजात, चम्पक, कदम्ब, मुचुकुन्द, कुन्द, मंदार, सार और सैरन्ध्रके पुष्पोंको गन्धसे गुनगुनाती हुई भ्रमरावती, और मिलते हुए बया, मयूर, फीर, कलहंस, कुरु, कारण्ड तथा कोयलोंके शब्दोंसे सुन्दर हैं ॥१॥
मदवाले हाथियों के गण्डस्थलसे झरते हुए मदरूपी धोके बिन्दुओं से रंग-बिरंगे जलमें विचरण करती और नहातो हुई; देवांगनाओंके स्तनों के होशरसे पोले हुए. फेनसे जिसके सरोवरों के किनारे शोभित हैं ||२||
जिसके सीमामार्ग विविध धान्यफलोंसे झुके हुए क्षेत्रोंके कोयो सुरभित परिमलके आमोदसे चंचल पक्षियों के समूहसे क्रुद्ध कृपकत्रालाके द्वारा किये गये छू-न्छू करनेके कलरवके प्रति कान देनेके कारण, स्थिर चरणवाले हरिणोंसे माच्छन्न हैं ॥३॥
जहाँपर धान्य, फंगु, जो, मूंग और उड़दसे सन्तुष्ट, और मन्द-मन्द जुगाली करते हुए गौमहिष-समूहसे दुहे जाते हुए दूध-दही और घोको वापिकाओंमें पथिकजन स्नान कर रहे हैं ।।४।।
जहाँके गोठ पूर्णचन्द्रको किरणोंसे सुन्दर निशामें क्रीड़ा करते हुए गोपाल और गोपालनियोंके द्वारा गाये गये गेय रसके बशसे दुःखी बंधुओंके द्वारा मुक्त निःश्वासोंके सन्तापसे नष्ट होती हुई गोष्ठियोंसे शोभित हैं ॥५॥
जहां वृषभोंके सींगोंसे क्षत गड्ढेवाली धरतोसे उछलते हुए सरस स्थलकमलों (मुलाव) के मन्द पराग समूहसे पीले और ऊंचे वटवृझोंके आरोहों-प्रारोहों और शाखाओंपर झूलती हुई यक्षिणियों के कारण निकटवर्ती पामर जनसमूह लुप्त हो गया है ।।६।।
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१५
२०
५
१०
२२
[ २०.५.१३
जो खयर चंचुयपडिय पिक्कमाचंवगोच्छधावंतवाणरो मुक्कधीर बुक्कारतसिय णासंतराय रमणीयाप विलुलियणे उरालग्ग हेमरयणंसुफुरियवेल्लीहरंतो ॥७॥ लीलाविभङ्गाणमेतणिवसंतगाम पुरणयरखेड कब्बड मडं बसं वाहणा
इरमणीयसो ||८||
विपाय
पायारविंद बंदणपसत्तणर मिहुणगरुअचा
जो हीरणारसीहारणासंभव कुवा इक समयविरहिओ वीयरायणतोयधोयलोयंतरंगसुद्धो संह।सोम्मो ॥९॥ पोरी चरण रितभत्तिविद्दवियविसमपाषाव लेवो ॥१०॥ घत्ता-"जहिं बेयडूढमहासिहरि मज्झि परिट्ठिन दीसइ केहउ || रुपदंड घल्लियउ पुइ मते विहिणा जेह ||५||
१५
तर्हि उत्तर सेढिहि रमियखयरि पफुल्लियसयदलपरिमलेण पक्खिचित्तकयदू सणेण आवरणविश्वित्तपण जाणावारमतिरहिं दीस इदणवणणील केस चूलामणिचुंचियणयलाई धू धू में णीससंति अल्झिंकारें सरे गुणति घडणं किरयल धुणं ति अह सारिका दिव्व गेह पवसिय पियाहि पेल्लिय करेहिं
महापुराण
जहिं पोमरायणिरसियाई
घरु हरिणीले पीलियत जाम
धत्ता - अमलिय मंडणू मुहकमलु विरहिणी मणिभित्तिहि दिट्टुडं ॥
सुविद्धिय जहिं अप्परं मण्णिव णिकिटुवं ॥ ६ ॥
यण णलति णयाणणाइ निदेष्पिणु रंगावपियारु
६
अल्याउरि णामें अस्थि गयरि । परिवेदिय जा परिहाजलेण । जा सोहइ नाइ नियासणेण । पायारणयक हिसुत्तएण ।
छज कंठविणेहिं । पुरि णं अवैयरिय अन्द बेस । जहिं घर सत्तभूमीयलाई । णं मुत्तालितर्हि संति । गुरुवक्कणहिं सुणं ति । सिरिहिं के के भांति । जहिं सिरोलंबियणीलमेह । संतावार तळतंबिरेहिं ।
७
बहुपायादत्तयविलसियाई । केरी सोह ताम |
जहिं एम कहिं भिजूरिड घणाइ | जहिं बहु कंठिहरु ।
१२, M॰कयमय ं । १३, M सहावसोमो | १४, All Mss arld: - इमी विसमसीसयछंदजाई कहिया । १५. MBPK हि ।
६. १. MB उत्तरे टिहि । २. MBP पफुलिय । ३. K अवस्यिय बेस ४ MBP धूव सधूमें 1 ५. MBP दविहि 1 ६ MBP सय 1 ७. MP अम्बई | अहं K अमहं but loss बस्म त्सदृशाः । ८ P तंहि । ९. MBIT संक्षहि सुत
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२१. ७.४ ]
हिन्दी अनुवाद
२३
जहाँ पक्षियोंकी चोंचों से आहत पड़े हुए पके आमोंके गुच्छोंके लिए दोड़ते हुए दान रोंके द्वारा मुक्त धीर बुक्कार ध्वनियोंसे त्रस्त और भागती हुई राजरमणियोंके पैरोंके अग्रभागसे गिरे हुए नूपुरोंकी लगी हुई हेमरत्न किरणोंसे लताघरोंके मध्यभाग स्फुरित हैं ||७||
जिसके भूप्रदेश, मुगकी कोड़ा विस्तारको उड़ानकी सीमामें बसे हुए गांव, पुर, नगर, खेड़ा, कब्बड, मडंब, संवाह और ज्ञानियोंसे रमणीय हैं ||८||
नरसिंह ब्रझर र कुहियोंके द्वारा रचित सिद्धान्तों से शून्य है तथा बीतरागनी जलसे धोये गये लोगों के अन्तरंगोंसे शुद्ध है और स्वभावसे सोम्य है ॥९॥
घोर और वीर तपश्चरणके करने में परिणत मुनीन्द्रोंके चरणकमलोंके वन्दनमें लगे हुए नरयुग्मोंकी महान् चरित्र भक्ति से जिसने पापमलके मवलेपको नष्ट कर दिया है ||१०||
पत्ता - जहाँ मध्य में स्थित विजयार्धं पर्वत ऐसा दिखाई देता है, मानो पृथ्वीको मापते हुए विधाताने रजत दण्ड स्थापित कर दिया हो ॥५॥
६
उसकी उत्तर श्रेणी में, जहाँ विद्याधर रमण करते हैं, ऐसी अलकापुरी नामकी नगरी है, जो खिले हुए कमलों के परागवाले परिखा जलसे घिरी हुई है जो शत्रुपक्ष के चित्तको क्षुब्ध करनेवाले परिधान से शोभित है ।
बँधे हुए रत्नोंसे विचित्र प्राकाररूपी स्वर्ण कटिसूत्र, नाना द्वारों, मणि- तोरणोंसे ऐसी मालूम होती है मानो कण्ठके आभूषणोंसे शोभित हो। नन्दनवनरूपी नोलकेशवाली वह नगरी ऐसी मालूम होती है जैसे कोई अपूर्व वेश्या अवतरित हुई हो । जहाँ शिखरमणियोंसे आकाशतलको चूमने वाले सात भूमियोंवाले घर हैं, मानो वह नगरी धूपके सुन्दर घुसे निश्वास लेती है, मानो मुक्तावलीरूपी दाँतोंसे हँसती है, भानी भ्रमरोंको शंकारसे हंसती स्वरोंको मिनती है, मानो विशाल गवाक्षोंके कानोंसे सुनती है। उसके ध्वजपट ऐसे हैं मानो अपने करतलको हिला रही है, मानो मयूरके स्वरोंके बहाने वह कहती है कि हमारे समान दिव्य गेह कौनकौन हैं ? जहाँ गृहशिखरोंपर अवलम्बित नीले मेघ पीड़ित करों और आरक्त हस्ततलोंवाली प्रोषितपतिका स्त्रियोंके लिए सन्तापदायक हैं।
पत्ता -- सन्ध्या समय सोकर उठी हुई विरहिणीने शृंगारसे रहित अपने मुखकमलको मणिमय दीवालपर देखा और अपनेको निकृष्ट समझा || ६ ||
1
७
जहाँ वधुओंके पैरोंके आलक्त विलास, पद्मराग मणियोंकी प्रभाओंसे हटा दिये गये हैं । घर जबतक हरे और नीले मणियोंसे नीले हैं, तबतक नेत्र काजलकी शोभा धारण नहीं कर पाते, नत्रमुखी स्त्रियां इस कारण जहाँ दुखी होती हैं। जहाँ रंगावलीके प्रकारोंकी निन्दा करती
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२४
महापुराण
[२०.७.५ जहिं रिद्धि वि रेहाइ पवर का वि जहिं पंगणि पंगेणि तोयवावि । पुगयकिजकरयंकयाई
जहि वाविहि वाविष्टि पंकयाई । जहि पंका पंका इंसु थाइ जहिं हंसि हसि कलरव विहाइ । चाहिं कलरवि कलरत्रि हयणिमाण कामेण समत्रिय कामयाण । सहि उववणा घेरि सिरि चडंति पुणु विविह पक्खि उववणि पहति । यमुहफेहि कुंजरमएहि तंबोलाह माणवमुँहचुएहि । संजणियपंक जहिं रायमग्ग वचंतजाणा चहि णिच्चुन्छव मंगलपसत्य असिमसिकिसि विजावजियस्थ । जिगधम्माणंदिय मुत्तमोय णिसवदव जाहि णिवर्मति लोय । धत्ता-अइबलु णामें तेत्थु पहु सो जह वि हुण होई दोसाय ॥
तइ वि हु कुवलयवोसयरु सोम्म वि चंडपाच पहायक ॥७||
कुलणाइसधियार वि णिविवयारु सुहसीलु वि धरियधरित्तिभारु । इछलोयत्थु वि परलोयभन्तु गोवालु चि जाणियरायवित्तु । जयेगहियगुणे वि अक्खयगुणोहु . णिब्बाह वि करिकरदीयाहु । बलवंतु वि अबलासयई गम्मु अविडप्पु वि लंघियमरहम्मु । णीसु वि लक्षणलक्खियसरीर ससहावे धीरु चि पायभीरु ।। दूरत्थु वि गिय डत्थु व हयारि रहवंतु वि परवाश्रमयारि । सुयभिषणमा वि दढचित्तवित्ति बहपालिरो विदिसचित्तकित्ति । अइसन्छु नि रहियसमंतचाक गुरुओ वि गुरु लहु विणयसार। संगम वि जिणइ संगरि दुजेय लच्छीवासु वि खरदंड णेय । सुपसुन वि चलोयणेहि णियइ ठाणत्यु वितश्चरणेहिं ममइ । घसा-जो महिमादक पुरिगड़रि महिमावंतु मुवणि शिक्खाय ।।
जो अहिमाणत्रंतु पुयशु जो रिउमाणवतु संजायः ॥८।।
णं पेन्मस लिलाल्लोलमाल णं मयणहु केरी परमलील । णं चिंतामनि संदिपणाकाम णं तिजगतरुणिमोहग्गसीम। णं रूबरयणसंबायनागि
णं हिययहारि लायपणजोणि । ७. १. MBPK सोहइ । २. M.BP बालरस; K कलरव hut corrects it to कलरवु । ३. MBP
घरसिरि । ४. MP मुहमुएहि । ५. MB | ६. MY हो । ७. MBP सोमु । ८. MBP
मंडपया। ८. १. MBPK जग 1 २, Pणि । ३. K लत्रिययलक्ष्यणसरीक । ४. P णिवडाथु । ५. M वि1 ६.P
रइयं । ७. M13 गतो; P गरुनो। ८. M परदु; BP सरदंडु । ९, MBP वर; T पल ।
१०. M वाणत्यु; MP थाणाधु । ११. MBP परणिहि भमह । २.१. MILJ खोणि।
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२१. १.३]
हिन्दी अनुवाद हुई कुल-वधू कण्ठमें हार बांधती है। जहां प्रवर ऋद्धि शोभित होती है, जहाँ प्रत्येक आँगनमें बावड़ियाँ हैं, प्रत्येक बावड़ी में निकलते हुए परागोंकी रजसे शोभित कमल हैं। जहां प्रत्येक कमलपर हंस स्थित है, और प्रत्येक हंसका जहाँ कलरव शोमित है, जहां प्रत्येक कलरव में मनुष्यके मानको आहत करने वाला कामबाण कामदेवने समर्पित कर दिया है। जहां उपवनसे आकर गृहोंके शिखरोंपर पक्षो बैठते हैं, और फिर वापस वनमें चले जाते हैं। जहां अश्व-मुखोंके फेनों, गजमदों, और मनुष्योंके मुखोंसे च्युत ताम्बूलोंसे राजमार्गनें कीचड़ उत्पन्न हो गयी है। जिसमें चलते हुए यान, जम्पान और दुर्ग हैं। जहां मंगलसे प्रशस्त नित्य उत्सव होते हैं, जहां असि, मषी, कृषि और विद्यासे अर्थ कमाया जाता है। जहां लोग जिनधर्मसे आनन्वित होकर भोग भोगते हुए बिना किसी उपद्रवके निवास करते हैं ।
पत्ता-वहाँ अतिबल नामका प्रभु है, यद्यपि वह दोषाकर [ चन्द्रमा । दोषोंका आकर ] नहीं है, फिर भी वह कुवलय (पृथ्वीमण्डल ) को सन्तोष देनेवाला है, सौभ्य होकर भी सूर्यकी तरह प्रचण्ड है ॥७॥
जो कुलरूपी नभमें सवियार ( सविकार और सविता, सूर्य ) होकर भी निर्विकार पा, शुभशील होकर भी घरतीके भारको धारण करनेवाला था। इस लोकमें रहते हुए भी परलोकका भक था, गोपाल होकर भी ( गायों, धरतीका पालक ) राज्यवृत्तिको जाननेवाला था। बगके द्वारा गृहोत-गुण होनेपर भी जो अक्षयगुणसमूहवाला था। जो निर्वाह (बिना बाह, बिना वाषा) होकर मी गजकी सूड़के समान बाहुवाला था। जो बलवान होकर भी सैकड़ों अबलोंके द्वारा गम्य था। राहु न होते हुए भी ( अविडप्प ) जो सूर्यके तेजका उल्लंघन करता था, ( फिर भी विटात्मा नहीं था), ईश नहीं होते हुए भी उसका शरीर लक्षणोंसे लक्षित था । अपने स्वभावसे धीर होते हुए मी वह पापोंसे भीरु था। दूर होकर भी वह निकट था। शत्रुका नाश करनेवाला और रतिवन्त होकर भी परवधुओंके लिए ब्रह्मचारो था, श्रुत ( काम और शास्त्र ) में पूर्णमन होते हुए भी जो दृढचित्तवृत्तिवाला था, जो बहुपालितो ( वेश्याको ग्रहण करनेवाला होकर भी) दूसरे पक्षमें ( वधूपालक होकर ) दिशाओंमें कीर्ति फैलानेवाला था। स्वच्छ होकर भी वह स्वमन्त्राचारसे रक्षित था। गुरु (महान् ) होकर भी गुरुओंके प्रति छोटा और विनयशील था। संग्राममें अजेय होते हुए भी वह संगर ( रोग सहित ) होकर भी युद्ध में जोतनेवाला था। लक्ष्मीका निवास होते हुए भी वह तीबदण्डको जानता था। सुषुप्त ( अत्यन्त सोता हुआ, अत्यन्त नीतिबाला ) होकर भी चरोंके नेत्रोंसे देखता था। एक स्थानपर स्थित होकर भी वह उनके नेत्रोंसे घूमता था।
पत्ता-जो पृथ्वोरूपी लक्ष्मीका पर, पुरुषश्रेष्ठ, महिमावान और विश्वमें विख्यात था। जो अभिमानवाला, सुजन और शत्रुके लिए मानवाला था ॥८॥
___ उसकी मनोहरा नामकी कमलनयनी गृहकमलकी लक्ष्मी महादेवी थी, जो मानो प्रेमसलिलको कल्लोलमाला, मानो कामदेवकी परमलीला, मानो कामनाएं पूरी करनेवाली, चिन्तामणि, मानो तीनों लोकोंको रमणियोंको सौभाग्यसीमा, मानो रूप रत्नोंके समूहको खान, मानो हृदयका
२-४
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५
१०
१५
२०
२६
*
णं घरसर सिणि रसुल्लि घरवणदेव दुरियसंति णं घरगिरिवासिणि जवखपत्ति महवि तासु घरकमललच्छि तहि जणि तण खयराहि वेण जेण
कुम्मुण्णयकम्
केसरिक
आर्यनिरहु
णवजलहर झुणि
सुरकरिकर करु विसइकंधरु
गुणरंजियजणु
धरण दुजैगबंदु सयलु संतावित ॥
णु व विसाहित्रेण वियगोत्त इरिसें हिंसावित्र ||२||
१०
उण्णयभालच
अलिकत
कलेक
महापुराण
७
किमिक संकल लालाविलु fusauraj सोलह कर्द
कामें जिप्पइ
घरमहरु मंडणिय वेल्लि । घरकृणससह विकंति । णं लोयव संकरि मंतसत्ति । मेण मणोर पंच्छि । अलयाउरिधरणाण तेण ।
दुज्जयविक्कमु ।
चित्रोरत्थ |
कसमप्प
कुलचूडामणि ।
तरुणीमणहरु ।
रघुरंधर | अणिव जोवषणु । पेच्छिवि बालक !
चितइ अइबलु | पिंजरू | हिरचिलिबिलु। अंत पोहलु | पखिहिं भोय ।
[ २०.९६४
णवदारंतरु |
लो चिप्पड़ ।
छम्मै लिइ । मो मुझ ।
को as 'कम्मे बाइ स भिज जर कुहिज्ज
रोएं झिज्जइ । कार्ले खिज्जइ ।
१
पत्ता- भणि सणंदणु पत्थिवेण संति करेज्जसु शिवसंतामहो । अजहि रायसरि सई पुणु जाएव शिवचणो || १०|| २. P मनोहरि । ३. MBP कुवलयच्छि । ४. MBP "वरणाहेण । ६. MBP वियसादिउ ।
१०. १. MBP कडियल K कडय but correts it to कडियलु । २. P रज्ज । ३. MP "कुंतलु । ४. Komits अट्टियपंजर ५. M भायण । ६. B Reads this line as पिउवणभाणु, गुणगणमोयणु and adds further सोयक्कोमणु, पक्खिहि भोयणु । ७. MB and afier this: गुणगणमोयणु, सोय कोयणु । ८ MBPT कंड ९. MBP छ । १०. B कार्ये । ११. MBP खज्जइ ।
५. MRP दुज्जष्णवग्गु ।
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२१. १०. २१]
हिन्दो अमुवान हरण करनेवाली लावण्य योनि, मानो घररूपो सरोवरको रतिसुख देने वाली हंसिनी, मानो घररूपी वृक्षको अलंकृत करनेकी लता, मानो पापोंको शान्त करनेवाली धररूपी वनकी देवता, मानो घररूपी पूर्णचन्द्रकी पूर्ण बिम्घकान्ति, मानो घररूपी गिरिमें रहनेवाली यक्षपत्नी और मानो लोगोंको दशमें करनेवाली मन्त्राक्ति थी। अलकापुरीको धरतीके स्वामी उस विद्याधरको एक पुत्र उत्पन्न हुआ।
पत्ता-उस पुत्रके उत्पन्न होने से समस्त दुजैनसमूह पीड़ित हो उठा। लेकिन उसका अपना गोत्र हर्षसे उसी प्रकार विकसित हो गया जिस प्रकार नवदिवसके अधिपत्ति सूर्यसे कमल विकसित हो जाता है .....:.::...:. :: .. .. .....
कूर्मको तरह उन्नत क्रम ( चरण ) अजेय पराक्रमी, सिंहके समान कटितलवाले, विकट उरस्थलवाले स्वर्णप्रभ-नवमेघकी अनिवाले, कुलके चूड़ामणि, ऐरावतको सँड़के समान हायवाले, तरुणियों के लिए सुन्दर, वृषभराजके समान कन्धोंवाले, राज्यमें धुरन्धर, गुणोंसे अनोंको रंजित करनेवाले, अभिनव यौवन और उन्नतभालवाले अपने पुत्रको देखकर, भ्रमरोंके समान बालोंवाले राजा अतिबलने विचार किया, "मनुष्यका शरीर हड्डियोंका ढांचा है, कृमिकुलसे व्याप्त, रुधिरसे वीभत्स, लारसे घिनौना, आंतोंकी पोटली और मरघटका पात्र, पक्षियोंका भोजन, सोलह गुफाओं
और नो द्वारवाला है। यह कामसे जीत लिया जाता है, लोभोंसे ग्रहण किया जाता है, क्रोधसे तपता है, क्षमासे ठण्डा होता है, कर्मसे बंधता है, मोहसे मूछित होता है, सत्य से भिदता है, रोगसे क्षीण होता है, जरासे नष्ट होता है, काल खा जाता है।"
पत्ता-राजाने तब अपने पुत्रसे कहा-"अपनी परम्परामें तुम शान्ति स्थापित रखना। तुम राज्यश्रीका भोग करो, में अब निर्वाणको लिए जाऊँगा।" ॥१०॥
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१०
५
ܘܐ
२८
चचलयर कुसासणवस चरंति जरमरण किंकर किं करति पिम्मलगइ रायडु रह रहंति अंते अंते उरु जि हणइ भपास बंधु सुहियंधुणियत
फणिभ व भीत्रण भुजणिज्जु दुकियदेव देसु भणमि सीहासणु हास मेलमाशु किं छत्तर्हि छत्तायारभूमि चामक मरु देश ण मरणहारि पलियंकियसीसु ण सीसु हो पत्ता- एम पनिवि राणाणणं मेहहिं धाराजलवसिहि । चद्ध पट्टु महाबलहो अहिसिचिव सिह सिरिकलसहिं ॥१६॥
ॐ जयजयस चद्ध पट्टू मणिभूगु विणु परिहरेवि जो लिंदर सिंह चंदणेश जो थुइ जो षि दुव्चयणु देव मामंतमंतिभउसे वणिज्जु देवंगहि विविहिं परिहहिं कामिणिक्षणसिहरा लिंगणेहिं ती पुक्खर बजाइएहिं उच्छलियपय घडियारबालु भिल्लु महामणियमंति तिन सयम बहुरिद्विरिङ्
महापुराण
११
महुं वाइ कुवाइहिं अणुहरति । मायंग अंग किं मोक्खु देति । ए अवर वि जगि असुबह देवंति । रोवइ वश्च सहु ण रक्ख कुणइ | खणधंस गयरु गंधवणयरु | घर विग्वर केबल सपालु । कवि कवि वणिज्जु । खयरत व गणमि ।
[ २०.११. १
फिरख गच्छंतु प्रणु । पाविज्जइ विज्जउ जहिं ण कामि । पण समति केउ झस के उधारि । जो मुनिहिं मृदु सो कुगढ़ जाइ ।
१२
ส पुरु मे लिकिपरवइ पटु । धिवणिजणि वणि जिणदिक्ख लेबि । विसरे मइ मणेण । दोहिमि समाणु हुड परमजोइ । एतद्दिवितासु सु करइ रज्जु । ओहरणं मणिकंणघणेहिं ।
जाहिं वाहणेहिं । सरिगमपधणी सरगाइएहिं । भोयासत हुजा कालु । बीड संभिण्णम त्ति मंति । संबुद्ध चऊथउ जगपसिद्ध 1
धना - तेण णैराहि षिषित हुबहु तणेहि किं वा ॥ साये बहुसरिवपि विसयसुद्देहिं मि जीउ बरायड ||१२||
११. १. MBP बहुत । २. MB केवल दंसणासु । ३. P खज्जंतु । ४ MBP पाणु । ५. MBP सीसे । १२. १. MBPK आहरणहि । २. M पढमिल्ल । ३. MBP णराहि । ४. MBP कि वह । ५. P धादिङ । ६. M सामर । ७. MBP वाणिर्याह ।
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महापुराण
। २१.१३.१
जिह पामा फरसहफसणेण संभासणपियमुहदसणेण । तिह णिश्चै कामु सेविजमाणु वित्थरइ होइ अइअप्पमाणु । घडूढइ लोहेण महंतु लोह बहइ हंकारे तिव्य कोछ । बढइ यहीणु णिएवि माणु परवंचगंण मायापिहाणु। वडइ रह अँणुअंधेण मोह इय जीउ करेप्पिणु धम्मदोहु । महिणाहु होवि पुणु होइ साणु संसारि फवणु रायाहिमाणु । अपजा जा फंदप्पवाहि
संकप्प तप्पइ ताइ देहि । सा केण वि कत्था आणियाइ पसमिज्जा जाइ सुमाणियाइ ।
सा णारि सहावदुर्गध पडुल अण्णासत्ती धणगम्म कुडिल। . . घलासुसियुभनाइ यि दहा सा झत्ति पलित्ती ।।
अस्थि ण देहि गंविट्ठ मई तहि उपसमविहि परवस उत्ती ॥१३।।
फासरसवसंगय महि भेमेचि । गायंति के वि णभंति के वि वायति के वि वपणंति के वि। सीति के वि तुपणंति के वि धणज्जि पढ़ति लिहंति के वि । करिसणु करंति पहरणु धरंति चडयम्महि परहियवहति ॥ आबंतु विसिटु ण संसहति अग्हई गुणवंता सई कहति । कम्मेहि घणाई समज्जिऊण आणेधि णिहे लणि पुंजिऊँग । दिवसावसाणि समसंत होति णिव्याइयमुह माणव सुर्यति । अह उमग ड्डियणिणाय धावंति सइच्छइ वे वि बाय । णिदइ रीणत्तणु खयहु जाइ। खलु छिपण: छिपण रसु वि थाइ । आहारु मुत्तु परिणवइ अंगि पज्जलइ पित्तु यस संगि। जटुंति गोसि पुणु णीससंत कि रक्खहं घणु पणइणि भणंत । पत्ता--भयसपणावस थरहरिय लेंति केर कासु वि बलवंतहो ।
जीहामेहुणरसरसिय अंति जीव णरयहु सुदुरंतहो ॥१४।।
धणियरविहीणे किं कुलेश णि यणाइ विहीणे किं यलेण। वरस लिलबिहीणे किं सरेण सुकलत्तविहीण किं घरेण । सुवियविहीणे किं पुरेण परववणि किं ठरेण ।
चारितविमुक किं सुएण पिउपयपडिकूल कि सुपण । १३. १. P अहि । २. P णिचु । ३. MBP अणंतु । ४. ALBP तिब्यु 1 ५. MYK णियहाणु । ६. M'
बचणेण मणि मायठाण; B°चंचणेण मणि माइ ठागू । ७. MBP : अ बंधेण । ८. Bहा ।
९. M बिछ । १०. MB बुत्ती। १४. १. MB भमेमि । २. C पुज्जिऊण । ३. B पाय । ४. NB मभबइ । ५. MB1 सिभ ।
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२१. १५. ४]
हिन्दी अनुवाद
जिस प्रकार अंगुलियों के खुजलानेसे खुजली बढ़ती है, उसी प्रकार मनिके भाषण प्रियमुखदर्शन के द्वारा नित्यप्रति सेवित किया जानेवाला काम अत्यन्त प्रमाणहीन हो जाता है । लोभसे महान लोभ बढ़ता है, अहंकारसे तीव्र क्रोष बढ़ता है, नयहीन व्यक्तिको देखकर मान बढ़ता है, दूसरेसे प्रवंचना करनेपर मायाविधान बढ़ता है । अनुबन्धसे रति और मोह बढ़ता है, इस प्रकार जीव धर्मद्रोह करके राजा बनता है और फिर कुत्ता बनता है। संसारमें किसका राज्याभिमान रहा । जो कामको व्याधि उत्पन्न होती है उससे कम्पनके साथ शरीर सन्तप्त होता है । कहींसे भी लायी गयी सुमानिनी जायाकै द्वारा वह काम-व्याधि शान्त की जाती है। वह नारी स्वभावसे दुर्गन्धित और चटुल होती है, अन्यमें आसक्त धनगम्य और कुटिल होती है।
पत्ता-भूख शरीरमें लगती है जो शीन भड़ककर शरीरको जला देती है, मैंने यह अच्छी तरह देख लिया कि शान्त करनेको विधि शरीर में नहीं है, वह परवा है ॥१३॥
१४
स्पर्श इन्द्रियके रसके अधीन पृथ्वीमें घूमकर कुछ लोग गाते हैं, कुछ लोग नाचते हैं, कुछ बांचते हैं, कुछ वर्णन करते हैं, कोई सोते हैं, कोई धुनते हैं, कोई धनके लिए पढ़ते हैं और लिखते है। कोई खेती करते हैं, कोई अस्त्र धारण करते हैं और कोई चाटुकमसे दूसरे हृदयवा अपहरण करते हैं । माते हुए विशिष्ट व्यक्तिको सहन नहीं करते, अपने आपको गुणवान् कहते हैं । नाना कोस धनको अर्जित कर, लाकर अपने घरमें इवा कर, दिनके अंशमें श्रमसे थक जाते हैं, मुंह फाड़कर आदमी सो जाते हैं। बढ़ रहा है घुरधुर शब्द जिनमें, ऐसी दोनों हवाएं स्वेच्छासे नीचे और ऊपरके मार्गों से जाती रहती हैं, नींदसे उनको थकान दूर होती है, खल ( खली) तो चवित होते-होते रस बन जाता है, लेकिन खाया हुआ आहार शरीरमें परिणत होता है और इलेष्मके साथ पित्त बन जाता है। सवेरे उठकर पुनः निःश्वास लेते हैं, और अपनी परिनयोंसे कहते हैं कि धनको रक्षा किस प्रकार करें?
पत्ता-हरके कारण किसी भी बलवानकी आज्ञा थर-थर कांपते हुए स्वीकार करते है। इस प्रकार जिल्ला और मैथुनके रसका आस्वाद लेनेवाले जीव पापपूर्ण नरकमें जाते हैं ।।१४।।
धनरहित कुलसे क्या ? अपने स्वामीगे रहित सेनासे क्या ? श्रेष्ठ जलसे रहिन मरोवरसे क्या? सुकलनसे रहित घरसे क्या ? पगिद्धतसे विहीन नगरसे क्या, परस्त्रियोंके नखास क्षत उर.
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५
१०
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३२
किं चाएं मणसंताविरेश किं करिणा अणि कुसेण किं पुरिसे पसरिदुज्ज सेण
पंचिदिवसेण करण
किं
किं गुरुणा मोहंधारण किं दुशणमहरालाबिए
सच्चेण दादाणेण धम्मु तेणेत्थ कुणर णारयतिरिक्ख धम्मे होंति कप्पारिंद अहमंद ददाह जोह मणिमडसिहर सोहिल्लसोस पडवासुव कुसुमसर रुद्द रामम्मिताई
सोहरू कुल सीलु कंति जं दीस चंग गुणविसेसु
घता- - दुगु सबुद्ध पसण्णभइ खगवद रयहु अग्गढ़ भासइ ॥ धम्म एति सारु णित्र जे पक अपसमाणन दीसह ||२५|!
महापुराण
पहू साहिवजह सग्गापवग्गु अणाउयाई
किं मार्गे पियमुदीविरेण । किं हरिणा अवगण्णियकुसे | किं णरिण वियलियर सेण । किं ते पेम्मपरत्वसेण ।
कि परियणेण परवइरएण | किं सीसे अविणयगारपण । किं धर्म्मविहीन जीविण ।
भूय चयारि जहिं जाह मिलति गुलजल पिट्ठेहि मयन्ति जेम ण सरीरिसर भेउ अस्थि जम्मा उ ण बच्चइड अणुं जम्मू जो परहरु पुच्छिषि पर पासि
पत्ता - धवलीहूयएं सिरकमलु भोउ देव केत्तित भुजिज्जइ ॥ धम्मु जिणागमभासिय मणयकायतिसुद्धि किवज ॥१६॥
१६
अलिएण जीवसिद्द अहम् । कुच्छ सुर होंति तिसल्लतिक्ख । अरहंत चक्कि चारण मुणिंद । धम्मेण होंति जगि राम कण्ह् । मंडलियमहामंडल ईस । धम्मे होंति णाणादि । धम्मेण हवंति बुहत्तणाई । पोरिस जसु भुवलु विमल खति । तं धम्म र फलु असेसु ।
१७
ता दिसइ महामइ तहु कुमग्गु । महिमा वेसारख्याई । तह तह चेयणचिधई चलेति । भूपसु जो संभवद तेम । करु णुं दंतु कोकणु हत्थि | जणु जेण जियइ तं करइ फम्भु । गच्छ इंदिय बुद्धीपयासि ।
[ २१. १५.५
०
१५. १. MBP संताबरण २. MB दाविएण ३. B अविगणियं ४, MP मंत; B सत्तें । ५. P बहुकथवरण । ६. MP मोहें धारण । ७. MBP लावण । ८. MBP बम्मबिरहिएं । ९. MP जीवण । १० MBP परमहियत्तं मंविवरु खयरवइ रायडु |
१६ १. K अति । २. P सोहम् सील कुल रूख । २. MB रू । ४. MPK पोरिसु नमु ।
I
१७. १. MBP जलवा। २. M जीव । ३. MBP ऋण दंतु । ४. MB अण्णजभ्भु ।
ง
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२०. १७.८]
हिन्दी अनुवाद
३३
स्थलसे क्या ? चारित्रसे रहित शास्त्र से क्या ? पिताके चरणों के प्रतिकूल पुत्रसे क्या ? मनको सन्तान पहुँचानेवाले त्यागसे क्या ? प्रियको मुंह दिखानेवाले मानसे क्या ? अंकुशको नहीं माननेवाले गजसे क्या ? चाबुक को नहीं माननेवाले अश्वसे क्या ? जिसका अपयश फैल रहा है ऐसे मनुष्य से क्या ? रससे विगलित नृत्य से क्या ? पंचेन्द्रियोंके वशीभूत पुत्र से क्या ? प्रेमके परवश होनेवाले क्या ? दूसरे रमण करनेवाले परिजन से क्या ? मोहान्धकारवाले गुरुसे क्या ? अविनय करनेवाले शिष्यसे क्या ? मोठा आलाप करनेवाले दुर्जनसे क्या ? धर्मसे रहित जीवनसे क्या ?
धत्ता - प्रसन्नमति स्वयंबुद्धि विद्याधरराजसे आगे पुनः कहता है- "हे राजन, धर्मका इतना सार है कि पर अपने समान दिखाई दे जाये ? ॥ १५ ॥
१६
सत्य और दया दान धर्म है, झूठ जीव हिंसासे अधर्म है । उसीसे यहाँपर खोटे मनुष्य ( अधार्मिक मनुष्य ) नारकीय नियंच और तीन शल्योंसे पीड़ित खोटे देव होते हैं। धर्मसे कल्पवासी देव होते हैं, अरहंत चक्रवर्ती चारण और मुनीन्द्र होते हैं। धर्मसे विश्व में विशाल चन्द्रमाके समान कान्तिवाले अहमिन्द्र और राम कृष्ण होते हैं जिनके सिरपर मणिमय मुकुट शोभित हैं ऐसे माण्डलीक और महामण्डल पतियोंके स्वामी होते हैं । प्रतिवासुदेव कामदेव, रुद्र और नाना प्रकारके राजा धर्मसे होते हैं । धर्ममे सिद्धान्तवेत्ता, वाग्मी और वादी पण्डित पैदा होते हैं। सौभाग्य, रूप, कुल, शोल, कान्ति, पौरुष, यश, भुजबल, विमल शान्ति आदि जो-जो भला गुणविशेष दिखाई देता है, वह समस्त धर्मका अशेष फल है ।
बत्ता - हे देव, सिररूपी कमल सफेद हो गया है, कितना भोग भोगा जायेगा ? मन, वचन और काफी शुद्धिसे जिनशास्त्रों में भाषित धर्म किया जाये ||१६||
१७
,
है स्वामी, स्वर्ग और अपवर्गको सिद्ध करना चाहिए। तब महामति मन्त्री कुमागंकी शिक्षा देता है कि अनिधन - अनादि और अहेतुक पृथ्वी, पवन, अग्नि और जल ये चार महाभूत जहाँ जहाँ मिलते हैं, वहां वह चेतनाके चिह्न प्रकट होते हैं। गुण जल और मिट्टी में जिस प्रकार मदशक्ति उत्पन्न होती है उसी प्रकार इन भूतोंमें जीव उत्पन्न होते हैं । मात्मा और शरीर में भेद नहीं है । बताओ सूँड, कान या दौतमें कौन हाथी है ? जीव एक जन्मसे दूसरे में नहीं जाता। मनुष्य जिस कर्म से जीवित रहता है, वही करता है। जो दूसरेसे पूछकर अपनी इन्द्रियों और
२-६
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महापुराण
[२०, १७.२ विण तेहिं केम सो सग्गे जाइ पुविजन पत्थर किं पुण्णभाइ। जासुथरि मुबंइ मलु जीवलोउ परजम्मि नेण कहि कियत्र पाल | जलबुब्बुय जइ कम्मेण होति तो जीव वि राय म करहि भति । पत्ता-कहि किर सुछियदुक्कियई विणु भयरहिं जीष्ठ कहि दिन ।।
जो बाहिर पासडियहि सो हमण्णमि चोरहि गुज ॥१७||
१८
:
तं णिसुणिवि चविउं चउत्थरण मंसि हि एप गवियमत्थरण ! परिपालियसमाहिसावnr सुयवंत परिणासावपण | जणि मइरहि दीसइ दिपण' राउ। चरद्वपसूयहि एकु साउ। देहे भावेण बि भितणु लोउ किह पहइ तुहार भूथजोज । खरवडवारहरैसि वेसरासु संभवु णिदिट्ट कत्थर परासु । दुव्वेहि तेहिं तेहउ जि होइ. वचित्तु काई संजोयवाद । मोविज्जड पाणिएण
पाणिज सोसिजइ झत्ति तेण । घवलयत पवाणु थिर जड़ धरित्ति असरूवह कहिं मेलावजुत्ति । एमेये करिवि अप्पणिय उत्तिक जंपमि पउरदरिय वित्ति । विणु जीव कैहि भूयई मिलंति कायाकारेण ण परिणवति । जइ परिणति भासहि कुहेच तो काढयपिढरि सरीरु होस । घत्ता-पंचिंदियहि विधज्जियउ मणविरहिउ चिम्मेत्तु अयाण: ॥
जीउ जाइ.किह भणसि तुई समिा होइ किह सुरवरराणउ !।१८।।
१२
दीस पयत्थु जगि सहुं गुगेण पाहाणेण वि णिच्चेयण । कटिज्जइ आयसु कंडूहएण जिह तिह सो कम्मणिषंधणेग । जंपिड पई बहुपुज्जाहरेण किं किस सुकिज भवि पत्थरेण ।
उ रूसइ सो कणिमहेण जउ तूसइ भोयपरिग्गहेण । णिज्जीउ ण याणइ सोन्खु दुक्खु । जहिं जीउ तहिं जि तुहुं ताई पेक्षु । भो भूयवाइ भूएहिं मुत्तु तुहूं तुझ णस्थि जिणवयणमंतु । वइडिय पंडिय कब्बु कवहि अणिबद्ध असद्धलं काई चाहि । तहि अवसरि संभिपणे परत्तु उप्पज्जइ खणि खैणभंगचित्तु । ५. MB सगुः P सम्मि; K सम्ग but corrects it to सम्मु । ६. K मुबइ । ७. MIP भूएहि ।
८. MBP चोरें । १८. १. MB दिण राउ । २. M विभिणलोज; BP विहिष्णलोज । ३. MBP रसु । ४. MISP उपनि
करइ अण्णहु विणासु 1 ५. उल्लाविज्ञइ। ६. MB एमेविP एमेव । ७. MBP भूयई कहि ।
८. ABP परिणमंति । ९.MBP परिणयंति । १०. M चिमित्त ; चिम्मित्त । १९. १. B कढिएण; ' कट्टएण । २. MIP भवि सविकट । १. MRI तह तुझ । ४. MBP अपद ।
५. MIIP खणि भंगचित्त ।
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२०.१२.८]
हिन्चो अनुवाद बुद्धिके प्रकाशसे दूसरेके पास जाता है, बिना इनके ( इन्द्रियों और बुद्धिके प्रकाशके बिना ) स्वर्ग कैसे जाता है । पुण्यभावसे पत्थरकी पूजा क्यों की जाती है। जिसके ऊपर ( धरती या पत्थर) जीवलोक मलका रयाग करता है, दूसरे जन्म में उसने क्या पाप किया? जलके बुख़ुद पदि कर्मसे होते हैं, तो जीव भी कर्मसे होते हैं । हे राजन् , इसमें भ्रान्ति मत करो।
____घत्ता-पुण्य-पाप किसके ? बिना भूतों { पृथ्वी-जलादि ) के जीव कहाँ दिखाई दिया ? पाखण्डियोंके द्वारा जो बहकाया जाता है, मैं समझता हूँ वह चोरोंके द्वारा ठगा गया ? ॥१७॥
यह सुनकर मन्त्रियोंमें चौथे स्त्रबुद्धिने जो शान्ति और अहिंसा धर्मका पालन करता है, शास्त्रज्ञ है और गपका-सावक है जाला मस्सा मार करने कहा, "चार द्रव्योंसे उत्पन्न मदिरासे लोगोंमें एक ही स्वाद और मद दिखाई देता है, लेकिन लोक, देह और भावसे भिन्न हैं ( जबकि भूतचतुष्टयसे उत्सन्न होनेके कारण उसे एक होना चाहिए ) तुम्हारा भूतयोग किस प्रकार निर्मित होता है ? उन बन्योंसे वह वैसा ही होगा। हे संयोगवादी, यह विचित्रता कैसी ? आग पानीसे शान्त होती है, और पानी शीघ्र उसके द्वारा (आग ) सोख लिया जाता है। पवन चंचल है, धरती स्थिर और जड़ है, इस प्रकार एक दूसरेसे भिन्न स्वरूपवालोंकी मिलाप युक्ति कहा ? बिना जीव (चेतना) के जीव कहाँ मिलते हैं; वे शरीरके आकारके रूपमें परिणत नहीं हो सकते । यदि परिणत होते हैं, तो तुम कुकारण कहते हो, और तब काढ़ेके पिण्ड में शरीर उत्पन्न होना चाहिए।
पत्ता-पांच इन्द्रियोंसे विवर्जित मनसे रहित, चैतन्यमात्र अज्ञानी जीक किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है, और किस प्रकार स्वर्गमें सुरवरोंका इन्द्र होता है ? तुम्हीं बताओ ? ॥१८॥
१९
___ जगमें पदार्थ गुणके साथ दिखाई देता है, जिस प्रकार निश्चेतन चुम्बक पत्थरके घर्षणसे आग प्रकट होती है, उसी प्रकार कर्मों के बन्धसे जीव पैदा होता है । तुमने जो कहा कि बहपूजाको धारण करनेवाले पत्थरसे क्या दुनियामें पुण्य किया जाता है ? निग्रह करनेवालेसे वह क्रोध नहीं करता है, और न भोगोंका परिग्रह करनेवाले से सन्तुष्ट होता है। निर्जीव वह न तो सुख जानता है और न दुःख । जहाँ जीव हैं, वहीं हूँ उनके द्वारा ( सुख-दुःखके द्वारा ) देखा जाता है । हे भूतवादी, तूं भूतों के द्वारा मुक्त है, तूं जिनवरके वचनोंका रहस्य नहीं जानता। हे वितण्डावादो पण्डित, दुनी काव्य मी करते हो, अनिबद्ध और असंगत कथन क्यों करते हो ?" उस अवसरपर सम्भिावाने पहा-"जोब जिस क्षणमें उत्पन्न होता है, वह क्षण विनश्वर है।
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१०
१०
३६
महापुराण
परिया
सुरु वि वासणाइ | पड अप्पर पाठ गिव पासबंधु ।
इसियच्छियरमिययासणाइ जो दीस सो खट्टि बंधु
घत्ता-ता रिसिसमयहु भत्तएण उत्तम दिष्णु तेण वर्णवाइहिं ॥ रणस्थि जग तगजलरसु जि दुधु धर्बु गाइहिं " ॥ १९ ॥
[२०.१९.९
नं पथि वप्प तं कुम्मरोभु भणु को खणु वि थाइ
तं
को जाणइ जिणवरु मुवि सच्चु ज छिण्णउं मणु मणभाव चेह जर दवई तुह स्वणभंगुराई साध बाहिरिय दिठ्ठ ता सयम वष मईत्रिसालु जिह एयह केरी सब माय गुरुसी वा एक्ला
२०
तं डिंभु तं गयणपोमु । अस्थिन् किं पुणु खयहु जाइ । वजिचि अरुचि परिणामि तच्चु । तो अण्ण थत्रिय अण्णु ले | तो खणधंसिणि वासण ण काई । अजुहवु खणिलं कि भेणितं वि । माविश्य सिषिणय इंद्रजालु । दीसंतु वि तिह जगु णत्थि राय । सदेहु ।
जिह सोणरि विह रु उहेयभट्ट अलियाई जि णिसुणिवि मुयइ घी आयसु पढेसर भणिवि तसइ इसिपायपणाम विणीयपण जत्थि किंपि कारणु ण कज्जु जड होइ असंत अत्थकारि fruits तेहियरिंद
धत्ता
- जंबुर्डे मासखंड मुवि धायउ सलिलुग्गयपाढोणहो || आमिसु गिद्धं हि यत्र मीणु निमज्जिवि गर नियंठाहो ||२०||
२१
परलो लग्गिवि कोण गहू 1 णियतणु दंड कि गयी । टिट्टि उत्ताणियचर वसइ । ता गुरुणा भणिलं तुरीयण । तो कि बीहि जब पडद वज्जु । तो आहि सिविणंतर मयारि । किं चवहि असच्च विद । उस तु पण हा त् होइ पडिवत्ति केन्थु । सुपि राय जिष्णा महासियाई सुम्भेति ण जडयणभासियाई । धत्ता - आसि तुहार बंसि हुड पहु अरबिंदु णाम विक्खाय ॥ पढपुत्तु हरिचंदु तो पुणु कुरुविंदु इंदुसमु" जाय ||२२|| ६. MB खणबद्ध; P खणि बंद्धि । ७. MBP लेग दिष्णु ८ MB १०. MBP घु । ११. MB गइहो ।
स्वणवा हो । ९ 13 त्रत्थि ।
४. MBP जंबू । ५. MUP
२०. १. MBP भणसि । २ MBP माइष्ट्रिय | ३. P गुरुतीसघम्भु । सलिल । ६. MB गियाणहो ।
२१. MBP उभयं । २. K घोष but corrers i to ची and gloss वस्त्रं । ३. K दिहि । ४. MB सिविणंतर' । ५. MAMB णिण्णासिय । ६. MBP विसर । ७. MBIK'गमदूसियाई । ८. K अरिबिंदु । ९. MBP पढनु पुत्तु । १०. M इंदुसम; ॥ इंद्रसभू ।
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२०. २१. ११]
हिन्वी अनुवाद हेसना, माका करना, माणा मरना, भरेखड़ा करना आदिको संस्कारसे बहुत समय तक जाना जाता है। जो दिखाई देता है वह क्षणवर्ती स्कन्ध है। हे राजन्, न तो आत्मा है और न पायबन्ध कर्म है।"
पत्ता--तब मुनि सिद्धान्त के उस भक्कने क्षणवादियोंको उत्तर दिया । संसारमें बिना अन्यय ( परम्परा) की कोई वस्तु नहीं है । गायोंके शरीरका जलरस ही दूध बनता है ॥१९॥
यदि बेचारी वस्तु नहीं है, तो कछुके रोम, बन्ध्याका पुत्र और वह आकाशकुसुम भी हो. यदि वे नहीं होते तो बताओ एक क्षणके लिए कौन स्थित होता है और जो अस्तित्वयक्त है वह पुनः क्षयको प्राप्त क्यों होता है। जिनवरको छोड़ सत्यको कौन जानता है? जीवादिको छोड़कर तत्त्व परिणामी होता है। यदि कटा हुआ मन मन के भागको जान लेता है, तो अन्यके द्वारा स्थापित मनको अन्य ले लेगा। यदि तुम्हारे सब द्रव्य क्षणभंगुर हैं तो फिर वासना क्षणमें नाश होनेवाली क्यों नहीं है ? क्या वह स्कन्धों ( रूप विज्ञान वेदना संज्ञा और संस्कार ) से वासना बाहर है तो हे धृतं ! तुमने अननुभूतको क्षणिक क्यों कहा । तब विशाल बुद्धिवाला स्वमति कहता है-"मृगतृष्णा, स्वप्न और इन्द्रजाल जिस प्रकार होते हैं, उसी प्रकार यह सब इसकी माया है। अतः हे राजन् ! दिखाई देता भी विश्व वास्तवमें नहीं है। गुरु-शिष्य और धर्म तथा यह व्यवहार वास्तव में नहीं है और न स्वदेह है।
पत्ता-सियार मांसखण्ड छोड़कर जलमें उछलती हुई मछलोके ऊपर दौड़ा। मांसको गोष आकाशमें ले गया और मछली डूबकर अपने स्थानको चली गयी । २०||
जिस प्रकार सियार उसी प्रकार मनुष्य भी दो प्रकारसे भ्रष्ट होता है। परलोकके लिए लगकर कौन नष्ट नहीं होता। झूठी बातें सुनकर ( मनुष्य) धैर्य छोड़ देता है और इस प्रकार नरक भोग अपने शरीरको दण्डित करता है। आकाश गिर पड़ेगा, यह सोचकर त्रस्त होना है। 'टिट्रिम अपने पैर ऊंचे करके रहता है। तब मुनिके चरणों में प्रणामसे विनीत चौथे मन्त्री ने कहा, "यदि कोई कारण और कार्य नहीं है, तो जब वज गिरता है, तो हरते क्यों हो? यदि चाज नहीं है, वह अर्थकारी हो सकती है तो स्वप्न के भीतर सिंहको ले आओ? उससे अहितरूपी गजराजको नष्ट कर दो, हे विद्वानों में श्रेष्ठ, तुम असत्य क्यों कहते हो ? न शब्द है, न तुम हो, न में है और न वस्तु । तो बताओ इष्टप्रवृत्ति कैसे होती है। जिनागम में कही गयी बात सुनो, जजनों के द्वारा भाषित नहीं सुनना चाहिए ।
पत्ता-तुम्हारे वंशमें अरविन्द नामका विख्यात राजा हुआ है। उसका पहला पुत्र हरिश्चन्द्र था, और दूसरा इन्द्र के समान कुरुविन्द हुआ ॥२१॥
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३८
महापुराण
[२०. २२.१
२२
तहि णयरिहि सुहिकल्लाणकारि रिघरिणिहारकरवलयहारि । गयगंधहत्थि भडकालय पडिकूलपिसुणसिरसूलभूय: ते तिणि वि सुहं अच्छति जाम लग्गउ डाह नजर पिउहि ताम । णिहाइ हारु मलयकहपंकु । धगधगइ पलयसूरु व ससंकु । जलेजलिउ जालजलगु व जलद आवइकालइ आवई ण णिद्द । उवसमण केम वि अंगडाहु थिउ कायरमुहूं वरखयरणाहु । वहिं अवसरि पंकयवत्तणेत्त पिउणा कोकाविउ पढमपुत्तु । सो भणिउ तेण हयरवियराई जहि घणई वणई वेजीहराई। जहि सुरहिउ कपिउ देवदारु सीयलु संचारियं हिमतुसारु । जहिं वाइ वाउ णीचइ सरीर तंणेवावहि सीओयतीरु । आइसहि सविज्जादेवयाउ । मई णतु तुरिउ मारुयरयाउ। ता तेण भणिवि पेसणपसाउ आयाहिज खगदेयी णिहाव । धत्ता-सुपण सविज्जउ पेसियउ ताउ तासु जोयंति ण संमुहूं ॥
मंतु देउ ओसहु सयणु पुषिण परंमुहि होइ परंमुहूं ।।२२।।
पाविट्ठहु कह व ण जाइ प्राणु आढत्तउ तेण रउर्दु झाणु। लोएहि भणिज्जइ देव जीय संपयसुहि सुहियई सेवीय । कंदइ करेहि ताडंतु तो? दुहिदेसएँण संणिहु गरिंदु। जुझतह कपिउ कायदंदु पल्लीदेहंतहु रुहिरबिंदु । णि डिउ आसालित सो रविंदु । सीयलु वणरुहलवू छर्णिदु । तं पेच्छिवि हरियंदाणुयासु आरसु दिण्णु ताएं सुयासु। , जइ रत्तदहि जलफील करमि तो पुत्त णिरुत्तउ ण' मरमि । किंकरकरसिरघडयाणिपण ससमेसमहिसमृगसोणिएण। खणि खोल्ल खणेपिणु भरहि तेम सुविहाण इह तहिं पहामि जेम । पत्ता-णिसुणिवि हिंसावयण विहि गउ कुरुविंदु पिउहि मउलिवि कर ।।
कारिमकोलाला भरिये विरइय वावि विहाणइ दुत्तर ॥२३॥
तूसे प्पिणु तेत्थु पइदा राउ पहतेण तेण बुझिय उ सार ।
ण : लोहिडं लक्खारसु णिरुत्तु मायारच णिहणमि एह पुत्तु । २२. १. MBPK णिहद । २. MRP जलजलइ जलिउ जल] 1 ३, 115 पत्त° 1 ४. MHP पदम पुत्तु ।
५. P वल्लीहराई । ६. MRP संचारिउ 1 ७. MSP मुविज । २३. १. MRP पाणु । २. MBF तुंडु; T तोडु उदरम्; K तोंदु, but records तोंडु in second _hand 1 ३. M reals this first ar lai ४. १ देसिएहि । ५. M reads this foot as 36।
६. MBP हिययत्यिउ मासासित परिंदु । 9. NIBP ल3 । ८. MRP रसइहि । ९. MBणेय । १०, MBP मिग । ११. GK भरिय बादि ।
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हाथी मार
२२
गृहिणियों के हार और करवलयोंका अपहरण करनेवाली तथा शुभकल्याण करनेवाली गन्ध हाथियोंसे रहित उस नमरीमें, योद्धाओं के लिए कालदूत, प्रतिकूल शत्रुओं के सिरके लिए शूल के समान वे दोनों साथ रहते थे। इतने में पिता के लिए दाहज्वर उत्पन्न हो गया। हार और चन्दनका लेप उसे जलाता । चन्द्रमा उसे प्रलयसूर्यके समान धकबक करता है। गोला वस्त्र अग्निज्वालाकी तरह जलाता है। आपत्तिके समय नींद नहीं भाती । उसका अंगदाह किसी भी प्रकार शान्त नहीं होता। वह श्रेष्ठ विद्याधर राजा अपना मुँह कायर करके रह गया। उस अवसर पर पित्ताने कमलके समान मुखनेवाले आपने पहले पुत्रको बुलाया । उसने उससे कहा"जहाँ सूर्यको किरणोंको आहत करनेवाले सघन वन और लताघर हों, जहाँ सुगन्धित काँपता हुआ देवदारु हो, और जहाँ शीतल हिम तुषार चल रहा हो, और जहाँ हवा बहती हो और शरीरको शान्ति देती हो, ऐसे शीतल जलके तटपर मुझे ले चलो। पचन वेगवाली अपनी विद्याको आदेश दो कि वह मुझे तुरन्त ले जाये ।" तब उसने 'जो आज्ञा' कहकर विद्याधर देवी समूहको पुकारा ।
२०. २४३] ...
पत्ता -- पुत्रने अपनी विद्याएँ भेज दीं। लेकिन वे उसके सम्मुख नहीं देखतीं । मन्त्र, देव, औषध, स्वजन पुण्यके पराङ्मुख होनेपर पराङ्मुख हो जाते हैं ||२२||
२३
पापीके किसी प्रकार प्राण-भर नहीं जाते। उसने रोई ध्यान प्रारम्भ कर दिया कि सम्पति सुखमें लोगोंके द्वारा कहा जाता है कि सुधीजनोंके द्वारा सेवनीय हे देव तुम जिओ । अपने हाथों से पेटको पीटता हुआ, दुःखकथनके साथ राजा चिल्लाता है । लढ़ती हुई दोनों छिपकलियों के शरीर कट गये, उनके शरीरके मध्यसे रक्तको बूंद गिरी, उससे अरविन्द आश्वस्त हुआ । रक्तकण ऐसा शीतल लगा जेसे पूर्णचन्द्र हो । यह देखकर, "उसने अपने पुत्र हरिश्चन्द्रको आदेश दिया कि "यदि मैं रक्त सरोवरमें जलक्रीड़ा करता हूँ तो हे पुत्र ! मैं निश्चित रूपसे नहीं मारता हूँ । अनुचरोंके हाथों और सिररूपी घटकोंके द्वारा लाये गये खरगोश, मेंढा, महिष और हरिणोके खून से गड्ढा खोदकर इस प्रकार भर दो कि जिससे में फल उसमें स्नान कर सकूँ ।"
धत्ता - हिंसा वचन और विधि सुनकर कुरुविन्द पिताको हाथ जोड़कर चला गया । सवेरे उसने बावड़ी बनवायी और कृत्रिम रक्तसे भर दी ||२३|!
२४
सन्तुष्ट होकर राजा उसमें घुसा। स्नान करते हुए उसने स्वाद जान लिया कि रक्त नहीं निश्चित रूप से लाक्षारस है। मायावी इस पुत्र में गारता हूँ। उसके
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Xo
[२१.२४.३
महापुराण मणि पसरिल तहु दुकम्मरेणु आयड्डिय भीसणु खग्गधेणु । अइबुद्धिवंतु परचित्तजाणु दिट्ठल कुविदुः पलायमान । णं करिहि विरुद्ध जरफरेणु पारवइ तहु पच्छइ धावमाणु । पक्वलिवि पडिउ गिरिरायतुंग पियकरछुरियाणियट्टियंगु । मुउ गउ गरगहु सुहिसोयभगि हाहारउ टि बंधुग्गि | अवरु विणिमुणहि तुह वंसकेउ स्वेण णाई सई मयरके उ । चिरु होतउ गरवा दंडधारि दइड गामें दंडियणियारि । तह तण 3 तणा पजियदेवालि माणिमालि सउलगयणंसुमालि ।
"देव दाह कालण एन्धु धणरासिहि उप्परि देतु इत्थु । पत्ता-पुत्तु कलत्तु चित्ति धरिवि पुंजियविविह्दव्यपउभारइ ।।
अट्टहाणे पिड मरियि अजेयक हुयड णिययभंडारइ ॥२४|
१०
२५ माणुमु दाढहिं दंतहि दलई जं घरि पइसह तं तं गिलई। ससिमणि जलक यसिहागणवणि पुणु रैयणमालि पसंतु भवणि । संभरियपुःवजम्मतरेण
ओलखित पियसिसु पिसहरेण । मभीसित भोयोहोयणेण ता चिंतित्र खगषइजायपण । महु एड को वि चिरञ्जम्मबंधु णं तो कि ण'उ भक्खा मयंधु । पुणु गपि तेण पुच्छिउ मुगिंदु भासिया तेण दंइयरिंदु । हूयउ असमाहिइ मरिवि सप्पु किंण वियाणहि अप्पणउ बप्पु । तं मुणिवि तेण णिवणंदणेण पिडणेकरुणपिर्यमणेण । पडिआवेपिणु घरु खचियकम्मु जिणणाहहु केर कहिज धम्मु । नझिवि फणिणा संणासु फयउ मुड जायउ सुरु उरयत्तु गयउ । देवेण तण जाणियभवेग
कय गुरुपुज्जा सुमहुच्छवेण । आविवि मणिमालिहि विष्णुहार जाणइ पुरु देसु कषियाह । इहु अज्ज वि अच्छइ तुझ कठि ताराणियरु घेणं मेरकंठि। पत्ता-तं णिसुणेवि महाबळेण भरहमोतियावलि जोएप्पिणु ।।
हयतमु पुप्फदंतसरिसु आलिंगियर मंति धिहसे प्पिणु ||२५|| इस महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाकापुरतविरहए महामवमरहाणुमविणए महाकम्ने विज्ञापंसियडाविहंदणं णाम बीसमो परिकेमो समत्तो ।। ३.॥
संधि ।। १०॥
२४. १. MLP तुई गिमुणहि । २. " णामेण जि दंडियारि। ३. MBP "दुयालि । ४. MBP ता ।
५. MP अजगर 1 २५. १. MPP दलेइ । २. MP fगलेई । ३. MB] रयणिमालि । ४. MBP में भौसिउ । ५. MB
भोयाभीयणेण, PT भोयाभोयाण । ५. चिरधम्मबंधु । ७. MRP करण । ८. M°कप्पियं । ९. T नयागारु वृत्तावतारः । १०, AMRI' व मेहवकठि । ११. M.BP पुष्फयंत ।
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२०. २५. १५]
हिन्दी अनुवाद मनमें पापकी धूल प्रवेश कर गयी। उसने अपनी भोषण छुरी निकाल ली, मानो गजके प्रति बूदा गण विश्व हो उठा हो ! उसके पीछे दौड़ता हुआ, गिरिराजकी तरह ऊंचा वह राजा फिसल कर गिर पड़ा, और अपने ही हायकी छुरीसे अंग कट जानेके कारण मरकर नरक गया। सुधोके शोकसे भग्न बन्धुवर्गमें हाहाकार मच गया । और भी तुम अपने वंशके चिल्लको सुनो। जो मानो रूपमें स्वयं कामदेव था, ऐसा बहुत पहले दण्डक नामका शत्रुओंको दण्डित करनेवाला, दण्ड धारण करनेवाला राजा था। उसका अन्यायसे रहित पुत्र ममिमाली अपने कुलरूपी आकाशका सूर्य था। हे देव, वह लम्बे समय तक धनराशिके ऊपर अपना हाथ फेरता हुआ
धत्ता-पुत्र और स्त्रीको अपने मनमें धारण कर और आतं ध्यानसे मरकर जिसमें विविध द्रव्य मार एकत्रित है एसे अपने भण्डार भरकर जमेर मा ।।४
૨૫ वह अपनी दाढ़ों और दांतोंसे दलन करता, जो घरमें प्रवेश करता उसे डसता । जिसमें चन्द्रकान्तमणिके जलसे रचित शिखरोंके अग्रभागसे स्नान किया जाता है, ऐसे भवन में प्रवेश करते हुए अपने पुत्र मणिमालिको, अपने पूर्वजन्मका स्मरण करनेवाले विषधरने देख लिया। उसने अपने फन गिराफर उसे अभयदान दिया। तब विद्याधर राजाके पुत्र मणिमालिने सोचा कि यह मेरा कोई 'पूर्वजन्मका सम्बन्धो है, नहीं तो मदान्ध यह मुझे क्यों नहीं काटता। फिर उसने जाकर मुनिसे पूछा । उन्होंने कहा, "राजा दण्डक असमाधिसे मरकर सांप हुआ है। क्या तुम अपने पिताको नहीं जानते ?" यह सुन प्रियके स्नेह और करुणासे कम्पिन मन राजपुत्रने अपने घर आकर, कर्मोका नाश करनेवाला, जिननाथका धर्म उससे कहा । उसे समझकर सौपने संन्याम ले लिया। मरकर वह स्वर्ग गपा, और उसका सपत्व चला गया। जिसने अपना पूर्वजन्म जान लिया है ऐसे उस देवने उत्सवके साथ गुरुपुजा की 1 आकर मणिमालाका हार दिया। नगर और देशने कथावतार जान लिया । वह हार आज भो तुम्हारे गले में है, मानो मेरुपर्वतके गले में तारा. समूह हो ।
घत्ता-यह सुनकर महाबलने पुष्पदन्तके समान अन्धकारको दूर करनेवाले कान्तिपय हारको देखकर हंसते हुए मन्त्रीका आलिंगन कर लिया ॥२५॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणालकासे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामध्य मस्त ड्वारा अनुमत महाकाम्बका वितण्डा पण्डिन
पुद्धि विग्वगडन नामका बीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ।
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संधि २१
खुइंचहु पारइ पड़तहो बहुमणियभवतहहलहो । सईबुद्धे णाणविसुद्धे दिण्णउ हत्थु महाबलहो । ध्रुवकं ॥
पुगु तेण पजैपिउं सुइमहुरु भवसयसंघियमलमारहरु । तुइनायपियामहु कुलधवलु णामेण पसिद्धउ सहसयलु । उप्पाइवि केवेलु णाण गणि गड मोक्वणिवासहु परममणि | तुह तायताउ सयबलु णिवरु परिपालिषि सावयवयपैयरु । माहिदसग्गि यत्र अमर सत्तंबुहिआउपमाणधर। गत मेकाहि तझ्या भाषियाउ तुहूं मई सहुं ते बोल्लावियउ। अइबलु तुइ पिउ मयवंतु सि गत वणवासह होएवि रिसि। गयविणयालाई णवजोयणहं सिरि अप्पिपिणियणियणंदणेई । तुह एम पियामहपिर्यपहा सुम्मति देव साहियसुगइ। रुहट्टशाणारूढदुइ
संपत्ता णरयतिरिक्खगइ। पत्ता-हयकम्में जिणवरधम्में वरि उवरि रंकु वि चडइ ||
कयगाः पथिव पार्वे हेट्टामुहूं राउ वि पडइ ।।१।।
तं सुणिवि पबुद्धत भन्क्यणु संकाऊंखाहि विवज्जियउ। अण्णहिं. दिणि उजुगणमेहलहो
अइबलैसुर हुए उवसंतमणु ।। गुरु तेण सुबण्णहिं पुज्जियउ | खलखलखलंतणिज्झरजलहो ।
MBP givi, at the commencement of this Saindhi, the follnwing Stanza -
यस्य जनप्रसिद्धमत्सरभरमनवमपास्य चामणि प्रतिहतपक्षपातपानचौरसि सदा विराजते । वसति सरस्वती च सानन्दमनाविलवदनपङ्कजे
राजति जयतु जगति भरतेश्वरमयममलमङ्गलः ।। MP read विराजयते for विराजते; मलाणिल' for मनाविलं; सञ्जयति जयतु for राजति जयतु; M reads "श्वरसुखममलमल'; P reads वरजयमयममल for "श्वरमयममल । GK
do not give it, १. १. MBP पयं पिउ। २. MBP केवलणाणु गुणि । ३. MRP पध: । ४. P°जोवणाहं । ५.
"पंदणाई। ६. MBP°पिउँ । २. १. MB णिसुणिवि । २. MY अइबल सुउ ।
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सन्धि
२१
संसाररूपी वृक्षके फलको सब कुछ माननेवाले राजा अरविन्दके रक्तकुण्ड में डूबने और नरकमें जानेपर स्वयंबुद्धिने महाबलके लिए अपना सहारा दिया।
फिर उसने कानोंको मधुर लगनेवाली यह बात कही कि सैकड़ों जन्मोंके मलभारको दूर करनेवाले कुलश्रेष्ठ तुम्हारे पिताके पितामह सहस्रबल नामसे प्रसिद्ध थे। वह परम गुणी मुनि बनकर तथा केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षको प्राप्त हुए । तुम्हारे पिताके पिता नृपश्रेष्ठ शतबल श्रावकवत-समूह धारण कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुए। उनकी आयु सात सागर प्रमाण है। उस समय हम लोग सुमेरु पर्वतपर गये। वहां उन्होंने मेरे साथ तुमसे कहा-भयभीत तुम्हारा जितेन्द्रिय पिता, मनि होकर वनवासके लिए चला गया। हे देव, इस प्रकार न्याय और विनयके घर नवयौवनसे युक्त, अपने-अपने पुत्रोंको लक्ष्मी सौंपकर, तुम्हारे पितामह पिता प्रभृति लोग मोक्षको सिद्ध करनेवाले सुने जाते हैं। ( लेकिन तुम्हारे पिता ) रोद-आर्द्रध्यानसे आरूढ़ बाभाके कारण नरक और तिर्यचगतिको प्राप्त हुए।
पत्ता-कर्मोको आहत करनेवाले जिनवरके धर्मसे रंक भी ऊपर-ऊपर जाता है। हे नप, जब कि गवं करनेवाले पापसे राजा नरफमें ( अधोमुख ) गिरता है ||१||
यह सुनकर वह भग्यजन प्रबुद्ध हो गया, अतिबलका पुत्र उपशान्त मन हो गया। तब शंकाओं और आकांक्षाओंसे रहित गुरुको उसने अच्छे शब्दोंमें पूजा की। एक दूसरे दिन, वह नक्षत्राण जिसकी मेखला है, जिसमें खलखल करता हुआ निझरोंका जल बह रहा है, जो
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४४
॥ २१. २. ४
महापुराण कंधणधूलीरयपिंगलहो
करिदनविहिणसिलायलहो। मणियरकबुरियणाईतरहो निहरुचाइयसयमधरहो। आसीणसुरासुरसुंदरहो
गड बंदणहत्तिइ मंदरहो। सिरिमहासालसुणंदणई
सःमणमसरमपंडुयवणई। कृत्रिमणिकाशिनियोजाई हालिया धुमलचामरई । किणरपारद्धयोत्तसयई
विखंसियमाणभवभय इं। अकयाई विलंबियतोरणई पर्यसिवि जिणबियणिहेलणई । मंद्रिय सीहासँणवेइयउ परिचवि अंचिवि चेयउ । धत्ता-गरविणा खगवइगुरुणा करु जिउ सेसास बदलहो ।।
नमणियहिं महुयरझुणियहिं भणइ व तर दुकियजलहो ।।२।।
ता तहिं ओलंबियमुयजुयलु संपत्तउ चारणमुणिजुगलु। मलु जासु सीरि ण झाणि मलु उ परतावणि बलु मुवि बलु । जसु भमइ जासु णउ भमइ मणु णहु भज्जइ कहिं मि ण सीलगुणु । धकत्तणु भउहइ आयरिउ
णउ जासु मन कि पि वि घरिन । रसु परमागसि 3 कामरसु बसु जण समिच्छाई धम्मवसु । सिरि केसजडत्तणु जासुगय
णउ सीस वियाणियसत्तणय । दुम्मा मय अट्ट वि जासु मय कय पंचिंदियहृ जेण दय । तं रिसिजुयलुबाउ बंदियन सइंयुद्ध अप्पर णिदियउ।। हार्ड अॅन्जि वि एम ण करमि तप केत्तिउ किर पोसाम असुइव। पत्ता--मिरिगेहइ पुध्वविदेह वेसु महाकच्छत वसा ।।
संणयरहु सुरगिरिसिहरहु आयत्र तं तहु दिहि दिसइ ।।३।।
ते अरुहजुयंधरतिस्थसरे
पहायउ ण वडइ संसारजरे। तहिं एक साहु आइश्वगइ अण्णेच अरिजउ सुद्धमइ। ते पुच्छिय बुद्ध वे विजण तुम्हई तिणाणपाणीयघेण । महु सामि महाबलु संभरह किं भावु अभन्दु ष बजरह । जाणियतसथावरजीवगइ तं णिसुणिवि जपइ जे? जइ। इह जंबुदीधि दाहिणभरहे अमाइ जुयाइपारंभवहे। ३. BP वंणमतिइ। ४, P°भई। ५. MBF भवसयई। ६. MBP पइसिवि । ७. Mil सिहासण । ८ MBPKT तक 1 ३. १. Pमई and gloss मतौ । २.M.BP जो। ३. BPण जी जीवक्ष्य । ४. MIP अज । ४, १. MBP"जुयंपरि । २. MBP संसारदरे । ३. MBP जणा | ४. MBP घणा । ५. M जेट्छु
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हिन्दी अनुवाद स्वर्णधूलि रससे पीला है, जिसकी चट्टाने गजदन्तोसे विदीर्ण हैं, जिसका आकाश मणियोंकी किरणोंसे चितकबरा हो गया है, जिसके शिखरोंको इन्द्र-विमानोंने उठा रखा है, जो आसीन देवों और असुरोंसे सुन्दर है, ऐसे सुमेरु पर्वतकी वन्दना-भक्तिके लिए गया। जिनमें श्रीमद्रसाल नन्दनवन हैं तथा सौमनस सरस पाण्डुकवन हैं, जिनमें नागराजको कामिनियोंके नूपुरोंका स्वर हो रहा है, जिनमें चन्द्रमाके समान उज्वल चमर बोरे जा रहे हैं, किन्नरोंके द्वारा सैकड़ों स्तोत्र प्रारम्भ किये जा रहे हैं, जो मनुष्योंके जन्म-जन्मातरोंको नष्ट करनेवाले हैं, जो अकृत्रिम है, जिनमें तोरण लटके हुए हैं, ऐसे जिनप्रतिमाओंके मन्दिरों में प्रवेश कर, उसने सिंहासनों और वेदियोंको अलंकृत किया तथा चैत्य ( प्रतिमा) की परिक्रमा और पूजा की।
पत्ता-नरश्रेष्ठ, विद्याधर राजाओंके गुरुने निर्माल्यका कमल अपने हाथमें ले लिया, जो मानो सुन्दर मधुकरको ध्वनियोंसे कह रहा था कि पापरूपी जलसे तर ॥२॥
उस अवसरपर अपने दोनों हाथ उठाये हुए धारणयुगल मनि वहां आये। उनके शरीरपर मल था, परन्तु उनके ध्यान में मल नहीं था। दूसरोंको सतानेके लिए उनके पास बल नहीं था, उनके सुतपर्मे बल था। जिनका यश भ्रमण करता था, जिनका मन भ्रमण नहीं करता था। आकाश भग्न होता था, उनका शीलगुण नष्ट नहीं होता था। उनको भौंहों में टेढ़ापन दिखाई देता था, उनको मतिमें कहीं भी वक्रता नहीं थी। उन्हें परमागममें रस बाता था, उनमें कामरस नहीं था। वह धर्मके वशीभूत थे, वह धन नहीं चाहते थे। जिनके सिरमें बालोंको जड़ता जा चुकी थी, परन्तु सात नयों को जाननेवाला उनका मस्तिष्क जड़ताको प्राप्त नहीं हुआ था। जिनके आठों दुर्मद नष्ट हो चुके थे, परन्तु उन्होंने पाँच इन्द्रियोंपर कभी दया नहीं की। ऐसे उन दोनों चारण मुनियोंकी उसने बन्दना की। स्वयंबुद्धि अपनी निन्दा करने लगा-मैं आज भी इस प्रकार तप नहीं कर रहा हूँ। मैं अपवित्रताका कितना पोषण कर रहा हूँ।
पत्ता- लक्ष्मीके पर पूर्वविदेहमें महाकच्छप नामका देश है। सुमेरु पर्वतके समान शिखरवाले उस नगरसे आया हुआ वह चारणयुगल मुनि उसे समझाता है |शा
जो सुगन्धर अर्हन्तके तीर्थरूपी सरोवरमें स्नान कर लेता है, वह संसारको ज्वालामें नहीं पड़ता। उस युगल में एक मुनिका नाम आदित्यगति था और दूसरेका शुद्धमति मरिंजय । स्वयंबुद्धिने उन दोनोंसे पूछा कि आप लोग तीन ज्ञानरूपी जलोंके मेघ है, मेरे स्वामी महाबलके बारेमें बताइए कि वह भव्य है या अभव्य ? यह सुनकर त्रस और स्यावर जीवोंकी गतिको जाननेवाले उनमें से जेठे मुनि कहते हैं--"इस जम्बूद्वीपके दक्षिण भारतमें आगे प्रथम कर्मभूमिका प्रवेश
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महापुराण
[१२.४.७ आसण्णभन्चु सो णिवखयरु दहमइ भवि होसइ तित्थया । भोयासिउ जं तंणउ रह मि दुम्मायत्तणु तहु तुह कहमि । पच्छिमविदेहि गंधिलविसाए सीहरि गरिदु विमुक्तभए । णामें सिरिसेणु सिरीणिलउ सुंदरिदेविहि दरिसियपुलउ । तहु पर्दमु पुत्तु जयेवम्मु हुन यीयउ सिरिधम्मु पारेहि थुन। सो रुचइ जणणिजणणमणहो सो भावइ सयल परियणाहो । पत्ता-सुहडत्तणु बुद्धिचुहत्तणु घिहि' असेसु वि जलहिजले ॥
किं गुणगणु मण्णइ सजणू वर्ण, पुण्ण जि भलउ सुब्णयले !!४!! ........
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मेलं ते संते रजरइ
वर लत जंते परमगइ। गरणा है अइअजु किन्न
लहुतणयहु रज्जु समप्पियउ । जयवम्में ता परिधितिय
को फेडद दृश्य नियंतियत्र । णिइबहु सव्वु वि चाफल णिदइवजि जगु सीयलउ । णिश्वु पर्षतु वि को गणइ णिवहु भासित को सुगइ। णिराइवह सुखद भरिउ सर ण फलइ णि इवें मिहिउ तरु । थिइवहु बंधु धि होइ पर पिइवहु देव ण देति वरु । ण हणइ भेसहु वि रुयापसरू वियलइ सुवण्णु पत्तउ वि करु । णिदबहु विकडइ रिणि घाण करइ सणेहुँ मायापियक । उज्जम करेवि अप्प दमइ । णिइवह कि सिरि संकमइ । घत्ता--णहु लंघउ गिरि आसंघउ जि करइ त गिफलउ ।।
हयकाएं कि यबसाएं सबहु दइवु जि अग्गलाउ ||५||
इणं चितमाणो अरायं वहतो पियरमाथहतो रईसूहवेणं जसेण खियं जं दयंग समतो
अहं णिदमाणो। अणंगं वहतो। रमासायहतो। सयासूहवेर्ण । मुहेणं जियं । समेणं समंतो ।
६. NMB दमभइ । ७. 13 अंतउ गज; " ज त ण । ८. MISP पढमु पुनु । ५. A111 अजवम् ।
१७. MBP गरिबथुउ । ११. P घिवहुं । १२. M मणइ । ५ ! Pणरणा अजुत्त । २. M13P अजवमें । ३. । णिदश्यहु । ४. MBP णिइ३ । ५. MP
गुक्वइ । ६. 13P मिणेह । ७. M]3' उजउ । ६. १. । णिहमा गो। २. "मायती । ३. MBPT मियर्ज । ४. NHIY1 जियजं anal igloss in
I मुखेन कृत्वा जितान्नं यद्योउनम् ।
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२१. ५.६]
हिन्दी अनुवाद होनेपर वह आसन्न भव्य विद्याधर राजा दसवें भवमें तीर्थकर होगा। उसका जेसा भोगाशय है उसे छिपाऊँगा नहीं, उसका दुर्योदपन तुम्हें बताऊँगा। पश्चिम विदेहके गन्धिल्ल देशमें भयसे रहित सिंहपुरमें श्रीका आश्रय श्रीषेण नामका राजा था जो अपनी पत्नी सुन्दरीदेवीको पुलक उत्पन्न करता था। उसका पहला पुत्र जयवर्मा हुआ और दूसरा श्रीवर्मा जो मनुष्योंके द्वारा संस्तुत था। वह अपने माता-पिताके मनको अच्छा लगता और समस्त परिजन उसे चाहते।
पत्ता-सुभटत्व और बुद्धिके अशेष बुधपनको समुद्र के पानी में डाल दो। गुणगणको क्या माना जाता है, और सज्जनका वर्णन किया जाता है ? संसारमें पुण्य ही भला होता है ।।४।।
राज्यमें रति छोड़ते हुए नत लेते और परमगति प्राप्त करते हुए राजाने एक बात बहुत बुरी की-अपने छोटे बेटेको राज्य दे दिया। तब जयवर्माने अपने मनमें विचार किया कि देवके नियन्त्रणको कोन ठुकरा सकता है। देवहीनका सब कुछ चंचल होता है। देवहीनके कार्य में सारा संसार ठंडा होता है, देवहीनके प्रणाम करनेपर भी कौन गिनता है, निर्देवका कहा हुआ कोन सुनता है, देवहीनके लिए भरा हुआ सरोवर सूख जाता है। भाग्यहीनके लिए भाई भी शत्रु हो जाता है, देवहीनके लिए देवता भी वर नहीं देते। उसके रोगके प्रसारको दवाई भी नहीं रोकती। हाथमें आया हुआ सोना भी गिर जाता है। देवहीनके घर और गृहिणी दोनों नष्ट हो जाते हैं। माता-पिता भी स्नेह नहीं करते। उद्यम करनेके लिए वह अपना दमन करता है लेकिन क्या देवहीन व्यक्ति के पास लक्ष्मी जाती है।
घत्ता-चाहे वह आकाश लांघे चाहे पहाड़की शरण ले, वह जो जो करता है वह सब निष्फल जाता है। शरीरको नष्ट करनेवाले व्यवसापसे क्या ? देव ही सबसे बड़ा होता है ? ||५||
यह सोचता हुआ अपनी निन्दा करता हुआ, वैराग्य धारण करता हुआ कामदेवको नष्ट करता हमा, पितासे कहता हुआ लक्ष्मीके स्वादको नष्ट करता हुआ जो कामदेवसे उत्पन्न है, सदेव सबका अभिलषधीय है, जो यशसे निर्मल है, जो माधाके द्वारा जीता गया है, दयालुओं को शान्त
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४८
[२१. ६.७
महापुराण णिय जोधणतं गओ सो वर्णतं । किडीखद्धकंद
णेयासीणक्रदं । सरेणं सर्वतं
महावसवंत । सवेल्लीपियोल
पुलिंदीपियालं। विणित्तंकुरोह
विचित्तंकुरोह। अलीपीयवासं
फणिवाहिवास। " यहि मिने...: . . लसीपलितं । पवदंवपीलु
पगज्जतपील । हुयातावसीयं
सया तावसीयं । पवित्त पसरणं
हयाणेयसणं। विलु तयासं
पफुल्लंतयासं। सुसंतावयास
णिहिसावयासं। धत्ता-तहि काणणि थियपंचाणणि विदछु भडारउ दुरियमहु ।।
जयवम्म समियकुकम्में मोक्खहु केरउ गाइ पहु ।।६।।
१५
जसु तित्थगमणु अहवावठाणु असु धर्ममणणु अहवा सुमोणु । जसु इंदियरणु अह परमकरुण __ जसु अरुहचिंत अह सुयसरणु । जसु जोयणि अइ जागरणु जसु खलेकिउ दुह अह तवचरणु । जसु सयणु धरणि आइ केटु तिणु जो तणुमलघर मणमलेंण विषु । त्वचासु जासु अह जिणकहिउ परपिंडु जेण सुद्धउ गहिउ । तहु दुम्मइवम्मणिम्ममहो पणिवाट करेवि सयंपहो। सिरिसेणKएण समिच्छियउ अणगारतणउं पडिच्छियउ । छुडु केसभारु आलुचिया छुडु करणवियार वि खंधिया । तामायउ पणवहुं परमजइ महिहरु णामें स्वयराहिवा। पत्ता-अंपाहिं वि विहविमागहिं णिहिलु णहंगणु छाइयत ।।
भइए णवपावइएं मेहुँ णिवायवि' जोइयउ ॥७॥
बदन णियाणु एरिसिय जहि कुलि रिद्धि होउ महु जम्मु ताहि । जा अस्थि कि पि रिसिधम्मफलु तो होउ रज्जु विदवियखलु ।
ता तक्खणि णिग्गउ गिरिविवरे फालउ विसहरू तहु लग्गु करे । ५. MBP गिरीलग्गद; T पयासीणकंद मिरोलग्नमेधं । ६. M वियालं। ७. T पहल्लल्यास ।
८. MBP अजवाये। ७. १. MHPT अहवा सठाणु । २. P धम्मसघणु । ३. MBP समोणु। ४. MBT परमकरणु । ५.P
खलिकिउ । ६. M1 कतिणु। ७. MBP मलहरु वि मलेण। ८. P सेणु सुपण । ९. MBP तावायज । १०. MP मुहू । ११. MRK गिव्या इवि ।
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२१.८.३]
हिन्दी अनुवाद करता हुआ, तथा शमभानसे अपने गोवनको शान्त हरारे हुए. लहान के लिए चला गया। उस वनमें जहाँ सुअरोंके द्वारा अंकुर खाये जा रहे हैं, मेघ शिखरोंसे लगे हैं, जो स्वरोंसे आवाज कर रहा है, जो बड़े-बड़े बांसोंसे युक्त हैं, जो लताओं और प्रियाल लताओंसे सहित है, जो शवरियोंके लिए प्रिय है, जिसमें अंकुर निकल रहे हैं, जिसमें विचित्र अंकुरोंका समूह है, जिसमें भ्रमर गन्धका पान कर रहे हैं, जिसमें नागराजोंका अधिवास है, जो मधुसे आद्रं है और दावानलसे प्रज्वलित है, जहाँ पीलू वृक्ष बढ़ रहे हैं। पीलु ( गज) गर्जना कर रहे हैं, जहाँ शीत गर्मी होती है, जो तपस्वियों के लिए हितकारी है, जो पवित्र और प्रसन्न है, जहाँ आहारादि अनेक संज्ञाएं नष्ट कर दो गयीं हैं, जिसमें मृत्युकी आशा समाप्त हो चुकी है, जिसमें दिशाएं खिली हुई है, जिसमें अवकाश शान्त है, और जिसकी दिशाओंमें तपस्वी है। ___पत्ता-सिंहोंसे अवस्थित उस काननमें कुकर्मको शान्त करनेवाले जयवर्माने पापोंको नष्ट करनेवाले आदरणीय भट्टारकको इस प्रकार देखा जैसे वह मोक्षके पथ हों ।।६।।
७
जिसका तीर्थगमन अथवा कायोत्सर्ग, जिसका धर्म कथन अथवा मौन । जिसका इन्द्रिय युद्ध अथवा परम करुणा, जिसकी अहंतु चिन्ता अथवा शास्त्रशरण, जिसकी योगनिद्रा अथवा जागरण । जिसके लिए दुष्टके द्वारा किया गया दुःख अथवा तपश्चरण । जिसका धरती पर सोना, अथवा काठ या तृण पर। जो मनके मलके बिना शरीरका मल धारण करते हैं अथवा जिसका जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया उपवास होता है, अथवा जिनके द्वारा शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं ऐसे उन दुर्मद कामदेवका नाश करनेवाले स्वयंप्रमको प्रणाम कर श्रीषेणके पुत्रके द्वारा चाहा गया अनगार धर्म स्वीकार कर लिया गया। शीघ्र ही उसने केशलोंच कर लिया। शीघ्र ही उसने इन्द्रियों के विकारोंको रोक लिया। तब इतने में महीधर नामका विद्याधर राजा परममुनिको प्रणाम करनेके लिए आया।
पत्ता-जपानों और विविध विमानोंसे आकाशतल छा गया । नव प्रजित ( नया संन्यास लेनेवाले ) ने विस्मित होकर उसे बार-बार देखा ॥७॥
उसने यह निदान बांधा कि जिस कुल में इस प्रकारकी ऋद्धि हो, वहाँ मेरा जन्म हो। यदि मेरा मुनिधर्मका कुछ भी फल है तो शत्रुओंका नाश करनेवाला मेरा राज्य हो। इसनेमें उसी क्षण एक काला साप पहाइके विवरमेंसे निकला और उसके हाथमें काट खाया।
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[२१.८४
* महापुराण कहि मल्ल3 धारहि परिगेलिज घरणिय लि कलेबरु रुलुघुलिउ । गुरुणा भवपासणासकरई कहियाई पंचपरमक्खरई । असुथामु विसेणे झाडत्ति हउ गर जीउँ ईसिउचसमियरस । अलयारि रायट्र तणइ घरे उप्पण्णु मणोहराहि उयरे। सो एहु महाबलु भोयरसु पउ मुयइ तेण सणियाणवसु । घत्ता-मिच्छत्ते मणकुडिलने अवरु णियाणणिबंधणेण ।।
जगु ताविउ आवइ पापित पं वणगयउलु बंधणेण ||८||
स्थित्तविवाइहिं दुग्मइविं संभिण्णमहामइसयमहहिं । मुयदंखिहि चप्पिवि पेल्लियउ अप्पाण कदम लियड । पई कढिवि सुचिवारिहिं पहनिट उचाइवि सीहासणि विउ | णिसि सिविणइ अज्जु णियच्छियउ तुह णा दुरिउ दुगुंछियउ । सुत्तुहिन काई मि उ चवई अच्छह चिंताऊरिउ णिवइ। दिट्ठल णिमित्तु तं णए कहा आगमणु तुहारउ मणि महइ। अचिरेण जाहि हुमंदिरहो भमस व भमंतु इंदीवरहो। जाण कहइ सो पस्थिवु सुयणु ता पहिलज सिविण तुहुँ जि भणु । अण्णु वि लइ टुकी व येणियइ एवईि सो एक्कु मासु जियइ । पडिवज्जइ धम्मु म भंति करु दिवसहि होसह तेलोकगुरु । संबोहहि जाइवि तुरि तुई पावेसइ भव्वु अर्णतु सुहुँ । तं णिसुणिवि जहवरत्रोल्लियउ णियहियवउ दुख सल्लिय उ । साहारिवि सुमरिवि जिणवयणु आलोइवि गर्मणिच्छइ गयगु । पत्ता-रिसि संसिवि बे विमंसिवि लहु संचल्लिउ मंतिवर ।।
पह पविमलु गुरु दसणजलु तपहइ जोयइ चोमसरु ॥९||
१०
तोवेत्ताहि णइयलि णिव्याडि चितइ सो बहुविह भिण्णमइ कि घणु ण णं पडिखलियमरु इय जाम कमेण विवेइयउ उट्टिवि आलिंगिउ णिव वरेण
खेयर खगवइदिदिहि घडिउ । कि गिरिवर गंण खयलगइ। फि पक्खि ण पहु पलंचकर । ता धुधु संगीवु पराइयउ । तेण वि णिवू पणविउ णियसिरेण ।
८. १. MRP परियलि । २. मिडत्ति विसेण । ३. P जीविउ इसिउक्सपियउ । ९. १. MRP गिच्छत्तविवाइहि । २. MRP सुश्वारिहि । ३. 17 सिविणउ अज्ज । ४. 1118P बुगंदिरह ।
५. MI खणिवइ । ६. MBP गणिज्छइ गमणु ।। १०. १. MIP ता एत्तहि । २. MB बहुविह् । ३. MB खपतः। ४, AMBP पिवेण णिवइयत्र ।
... Mer ममीउ। ६. MRP णिउ ।
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२१. १०.५]
हिन्दी अनुवाद धाराओं में खून बह निकला, और उसका शरीर परतोपर लोटपोट हो गया। गाने संसारके बन्धनको काट देनेवाले पांच परम अक्षरोंवाला मन्त्र उसे सुनाया। विषने उसके प्राणोंकी शक्ति नष्ट कर दो। और उसका जीव कछ उपशम भाव धारण करता आ चला गया। और अलकापुरमें राजाके घर रानी मनोहराके उदरसे उत्पन्न हुआ। वहीं यह महाबल है भोगरसवाला। अपने निदानके अधीन होनेके कारण वह इसे नहीं छोड़ता।
पत्ता-मिथ्यात्व मनको कुटिलता और निदानके निबन्धनसे यह विश्व सन्तप्त है और आपत्ति उठाता है वैसे हो जेसे बन्धनसे वनगज-कुल ॥८॥
नास्तिकतावादी दुर्मति सम्भिन्नाति महामति और स्वयंमति आदि मन्त्रियोंने मु नदण्डोंसे चौपकर मास्माको कीचड़ में डाल दिया था, आपने निकालकर पवित्र जलसे नहला दिया है और उठाकर सिंहासन पर स्थापित कर दिया है। आज रात तुम्हारे स्वामीने एक सपना देखा है, उसने पाप नष्ट कर दिया है। सोकर उठने के बाद कुछ भी नहीं बोलता राजा चिन्तासे व्याकुल बैठा है। जो निमित्त देखा है वह किसीसे नहीं कहता। वह तुम्हारे आनेकी बाट देख रहा है। तुम शीघ्र ही राजाके घर जाओ, उसी प्रकार जिस प्रकार घूमता हुआ इन्दीवरके पास जाता है। यदि वह राजा स्वप्न नहीं कहता। तब पहला सपना तुम्हीं कह देना । और लो उसकी क्षय नियति आ पहुंची अब वह केवल एक माह जोवित रहेगा। तुम भ्रान्ति मत करो। वह धर्म स्वीकार कर लेगा। और कुछ ही दिनों में त्रिलोक-गुरु हो जायेगा । तुम शोन जाकर उसे सम्बोधित करो। वह मध्य अनन्त सुख प्राप्त करेगा।" मुनिवरके इन बोलोंको सुनकर उसने दु:खसे पीड़ित अपने हृदयको ढाढस देकर और जिन-वचनकी मादकर जाने की इच्छासे आकाशको देखकर।
पत्ता-दोनों मुनियोंकी प्रशंसा कर और नमस्कार कर मन्त्रीवर शोध चला। प्रभु, पवित्र गुरु दर्शन-जलकी इच्छा करता है और आकाशरूपी सरोवर देखता है ।।९।।
इतने में आकाशमें आता हुआ विद्यापर राजाको दृष्टिमें आया । भिन्नमति वह तरहतरहसे सोचता है ? कि क्या है गिरिवर है ? नहीं नहीं यह आकाशतल मति है ? क्या घन है ? नहीं नहीं प्रतिहतपवा है? क्या पक्षी है ? नहीं नहीं ? यह लम्बे हाथोंवाला है। इस प्रकार जबतक वह क्रमसे जानता है तबतक पास आये हुए स्वयंबुद्धको उसने पहचान लिया । नृपबरने घटकर उसका आलिंगन किया, अपने सिरसें राजाने भी उसको प्रणाम किया और बोला, "आपने
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१०
५
१०
५
५२
भणितं असा कि ता भइ राज णिलि लक्खियउ पचु भो ण रहमि चप्पियर जेहिं ते जड कुगुरु जं जलु तं जिणवर्रिदेवयणु हरिवीकारोहणु सुगइहुं
si spettare att po. &
महापुराम
किं
परमुण्णद्दि णिउ |
पई जीवियन्तु मह रक्खियउ | पई दिड दंसणु दर्ज कद्दमि ! जो पंकु तं जि दुग्गइविहुरु | धोम हुं सुविसुद्ध तणु । पुणु कह संतुषियसंतमुहुं ।
पत्ता - मई देसि चारणभासिस देव कयाइ पण संचलइ ॥ सर्दु सा पर्कमा आउ तुहार परिलम् ||१०||
कमकमलपडियभुवणत्तयहो तियसिंदविदवं वियपयो क्त्त च पीणी भूय इत्थिद्दडा इव घंटामुहल जलणिहिवेला इव सरयणिय does व विषकुसुमथश्य घा इव दित्तदीषसहिय अट्ठाई महिवि जिणाहि व पाउमा मरणचिहि तेण कय
११
कल्लाणमित्तु बंध परमु । आलग्गणखंभु सुसंतियरु | हवं एवहिं संणाणि सरमि । पुरि अपवि पुत्तहु अइबलहो ।
ता भगइ महाबलु रयविरमु बप्प मज् दाहिणउ करु आण्णमरणु किं तर कैरमि इय जंपिवि मंडलिकरयलहो परियणसयणाई खमा हयई aणुमय सिर षि मुंडियई मलभरियई परियई छंडिय णीसे परिग्गहु परिहरिवि पच्छा घुतसाहारवणि
भावणसुतरं भावियई । इंदियई खगिदे इंडियई । मायामिच्छत्त खंडियई । अरहंतु भारउ संभरिवि । थि सहससिहरि जिणवरभवणि ।
अत्ता – अहिसित्तई सुद्धपवित्तई जिणपडिबिंगई पुज्जिय ॥ इयभमरहिं चालियचमरहिं खयरकुमारहिं विजियई || ११||
१२
उन्मासिथसियत्तत्त हो । पारद्ध पुज्ज परमध्ययो । माया इव उचाई धूर्यै । वरणरवइसेवा इष सद्दल | वेसा इव दरिसियदप्पणिय | - इलविछ व परकेछ । सुरसिहरि व चंदणमहमहिय । बावीस दिवस संणासगइ | सुहाणारंभ प्राण गय |
B परियल
७. P परमुष्णद्र णिहिउ । ८. B चंपियउ । ९.
११. १. MBP आसण्णु मरणु । २. MBP चरमि । ३. MBP संणासणु करमि । ४. M जियभाषण । ५. MBP णीसेसु । ६. MBP पुष्णवित्त ।
१२. १. MBP पीणियभुमहो । २. MRP उच्चाइमघुन हो; T धूय पुत्रो धूपश्च । ३. MB कृपणय ।
Y. K omits this line. 4. MBP |
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२१. १२.२J
हिन्दी अनुवाद अपूर्व प्रसाद किया, मुझ दासको आप इतनी उन्नति पर ले गये ! तब राजा रातमें देखा हुआ स्वप्न उसे बताता है कि तुम्हारे द्वारा मेरा जीवन बचाया गया है ।" मन्त्री बोला--"मैं छिपाकर नहीं लूंगा। तुमने जो स्वप्न देखा है उसे मैं कहता हूं। जिन्होंने तुम्हें चौपा है वे खोटे गुरु हैं। जो कोचड़ है, वही दुर्गतिका कष्ट है, जो जल है वह जिनवरका वचन है, सुविशुद्धतम तुम्हें मैंने धोया है और जो सिंहासन पर आरोहण है, वह सुगतिका सुख है। फिर वह, विकसित मुख उससे कहता है ?
पत्ता-मैं कहता हूँ कि चारणमुनि वारा कहा गया हे देव, कभी भी झूठ नहीं हो सकता। श्वासके साथ, एक माहमें तुम्हारी आयु परिसमाप्त हो जायेगी ॥१०॥
तब, पापसे शान्त महाबल कहता है-'तुम मेरे कल्याणमित्र और परम बन्धु हो। तुम मेरे पिता और दाएं हाथ हो, शान्ति करनेवाले आधार स्तम्भ हो। मेरी मृत्यु निकट है अब तप क्या करूंगा ? मैं इस समय संन्याससे मरता हूँ। इस प्रकार कहकर हाथ जोड़े हुए अपने पुत्र अतिवलको राज्य देकर उसने परिजनोंसें क्षमा मांगो। मुनिभावनाके सूत्रों की भावना की। शारीर मन वय और सिरको भी मूड़ लिया, विद्याधर राजाने इन्द्रियों को भी दण्डित किया । पापसे भरे आचरण छोड़ दिये, मायामिथ्यात्वोंको खण्डित किया। समस्त परिग्रहका परिहार कर आदरणीय अरहन्तकी याद कर आन्दोलित सहकार बनमें सहस्रशिखर जिनमन्दिरमें जाकर स्थित हो गया ।
पत्ता-पाद्ध पवित्र जिन प्रतिमाओंकी कि जिनपर भ्रमरोंको उड़ाते हुए चमरोंसे विद्याधर कुमारियों के द्वारा हवा की जा रही है। उसने अभिषेक और पूजा को ||११||
जिनके चरण-कमलों में भुवनमय पड़ता है, जिनके ऊपर तोन छय स्थित हैं, जिनके चरण, देवेन्द्र समूह द्वार वन्दित हैं, ऐमे परमपदमें स्थित जिनकी उसने पूजा प्रारम्भ को। उसने अपने स्थूल हाथोंमें नैवेद्य ले लिया, उसने माताके समान धूय ( कन्या और धून ) ऊंची कर ली। जो पूजा, हस्सिघटाके समान घण्टाओंसे मुखरित थी, श्रेष्ठ राजाकी सेवाकी तरह सफल, ममुद्रकी वेलाके समान स्वरयुक्त, बेश्याके समान दार्पण दिखानेवालो, वृक्षपंक्तिकी तरह विविध कुसुमों और फलोंसे स्थापित, आकाशकी लक्ष्मी के समान प्रचुर के तुओं ( पताकाओं और ग्रहों ) से आच्छादित है, जो प्रथम नरक भूमिकी तरह दीप्त दीयों ( होपों, दोपों ) से सहित है। जो देव-पर्वतकी तरह चन्दनसे सुवासित है। आठ दिन तक जिनकी पूजा कर और बाईस दिन तक संन्यासतिसे उसने सलेखना मरण विधि की और शुभध्यानका आरम्भ करनेपर उसके प्राण चले गये।
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[२१.१२.१०
महापुराण घसा-ईसाणइ संग्गविमाणइ सिरिपहि सिरिकम लिणिभमरु ||
णिच्छम्में पिड गियधम्में खणमेतेण अजर अमरु ॥१२||
१०
मणिमइ सुमहतधतषिलइ उपवायसंयणि संपुडणिलइ । सो मरिवि महाबलु तिवसकुले णं विजुपुंजु अलहरपडले। हुउ देल दिचु ललियंगधरु लेलियंगु णाम णं कुसुमसरु । वेटिवयणयणसुहावणिय सर्बणीयतेय ओझावणिय । बिहिं घडियहिं रजिय सुरवणिय जिह तणु तिह जोव्यणसिरि जणिय । लइ पुण्णविसेसे सार्वडिउ पाएं सहुँ णेउरु बहु पहिला हत्य सहुँ फंकणु मणिजडिल सीसे सहुं मउड वि पायटिर्ड । मण्डे सहुँ कुसुममाल चलिम कं मटुंलिगवारा लिए । वच्छे सहुँ बभसु विमलु सहुं कडियलेण कडिसुचु चलु। तड जम्मविलासपयास गजे सहजायज णिवसणभूमण । णयणहि सहुँ अगमिसपेच्छणलं लायण्णु भणमि किं तहु वण । वत्ता-उ रोमई अहियचम्मई त छिर णउ मुहि मीसियच ॥
घणंडिमहि फंचणपडिमहि संणिहु वेहुँ' पयासिया ॥१३॥
छुडु देउ णिसपणउ गम्भहरे णियदिहि देतु णिययाहुसिरे। वा दुंदुहि वलिय गहिरसर धाइय जयजय पभणंत सुर । वरिसिय कप्पयरु कुसुमवरिसु अमरंगणगणु णखिउ सरसु। एए के कोहकवणु घर
अवलोयइ णिय उरु पार कर। सुत्तहिउ जिह जा संभरइ ता अवहितासु मणि वित्थरइ । बुझिन सइंयुद्धहु संचरिक संणासु वि जंणरभवि चरित्र । उहिर सीहोसणि संणिहिट देवहिं अहिसेउ तासु घिहित । जिणु काम कसायविवजियउ तेण वि परमेस पुजियउ । उपेशियपीणपयोहर
चालीससय पवरफछरई । गखत्ततिसंकासह महाविसयंपहकणयपह। ६. MBP सग्गि विमाणई। १३. १. MI3PK सयणं । २. ? विज्मपुंजु । ३. MBP ललियंगणामु । ४. MBP तयणीयति ।
५. P जोवणु। ६. M संपडउ; BP संगडिउ । ७. B पायपउ । ८. MBP add after this : कपणे सहुं कुंडल विपरित । ९. MBP वलिय। १०. MBP अणिमिस । ११. MBP सिर ।
१२. T एणणिविडं। १३. MB देउ। ५४, १. Pपभणति । २. MP सरिसु । ३. MRP पाय । ४. MRP तो । ५. P सिंहासणि । ६. MB
विहिं । ७. M परि; BP रि । ८. हरिहं ।
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२१. १४.१०]
हिन्दो अनुवाद घसा-इस प्रकार मायारहित स्वधर्मके द्वारा श्रीरूपी कमलिनीका भ्रमर बह राजा एक क्षणमैं ईशान स्वर्गके श्रीप्रभ विमानमें युवा देव हो गया ।।१२।।
१३
वह महाबल मरकर अत्यन्त महान् और अन्धकारको नष्ट करनेवाले मणिमय संपुट निलयमें सेनालझें उत्पन मनारमा विद्युत् उत्पन्न हुआ हो । वह दिव्य ललितांग देव हुआ. ललित अंग धारण करनेवाला मानो कामदेव हो। वैक्रियक नेत्रोंसे महावना. स्वर्णकी दीप्तिका तिरस्कार करनेवाला ! दो घड़ी में ही उसने सुरवनिताओंको रंजित कर दिया, जैसा उसका शरीर था वैसी हो उसकी यौवनश्री उत्पन्न हुई थी। और पुण्यके कारण यह भी हुआ, पैरोंके साथ उसके नूपुर भी गढ़ दिये गये, हाथके साथ मणि विजडित कंगन और सिरके साथ मुकुट भी प्रगट हो गया। मुकुट के साथ कुसुममाला भी चढ़ गयो और कण्ठके साथ श्वेत हारावली । वक्षके साथ पवित्र ब्रह्मसूत्र । और कटि तलके साथ चंचल कटिसूत्र । इस प्रकार उसके जन्मविलासको प्रकाशित करनेवाले वस्त्र और भूषण साथ-साथ उत्पन्न हुए। उसके नेत्रोंके साथ अपलक दर्शन था, मैं उसके लावण्यका क्या वर्णन करूं?
पत्ता-उसके न रोम थे न हड्डियां और चमड़ा, न तिल ? और न मुंहमें मूंछे। घनोंसे निमित कंचनप्रतिमाके समान उसकी देह प्रकाशित थी ॥१३॥
शीघ्र हो वह देव, अपने बाहुओं और सिरपर दृष्टि डालता हुआ गर्भगृहमें बैठ गया। तब गम्भीर स्वरमें दुन्दुभि बज उठी। और देवता 'जय-जय' शब्द के साथ दौड़े। कल्पवृक्षोंने कुसुमवृष्टि की, देवांगनासमूहने सरस नुत्य किया। ये कौन हैं, मैं कौन हूँ, यह कौन-सा घर है ? वह अपने पैर हाथ और उर देखता है ? सन्तुष्ट होकर वह जैसे ही याद करता है कि उसके मनमें अवधिज्ञान फैलने लगता है। उसने जान लिया कि उसने स्वयंबुद्धिके द्वारा प्रेरित संन्यास मनुष्य जन्ममें किया था । उसे उठाकर सिंहासन पर स्थापित कर दिया गया, और देवोंने उसका अभिषेक क्रिया । उसने भी काम और कषायोंते रहित परमेश्वर जिनकी पूजा की। उरसे अपने चीन स्तनों. को प्रेरित करनेवाली चालीस सौ अप्सराएं उसके पास थीं । नक्षत्रोंको कान्तिके समान नखोवाली
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१०
अप किसी
महापुराण
चिरभवपरिपालियसुद्धवय सोहं हं हुं तहिं वसई धत्ता - सुहसाउ परे परमाड जलहिमाण वित्थरि सो जीवइ ऐकस जेमइ वरिससहास भरिएण ||१४||
सोरायणि सत्त समुच्छियत्र तहु पलाउस बगिय काले चिरंतन अवहरिय तहि अल्लड कामेण रसु वहिणाहि देसि गहिरत्तण
थणजुयलइ कठिणत्तणउं
१५
सुकारिण के थिच्छिउ । मालूरपणपीत्ररथणिय | अणेक सह अवयरिय | तहि दिट्ठसियत्तणिणिययजसु । भाजु कुडिलत्तणडं । मेण जि संणिहियर्ड अप्पणउं । कुंडलरुजगद्दिगुहाविवरे । बहु ललियंगहु रहरमणवस । रिसिंह पुराणहिं बजरिए || गयकाल अइअसरालइ पुप्फयंतगइस भरिए ||१५||
मंदर कंदरि कीलियखयरे तहि तपविया गय दिवस
कायलय सुद्दासिणि विज्र्जुलय । एक पक्खेण समूससई ।
॥
[ २१. १४. ११
पत्ता - भरहादिव णिसुणि महाणिष
इस महापुराणे सिट्टिमा पुरिस तु णालंकारे महाकइ पुप्फयंत विरहए महाभण्व भरद्वाणुमणिए महाकवे महाबलसंणासमरणं रुहियंगुष्पत्ती याम एकवीसमो परिच्छेओ समनों ॥ १३॥ संधि ॥२१॥
९. M विज्जुलिय । १०. MBP सहुं तहि । ११. MS भिरु; P थिय । १२. MBP "वित्थरिथरण। १३. M एक्कुसु ।
१५. १३ समिउि २ MBP पढ़ताउस घयि ३ 1p रिसह । ४. MB पुराण P पुराणिहि । 1. MBP वज्जरिय; T वज्जरइ । ६. MBP संभरिय; T संभरद्द । ७. MBPK संणासणं ।
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२१. १५. १.]
हिन्दी अनुवाद महादेवी स्वयंप्रभा और कनकप्रभा थीं। पूर्वभवमें शुद्धव्रतोंका पालन करनेवाली कनकलता, सुभाषिणी और विद्युल्लता । वह इनके साथ सुखसे वहाँ रहता है, और एक पक्षमें सांस लेता है।
पत्ता-शुभस्वादवाला श्रेष्ठ एक सागरको श्रेष्ठ आयुवाला। एक हजार वर्ष बीतनेपर एक बार खाता है और जीवित रहता है ||१४||
वह सात हाथ ऊंचा। शुभ करनेवाला वह किसके द्वारा नहीं चाहा गया? उसकी एक एल्य आयुवाली पत्नी है जो बेलके समान पोन स्तनोंवाली है, जो बहुत समयके बाद उसे मिली, एक और स्वयंप्रभा अवतरित हुई । कामदेवने उसके ओठोंमें रस, दृष्टिकी श्वेततामें अपना यश, उसको नाभिदेशमें अपनी गम्भोरता, उसकी दोनों भौंहों में कुटिलता, स्तनयुगलोंमें कठिनता, इस प्रकार अपनेको स्थापित कर लिया। जिसमें विद्याधर कोड़ा करते हैं, ऐसी मन्दिरकी गुफाओं, कुण्डलगिरिके विवरमें, उस ललितांग देवके रतिकोड़ा और शारीरिकभोगमें दिन बीत गये।
घत्ता-गौतम गणघर कहते हैं कि हे श्रेणिक महानृप, सुनो पुराने ऋषियों द्वारा कहे गये पुराणको बहुत समय बीत जाने पर, पुष्पदन्त तीर्थकरको गति याद आती है ।।१५।।
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुण भकारोंसे युक्त महापुराममे महाकवि पुष्पदन्त द्वारा थिरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका महासंन्यास मरण और छकिवांग-उत्पत्ति मामका
इक्कीसवाँ परिच्छेद समास बा ॥२॥
२-८
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समणमणसंताविरई रइसुहवारणाई दुप्पेच्छई ।। दिई दुफियदुमहलई ललियंगेण मरणणेवच्छई ।। धुवकं ।
दुद्धरखयकाले पडिपेल्लिल दिवाट कुसुमदामु ओहल्लिन । मट देवंगषत्थु दरमईलिउ दित अंगु कि पि मलकालिउ । परिवद्धि भोपसु विरायउ आहरणोहु दिछु णित्तेयठ। परियणु सोयविरसु जपतष दिहन सुरतरुषणु कंपंतउ मोहियमणु माणिणि णिरिक्खा जा सो माणसदुक्ने सुक्खइ । ता तियसगुरु को वितहि मासह । णियइणिोएं सकु वि णासा। भो ललियंग पमेल्लाहि भयजर तिहुयणि त्थि को वि अजरामरु । सुर्यरहि जं सइंयुद्ध सिहां जसु सेवाहलु एत्यु जि दिट्ठउ । * जिणपायपोमु सम्भावे जेण विमुंबहि भवकयपावें। दुल्लेसाई णरत्तणहाणिहि मा पडिहीसि बप्प भृगंजोणिहि । संसारपिवमूलुम्मूलाई मोहोहिंति दूरि प्रेतसीलई । घता-जायई पुणु वि पणहाई रंगणडा इव भावविचित्सई॥
मेल्लिवि सासयसिद्धिसिरि दुल्लहाई णड होति सुरत्तई ॥१॥
ता ललियंगें तं आय पिणषि वारवार णियहियवइ मणिधि । तित्थई जाइषि सुहतित्थंकर चपरहि पर्य परमसुहका
कुवलपहिं कुषलयद्धारणु कुंदहि कुंददसणु सुहकारणु । MBP give, at the commendement of this Samdhi, the following stanza;
मदकरिदलितकुम्भमुक्ताफलकरभरमासुरानना मृगपतिनादरेण यस्या घृतमनयमनर्घमासनम् । निर्मलतरपत्रिमूषणगणभूषितवपुरदारुणां
भारतमल्ल सास्तु देवी तव बहुविधमम्बिका मुदे 11 GK do not give it. १. १. MB वाम । २. MB यत्य । ३. MBP दरमलियउ । ४. MRP कलिपज । ५. M परियट्टिय;
B परिवतिय । ६. P दुमला। ७. MBP को वि गरिय । ८. M मुम्वरहि; BP मुमहि । ९. MBP जेण जि मुन्धहि भवभयपावें । १०. MBPT मिग'। ११. MBP मा हो होति ।
१२. MBP बयसीलई; Kयसील। १३. MB सासयरिसि। २. १. MBP तिरकर । २. M पर B पर। ३. BP सुहकर !
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सन्धि २२
सज्जनोंके मनको सन्ताप देनेवाले रतिसुखका निवारण करनेवाले दुर्दर्शनीय, पाररूपी वृक्षतको मरणरुपी लिहों को प्रशितांगने देने ।::..::
दुर्धर क्षयकालसे आहत, मुरझायी हुई माला उसने देखी । कोमल देवांग वस्त्र कुछ मैले हो गये, उसका शरीर मलसे काला हो गया। उसका भोगोंमें वैराग्य बढ़ गया। आभरणोंका समूह निस्तेज हो गया। शोकसे खिन्न रोता हुआ परिजन और कांपते हुए कल्पवृक्ष उसे दिखाई दिये । मोहित मन वह जैसे ही मानिनीको देखता है वह मानसिक दुःखसे सूखने लगता है। उस अवसरपर कोई देवगुरु उससे कहता है-"नियति के वियोगसे इन्द्र मी नापाको प्राप्त होता है। हे ललितांग देव, भयज्धर छोड़ दो। त्रिभुवनमें अजर और अमर कोई नहीं है । जैसा कि स्वयंबुढने कहा था, यहाँ भी जिसका सेवाफल दिखाई देता है, उन जिनचरणोंको सद्धावसे याद करो जिससे संसारमें किये गये पापसे मुक्त हो सको। है सुभट, खोटो लेश्यासे मनुष्यत्वकी हानि करनेवाली पशुयोनिमें मत पड़ो । संसाररूपी वृक्षकी जड़ोंको नष्ट करनेवाले व्रत और शील तुमसे दूर न हों।
पत्ता-भावकी विचित्रताएं रंगनटकी तरह उत्पन्न होती हैं और फिर नष्ट हो जाती है, शाश्वत मोक्षलक्ष्मीको छोड़कर सुरति चेतनाएं ( कृतिभावनाएँ ) दुर्लभ नहीं होती ( अर्थात् उन्हें पाना आसन है ) ||१||
ललितांग उन शब्दोंको सुनकर और बार-बार अपने मनमें मानकर तथा तीर्थों में जाकर शुभ तीर्थकर और परमशुभ करनेवाले चरणोंको चम्मकपुष्पोंसे, कुवलय ( पृथ्वीमण्डर ) का
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[२२.२.४
महापुराण सेंदरहिं दूरुज्झियवम्मा
मंदारहिं दारासाणिम्मेह। वासंतहिं व सिल्लु जियविग्गहु जूहियाहिं रिसिजूहपरिगहु । तिलयहिं तिजगसिलउ जो जाणिउ सुरहिं ण मेहु मेरुहु हाणिज । बंधूएहिं बंधू विद्धंसणु ... बउलहि अवउलकेवलदसणु । घणसालहि सीलसुसलिलघणु चंदणेहिं पसमियणिचंदणु । धूवहडेहिं णिहीहददापड दीवहिं तेल्लोकहु दीरउ । मालईहिं मालइयामहिराहु जिणु पुजियडे तेण 'यारुहु । अञ्जयकप्पजिणाला जाइवि चेईसहलि जइयइ साइवि । जीडिउ मुकाउ खणि ललियंग अंगु विलीण पुण्णविहग्गें । घत्ता-जंबूदीबहु मंडणिय मणुयजणणि चिंतियसुहवाइणि ।।
मेरुहि पुषविदेहि थिय णाम पुस्खलावइ जणभेइणि ॥२॥
कूरारिदविंददलबट्टणु
चप्पलखेष णाम तहि पट्टणु । सादुद्धरणु जेत्यु पंदणवणि णउ णवंति कहि मि दीसइ जणि । जेत्थु लोउ विणपणोणल्लड उद्धाणणु एकु जि करहुल्लड। करि कंकणु बंधणु पैडणेकर अण्णु ण जेत्थु अस्थि दुखाउरु । खलु तेरिलयहरि णिरु णिपणेहन अण्णु सव्वु जाहि सुयणु सणेहत । वाहि लिहिय भित्तिहि चित्तयरें। दीसा तणुहि ण णरवरणियरें: सरसंघाणु जेत्थु वायरणइ गत पर्रयकभीमि सयरणइ । . जहिं यवनहरि पडणारीयणु वंसु जि छिहसहिउ पउ पुरयणु । कुणद्धि रसक्नज णउ धिवणीवहि अॅसिहि अपेउ पारि णउ सरिदहि । अंजणु णयणि जेत्थु ण तवोइणि णायभंगु गारुडि ण धणजणि । संकर पहुण थण्णविहिसंकरु दोहन गोवाल जि उ किंकरु । जहिं कुंजक भण्णा मायंगउ परमाणवु का वि मायं गर । घत्ता-जणु कलई सहुं सज्जणेण ण करइ को वि ण विपिउ भासह ।।
जहि कलहंसह गइपसरु पंगणि' पंगणि वाविहि दीसइ ।।३।।
४. MBP सिंदूरहि । ५. P"णिम्मुहु। ६. PT वासंतिहि । ७. P मेकाहि मेरुहि । ८. MP3 बंधणविचसणु । ९, MB अवियल; P अविउल; T अवलं । १०. P सुललिय । ११. धूबडहेहिं ।
१२. P पुग्जि । १३, MBP पज्जामह । १४ MRPK विहंगे; T“विगे । ३. १. M उपलु खेडु। २. MB णामें; गामु। ३. T साहुलाओणल्लउ । ४. M पज; B पए ।
५ न अस्थि जेत्यु । ६. MRP तेल्सियगिहि । ७. B परवइणियरें। ८. MB पर चक्कभीमरायरण; P परयक भीम । ९. MB असि अप्पेर । १०. AIBP माणउ कया चि। ११. MBP मंसिरपंगणवाविहि ।
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२२, ३. १४]
हिन्दी अनुवाद उद्धार करनेवालेको कुवलय पुष्पोंसे, शुभके कारण और कुन्दके समान दातवालेकी कुन्दपुष्पोंसे, कामदेवसे दूर रहनेवाले को सिन्दूरसे, कलत्रको आशाका नाश करनेवालेकी मन्वार पुष्पोंसे, स्वाधीन और शरीरको जोतनेवालेकी वासन्ती पुष्पों ( अतिमुक्तक ) से, मुनिसमूहका परिग्रह करनेवालेको जुहो पुष्पोंसे; जो तीनों लोकोंमें तिलक ( श्रेष्ठ ) समझे जाते हैं, और जिनका मेरुपर अभिषेक किया जाता है, उनका तिलक पुष्पोंसे, बन्धका नाश करनेवाले का बघूक पुष्पोंसे, अशरीरमाही केवलज्ञानबालेका वकुल पुष्पोंसे, शीलरूपी सुसलिलवालेका कपूरोंसे, आक्रन्दनको शाश्वतरूपसे शान्त करनेवालेका चन्दनोंसे, निषिघटोंको दिखानेवालेका धूपघटोंसे, त्रैलोक्यदीपकका दीपकोंसे, लक्ष्मीरूपी लताके वृक्षका मालती पुष्पोंसे, उसने पवित्र महंत जिनको पूजा की। और अच्यत कल्प जिनालयमें जाकर चैत्यवक्षके नीचे यतिवरका ध्यान कर, ललितांगने एक क्षणमें अपने प्राण छोड़ दिये । पुण्यके नष्ट होने से उसका शरीर विलीन हो गया।
पत्ता-जम्बूद्वीपका मलंकार मनुष्यको जननी, चिन्तित शुभको प्रदान करनेवाली, जनभूमि पुष्कलावती नामकी नगरी सुमेरुपर्वतके पूर्व विदेहमें है ॥२॥
उसमें क्रूर शत्रुसमूहको नष्ट करनेवाला उत्पलखेट नामका नगर है। जहाँ शाखाओंका उद्धरण केवल नन्दनवन में है, आनन्दसे रहनेवाले वहाँके लोगोंमें उद्धारको आवश्यकता नहीं है। जहां लोग विनयसे नम्रमुख रहते हैं, वहाँ केवल ऊंट ही अपना मुख ऊंचा रखनेवाला है। जहां हायमें कंगन और पैरोंमें नुपुर बांधा जाता है, वहां और कोई दुःखसे ज्याकुल नहीं है। जहाँ तेलीके घर में बिना स्नेहके खल देखे जाते हैं, और सब लोग सुजन सस्नेही हैं। जहाँ व्याषि चित्रकारों द्वारा दीवालोंपर लिखी जाती है, नरसमूहके द्वारा शरीर में कोई बीमारी नहीं देखी जाती। जहाँ व्याकरणमें ही सर सन्धान (स्वर सन्धि) देखा जाता है वात्रुके लिए भयंकर राजयुद्ध में सरसन्धान नहीं देखा जाता है जह! हरि ( अश्य ) यवर है, वहीं नारीगण हतवर नहीं हैं। जहां बास छिद्र सहित है, वहाँके लोग छिद्र सहित नहीं हैं। जहाँ कुनटमें रसका क्षय है, बाजारमागोमें रसक्षय नहीं है । जहाँ तलवारोंका ही पानी अपेय है, वहाँक सरोवरों और नदियोंका पानी अपेय नहीं है । जहाँ अंजन नेत्रोंमें है, वहाँके तपस्वियोंमें अंजन (पाप) नहीं है । जहाँ गायभंग (नागभंग-- न्यायभंग) गारुड़ मन्त्र में हैं, धनके उपार्जन में जहां न्यायका भंग नहीं है। जहां संकर शिव है, वहां वर्णव्यवस्थामें संकर नहीं है। जहाँ ग्वाल दोहक ( दूध दुहनेवाले ) हैं, वहाँके अनुचर द्रोही नहीं हैं । जहाँ हाथोको ही मातंग कहा जाता है, वहाँ लोग मायाको प्राप्त नहीं होते।
घत्ता-लोग सज्जनके साथ कलह नहीं करते, कोई भी अप्रिय नहीं बोलता । जहाँ प्रांगणप्रांगण और वापिकाओं में कल-हंसोंकी गतिका प्रसार देखा जाता है ॥३॥
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६२
महापुराण
[ २२.४.१
वजाबाहु णामें तर्हि परवड रिद्धिइ जेण परिजिउ सुरवइ । जासु कित्ति गय दस हिं दियंतहिं. आरूढी वरदिकरिदंतहि । जासु खैग्गु बेरंतु वियमित जासु रज्जु ण परेहि णिसुंभित । जासु कोसु चापण वित्तिर मेण तिजगु सुकुडंबु वि चिंतिउ । जेण गोतु धम्मेणुज्जोइड जेण चित्तु जिणपयजुइ ढोइउ । पेम्मसासवासालवसुंधरि
तोस देवि जामेण वसंघरि। सग्गहु गम्भवासि अषयरियउ णवमासहिं उयरहु णोसरियड । ताहि तेण जणियउ ललियंगउ पंदणु णं परवेसु अणंगउ । कुडिलहिं केसहि उज्जुयगत्तर रहसहिं जंघहि दीईरणेत्तव। किसमझेण थोरमुयजुयले वियडे कडियलेण बच्छयलें। सैते णादि सरे गंभीरें
छज्जइ सीसे छत्ताया। कोमलपयहिं अकोमलहत्यहि अवरहिं मिलक्खाहिं पसत्यहि । धत्ता लक्खणपुंजु व पुंजियउ एकहि विहिणा अकयविहायता
वजंकियकरचरणयलु वजजंघु यज्जोवमकायउ ||४||
सो कुमार तहिं वढद जइय हुं णवरीसाणकप्पि ता तइय हुँ । रुयइ सयंपह पियविरहालस हा ण सुदासि मज्झु सर मापास । हा दे सग्गलोय विश्छायर विण माहेण णिवसु जाय । हा कप्पदुम किं किर फुल्लाह पइमरणे वि कट्ठ णो हुल्लहि । हा तुंबरं गाइयर्ष पहचह रमणे विणु मढ कि पि ण उच्चइ । हा लेलियंगदेवु कहिं पेच्छमि हा हे सावि फेव कर्हि अच्छमि । को वारइ भवियच हवंतर इह देवहु वि कम्मु बलवंत । एम्ब अवंति विमुक्कुच्छादिय दधम्में सुरेण संबोहिय । तावसपरिणि व मंदरवण्णी मंदरसेलहु मंदरवण्णी। गय सउमणससुरासाजिणहरि मुइय सरारिबिंबु पारिवि सिरि पुव्य विदेहि तहिं जि सकमलंसर णयरि पुंडरिंगिणि पडुरंधर । धत्ता-जहि घरसिहरि मतपण धरसिहरोवरि णियडि विलंबिड ।।
णयजलकणचक्खतएण सूसिवि मेहु मऊरें चुंबिउ ।।५।।
४. १. MBP पर जिउ । २. MBP दिसहि । ३. MB खगि धीरतु । ४. MB पबत्तिज । ५. JIIP
सफुहुंछ व । ६. MBF तह वल्लह महएपि वसुंधरि । ७. MB उज्जुयगतहि; Pउज्जयगतहि ।
८. MBP खीहरणेत्तहिं; ९. MBP मुत्तें । १०. MBP लक्षणेहिं । ५. १. तुबह । २. MBP ललियंगु देउ । ३. MIT मामि and gloss in T सखि । ४. MBP
भवंतउ । ५, P उरि । ६. MB सरि । ७. M जयर । ८. MB घरि । ९. "णिवठि ।
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२२. ५. १३]
हिन्दी अनुवाद
उसमें वजबाह नामका राजा है, जिसने वैभवमें इन्द्रको मात दे दी है। जिसकी कीर्ति दसों दिगन्तोंमें फेल गयी है और धेष्ठ दिग्गजोंपर आरूढ़ है, जिसकी तलवारसे शत्रुका अन्त हो चुका है, जिसका राज्य यात्रुके द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता, जिसका कोश त्यागसे पवित्र है । जिसने त्रिजगको अपने कुटुम्बके समान चिन्ता की है, जिसने अपने कुलको षर्मसे उयोतित किया है, जिसने अपना चित्त जिन-चरणयुगल में लगाया है, जो उसकी वसुन्धरा नामकी देवी है, जो प्रेमरूपी धान्यके लिए वर्षायुक्त भूमि है । ( वह ललितांग ) स्वर्गसे उसके गर्भवासमें अवतरित हुआ और नो माहमें उसके उदरसे बाहर आया। उससे वनजंघने ललितांगको पुत्ररूपमें जन्म दिया जो मानो मनुष्यरूपमें कामदेव था। धुंघराले बालों ऋजुक ( सीधा-सरल ) शरीर था। वेगशील जांघोंसे दोघं नेत्रवाला था। क्षीण मध्यभाग, स्थूल भुजयुगल, विशाल कटितल और वक्षःस्थलसे नाभि शोभित है। गम्भीर स्वर, छत्रके आधारस्वरूप शिर, कोमल चरणों और परुष हाथों तथा दूसरे-दूसरे प्रशस्त लक्षणोंसे जो
पत्ता- लक्षणोंके सूहा बिना कोई विचार नही विषालाने एक जगह पुंजीभूत कर दिया था । वज्रसे अंकित चरणकमलवाला दन समान शरीर वह वनजंघ था ||४||
जब वह कुमार वहाँ बढ़ने लगा, तभी उस केवल ईशान स्वर्गमें, प्रियके विरहसे पीड़ित स्वयंप्रभा विलाप करती है, मुझे मानसरोवर अच्छा नहीं लगता, हा ! हे ! स्वर्गलोक फोका पह गया है, स्वामीके बिना मैं परवश हो गयी है। हा कल्पक्ष! तुम क्यों फूलते हो, पतिके मरनेपर कष्ट मुझे छेदे डालता है। हा तुम्बरु ! तुम्हारा गायन पर्याप्त हो चुका है, प्रियके बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। ललितांगको मैं कहाँ देखू? हा,हे स्वामी ! किस प्रकार कहाँ रहूँ। होनेवाली भवितव्यताको कोन टाल सकता है। यह कर्म देवसे भी बलवान है। मेरुके समान वर्णवाली, तपस्विनी-गृहिणीके समान कुछ-कुछ सुन्दरी मन्दराचल गयो। सौमनस वनको पूर्वदिशाके जिनमन्दिरमें जिनप्रतिमाको सिरपर धारण कर मर गयो । वहीं पूर्व-विदेहमें कमलों और सरोवरों से युक्त सफेद घरोंवाली पुण्डरीकिणी नगरी है।
पत्ता-जहां गृहशिखर पर नृत्य करते हुए तथा नवजलकणोंका आस्वाद करनेवाले मयूरने गृहशिखरोंके ऊपर लटकते हुए मेघोंको चूम लिया ॥५॥
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महापुराण
[ २२.६.१
णिवेसेण रम्मा
णहालग्गहम्मा। मुणिवेहि सोम्मा
जिणुट्ठिधम्मा। धणेणं समिद्धा
..... जसे पसिद्धा ... ... ... सुपणं पबुद्धा
वणं विसुद्धा । घणारामवंती
विसाला बसती। सुपायारदुग्गा
कयाणेयमांगा। अणेयादुवारा
अणेयप्पयारा। जणं महत्था
करणं कयस्था। भएणं विमुक्का
सया जाणिरिषका। इमीए पुरीए
क्षेमेओ मिरीए। महेणं महतो
गुणी पनदंतो। पहू चकचट्टी
सुमग्गाणुवट्टी। कर्यतो व्व दडी
सई तस्स चंडी। पत्ता लच्छि व सोहन लच्छिमइ तानु विडलि बच्छयलि विलगी ।।
शत्ति झसंके कुद्वएण मुक्की भन्लि व हियवइ लम्गी ॥६॥
अरिहरिणोडवियारणेवाहदु तहि सुंदरिहि तासु गरणाहहु । सिरि व सिरिप्पाहसुरहरवासिणि चविवि सयंपदतियसविलासिणि । सिरिमइ णामें तणुरु हुई। णाइ कुमारह कामविसूइ । पाय सकुंकुम किं तहि षण्णमि वम्ममुहावेसु व मण्णमि । तंबई पोमरायरुइचोक्खई रत्तठ किंरावंति ण णक्खई। पेच्छिवि तरुणिजाणुसंधाण मुणि वि करंति मयणसंधाणई । ऊरूवाहियालिअंतरि चुत कासु ण चलइ वप्प मणदु । कासु ण णिपणासिष्ठ कवै कित्तणु सोणीगैख्यत्तणि ण गुरुन्तणु । मयरद्धयहुयवधूमावलि रोमावलि तरुणहं हिययावलि। णाहिकूड रइवाइरससासणु तिवलिभंगु वयभंगपयासणु । थर्णथडढतें विडथदत्तणु अयसैणासह विसेण विसत्तणु । यम्मभूमि जासु देही कर तासु जि कामकुंड थिउ सुहय । घता-पोफैलिकंठसमाणहो कंठह कोण होइ उकठिन ||
मुहरसु मुद्धहि सिद्धग्सु सुहसुवण्णसिद्धियरु परिट्ठिल ।।७।। ६. .१.जिणोदि{ । २. Bormits this foot | ३. MP विबुद्धा। ४. MBP add after this:
गुणाणं पवित्ती। ५. MBP add after this : महातेमवंती । ६. MBP सपायार। ७. MBP
अगोयदुवारा । ८. B रएणं । ९. P हमेंया सिरीए । ७. १. B वाबहु । २. MK कियकित्तणु । ३. MBPK सोणीगष्यते ण । ४. MK गुरुयत्तणु ।
५. M roads this line as : अबसें णासह विसेण विसत्तणु, षणषड्ढत्तै विषड्डत्तणु । ६. P गिन । ७. MB कोकिलक: कोकिलिकंट।
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२२, ७.१४]
हिन्दी अनुवाद
जो रचनामें सुन्दर है, जिसके प्रासाद आकाशतलको छूते हैं, जो मुनीन्द्रोंके द्वारा मौम्य है, जिसमें जिनके द्वारा उपदेशित धर्म है, जो धनसे समृद्ध और यशसे प्रसिद्ध है, जो शास्त्रोंसे प्रबुद्ध और व्रतोंसे विशुद्ध है, जो सघन उद्यानोंसे युक्त है और विशाल बस्तीवाला है, जिसमें प्राकार ( परकोटे) और दुर्ग हैं। जिसमें अनेक मार्ग हैं। जिसमें अनेक प्रकारके कई द्वार हैं। जो जनोंसे महार्थवती है और कृत्योंसे कृतार्थ है, जो भयसे विमुक्त और सदेव चोरोंसे रहित है उस नगरी में लक्ष्मीसे अप्रमेय महानसे महान् गुणी वज्रदन्त नामका चक्रवर्ती राजा है जो सन्मार्गका अनुकरण करनेवाला है। कृतान्तके समान वह दम्ड धारण करता है और उसकी प्रिय पत्नी सती है।
पता-लक्ष्मीवती वह लक्ष्मीके समान उसके विशाल वक्षस्थलपर लगी हुई शोभित है, मानो जैसे क्रुद्ध कामदेवके द्वारा मुक्त भल्लोके समान हृदयमें जा लगी हो ।।६।।
शत्रुरूपी हरिणसमूहको विदारणके लिए ज्याषाके समान उस राजाफा उस सुन्दरीसे श्रीके समान, श्रीप्रभ सुरविमानमें निवास करनेवाली स्वयंप्रभदेवसे विलास करनेवाली (स्वयंप्रभा ) धोमती नामकी कन्या हुई, जो कुमारोंके लिए कामसूचीके समान थी। कंकुम सहित उसके पैरोंका क्या वर्णन करूं, मैं उसे कामदेवकी मुद्राका अवतार मानता हूँ। पराग मणियोंकी कान्तिकी तरह चोखे और लाल उसके चरण क्या नक्षत्रों की तरह शोभित नहीं होते। उस तरुणीके घुटनोंके जोड़ोंको देखकर मुनि लोग भी कामदेवका सन्धान कर रहे है, उसके उररूपी अश्व क्रीड़ास्थलके भीतर गिरी हई, किसकी बेचारी मनरूपी गेंद नहीं चलने लगती। उसकी करधनीको गुरुताको देखकर किसका गुरुत्व और यश नष्ट नहीं हुआ। उसकी हृदयावली और रोमावली युवकोंके लिए कामदेवकी अग्निको धूम्रावली थी। इसका नाभिरूपी कूप रतिरसका शासन था। और त्रिवलिभंग उसकी उम्र के भंगका प्रकाशन पा। उसके स्तनोंकी सघनतासे विटोंकी सघनता (दुष्टता) अवश्य नष्ट होगी, विषसे विष अवश्य नष्ट होता है। जिसका शरीर कामदेवकी भूमि था, और उसका हाथ शुभ कामकुण्डके रूपमें स्थित था।
पत्ता--पूगफलके कण्ठके समान उसके कुण्ठको देखकर कोन उत्कण्ठित नहीं हुआ। उस मुग्धाका मुखरस शुभ सुवर्णकी सिद्धि करनेवाला सिद्धरसके रूपमें प्रतिष्ठित था ॥७॥
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महापुराण
[ २२.८.१
बहुवपणहिं णयणहि कयरायउ रत्तर एक्कवण्णु जगु जाय । कासु ण हित्तउ किर धुत्तचणु । भव्हावंकत कत्तणु । अंगोवंगपएसधुलतई
केसपासु पासु व परचित्तहै। जादि रूप सूरैगर ण विचक्कर .. जा षण्णई फणिवाइ वि | सक्कइ । सा जामच्छ मनलियणेती
सिरिहार सत्तमभूमिहि सुसी। पिसि ससहरकरहिमलय लेंती सालसु अंगविलासु पहंती 1 मणहरवणु जसहरु जिणु आयउ कहि मिणे मायज देयणिकायत । वीणावंसमउंदणिणेहि
णाणाथोत्तवित्तथुइसहहिं । ता उहिउ कलयालु गरआरत वियलिच कण्णहि णिहाभारत । घत्ता-सुर जोयंतिहि ताहि तहिं जम्माषरणई खणि ओसरियई॥
सरगमवंचर संभरिवि थकाई मणि ललियंगहु चरियई ८॥
हा ललियंग देव पभणती पंडिय स महियलि तणु विहुणंती। मुच्छिय सिंचिय सलिलणिवाई आसासिय चलवामरवाएं। उष्ट्रिय णीससंति अइरीणी दइयविओर्गवैयविदाणी। बम्महु अ8 वि अंगई ताव चित्त जलह जलइ जणियावइ । मलयाणिलु पलयोणलु भावर भूसणु सणु करि बद्धः णावइ । अहिं संजायउ चित्तु जि सयदलु तहिं किं किंग्जइ सीयलु सयदलु । पहाणु सोयण्डाणु व णउ साइ वसणु वसणसंणिहु सा सुश्च । असुहास व आहारु ण गेण्ह णंदणवणु पित्रवणसमु मण्णइ । फुल्लु णयणफुल्लु व असुहावन । तंबोलु षि बोलु व कयतावउ । पुरु जमपुर व घरु वि अरइयरउ परहृयलवित्र महुरु णं महुरड । गेयसरु विगं रिचमुक्कर सस सवलहण सबलहणु व दिहिहरू। चंदगु इंधणु विरह यासह ता सेहीहिं विपणवित्र महीसहु । घत्ता-आवेप्पिणु लच्छीमइइ सह सपियाइ पईहरवाहे ।।
पियसुमरणदुहनुम्मणिय दुहिय णिहालिय गरवरणा ।।२॥
८... MP विहवपणहि रयणहि: B विहवहिं रमणनि । २. M हित्तई। ३. MBK केसपास ।
४. MBP सुरगुरु वि ण अबइ। ५. : समाज । ६. P°णिण हि । ७. युइभहि ।
८. M गुटवभवंत। ९. १. AMBI पटिय महीयलि । २. MRP "णिहाएं। ३. MIBP उट्ठी । ४. MBPK विभो ।
५. AMBP अट्टई अंगई। ६. BP पलयाणिलु । ७. MBP पमहयं । ८. MRP विरह । ९. M महोइ।
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हिन्दी अनुवा
८
अनेक रंगोंवाले नेत्रोंसे राग करनेवाला अनुरक्त विश्व उस समय एकरंगका हो गया । भौंहोंकी वक्रतासे उसने किसकी घूर्तता और वक्रताका अपहरण नहीं किया। उसका केशपाश अंगोपांग- प्रदेशोंके निकट आते हुए दूसरोंके चित्तोंके लिए पाशके समान था। जिसके रूपका बृहस्पति भी वर्णन नहीं कर सकता। नागराज भी जिसका वर्णन नहीं कर सकता। वह जब आँखें बन्द किये हुए, श्री हमें सातवीं भूमिपर, चन्द्रकिरणोंसे हिमकणोंको ग्रहण करती हुई अलसाये अंगविलासको धारण करती हुई रात्रिमें सोयी हुई थी कि मनहर उद्यानमें यशोधर नामक जिनवर आये। देवसमूह कहीं भी नहीं समा सका । योणा-वंश और मृदंगों के मिनादों, नाना स्तोत्रवृत्तों की स्तुतिशब्दों से भारी कोलाहल उठा । उससे कन्याका निद्राभार खुल गया ।
२२. ९.१४ ]
पत्ता- वहाँ देवों को देखते हुए उसके जन्मावरण एक क्षणके लिए हट गये। स्वर्गके जन्मान्तरोंको याद कर उसके मनमें ललितांगको लोलाऐं बैठ गयीं ||८||
ललितांग क्षेत्र | यह कहती हुई, अपना सिर पीटती हुई धरतीपर गिर पड़ी। मूच्छित उसे पानीको धारासे सोचा गया। चंचल चमरोंकी हवासे आश्वस्त हुई। अत्यन्त दुबली वह निश्वास लेती हुई उठी, प्रियके वियोगको अनुभूतिसे खिन्न। कामदेव उसके बाठों अंगों को जलाता है। डाला हुआ कष्टकर गीला वस्त्र जलता है, मलयपवन प्रलयानक जान पड़ता है, भूषण हाथमें ऐसा लगता है जेसे सन बंधा हुआ हो । जहाँ चित्तके सौ टुकड़े हो गये हों वहाँ शीतल वातदलसे क्या किया जाये ? स्नान शोकस्तान के समान उसे अच्छा नहीं लगता, वस्त्रको वह व्यसन के समान समझती है, प्राणोंके आहार की तरह वह आहार ग्रहण नहीं करती । नन्दनवनको वह प्रेतवन समझती है। फूल नेत्रकी फुलीके समान असुहावना लगता है, ताम्बूल भी बोलकी तरह सन्तापदायक है। पुर यमपुरके समान और घर भी अरतिकर है। कोकिलका मधुर आलाप मानो विष है । गीतका स्वर ऐसा लगता है जैसे शत्रुके द्वारा मुक्त तीर हो । चन्दनादिका लेप स्वबल घातक के समान धैर्यं हरण करनेवाला था । चन्दन विरकी ज्याला के लिए ईंधन था । सहेलियोंने जाकर राजा से निवेदन किया ।
पत्ता-- ( अपनी पत्नी) लक्ष्मीवतीके साथ आकर लम्बी बांहावाले नरवरनाथने प्रियस्मरणसे दुःखित मन कन्याको देखा || २ ||
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६८
महापुराण
[ २२.१७.१
सुयरिब मुद्धा पुग्विल्ला वरु किं जाणहुं सुरु किणरु किं णरु । इय परिणामपचित्ति त्रियप्पिषि पंडियधाइहि पुत्ति समषिधि । गउ धरणीसुणिलेणु जावहिं पहरणउववणवालय तावहि ।
आइय दोहि मि काहि त णवैपिणु देव देव णिसुणहि मणु देप्पिणु । जसहरासु उध्यपणड केवलु आउसालहि चक्कु णिरगगेलु । वाराएं सीहासणु मेक्लिवि सिरमउडेण महीयलु पेल्लिवि । भगिउ जयहि अरईतभडारा जय संसारमहाणवतारा। जयहि तिसल्लघेल्लिगिल्लूरण सविणयसुयणमणोरहपूरण | धत्ता-तिमिम हणंतु करंतु दिहि उवसमवेतहु वियलिग हो।
तोबुग्गमिषन दिवसयर णाणविसेसु व सोहइ भव्यहो ॥१०॥
११
दंतघायांगरिभित्तिवियाणि करणतालअलिवारणि वारणि । कुलिसदसणु कयमणतमणिरसणु आरुहेवि ससिसियसुइणिवसणु । समवसरणु गठ सेण्णे स हियउ अण्णु वि जो एहत सो सहियउ । दिदा असोयह मूलि असोयउ कुसुमंचिच हयकोसुमसाय छ । दिव्ववाणि मुणि णिव्वाणेसह अमउ मयारिवीडि संठिप परु। चलचामा णिशामरसेविट भामंडल रुइमंडलदीप। दुहिरउ दुहिरवैणिवारणु लोयसार संसारुत्तारणु । छत्तसमासिउ छत्ततियालय अतियालउ संयुद्धतियाला । कमलासणु केसर जगि सो हर विस्थणाहु णामेण जसोहरु। देउ अणिविउ बंदिउ भावे वदतेण विसुद्धे भा। अवहिणाणु राएं, उप्पाइड रूपि दब्बु णीसेसु वि वेइन । घत्ता-विध कणयरसेण जिह लोड वि मित्तणु पडिवाइ ॥1
तिह जिणभायें भावियहो भवियहु णाणभाउ संपजइ ॥११॥
१०
पटु गुरु चंदिवि आय उ गेहहु तित्ति ण पुण्णी पुत्ति सहहु ।
आलिंगिवि अंके वइसारिय सा तप्पति तेण विणिवारिय ।
चवइ णिवइ चिरु पई जाणतट अबुइ सुरवरिंदु हा होता । १०. १. MRP सुमरिउ । २. MBP णिहलणि । ३, MBpधालहि । ४. 1111' आविधि । ५. NMBP
सुणिम्मलु । ६. MRP ना उग्गमियाउ । ११. १. ५ णिचामरु 1 २. P ददहि । ३. M दुहव'; T दुहिरव। ४. MBP उपायउ ।
५. 11B दिनु ।
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२२. १२.३.१.
Mono PWN
हिन्दी अनुवाद
2
१०
मुग्धा पूर्वजन्मके वरको याद करती है—क्या जानें कि वह सुर, नर या किन्नर है ? इस प्रकार परिणामों की प्रवृत्तिका विचार कर पण्डिता धायके लिए पुत्री समर्पित कर जब राजा अपने घर गया तो प्रहरण और उपवनके पालक वहाँ आये। दोनोंने प्रणाम कर राजासे निवेदन किया, " हे देन, ध्यान देकर सुनिए, यशोधरको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, और आयुधशाला में निर्वाध चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई है।" तब राजा सिंहासन छोड़कर सिरमुकुटसे घरती छूकर बोला, "हे अरहन्त भट्टारक ! आपकी जय हो, संसार समुद्रसे पार लगानेवाले आपकी जय हो, त्रिशल्योंकी लताओं को नष्ट करनेवाले आपको जय हो, विनीत और सुजनोंके मनोरथ पूरे करनेवाले |
पत्ता -- सब इतने में अन्धकारका नाव करता हुआ, उपशान्त और गर्वको विगलित करने वालोंके लिए भाग्यका विधान करता हुआ दिवसकर (सूर्य) उग आया जो भव्योंके लिए ज्ञान विशेष के समान शोभित है || १० ||
११
जिसने अपने दांतोंके आघात से गिरिभित्तियों को विदारण कर दिया है, और जो कानकि ताड़पत्रोंसे भ्रमरोंको उड़ा रहा है ऐसे हाथीपर बैठकर वज्र के समान दांतवाला, अपने मनके अन्धकारका निवारण करनेवाला, चन्द्रमाके समान श्वेत और निर्मल वस्त्र पहने हुए वह सेनाक समवसरण के लिए गया। दूसरा भी यदि ऐसा है, तो यह बात्माका हित करनेवाला है। अशोक उनको उसने अशोकवृक्ष के नीचे बैठे हुए देखा, कुसुमशायक ( कामदेव ) को नष्ट करनेवाले वह कुसुमसे अंचित, दिव्यवाणीवाले मुनि निर्माणके ईश्वर विकाररहित सिंहासनपर आसीन श्रेष्ठ । चामरोंसे युक्त, नित्य देवोंसे सेवनोय, भामण्डल के दीप्तिमण्डलसे आलोकित उनका दुम्बुभिका शब्द दुःखित शब्दका निवारण करनेवाला था । लोक में श्रेष्ठ और संसारका उद्धार करनेवाले | क्षतको आश्रय देनेवाले तीन छत्रोंसे युक्त स्त्री रहित और त्रिकालको स्वयं जाननेवाले । विश्व में वही ब्रह्मा केशव और शिव है, जो नामसे तार्थता बग़ोधर है। उन अनिन्द्यदेवकी उसने भावसे वन्दना की । बढ़ते हुए विशुद्ध भावसे राजाको अवविज्ञान उत्पन्न हो गया। उसको समस्त रूपो द्रव्योंका ज्ञान हो गया ।
धत्ता--- कनकरससे विद्ध होकर जिस प्रकार लोहा स्वर्णरूपमें बदल जाता है, उसी प्रकार जिनेन्द्र भावसे ध्यान करनेवाले भव्य जीवको ज्ञानभाव प्राप्त हो जाता है ॥११॥
१२
राजा अपने प्रभुकी वन्दना कर घर आया और अपनी कन्याको गोद में बैठाया । सन्तप्त हो रहो उसे उसने मना किया कि हे पुत्री ! स्नेह करनेसे कभी तृप्ति नहीं होती। राजा कहता है, मैं तुम्हें बहुत समय से जानता हूँ कि जब अच्युत स्वर्ग में में सुरवर था। तुम दूसरे स्वर्ग के विमान में
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महापुराण
[ २२.१२.४ बीरान दापि विमाणि पिल्हामिटि ... तुई बलियंगह तणिय विलासिणि । महरालाविणि पाणपियारी व हिं हूई धूव महारी।। मा झिजहि सो तुज्झु मिलेसइ हार व उररुहजुयलि घुलेसइ । बालहि मइ वीलइ पच्छाइय पुणु विधाइ पहुणा संकेइय | दुत्थिउ जयंणु कूरसराबहु गोगाइहि खक खरहु सरावहु । उल्हावियपिओयसंताबहु णवजोवणु जणु कामालावतु । विबुहहु बुहु गोवालु वि गोवहु महिलहि महिल जाइ समारहु । णिषेण कहि वि दिढतकहाण एणु दिग्विजयाटु दिण्णु पयाणउं । पत्ता-आचियतणु थरहरिउ फणिवा भीयउ कि पि ण जंपइ ।।
इयगयरहणरपयदलिय जंत राएं मेइणि कंपइ ॥१२॥
तरलतमालतालतालीपणि
गइ णरिदि वकंकल्ली वणि । फलिहसिलायलम्मि आसीणी परभवपियसंभरणे झीणी। सुइरु महामहाउ संचालिषि कोमलकरकमले तणु लालिवि । एकहिं दिणि करणिहियकवोली पंडुगंडविलुलियचिहुराली । णघकर्थलीकंदलसोमाली कंचुईइ औउपिछय वाली। पुत्ति पुसि मोणत्याउ छ.हि पुत्ति पुत्ति तणु तणुलय मंडहि । पुत्ति पुत्ति फि अप्पउ दंडहि पण्णवीडि दंतग्गहि खंडहि । मायहि गुज्झु काई किर रक्खहि मझु वि कि णियमणु ण समक्खहि । पत्ता- आयण्णिवि रायसुय णीससंति णियजम्मु पयासह ।।
घरणि व वेलिहि मझु तुहुँ जणणि माइ तुहू काई ण सीसइ ।।१३||
धाद इसडि मेरुपुग्विजय पुवविदेहि देसि धिमइ । भूयगाव जिह लोयपसिद्धव पाडलिगाउं अस्थि धणरिद्वार। गारसड्छ जो तवसि वसिल्लु व करिसणजाण उ जो संकरिल्लु व । पविउलग्खलु वि ण जो खलसंकुलु जो हलहरु चि मुत्रणि ण मणिज बलु । जो करि ब गरवाइढोइयकर बहुकंकगु प वर कामिणिकरु । कछुजलु णं गिहिवयधारउ णियबइरक्खिउ णं सेवारउ |
णागयत्तु णामें तहिं वणिवरु मुरहवहुल्लियाहि वल्लहु वरु। १२. १. MRP विलासिणि । २. MJP लाणि । ३. MB बाल एम वोलह । ४. MP जाडयण ।
५. R उण्हाथिय । १३. १. MP तहिं कफेल्लीणि; B तहिं किस्लोवणि । २. MBP कयलीसुकंव' । ३. ABP आ उच्छी ।
४. MIP छड्डहि । १४. १. MB पाय; P धाइयं । २. T भूपगामु । ३. MB सकरिल्ल ।
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२२. १४.७]
हिन्दी अनु
अपनी दिक्षी
निवास करनेवाली थीं। तुम ललितांग देवकी स्त्री थीं। और इस समय तुम अत्यन्त मधुर बोलनेवाली और प्राणप्यारी हमारी कन्या हुई हो। तुम दुबली मत होमो, वह तुम्हें मिलेगा और हारकी तरह दोनों स्तनोंके बीच व्याप्त होगा। बालाकी बुद्धि लज्जासे माच्छादित हो गयो । फिर उसने (पिताने ) धामको इशारा कर दिया। इस प्रकार दृष्टान्त और कहानियाँ कहकर उस राजाने दिग्विजय के लिए कूच किया।
धत्ता - नागराज अपना शरीर संकुचित कर थर्रा उठा डरकर वह कुछ भी नहीं बोला । राजाके चलने पर अध-गज-रथ और मनुष्योंके पैरोंसे पददलित होकर धरती काँप उठती है ॥ १२ ॥
१३
राजाके चले जानेपर, चंचल तमाल ताल और ताली वृक्षोंसे सघन, नव अशोक वनमें, महावृक्षों को बहुत समय तक संचालित कर और कोमल हाथरूपी कमलसे शरीरको सहलाकर वह स्फटिक शिलातल पर बैठी हुई थी। एक दिन, जिसने अपना हाथ गालोंपर रख छोड़ा है और . जिसके सफेद गण्डतलपर बालोंकी लटें चंचल है, ऐसी नवकदलीके पिण्डके समान कोमल वस बालासे घागने पूछा, "हे पुत्री ! हे पुत्री, तुम मौन छोड़ो। हे पुत्रो, पुत्री ! कृश शरीरलताको अलंकृत करो। हे पुत्रो, पुत्री ! अपनेको क्यों दण्डित करती हो । पानके बौड़ेको अपने दांतों के अग्रभागसे खण्डित करो। हे आदरणीये, तुम रहस्य छिपाकर क्यों रखती हो ? क्या तुम अपना म मुझसे भी नहीं कहतीं ।
घत्ता - यह सुनकर राजपुत्री निःश्वास लेती हुई अपना जन्म प्रकाशित करती है, ( और कहती है ) लताके लिए धरलोके समान तु मेरे लिए जननी है। हे मां, तुमसे क्या नहीं कहा जा सकता ||१३||
१४
मेरु पूर्व घातकी खण्ड में पूर्व विदेहके गन्धिल्ल देशमें, भूतग्राम ( शरीर ) की तरह प्रसिद्ध धनसे समृद्ध पाटली गांव है, जो वशी तपस्वी के समान गोरसादय ( गोरस और वाणोरस से युक्त ) है, जो हस्तिपालक के समान, करिसन • जानउ (कर्षण और हाथी शब्दके जानकर ) हैं, विशाल खलियानों से भरपुर होते हुए भी खलजनोंसे दूर हैं, हलधर होते हुए भी जिसे बलराम नहीं कहा जाता, जो हाथी के समान राजाके लिए ढोइयकर (कर देनेवाला, सूंड़पर ढोनेवाला) है, जो मानो उत्तम कामिनीका हाथ था, वरकंकणु ( बहुजल-धान्यसे युक्त और स्वर्णवलय से युक्त ) कसे उज्वल जो मानो गिरिपथको धाराके समान था, जो सेवकमें रतके समान, निजवs { अपने स्वामी, अपनी मेंढ़) की रक्षा करनेवाला था। उसमें नागदत्त नामका वणिक् था, जो
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[२२.१४.८
महापुराण गर्दु णदिमित्त वि सुउ जायउ दिसेणु वहि गम्भि समायउ । पुणु माय मणमोहणु ल द्धउ धेरसेणु विजयसेणु थणद्धष्ट ।
पत्ता-सिरिवह सिरिहर वणितणय अपर विहां तिजी लाहुयारी ।। :: :: ... भगा पितृणापिणि विसम दालिदिणि जर्ण विप्पियगारी ।।१४।।
:::
१५ अम्हारउ घर मोक्खु विसेसह णिक्कलसणीरंजणु दीसइ । णिदणु ण घणणासि णहंगणु णिक्कणु तोटी व सारियरणु । णीरसु कबु व कुकइहि केरठ 'तं जिह तिह पुणु गिरलंकारत । अट्ठभाज इंडई दो पियरई कयस्खलचणयमुद्विआहारई। कडियलवेदियवक्कलवासई हडहडफुट्ट फरसमिरकेसई । अम्हई दहजणाई तईि सयणई कलहंतई भासियदुव्ययणई। पंडुरपचिरलदीहरवंतई
जावच्छतुं परकम्मु करंतई। वारणचरियहु तरसंगह तावेक्कर्हि दिणि ह गये रपणह । सहि अंबरसिलयम्मि महीहरि विहरतियह महीरवरीइरि। सरले रियपत्तहु तंविरयह मई बोलि भरिय माहुरयहु । अण्णु वि दारभारु गरयार सीसि णिहिल णं दुक्नई भारउ | धत्ता-जा पल्लमि णियघरहो ताम लोउ मई एंतु पलोइउ ॥
रयणालंकारहिं विफुरिज जिणु बंदहुं णं सुरंयणु आइ ||१५||
ता कटुभारु महियलि धिवेदि पुच्छियउ हेउ ता तेण वुत्तु सिद्भुत्थकामु जो मुक्कसत्थु जो चुह णिहाणु
णं दुक्खभारु। णरु मई णवेदि। कहिं चलिउ लोड । सुतिगुत्तिगुत्तु। जो जित्तकामु 1 भणधरियमत्यु। गुणमणि णिहाणु।
४. M गंदि गंदिमित्तु वि सुट जायउ; B दिमिन्नु गदि वि सुउ जायर; PMदि गंदिमित्त वि संजायउ । ५. MBPK परसेणु । ६. P जयिप्पिय but adds°मण in thi; margin hit
ween जण and विप्पिय ।। १५. १. MBPK तोणीरु । २. M जं जिह । ३. MK गज। ४. MBP तहिं पुणु अंबरतिलयमहीहरि ।
५. MB सरलु । ६. M भरय । ७. MBPK दुक्किय 1 ८. MBP फुरिज । ९. M सुरयणु
घाइज; P सुरमणु 'पहिला । १६. १. P पुछियउ । २. G omits this fool; K however adds the margin | ३. M मगि
परिय ।
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२२. १६.६]
हिन्दी अनुवाद
७३
सुरतिके समान अपनी वधूका प्रियवर था। उसके नन्दी ओर नन्दीमित्र पुत्र हुए। नन्दीसेन भी उसके गर्भ में आया, फिर माता मनमोहन, घरसेन ( धर्मसेन ) और विजयसेन पुत्र हुए।
घता - और भी उसकी पत्नीसे श्रीप्रभा ( श्रीकान्ता ), श्रीधर ( मदनकान्ता) पुत्रियाँ हुई, तीसरी में सबसे छोटो नामसे निर्नामिका विषम दरिद्रा और लोगों का बुरा करनेवाली ||१४||
१५
हमारा घर मोक्षसे विशेषता रखता था । वह निष्कलश ( कालुष्य और कलशोंसे रहित ), नीरंजन ( शोभा और कलंकसे रहित ) दिखाई देता है। मेघके नष्ट होनेपर, नभके आँगनके समान विद्धणु ( घन और घनसे रहित ) तूणीरके समान जो निष्कण ( अन्नकण ) सारियरणु ( युद्धका निर्वाह करनेवाला, ऋणसे निर्वाह करनेवाला ) था । जो कुकविके काव्य की तरह नौरस था, और जिस प्रकार वह कार भी कसे रहित था। आरु भाई-बहन रीतल दो हण्डे ! खल और चनोंको मुट्ठोका आहार करनेवाले । कमर तक वल्कलोंके वस्त्र पहने हुए, निकले हुए स्फुट होठ, सफेद केशराशि उस घर में हम दस लोग थे, आपस में लड़ते हुए और कठोर शब्द करते हुए। सफेद बड़े विरल लम्बे दांतोंवाले हम दूसरोंका काम करते हुए रह रहे थे। जिसमें हाथी विचरण करते हैं और जो पेड़ोंसे आच्छादित है, ऐसे उस जंगलमें एक दिन मैं गयो । वहाँ गम्भीर घाटियोंको धारण करनेवाले अम्बरतिलक महोधर में घूमते हुए मैंने ताम्र और माहुरके हरे पत्तोंसे झोली भर ली। और भी भारी लकड़ियोंका भारी गट्ठा सिरपर रख लिया, मानो दुःखों का भार हो !
धत्ता - जैसे ही में अपने घर लौटती हूं तब मैं लोगों को आते हुए देखती हूँ । रत्नों और अलंकारोंसे चमकते हुए सुरजन मानो जिनवरकी वन्दना करनेके लिए आये हों ||१५||
१६
उस लकड़ी के भारको, मानो दुःखोंके भारकी तरह धरतीपर रखकर, एक आदमीको नमस्कार कर कारण पूछा कि लोग कहीं जा रहे हैं। तत्र उसने कहा- "जो तीन गुप्तियोंसे युक्त, सिद्धार्थकाम और जितकाम हैं, जो परिग्रहसे रहित, शास्त्रोंको मनमें धारण करते हैं, जो के लिए कोष हैं, गुणरूपी मणियोंकी खदान हैं, जिन्होंने मोहपाश धो दिया है, जो तमूलमें
२-१०
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महापुराण
[२२. १६.८ धुयमोहवासु
सरुमूलषासु। जो पाउसेसु
चम्मष्टिसेसु। गयसरिरयालि
जो सिसिरयालि । वहि सयणसाई
जो सुअवसाई। तिवण्जे ट्रि ......... ....
... : वामाइटि! . . रवियर विसहइ
जोएण सहई। जो मुणिससंकु
इयपरमसंकु। तहु गपि वासु
पिहियासबासु। पर्णवति पाय
पुच्छति राय परलोयमग्गु
सग्गापवग्गु । चिरसंभधाई
जाणइ भवाई। रिसि गाणधारि
जिणधम्मचारि। इह गिरिवरम्मि
सो कैदरम्मि। णिवसइ कुलीणि
दोगस्वस्वीणि । घप्ता-ता मई थोरथपश्यलिए दंडिखंड पसरेप्पिणु थवियः ।
पइसिवि साहु महासहहि जइपयजुयलउ भत्तिइ णवियउ ॥१६||
तवपहावविभावियवासबु पुच्छिउँ पुणु तेहिं सो पिहियासप। कवणे दइवें ए दालिदिणि हूई वोग्गयणोसणियविणि ।। कहहि वेव तुहं सघन जाणहि दीण वि मई पियवयणे पीणहि । ता पभणह समणगणपहाणउ दीणु वि राज वि मझु समाणन | णिसुणि पुचि अक्खमि जम्मंतर आसि कयत जंपई कम्मतरु । गामि पलासपुषि तहिं गहवर देविलु सुमइ तासु रंजियमइ। गेहिणि ताहि धूय तुहूं हूई हेलिय जुवाणहंण रदूई। वीयरायसिद्धंतु पतहु
जीवाजीवभेय भारतहु। एकहि दिणि वणि खं दिसणाहतु इसिधि समाहिगुत्तमुणिणाहहु । अपयाणइ पई उप्परि घत्ति रिसिणा तणुभूसणु व विचिंतिउ । किमिक्कुलपूयरुहिरदुगंधर पयडियदंवउ विडियरंधर | सुणहकलेवरु दियहि दुपज्जा तेव जि पुणु वि पदिट तइन्जाइ । पत्ता-णत तूंसहि हसति ण वि सुइ कंदप्पदप्पखयगारा॥
जो मंडइ जो खंडह पि विहिं मि समाणा समणभडारा ॥१७॥ ४. B"मूलु। ५. P पावसेनु । ६. MB add after this: बरिसंति मेहि, दुहु मयि देहि ।
७. M पणवंत । ८. MBP महासहहो । १७.१. MBP वासउ । २. MBP पुग्छिउ तें पृणु सो। ३. MBP पभणाइ मुणि समणपहाणउ । ४. MP
पई। ५. MBP गाम । ६. MB ललिय । ७. MRP तेम जि पुणु पई दिछ । ८. MBP तुसंति ।
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२२. १७. १४]
हिन्दी अनुवाद निवास करते हैं, जो पापसे रहित हैं, जिनकी चमड़ी और हड्डियाँ ही शेष बची हैं, जो नदियों के वैगसे रहित शिशिरकालमें बाहर शयन-आसन करते हैं, जो षड् आवश्यक कार्य करते हैं, जो तीन उष्णतासे महान् वैशाख और जेठमें रविकिरणोंको सहन करते हैं, योगसे शोभित होते हैं, जो मुनि शशांक (मुनिचन्द्र ) दूसरोंको शंकाको दूर करते हैं। ऐसे पिहितास्रव मुनिके वासपर जाकर राजा पैर पड़ते हैं और परलोकका मार्ग तथा स्वर्ग अपवर्गके विषयमें पूछते हैं। वह पूर्वके जन्मोंको जानते हैं। ऋषि ज्ञानधारी हैं और जिनधर्मका आचरण करते हैं, वह इस गिरिवरको धरतोमें लीन दुर्गतियोंके नष्ट करनेवाली कन्दरा (गुफा) में रहते हैं।"
घत्ता-तब स्थूल स्तनोंवाली मैंने अपना जीर्ण-शीर्ण वस्त्र फैलाकर स्थापित किया और महासभामें प्रवेश कर साधुके चरणकमलोंको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया |१६||
१७
अपने तपके प्रभावसे इन्द्रको प्रभावित करनेवाले पिहितानब मुनिसे उन लोगोंने पूछा, कि मैं किस देबसे दरिद्र और नीचगोत्रको स्त्री हुई। हे देव बताइए, आप सब जानते हैं, दान भी मुझे प्रिय वचनसे प्रसन्न करिये ।" तब श्रमणगणोंमें प्रमुख वह कहते हैं कि दोन और राजा, दोनों मुझे समान हैं। हे पुत्री ! सुनो, में जन्मान्तर कहता हूँ। दूसरे जन्ममें तुमने जो कर्मान्तक किया था। पलाश गांवमें वहां एक गृहपति था देवल नामका । मति रंजित करनेवाली उसकी सुमति नामकी पत्नी थी। उसकी कन्या तू हुई। किसान-कन्या होते हुए भी तू युवकोंके लिए मानो रतिको दूती यो। वीतराग सिद्धान्तको पढ़ते हुए, जीव और अजीवके भेदका विचार करते हुए, शान्तिसे युक्त समाधिगुप्त मुनिनाथको हंसी उड़ाते हुए एक दिन वनमें तुने कृमिकुल पोपरुधिरसे दुर्गन्धित, निकले हुए दांतोंवाला और खण्डित और छेदोंवाफा कुत्ता उनपर फेंका । लेकिन मुनिने उसे शरीरका भाभूषण समला। दूसरे दिन भो और तीसरे दिन भी तूने कुत्तेके शरीरको उसी प्रकार देखा।
पत्ता-पवित्र तथा कामके दपंको नष्ट करनेवाले मुनि न तो सन्तुष्ट होते हैं, और न प्रसन्न होते हैं, चाहे कोई अलंकृत करे और चाहे खण्डित करे दोनोंमें ही आदरणीय श्रमण समान रहते हैं ॥१७॥
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७६
महापुराण
[२२.१८१
१८
पेच्छिवि मुणि परिहरियसकायष्ठ तुह अणुकंपभोउ संजायस । भसणसरीरु चित्तु अण्णेत्तहि पई णयणेहिं ण दीसाइजेत्तहि । पणड करेप्पिणु जोइ खमावित तेण जि खमभाउ जि संभावित । ईसि समेग मरेवि असुहाउलि तुई हूईसि एत्थु दुग्गेयकुलि। धम्में मुहि दुक्रियदुक्खा धम्मु णिसुणि सुइ कारणु सोक्खड्ड। फणिचरणई जगि को अहिणाणा परमत्येण धम्मु को जाणइ । लोइयधम्मु होई जलण्हाणे षीरपुरिसभंडणवखाणे। धम्मु होइ पुणु घृणु अचवणे पाहाणुप्परि पत्थरठवणे। धम्मु होइ घइ णियमुहदसणि धम्मु होइ सुरहीतणुफंसणि । धम्मु होइ तिलपायसमोयणि धम्मु होत आसत्यालिंगणि। धम्मु होइ गोशुष्ट चित्रहु . . ... ..याम माहुः । धम्मु होइ पलवेगु करतह छेलउ कुकुदु किद्धि मारतहु । पत्ता-एहु कुलिंगु कुधम्मु सुए एण णवर दुगइ जाइज्जइ ।।
जिणणारेण पयासियत धम्मु अहिंसालक्खणु किलह ॥१८॥
मेहलकण्हाइणदभयणई घरिवि काई जणु मारइ हरिणई। किं लिंगेण लिंगिसंदोहहु
जाइ णध मुच्चइ णि जि कोहहु । अंतरंगु जसु सुद्ध ण दीसह कायफिलेस तहु कि होस । दंडव अप्पन मैणिबिहियारउ वासु तहे दिल भवसंसारख। भवसमेपुवाणुव्वयधारहिं अलिउ म पहि जीउ म मारहि । करपल्ला परवधिणि म ढोषहिं परपुरिसु वि सराव मा ओयहि । मुयहि संगु बहुलोहुप्मायणु रयणीभीयणु दुक्ख भायणु । अवरुपाचपोसह परिपालहि जिणपहिबिबई मिष णिहालहि । अहिसिंधिवि अंचिषि गियससिह ताई णवेजसु गरुयह भत्तिह। तुसगासु वि उपसंतहु देवसु णियमएण गियमणु गियमेजसु । पत्ता-पण्णासत्तरु सस वि सियपंचमिहि बालि जइ वसहि ।।
सुयरि मुणिकरि जं किया तो तुई तं चिरदुरित पणासहि ॥१९॥ १८. १. MP परिहरियकसायर; B परिहरिसंकाय । २. भाव । ३. MBP इसि सक्सग्गें भरिधि ।
४. M असुहाल्छि । ५. MB दुग्गम । ६. M होय । ७. MBP फूड अच्चमणे । ८. MBP तणु
सुरही फंसणि । ९. P पियंतह । १९. १. B किं लिगिण सलिगिसंदोहह । २. MRP सीसह । ३. BPT मुणिमाहियार । ४. P वहिनि ।
५. P उक्सम् । ६. MBP जीव । ७. MBP Q तुई ।
१०
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२२. १९.१२]
हिन्दी अनुवाद
१८
७७
मुनिको अपने शरीर के प्रति त्यागभाव देखकर तुम्हारे मनमें दयाभाव उत्पन्न हुआ । तुमने उस कुत्ते के शरीरको वहाँ फेंक दिया, जहाँ वह आंखोसे दिखाई न दे। प्रणाम करके तुमने योगी से क्षमा मांगी। उन्होंने भी क्षमाभाव दे दिया करमरकर अशुभसे पूर्ण यहाँ इस नीच कुल में उत्पन्न हुई । पापका दुःख धर्मसे हो जा सकता है. सुख के कारण पवित्र धर्मको सुनो। संसार में सपिके पैरोंको कौन जानता है ? परमार्थ रूपसे धर्मको कोन जानता है ? लौकिक धर्म होता है जलमें स्नान करनेसे, वीर पुरुषोंके युद्धोंका वर्णन करनेसे, धर्म होता है बार-बार बाचमन करनेसे पहाड़के ऊपर पत्थरको स्थापना करनेसे । धर्म होता है धीमें अपना मुँह देखनेसे । धर्म होता है गायका शरीर छूने से धर्म होता है तिल और पायस भोजन करनेसे | धर्म होता है पीपल वृक्षका आलिंगन करनेसे धर्म होता है गोमूत्र पीनेसे । धर्म होता है मधु और मयके रसास्वादन से धर्मं होता है मांसका वेधन करनेसे धर्म होता है बकरा, मुर्गा और सुअरको मारनेसे ।
1
धत्ता - हे पुत्री, यह कुलिंग और कुधर्म है, इससे केवल नरक गतिमें जाया जा सकता है। इसलिए जिननाथ के द्वारा प्रकाशित अहिंसा लक्षण धर्मका आचरण करना चाहिए ||१८||
१९
मेखला कृष्णाइन (काले मृगका चमड़ा ) और दर्भाकुर धारण करनेके लिए लोग मृगों की क्यों मारते हैं ? मुनियोंके समूह के चिह्नसे क्या, जबकि यदि वह निश्य ही क्रोधसे मुक्त नहीं होता । जिसका अन्तरंग शुद्ध दिखाई नहीं देता शरीरक्लेश से उसका क्या होगा ? मुनिको विधि करनेवाला स्वयंको दण्डित करे उसका भवसंसार वहीं स्थित है ? उपशमसे पूर्ण और अणुव्रतधारियों से झूठ मत बोलो, जीवको मत मारो, करपल्लव में दूसरेके धनको मत ढोओ। परपुरुषको रागदृष्टिसे मत देख, बहुलोभको उत्पन्न करनेवाले संगको छोड़ दे, रात्रिभोजन दुःखका कारण है, और भी पर्व के उपवासका पालन करो, जिनप्रतिमाओंके प्रतिदिन दर्शन करो, अपनी शक्तिसे अभिषेक और पूजा कर उन्हें भारी भक्ति के साथ प्रणाम करो । उपशान्तको भी तुष प्रास दो । नियमसे अपने मनका नियमन करो ।
पत्ता - हे बाले, यदि तू शुक्ल पंचमियों में १५० उपवास करती है तो श्रुतधारी उन मुनिपर तूने जो किया है, वह तेरा चिरपाप नष्ट हो जाता है ||१९||
REA
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५
१०
१०
૩૮
महापुराण
२०
ते दिंत दुम्म विलसद् । वंदणिज्जु णु किह णिविज्जइ । आसि जम्मिएवहि करि सकिन । तोतो पछुता ।
गुरु मि पिसुणत्तणु । एमप्माण णिदिषि गरद्दिवि । लग्गी सहि सुचववास । म दलिदिणी तर्हितयहुँ । छडिड सबजीषपेसुण्णजं । मोहि दीव दुल्ह तेल्लें |
[ २२. २०. १
मुणिहिं सरीरि परमु समु णिवसद्द चूडामणि किं चरणि णिहिज्जइ दुद्दितिय दुबोलिउ दुखिङ ता सा खविय तबिय गयगावें कालय शु मायामोहु मुवि मर्णे रोहिवि गय रसवs defa frयैवास काई वि दक्षिणुण विजय जयहुँ खलु पित्त दिणु दिष्णस जिस निणवरु दोणय हु घत्ता - पुज इंदु णराहिवर अवरु वि द्धिणु सिरिगइ भासह || एक्कु जि फलु मई अक्खियत जर मणि णिम्मलमति ण णासह ||२०|
२१
|
10
एम तेत्थु हवं चिरु जीवेष्पिणु पुणु आहार सरी मुएपिणु मुइय गंपि सामिाणह ललियंग महषि पह मुह पिययमि छम्मास जिएप्पिणु पि सुयरं तिहि चंदु वि तावड अचि अंगई हई अणंगे एम चवेष्पिणु पड आणाविज णियचररूप तहिं जि आलिडियट अण्णा कोलासंवाणई tors तरिरहरियई पत्षसंती पत्थरमंती एमपि गुज् ण रक्खि
गुरु उपसले ले परमक्खरहं पंच सुमरेष्पिणु । सिरपणा मिरमियगिव्वाणः । हूई जुइणिज्जियचंदष्पक्ष । इह हूई सग्गाउ चष्पिणु । चंदणु देहिण लग्गउ भावह। तुहुं किं णमुपद्दि इंगियलिंगें । नाडु लिपि बाइहि दायिउ । फुर व वेचलि संणिहियज । लिहियई संरिसर गिरिवरठाणहूं । धुत्त भई गूढई धरियहूँ । सो पहल हवं एही होती । सुंदरी यिहि अक्खि ।
२०. १. MBP कि भणू २ BP पच्छत्तावें । ३. BP पावहि । ४. MBPK मणू ण रहिषि । ५. MBP सनिवास । ६. P दालिद्दिणिएतहि । ७. MBP भोय |
२१. १. P° उवएलु । २. MB पावेपिणु । ३. Bomi is this foot ४. MBP पिय भरतहि । ५. B इंद्रियलिंगें । ६. MB सरसरि । ७. MBP गई । ८. MBP रइरससंचरियई । ९. P भए and gic ss भयेन । १०. MBP पिणु ।
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२२. २१. १३]
हिन्दी अनुवाद
७९
मुनियोंके शरीरमें परम सम निवास करता है, उनको निन्दा करनेवालोंको दुर्गति विलसित होतो है । धूड़ामणिको क्या पेरोंमें रखना चाहिए। जो वन्दनीय हैं क्या उनकी निन्दा करनी चाहिए। जो तूने उस जन्ममें, दुश्चिन्तित दुर्बोल और पाप किया था, इस समय यदि तुम कर सकती हो तो, गतगवं बार-बार पश्चात्तापसे तप कर उसे नष्ट कर दो। परन्तु मेरे पापसमूहमें पापका निवर्तन कैसा ? कि जिसने गुरुपोंके साथ भो दुष्टता की। मायामोहको छोड़कर मनका शोष कर इस प्रकार अपनी निन्दा और गहीं कर, ऋषिपतिको वन्दना कर अपने निवासपर गयी, और हे सखी, में उपवासमें लग गयो ( श्रीमती पायसे कह रही है। जब मेरे पास कुछ भी धन नहीं था, तब भी मुझ दरिद्राने उस समय सुपात्रोंको प्रतिदिन खल दानमें दिया और सर्वजीवोंके प्रति दुष्टताका भाव छोड़ दिया। मैंने दमनपुष्पसे जिनवरकी पूजा की और दुर्लभ { दूसरेसे याचित) तेलसे दीया जलाया।
पत्ता-चाहे इन्द्र पूजा करे, या चाहे राजा या निर्धन पूजा करे। श्रीमती कहती है, यदि मनमें निर्मल भक्ति है तो उसका एक ही फल है, ऐसा मैं कहती है ॥२०॥
२१
इस प्रकार वहाँपर मैं बहुत समय तक जीकर गुरुके उपदेशका अंशमात्र पालकर फिर आहार और शरीर छोड़कर, पांच परम अक्षरोंको याद कर मैं मर गयी और जाकर, जिसमें देवता रमण करते हैं, ऐसे श्रोप्रभ नामके ईशान विमानमें ललितांग देवकी, अपनी गुतिसे पन्द्रप्रभाको जीतनेवाली में स्वयंप्रभा नामको महादेवी हुई। प्रियतमके मरनेपर छह माह जीवित रहकर और स्वर्गसे न्युन होकर इस समय यहाँ उत्पन्न हुई हूँ। प्रियको स्मरण करते हुए मुझे चन्द्रमा सन्तप्त करता है। देहमें लगा हुआ चन्दन अच्छा नहीं लगता। कामदेव आठों अंगोंको जलाता है, इन्द्रियके चिह्नसे क्या तुम नहीं जानती। यह कहकर उसने पट बुलवाया और स्वामीका चित्र बनाकर पायको बताया। वहींपर उसने अपना पुराना रूप चित्रित किया और चमकते हुए वस्त्रके भीतर रख दिया। दूसरी-दूसरो कोड़ा-परम्पराओं, नदी-सरोवर और गिरिवर स्थानोंको भी उसने लिखा 1 और भी उसने उसमें रतिको रहस्य कोलाओं और पुर्तताके गढ़ भयोंको अंकित कर दिया। यहाँ रहती हुई, यहाँ रमण करनी हुई यह में हूँ और यह वह है। यह कहकर उसने कुछ भी गोपनीय नहीं रखा । सुन्दरीने अपना दिल बता दिया ।
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महापुराण
[२२. २१. १४ पत्ता-आणहि पंडिइ प्राणपूल फेडहि वम्महवाहि महारी ।।
__ भरह "पुष्पदंतुञ्जलिय अण्ण ण तियमई मगठयारी ॥२१॥ इय महापुराणमे तिसट्टिमहापुरिसगुणाकारे महाकापुष्कर्यतविरहए महामनमाहाणु. मपिणए महाकम्मे णिण्णामियाधम्मकंभो णाम बावीसमो परिपकमो समतो ॥२२॥
सधि ॥ २॥
११. MRP पाणपिल । १२. MJBP फुफ्फर्यतुं । १३. MBP णियमइ ।
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२२. २१. १४]
हिन्दी अनुवाद पत्ता--हे पण्डिते ! तुम मेरा प्राणप्रिय ला दो, मेरी कामको व्याधि शान्त कर दो। नक्षत्रोंको तरह उज्ज्वल और कोई दूसरी स्त्री मेरे समान मतिमें भारी नहीं है, तुम याद करो ॥२१॥
इस प्रकार प्रेसर महापुरुषोंके गुणालंकारोवाले इस महापुराणमें महाकषि पुष्पदन्त द्वारा विरचित
एवं महाभब्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यम निर्नामिकाधमलाम
मामका पाईसवाँ अध्याय समाप्त हुमा, २२
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१०
१५
संधि २३
तं णिणिव पड़ करयलि करिवि गय पंडिय जिनगेहहो || अखिल सुंतेय मोहरिय चंदलेह णं मेहहो ॥ ध्रुव ॥ उसक and gown, apa १
दुबई - एतहिंसा दिय विसहरू पिययमविरहवेयणं । एतद्दि पंडिया पविलोइड परमप्पयणिलणं ॥१॥ पर्वेणुदूधुयधयमाला चषलं हिमकुंद समाणसुद्दाधवलं । गायणगणगाइयजिणधवलं सिद्धंत पढणकलयमुद्दलं । गणगणलगभहासिहर इरुंद चंदकररासिहरं । जे क्खिक्ख पडिमा णिलयं विदुमतसंभयतल सिलयं । मरयमय भैसमुद्धरियं मणिमत्तवारणाकरियं । आयास फलिमयभित्तर्यल हरिणील निबद्धधरित्तियलं । God इधूवं गारवरं गुमुगुमुगुमंत मत्तालिस रं | लिपलिया चयं ओलंबियमोत्तियदामसयं । इसे पिणु तं मुणिणाघर णचिऊण जिणं जियजम्मजरं । पडु विचसि पसरिषि दाविय णायरण रेहिं परिभावियउ | धत्ता-- इय दसदिषु वत्त समुच्छलिय जो पडवइयर जाइ ॥ धरणीसरतेर्णयहि सिरिमइदि सो "थणजुयलं माणइ ||१||
२
दुबई - विविहारेणकिरण विप्फरणोद्दामिय फणिसुरेसरा । तामागतुंगतुरैयासण चल्लिय नरवरेसरा ||१||
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :
अङ्गुलिकलापमसमद्युति नख निकुरुम्वकणिक सुरपतिमुकुटकोटिमाणिक्यमधुव्रतचक्रचुम्बितम् । विलसदणुप्रतापनिर्मल जलजन्मविलासि कोमल
घटयतु मङ्गलानि भरतेश्वर तब जिनपादपङ्कजम् ॥
GK do not give in.
१. १. P सतेय । २. MBPK पवणयं । ३. M गायणगह । ४. M आनंद । ५. 1 विद जक्ख' । ६. MBP तलउभयं । ७. M खर्च । ८. P मयमत । ९. MBP भित्तियलं । १०. MBP उचाइयधूमंगाएँ । ११. P तणय K तण । १२. MBP जुयलज ।
२. १. Mहरणकिरण विष्फुरणो हामिय B हरण विष्फुरियणोद्दामिय; Pहणकरण विष्फुरिणोहामियं ।
"
२. P तुरयासणा ।
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1
सन्धि २३
I
यह सुनकर चित्रको हाथमें लेकर वह धाय जिनमन्दिर के लिए गयी । मानो अतिकुटिल, तेजवालों और सुन्दर चन्द्रलेखा मेघके लिए निकली हो ।
܂
वह राजपुत्र प्रियतमकी विरहवेदना सहन करती है, और वहाँ पण्डिता धायने जिनमन्दिर के दर्शन किये। जो पवनसे उड़ती हुई ध्वजमालासे चपल तथा हिम और कुन्द पुष्पके समान सुधासे धवल था। जिसमें गायक-समूह द्वारा जिन भगवान्के धवलगीत गाये जा रहे हैं, जो सिद्धान्तों के पठन के कलकल शब्दसे मुखर है, जिसके शिखर आकाश प्रांगणको छूते हैं, जो अत्यन्त विशाल चन्द्रमाकी किरणराशिको धारण करता है, जो यक्षों और यक्षिणियोंकी प्रतिमाओंका घर है, जहाँ तलशिला विद्रुमोंसे रचित है। जो मरकतमणियोंके खम्भोंपर आधारित है, मणिमय मत्तराजों से अलंकृत है। जिसका भित्तितल आकाशके स्फटिक मणियोंसे निर्मित है और भूमितल हरे और नील मणियोंसे रचित है। जहाँ अंगारवरमें धूप लेई जा रही है, जिसमें गुनगुनाते हुए भ्रमका स्वर हो रहा है, जहां चढ़ाये गये पुष्पित पुष्पों का समूह है, जहाँ सैकड़ों मोतियों की मालाएं लटक रही हैं, ऐसे मुनिनाथके उस घर में प्रवेश कर जन्म-जराको जीतनेवाले जिनको नमस्कार कर, उस धायने चित्रपटको फैलाकर दिखाया । नागरनरोंको वह बहुत विचार किया 1
पत्ता - इस प्रकार दशों दिशाओं में यह बात फैल गयी। जो चित्रपटके वृत्तान्तको जानता है वह श्रीमती के स्तनयुगलको मानेगा ( आनन्द लेगा ) ॥ १ ॥
२
विविध आभरणोंकी किरणोंके विस्फुरणसे नागों और देवेन्द्रोंको तिरस्कृत करनेवाले नश्वरेश्वर हाथियों और ऊंचे घोड़ोंपर बैठे हुए चले। जिसने श्वेतता में सफेद शरद्को पराजित
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[२३. २. ३
महापुराण सेयत्ते णिजियसियसरयं णिव सियविरयं वारियणरयं । पत्ता राया तं जिणहरयं दुनियहरयं सुभषियवरयं । दिवो लिहिओ तेहिं पहो सधणडो मणि थियो। तं पेच्छिवि अहिलसियसिवो भणु को ण णिवो रोमंचियओ। फेण वि मैणिया-पुत्तलिया लयेकोमलिया वण्गुजलिया। एसा बाला सामलिया णामें ललिया अलिकोतलिया। चिरभवि होती मज्झ पिया पञ्चखसिया विहिकत्थाणिया । केण वि भणियं-"मई मुणिया सुरवरगणिया "मृगलोयणिया। होती कत'महु वणिया णीलंजणिया पीणस्थणिया । केण वि भणियं-दिण्णसिरि रहुँ मेरुगिरि इह सा तरुणि । इह मई देव होतइण गायतइण मोहिय हरिणि" ।
वि अग्छु म नि म अमुवि दिणु गंवमि । कु वि भणइ-हा कि करमि णिच्छउ मरमि जइ गउ रममि | को वि"सदीइ उ जीससइ तायें सुसइ उरयलु हणइ । अप्पउ घल्लइ धरणियले आणेहि हले "मुहूं मणइ । को वि मुच्छापसु णिवडियउ रइविपाडियन पिज्जी थिन । उचाएप्पिणु परियणिण दूमियमणिण णियघरह णिउ । धाई जिणेप्पिणु उत्तरहिं पशुसरहिं कु वि चवइ वरु ।
हड परामवंतरिख इह अवयरिउ ताहि "धरिवि करु । पत्ता-विहसेवि पबोल्लिड पंढियह जो गुज्झई महुं अक्खइ ।।
सो "सुअवेल्लोरइसुइहलहो रसु परमत्थे चक्खा ।।२।।
दुबई-अह वररमणिरुवरंजियमणु जो णह अलिउ भासए।
सो सरसरविहिष्णु सा लहइ पेइसइ गरैयवासप ।।१।। ता तेत्यंतरि
घिरहमहामरि। कुमारिहि घणथणि
जायइ जोवाणि। छक्खंडावणि
जिणिवि महाफणि । ३. B लिहिलो तहे तेहि P लिहियो सो तेहिं । ४. MBF ससबिघ । ५. MEP चितवियो। ६. F ऐच्छेविण । ७. MEP भणियं । ८. MBP पत्तलिया। ९. MPB लइ । १०. M मई भुणिमुणिया; P मणि मुणिया । ११. MBP मिम । १२. MBP कता । १३, NABP महललियगिरि । १४. MBP add after this: मश्क्ष विपरिणि । १५. MRP को वि एम्ब भणइ। १६. MB मुदीहः । १७. MBP सम्मुहूं । १८. MBP णिज्जीठ; १९. MBP घाइउ । २०. MJP दुत्तरहि ।
२१. Pषरयत्त । २२. M भयंता । २३ MRP परमि। २४. M गह। ३. १. P अलियत भासइ। २. MBP णिवह। ३. P 1. MBP एत्यंतरि। ५.MIP
read this line at पसरियरायइ, कुवरिहि ( P कुवरहि ) जायइ । ६. MBT add atter this: उत्तुगत्यणि, धणि वणि जोत्रणि । .
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२३.३.६१
हिन्दी अनुवाद
८५
कर दिया है, जिसमें विरक्तोंका निवास है, जिसने नरकका निवारण किया है, जो पापोंका हरण करनेवाला है, और जो सुभव्यों के लिए वरदान देनेवाला है, ऐसे उस जिनमन्दिरमें राजा लोग पहुंचे। उन्होंने वह चित्रपट देखा। उनके मनमें कामदेवरूपी नट नाच उठा । उसे देखकर अपना कल्याण चाहनेवाला बताओ, कौन सा राजा वहां ऐसा था कि जो रोमांचित न हुआ हो। किसी ने कहा - " यह कन्या रंगमें उजली और लताकी तरह कोमल है। सुन्दरी यह बाला, इसका नाम offer और भ्रमर के समान काले बालोंवाली में महिला पोली विधाता न जाने इसे कहां ले गया ।" किसीने कहा- "मैंने जान लिया है कि देवेन्द्रोंके द्वारा मान्य यह मृगनयनी पीनस्तनोंवाली नीलांजना मेरी कान्ता थी ।" किसीने कहा - " दिनको शोभा, यह
पर्वत, यह वह तरुणी। यहां मैंने देव होते हुए और गाते हुए इस हरिणीको मोहित कर लिया था" कोई कहता है- "आशा के बिना एक क्षण भारी हो रहा है, दिन कैसे बिताऊँ" कोई कहता है- "हा ! क्या करूँ ? निश्चय ही मरता है यदि इससे रमण नहीं करता । " कोई लम्बी साँस लेता है, तापसे सूखता है और अपना उरतल पीटता है। अपनेको धरतीतलपर गिरा लेता है । है सखो ! उसे ले आओ, बार-बार कहता है। कोई मूछों के वश होकर गिर पड़ा, और रतिसे प्रबंचित होकर उसने प्राण छोड़ दिये । दुःखित मन परिजन उसे उठाकर अपने घर ले गये । उस धायको जीतने के लिए उत्तरों और प्रत्युत्तरोंसे कोई वर कहता है कि "जन्मान्तरका वर मैं हूँ, उसका हाथ पकड़नेके लिए यहाँ अवतरित हुआ है ।"
धत्ता - तब उस पण्डिताने हँसकर कहा- जो मुझे गुह्य बातें बतायेगा, वह सुतारूपी लताके रतिरूपो फलका रस वास्तव में चलेगा ? ||२||
३
अथवा, श्रेष्ठ रमणी के रूपसे रजितमन, जो मनुष्य झूठ बोलेंगा, कामदेवके तीरोंसे भिन्न उसे वह स्वीकार नहीं करेगी और वह नरकवासमें प्रवेश करेगा। तब अत्यन्त विरहसे भरे हुए इस कालकुमारीका सघन स्तन योवन आनेपर छहखण्ड धरतीको जीतकर देवों, विद्याधरों और
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Apn
१०
१५
२०
८६
२५
देववि खयर वि चोयँव गयचइ पुरिहि पट्टउ
मा
सुr बोल्लाचिय पियपरिणामें
पुति म झिज्जद्दि हा विव
गुरु रंजहि बज्जर वायहि अखेर भावहिं
तुज्झ मुझ "हणालोयमि वायहु जंपि
पुणु आवेष्पिणु fres णिसणी
आलिंगेप्पि
यादें
महापुराण
णित्तयइ रवि । आयउ महिवद |
सरि णिविकृत | रणयभावें 1
णिरु संतायिय ।
यिका |
दोहिं वि विणिवारिय पात्रमह चिणि वि जाया माहिंदसुर चिरु जीवेपि हि तियसथुय
लइ पडिवज्जहि । परिह |
भोणु भुंजहि । हि गायहि । पक्खि पढावहि । भिल | तो जल जीवमि ।
तं सुद्धद्द किए। करेणु । विरविणी 1 सिरि बेष्पिणु । भणिय परिंदे |
कमि कहाण | णिणि किसोयरि ।
चारु चिराण मयरद्धसिरि - चिरु एत्थु पुंडरिगिणिपुरिहि इमहु भवद्दु पंचेमभवि ॥ ह अद्धचकव विहितणउ होतड कुलि पिच्चुच्छवि ॥३॥
घत्ता
४
दुबई -- जामें चंदाकित्ति जयकित्ति सुमित्रेण भूसिओ । सुइ जण अहं पि लच्छीइ महीइ चिरं समासिओ ||१|| बिमसुहसयद्दरिलियमणेहि fare भुत् र दोहिं मिजणेहि । अवसाणि विहि वि सिरि परिहरेवि पीईवणि वणि पसरेवि । वयसेविचंद्रसेणगुरुहि कि ते णिणि उग्राय कुरुहि । सह विवि कथ काळगइ | सतंबुहि आउपमाणधर । पुण्णक्खर सुंदरि तहि वि मुय ।
[ २३.३.६
७. P चोय । ८. M कंकणु पहिरणु; B ककष्णु परिहरण, P कंचणु पहिरणु । ९. P अक्खर । १०. MBP जर मोहल्लव | ११. MB हउं आलोयमि P हवं अवलोयमि । १२. Gomis विरह् विसण्णी । १३. M13 पंचमह भवि ।
४. १. MBP जसकित्ति । २. M धरेण । ३. MBF व ४ MBK हियतियसय ।
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AO
२३. ४.८]
हिन्दी अनुषाव सूर्यको निस्तेज करता हुआ अपने गजवरको प्रेरित कर राजा आ गया। उसने पुरमें प्रवेश किया और अपने घर आया। मधुर आलाप और प्रणयभावसे उसने चिरसन्तप्त अपनी कन्यासे कहा"हे पुत्रो ! तुम शोक मत करो, लो स्वीकार करो, स्नान-विलेपन-कंगन और परिधान । गुरुजनोंको रंजित करो, भोजन करो, वाद्य बजाओ, नावो-गाओ, अक्षर पढ़ो, पक्षियोंको पढ़ाओ, तुम्हारा मुख तीनों लोकोंमें भला है, यदि मैं उसे नहीं देखता तो में जीवित नहीं रहेगा।" तब, पिताके कथनको कुमारीने मान लिया। वह फिर आकर और प्रणाम कर बैठ गयो । विरहसे दुःखी पास बैठो हुई उसका आलिंगन कर और सिर चूमकर, नेत्रोंको आनन्द देनेवाले राजाने कहा-"मैं एक अत्यन्त पुराना सुन्दर कथानक कहता है। हे कामदेवको लक्ष्मो कृशोदरी, तुम सुनो।
धत्ता-पहले यहाँ पुण्डरोकिणो नगरमें, इस जन्मसे पूर्व पांचवें जन्ममें, मैं नित्योत्सववाले कुलमें अर्धचक्रवर्तीका पुत्र हुआ था ॥३॥
चन्द्रकीति नामसे, सुमित्रवर जपकीर्तिसे विभूषित । पिताको मृत्यु होनेपर, मैं चिरकाल तक, भूमि और लक्ष्मीसे मालिंगित रहा । अनुपम शुभ रातोंसे हर्षित मनवाले हम दोनोंने बहुत समय तक राज्यका भोग किया। अन्त समय हम दोनों लक्ष्मीको छोड़कर प्रीतिवर्धन वनमें प्रवेश कर, जिसने चन्द्रसेन गुरुके चरणोंकी सेवा की है ऐसे उद्गतकुरुके निर्जन वनमें तप किया। दोनोंने पापबुद्धिका निवारण किया और शायद साथ ही समयकी गति पूरी की। दोनों ही माहेन्द्र स्वर्गमें देव हुए, सात सागर प्रमाण आयुवाले। देवोंके द्वारा स्तुत वहाँ बहुत समय तक
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महापुराण
[२३. ४.५ पुक्खरवरि पुत्वमेरुसिहरे तहु पुल्वविदेहि रसंतकरे। धणधणरिद्धि जाया इसाउ जामेण मंगलावइ विसत। जहिं दहिउ दुद्ध जलु जिह सुलड्डु जहिं णस्थि दोसु गुणगणु जि बहु । घत्ता जहि वणछेत्तालिपालियहि सुर हेलिणिहि कह भासइ ।।
आरत्तचंचु चंचेलमुहु जपमाणु मेणु तोसइ ॥४॥
दुवई-मत्तमहंतधेवलगलगजियबहिरियविउलगोजले ।
विसरिसविसगभिडियघरसे रिहकयकाह लियफलयले ||१|| तहि किडिदाढायथलकमले कमलदलच्छाइयविमलजले । जलजतसित्तकेलीतरुणे तरुणतरुकुसुमरयारणे। छचरणालंकियदियपवरे दियपवरकलरवुटुंतसरे। सरसीमारामपएससुहे सुयरछुहपंडुरिः रायगिहे। गिहसिहरालिंगियघणणियरे । णियरायणायणिञ्चितपए
पयपाडियपरणरवीरसए । सयवत्तसाहियजलपरिहे परिहरियपावि मंदिर सिरिहे। सिरिहरु पुरि रयणसंचि णिवइ णिवइच्छिवित्ति सुधम्मरइ । रइ विष कामह कंत सह सइ गंदेविदह हंसगइ । घत्ता-सा णामें देवि मणोह रिय जिह तिह "सक्षसउच्चे ।।
''अम्हई विषिण वि सग्गहु हसिय इयखयकालदहा ।।५।।
१०
दुवई-जाया ताई गमि हलहर हरि विणि वि सुकयकारिणो ।
चडिय जुदाणमावि सिरिवम्मपिभीसणणामधारिणो ॥श दोहि मि भायहं जयलछिसहि अहिसि चिवि अम्हह देवि महि । गउ जणणु सुधम्मसूरिसरणु कित घोरु वीच जिणतवचरणु | छिपणउं उम्पत्तिजरामरणु पत्तैउ कवलु णिकलकरणु । छुदु परिभावित कंचणु वि तणु राएण विमुक घर जि वणु । णिज्झाइयअज्झासाझ्यहो थंडिलु वि थणस्थलु राइयहो। ५. P हालिणिहि । ६. M जणु । ५. १. M धवलगज्जियरववाहिरिय । २. MB तरुणी। ३. MB तरुणतरं । ४. MB छन्चरगि।
५. MRP पंडुर। ६. ३ दियराय । ७. MEP णिवंत । ८. MBP पयासिय । ९. P मंदरसिरिहे । १०. MBP कामह तह कत । ११. MB सिरिम सञ्चें । १२. P अण्ण वि सिरिमा सम्गह ल्हसिय
अम्हई हपणियमिच्चें। ६. १. MBP विहोसण । २. MBP सुधम्मु । ३. MB पत्तच णिक्कलु हिम्मलु करण; P पत्तर
णिम्मल निकलकरणु; T णिमकलु करणु। ४. M तिणु । ५. M पर ।
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AN
२३. ६.७]
हिन्दी अनुवाद जीवित रहकर, पुण्यका क्षय होनेपर, हे सुन्दरी, वहां भी. मृत्युको प्राप्त हुए। पुष्कराध द्वीपमें पूर्वमेहके शिखरके पूर्व विदेहमें कि जहां सब रसोंका अन्त है, धनधान्य और ऋद्धिसे अतिशय महान मंगलावतो देश है । जहाँ दहो और दूध जलके समान सुलभ है; जहाँ बहुत से गुण हैं, दोष एक भी नहीं है।
पत्ता-जहाँ तोता सधन खेतोंको रखानेवाली कृषक बालासे कथा कहता है। लाल-लाल चोंचवाला बक्रमुख कुछ कहता हुआ मनको सन्तोष देता है ।।४।।
जिसमें विशाल मतवाले बैलोंके गरजनेसे विपुल गोकुल बहरे हो गये हैं, और जहां असामान्य और विषम लड़ते हुए भैंसोंके कारण ग्वालों द्वारा कोलाहल किया जा रहा है, जहाँ सुअरोंकी दाड़ोंसे स्थलकमल (गुलाब) आहत हैं, कमलोंके दलोंसे विमल जल आच्छादित हैं, जलयन्त्रोसे कदलोके तरुण वृक्ष सींचे जाते हैं, जहाँपर तरुण तरुओंकी कसम-रेणपर षडचरण ( भ्रमर) है, जहां द्विजारा और पी.) मानादि चरणोंसे सहित हैं, जहाँ सरोवरमें द्विजप्रवरों (पक्षिश्रेष्ठ, ब्राह्मणश्रेष्ठ ) का कलरव हो रहा है, जो सरोवरों, सीमाओं और उद्यानों से शुभ है और जो शुभतर चूनेसे सफेद है, जो गृहशिखरोंसे मेघसमूहका आलिंगन करता है, ऐसे उस राजगृहमें रत्नसंचयपुर नगर है, जिसमें राज्यन्यायसे प्रजा निश्चिन्त है, जिसमें सैकड़ों शत्रु राजाओंको चरणोंमें झुका लिया गया है, जिसकी जल-परिखाएं कमलोसे आच्छादित हैं, जो पापोंसे रहित और लक्ष्मीका घर है, ऐसे उस नगरका राजा श्रीधर था जो राजाको वृत्ति की इच्छा रखता था। सुधम में रत, कामको सती कान्ता रतिके समान, या मानो देवेन्द्रकी हंसगामिनी इन्द्राणी हो ।
पत्ता-वह देवी नामसे जैसे मनोहरा थी, वैसे हो सत्य और पवित्रतामें भी मनोहर थी। हत क्षयकालरूपो देत्य के कारण हम दोनों भी स्वर्गसे च्युत हुए ॥५॥
पुण्य करनेवाले हम दोनों उनके गर्भसे हलपर ( बलभद्र ) और हरि ( वासुदेव ) उत्पन्न हुए। श्रीवर्मा और विभीषण नामके हम दोनों यौवनको प्राप्त हुए । हम दोनों भाइयोंका अभिषेक कर एवं विजयलक्ष्मीको सखो मही हमें देकर पिता सुधर्म मुनिको शरणमें चले गये और उन्होंने घोर वीर तपश्चरण किया। उत्पत्ति जरा और मरणका उन्होंने नाश कर दिया, और सिद्धावस्थाको प्राप्त करानेवाला केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । मेरो माता (मनोहरा) ने शीघ्र ही स्वर्णको तृणके समान समझ लिया। क्योंकि जो रागसे मुक्त है उसके लिए घर ही वन है । तथा नववधूके
२-१२
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१०
५
१०
१५
९०
गिरिमंदिर क safa मोहर थिय भवणे चिष्णवं जणणिइ दुश्वरु चरि संणाणि शावि पंचगुरु
महापुराण
धत्ता -- मिरि भुंजिय भोयतिसतिसिङ मुयड बिहीणराण || उपण रयमहाविषरि काले को ण विदोणउ || ६ ||
से पेच्छिवह दुखाउलिउ हा चक्रपाणि हा पाणपिय सुसहोयर दामोयर चवहि सुर परवड़ विहिवइ पुहश्व मई माभावे भात्रिय तं पुसमि हम मृदु काई मि संभरमि तहि अवसर आयउ जगगिचरु पहि धि चोयं वसत् लभय भई भणिमणियबलु बिहि किं गेहु होष दासीसुयहे तं सुणिवि देव भाणियत्र
तेण राहु
दुनियपरिणामुतं घर । जिणवरु झायंति णिश्रयमणे । पखालि जम्मंतरदुरिव । साहूई दिवि ललियंग सुरु |
७
दुबई -- लच्छिसरा सण सहवासु व विहिणा दलिखिघलिओ दुrिeater वाहि खयकरिदसणपेल्लिओ ||१|| सोयरिंग देवरुक्खु जलिङ । हा बंध कि अवहेरि किय । हा एकेबार मई संथवहि । किं मरइ भडारण चकवर । मडउलट संधि चडावियट | उपैति पचत्तर देहि महु । पुरगाम सीमरणचिरमि । ललियंगु बलियभासिरु अमरु । सो जंत णिप्पीलह सियय । किं पाणिइ लोणि उबहि । किं तेन विणिग्गड़ बालुहे । जइ पैठ बप्पपई आणिय
धना तो एवं वियाहि किं
तुहुं कीस विसूरहि हलहर || जे मुग्रं ते पुणरत्रि दिह पई कहिं जीवंता परघर ||७|
८
दुवई - हाहाकार पुत किं मेल्ल हि धोरिवि जाहि अप्पयं । धराधार बीरे व सुयणं पिगणंति गोप्ययं ॥ १॥ किं भार मायर एकरहि माय तुम्हारी संभरहि । तुह मंदिर णिवसवि किड त संपत्ती तेण सुहासिभ | एम भणिवि सुरु पियरहो मई मुहं जोईउ चक्रेमर हो । सच णि जाणिव डं सलुन यास आणियल ।
[ २३.६.८
६. P°कंदर । ७. MB भरिषि; P भणिदि । ८. P "तिसातिसउ ७. १. MBT सउ । २. P एकवार । ३. MBP अंगमि । ४ मइमू ५. P चोवंतु ॥ ६. P लोपउं ।
९. B बिहीसणु ।
I
७. B मय ।
८.
१. MBP स में मेल्लहि । २. MBP धीर । ३. P चिणं । ४ भाव भाय । ५. MK कथउ । ६. P जोयन 1 ७ राल रयउ ।
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५
२३.८.६]
हिन्दी अनुवाद आलिंगनका स्वाद करनेवाले रागीके लिए थण्डिल ( जन्तुरहित भूमि ) भी स्तनस्थल हैं । गिरिको गुफा या घर क्या करता है ? यदि वह पापपरिणाम नहीं करता। यह विचारकर मनोहरा जिनवरका ध्यान करती हई अपने भवन में रहने लगी। मानो उसने कठोर तप स्वीकार कर लिया और जन्मान्तरके पापोंको धो डाला । वह संन्यासिनी पंचगुरुका ध्यान कर स्वर्गमें ललितांग देव हुई।
पत्ता- लक्ष्मीका भोग करता हुआ और भोगको तृष्णाकी व्याकुलतासे मरकर विभीषण राजा नरकके महाविलय में उत्पन्न हुआ, समयके साथ किसका अन्त नहीं होता ||६||
लक्ष्मी और सरस्वतीके सहवासके समान विधाताने उसे चूर-चूर करके फंक दिया । विनाशके हाथोके दांतोंसे ठेला गया वह सुखाधिप उखड़े हुए कल्पवृक्षके समान था। उसके शव को देखकर में दुखसे व्याकुल हो गया। शोकको ज्वालासे देहरूपो वृक्ष जल गया। हे चक्रपाणि, हे प्राणप्रिय, हे भाई, तुमने अबहेलना क्यों की ? मेरे अच्छे भाई दामोदर बोलो, हा! एक बार मुझे सान्त्वना दो, सुर-राजा-बेर-पृथ्वीपति और चक्रवर्ती क्या हे आदरणीय ! मरते हैं ? मैं मिथ्याभावसे ग्रस्त था। मैंने शवको कन्धेपर रख लिया। मैं उसे छूता हूँ। उसके साथ हंसता हूं। मैं कहता हूँ कि मुझे प्रत्युत्तर दो। मैं मतिमूल कुछ भी याद नहीं कर पाता और नगर-ग्राम-सीमा और अरण्यों में विचरण करता है। उस अवसर पर मौका दूत, मधुर बोलनेवाला ललितांगदेव आया। वह भयपूर्वक बेलको प्रेरित करता हुआ रास्तेमें स्थित हो गया। वह यन्त्रसे रेतको पेरता है। मैंने उससे कहा-अपनो शक्ति नष्ट मत करो क्या पानीसे नवनीत (लोणी ) निकलता है ? क्या दासीपुत्रीमें प्रेम हो सकता है? क्या बालूसे तेल निकल सकता है। यह सुनकर वह देव बोला-हे सुभट, यदि तुमने यह बात जान ली
पत्ता-तो तुम यह बात क्यों नहीं जान पाते कि हे हलधर, तुम क्यों शोक मना रहे हो ? जो लोग मर चुके हैं, उन नरवरोंको क्या तुमने फिरसे जीवित होते हुए देखा है ? |७||
हे पुत्र ! तुम हाहाकार क्यों कर रहे हो, अपनेको धीरज देकर चलो। धीरके आधारको लेकर चलनेवाले वीर विशाल विश्वको गोपदके समान समझते हैं। भाई-भाई, क्या पुकारते हो? याद करो मैं तुम्हारी मां हूँ। तुम्हारे घरमें रहकर तप किया, उसीसे देवभवमें जन्मी। यह कहकर वह देव अपने घर चला गया, मैंने चक्रवर्तीका मुख देखा। सचमुष मैंने उसे निश्चेतन
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महापुराण लहु वासुएउ सकारियल तणुरुहु सरजि वइसारियज । वयसंजममारधुरंधरहो दिक्खंकित पासि जुयधरहो। पंचिंदियगयउलु पीडियेट ने कियउ सीह णिकीडियज । पुणु सन्चमा उचाइय ''मिच्छत्तजडत्तु णिवाइयउ। "अणसणविहाणि जं साड़ियल तं चरविड़ मई आराहियउ | हउ अरुहु भरेण भरेवि मुड अच्चुइ आईडलु णवर हुउ । पत्ता-ता रयणविमाणारोहियउ मई अच्चुयप्पाहो णियः ।।
ललियंगदेख सो णिययगुरु गयइ भत्तिइ पुज्जियर ८।।
दुवई-चुउ लेलियंगदेउ जंबूतरलंणि दीवि सुहबई ।
सुरगिरि सुरदिसाइ सँविदेहइ जणमहि मंगलावई ॥१| खगसंमाहियविजावलिहे ... रुप्पयगिरिंदउत्तरलिहे। गंधवणयार सहिं विमलजसु " वासेज णाम वासवसरिसु । पायउपयाउ गरबइ क्सइ जसु दिहिहि कलिकयंतु तसइ । तहि देविधि उयरि पहावाहि उप्पण्ण कलमरालगइहि । णामेण महीधरु धोरझुणि ताएण अरिंजन दिवमुणि । सुउ रजिज थवैप्पिणु सैषियउ णिग्गंथभाउ संभावियउ। मुत्तावलित वतायें तविउ दढकम्मालाणु परिक्ख विच। सते दते रुद्धासवेण
अपरउ णिउ मोक्खाहु वासवेण । णं सससिणिसाहि पहावइहि पणवंतिहिं ताहि पहावइहि। तउ दिपण यजगसंतियइ सुद्धइ पोमावइकतियइ । सीसिणियह पुण्णु समज्जियउ सविसयकसायबलु णिज्जियउ । रयणावलि णामें जेणियदिहि कयदेहसोसउववास विहि । घत्ता-स वि मय तहि गिरु णिरसणु करिवि आउखइ फि जिज्जई ।
सोलहमद सगिग पबिंदु हुंये भगु किह धम्मु ण फिजइ ।।९।।
दुबई-अहणलिणकि दीवि पच्छिमदिसमंवरपुन्धि रिद्धिया।
पुत्वयिदेहि छोणि बच्छावा पुरि पहयरि पसिद्धिया ॥११॥
८. MBP संकारियउ । १.Pपीलियन । १०. Bamits this foot, १t. Bomits this line.
१२. 6 मिच्छत्तु जडत्तु । १३. B onits this foot. १४. कप्पहि । १५. P गुरुयइ । ९. १. MRP ललियंगु देउ । २. B°लंछपदीवि । ३. MBP सुविदेहह । ४. MBP स्वरयल है ।
५. वसव ६. P दिखामुणि । ७. MRP परिषखयउं। ८. MBP जगफवसंचियह । .. MBP
जायदिहि । १०. MBP किज्जा । ११. MBP हुन । १०. १. MRP पछिम विसि मंदरि पुन्छ ।
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२२. १०.२]
हिन्दी अनुवाद जाना 1 चिता बनाकर आग ले आया। पीत ही वासुदेवका संस्कार किया और पुत्रको अपने राज्यमें स्थापित कर दिया । तथा व्रत और संयमका भार उठाने में धुरन्धर युगन्धर मुनिके पास जाफर दीक्षा ले ली। पांच इन्द्रियरूपो गजोंको पीड़ित किया और सिहविक्रीडित तप किया। फिर सर्वतोभद्र तप किया और मिथ्यात्वकी जड़सा समाप्त कर दी। अनशनके विधानमें जो कुछ कहा गया है, चार प्रकारको आराधनाको मैंने सम्पन्न किया। मैं अर्हत को बार-बार याद कर मर गया और केवल अच्युत स्वर्गमें उत्पन्न हुआ।
पत्ता-तब रत्नविमानमें आरोहित (बैठाकर ) मुझे अच्युत स्वर्गमें ले जाया गया। अपने उस गुरु ललितांग देवकी भारी भक्तिसे पूजा की ८॥
+
ललितांग देव व्युत हुआ। जम्बूद्वीपके मेरुपर्वतको पूर्वदिशाके विदेह क्षेत्रमें सुखवती मनुष्यभूमि मंगलावतो है । उसके विजया पर्वतको उत्तरश्रेणीमें, वहां विद्याधर विद्यावलो सिद्ध करते हैं, गन्धर्व नगरी है। उसमें इन्द्रके समान विमल यशवाला वासव नामका राजा है। प्रकट प्रतापपाला वहाँ निवास करता है जिसको दृष्टिसे कलियम डरता है। उसकी कलहंसगामिनी प्रभावती नामको देवीके उदरसे, ललितांग महीधर नामसे गम्भोरष्यनि पुत्र हुआ। पिताने पुत्रको राज्यमें स्थापित कर दिव्य मुनि अरिजयकी सेवा की और दिगम्बरत्वकी दीक्षा ग्रहण कर ली। मुक्तावली नामक तपके तापसे उसने अपनेको तपाया और दृढ़ कर्ममलको नष्ट किया। शान्त दांत-वासवको रोकनेवाले यासव स्वयं मोक्ष चले गये। प्रकाशपूर्ण चन्द्रमासे युक्त रात्रि में प्रणाम करती हुई उस रानी प्रभावतीके लिए विश्वमें शान्ति स्थापित करनेवाली आर्यिका पावतो कान्ताने तप प्रदान किया । शिष्याने पुण्यका समान किया और अपनी विषधकषायकी शक्तिको जीत लिया । की गयी है देह शोषण की उपवास विधि जिसमें, ऐसे भाग्यजनक रत्नावली उपवास उसने किया।
पत्ता-वह भी वहां अनशन कर मृत्युको प्राप्त हुई, मायुका क्षय होनेपर क्या जीवित रहा जा सकता है ? वह सोलहवें स्वर्गमें प्रतीन्द्र हुई। बताओ फिर धर्म क्यों नहीं किया जाता ||९||
'
..
१०
पुष्कर द्वीपकी पश्चिम दिशामें मन्दरावलके पूर्व, पूर्वविदेहकी भूमिपर वत्सकावती देश है।
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[ २६. १०..
महापुराण तिजगवइधरियछत्तत्तयहो जइणिदेसियरयणत्तयहो। परिगणियमुणियकोलत्तयहो इयजाइजरामरणसयहो। थिरैपरिवरियगुत्तित्तयहो (इसंबोहिय मुरणत्तयहो । विद्धांसयेणियमलतयहो परियाणियजीवगइत्तयहो। वियलियरमाइगन्वत्जयहो गईफम्माइयदेहत्तयहो । बज्जियद्देहिमाणत्तयहो
कयकिरियाछेयपयत्तयहो। केवलचेयणगुणइत्तयहो। सीदीभूयह ण णियत्तयहो। णिवाणपुजविणयंधरहो
६ करिवि कुहरककरवरहो। फणिमणिभाभासियअहिहरहो गउ पढमदीवसुरमहिहरहो। तहिं गंवणि सुपसिद्धम्मि यणे इंदासासंठियजिणभवणे। विजय पुजवउ दिठु सई महिहरु बोलाविउ मुद्धि मई । धत्ता-किं ण मुणहि तुहं खयराहिवाइ हउं गंदणु तुह होतउ ।।
सिरिवम्मु सीरिमायरमरणे जइय कलुणु रुयंवद ॥१०॥
दुवई-तइयतुं तई सुरेण संबोहिउ एचडि कि पा याणसे ।
सिरिहररायपरिणिमणहरिभवु किं णैत्र सरसि माणसे ।।२।। अन्ज वि कि मुंजहि विसयविसु विमु मारइ मित्त एकु णि मिसु । भवि भवि संघारइ विसयविसु ता देण जि लद्धन जि मिसु ।
अहिणदिवि सुवरराउ खयरु संप्राइउ सहसा णियणयरु । भक्खिणि णावइ डाइणिय महिकंपडु पुत्तहु मेणिय। ढोइवि पदणु मुणिगुरुविहित वयमगि उगि ववसित सहिउ । भई अइबहुहि विजाहहिं तरूकोडरगिरिवरवरहि । तवु चिणु तेण कणयावलिय चिरसंघियदुरियारलि गलिय । कालेणगलंत महिहरहो पुणु अंतयालु "संपण्णु तहो । सो प्राणिप्राणपरिरक्खयरु "प्राणइ जायफ वियसिंदवरू। पत्ता-जीवियउ थीससायरसमई पुणु काले "संचालित ।।
धादइसंडइ पुविल्लसुए जो सुरगिरितहमालि ।।१९।। २. MJP सयलत्तयहो। ३. MRP थियधरिय। ४. B ormirs this foot, ५. Bumits this lini:. ६. MP गयकम्मा । ११. 1. 138 भज । २. MBPण सरीसि । ३. MBP भुंजसि । ४. MBPK सुरवह गउ । ५. NIRP
रांपाइ३ । ६. MP गंदण । ७. MP तवमगि उग्गिः । वयमम्मे ववसिउ समसहिउ । ८. MBP तरुवोटरि। १. MIP तड। १०. MBP बहनें । ११. MP संपुण्णु । १२. M पाणिपाणुः B पाणिपाण' । १३. MBP पाणइ । १४. MBP संचालियउ । १५. MBP मालियउ |
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२३. ११.१३]
हिन्दी अनुवाद उसमें प्रभाकरी नामकी प्रसिद्ध नगरी है। जिन्होंने त्रिजगपतिके तीन छत्रोंको धारण किया है, जिन्होंने जगको सोन रत्नोंका उपदेश दिया है, जिन्होंने तीनों कालोंको परिगणित किया और समझा है, जिन्होंने जन्म-जरा और मृत्युका नाश किया है । जिन्होंने आगमसे तीनों भुबनोंको सम्बोधित किया है, स्थिर चर्यासे जिन्होंने तीन गुप्तियोंको धारण किया है, जिन्होंने जोवको तीनों गतियोंको जान लिया है, जिन्होंने रसादिमें तीनों ग को नष्ट कर दिया है, जिनके तीनों शरीर (कार्मिक, औदारिक और तेजस ) जा चुके हैं, जिसमें नीचेके तीनों ध्यान छोड़ दिये हैं, जिन्होंने क्रियाछेदोपस्थापनाका प्रयल किया है, जो केवलज्ञान गुणसे युक्त हैं, जो कभी शिथिल नहीं हुए, जो अपने यलमें लोन हैं, ऐसे विनयधर स्वामो और पर्वत शिखरको पूजा कर, मैं जिसमें नागोंके फणमणियोंकी कान्तिसे प्राचीन देवधर आलोकित हैं, प्रथम द्वीपके ऐसे सुमेरु पर्वतपर गया था। वहाँ सुप्रसिद्ध नन्दनवनकी पूर्वदिशामें स्थित जिनभवनमें विद्या की पूजा करते हुए मैंने स्वयं राजाको देखा और उससे कहा
घत्ता-हे विद्याधर राजा, क्या तुम मुझे नहीं जानते कि मैं तुम्हारा पुत्र था श्रीवर्मा नामका । कि जब बलभद्र भाईके मरनेपर मैं रो रहा था ||१०||
तब तुम देवने मुझे सम्बोधित किया था। उस समय क्या तुम यह नहीं जानते। श्रीधर राजाको गहिणी मनोहराके जन्मको क्या तुम मनमें याद नहीं करते। आज भी विषयरूपी विषका भोग क्यों करते हो। हे मित्र, यह विष एक क्षणमें मार देगा । विषय-दिष भव-भवमें संहार करता है। तब उसीने इस बातको ग्रहण कर लिया। सुरवरराजका अभिनन्दन कर विद्याधर सहसा अपने नगर आ गया। डाइनके समान योजाओंका भक्षण करनेवाली अपनी भूमि, अपने पुत्र महिपंकको देकर मुनिरूपी गुरुके द्वारा बताये गये उग्र व्रतमार्ग में अपने हित के लिए व्यवसाय करने लगा। तरु कोटर-गिरि-विवरों में रहनेवाली बहुत-सी विद्यारियों के साथ उसने कनकावली व्रत ग्रहण कर लिया। और उसको बिरसंचित पापावलि गल गयो । समय बीतने पर उस महीधरका अन्तकाल आ गया । प्राणियोंके प्राणों की रक्षा करनेवाला वह राजा प्राणत स्वर्ग में देवेन्द्र हुआ 1
घसा-वह बीस सागर पर्यन्त वही जीवित रहा और कालके साथ बा बामे चय। धातको खण्ड में तरुओंसे आछन्न जो पूर्व मेरु है-॥११॥
१, पाणिभुक्ता, लांगली और गोमूत्रिका ।
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1
९६
महापुराण
१२
दुबई - तस्साबरविदेहि गंधिलवितयम्मि विमुकाविप्पिया । उन्झाणयरि तीइ जयषम्सु परेस सुध्दा पिया || १ || अजियंजन णामें लद्धजन | जण अहिणंदणु मग्गियउ । मुकाई से लप्त मियई इइपरयास विखयहु गया । कम गतिहिणीरिवि । सि सुहहु णामु णिरु णीरयहो । ture org तं कषालकरहो । गणिणिहि पासम्मि सुदंसणहे । किं वणिज इकदर संद्धफासरसणासियइ । पच्छाविरश्यसंणासियइ ।
सहि चविवि पुरंदरु हुड तण दिखहि कारण ओलग्गिय तं दिors पंच मेव्वयई मयणिजियसी गाई मया आयंबिलु वु दुखरु वरिवि होऊ स ग विषयो सूलिहि णरसिरमालावरहो छुकामको विद्धसण जं वष्ट परिपालिउ सुप्पहड़ सुश्चक्खुसोक्खणिपणासिय रण्णावलिकयरण्णासिय
पत्ता - मेल्लेष्पिणु माणवकुणिमतणु देव निकाय हुं बलहु ॥ अह अदिसदेत्तु खगे पत्तर ताई सुदुलहुं ||१२|
१३
थित अग्गइ मंडलियउय करु मेरु च सर्वेणु णिच्च थविरु सुविसुद्धचित रिसित्रिव गणित मायासुयवइयरु साहियव मुणिधम्मैसवणसामियम इहिं गुरुमंदरथविम समासिय आलिंगिउ चारणरिद्धियए वणि पुत्ति पावयखामियम अहिहरिणभिल भिक्षोणिलए पई
दुवई - चोहरयणपहरणुत्तासियणासियरिउभडन्तणं । कयमजियंजरण वरिसहरणयावहि महिपत्तणं ॥१॥ धर्मघोस डिडिमपउ कहिं हिणि समवसरणु गयउ | वंदि अणंदणु तित्थयरु | पंचासारणिरोहु कि । पिडियास सो सुरेहिं भणिच । तहिं अवसर मई संबोहियउ । बीसहिं सहसा सहुं णरवहिं । हुए जहवर मोहु पिणासियड । सोहिणाणसं सिद्धियए । होइवि णामें निष्णामियए । aिgs गिरिषरि अंबरतिलए । किं बहुएं मज्जु वि सो जि गुरु । दह दह जि दोणि सायरसमई |
तासु पासि सु धम्मु चिरु दिषि जीबिड हर्ड माणियरम
[ २३. १२. १
१२. १. ३ cmits this line २. MBP महावयहं । ३. MBP सब दुद्धर परिवि । ४. B कम्मट्टहं । ५ MBP णीसरिवि । ६. MŪP सिवहरहो । ७. MBP सिवसु णाम । ८ MBP गणियहि । ९. MBP तं वणिज्न कह । १० MP रयणावलि ।
१३. १. P चचदह २. MBP धम्मुग्धोसर डिंडिम् हयउ । ३. MBP सममणु 1४. MBP " धम्मु समणं । ५. MP संबोयियाणसमिद्धियए ।
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२३. १३. १४ ]
हिन्दी अनुवाद
a are a
१२
—
९७
उसके पश्चिम विदेह गन्धिल्ल देशमें, अप्रिय चीजोंसे मुक्त अयोध्या नगरी है। उसका राजा जयवर्मा है और उसकी प्रिया सुप्रभा है। वहाँ आकर वह इन्द्र उन दोनोंका पुत्र हुआ, अजितंजय नामसे विजय प्राप्त करनेवाला । राजा दीक्षा के पीछे पड़ गया। पिताने ( मुनि ) अभिनन्दनसे याचना की। उन्होंने उसे पांच महाव्रत दिये। उसने सातों भयोंको छोड़ दिया । मृगोंको विजित करनेवाले सिहसे जैसे सिंह नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही उसकी भी इहलोक और परलोकको आशाएं नष्ट हो गयीं। कठोर आचाम्ल तपका आचरण कर कर्मको आठों गाँठोंको नष्ट कर वह शित्री होकर, शिवपद के लिए चला गया। निरामय सुखका नाम ही शिव है। किसी दूसरे त्रिशूली नरमुण्डों की माला धारण करनेवाले हाथ में कपाल लेनेवाले का नाम शिव नहीं है । क्षुधा, काम और कोधका नाश करनेवाली सुदर्शना के पास सुप्रमाने व्रतका पालन किया, उसका affar द्वारा कैसे किया जा सकता है ? कानों और ओखोंके सुखोंका नाश करनेवाले स्पर्श और रसना इन्द्रियोंके स्वादपर अंकुश लगानेवाले रत्नावली व्रत और रत्नत्रयसे युक्त और बादमें संन्यास धारण करनेवाली
त्ता - उसने मनुष्यके कुनिमित्तोंको छोड़ते हुए सुदुर्लभ देवनिकाय के अच्युत स्वर्ग में अनुदिश विमान में देवत्व प्राप्त कर लिया ||१२||
१३
वह रत्नों और प्रहरणोंसे शत्रुओंके सुभटत्वको त्रस्त और ध्वस्त करनेवाली धरतीको प्रभुता अजितंजयने क्षेत्र विभाग और पर्वतादिकी अवधि बनाकर की। धर्मकी घोषणा करनेवाली डुगडुगी पिटवाकर वह एक दिन समवसरण में गया। अपने दोनों हाथ जोड़कर उसने तीर्थंकर अभिनन्दनकी वन्दना की और उनके आगे बैठ गया। वह मेरुके समान निश्चल मन स्थित था । उसने पांचों अपस्स्रवोंके द्वारोंको रोक लिया । विशुद्ध चित्त वह मुनिके समान समझा गया। वह देवोंके द्वारा पिहितालव कहा गया। मैंने उस अवसरपर माता और पुत्रका वृत्तान्त कहा और उसे सम्बोधित किया। मुनिधर्मको सुननेके कारण शान्त मतिवाले बीस हजार राजाओं के साथ, वह गुरुमन्दर मुनिकी शरण में गया और मुनि होकर उसने मोहका नाश कर दिया। चारण ऋद्धियों और सर्वावधिज्ञानकी संसिद्धिसे आलिंगित हुआ। क्षमाको प्राप्त करनेवाली वणिक पुत्री तूने निर्मिका नामसे होकर सांप, हरिण, भोल और भोलनियोंके घरस्वरूप अम्बरतिलक पर्वत में उन्हें देखा । उनके पास बहुत समय तक धर्म सुना । बहुत कहने से क्या, वही मेरे भो गुरु हैं। स्वर्ग में हम दोनों रमणको मानते हुए, दस-दस सागर ( बीस सागर ) जिये ।
२-१३
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[२३. १३.५
प
ण
महापुराण Yि R कि सुंदरि कैलिमलज्जिय | वावीस देष ललियंग मई गुरु मणेपिणु पुज्जिय ।।१३।।
दुवई-चलतरुणहरिणलोयणजुइ छणससिबिबजपणे ।
अब पि कह वि तुज्झु पिय विरहेमहाणलसुसियचंदणे ॥१॥ जम्मतरि वित्त संभरमि अहिणाणु णिसुणि तुह पज्जामि । इच्छिउ वियलियतुम्मइणा
चंभे लंतवसुरवणा। लीलाग्द्धरियवसुंधरहो
मई अक्खिई चरिउ जुयंधरहो । दीवम्मि जंबुरुक्खंकियय मेरुहि विदेहि पुवासियए । सीयासरिदक्षिणयलि पवर वच्छात्रइदेसु पंछपउरु । णामेण सुसीमा पर गयरि साहिं पहु अजियंज पुरिसरि । अमयमइ मति सइरत्तमण तहु सम्बाहाम णामेण धण। तहि मुस पहसिड पहसियवणु तह सहयरु वियसिउ सियणयणु । सह ते विषिण वि कवरेण विणु णिसुणंति पढति गर्मति दिणु । ते बेवि विश्वस विष्छिण्णमय छलजाइदेउकुविवायरय । एकहिं दिणि राएं सई सुहथ मइसायररिसिसामीवु गय । सो पहुणा पुषिछड जीवगइ आहासइ सँख्या तासु जइ । संतेण जेण जगु परिणमा तं कारणु फालु महाणिवइ । पत्ता-जहिं अच्छा तं ध्रुच गयणयलु गइहि धम्मु सहकारिन ||
फुड होइ महम्मु थिरत्तणहो परमेसहि उवईरिन ॥१४॥
दुवई-पोग्गलवु होह णिश्यणु जं जं णिव सुचेयणं ।
तहि तहिं कहामि तुझु परमत्धे जीन जि णाणकारणं ॥१॥ विणु जी पोग्गलु कि तसह विणु जी पोग्गलु कि इसइ । विणु जीर्षे पोग्गलु कि रमह विणु जीवें पोग्गलु किं भमइ । विणु जी पोग्गलु कि जिय विणु जीवं पोग्गलु किं णियइ । विणु जी कि पोग्गलु सुणा किं विद्धेड वेयणाइ कणइ । ता वुत्तन पहसिय वियसियहि अणुहुनपुहइपस्थिवसियहिं । जइ जीउ जि पेच्छा कहहि कह तो यिणु जयहिं ण णियह कह । ६. MP कलमल । १४. १. BP विरहाणल । २. MBP विण । ३. पंछित । ४. MP पच्छपवय; B मुषमछपवक ।
५. MBP सामीउ । : P छिठ । ७. MBHK समनछ । ८. MRP परिणवह । ९. MBP घुउ।
१०. MB एच ईरिउ; P इउ ईरियः । १५. १. MBP सचेयणं । २. MRP किह । ३. B किम । ४. न किह 1 ५. MBP पोम्पल । ६. MB
बद्धन । ७. B"पस्थिवसयहिं ।
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२३. १५.८]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-हे सुन्दरो जननी, (पहला ललितांग देव ) कलिमलसे रहित करनेके लिए आयो और बाईसवें देव ललितांगको मैंने गुरु मानकर पूजा है ॥१३॥
चंचल और तरुण हरिणके नेत्रों के समान तिवाली, चन्द्रमाके बिम्बके समान कही जानेवाली और विरहकी महाग्निसे चन्दनको सुखा देनेवाली हे प्रिये, तेरी और भी कहानी है। मुझे जन्मान्तरका वृत्तान्त याव आ रहा है, उसका अभिज्ञान सुनो, मैं तुम्हें बताता हूँ। विगलित है दुभति जिसकी, ऐसे ब्रह्मेन्द्र, लान्तव, सुरपति द्वारा पूछे जानेपर मैंने लोलासे बसुन्धराका उदार करनेवाले युगन्धरका चरित कहा। जम्बूद्वीपके सुमेरुपर्वतके पूर्व विदेहमें सीता नदीके दक्षिण तटपर वत्सकावतो देश है, जो वृक्षोंसे प्रचुर है। उसमें सुसीमा नामकी श्रेष्ठ नगरी है । उसका राजा पुरुष श्रेष्ठ अजितंजय था ! उसका मन्त्री अमृतमति स्वच्छन्द मनवाला था। उसको सत्यमामा नामकी पत्नी थी। उसका पुत्र प्रहमित, प्रहसित मुखवाला था। उसका मित्र विकसित पा, जिसकी आखें श्वेत थीं। वे दोनों बिना किसी कपटके साथ-साथ सुनते-पढ़ते हुए दिन बिता रहे थे। वे दोनों ही विद्वान् थे और घमण्डसे दूर थे। छल जाति हेतु और कुविवादमें प्रवीण थे। एक दिन दोनों मित्र राजा के साथ मतिसागर ऋषिके पास गये । राजाने उनसे जीवमति पूछी। मुनि उसे सब कुछ बताते हैं। जिसके रहने से जग परिणमन करता है, हे महानृपति, उसका कारपा काल है।
धत्ता-जहां वह काल विद्यमान है वह निश्चय से आकाशतल है । गतिका सहकारी धर्मद्रव्य है और स्थिरताका स्पष्ट कारण अधर्मद्रव्य है । ऐसा परमेश्वरने कहा है ॥१४॥
पुद्गल द्रव्य अचेतन होता है, हे नृप ! जो-जो सचेतन है, मैं तुझसे कहता हूँ कि वहां-वहाँ वास्तवमें जीव ही ज्ञानका कारण है। बिना जीवके क्या पुद्गल अस्त होता है ? बिना जीवके क्या पुद्गल हंसता है ? बिना जीवके क्या पुद्गल रमण करता है ? बिना जीवके क्या पुद्गल भ्रमण करता है ? बिना जीवके क्या पुदगल जीवित रहता है ? बिना जीवके क्या पुद्गल देख सकता है ? बिना जीवके क्या पुद्गल सुनता है ? क्या वेदनासे विद्ध होकर चिल्लाता है ? इसपर पृथ्वी और राजाकी श्रीका अनुभव करनेवाले प्रहसित और विकसितने कहा-यदि जीव ही
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२३. २०. १४ ]
हिन्दी अनुवाद
वह जयसेन चक्रवर्ती हुआ। होती हुई पुण्यशक्तिका निवारण कौन कर सकता है ? यहाँ भी उसने अपनी भयंकर तलवारसे छह खण्ड धरतीका उपभोग किया। फिर केवलज्ञानरूपी श्रीको धारण करनेवाले सीमन्धर स्वामीके चरणोंके मूलमें चौदह रत्नों और निषियोंको छोड़कर दुधर चरित्रभार उठाकर, विद्युतकी तरह विद्रवित होकर, सोलह भावनाओंका ध्यान कर, नाग-नर और देवेन्द्र जिसका कीर्तन करते हैं, ऐसे तीर्थकरत्वका अर्जन कर, प्राणोंका विसर्जन करते हुए, उड़ती हुई पताकाओंसे युक्त मध्यम ग्रेवेयक विमानमें अहमेन्द्र हुआ। वहीपर तीस सागर प्रमाण आयु जीकर, वह अहमेन्द्र च्युत होकर पुष्कर द्वीपके पूर्व विदेहमें मेरसिरि और ब्यूसिरि नामका गिरि है, उसके पूर्व विदेहमें सुख देनेवाली मनुष्यभूमि मंगलायती नामको वसुधा है। वहाँ रत्नसंचय नामके नगरमै श्रावक तोका पालन करने वाले राषअजितजयका, सुन्दर स्वप्नावलीको देखनेवाली वसुमती देवीका वह पुत्र हुमा ।
पत्ता-वह देव कामदेवके मर्मका निवारण करनेवाला युगाधर परम जिन उत्पन्न हुआ। समस्त सुरवरोंने मेरुपर्वतपर आदरणीय उनका अभिषेक किया ॥१९॥
२०
वे फिर नर और विद्याधरराजका राजपाट छोड़कर बनके लिए चले गये। अपने मनको रोककर हाथ लम्बे किये हुए वह लगातार स्थित रहे । ज्ञानवान् पापको नष्ट करते हुए, भागमोक्त चरित्रका पालन करते हुए उन्हें संसारमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला और तत्त्वोंका निरूपण करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । उन्होंने मुख्य तीर्थका प्रवर्तन किया, और त्रिभुवनको कुपथपर जानेसे रोका । अविनश्वर वह अक्षय मोक्षके लिए गये 1 परमेश्वरके शरीरका संस्कार, अग्नीन्द्रके द्वारा अपने मुकुटकी आगसे किया गया। बताओ पुण्यके फलसे क्या नहीं होता? इस प्रकार मेरे कथाप्रपंच करनेपर देवोंने अपने हितमें सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। हे-हे मेरे कुल कमलको एकमात्र श्री ललितांग प्रिये, तुम्हारे ललितांगका इन्द्रियोंकी निन्दा करनेवाला हृदय उस समय जिनधर्मस मानन्दित हो गया। हे पुत्री, तुम, जिसमें देव रमण करते हैं, ऐसे अंजना नामके पर्वतको याद करती हो। हम और तुम, महासरोवरवाले नन्दीश्वर द्वीप गये थे। पुत्री तुम याद करती हो, प्रचुर कमलोंवाले स्वयम्भूरमण समुद्र के जलमें हमने क्रीड़ा की थी। और फिर जाकर, बारवको रोक देनेवाले पिहितानवको निर्वाण पूजा की थी।
२-१४
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१०.
[२३. २०.१५
१५
महापुराण घत्ता-संभरसि पुति मई भासियई एयह बहुअहिणाणई ।।
तुम्हई देशहिं रईयरई सुरवरफीलाठाणई ॥२०॥
.
दुवई-तहिं णिवतद्धमाणु युवाउसु अच्छा विहि पि जइय हुँ ।
हवं कालेण कह व णिल्लोडिन ईदययाउ त झ्यहं ।।१।। : . चया अओ सुपं ... कुल सुरिदसथुए ।
वसुंधरावहूयरे महंतपुण्णगोयरे। णिबद्धपेन्मराणा जसोहरेण राणा। सुओ हुओ हियंतओ इइव वदंतओ। कुषाइएहि मोहिओ सुमंतिणा पबोहिओ। कयंगयारिम्हाणओ मरेवि दिण्णदाणओ। सुधम्मभावणामलो खगाहियो महाबलो। दुइज्जसग्गठाणए सिरिप्पहे विमाणए। लयारपुचणामओ सरूवजित्तकामओ। हुओ सुरो दुषीसमो महं गुरु स पच्छिमी। पियन्वया अणामिया गयाउणा सेयं णिया। तुम पि तपिइल्लिया पहूंय अतिमिल्लिया। दिवायरस्स णं पहा सलक्खणा सयंपहा। कैयंतचंडिमाहओ तुहं पिओ तहिं मओ। वरुपलाइ खेडए पुरे विचित्तणीडए। पलंबथोरपाहुणो णिवस्स बजबाहुओ। सुषण्णवण्णकायओ कुलंगणाइ जायओ। रवि व सो दुलंघओ मयच्छि वजघओ। पिओसुया सुहंकरा मह सुहीण ते परा। समीधु भूमिमंहले बसेति ते सुकोंतले। सुरालयाउ आइया रमावईइ जाइया। तुम सयो पहायरी महं सुया किसोयरी। वरं वरं विहापिही पियक्खणा "विहाषिही। पियागमं पयासिही दिणेहिं तीहि भासिही। सिरीमईइ भासियं तए महं पयासियं। "भरामि है परं भवं चिरं पि ताय णं णवं ।
६. B दंपइरईपरई। २१. १. MP सए । २. MEK खयाणिया । ३. BP तुम ति । ४. MBP पहू अयं ति मिल्लिया ।
५. MBP सुलक्षणा। ६. MP कति । ७. MBP समोव 1 ८. MBP सुकोमले। ९. 13 सयपहायरी । १०. M इहाविही । ११. MBP सरामि । १२. P गयं ।।
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१०७
२३. २१. २८]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-है पुत्री, मेरे द्वारा कहे गये इन बहुत-से अभिज्ञानोंको तुम याद कर रही हो? तुम दम्पतिने जिन रतिगृह और सुखरके क्रीड़ा-स्थानोंको भोगा था ॥२०॥
२१
वहाँ जब तुम्हारे पूर्व आयुके नियुतका माधा, अर्थात् पचास हजार वर्ष आयु शेष बचो, और जब दोनों वहाँ थे, तब कालने किसी प्रकार मुझे हटा दिया। हे पुत्री, स्वर्गसे व्युत होकर मैं सुरेन्द्र संस्तुत कुलमें पुण्योंसे प्रत्यक्ष रानी वसुन्धराके उदरसे रानीसे बबप्रेम राजा यशोषरका सुन्दर पुत्र हुआ यहीं वषदन्त नामका। जो कुवादियों के द्वारा गुम कर दिया गया था परन्तु सुमन्त्रीने उसे प्रबोधित कर लिया था। जिनेन्द्रका अभिषेक करनेवाला, दान देनेवाला सुधमकी भावनासे विद्याधर राजा महाबल मरकर दूसरे स्वर्गके श्रीप्रभ विमान में अपने स्वरूपसे कामको जीतने. वाला बाईसौ ललितांग देव हुआ। वही अन्तिम देव मेरा गुरु है। और जो प्रियव्रता अनामिका पी वह आयु बीतनेपर क्षयको प्राप्त हुई। वहीं तुम उस ललितांग देवको अन्तिम प्रियतमा हुई। लक्षणवती सुप्रभा नामकी, मानो सूर्यको प्रभा ही हो। परन्तु कृतान्तके प्रतापसे आहत होकर तुम्हारा प्रिय वहाँ भी मृत्युको प्राप्त हुआ। और यह विचित्र घरोंवाले श्रेष्ठ उत्पलखेड नगरमें लम्बे
और स्थूल बाहुओंवाले वचबाहु राजाकी कुलांगनासे है मृगाक्षिणी, स्वर्णवर्ण शरीरवाला पुत्र हुआ है वनजंघ नामका, जो सूर्यके समान दुलंच्य है। वे सुघो मेरे पूर्व जन्मके शुभंकर पिता पुत्र हैं। हे सुकुन्तले, वे समीप ही भूमिमण्डलमें रहते हैं । और देवालयसे आयी हुई, तथा लक्ष्मीवतीसे उपग्न सदा प्रभाकरी तुम मेरी कुशोदरी कन्या हो। अच्छा तू अपना वर देखेगी, धाय प्रायेगी। प्रिपके आगमनको बतायेगी। तीन दिन में प्रिय प्रकट होगा। तब श्रीमती बोली, 'तुमने मुझे (सब कुछ ) बता दिया। में परभवको याद करती हूँ, यह पुराना भी, हे तात नया-नया लगता है।'
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१०४
[२३.२१. २९
महापुराण अत्ता-सुणि सेणिय आसि समासियस भरहहु रिसहजिणि ।।
णषकंदपुष्पदंतहिं हसिवि पुणु सुय भणिय गरिदै ।।२१।।
इस महापुराणे विसद्विमहापरिमाणालंकारे महाकापुप्फयंत्रविरइए महामम्वभरहाणुमण्णिए महाकावे सिरिमामयसभरणं णाम सेवीसमो परिक्षेत्री समतो ॥२३॥
संधि ॥१॥
१३. MBP कुम्फयंताहि ।
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२३. २१.३० ]
हिन्दी अनुवाद
पत्ता - हे श्रेणिक, जो ऋषभ जिनेन्द्रके द्वारा भरत के लिए कहा गया था, समान दाँतोसे हंसते हुए राजाने पुत्री श्रीमती से कहा ||२१||
१०९
अपने नव
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषक गुण और अलंकारोंले युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामध्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका श्री भवस्मरण नामका तेईसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ २३ ॥
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५
१५
संधि २४
सहुं गंदणेण णियपरियणेण महु लोयणेसुद्ध देसइ || सुराल माच अ पुत्ति आवेसइ ॥ ध्रुबकं ॥
पच्छइ सयलई आयल जो वरु सो णं वम्मण पेसित सरु
सो रहरले सलिलहु सायरु
१
अन पुत्ति जायव सुविधाण | अकरम करणि सैंबिणयहु । निहालहि । आगमि ।
अज्ज
म करहि वयणकमलु तुडुं दीणउं आयडु वज्जबाहुपाहुणयहु सायकिलेस पंकु पखालड़ि आया माणणिज्ज्ञ ते माणमि जामि भणि गट परवर जावहिं मुणिहि विमयको वजणेरी णं गंगाणईहि जणाण णियड णिसणी सावरलच्छिहि करिणि कणि जेम करु मग्गिय मत्थइ चुंविवि पुरव णिवेसिय मुहाएण जि सिडे नियच्छिउ
घत्ता - विसिह कहिउ ढंकिवि लिहिए पई जं तहिं मई ढोइय || ources aमिय ओसरवि भिय वासवदुदाइ || १ ||
पंडिय भैवणु पराइय तावहिं । दिट्ठी सुय परणाह केरी ।
महि मिलिय सुयसंत । पुरिसुज्जमलीला इव लच्छिहि । वेल्लिइ णववेल्लि व आलिंगिय । इंसिह कलहंस व संभासिय । कज्जु तो वि विकण्णइ पुच्छेिडे ।
२
सो सोहा के घर | सोणं जुवइयणहूं जीवियहरु | सोह मुहकमलदिवायक ।
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza:—
हिमगिरिशिखर निकर परिपाण्डुरवलितगगन मणडलं पुलकमियातनोति तत हवरतदकुसुमसंकरें |
विकसितफणिफणासु सुरसरितो मणिरुविगतमषः क्षिते - रियमति चित्रकार भरतेश्वर जगतस्तावकं यशः १३
GK do not give it.
४. P सुविणयहु । ५ B अद्धव
१. १. B लोयणु सुह २. P रावल । ३. MBP बज्जु - and throughout this Kadvaka ६ M एम। ७. MB जावेहि P जाविहि । ८. MB तावेहि, P ताविहि । ९. MBP मयणुक्कोयं । १०. MB सुट्ठ: P सिद्धु । ११. P विज । २. १. MBP लिय ।
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सन्धि २४
पुत्र और परिजनोंके साथ वह मुझे लोवन सुख देगा। हे पुत्री । सुनो, तुम्हारा राजा ?
मुगुर पाच बायेगा ।
..........: ... .... :..
सुम अपना मुखकमल मलिन मत करो। हे पुत्री, आज सुन्दर सवेरा हुआ है। आज मैं बाये हुए विनयशील अतिथि वस्त्रबाहके लिए करणीय करूंगा। तुम शोकके फ्लेशरूपी पंकको यो बालो। हे पुत्री, तुम आज अपने पतिको देखो। वे माननीय आये हैं, मैं उन्हें मानता हूँ और शोघ्र भाषे मार्ग तक जाकर उन्हें घर लाता हूँ। मैं जाता हूँ, यह कहकर जैसे ही राजा गया है, वैसे हो पण्डिता भवनपर पहुंची। उसने मुनियों को भी कामकी उत्कण्ठा उत्पन्न करनेवाली राजाकी कन्याको देखा । ( वह उससे इस प्रकार मिली) जैसे यमुना नदी गंगा नदीसे या श्रुत परम्परा कषिकी मतिसे मिली हो। चंचल आँखोंवाली उसके पास वह इस प्रकार बैठी जेसे लक्ष्मीके पास पुरुषकी उद्यम लीला हो । हपिनीके द्वारा हथिनीसे जिस प्रकार कर ( ) मांगी जाती है, उसने हाथ मांगा, जैसे एक लता दूसरी लताका आलिंगन करती है, उसी प्रकार एकने दूसरीका आलिंगन किया। मस्तकमें चूमकर सामने बैठाया। जैसे कलहंसी कलहंसीसे बात करती है उस प्रकार उसने सम्भाषण किया। मुंहके रागसे कहा गया उसने सब देख लिया, फिर भी राजकन्याने कार्यके बारेमें पूछा।
पत्ता-उस पण्डिताने कहा कि तुमने जो चित्रपट चुपचाप लिखकर दिया था मैं उसे वहाँ ले गयी कि जहाँ दमित वासव दुर्दान्त आदि हटकर रह गये ॥१॥
जो वर सबसे बादमें आया वह मानो सौभाग्यका घर था। वह मानो कामदेवके द्वारा प्रेषित तौर है, वह मानो प्रेमरसके जलका समुद्र है। युवतीजनोंके प्राणोंका अपहरण करनेवाला
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११२
महापुराण सो णं रूवविलासु पसारित सो णं कतिकोसु बढारिउ ।
सो णं विज्जाविहि वित्यारित सो णं पुण्णपुंजु अवयारिज । ...सो णं सूहउ मह मणि भावा ....... जोता अट्ट वि अंगई तावइ ।
पुत्ति महासिंहरहु दुहणासह देवि पयाहिण जिणवरयासहु । फेणहिमट्टेडाससंकासहु
णाई पुरंदरेण केलासहु । हियवउ र इषियसि मलेप्पिणु तेण चे वि णियकर मउलेपिणु । बंदिउ जिणु सुहर्वज्जियवज्जित वंदिउ जिणु सुरपुज्जियपुन्जिन | दिउ जिणु जगदियवं विउ वंदिङ जिणु बुद्दणिदियणिदिउ । जम्मवासु देवहु पट जुज्जा विणु सयलेण सत्थु किह जइ । अकिरिख णिक्कल गयणसरिच्छउ जंप जडयण बुद्धिा तुच्छउ । घत्तारुयत्र गइडो सीयलु हिमहो जिण तुइ पर गुरु केहल ।।
बलइयमुयहो बंशासुयहो खकुसुमसेहरु जेहरु ।।२।।
जिणु वंदेप्पिणु बंदिय मुणिवर मुणिवर से सुयहरणं गणहर । अंगणहररुहर्रजियदस दिस दसदिसिवापस रियणिम्मलजेस । जसु ण कलंकु गोति पाउ हियवइ वयवालिणि मह जसु थिय जिणणइ । णयसि पट्टसाल स पट्टर सपटुत मई संमुहूं दिट्ठ। दिद्वज पड सह मुलिहियचित चित्तें चितिउ तेण ससंत । मते विओयकते
कं ते धुणियउं भवसकते। फते" जयलचिद्रहि विझते 'फत सुमरियपेम्मुक्कते। कते ईण व संपुणे
पुण्ण पियसंजोउ ण कण्ण । रुपणे पर सरीरु पिव्वद्इ मिर्चट्रिउ देउ विण पवट्टाइ। वट्टइ जाणि कहिं दीसह सा सा मणगलिणोयरवासिणि जा। जा सा सा भणंतु सो मुश्किल सोमुच्छिच चंदु व णियच्छिउ । अच्छि उ विमणु पपुच्छिउ धावा धाइइ परियणि कहिं मिण माइइ । माइ भणइ रमणु तुछ अक्खमि अक्खमियं जं तं किह रक्खमि । धत्ता-संचरित पडिउद्धरिउ बहुपयार परेढ किउ ॥ .
परषइरुयइ सुललियमुयह कीस सहियवउ बंकि ॥३॥ २. MP हिमाद । ३. P कालासह । ४. MBP रई । ५. MP मेल्लेपिणु । ६, BPT सुहवजिग।
७. M जयवंदिमवंदिउB BP भयवज्जियवंदिउ । ८. MBP परगुरु । ३. १. MRP "दसदिसु । २. MBP जसु । ३. MP वमपालिणि । ४, B°सिरपट्ट । ५. M omits
this foot. ६. BPK पेम्मरकतें सुयरियकते। ७. HBPT णोवट्टर । ८. MRP णीवट्टित देह । ९. अभियउं । १. MBP भाव । ११. MRP कियउ । १२. MBP कियउ ।
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२४. ३. १५] हिन्दी अनुवाव
११३ तीर है। वह मानो तुम्हारे भूखरूपी कमलके लिए दिनकर है। वह मानो प्रसारित रूपविलास है। वह मानो बहुत बड़ा कान्तिकोष है, वह मानो विस्तारित विद्यानिधि है, वह मानो अवतरित पुण्य समूह है। यह सुभग मेरे मनको भाता है और जो तुम्हारे आठों अंगोंको जलाता है । जिसके बड़े शिस्तर हैं और जो दुःखनाशक है ऐसे जिन मन्दिरकी उसी प्रकार प्रदक्षिणा देकर कि जिस प्रकार फेन हिम और अट्टहासके समान कैलास पर्वतको इन्द्र देता है, रतिसे विकसित अपने मनको मुकुलित ( बन्द ) कर तथा अपने दोनों हाथ जोड़कर पुण्यहीनोंसे दुलम देवोंको पूजितोंके द्वारा पूज्यकी वन्दना की, विश्ववन्दितोंके द्वारा बन्दनीयकी वन्दना की। पण्डितोंके द्वारा निन्दितोंकी निन्दा करनेवाले जिनवर की वन्दना की। देवका गर्भवास नहीं होता परन्तु शरीरके बिना ( शिवका ) शास्त्र कैसे युक्तियुक्त है । जो जड़जन बुद्धिसे तुच्छ हैं, वे कहते हैं कि वह (शिव) निष्क्रिय निष्कल आकाशकी तरह निराकार शून्य है ।
पत्ता-हे जिन, आकाशसे अधिक मारी, हिमसे अधिक ठण्डा और तुमसे महान् गुरु कौन है ? वह वैसा ही है, जैसे मुड़ी हुई भुजावाले वन्ध्यापुत्रके ऊपर आकाशकुसुमोंका शेखर ।।२।।
जिनकी वन्दना कर, उसने मनिवरोंकी बन्दना की। शुभ करनेवाले वे मुनि मानो गणधर हों । अपने अंगों और नखोंकी कान्तिसे दसों दिशाओंको रंजित करता हुआ दसों दिशाओं में अपना यश फैलाता हुआ, जिसके कुल और हृदयमें कलक नहीं है। व्रतोंका पालन करनेवाली जिसकी मति जिननयमें स्थित है, ऐसा नतशिर वह पट्टशालामें प्रविष्ट हुआ। प्रवेश करते हुए मैंने उसे सामने देखा । अपने सुलिखित चित्तसे उसने पट्ट देखा और श्वास लेते हुए उसने सोचा। इष्टके वियोगसे पीड़ित उस उत्तम पुरुषने जीवन की आशंका करते हुए अपना सिर हिलाया। विजयसमीके लिए विक्रान्त सुन्दर, स्मृत प्रेमसे उस्कण्ठित, सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर ( उसने सोचा ) कि प्रियसंयोग पुण्यसे होता है, रोनेसे नहीं । रोनेसे शरीर नष्ट होता है, शरीर नष्ट होनेपर देव मी प्रवृत्त नहीं होता ( काम नहीं करता ) ( पता नहीं ) वह कहाँ है, कहाँ दिखाई देगी, जो मेरे मनरूपी कमलके भीतर निवास करनेवाली है। "जो वह, वह जो" यह कहता हुआ वह मूर्छित हो गया। वह सौम्य चन्द्रमाके समान दिखाई दिया, धायके द्वारा पूछा गया वह विमन बैठ गया। परिजन दौड़ने (वित ) होनेपर मन कहीं भी नहीं समाता। वह कहती है है पुत्री ! तुम्हारा प्रिय बताती हूँ, जो कुछ उसने कहा है वह तुमसे कैसे छिपा सकतो हूँ।
पत्ता-अच्छी तरहसे आच्छादित, बहुत प्रकारसे प्रतिलिखित यह पूर्वभक्चरित राजपुत्रीने अपने सुन्दर हाथसे अपने हृदयके साथ कैसे अंकित कर दिया ।।३।।
२-१५
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१०
११४
४.
महापुराण
अण्णेतहि वि एत्थु णो लिहियउ रस रोमंचि अम्हt aणुपरिमलपरिभमियनुं पत्थु ण लिहियच लज्जादेसिह
is ferrery विविधाम एहु दिव्वतरुवरुणंदणवणु पडु ललियं देव हवं होत घण लघुलिया रमणहारी अयणाहु पहु ति कहइ जुयंधरदेव का प एय अम् बे विषहरं इय मेहड़ि गयाई जगखेभहु एहु अंजणमहिहरु महु रुचइ इह ससुरणा मुहलिय अंबरति पहु गिरिसारङ एत्थु तासु कमकमलु णमंतई घा - एहु मलरहिए ह पाडहिड एह सह चत्र ॥ वियसिद्धिषणे जिणवरभवणे महि पयपोमहिं अं ||४||
४
लिहिय पैहु सिरिमहु सुरहरु । पलवमाणु चलकलकोड़लगणु । पत्थु वर्तत एत्थु रसंत | Rs सह देवि महारी ।
टिपरमेसर |
सबभेसर मई लीणचं | केह णिसुणिनि नियमणि संतुहई | इस लग्गई जिणहाणारंभहु | एहु दीव वीस वुश्च । दहति विणि वि चलियई । पहियास लिहित भारत । fres a fव जिधम्भु सुतई ।
भरणु इणुिण लिहिय पण लिहिय परिवहु विलसित इह कोलपत्तावलिमोडणु पण लिहिउ बिरहा मुहु त्यु विडियs भूणु पेसि एक जि लिहियस अणुण्यगारउ पडिए सारं मुयावि व अहिड़ी व विहूई अण्णदि पणिई सई
[ २४.४. १
जो मई कौलारं पविहियत । एत्थु ण लिहियउ मोरुं पणचि । एत्थु ण लिहियडं अलिगु सुगुमियवं । सुय गुरुयणआगमणुक्रमासिक जं बहुणवणहं सोहइ महिय । एत्थु ण लिहिय पणयारोसित । एत्थु ण लिहियर किसलयताणु | एत्यु ण लिहियत प्रिउँ विषरं मुहु | एत्थु ण लिहियड दूययभासिज । हु हु दिण्णव पायपद्दारव । एत्थु ताइ इ आसि खमाविव । देवि सर्वपद माणवि हूई । अणु" लिइ किं मधु पारित |
११
१. P इ and throughout this Kadavaka ४. MI नियम । ५. MB सरई ।
५. १. MBP णालियउ । २. B मे । २. MBP सुद्ध ४ MB गुरुय। 1 MBP read this line as: एत्यु ण लिहिउ पणयारोसिड, एत्यु ण लिहिय पविडूविलसित । ६. MBP विरहाउ ७. MBP पिउ | ८. MB भूषण । ९. M एरण: B एउ महू । ११. MB अण्ण |
१०. MBP बिहाई
२. MB सुपर" । ३. MB कहि ।
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२४. ५. १३]
हिन्दी अनुवाद
_ "यह विविध देवोंवाला ईशान स्वर्ग है। यह श्रीमह विमान चित्रित है। यह दिव्य वृक्षोंवाला नन्दनवन है । यह बोलता हुआ सुन्दर कोकिलगण है। यह मैं ललितांग देव रहा । यहाँ वसता हुआ, यहाँ रमण करता हुआ । स्तनतलीपर आन्दोलित हारसे सुन्दर यह हमारी प्यारी स्वयंप्रभा देवी है । देवोंके इन्द्र यह अच्युतनाथ हैं। यह परमेश्वर इन्द्र चित्रित हैं । यह मुझमें लीन लान्तव ब्रहावर युगन्धर देवका कथानक कह रहा है। ये हम दोनों बैठे हुए हैं। कथा सुनकर अपने मनमें सन्तुष्ट हैं । ये हम विश्वके स्तम्भ सुमेरु पर्वतपर गये हुए हैं, ये हम जिनेन्द्रक अभिषेक में लगे हुए हैं। यह अंजन महीधर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है, इसे नन्दीश्वर द्वीप कहा जाता है। यहां हम दोनों सुन्दर मुखवाले इन्द्र के साथ वन्दना भक्तिके लिए गये थे। यह पर्वतश्रेष्ठ अम्बरविलक है। यह आदरणीय पिहिताश्रय चित्रित हैं । यहाँ उनके चरणकमलोंको प्रणाम करते हुए और जिनधर्मको सुनते हुए हम दोनों बेठे हुए हैं।
पत्ता-ग्रह मैं निर्दोष नाट्याचार्य हूँ, और यह स्वयंप्रभा नृत्य कर रही है। विसिवनके जिरवरमघनमें धरती चरणकमलोंसे शोभित है ।।४।।
दूसरी जगह जो कोड़ा मैंने आरम्भ की थी वह यहां नहीं लिखी गयी। रति नूपुरके शब्दसे रोमांचित मयूर जो यहाँ नाचा था, वह यहां नहीं लिखा गया । हम लोगोंके शरीरके परिमलसे परिमित भ्रमरका गुंजन यहां नहीं लिखा गया। गुरुजनोंके आगमकी सूचना, और लज्जाका उपदेश देनेवाला शुक यहां चित्रित नहीं किया गया। यहा कानोंका आभूषण यह कमल नहीं लिखा गया, जो वधुओंके नेत्रोंसे भी अधिक महनीय शोभित है। यहाँ प्रतिबधूको चेष्टा चित्रित नहीं है, यहांचर प्रणयकोप चित्रित नहीं है यहीपर मालोंकी पथरचनाका मण्डन और किसलयताइन लिखित नहीं है । यहाँपर विरहातुर मुंह लिखित नहीं है, यहाँ काँपता हुआ प्रिय मुंह नहीं चित्रित किया गया, यहाँ भेजा गया आभूषण नहीं चित्रित किया गया, यहाँपर विरहसे आतुर मुंह नहीं लिखा गया, यहाँपर दुतीका सम्भाषण नहीं लिखा गया। यहां एक ही चीज लिखी गयी है और वह मुझपर कृपा करनेवाला मुझपर किया गया पादप्रहार। मैंने पैरोंपर पड़कर उसका कोष दूर किया था और यहाँ पर मैं उसके द्वारा क्षमा किया था। रूपको बिभूति स्वयंप्रभा देवी अन्यत्र मानधी हुई है । माप ( सौन्दर्यके ) के निषान नेत्र क्या दूसरेके हैं । दूसरा कौन मेरा चरित्र शिख सकता है?
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__११६ ..
महापुराण पत्ता-भणु कि कहमि ण विरहु सहमि दुइइ पिय महु आणहि ॥
सा वेत्थु पुरे थिय जम्मि घरे तहिं जायवि संमाणहि ।।५।।
- पूई अन्धा ::. : यदि हरिकिणि पुरिसारी । बजयतु पहु बहु सुहगारी लच्छीमइ महवि भहारी। धीय ताहि सिरिमा सप्पण्णी पिउ सुमरिवि जोखियणिब्धिण्णी। पहु ताइ लिहियड कहवइयरु पई जाणियर्ड णिरुत्सउ तुई चहा एम भणेप्पिणु एवं एस्थाइय पडसंबंधिणि वत्त णिवेश्य । तावेसहि कुमार गउ तेत्तहि नप्पलखेडउ पुरषरु जेत्तहि । पियषिओयसिद्दिजालाछित्तउ घरि वलिमयलइ देहु णिहित्तउ । तरुणीवग्गुरवष्टि पलोइत्र वणवाहें मुंगु संभाविउ । पत्ता-इरिद्धपण मयरद्धपण विद्धत पंचहिं बाणहिं ।
विवरील हुन सो रायसुख कह व ण मुकत प्राणहिं ॥६॥
दुप्परिणामें कामें तप्पड
सीयलमलयजपं लिप्पद। रसइ हसणीससइ विरुझाइ उउ बहसइ मोहें मुझइ। कर मोडइ धम्मेजय मेझाइ अहरु इसई अणिबद्ध पयोलाइ । वेयइ बलइ विलासहिं गच्छा परु पच्छैण्णु पउत्तिहि पुच्छ । एकहि णिलइ ण णिविसु वि अच्छइ दिसि लिहियं पिय पियमुहूं पेच्छद । नहाइ ण धुषाण जिणवर पुजा भूसणु लेहण भोयणु मुंजई। रमाइण कंदुर तुरहण बाइइ करि वि रहु वि णयेणेहिं ण चाहइ । गेड ण सुगइण वजन वायद पर णिम्मीलियच्छु पँय शायद । एकु वि रायविणो ण माण कामगहिल्लर कि पि ण याणइ । मंतिहिं बञ्जबाहु विण्णवियउ तणउ देव मयणे परिई वियउ । घत्ता-दुई सइहि लकडीमइहि जा सिरिमइ तहि रत्त॥
हुकी णियइ दुकर जियह कामाणलसंतसउ ॥७॥ १२. MBF जेस्य । १३. MBP हरे । ६. १. MBP बुत्तु । २. MBP ताहि । ३. M वगगुरू पहिउ विलोइउ; P वग्गुरु वहिन विलोइन ।
४. MBP मिगु । ५. M रहविद्धएण; P रइरिदिएण । ६. MBP पाणहि । ७. १. MBP अणिदबउ बोल्लइ । २. MB पच्छण । ३. P णिमिसु । ४. M तुरिउ । ५. MBF
णयहि वि ण । ६. P परि । ७. MBP पिय । ८. P परिहाविच ।
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११७
हिम्बी अनुवा
२४.७.१२]
www.
बता-बताओ में क्या करूं, में विरह सहन नहीं कर सकता। हे दूती, प्रियाको मेरे पास छा वो। वह जिस नगर में मोर घरमें स्थित है वहाँ जाकर मेरी कुशलवार्तासे उसे सन्तुष्ट करो" ॥५॥
६
तब दूनी बोली--"हमारी नगरी पुण्डरीकिणी सब नगरियोंमें श्रेष्ठ है। उसका कल्याण करनेवाला राजा वदन्त है, उसकी आदरणीय महादेवी लक्ष्मीमती है। उसकी कन्या श्रीमती उत्पन्न हुई है, जो प्रियकी याद कर जीवन से विरक्त हो चुकी है। यह कथावृत्तान्त उसने लिखा है। तुमने इसे ( वृत्तान्तको) जान लिया है, तुम निश्चित रूपसे इसके वर हो। यह सोचकर में यहाँ आयी हूँ। पचित्र सम्बन्धी वार्ता निवेदित की।" इस बीच कुमार वहाँ गया कि जो उत्पलखेड नामका नगर था । प्रियके वियोगकी ज्वालासे जलती हुई देहको घरके भूमितल में डाल दिया । युवतीके जाल में पड़ा हुआ वह ऐसा दिखाई दिया, मानो वनव्याधाने मृगको आहत किया हो ।
धत्ता - रतिसे समृद्ध कामदेवके द्वारा, पाँच बाणोंसे विद्ध वह राजकुमार एकदम छटपटाने लगा। किसी प्रकार उसने अपने प्राण-भर नहीं छोड़े ||६||
19
दुष्परिणामवाले कामसे वह सन्तप्त है, शीतल चन्दन लेपसे उसका लेप किया जाता है । वह बोलता है, हँसता है, निःश्वास लेता है, विरुद्ध होता है, उठा हुआ बैठ जाता है, मोहसे मुग्ध हो जाता है । हाथ भोड़ता है, बाल बिखराता है। ओठ काटता है, अण्टसष्ट बोलता है। काँपता है मुहता है, विलासोंके साथ जाता है। दूसरेसे प्रच्छन्न उक्तियोंसे पूछता है। एक धरमें वह एकमात्र भी नहीं ठहरता न नहाता है, न धोता है, और न जिनवरकी पूजा करता है। न माभूपण पहनता है और न भोजन ग्रहण करता है, न गेंद खेलता है। न घोड़े पर चढ़ता है। हाथी मोर रथको तो वह आँखोंसे भी नहीं देखता । न गीत सुनता है और न वाद्य बजाता है। केवल ater बन्द कर अपनी प्रियाका ध्यान करता है। एक भी राजविनोद वह पसन्द नहीं करता । हमसे अभिभूत वह कुछ भी नहीं चाहता। तब मन्त्रियोंने राजासे निवेदन किया, "हे देव, पुत्र कामदेव पराभूत है ।
पत्ता - हे देव ! सती लक्ष्मीमतीकी जो श्रीमती कन्या है, वह उसमें अनुरक्त है, उसको नियति आ पहुँची है, कामाग्निसे सन्तप्त उसका इस समय जीना कठिन है" ||७||
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१०
५.
१०
११८
महापुराण
८
ss र दर बसे प्पिणु । पाइप सुथिले कि काल । अज्जू जि.
"अरे तु पृयमेल ।
सुविछोड देणिणु ग तहिं जहिं अच्छ सो बालब आवहि जाम ण होइ विद्याल सुह महारी पई कहि विही
कुमारु परिभ्रम सलीलइ पुत्रजम्मु तहिं पण नियच्छिउ कामु विमानरुवि जं पाडइ पट्टे लिहियउद्दियवइ लिहिल अवर्से होस णिव विहिचिडि तास ते सम कलते जाहु सहसति पधा रच्छसोह पुरि कारावेष्पिगु पत्ता - आरंतु पद्दे पर अद्धवहे पत्रिभुषण जयकारिज || सो तेण जिह देवी हि तिह सुरण 'क्यारित ||८||
"सिद्धी ।
दिउ पहु आलिहिर जियालइ । चिरकतावाद परिहच्छिल । ताहि रूत्र के कंण भमाइड । को तं सइ णिडालड़ लिहियउ : एम जाम मधे कहियत्र । स सेण्णेण बलधयछत् I यरि पुंडरिंकिणि संप्राईडे | लीलाइ मत्तरिदि षडेपणु ।
सालय सस चिणि त्रि जोगष्पिणु ri recipes सैस्सीय पुरणारीयणु कर्हि मिसाइ fasts फेरउ सहि धरणीवर जसराम धीय जिजिंदह चप्पलखेडरेस जो सग्गार देउ अवयरियड इहु सो वजजंघु हलि परवन सो विण पावइ चिन्तु जि पात्रह पुरिसु होइ जइ एवम्भ का वि भणइ चाहि भई पिय ताइ नियंतिय रुवु कुमारहु
घता - रहपेलियडं उठवेलियनं णिच्छुतु निरंभ ||
कणि
यहुं र फल पावेष्पिणु । अहिं रूवर पीयत । अवरुप चूरंतु पधाइ । बाहु हु सो वहिणीवइ । एह वसुंधर महिणि णरिंद fruit सुंदरि fornवेसहु । जो सिरिमइवम जम्मंतरियन । एहु मुहुं मई पेरिय करु | तं परंतु वि तणु संताबई | णं णं सो अनंग मुनिमणमडु |
कोट पलोयमि वसृय । पेम्म जलोलिय तणु भत्तारहु |
12345
चुये मेहलए ददु परिह नियंध ||१९||
[ २४. ८. १
८. १. MB सो अच्छइ । २. MBP कि पिख । ३. MBP पियमे । ४. MBP चि कंता । ५. MHP पद्दालि हियत । mits this line. ७. MBP पिलाइइ । ८. Bहि । ९. MBP मदतें । १०. BP धवलछततं । ११. MBP संपा३ । १२. M णवियारिउ ।
९. १. MEPT सीयज । २ MBP पुरि । ३ K पराइ
४ MUP K but recte it 10 पहुं । ५, MBPK हि । ६. MBP पसरिउ ७ MBP रातु जि । ८. MBP वरसिप । ९. MP घृड मेहलए दर्द: B हुए मेहलए १०. MP परिहाणु निबंध
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महापुराण
[२४. ८.१
तं णिमुण्णिवि णछोड देषिाणु उहिउ परवइ दर विहसेप्पिणु | गर तहिं जहिं अच्छइ सो बाल पभणइ पहु सुय थिई कि कालउ । आवहि जाम ण होइ वियालय अज्जु जि किजइ तुह पूयमेल । सुण्ह महारी पई कहिं विट्ठी अवर वत्त गरिदह सिट्ठी। गउ कुमारु परिमम सलीलइ दिदृउ पडु आलिहिउ जियालइ । पुषजम्मु तर्हि एण णियन्छिन चिरकताश्यास परिहच्छिन । कामु वि कामरूवि जं पाड ताहि रूउ के कण भमाडइ । पट्टेड लिहियउ हिय वइ लिहियन को तं पुसइ णिडॉलइ लिहिय उ । अबसे होसह णिच विहिविहिर्यउ एम जाम मईबंधे कहियः । सा लहुं पुर्ने समउ कलत्तें सहं सेणेण धर्वलधयछत्ते । वजवाहु सहस सि पधाइउ णयरि पुंडरिकिणि संप्राइजे। रफछसोह पुरि कारावेपिणु लीलइ मत्तकरिदि चडेप्पिणु । धत्ता-आबंतु पहे पहु अद्धवहे पविभुएण जयकारिउ ॥ ___ सो तेण जिद्द देवीइ तिह तिह सुएण'णेदयारित ।।८।।
सालउ सस विणि वि जोएपिणु ___णयणहुं केरल फलु पावेप्पिणु । राएं अवलोइयर सस्सीयउ अच्छिउद्देहि रूवरसु पीयउ। पुरणारीयणु काहि मि ण माइड अवरुप्पड चूरंतु पाइल! शिवइहि केर उ सहि धरणीवइ वलबाहु पंहु सो बहिणीवर। जसहरणामहु धीय जिणिदहु एह वसुंधरि बहिणि गरिंदहु । एयहु उप्पलखेडणरेसह
विष्णो मुंदरि णिरुवमवेसह । जो सग्गाउ देउ अवयरियल जो सिरिमइवरु जम्मतरियज । इहु सो वजजंधु हलि परवरु एयहु संमुहुँ मई पैसरिय कर । सो षि ण पावइ चित्तु जि पावइ त पावंतु वि तणु संतावइ ।
पंण सो अणंगु मुणिमणमहु । का वि भणई उच्चायहि मई पिय लंघधि कोटटु पलोयमि वरस्य । ताइ गियतिय रूयु कुमारह पेम्म जलोल्जिय तणु भत्तारहु । पत्ता-रइपेझिय अम्वेल्लिय णिच्छुईतु णिरंभइ ॥
कविणिम्मलए चुर्य मेहलए ददु परिहणुणिन्न धइ ।।२।। ८. १. MB सो अच्छह । २. 11B1' कि थि। ३. MBP पियमेल । ४. MBP चिक कता ।
५. MBP पदालिहियउ । ६. 13 milk this lint, ७. MBP णिलाडइ। ८. B वहियउ ।
९. MBP मचंतें । १०. BP धवलछत्तत्त । ११. MBP संपाइन । १२, Mणवियारिख । ९. १. MBPT ससीयत । २. MRP पुरि । ३. K पराइउ । ४. MBP एह: Kएह but Drrecta
it to पह। ५. MBPK बहिण । ६, MBP पसरिउ । ७, MBP पावंतु जि । ८. MBP वरसिय । ९. MP धुउ मेहलए दईB चुए मेहलए दवं 1१०. MBA परिहाणु णिबंधइ ।
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२४.९.१४]
हिन्दी अनुवाद
११९
यह सुनकर अपना नाखून तोड़ता हुआ राजा कुछ मुसकाता हुआ उठा। वह वहाँ गया जहाँ वह बालक था। वह बोला-"तुम काले क्यों हो गये हो। आओ, जबतक शाम नहीं होती, तबतक आज हो तुम्हारा प्रियमिलाप करा दिया जायेगा। मेरी बहुको तुमने कहाँ देखा।" तब किसी एकने कहा-"कुमार लीलापूर्वक कहीं घूमने के लिए गया हुआ था। उसने जिनालयमें एक बिट लिया कक्षा में इस मा पूर्वजन्म देख लिया और अपनी पूर्वजन्मकी कान्ताको जान लिया। जो कामको कामावस्थामें डाल देती है, ऐसी उसके रूपसे कौन-कौन नहीं नचाया जाता। जो पट में लिखा है, हृदयमें लिखा है और जो भाग्यमें लिखा है, उसे कोन मिटा सकता है। भाग्यका लिखा हुआ हे राजन्, अवश्य होगा। इस प्रकार जब मतिबन्ध मन्त्री ने कहा तो राजा पुत्र और परनी के साथ सेना और धवल छोंके साथ चला। वनबाहु एकदम दौड़ा और पुण्डरीकिणी नगरी आया। नगरमें मार्ग शोभा करवाकर और लोलापूर्वक मत्तगज पर चढ़कर
पत्ता-पथपर आते हुए प्रभुका आधे पथपर बच्चबाहुने जयकार किया। जिस प्रकार उसने, उसी प्रकार उसको देवी और पुत्रने मी नमस्कार किया ॥८॥
साले और बहन दोनोंको देखकर, अपने नेत्रोंका फल पाकर राजाने अपने भानजेको देखा और आंखोंके पुटसे उसका रूपरस रिया। पुर नारीजन कहीं भी नहीं समा सके। वे एक दूसरेको चूर-चूर करती ( पकापेल करती हुई ) दौड़ी। "हे सखी, यह जो राजा वजवाहु है वह राजाका बहनोई है। यह यशोधर नामके जिनेन्द्रको कन्या, यह वसुन्धरा राजाकी बहन है। अनुपम रूपवाले उत्पलखेरके राजाको यह वी गयी है। जो स्वर्गलोकसे अवतरित हुआ है वह श्रीमतीका जन्मान्तरका वर है। यह वह नरश्रेश्ठ वनजष है। हे सखी ! इसके सम्मुख मैंने यह अपना हाथ फेलाया, लेकिन यह भी नहीं पा सकता, चित्र ही पा सकता है। उसे पाते हुए भी शरीर सन्तप्त हो उठता है। शायद यह कामदेवका पुरुष हो, नहीं-नहीं, यह तो मुनियोंके मनका मपन करनेवाला कामदेव है।" कोई एक कहती है- "हे प्रिय ! मुझे ऊपर उठाओ, परकोटा लांघकर मैं परकी श्री देख लू।" प्रिय कुमारका रूप देखती हुई उसका शरीर प्रेमजलसे आई हो गया।
पत्ता-रतिसे प्रेरित, उज्वेलित और स्खलित होती हुई रुक जाती है। कोई अपनी निर्मल करधनीमें धोतीको कसकर बांधती है ।।९।।
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१२०
महापुराण
a
अंतरिष्ट सून पायारें । कि पेच्छमि अंगाई समयणई । अज्ज परइ मेल्लेमि पेइसयई । जीवमि छुट्टै मुहकमलु नियच्छमि । बियाणहुं चिले काई उत्थी । छुड को वि महात चिप्ण । पाहुणाई पंढेसु णिविहई | ... ताई म सुर्वसु पंचिदियहुं पियारत ।।
मं
कावि भइ जगदुवारें Bf करु करयलइ ण णयणई का वि भणइ भासिय दुब्वयणई एहु धरि दासित समिच्छमि का fares वसु सयत्थी पहव जाहि रमण संपण्ण सं तहि अवसर पहुभणि पट्टई उणि हाणु विलेयणु शिवस पत्ता - पुणे विविहरसु सुरहिउ
जेव जिमि णावर रमि रहुं धुत्तिहि केर ||१०||
भाइ रिंदु किंपि विप्पमि तुहुंघरु आय तु किं कि जब was कुलिसेयर धणुकय संकल घणु मज्जु व मज्जाव माणुसु यण जाणमि मइमाइलाई aणु किं संणिवा होसह vg काणी दो दुल्लहु सलु अस्थि महु तुझ पसाएं सकुलायड सोइहउँ दाबहि तं परणा व समत्थिष्व परभवाज सुरमिदृणु जि आयउ अच्छ विरहाणसं तत्तत्र
११
घणु जं मग्गहि तं जि समप्पमि । भागु भणु बन्जबाहु किं दिज्जन । धणु गुणेण सहुं णि जि बंक । धणु मारण बंधुढोइयविसु । सेण जि पि इटड विण णिहालइ । तेण जि धणि अणिबंधउं भासइ । उत्तमपुरमा सुदुलहु । एकु जि मग्गमि सुहिअणुराएं । सिरिमइ वज्जजंवकरि लावहि । खिच उपरि घिउ ओमत्थिउ । तु मंदिर माणुस जाय | संजोइज्जत्र विचितं ।
4
पत्ता-चकेसर हो तहु पवियरहो कण्ण" लिहियक्ष आणिउ || गुणभूयिता विवसियर पद्मपचु वक्खाणित ||११||
[ २४.१०.१
१०. १ B मेल्लिवि । २ MBP पिजसयपरं । ३. MBP फुडु । ४. P सकियत्यो । ६. MB सबसु | 19. MBP जेमणु ।
११. १. B वियपमि । २ MBP कुलिस। ३. MBP घणु परणयगई आणमि महलई । ४. MBP M मत्थि । ८. MBP
५. B चिर
५. MBP अणिबद्धरं । ६. MBP माणु सुबल्लहु । ७. काहि । ९. MBP एव जि । १०. MBP विहार । ११. MBP बालर लिहिजे वियाणिजं ।
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२४. ११. १४]
हिन्दी अनुवाद
१२१
१०
कोई कहती है कि "आंगनके पेड़, प्रतोली ( नगरका अग्रद्वार) और परकोटेने प्रियको छिपा दिया है !" उसने हाथ उठाया। न तो हाथसे और न नेत्रोंसे, (कुछ दिखाई देता है ), मैं कामदेवके समान अंगोंको किस प्रकार देख ? दुर्वचनोंसे प्रताड़ित कोई कहती है-"मैं आज या कलमें पति और स्वजनोंको छोड़ देती हैं और इसके घरमें दासी होना चाहती हूँ। मैं उसका मुंह देखकर जीवित रहूंगी।" कोई कहती है कि यह राजकन्या कृतार्थ हुई, न जाने पहले इसने कौन-सा व्रत किया था जिससे यह वर इसका हो गया ? जरूर इसने कोई महातप किया। उस अवसरपर राजाके भवन में उन्होंने प्रवेश किया और अतिथि पौठोंपर बैठ गये। जहां उन्हें स्नान-विलेपन-वस्त्र-पुष्पदाम और मणिभूषण दिये गये।
घत्ता-फिर विविध रस सुरभित जीरक, पांचों इन्द्रियोंको प्रिय लगनेवाला भोजन उन्होंने किया, मानो किसी धूत के रतिसुखका रमण किया हो ॥१०॥
राजा कहता है-"मैं कुछ भी नहीं सोच पा रहा है, जो धन मांगो में देता हूँ। तुम घर आये तुम्हारे लिए क्या करूँ, तुम जो धन मांगते हो वह मैं दूंगा। हे वज्रवाह, कहो कहो, क्या दिया जाय।" तब धनुषसे शंका उत्पन्न करनेवाला वज्रबाहु कहता है-'धनुष-गणके साथ नित्य ही वक रहता है। घन मद्यकी तरह मनुष्यको मतवाला कर देता है; धन मारक होता है और भाइयोंमें विष संचार करता है । धनको मैं नेत्रों और बुद्धिको मैला बनानेवाला मानता है। यही कारण है कि मैं घनमें कुछ भी मलाई नहीं देखता । षनसे क्या? वह सन्निपात ज्वरके समान है; इसीलिए धनमें अनिबद्धता ( अलगाव ) कही जाती है । धन कानीनों ( कन्यापुत्रों और दोनों के लिए दुर्लभ होता है, उत्तम पुरुषोंके लिए मान अत्यन्त दुर्लभ होता है, आपके प्रसादसे मेरे पास सब कुछ है, सुधिके अनुरागसे केवल एक चीज मांगता हूँ, अपने कुलका सौहार्द दिखायें और श्रीमती ववजयके हाथमें दे दें।" राजा वज़दन्तने इसका समर्थन किया, जैसे खिचड़ीके ऊपर घी डाल दिया गया हो, दूसरे जन्मसे यह देवयुगल आया है और इसने हमारे-तुम्हारे घरमें जन्म लिया है, वह जो विरहको ज्वालासे सन्तप्त है, देवसे वियुक्त इसका संयोग करा देना चाहिए।
पत्ता-चक्रवर्ती वचबाहको कन्याके द्वारा लिखित चित्रपट गुणभूषित विदुषी धाय लायो और उसकी व्याख्या की ॥१शा
२-१६
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महापुराण
[ २४. १२.१
पियराहिरामा
संपुषणकामाई। मुकाइ वाया
तुहाइ माया। परिखवियकम्माइ कड्याइ रम्माइ। লিগ
दिपणाइ धूवाइ। सामागाउँकेहि : ...
गडियखंभेहि। रुप्पभैयहि
आलिहियभरेहि। विप्फुरियरयणेहि वरहीरगाणेहि। आसणविराइयहि माणिकवेश्यहि । पडिणेतपच्छा
कंतीइ चेइन । भलंतमोत्तियहि णं दंतपंतियहिं । विसंतु पडिहाइ दिहीसुहं देह। णाणापयारेहि
णाणादुवारेहि। कर मंडओ ताम संमाइ जणु जाम । मिलिएहि सुहियणहिं भरिएहिं तोरणहि । घणरवगहीरेहिं
पहएहिं तूरेहिं। णचंततरुणीहि
मंडलियचरणीहि । नयरीहिं जक्खिणिहिं जायरणियबिणिहि। हिमहारसरिसेहि सजलेहि कलसेहि। परपुत्तवंतीहिं
महिणाहपत्तीहिं। सोहगसुंदरई
ण्ड् वियाई वहुवरई। पुणु पुणु पसाहियई णवरइरसाहियई। थुइवयणकलयहि धवलेहि मंगर्लाह ।
पुणु पुणु जि गाइयई आसपणढोइयई। धत्ता-पसरियकरहे मयणिज्भरहे मणु मयणे 'मुधियारिउ ।
मुहबद्ध पियहे गं गयघरहे वरसुहाउँ ओसारिउ ||१२||
आत
२५
सोहणे वासरे चामलग्गुग्गमे उम्गदोहगदुकावावलीणिग्गमे । पाणिणा पाणि तीए तिणा धारिओ अंगडाहो परं दूसाहो हारिओ। रायरापण भिगोरएणाणियं भायणेयस्स वित्तं करे पाणियं । अपणजम्मागया तुज्झ सीमंतिणी तुज्झु मे दिपिणया पेसलालाविणी।
वाणो वाउवेया पमसा गया पंचवण्णा पवित्ता विचित्ता धया । १२. १. P संदिण्णाधूवाइ । २. MBP घडिउ खंभेहि । ३. MBP कॅडेहि । ४. MB डेहि । ५. NMBP
चिंचहज । ६. MBP झुल्लत । ७. P सुहृयाह । ८. RP घरिणीहिं । २. Mसरसेहिं । १०. MB
सवियारिख । १३. १. भगार । २. MBP भाइणेयस्य ।
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महापुराण
[२४. १२.१
पियराहिरामाइ संपुषणकामाह। मुकाइ वाया
तुहाइ माया। ..: : परिखजियारम :: :इकाइ स्मा। जिणणाहपूयाइ
दिपणाइ धूवाइ। सुइसायकुंभेहि घेणघडियखंभेहिं । रुप्पभयकुहि
आलिहियभरेहि। विष्फुरियरयणेहि परहीरगाहणेहिं । आसणविराइयदि माणिकवेइयहि । पडिणेत्तपच्छदार कंतीइ चेइन । रुलं वमोत्तियहि
णं दंतपंतियहि । विसंतु पडिहाइ दिहीसुई देइ । णाणापयारेहि
पाणादुवारेहि। कल मंडओ ताम संमाइ जणु जाम । मिलिएहिं सुहियणहि भरिएहिं तोरणहि । घणरयगहीरेहि पहएहिं तूरेहि। णततरुणीहिं मंडलियर्घरणीहि । खयरीहि जक्खिणिदि णायरणियविििहं। हिमहारसरिसेहि सजलेहिं कलसेहि। पइपुत्तवंतीहिं
महिपाइपत्तीहि । सोहगसुंदरई
ण्ड वियाई बहुवरई। पुणु पुणु पसाहियई वरइरसाहियई। थुइक्यणकलयलहि धवलेहिं मंगर्लाह ।
पुणु पुणु जि गाइयई आसपणढोइयई। घता-पसरियकरहे मयणिन्भरहे मणु मयण सुवियारिउ ।
मुहबद्ध पियहे णं गयषडहे वरसुह हे ओसारिउ ||१२||
२५
सोहणे वासरे चामलग्गुग्गमे उग्गदोहग्गदुःकामावलीणिग्गमे । पाणिणा पाणि तीए तिणा धारिओ अंगड़ाहो परं दूसाहो हारिओ। रायरापण भिंगारएणाणियं भाणेयास चित्तं करे पाणियं । आपणजम्मागया तुज्झ सीमंतिणी तुझ मे दिपिणया पेसलालाविणी।
वाइणो वाजवेया पमत्ता गया पंचवण्णा पवित्ता विचित्ता धया । १२. १. P सदिष्णधूवाइ । २. MBP प६ घडिउ खंभेहि । ३. 11:P °कुंडेहिं । ४. MB डेहि । ५. MAP
चिपाइउ । ६. MBP मुल्लत । ७. P मुहयहिं । ८. 13P घरिणीहि । ९. Mसरसेहिं । १०. MB
सघियारिज । १३. १. P भंगारं । २. MBP माइणेयस्य ।
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हिन्दी अनुवाद
१२
अपने प्रियके लिए सुन्दर, सम्पूर्ण काम, मुक्त और सतुष्ट माताने कर्मोंका क्षय करनेवाले जिननाथको पूजा की और धूप दी। पवित्र स्वर्ण घटों, सघन निर्मित खम्भों, रजतनिर्मित दीवालों, अलिखित भांडों, चमकते हुए रश्नों तथा श्रेष्ठ हीरोंसे सघन आसन से शोभित वेदियों और कान्तिसे अलंकृत शत्रुओं की खोंको आच्छादित करनेवाला, चमकते हुए मोतियोंके समान अपने दांतोंकी पंक्तिसे जो हँसता हुआ जान पड़ता है और दृष्टिसुख देता है। नाना परकोटों, नाना द्वारोंसे युक्त इतना बड़ा मण्डप बनाया गया कि जहाँ तक सम्भव है उसमें जनसमूह समा सके । एकत्रित सुधीजनों, निबद्ध तोरणों, मेध्वतिके समान गम्भीर बजते हुए तूप, नृत्य करती हुई तरुणियों, nusarer गृहिणियों, विद्याधरियों, यक्षिणियों, नागरवनिताओं, हिमहारके समान जलमय कलशों और पतिपुत्रों वाली राजमहिषियोंके द्वारा सौभाग्य से सुन्दर वधूवरको स्नान करवाया गया। उनका नवति रससे अत्यन्त परिपूर्ण प्रसाधन किया गया। पास-पास बैठे हुए उनके स्तुति शब्दों की कलकल ध्वनिसे पूर्ण धवल मंगल गीतोंके साथ बार-बार गीत गाये गये ।
२४. १३.५ ]
··
१२३
धत्ता - जो मदसे परिपूर्ण है, तथा जिसके हाथ फैले हुए हैं ऐसी प्रियाका कामसे विदारित मन उसने मुखपटको हटा दिया मानो वरसुभटने गजघटाका मुखपट हटा दिया हो ॥ १२ ॥
१३
जिसमें उग्र दुर्भाग्य और दुःखावलीका अन्य हो गया है ऐसी शुभ लग्नवाले सुन्दर दिन, उसने उस खीके हाथको अपने हाथ में ले लिया और उसकी असह्य कामपोड़ाको शान्त कर दिया । राजराजेश्वर ने भिंगारसे लाये गये पानीकों भानजेके हाथपर डाल दिया ( और कहा ), दूसरे जन्मकी तुम्हारी कोमल आलाप करनेवाली पत्नी मैंने तुम्हें प्रदान कर दी। राजाने वायु
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१२४
महापुराण
[२४. १३.६ जाण जंपाण छत्तं सियं चामरं देस गामं पुरं सत्तभूमं घरं । सजलं हंसलासेज्जायलं
दीचओ मंचओ दासदासीउल। हारिवीरोहओ इच्छियं मंडलं कंचिदाम वरं कंकणं कुंखल। राणा पुत्तिसंलोसप्पायर्ण पत्थुसारं अणेयं पि” दिपणं धणं । रायपुत्ति करेणु व लीलागी तं करे गेण्हिउणं वरो णिग्गओ। मंडवे वेइयापट्टि आमीणओ वजबाहू समादिओ राणओ। अक्खया पूयर्दूवंकुरुम्मीसिया बंधुलोएण वित्ता सिरे से सिया। जाव गंगाणई जाव मेरू गिरी ताम्व मुंजेई तुम्हे वि णिशं सिरी। होंतु पुत्ता महंता पहाभासुरा" जंतु अच्छिाणणेहेण वो वासरा'। अच्छमाणाइ लच्छीविसाला जहिं सो वरो सा बहू दो दि ताई तहि । धत्ता-लग्गिवि वरहो तहु वासरहो परिवाहिइ सुहवासहि ।।
अहिसिंचियई पुणु अंचियई णिवहि दुतीससहासहिं ॥१३॥
१०
बालमुणालसनलकोमलयरु दियहहिं जैतहिं कील बहुचरु । बरु सकामु काई वि जंपावर वहु लज्जति तं जि संभावइ । वरु तणुपयाजोग्गु आलिंगइ वहु मुक्की तं पुणु मणि मगाइ। वरु फेसन शोणाम... - giभुहं मुहुँ विकायद। वरु मउअल जि करइ अहरगहु हु हुँ मेल्लि दर भासइ णववहु । वरु थणसिहरई छिवह सह] बहु बोलावस ढंका वस्थे । चीरु पसारिउ सणिय; पुजा वर करे ऊरूजुर्यलि णिउंज । वस फेडविचल्लइ पल्लंका पाणि देश बेहु वयणससंकह। बरु सोणीयेलद्वत्तस जोया या तहु दिहि"करहि पच्छायइ । अलिगणद्देहि णाहु संघट्टइ बहु उग्गयपुलएण विसदृइ । चवइ रमणु रइहरि सिज्जतई __ आसि बे वि भणु किं लज्जतई । पत्ता-कीलिवि पवरे हिमगिरिसिहरे बलियई उड्डायासहो । ___ तुह सिरिहरहो भरदेसरहो पुप्फयंतकई वासहो ॥१४॥ इय महापुराणे सिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकापुप्फयंत विरइए महामध्यमरहाणुमफ्णिए महाकब्बे बजअंधसिरिमइसमागमो णाम घडवीसमो परिच्छेभो समतो ।। २ ॥
संधि || २४ ॥ ३. MRP 'तूलंक ; "तलंक but corrects is to तूल and glors अपिषुः अर्फतूलः । ४. M हारं । ५. MB पदिपर्ण । ६. MRP सयपत्ते । ७. P करेण स्व । ८. MBP दूवंकुरामोलिया ।
९. M जेवि । १०. MBP भासुरं । ११, MBP वासरं । १२. MP पबिधाडिइ । १४. १. P बालु। २. MBP पासबोगु । ३. P केसगाहेण । ४. BP णिकाव । ५. P म जि।
६. M मह मेल्लाह दर; BP लह मेलहि पर । ७. B कर । ८. नजुयलु । १. MBP णियायण । १०. M सोणीयलु इत्तर; P सोगोयलहत्तः। ११. MBP करहिं दिष्टि । १२. MP कयमासहो; T records ap पुष्फयंतकावासओहो इति पाठे पदापित्यदीप्तिस्थानकात् ।
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२४. १४.१३]
हिन्दी अनुवाद समान वेगवाले प्रमत गज, पंचरंगी पवित्र क्वज, यान, जम्पान, श्वेत छत्र, चमर, देश, ग्राम, पुर, सात भूमियोंवाले घर, हंस, रुई और सूर्यके समान उज्ज्वल शय्यातल, दीपक, मंच, दास-दासीका समूह, सुन्दर वीर समूह, इच्छित मण्डल, कोचोदाम, वर कंकण और कुण्डल आदि अनेक श्रेष्ठ, वस्तुएँ तथा पुत्रीको सन्तोष उत्पन्न करनेवाला प्रचुर धन दिया। जिस प्रकार लोलागज हथिनीको ले जाता है उसी प्रकार बह उस राजपुत्रीको हाथमें लेकर चला गया। भण्डपमें वेदिकापट्टी पर बैठे हुए राजा वज्रबाहुका अभिनन्दन किया गया। पवित्र दुर्वांकुरोंसे मिले हुए अक्षत और सरसों, बन्धुलोक ने उसके सिरपर फेंके और कहा कि जबतक गंगा नदी है, जबतक सुमेरु पर्वत है, तबतक तुम लोग भी सम्पत्ति का उपभोग करो। तुम्हारे प्रभासे भास्वर महान पुत्र हों और तुम्हारे दिन अच्छिन्न स्नेहके साथ बीते । लक्ष्मीसे विशाल यह वर और वह वधू जहाँ विद्यमान थे वहाँ
पत्ता-उस दिनसे लेकर परम्पराके अनुसार, सुखसे निवास करनेवाले बत्तीस हजार राजाओंने उनका पूजन और अभिषेक किया ||१३||
१४
दिन बीतते रहे, और बालमृणालके समान सरल तथा कोमल करवाले वधूवर कोड़ा करते रहे । सकाम वर वधूसे कुछ भी मनवाता है, लगाती हुई वधू जसोको मान लेता है। वर अपने शरीरके अनुरूप उसका आलिंगन करता है। आलिंगनसे मुक्त होनेपर वधू फिर उसीको अपने मनमें चाहती है । वर बाल पकड़कर वधूको झुकाता है, वधू अपना मुंह नीचा करको मुंहको छिपाती है। वर अधरोंके अग्रभाग, मृदु-मृदु कुछ करता है, नववधू हुँन्हें कहकर कुछ बोलती है। वर अपने हाथसे स्तनशिखरोंको छूता है, वधू लज्जाके कारण उन्हें अपने वनसे ढक लेती है। फैले हुए वन ( साड़ी ) को प्रिय धीरे-धीरे इकट्ठा करता है, और अपना हाथ दोनों जांघों में डालता है। वर उस ( वल) को निकालकर पलंगपर डाल देता है, वधू मुखपर शंकासे अपना हाथ रख लेती है 1 वर कटितलमें उस (के गुप्तांग) को देखता है, बध हाथोंसे उसकी दृष्टि ढक लेती है। समर्थप्रेमसे प्रिय भिड़ जाता है, वधू रोमांचसे विशिष्ट हो जाती है। रतिगृहमें प्रिय कहता है कि यहाँ हम दोनों हैं, बताओ...और लज्जा करने से क्या ।
___घत्ता-विशाल हिमगिरिक शिखरपर कोड़ा कर, वे दोनों तुम्हारे श्रीगृह भरतेश्वर और सूर्यचन्द्र के निवास ऊवं आवासको ओर चले ॥१४॥
प्रेसठ महापुरुषांके गुण और अलंकारोंवाले इस महापुराणमें महाकषि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका वनजंघ श्रीमती
समागम नामका चौबीसों परिपछेद समाप्त हुभा ॥२॥
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संधि २५
अणुदिणु दंसणेण संभासणेण दाणसंगवीसासे ।। उभाउगमणे रमणीरमणे रमइ विसेसविलासें ॥ ध्रुवकं ॥
पप्पुरमपोमपहसियमुहार
कमाणण्हाणपुजारहाई। मनमणियमम्मणुल्लाविराह उरुरुहजुयलालियकराई। अवरुंडणपसरिय यवलाई मुहकंठेमूलि चुंबणरयाई। रइजलरेल्लियसयणोयराई थियकेसई महपीयाहराई। कयपणयकोईसंभाविराई लीलाकडक्ख विक्खेविराई। पविजंघसिरीमइवहुवराई कोलंतहं गयबहुवासराई। रूयं सोगें अदुईय
हिमकिरणकति'कुलिसयरधीय। सिरिमाइवरलहुईसस मयमिछ ण विकमलकर सयमेव लच्छि । णामेणाणुधरि सोक्वज णियर्णदणु णं सो कामपन । 'लैच्छीमइदेवीगब्भजाउ परिणी मिड राएं अमियतेन । पत्ता-तणय वसुंधरहि घरभरधरहि छजइ तहु करि लगी ।
कुल उत्तहु हिरि य काहहु सिरि व दिहि व रिसिहि आवग्गी ।।१।।
अपणहि दिणि विण्ण पयाणभेरि दससु वि दिसासु थरहरिय वेरि । परणाहे करिकरदीबाहु णियणयरहु पेसिउ वजवाहु । सहुं सुण्डाइ सहुँ णियतणुरुहेण सर्दु सकलत्ते ससहरमुहेण । आउच्छिवि घट्ट विसि बंधु संचलिउ सुयणु चंदविंषु । उप्पलखेडाहिउ चमुसमेउ। अम्मणु अंचहुं णीसरिज राउ। MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanzn:
उन्नतातिमनुमात्रपात्रता भात भद्र भरतस्य भूतले ।
काय्यकीतिघण्टारवो गृहे यस्म पुष्पबन्ती दिशागजः ॥ GK do not give it. १. १. MIP बीसासहि । २. MAP पियं । ३. MBP विलासहि। ४. MBP वरि उररुह; K
उरउररुह । ५. MBP भुयलयाहं । ६. MB मूल । ७. B°रहाहं । ८. MBP कोबसंभाविराह । ९. MBPT अदुतीय । १०. B कुलिसेयबीय । ११. MBPK ६ । १२. MB सियन्छि । १३. MP विगपकमल; B विकमलकल । १४. MBP लच्छोम इदेविहि गभि नाउ । १५. MBP परिणावित ।
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PA
सन्धि २५
प्रतिदिन वह प्रियभावको उत्पन्न करनेवाले रमणी रमण में दर्शन, सम्भाषण, दान संग और विश्वास तथा विशेष विलासके साथ कीड़ा करता है।
१
खिले हुए कमलोंके समान अपने मुखोंसे हँसते हुए, अरहन्त भगवान्का कल्याणस्नान और पूजा करते हुए, मृदु सुन्दर और मार्मिक बोलते हुए, विशाल उरोजोंको अपने हाथोंसे सहलाते हुए, आलिंगनके लिए हाथ फैलाते हुए, मुल और कण्ठोंके मूल भागमें चुम्बन करते हुए रतिजलसे स्वजन समूहको हटाते हुए, केश पकड़ते हुए, अधरोंका मधुरासव पीते हुए, कृत्रिम क्रोधकी सम्भावना करते हुए, लीला कटाक्ष चलाते हुए, इस प्रकार वञ्चजंध और श्रीमती वर-वधूको बहुत से दिन कीड़ा करते हुए बीत गये । वह श्रीमती रूप और सोभाग्य में अद्वितीय पो चन्द्रमाको कान्तिके समान, वस्त्रबाहूकी कन्या । श्रीमतीके वर वज्रजधकी छोटी बहून मृगाक्षिणी, मानो खिले हुए कमलोंके समान हाथवाली स्वयं लक्ष्मी हो। अनुन्धरा नामकी सुखकी कारण । उसका ( वादन्तका ) अपना पुत्र था जो मानो कामदेव था, लक्ष्मीमती देवीके गर्भसे पैदा हुआ। राजाने अमिततेजका उससे विवाह कर दिया ।
पत्ता- -गृहभारको धारण करनेवाली वसुन्धरा ( वञ्चजंघको मां ) की कन्या अनुन्धरा उसके हाथ लगी हुई ऐसी मालूम देती है मानो कुलपुत्र के साथ लज्जा (हू) कृष्णके साथ श्री और ऋषिके साथ धृति लगी हुई हो ||१||
दूसरे दिन उसने प्रस्थानका नगाड़ा बजवाया । शुक्र दसों दिशाओंमें कांप उठे । राजाने हाथोके समान दोघं बाहुवाले वज्रबाहुको अपने नगरके लिए भेज दिया। अपनी बहू, पुत्र एवं चन्द्रमुखी अपनी पत्नी के साथ, इष्ट और विशिष्ट बन्धुओंसे पूछकर चन्द्रार्क चिह्नवाला वह सृजन चला। उत्पलखेड़का वह राजा, अपनी सेना के साथ कितना मार्ग चलनेके लिए बाहर
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१०
१०
१५
१२८
दरिखुरलीधूसरि सभ्भु पहरणत्रि कुरणार्ह जिगिजिगंतु गयमयजलधारहिं भर न गुरुविओयतार्थे चुयाई सह कामिणी पंक मुहीइ आसणपंथि सुंदरपसि पेच्छिवि परिपुच्छिवि सयणविंदु पत्ता - इयरु वि जंतु पद्दे भल्लइ दियहे
महापुराण
पिउघरि रडरंजिये मारु लक्खणर्वजण पसाहियाई वरतणयहिं जणियई सिरिमईइ एकहिं दिणि रात्र वजबाहु सेसिंग पिण्णू हयलि अवलोइड सरयमेहु उत्तुंग सिंह रसुरइरसमाणु चिंत पहगड वारिहरु जेम जीवि भृगु पुत्तु कलन्तु वासु इस भविति तेण परणर दुलंघु सह सुसुरहिं सुबह सुह जिण दिक्ख मंत्रि क कम्ममोक्खु हिडिय सुरसुंदरी हि
पुरणपरियहिं कयतोरणहिं मंगलसेसर्हि दिउ ||२||
छत्तहिं छाइ दित्रिदिसमगु । पासहि दीसह महिदियंतु । हलाल हुड चिक्खुल्लु खोल्लु । पुतियहि पुंसेपिणु अंसुयाई । पंडिय संपेसिबि समय तीइ । सरसोभाराम सिरोणिवासि । भिवगड पड परिंदु | उप्पलखेड पश्टूउ ||
जोइड पर गायें लेबि पेलिणु घाइते सो रमणराइ तं वारवार मित्र करेण
३
सहुं बहुयइ सहं अच्छ कुमारु । जमलई पण काहियाई । सुल लियकवाई व कश्मईइ | जावच्छ सुईलीलंबुबाहु | ती कालीयरवर किरणवण्णु । णं विहिणा णिम्मिदिन्धुं गेहू । पुणेरवि सो विठु विलीयमाणु । जाएसमि पलहु हु मितेस । हो थिरु घणसंकासु कासु । कुलसिरिद्दि समपि वज्जजंघु । अवरेहिं म यहिं थिरमुएहिं । वेणासाइड तं परमसोक्खु । एहि विपुंडरीकणिपुरीहि ।
पत्ता- जा" सो चकवइ सुहबद्धरइ अच्छर महुलिमाणिउ ॥ ता णिसि मिलियदलु सुरद्दिवं कमलु उववणवाले आणिडं ||३||
४
को किरण नियइ गोमणिहि भवगु । कलीमुहणि कामु माई ।
विडिय कमलु सूरेण तेन ।
[२५.२.६
0
२. १. MBPK धूलि धूसरिउ । २. MBP दिसि विविसि । ३. M भारहि । ४. MBP चिकित् ५. K. णिवेसि । ६. NBP पल्लट्टिब । ७. MBP उप्पलखेटि ।
३. १. MB रंजियकुमारु । २. MBP बैजहि । ३ K सुइसी लंबु ४ MBP सह्यलक्ष् । ५. MET
सोहास P सीहासणि । ६. MBP ता तें कालीयर किरण । ७. MBP दिखने । ८. MBP सिह । ९, MBP सां पुणरवि । १०. MBP होहद । ११. MBP पुंरणि । १२. MP जो । ४. १. M डिणू । २. MBI "दंसणकामु ।
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हिन्दी अनुवाद निकला ? घोड़ोंकी घुलसे स्वगं धूसरित हो गया। दिशाओं और विदिशाओंके मार्ग छनोंसे आच्छादित हो गये। अस्त्रांक विस्फुरणास चमकते हुए मही दिशान्त चारों ओर दिखाई देने लगे। हाथियोंके मदजलधाराओंसे ताल भर गये | घोड़ोंको लारसे गम्भीर कीचड़ हो गयी। गुरुजनोंके वियोग-सन्तापके कारण गिरते हुए पुत्रीके आंसुओंको पोंछने के लिए दूसरी कामि. नियों सहित कमलमुखी उसके साथ एक पण्डिता भेजी। जिसमें पास-पास मार्ग हैं, सरोबर सोमोद्यान और श्रीका निवास है ऐसे सुन्दर प्रदेशको देखते हुए अपने स्वजन समूहको पूछते हुए राजा अपने भवनकी ओर लौटा ।
पत्ता-सुन्दर पथपर जाता हुआ दूसरा भी दिन उत्पलखेड़ में प्रविष्ट हुआ। पुरजनों और परिजनोंने तोरण बांधकर मंगलों और तिलोंके दर्शन किये ||२||
अपने पिताके धरमें वधू के साथ कुमार सुखसे रहने लगा, मानो रतिसे रंजित कामदेव हो। लक्षणों और सूक्ष्म चिह्नोंसे प्रसाधित इक्यावन पुत्र-युगल (एक अधिक पचास ) श्रेष्ठपुत्र श्रीमतीसे पैदा हुए, उसी प्रकार जिस प्रकार कवि-प्रतिभा सुन्दर काव्यों को जन्म देती है। एक दिन राजा बज्रबाहु, जो सुन्दर कोड़ाओंके लिए मेघके समान था, सौषतलमें सिंहासनपर बैठा हुआ था, तब उसने आकाशतल में चन्द्रमाकी श्रेष्ठकिरणके रंगका शरीष देखा, मानो जैसे विधाताने दिव्य घर बना दिया हो। ऊँचे शिखरवाले देवविमानके समान वह भी फिर विलीन होते हुए दिखाई दिया। राजा विचार करता है जिस प्रकार यह मेध चला गया, उसी प्रकार में भी नाशको प्राप्त होऊंगा। जोवन-धन-पुत्र-कला और घर मेघके समान किसके पास स्थिर रहते हैं ? यह सोचकर उसने शत्रुनरके लिए अलंध्य वनजंघके लिए कुलथी सौंप दी । और अपने बहुत-से बहुश्रुत पुत्र-पुत्रों और दूसरे भी स्थिर भुजावाले राजाओं के साथ उसने जिनदीक्षा से ली। उसने कमोसे मोक्ष पाकर परम सुख प्राप्त कर लिया। यहां भी जिसकी गलियोंमें सुरसुन्दरिया भ्रमण करती हैं ऐसी पुण्डरीकिणो नगरीमें
पत्ता-शुभमें प्रेमको निबद्ध करनेवाला वह राजा चक्रवर्ती रह रहा था, तब रात्रिके समय एक मुकुलित दलवाला सुरभित कमल उद्यानपालने लाकर दिया ।।३।।
उस कमलको लेकर राजाने देखा, लक्ष्मी { शोभा) के घरको कौन नहीं देखता? क्रीड़ानुरागी वह राजा उस फूलको खोलता है, जैसे काम लक्ष्मीका मुंह देखनेके लिए ( उत्सुक हो);
२-१७
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[ २५. ४.४
महापुराण पुणु पुणु लीला कोलंतरण एकोफु पत्तु अवर्णवएण। इच्छित राएं खरवंडणासु
खरदंडणासु तह गुणविसेस। ववगयमलदलवलयंतरालि अपलोइड अलि केसररयालि | सरकहकरडि णिम्मुकजीव णं इंदणीलमणि णियवि राउ | भास हे परामि सितमु ...: मकिपणझडप्पणु स हिउ एण । दाणुलि कवोलि धुर्णतपण संपत्तंड दुक्खु रडतएण। घत्ता-दिसहि समुहंला लोलह वलइ रुद्धः कहि पसरइ का ।
जिसि तमपिहियमुहे एत्थंबुरुहे गंधलोलु मउ महुया ॥४॥
आरोहणबंधणताहणाई अंकुसखयाई कईदेयणाई। गणियारिफासवसमागएण भणु किंण विहुरु विसहिउँ गरण | रसलालसु मासकणावलुद्ध परिधावमाणु संमुह मुंद्ध । सरिषिउलविमलजलि फीलमाणु धीवरगलेण गलि भिषणु मीणु । संगीयगोरिंगयचित्तसोत्तु जट पेक्खइ संमुहं सर सरंतु। णप पेक्नइ विसयासाइ दमिर्ड पउदिसहिं वि वग्गुरवेदु भमि । प्राएं संप्रावित प्राणणिहणु वणि वाहे विद्धष्ट हरिणमिहुणु । पष सियमहिलेसुयहतसिहेण तिडितिद्धियतिडिकारवणिहेण | वेरिल्लकुसुमसमवण्णपण दोघुच्छवि देहलिदिण्णएण ।' रुपरयपयंगई कयखएण णं भासिष भावइ दीवपण । एमेव कयंताणणि पडति
मोइंध सयल सहि खयह जंति । एकिवियवसमुवगयाह
एवड्डु दुक्खु तेहिं जंतुयाई । असरियपंचक्खरसाभिसाई पक्खियपंचक्खरसामिसाह । कंपावियसैदिसिषहरसाई अक्खवितं किं अम्हारिसाह। घत्ता-इय संभरिदि मणे आहूउ खणे अमियतेष नृसंसिउ॥
तेण समायएण जुवरायएण जणणु सिरेण मंसिर ।।५।।
३. MBP हिम्मुप जीउ । ४. MBP इंधणीलु मणि । ५, MBPK चुलतएण । ६. M संपत्तु दुवख
करदंडएण; MP संपत्तु दुश्खु करडतएण। ७. BP समुल्लसह । ८. MBP मुउ । ५. १. MBP ताडणबंधणाई । २. MBP कय । ३, B सुद्धृ । ४. MRP दिसहि वगरावेत ।
५. MBP पावें संपाइल पाणं । ६. MRPK हय । ७. MBP फैल्लिकुसुम'; T विछिल्ल. कोरण्टकः । ८, M स्वयरपयरंगह; BP स्वयरपयंगह। ९. MBP जहिं ! १०.1 असरिसपत्र: T असरिय । ११. MBK दसदिस; T दसपिसि । १२. MRP अक्खमि । १३. MBP णिव ।
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२२. ५.१६]
हिन्दी अनुवाद बार-बार अपने हाथसे चौपकर उस वोरने उस कमलको मसल दिया। फिर बार-बार कोड़ाके साथ उससे खेलते हुए, उसका एक-एक पत्ता तोड़ते हुए राजाने उस कमलको चाहा । खरको दण्डसे नाश करना उसका ( राजाका ) गुम-विशेष था। मैले पत्तोंका समूह जिसके अन्तरालसे हट गया है, ऐसी कमलरूपी मंजूषामें परागरजमें लीन एक निर्जीव भ्रमर उसने देखा, जैसे इन्द्रनील मणि हो। उसे देखकर राजा कहता है-हे सखी, देखो इस भ्रमरने हाथियोंके कानोंके आघातोंको सहा है, मदजलसे गीले कपोलोंपर घूमते हुए और गुनगुनाते हुए, यह दुःखको प्राप्त
___ घत्ता- यह दिशाओंमें उल्लसित होकर चलता है, मुड़ता है, रुव होनेपर अपने कर कहाँ फेला पाता है ? लेकिन रात्रिमें अन्धकारसे ढंके हुए इस कमलमें गन्धलोलुप यह भ्रमर मर गया ।४1
'आरोहण बन्धन ताड़न' और वेदना उत्पन्न करनेवाले अंकुशोंके आघात, और हथिनोके स्पर्शके वशीभूत होकर आता हुआ हाथी, बताओ कौन-सा दुःख सहन नहीं करता। रसका लोभी मासकणोंका लोलुप सामने दौड़ता हुआ मूर्ख मोन, नदीके विपुल जलमें क्रीड़ा करता हुआ धीवरके कांटेसे गले में फैसा लिया जाता है, गाती हुई गोरी अपना चित्त और कान लगाये हुए हरिण नहीं देखता, सामने आता हुआ तीर, विषयोंको आशासे दमित हरिणका जोड़ा खेतके चारों ओर घिरे हुए बागरको नहीं देखता, और प्रायः वनमें व्यापके द्वारा विद्ध होकर निधनको प्राप्त करता है, जिसकी शिखा प्रोषित-पतिकाओंके यांसुओंसे आहत है, जो तिड-तिड-तिड़की ध्वनिसे मुक्त है, जो कोरण्टक पुष्पके समान पीले रंगवाला है, देहलीपर रखे हुए, तथा रूपमें लोन शलभोंका क्षय करनेवाले दीपकके द्वारा कहा गया उसे अच्छा नहीं लगता, इस प्रकार सभी यमके मुंहमें पड़ते हैं । हे सखी, सभी मोहान्ध क्षयको प्राप्त होते हैं। एक-एक इन्द्रियोंके वशमें होनेवाले जीवोंको जब इतना बड़ा दुःख है, तब पांच अक्षरोंके स्वामी ( अरहन्तादि) का स्मरण नहीं करनेवाले, सथा पांच इन्द्रियों का स्वाद चखनेवाले तथा दसों दिशाओंके पथों और धरतीको कंपानेवाले हम लोगोंके दुःखोंको कहने से क्या ?
पत्ता-अपने मनमें इस प्रकार विचार कर उसने एक पलमें राजाओंसे प्रशंसनीय अमिततेजको बुलाया । आये हुए उस युवराजने अपने पिताको सिरसे नमस्कार किया ||५||
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१३२
महापुराण
[२५. ६..
राएण भणि भो भो कुमार धरि धरणिभाग घेउरेयधीर । कलिकलुसपंकु तवयवहेण हर सोसमि कंपियसयमहेण | तुहं देहि कुलकमभरहु खंधु ता चवइ तण सो मयरचिंधु। मई पाहणेवउ परमायरेण
तमणिय व बालदिवायरेण । कामिणि मे ईणि वि जगेकराय पई मुत्ती भुजमि केम ताय । तुह पयपंकयरयचंचरीज कूरारिलुलाययपुंडरीठ। जिह लच्छीहरु तिह पुंडरीउ आसणु अश्लिवहि सपुंडरीउ । महू तणन तणउ सो पुंडरोड इह करड रज्जु वपुंडरीड। हउं तुहूं मि वे वि साहहुं परनु णिसुणिवि राएं तं जि उस । पत्ता-ता सिसु ससिसरिमु जयकयहरिसु महिणाई सोमालछ ।।
रज्जि परिनित णरचरण विउ पुत्तु पुत्तु पय पालउ ॥६॥
his :- आशा श्री सागर जी रात्र
पंरिसेसियमत्ताहागरण
परिसेसियचलहिसियहएण । परिसेसियकंचणसंदणेण परिसे सियभडवरणदपोण । परिसेसियनहदेसंतरेण
परिसेसियपउरतेवरेण । परिसे सियसयलवसुंधरेण जायवि वेवे चकेसरेण । जसहरसीसहु गणहरड पासि पवज्ज लइय गिरिकुहरवासि । दिति | इच्छिय पुहइ जेणं सह अमियतेयणामेण तेण । उचारियजिणवरथुइमुहाई सहस जि वयमा सिः तणुकहाई । पवइया मुणिमराजाणियाई सह सहिसहस रायाणियाई। दिखे कियाई लुंचेवि केस णाणाणिवाई सइसाई वीस । इय राएं कि शिक्खवणु जाम संपत्त विलासिणि तहि जि ताम ! पत्ता-पंडिय तवचरणु दुयिहरषु लेवि थक णियजोग ।।
किउ मणु अप्पवसु कंदप्पैवसु होतउ खंतिइ भमाउ ॥७॥
णिरुद्धयं जिराणा समाणसं विराइणा। विमुकओ सवासओ सभूसणो सवासओ।
से मासिओ तवासओ लुओ कयंतवासओ। ६. १. MBIPK थोरेय' । २. K सोसबि । ३.M मेइणि जगि एकक'; BF मेइणि च जगेरक ।
४. MEPT अल्लवहि । ५. MBP fण । ६. 11BP तो। ७. १. K adds this tot in the margin २. Kami: this fool. ३. M गंवरेण; ? |
दसणेण, but reciords abणदणेण | ४. M सेण । ५. MBP परवाइयई। ६. P कंदप्पु वसु । ८. १. T विमुक्कामवासभी and alds : सवासउ इसि पाठे निगगृहमित्यर्थः । २, MBP समाहियो ।
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२५.०३]
हिन्दी अनुवाद
१३३
राजा बोला- "हे कुमार, धुरी उठानेमें धीर तुम धरतीका भार उठाओ। मैं सैकड़ों पापोंको पानेवाली तपको आगसे कलियुगके पापके कलंकको शोषित करता है। तुम कुल-परम्परके भारको अपना कन्धा दो।" तब वह कामध्यजी पुन जानर देता है. मैं श्री .परमादरके साप इसको नष्ट करता है उसी प्रकार, जिस प्रकार बालसूर्य के द्वारा अन्धकारसमूह नष्ट कर दिया जाता है। हे विश्वके एकमात्र सम्राट, आपके द्वारा भोगी गयी भूमि और परतीका उपभोग में कैसे करूंगा। आपके चरणकमलकी धूलका भ्रमर, कर शत्रुरूपी लक्ष्मी के लिए व्याघ्र, मैं | जिस प्रकार लक्ष्मोषर है उसी प्रकार पुण्डरीक है। इसलिए अपने पुण्डरीकको आसन दे दीजिए। वह पुण्डरीक मेरा पुत्र है । हम-तुम दोनों ही साघुत्वको प्राप्त हों।" यह सुनकर राजाने भो अपनी स्वीकृति दे दी।
पत्ता-तब चन्द्रमाके समान कोमल, जयमें हर्ष मनानेवाले बालकको राजाने राज्यमें प्रतिश्चित कर दिया ( और कहा ) कि नरश्रेष्ठोंके द्वारा प्रणम्य हे राजन्, पुत्र-पुत्र! तुम प्रजाका पालन करना ।।६।।
मत्त महागजोंको छोड़ देनेवाले, चंचल हिनहिनाते घोड़ोंको छोड़ देनेवाले, स्वर्णरथोंको छोर देनेवाले, श्रेष्ठ योताओं और पुत्रों को छोड़ देतेवाले, बहुत-से देशान्तर छोड़ देनेवाले, विशाल अन्तःपुर छोड़ देनेवाले, समस्त धरतीको छोड़ देनेवाले, चक्रवर्ती देव वज्रदन्तने यशोधरके शिष्य गणपरके पास गिरिकुहरके घर जाकर दीक्षा ले ली, उस अमिततेजके साथ कि जिसने दी जाती हुई पृथ्वीको भी नहीं चाहा। अपने मुखोंसे जिनवरको स्तुतियोंका उच्चारण करनेवाले एक इबार पुत्रोंने यत लिये और मुनिमार्गको जाननेवाले साठ हजार राजा भी प्रयजित हए । और भो दूसरे-दूसरे बीस हजार राजाओंने केशलोंच कर दीक्षा ग्रहण कर ली। इस प्रकार जैसे ही राजाने संन्यास लिया कि वह विलासिनी ( अनुन्धरा ) वहाँ पहुंची। __ पत्ता-वह पण्डित पापोंका हरण करनेवाला अपने योग्य तपश्चरण लेकर स्थित है। पान्तिसे भग्न और कामवश होते हुए उसने अपना मन वशमें कर लिया ॥७॥
विरागी राजाने अपना मानस रोक लिया। अपना वास, अपने आभूषण और अपने वक्ष
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१५
५
२०
५
१०
१३४
निवारिओ कसायओ महरो पिसायओ चलेहिं जाण साहिया दही सरंतु सो बसी अयं विवाणरीडरं
तिला
निया हिदेह कंचुयं
महीहरे भयालय रविre संमुंहो ठि 'अहिष्णभूतणग्गयं महाले वि सामिणं तओ असुंधरीसुया धरेवि पुंडरीय पईविओयकालिया समंदिरं समाइया
महापुराण
हसियचंदु
सो घरे मंतिमंत णिस्मल सईद्द णिज्जइ दवग्ग बणि मारुरण असहाय का वि णत्थि सिद्धि जो धरि भारु पाछें बिसालु जं धवलु धुरंधर धीर धरइ गंधवणर्यरराहु सुत्राय चितागइ मणगइ स्वयरराय इg लिहिउ लेहु मई कई मणम्मि जाइवि वररमणी दुलहासु णि सुणिषि अम्महि कम देषि गय ते गद्देण कंटइयदेह
ओकसाओ | जिओ हुलसायओ | थिरेहिं जाण साहिया | परजिया छुहा तिसा । सइ माइसीययं । भरतरुखकोडरं | चणागमे विकं चुयं ।
|
हुम्म गया तवे मोक्खपंथिओ | साहिवणग्यं ।
मंसिऊण सामि ।
11
अणुंधरी ससासुया' सिरि" पुंडरीययं । अचंदिस व कालिया ।. अमेयतेयमाइया ।
...
13
घत्ता - सुयरिवि पिययवद सा हंसगइ धिवर सरीक महित्थले " || पायजणमइलु कुंकुम कबिलु अंसुपवाहु थणत्थले ||८||
[२५.८४
९
जो पत्तियवरणारविंदु | संचिति मणि लच्छीमईइ ।
जीव णाव वैणि वारुण । चितेषी पदम सहाय रिद्धि । तं व केम व बालु । तहि भरिण व बच्छु पर विसर । मंदरमलिहि सुंदरिहि जाय । देवी भणिय से वे भाय । सामुग्गड़, णिहिउँ सललसि । जिक्खिर्वहु सिरीमइबहासु । पाहुडु लेखि आहरगु afa पथजुहीरारुणिय मेह |
३. P कसाईओ । ४. MT पिहली : ५. MB दिहि दिहं । ६. GK वयं but gloss अजम् । ७. MBPK गिभयालए । ८. M संमुहे । ९ MBP थिओ । १०. MBP अभिष्ण' । ११. K सखासुया but corrects it to मुज्ञासुया । १२. P सरिव्व । १३. MBP सुमरिवि
सुंयरिवि ।
१४. MP महीयले; B महयले ।
९.
१. MBP मंतिमंत ; K मंते मंत २. K जलि | ३. MBPT अबृहत्त । ४. 13 नियरे राय ।
८. MBP पिक्खेहु सिरिमई ।
५. MBP लेहु लिहिउ । ६. M कय । ७. BP लिहिउ । ९. MUP सं विसुणिवि अवहियवयणु बे वि । १०. MBP चेलिउ ।
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२५.९१२]
१३५
हिन्दी अनुवाद
छोड़ दिये । तपका आश्रय ले लिया । यमके पाशको काट दिया। कषायोंका निवारण कर दिया। परमात्मा स्वादकी इच्छा की। बुद्धिका अपहरण करनेवाले पिशाच कामदेवको जीत लिया । जो चंचल चित्तवालोंके द्वारा सिद्ध नहीं होती स्थिर चित्तवालोंसे सिद्ध हो जाती है, ऐसा जानो । जो दृढ़ धैर्यको भी नष्ट कर देती है ऐसी उस क्षुषाको जीत लिया। वह वशीजिन चलते हुए माघ माहकी ठण्ड सहन करते हैं । वर्षाकालमें भी जो वानरियोंको भय प्रदान करता है। वृक्षोंके फोटरोंको भर देता है, सांपोंके केंचुलोंको प्रवाहित कर देता है, गिरते हुए जलको सहन करते हैं, ग्रीष्मकालमें भय से परिपूर्ण भयंकर पहाड़पर धरतीपर स्थित होकर मोक्षपन्थी जो सूर्यके सम्मुख तप करते हैं । जिन्होंने भूमिके तिनकेके अग्रभागको नष्ट नहीं किया, और जो सत्य और अन्तरंगसे मुक्त हैं, तथा बड़े-बड़े दुष्टोंको शान्त करनेवाले हैं, ऐसे स्वामीको नमस्कार कर, उस समय वसुन्धराकी पुत्री अनुन्धरा अपनी सासके साथ ( लक्ष्मीवती के साथ ), छत्रकी शोभाकी तरह, पुण्डरीक बालकको लेकर पति वियोगसे घन्दरहित रात्रिके समान काली, अमिततेजकी माँ ( लक्ष्मीमती ) अपने भवन में आ गयी ।
धत्ता -- फिर अपने पतिकी याद कर वह हंसगामिनी अपने शरीरको महोस्थलपर और नेत्रोंके अंजनसे मैले केशरसे लाल आँसुओंके प्रवाहको स्तनतलपर गिरा देती है -- ||८||
S
९
फिर शोक छोड़ते हुए उसने चन्द्रमाका उपहास करनेवाले अपने पोतेके मुखकमलको देखा | गृहमन्त्रीको मन्त्रणासे निर्मलमति लक्ष्मीमतीने अपने मन में सोचा - "हवा के द्वारा वनमें दावानल ले जाया जाता है और पानी में निर्जीव नाव केवटके द्वारा ले जायी जाती है। असहाय व्यक्ति के लिए कोई भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती। इसलिए पहले सहायतारूपी ऋद्धिको चिन्ता करनी चाहिए, जिस विशालभारको स्वामीने उठाया, उसे यह अप्रगल्भ बालक किस प्रकार उठा सकता है ? जिस भारको धीर और घुरन्धर पदल उठाता है, उस भारसे तो बछड़ा एक पैर भी नहीं चल सकता ।" गन्धवै नगरके राजाकी मन्दरमाला सुन्दरी देवीसे उत्पन्न चिन्तागति और मनोति विद्याधर थे । देवीने उन दोनों भाइयोंसे कहा- "मेरे द्वारा किया गया, यह लिखित लेख मुद्रायुक्त सुन्दर मंजूषामें रखा है। तुम जाकर श्रेष्ठ रमणियोंके लिए भी दुर्लभ श्रीमती के पति (घ) को यह लेख दो।" यह सुनकर, माता के पैर पड़कर, उपहार और आभूषण लेकर, रोमांचित शरीर के दोनों अपने पैरोंकी केशरसे मेघोंको लाल-लाल करते हुए चल दिये।
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१३६
[२५. ९.१३
महापुराण घत्ता--णि मणपवणगइ खयराहिवइ उप्पलनेटु पराइय ।।
बजगणिवेण इच्छियसिवेण ते पणषत पलोइय ||५||
१०
तह तेहि समपिर मणिकरंडु उम्याडिउ तेणुवेरिखंड । उठवेढिवि वाइउ अति लेह जिह जान जाई महिणाहणाहु ।' जिह दिजत वि परिहरिवि भूमि हुउ अमियतेउ तम्साणुगामि । जिह पुंडरीयसिरि बधु पटु मेल्लेप्पिणु णियज्ञोवणमरट्टु । जिह लय दिक्ख नवकामिणीहिं जिद्द मंडलियहिं मुक्कावणीहि । जिह तणुसहेहि जिह पंडियाइ हयकामकोह विच्छडियाइ । गउ पहु जिह् अवरु वि अमियतेउ तुई पालहि तेरउ भाइणेउ । जंजिह तं तिह लेद्देश फहिउ ता सुहिणा सुहि हि धरित्तु महि । जंगल किन देवें मयणजूर जं लड़या सेवु भवतिमिरसूरु । चंगउ किउ सासु तणुरुभवेण जंउ संगहियउ णवरण | पत्ता-धण्णव सो णिवइ परिहरिवि रइ अरिहु जेण मणि भाविद ॥
णिहियदरिसियइ घडदोसियइ म हिय को ण बिहाविड ॥१०॥
इथ भणिवि तुरिस संचलिन राउ दिसिंगयजत्ताभेरीणियाउ । सम्वत्थ रहेहिं ण जाई जाइ जंपाणु स्खलइ मायंगु थाइ। संचारु ण लम्भइ हयवरेहि जलु थलु संदाणि किंकरेहिं । छत्तई न कुसुमेई वियसियाई सिरिमामुइससहरपहसियाई । चमगई चलंति कामिणिकरेसु णं हंसई रत्तिदीवरेस। दीसंति सुत्रसारूढ केट
णावर सुपुत्तकुलफित्तिहेज। लीलाइ मिलिय मंडलिय जति मइवर सुरगुरुसारिच्छु मंति। आणंदु पुरोहिउ दिव्य दिहि घणवइसमाणु धमित्तु सेट्ठि। बलवर वि अपणु कंपियारि संचलियत चलकरवालधारि । णिवसंतगामपुरपट्टणेहि
वगु संप्राइय कइयदिणेहि । बत्ता-चबलरहेलिचलु फुल्लियकमलु तहि सरवर अवलोइड ।।
णं रायहु महिए आयहु सहिए अग्यवत्तु उच्चाइज ॥१|| ११. M BP उप्पलु खेडु । १०. १. MLP "गुरिल्लु । २. MBPT उल्लियि; K उज्वेदवि। ३. K तेण लेह । ५. MB जोड
जाउ । ५. MEIP दिज्जती । ६. M मियउ तेउ । ७. B बद्ध पटु । ८ MBP आमेल्लेष्पिण जोवाणु मरट् । ९. MBP वकामिणोहि । १०. MP त3; तव । ११. MBP 43; Ka
but GTects in tv उ । १२, MRP घरदासियइ महिए। ११. १. AIBP कुमुयई । २. MH धगयन । ३. K संचल्लित । ४. MSP संपाइउ । ५. रहिाल
चलुः ॥ रहिल्लिचलु; P हिल्लचल ।
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२५. ११.१२]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-विद्याधर राजा ननोगति और पवनगति एक क्षणमें उत्पलखेड नगर पहुंच गये । कल्याण चाहनेवाले बच्चोंघ राजाने प्रणाम करते हुए उन्हें देखा ॥२॥
१०
उन्होंने उसके लिए मणिमंजूषा दी। उसने उसका ऊपरी खण्ड खोला। फैलाकर उसने शोध पत्र पढ़ा कि किस प्रकार राजाओंका राजा योगी बन गया है और किस प्रकार दी जाती हुई भूमि छोड़कर अमिततेज भी उसका अनुगामी हो गया है ? और किस प्रकार पुण्डरीकके सिरपर पट्ट बांध दिया गया है। किस प्रकार अपने यौवनके अहंकारको छोड़ते हुए, राजस्त्रियों तथा धरती छोड़ते हुए माण्डलोक राजाओंने दीक्षा ग्रहण कर ली। किस प्रकार पुत्रोंने तथा काम-क्रोधके समूहको नष्ट करनेवाली पण्डिताने दीक्षा ले ली। किस प्रकार राजा अमिततेज भी चला गया । इसलिए तुम अब अपने भानजेका पालन करो । जो जैसा था, वैसा लेखने कह दिया । तब उस सुधीने सुधीके चरित्रकी सराहना की कि देवने यह अच्छा किया जो कामको पीड़ित करनेवाला
और संसाररूपी अन्धकारके लिए सूर्यके समान तप ग्रहण कर लिया। उसके पुत्रने भी अच्छा किया जो उसने नववयमें व्रत संग्रहीत कर लिया। ..
पत्ता-वह राजा धन्य है जिसने कामको छोड़कर अपने मनमें अरहन्तका ध्यान किया। निधिका घड़ा दिखानेवाली गृहदासी पुथ्वीके द्वारा कोन खण्डित नहीं किया गया ? ||१०||
यह विचारकर राजा वनजंघ तुरन्त चला। उसकी यात्राके नगाड़ों की आवाज़ दिशाओं में फैल गयो। सर्वत्र रथोंसे नहीं जाया जाता। जम्पान स्खलित होता है, मातंग ठहर जाता है। अश्ववरोंको संचार नहीं मिल पाता। छत्र ऐसे मालूम होते हैं मानो श्रीमतीके मुखरूपी चन्द्रमा का उपहास करनेवाले खिले हुए कुसुम हों, कामिनियोंके हाथोंमें चमर चल रहे हैं मानो लाल कमलोंपर हंस हों। अच्छे बाँसपर लगा हुआ ध्वज हो, जैसे वह सुपुत्र कुल और कोतिका कारण हो । लीलापूर्वक माण्डलीक राजा भी मिलकर जाते हैं और मतिमें श्रेष्ठ ब्रहस्पतिके समान मन्त्री भी। दिव्यदृष्टि आनन्द नामका पुरोहित, कुबेरके समान सेठ धनमित्र । शत्रुको कपानेवाला मकंपन सेनापति भी हाथमें तलवार लेकर चल पड़ा । इस प्रकार ग्राम-पुर और नगरों में रहते हुए वे लोग कई दिनोंमें उस वनमें पहुंचे।
पत्ता-वहां उन्होंने चंचल लहरोंसे चपल और खिले हुए कमलोंवाले सरोवरको इस प्रकार देखा, जैसे आये हुए राजाके लिए धरतीरूपी सखीने अघंपात्र ऊंचा कर लिया हो ॥११॥
२-१८
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१३८
महापुराण
करिकरहगलियमयविंदुमलिणु मयमिहुणणिसेषियषिउलपुलिणु । मयलंधणेयरकरदलियणलिणु मयमैचभमरगइरइयवलिणु। मयगेयदलवाट्टियसिरिणिकेस मयवइमुइजीहाविलिहियार । तह वीरि विमुक्कर सिमिर जाम सहुँ सायरसेणे सूरि वाम । चितंतु भोजमायणपरिक्त रिसि परिभमंतु कतारभिक्ख । दमरु णामें पुरईसरासु संपत्तन दूसावासु वासु। श्रीवंत णियवि मलियकरण सिरिमापविजयबहूवरेण । ठाभणिय वे वि उपसमवसेण थिव धारणं मुणि विणयकुसेण । घचा-सुरसिरकुसुमरयरयमुकरयमहुधरपंतिर्हि कालि ।
चंदयरुजलेण पासुयजलेण पयजुयलट पक्खालि ॥१२॥
चंदेप्पिणु भावे घरणकमलु उचासणि णिहियउ साहुजमछु । तं दीसइ भोयणु मुंजमाणु सुरेसेसु बि णिरसेसु वि समाणु | इत्थु षि उईतु ण होइ दोणु लेतु वि पाणई ण वि धम्महीणु । णिकर वि करहु दिहि देव णिण्णेहु वि दिपणे सणेहुँ लेइ। तिम्मणु गेण्इंतु घि बभवारि रसु जाणता रस णिवियारि । मित्थैद्धे लइयऽ थर्दू दहित जगमहिए पीय सी महिउ । मणसच्छहु डोइन मच्छ वारि इय 'भुत्तु भोज्नु बहुदोसहारि। उच्चाइयथिरदीहरमुएण
आसीस दिण्ण तहु मुणिजुएण । उवविद्वणिहितई आसणाई विहियई पयपणमणपेसणाई। पुणु दीड वेलु जिणधम्मु सुणिवि जैपिट णिवेण णियसीसु धुणिवि । घसा-रुवई मुणिषरह संजमधरहं आसि कहिं मि मई दिवई ।
णवर ण संभरमिदा किं करमि बिहि" लोयणहं सुइट्ठई ।।१३।।
१४ तो मासि बिहसिवि मइयरेण तुइ गुरुह दमवर जलहिसेण ।
जमलाई पण्णासहं पच्छिमिल्ल सुयजुयलु ण याणहि किं गहि । १२. १. MRP लंछणकर । २. MBP मयरत । ३. म्यगल । ४. MBP सिविरु। ५. MBP
भोयभायणं । ६. BP परिभयंत । ७. B दमयर । ८. BP आवंतु । ९. MRP गिएवि । १०. MP
पारणगय । १३. १. MBP सरसेसु णीरसे मुवि । २. P उडे । ३. Pणउ । ४. M दिण्ण । ५. K सिणेह। ६. MBP
णि गिम्वियारि । ७. MRP णित्याइन् । ८. MBP या । ९. MBP अणि महिएं। १०. MRP
सोय । ११. MBP सञ्छु । १२. MBP भुतभोजु । १३, ABP विहिलोयणहं । १४.1.MEPो ।
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२५. १४:२]
हिन्दी अनुवाद
१३९
जो हाथियों के सूडोंसे भरते हुए मदजल बिन्दुओंसे मलिन हैं, जिसके विशाल किनारोंपर मुगयुगल ठहरा दिये गये हैं, जिसके कमल सूर्यको किरणोंसे खिलते हैं, जहाँ मतवाले भ्रमरोंकी गतिका स्खलन हो रहा है, जहाँ मदवाले गजोंके द्वारा कमलोंको नष्ट कर दिया जाता है, जो सिंहोंको जिह्वावलियोंसे अलिखित है उसके तटपर जैसे ही शिविर ठहरता है, वैसे ही सागरसेनके साथ एक मुनि मोजनके पात्रकी परीक्षाको चिन्ता करते हुए तथा वनभिक्षाके लिए परिभ्रमण करते हुए दमवर नामक महामुनि उस राणाके तम्बुओंके निवासपर पहुंचे। उन्हें आते हुए देखकर श्रीमती और वनअंध वधूवरने दोनों हाथ जोड़कर दोनोंके लिए 'ठहरिए कहा । उपशम और विनयके अंकुशके कारण वे दोनों चारण मुनि ठहर गये ।।
पत्ता-देवोंके सिरोंकी कुसुमरबमें रत मुक्त मधुकर-पंक्तियोंसे काले उनके चरणयुगलोंको चन्द्रमाके समान उज्ज्वल प्राशुक जलसे प्रक्षालित किया ॥१२॥
भावपूर्वक चरणयुगलोंको वन्दना कर दोनों साधुओंको ऊंचे बासनपर बैठाया। वे भोजन करते हुए ऐसे दिखाई देते हैं-सुरस और नीरसमें समान दिखाई देते हैं, हाथ उठाते हुए भी वे दोन नहीं होते, हाथसे ग्रहण करते हुए भी धर्महीन नहीं हैं, अक्रूर होते हुए भी कूर (क्रूर = दुष्ट, भात) पर दृष्टि देते हैं, स्नेहहीन होते हुए भी दिये गये स्नेह { तेल ) को लेते हैं, ब्रह्मचारी होते हुए भी तिम्मण (कढ़ी, स्त्री) लेते हैं, रससे निवृत्त होते हुए भी रसको जानते हैं, स्वयं तरल होते हुए जमा हुआ दही ले लिया, जो विश्वमें महान हैं, उन्होंने शीतल मही पी लिया ! मनसे स्वच्छ उनके लिए स्वच्छ जल दिया गया। इस प्रकार उन्होंने सब प्रकारके दोषोंसे रहित भोजन किया। तब दोनों मुनियोंने अपने स्थिर लम्बे हाथ उठाकर उन्हें आशीर्वाद दिया । ये दिये गये आसनोंपर बैठ गये। उन्होंने पैरोंमें प्रणाम, उन्हें दबाना आदि क्रियाएँ कीं। फिर लम्बे समय तक जिनधर्म सुनकर, अपना सिर हिलाते हुए राजाने कहा
पत्ता-"संयम धारण करनेवाले मुनिवरोंका रूप कहीं मेरे द्वारा देखा हुमा है। नेत्रोंके लिए दोनों इष्ट हैं, केवल मुझे याद नहीं आ रहा है, हा ! मैं क्या करूं?" ||१३||
तन हंसते हुए मतियर बोले-"हम तुम्हारे मित्र दमवर और जलधिसेन हैं-पचास
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५
१०
१०
१४०
महापुराण
पस्थिती गुणकार किं तु होइ महु महुई जिबीसइ सयलु कालु आयरियउ किं परिणयवारण महु दमवर दमियाणंगलील ror वि एयहि तु माउयाहि आणंद पुरोद्दियमश्वराई चिरजम्भु कद्दसु महुं गरुड गेहू रिसिणा पतु परिषत्तणाणु जाओ सि बप तुहुं खयरगाहू
धत्ता-चिरु रुपयगिरिहि अल्याउरिहिं सबुद्धं संबोउि ॥ मुखयराहिव सुबिसुद्ध सीगेणेहिं पसाउ || १४ ||
१५
जाओ सिदे अहिलेसिङ कोर्ड तर्हि मरिचि भवंतरि एंथु आउ पुणु कह सा भवभाव मुं गवसु धणसिरि सुहासु हुई दलिदिणि वणियधीय सा मे सावयव किं पिलबि पामेण सह चषिवि तेत्यु सिरिमइस सुंदरि मज्झु माय जंबूदीवामरगिरिविदेहि
ईसाकपि ललियंगुणा । तुहुं वज्जजंधु मेहं तण ताड | सुणि सिरिमइजम्मंतरच उँकु । जब लग्गु करेणु मुणिवरासु । पियासवेण उवसमहु गीय । हूई देवणि तुज्नु देवि । हूई णरणाहहु धूय पत्थु । आयदि भिचुताय । पुरिमिरि गयणविलंबिमेहि । होत परवडणामे गिद्धु । अटुंजिवि पंकहि बराच । हुल बग्घु दिसागय कुसुमवासि ।
छादेखि सो समिद्ध गणरयहु ससायरसमाउ
पियणयरणियहि यिव सुनिवासि घसा - ता तहिं मदिरए लवलीहरण पीईचेणु भामित्र || उपरि नायरो समरायरहो जंतु रात्र आवासि ||१५||
२. Bज शिबु जरुणिबू ७. MP कि परिणयवसेण
[२५. १४. ३
व निवड परिगलियगव्यु । जरेणिषु ण महुरत्तणहु जाई । ajaya हिं मई मोहजालु । कम्मुजि बलवंत किं वपण । गयर्भवई समासहि सामिसाल | जइपुंगव चक्काद्दिवस्याहि । तापणकिंकराई । कि कारण ती बजर साहू | जयेन्मु णामधिविणियाशु | गामेण महाबलु बसाहू |
३ P महर । ४. M सयल । ५. MP६. Mur T परिणतवचसा । 4. Maf ९. M
११. K
०
१०. MI' अजगन्मुः R अजवम्मु but gloss जयवर्मा एवं १५. १. MUPK अहिलक्षिय । २. P का । ३ 1' णा । ४ MP एक जाउ ५ MDP महु | ६. MBP “शुक्क | ७. MBP चक्क ८. M सुबरा । ९ A1B करें | १०. दालियि । ११. P मुय । १२. BP रमासमिद्ध GK uote this as in ihe margin: रसासमिद्ध इति पाठे पृथ्वीपरिपूर्णः T रमासमिद्ध अतिकोपी रसासमृद्धो वा पृथ्वीपरिपूर्यः । १३. पीपट्टणु BP पीईव ।
मनु
I
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२५. १५.१४] हिम्बी अनुवाद
१४१ युगलों में से अन्तिम । क्या पागला हो, अपने दोनों पुत्रोंको नहीं जानते। हे राजन् ! यतिवर सब आनते हैं।" इसपर परिगलित गवं राजा कहता है--"गुणका कारण बुढ़ापा नहीं होता, जीर्ण नीबू मोठा नहीं हो जाता । लेकिन मधु हर क्षण मधुर दिखाई देता है । पुत्रोंने तप और परिणतअथ मैंने मोहजालका आचरण क्यों किया ? क्या आयुसे कम हो बलवान होता है ? कामदेवकी लीलाओंका अन्त करनेवाले हे दमवर स्वामिश्रेष्ठ, मेरे गत जन्म थोड़ेमें बताइए? और भी हे यतिश्रेष्ठ, इस चक्रवर्तीकी भी शुम्हारी आनन्द मोसमझिकर अनमित्र और अकम्गत अनुचरोंका चिरजन्म बताइए और मेरे भारी स्नेहका क्या कारण है ?' इसपर मुनि कहते हैं कि ऋषिके द्वारा कहे जानेपर भी ज्ञानसे रहित जयवर्मा नामके हे सुभट ! तुम निदान बांधकर विद्याधर राजा हुए, सेनासे सहित महाबल नामके ।
पत्ता-प्राचीन समयमें विजयाधं पर्वतपर अलका नगरीमें स्वयंबुद्धके द्वारा सम्बोधित विशुद्ध मतिवाला और शीलगुणोंसे प्रसाधित वह विद्याधर राजा मर गया ॥१४॥
तुम ललितांग नामसे ईशान स्वर्गमें देव हुए, कामको अभिलाषा करनेवाले । वहाँसे मरकर तुम यहां आये, तुम वनजंघ मेरे पिता । भवनभावसे रहित वह मुनि फिर कहते हैं-तुम श्रीमतीका जन्मान्तर ( चार पूर्वजन्म ) मुनो। गृहपतिको पुत्रो धनश्री श्रुतधारी मुनिवरको उपसर्ग कर बनियाकी दरिद्र वान्या हुई । मुनि पिहिताधवने उसे उपशान्त किया। वह कुछ श्रावक व्रत ग्रहण कर स्वर्ग में तुम्हारी देवी हुई स्वयंप्रभा नामको । वहाँसे आकर यहाँ राजाको कन्या हुई श्रीमती सतो सुन्दरी मेरी मां। हे तात ! अब भृत्योंके पूर्व जन्मों को सुनिए। जम्बूद्वीपके सुमेर पर्वतके पूर्वविदेहमें वत्सावती देश है, जिसपर सदैव बादल छाये रहते हैं, उसमें क्रोधसे प्रज्वलित गुड नामका राजा था। वह बेचारा नरक गया और पंकप्रभा भूमिमें दस सागर पर्यन्त दुःख भोगकर जहाँ धनका निवास है, ऐसे अपने नगरके निकट, दिग्गजरूपी कुसुमोंको मन्ध लेनेवाला बाघ हुआ।
पत्ता- वहां लवलोलतामोंके घर उस पर्वतपर प्रोलिवर्धन नामका राजा, युद्धका आदर करनेवाले अपने भाईपर आक्रमण करने के लिए जाता हुआ, ठहर गया ॥१५॥
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१४२
महापुराण
[२५. १६.१
तेहि णिवसइ पहयरिणयरिणाहु जा तौबोलंबियलंब याहु । चारणमुणि णहलि ओयरंतु...... वणि चरियामों पइसरंतु । गिरिवविवरंतरसंठिएण मम्मासाहारुकठिएण। दिहल पुल्लि पिहियासवखु परमेसर गिम्मैलणाणचक्नु । संभरियजम्मु हर्ड मंदभाब एत्थु जि चिर होतच पुहाइराउ | गउ सम्भह पुणु अलियल्लि जान पसुमार्से पोसमि काई काउ | मणु जाणिषि मुणि वि समीउ आउ संबोहिउ साहित धम्मणा । घिउ संणासणि 'मृगु णिसाउ गउ भिक्खहि भिक्खु महाणुभाष । तो थाहि मणिवि महुरे सरेण पडिगाहिउ झत्ति चक्रसरेण । पकवालिउ जमिकमजुग जलेण अंचिउ पोमेण सकेसरेण । गुणवंतहु संतह कयउ माणु ते तहु दिपण आहारदाणु । तं पुच्छिच इच्छिड णियहिएहि सेणावइमंतिपुरोहिएहिं । सो ताहं तेण दरिसियर पुल्लि जइणा पत्तः सुरवईसुहिल्लि। ईसाणि दिवायरु णाम तियसु अण्णु वि सुहं पाव कि सवसु । गउ महिवइ मोक्खहु खविवि कम्मु तिहिं 'तिणि समीहिवि दाणधम्मु । पत्ता-मुणिपयपोमरय कालेण मय चमुबह मंति पुरोहिय ।।
कुरुभूमिहि मणुय हुय पीणमुय णाणाहरणहिं सोहिय ।।१६|
मैड मंति कुरुहि गइ आउमाणि कणयाहु णाम कंचणविमाणि । उप्पण्णउ सुरु ईसाणसग्गि विप्फुरियविविहमाणिकमग्गिं । सैसियइ वरमणि पहंजणकु जायउ पुरोहवर गलियसंकु । सेणाणि पहायक पहघरंति हुउ दिबदित्ति दीवियदियंति । सत्तारि वि णिकचु जि बिहियसेव देवत्ति तुझु परिवारदेव । पई चुइ पुणु हूया जेत्थु ओम आहासमि णिसुणहि तेत्यु तेम । सदूलदेउ सिरिमइहि उयरि सायरसेणो हुन पुण्णापवरि। मइवरु मइवरु तुह मंति राय को पावइ एयहु तणिय छाय। हे ताय पहायरू मरिबि देव अजयहिं अकंपणु पुत्तु जाउ । सेणावइ तेरउ तिव्वतेउ
परपलहु म मुग्गउ धूमकेच ।
१६. १. K तिहिं । २. G सारोलंबिय । ३. P हिम्मलु । ४. MBP संभरिउ जम्मू । ५. MRP सुभह;
T सम्भह नरके । ६. MBP मिगु । ७. M ती ठाह भणिवि; UP तो थाह भणेबि; K भो चाहि भणिदि । ८. M पुणु कमजुउ जलेग; BP कमजुयल परेसरेण; T कमजगु सरेण । ९. MBP इच्छिय ।
१०. MBPT इल्लि । ११. RPK सुरवर । १२. IP तहिं । १७. १. MBP मुज । २. MBP रूसियबर । ३. P चत्तारि जि णिच्नु बि। ४. B देवत्तु । ५. MB
सायरसेणु घ हुउ; P सायरसैणहो हुउ; K सायरसेणे हउ ।
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१७.१०]
हिन्दी अनुवाद
१४३
9C
-
-
प्रभकरी ( रानी ) का स्वामी प्रीतिवर्धन राजा जब वहां रह रहा था, तब अपने लम्बे हाथ उठाये हुए, आकाशसे उतरते हुए, बनमें चर्यामार्गके लिए प्रवेश करते हुए चारण मुनि आये। गिरिवरके विवरके भीतर स्थित और पशुओंके मांसका आहार करनेके लिए उत्सुक व्याघ्रने पिहिताश्रव नामक निर्मलज्ञानको आंखवाले परमेश्वरको देखा। अपने पूर्वजन्मकी याद कर (यह कहता है) मैं मन्दभाग्य पहले यहींका राजा था। मैं नरक गया। फिर व्याघ्र बना । मैं पशुमांससे अपने शरीरका पोषण क्यों करता है। उसका मन जानकर मुनि भी उसके पास आये और उससे धर्मका नाम कहा । वह व्याघ्न कषायभाव से मुक्त होकर संन्यास में स्थित हो गया। महानुभाव भिक्षु भिक्षाके लिए चले गये। तब, 'ठहरिए' मधुर स्वरमें कहते हुए, चक्रवर्ती राजाने उन्हें शीघ्र पड़गाहा । उसने जलसे उनके दोनों पैरोंका प्रक्षालन किया और केशर सहित कमलसे उसकी पूजा को। गुणवान् सन्तका मान किया, तथा उसने उनके लिए आहारदान दिया । अपना कल्याण चाहनेवाले सेनापति, मन्त्री और पुरोहितोंने अपनी इच्छित बात पूछो । उन्होंने उनके लिए वह व्यान बताया। यतिके कारण वह बाप इन्द्रकी सुख परम्परावाले ईशान स्वर्गमें दिवाकर नामका देव हुआ। स्ववश होकर दूसरा कोन नहीं सुख पा सकता? राजा कर्म नष्ट करके मोक्ष चला गया । वे तोनों ( सेनापति आदि ) दानधर्म की इच्छा रखते हुए
पत्ता-तथा मुनिके चरणकमलों में लीन होकर समय के साथ मृत्युको प्राश हुए और कुरुभूमिमें स्थूलबाहवाले और नाना अलंकारोंसे शोभित मनुष्य हुए ।।१६।।
कुरुक्षेत्रमें आयुका मान समाप्त होनेपर मन्त्री मर गया। विविध माणिक्योंसे चमकते मार्गोवाले ईशान स्वर्ग-स्वर्णके विमानमें कनकाभ नामका देव हुआ। शंकाहीन पुरोहितका जीव प्रभंजन नामसे रुषित नामक उत्तम विमानमें देव हुभा । सेनापति प्रभाकर नामसे दीप्तदोप्तिवाला दिशाओंको आलोकित करने वाले प्रभा विमानमें उत्पन्न हुआ। हे देव, वे चारों हो तुम्हारी सेवा करनेवाले स्वर्ग में तुम्हारे पारिवारिक देव थे ! वहाँसे च्युत होनेपर तुम जहां जिस प्रकार उत्पन्न हुए, उसी प्रकार ये भी उत्पन्न हुए 1 हे देव ! सुनिए; शार्दूलदेव श्रीमतीके पुण्यप्रवर उदरसे सागरसेन नामका पुत्र हुआ । मतिवर, तुम्हाग श्रेष्ठ मतिवाला मन्त्री हुआ। हे राजन् ! इसकी छाया कौन पा सकता है। हे तात ! प्रभाकर देव मरकर आर्जवा रानोसे अकम्पन नामका पुत्र हुआ। सेनापति, तुम्हारा दिव्य तेज सेनापति हुआ जो मानो शत्रुसेनाके लिए घूमकेतुके रूपमें
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१४४
[२५. १७.१॥
महापुराण कणयाहु तियसु चुत कई हिं भणि सुयकित्तिअणेतमईहिं जाणि । जो पशु कपर सो विशुद्धि
, पुरोहि पिमलबुद्धि । घत्ता-अमर पहजण रंजियजण रुसियविमाणहु आयउ॥
दत्तयवणिष इणा विरइयर इणा धणयत्तहि सुन जायर ॥१७॥
धणमित सेटिकुलणलिगगिज किंकक अहवा तु परम मित्तु । प्रयई छह बद्धसिणेहयाई
तुम्हई सग्गाउ समागयाई। परवइ चउ किंकर समरमीम सिरिमइ राणी सोहगसीभ । णिसुणेवि भवावलि बिम्हियाई छ वि जिर्णरविगुण चितिवि थियाई । पुणु भणइ राउ भयवंत धिमाल सल कोल गोपुच्छ उल । चत्तारि वि परहं ण ओसरति अच्छति णिसण्ण ण वणि चरति । गड भक्खु लेति ण उ जलु पियंति णवियागण तुह भासि सुणति । किं कारणु कहहि मुगिंदचंद ता भणइ सरि Kणि भो णरिंद । इह देसि हस्थिणाय'उरि रम्मि वणि सायरदत्तु विचित्तइम्मि | तहु धण धणवइ सुध उगसेणु सो कामु कामिणिपायरेणु । पहु कोडागारि अइसमे चि भत्तेई भरणई बलि मह लेवि । उवणेतु पणयसीमंतिणीहि बंधावित राएं णिययणीहि । मुउ कोहें जायउ एस्थु वग्घु ओहन्छइ मई मणिवि सलग्घु । घत्ता-होतत सूयरउ चिरु माणरउ विजयणयरि 'बुद्धिए किसु ।।
महणंद जणिव जंणेवइमुणिउ णिव वसंतसेणाहि सिसु ॥१८||
हरिवाणु णामें बूढमाणु दप्पंधु समंदिरि कीलमाणु । णरणाई णंदणु भणि एंव माणेण परंमुहूं होति देव । तं णिसुणिषि धाइट चवलु टिमु सिरि लग्गु सिलामउ भवणखंमु । मुउ एथु पहु यत्र वराहु पुणु कहाइ साहु असंतसाहु । उद्धृयधयमालापंचवणि कइ आसि जम्मि णयरम्मि धणि । वणिकरिष्य कुबेर जणिस पुत्तु पणइणिहि सुदत्तहि णागदत्तु । बहिणिहि विवाह किजइ धणेण भासिउ मायइ ता सा अणेण । ६. MBP कहहि । १८. १. MRP विधियाई । २. MBP जिणवर । ३. PT गोपुंछ । ४. MSP भी मुणि । ५. 3.BP
हत्यिणारि पुरम्मि । ६. 15 वत्याभरणई। ७. M BP वनिमंड। ८. MBP उवयंतु; T उवणेनु । । ९. M] तुह अच्छद; P हुन अच्छइ । १०. MEI' बुद्धोइ। ११. MBP सह गर्दै । १२. MDP |
जणवयं । १९. १, MP पाविउ चवल । २. B अवाससाहु ।
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२१. १९.७]
हिन्यो अमुवाद उत्पन्न हुआ है। कवियोंके द्वारा कहा गया है कि कनकाभ नामका देव च्युत होकर श्रुतिकीर्ति और अनन्तमतिसे उत्पन्न होकर यह सुभट शुद्धि प्रदान करनेवाला विमलबुद्धि, आनन्द नामका पुरोहित है।
पत्ता-जनोंका रंजन करनेवाला प्रभंजन नामका अमर कषित विमानसे आकर रतिमें आसक्त दत्तक सेठकी पत्नी धनदत्ताका पुत्र हुआ ||१७|| ..
१८
श्रेष्ठोकुलरूपी कमलों के लिए सूर्य, धनमित्र तुम्हारा अनुचर अथवा परममित्र हुआ । स्नेहसे बंधे हुए ये छहों तुम लोग स्वगसे आये हए हो। इस प्रकार राजा, युद्ध में भयंकर चारों अनुचर और सौभाग्यको चरम सीमा रानी श्रीमती अपनी भवावलो सुनकर विस्मयमें पड़ गये। छहों जिनरूपी सूर्यके गुणोंको सुनकर स्थित हो गये। राजा फिरसे कहता है-ये भयभीत तथा विमल सिंह-कोल-बन्दर और नकुल ये चारों मनुष्योंसे नहीं हटते, यहाँ बैठे हुए हैं, वनमें विचरण नहीं करते, न कुछ भोजन करते हैं, और न पानी पीते हैं, अपना मुंह नीचे किये हुए तुम्हारा भाषण सुनते हैं। हे मुनिश्रेष्ठ, इसका क्या कारण है ? तब मुनिवर कहते हैं- 'हे राजन् ! सुनो, यहाँ सुन्दर हस्तिनापुर नगर में सागरदत्त वणिक अपने विचित्र महलमें निवास करता था। उसकी स्त्री धनवती और पुत्र उग्नसेन था। स्त्रियोंके चरणोंकी घूल वह अत्यन्त कामी था। राजाके कोष्ठागारका अतिक्रमण कर चावल आदि वस्तुएँ बलपूर्वक हरण कर, अपनी प्रेयसी स्त्रीके पास ले जाते हुए राजाने उसे रस्सियोंसे बंधवा दिया। वह मरकर क्रोधके कारण यहाँ बाध हुआ । मुझे श्लाघनीय मानकर अब यह ऊपर स्थित है।
पत्ता-वह सुअर पूर्वजन्ममें विजयनगरमें महानन्द राजासे उत्पन्न वसन्तसेनाका पुत्र था। अत्यन्त मानरत और बुद्धिसे कृश । लेकिन जनपदमें मान्य ||१८||
१९
हरिवाहनके नामसे वह बड़ा हुआ। दर्पसे अन्धे और अपने घरमें खेलते हुए उससे राजाने कहा कि मान करनेसे देवता बिमुख हो जाते हैं। यह सुनकर वह चंचल बालक दोड़ा और उसका सिर शिलामय भवनके खम्भेसे जा लगा। मरकर वह बेचारा यहाँ सुबर हुआ है । अत्यन्त साधु वह साधु पुनः कथन करते हैं कि उड़ती हुई पचरंगी घ्दजमालाओंवाले धान्यपुर नगरमें यह बन्दर, पूर्वजन्ममें, बणिग्य र कुबेरसे उत्पन्न प्रणयिनी सुदत्ताका नागदत्त नामका पुत्र था।
२-१९
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१४
महापुराण पंचिवि पामीयरु णियर सन्यु ता वहिं वि वाइ तहुँ गहिट दन्छ । सुई मायारस हुच पत्थु ए
वणि मंकडु माणुसमेतवे। णायारि णिसुणि णिष पुत्वयालि सुपष्टियपट्टणि तोरणालि । होतस कंदुवि लोलुयम णाम दियइहिं णवर रामाहिराम | पारंभिस जिणइन पस्थिवेण कारवहुँ एण कारावएण | धत्ता-जुण्ण रायहरु तम्हाउ तर लेवि वहद पुर परियणु ॥
घट्ट विसंघ जहिं सहस ति तहिं कंदुइ पेच्छह कंचणु ॥१९॥
१०
तोलेप्पिणु चलकरयलतुलाइ परियाणेप्पिणु पणिवरकलाइ । इट्टा चामीयरपूरियाउ बहि मिप्पिडेहिं समारियाउ । कावयर ण केण वि मावियाउ लहुँ णियमवणहु णेवाविया । कम्भेयरहु दिण्ण सरस भो... लुद्ध वि दाणेण फरेह फज | "इथ गरहि कम्मु करवि गूदु अण्णहि दिणि मोहरसेण मूदु । घरि तणन धवेप्पिणु वियसियासु गज गार्मतरु तणुरुह हि पासु । एत्तहि पुत्तं पियराण भिण्ण सोवण्ण इट्ट दारियहि दिण्ण । वं खंडइ जाम सुवण्णयार ता पेच्छा पहुपिचणाम सारु । ते गंपि पकंपियजीयएण जाणाविउ राय भीयएण। भासिन वेस वित्तंतु सव्वु तं जायज रायहु तण दन्छ । घरणीसरकुलचिंधेण जडिय लोलुयगेहे णिवमुर पहिय । परिरभिनयमाहिधमाणवेडिं परभीयरेहिं णं दाणवेहिं । सुन पंधिषि कारागारि घिन्तु तहि अवसरि फंदुइ तर्हि जि पसु । घसा-गंदणु तेण हर कह विहु ण म दंडपहारहिं तासि ।।
परधणलोलुयन सो लोलु यउ राउलेण विरुमाडिच ।।२०।।
२१ पुणु बहुदविणासाऊरिएण कहिं गये भणेवि सैस रिएण। तुम्हई बिणि वि महं सत्तु जाय पाहाणे चूरिवि णियये पाय | मुउ लोहफसायमलेण मालु इह छूयच पेक्खु गरिंद पडलु । ३. MBP तं गहिन । ४. MBPK मुज। ५. MBP मक्का माणुसु । ६. MRP लोसूत ।
७. M तुम्हाउ भव । ८. B विसिट्ट । १. MB कंदुस; P कंदुम। २०. १. MP यहि मिपिडेहि; B बाहिमिपिडेहिं । २. M कम्मरयहं । ३. MBP दाणेण जि फरह ।
४. MBP गहिर । ५. MBF ता । ६. MBF तो. MBP सं। ८. MBP लोलुयहि गहि ।
९. T माहिंय मा लक्ष्मीर्हता; माहिष माहिया इति पाठे। २१. १. MBP गज । २. MBP कुलूरिएण।
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१४७
२५.२१.३ ]
हिन्दी अनुवाद
माताने कहा कि बनका विवाह धनसे किया जाता है परन्तु इसने समस्त सोना ठगकर ले किया, तब उसने ( मौने) भी उससे सब धन छीन लिया। वह मायावी पुत्र यहाँ इस वन में मनुष्यमात्र के समान देहवाला वानर हुआ है। हे राजन् ! सुनो, यह नेवला पूर्वकालमें तोरणोंसे मुख सुप्रतिष्ठितनगर में लोलुप नामका हलवाई या । कुछ दिनोंमें है वज्रजंघ, राजाने एक जिनमन्दिर कारीगरसे बनवाना प्रारम्भ किया ।
धत्ता- वहीं पुराना राजघर था; वहांसे लकड़ी लेकर पुरजन नगर ले जाते । जहाँपर एक ईंट फूटी थी, वहाँ हलवाई अचानक सोना देखता है ||१५||
२०
जिसमें करतल और तराजू चंचल है ऐसी वणिक्वरको कलासे, जानबूझकर स्वर्णसे पूरित ईंट तोलकर बाहर मिट्टीके पिण्डों से उन्हें ढक दिया। किसीने भी किसी प्रकार इसे नहीं जाना । वह शीघ्र उन्हें अपने घर उटवा ले गया। काम करनेवालको उसने सरस भांजन दिया। लोभी व्यक्ति भी दानसे काम कर लेता है। यह गूढ़ और निन्दनीय काम कर, दूसरे दिन वह मूर्ख मोहके वशसे, प्रसन्नमुख अपने पुत्रको घरमें रखकर दूसरे गाँव पुत्रीके पास गया । यहाँपर पुत्र पिताकी आज्ञा से खण्डित, सोनेकी ईंट वेश्याको दे दीं। जैसे ही सुनार उसे तोड़ता है वह उसमें राजाके पिताका नामश्रेष्ठ देखता है। डरकर और कांपते हुए प्राणोंसे उसने यह बात राजा को बतायी। वेश्याने सारा हाल बता दिया। वह सारा धन राजाका हो गया। राजाके कुलचिह्नसे जड़ी हुई नृपमुद्राएँ लोलुप रसोइएके घर जा पड़ीं। दूसरोंको डरानेवाले मानो दानवोंके समान राजाके रक्षापुरुषोंने पुत्रको बाँधकर कारागार में बाल दिया। उस अवसरपर हलवाई वहाँ पहुँच गया ।
घसा--उसने डण्डों के प्रहारोंसे लड़केको इतना मारा कि वह किसी प्रकार मरा भर नहीं । दूसरे के धन के लोभी उस हलवाईंको भी राजकुलने नष्ट कर दिया ||२०|
२१
फिर अत्यधिक धनको आशासे मरे हुए हलवाईने 'तुम कहाँ गये थे, तुम दोनों मेरे शत्रु हुए यह कहकर अपने दोनों पैर कुचल कर, लोभ कषायसे मेला वह मर गया और हे राजन्,
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५
१०
१४८
णिसुणेपिणु मडुमडुरखराई बसंत वति ण भण रोसु पई दिष्णु दाणु मणिचं इमेहि बहुभोयभावसुइदा इणीहिं अट्टम जम्मि तुहुं जिणबरिंदु सिरिमइ होस सेयंसराज सुरणरसुहाई संपाविति संसारविहरणिवेइएण कमर्कमलज मलवलइयसि रेण वंदिय मंतिर्हि सावयगणेण संपत्ता दुरिदं वणरतु पत्ता - मृग
महापुराण
सुयरेष्पिणु गय जम्मतराई । सुरभीर्णे अज्ज खवंति दोसु । कवि सहरदमेहिं । परमा बद्धु कुरुमेणीहिं । होहि परजुयणामि सुरिंदु | पहिलउ जि दार्णत्तिस्थय रदेश । ए खुद्द सुहि होइवि सिझिईिति । जिणणाहधम्म अणुराइएण । तं णिणिविपणविय बहुवरेण । गय रिसि पयर नह पंगणेण । संभासिवि चारिवि णिहसु । वसेचि सुरुगमि पहु णिग्गल ।।
पुसिवि वर्हि णिसि करिघंटासरहिं पसरियकरहिं भयभेसाक्षिय दिग्गर ||२१||
छणयं व वर्णकेति एस साधारपवार्याणिलयकुहिणि पण मिय सासुभ जाण आलिंगिराएं भार्यणिन्जु मिलियड लच्छीमइसिरिमई निर्ययं हि संचितियसिवेण समिश्रणगुणि संणिहिउ सामि roars विसावियस देसु वित्तीइ बलाई नियंतियाई पडिवक्खु असेसु विखयहुणीव अप्पे पुणु घरवत्ताइ लइउ 'भिश्च समुिण को एम ससयहं देइ रिद्धि
२२
....दिसहिं पुंडरिंकिणि पवष्णु । ओलोइय तेण णवंति वहिणि । अवियस पसरियमुपण । अविउँ बालु पहसियमुइज्जु ।
गंगाजणाई | तर्हि ते वज्जजंघें शिवेण । मंति विकिणियाणुगामि । सुहि संमाणिय संघिय कोसु । जोग दुग्गई परिवितियाई । थिक राज्जि भवेपि पुंडरी | सङ्खु कंतइ उप्पलैखेडु अङ् । थि रज्जु करंतु सुही सुद्देण । एका सामन्यसिद्धि ।
[ २५ २१.४
३. MBP मा जि जं खवधि । ४. B कइकट्ठव ; P ककोलवग्ध । ५. M बहुभे । ६. MBP " दावणीहि । ७. MBP णावियगरिदु । ८. M दाणू तित्थु । ९ PK करकमल । १०. M सगइत्ये फंसिवि तहि पिसि णिवसे बि; B सगहत्यें फंसिवि तह बणि शिवसेवि; P सगहयें फंसिवि तह वि संसिवि ।
२२. १. Mणवति । २. MBP अबलोइय । ३. MVP पणविय । ४. MBP जामाइएण । ५. MBP “सिणेह । ६. MBP भाइणेज्जु । ७. MBP अविलु वि; T अविलु इति पाठेऽप्ययमेवार्थः । ८. MBP ताणिबंधुहि चितिय । ९. MB विवह; P विबुद्ध । १०. MP मंतिया । ११. MBP समपिवि । १२. HP अप्पू । १३. MBP उप्पलु खेड | १४, Bomits this foot १५. MBP महासुहेण ।
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२.२२.१३]
हिन्दी अनुवाद देखो, यह यहाँ नकुल हुआ। मधुके समान मीठे अक्षरोंको सुनकर और गत जन्मान्तरोंकी याद कर ये उपशम भाव धारण करते हैं । न इन्हें डर है और न क्रोध । शुमध्यानके द्वारा आज भी ये अपने दोष नष्ट कर रहे हैं। तुम्हारे द्वारा दिये गये दानको इन वानर, सुअर, बाघ और विषधरदम अर्थात् नकुलने माना है। बहु-भोगभाव और पवित्रता प्रदान करनेवाली कुरुभूमिको आयु इन्होंने बाँध ली है। माठवें काटा जुस ( वाजलंक अपने वरणगाल में देवेन्द्रों को नमन कराने बाले जिनवरेन्द्र होगे । श्रीमती राजा श्रेयांस होगी पहला दान तीर्थंकर देव। ये देव और मनुष्योंके सुखको प्राप्त करेंगे और तुम्हारे ये सुषीजन सिद्धिको प्राप्त होंगे। संसारके कष्टोंसे विरक्त होकर, जिनधर्म अनुरागी तथा दोनों चरणकमलोंमें अपने सिरको झुकानेवाले वधूवरने उन्हें प्रणाम किया। मन्त्रियों और श्रावकगणने उनको वन्दना की, आकाशगामी ऋषिवर नभके प्रांगणसे चल दिये। बातचीत करके चारोंने निश्चित कर लिया कि वे पापसे ही पशुयोनिको प्राप्त हुए।
घत्ता-मृगहस्त नक्षत्र बोतनेपर और रात्रिमें वहां रहकर सूर्योदय होनेपर राजा वहाँसे निकला, हाथियोंके घण्टास्वरों और फैली हुई सूंडोंस दिग्गजोंको भयसे कपाता हुआ ||२१||
२२
अपनी शरीरकान्तिसे पूर्णचन्द्रके समान प्रसन्न वह कुछ ही दिनोंमें पुण्डरीकिणी पहुंच गया। अनुन्धरा सहित तथा पतिव्रताके घरको पगडण्डीको सरह उसने अपनी बहनको प्रणाम करते हुए देखा। अविरत स्नेहसे अपने वाह फैलाये हुए जामाताने सासको प्रणाम किया। राजाने भानजेका आलिंगन किया । अविकल और हंसते हुए मुखकमलवाला बालक लक्ष्मीमती और श्रीमतीसे मिला, मानो गंगानदो और यमुना नदियोंसे मिला हो, अपने भाईका कल्याण सोचनेवाले उस बज्रजंघ राजाने बहां स्वामित्वके गुणमें स्वामीको रखा, विद्वानोंका अनुगमन करनेवालेको मन्त्री बनाया। राजाके द्वारा शासित समूचा देश उपदव रहित हो गया । सुधियोंको सम्मानित किया गया और कोष संचित किया गया। पुत्तियोंसे सेनाओंको नियन्त्रित किया गया। योग्य दुर्गोको चिन्ता की गयी। अशेष प्रतिपक्षको नष्ट कर दिया गया। उसने पुण्डरीकको स्थिर राज्यमें स्थापित कर दिया। स्वयं घरका वृत्तान्त पाकर अपनी पत्नीके साथ उत्पललेड नगर गया। चन्द्रमुख चारों अनुचरोंके साथ वह सुधो सुखसे राज्य करता हुमा रहने लगा। इस प्रकार कौन अपने लोगोंको अति देता है ? इतनी बड़ी सामथ्यं और सिद्धि किसके पास है ?
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१५०
[ २५.२२.
महापुराण पत्ता-थिर परकजरय णियवसधय सुपुरिस को णासंघद॥
घणतमभरहरणे दित्तीय रणे पुष्पदंत को लंघह ॥२२॥
इम महापुराणे तिसटिमहापुरिसाणालंकारे महाकहपुप्फर्यतविरइए महामबभरहाणुमपिणए महाकम्बे वजबावजदतवचरणकरणं णाम पंचवीसमो परिजोलो समची ॥१५||
संधि ॥२५॥
१६. P दित्तीहरणें ।
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२५. २२.१५] हिन्दी अनुवाद
१५१ पत्ता-स्थिर, परकार्यमें रत, अपने वंशका ध्वजस्वरूप सज्जन पुरुषकी शरण में कौन नहीं जाता ? सघन अन्धकारके भारका हरण करनेवाले युद्ध में दीप्तिको कोन लांच सकता है ।।२२।।
इस प्रकार प्रेस महापुरुषोंके गुण अलंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचिस
और महामव्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका वनवाहु वनदन्त
तपश्चरण नामका पचीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥ २५६
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संधि २६
कामभोयसुहरमवसहो तहु वसुमइहि काई वणिज्जइ ।। जं जं चितइ कि पि मणे तं तं मयलु वि खणि संपउजइ ॥ध्रुवक।।
जक्खपंको वद वल्लहालिंगणं मालईमालिया कंकुमालेवणं । उंचओ मंचओ चारुसेज्जॉयलं आवरोहारि सोमई थणाणं थलं । उण्हयं भोयणं तुप्पधाराइरं रत्तओ कंबलो छण्णरंधं वरं । पुवपुणेण सर्व पि संजुत्तयं सीययालम्मि तेणेरिसं भुत्तयं । चंदणं चंदपाया पिया णेहली मलियावामयं तारहारावली । दाहिणो मथरो माओ सीयलो रुक्खकीलाणिओ पल्लवो कोमलो। वझरीमंडवो पोमंजुत्तो सरो वीयणंदोलणालीणओ सीयरो। थाद्धथद्ध दहि सीयय पाणियं उपहयालम्मि तेणेरिस माणिर्य । फुल्लियासाकयंबोधूलीरओ मतमाऊरवंदस्स केयारओ। णीरधारामुयंतंबुषाहझुणी संगया सूहवा पासि सीमंतिणी । णिग्गलं मंदिरं णिकिय भूयलं धावमाणं रालं पणालीजलं । इट्ठगोट्ठीविसिहहिं विष्णाययं दिव्वगंधत्वयं कन्वयं पाययं । विज्जुमालाफुरंतं णई दिपहं तस्स मेहागमे तं पि सोक्खावह। दोहरों कालओ जाव वोच्छिपणेओ गेहए धूपओ ताम से दिण्णओ। सोत्तसंचारि धूमेण ताणं इओ दंपईणं "खणेणेव जीओ गओ। कारणं मधुणो कि जणो कंखए होइ"सत्थं सिरीस पि आठक्खए । पत्ता-जथूदीवसुरालयहो उत्तरकुरुहि रमणमणेहारिहे।
मरिवि वरवर अवयरित उयरि अणि अजवणारिहे ॥१॥
MBP give, at the commencement of this Sardli, the following stanza :
धनषवलताषयाणामचलस्थितिकारिणां मुबन मनाम् ।
गणनव नास्ति लोके भरतगुणानामरीणां च ॥१॥ GK do not give it, १. १. MBP उच्चयो । २. M°सेज्जावलं; P सेज्जालम् । ३. MBP सोण्हं । ४. GK मारमो bu
Floss वायुः । ५. MBP पोमपुण्णो। ६. MB पद्धथड्नु P बदथड्ढे । ७. MBP सीमलं 1 ८. । रयाणं । ९. MBP वोलोणमो; T वोच्छिण्णओ। १०. MBP सणेणेय । ११, B सत्यं पियाक्षर P सत्यं सिरीसं पयामओ खए । १२. MBP हारहो । १३. MBP णारिहो ।
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सन्धि
२६
कामभोग और सुखरससे वशीभूत उस श्रीमतीका क्या वर्णन किया जाये। मनपे वह जोजो सोचती है, वह सब एक क्षणमें उसे प्राप्त हो जाता है।
यक्ष कदम, प्रियका दृढ़ आलिंगन, मालतीमाला, केशरका लेप, ऊँचा मंच, सुन्दर शय्यातल, स्थूल उन्नत ऊष्मा सहित स्तनोंका भाग, उष्ण भोजन पीकी धारासे सराबोर, लाल कम्बल, और रन्ध्रोंसे आच्छादित घर-पूचं पुण्यके संयोगसे उसे सब कुछका संयोग प्राप्त हो गया। शीतकाल में उसने इस प्रकार भोग किया। चन्दन, चन्द्रकिरणे, स्नेहमयो प्रिया, जुहीकी माला, स्वच्छ हारावलो, दक्षिण मन्द शीतल पवन । वृक्षको क्रीड़ासे आन्दोलित कोमल पल्लव । लतामण्डप, कमलयुक्त सरोवर, पंखोंके आन्दोलनसे व्याप्त जलकण । खूब जमा हुआ दही। ठण्डा जल । उष्णकालको उसने इस प्रकार बिताया। खिले हुए दिशाकदम्ब समूहकी धूलसे रत, मस्त मयूरवृन्दका केका शब्द, जलधाराको विसर्जित करनेवाले मेघोंको ध्वनि, संगत सुभग, पासमें बैठी हुई स्त्री। णिम्गल मन्दिर, और पवित्र भूमिभाग, दौड़ता हुआ वेगशील प्रवाली जल । इष्ट गोष्ठियों और विशिष्टोंके द्वारा विज्ञापित दिव्य गन्धवंगान और प्राकृतकाव्य । बिजलियोंसे स्फुरित आकाश और दिशापथ, ये भी मेधोंके आगमनपर उसे ( श्रीमतीके लिए ) अच्छे लगे। जब उसका बहुत समय बीत गया तो एक दिन, उसने घरमें धूप दी। उसके धुएंने उन्हें कानोंके छेदमें आहत कर दिया । उस दम्पतिका एक क्षणमें जीव चला गया। क्या मनुष्य मृत्युका कारण चाहता है ? शिरीष पुष्प भी आयुका क्षय होनेएर शस्त्रका काम करता है ?
घता-वधूवर दोनों मरकर जम्बूद्वीपके महा सुमेरुको उत्तरदिशामें रमणके लिए सुन्दर उतर कुरुभूमिमें अनिन्द्य आर्जवनारीके उदरमें, अवतरित हुए ॥१॥
२-२०
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१०
१०
१५
१५४
सरिय
मासम्म उत्तायि मुद्दाई णिषसं ताई सप्त सप्त दिन गय रंगतई सत्त खलिय पर्येषणई देवहं पुणु सताई थिराई संजाय अवरहिं सतहिं अलिणिह चिहुरई असितहिं दियह हिं पोढई ताई तिगारयतुंगसरीरइं सो विगासु ति तिदिवस हिं धवा--हिं चामीयरधरणिय पाणिउं मिट्टउं णाई रसायणु ॥ मणिमप्पमवहिं चि रवि सत्तावीस जोयणु ||२||
जहिं जणियसोक्ख
जणमणु हति
मसहि पेज्जु
सूरंगतूरु केस दोरा
गेहं गेहू
ढोति तुंग भायणविहति जे भोरंणक्ख
भोयणसयाई
साई
पुष्णाय गाय
णवमालियाच
मालंगकुरुद्द
यदिमिरभा
महापुराण
२
ताहं विहिं वि संचियेसुहचरियहूं । करकमलंगुलियास पिर्यंत पुणु वि पुणु विततई । अवरोप्पर दरकेलि जयंतई । गयेकुसलाई परिष्वायई । मिलिकलाकलावणिणयरई । जोन्वणसिंगारारूढई । बबदरीहरूमेत्ताहारहं ।
पत्ता - णित्रुजि उच्छे गिले दिन
इय भोसिउं रिसीहिं हयइरिसहिं ।
३
वहभेय रक्ख । वितिय देति ।
जंगु भज्जु ।
भूयंगु हारु । बच्ची ।
सरमे । तरुभायणंग । दिगदित्ति । ते विविमक्ख | रससंगयाई ।
जणु महइ जाई | वर पारियाय ।
अलिया लिया |
ढोति णिर | दीदी |
गिधु जि तणुतारुण्णु णवउ ॥
भोभूमिमाणुस जं जं दीसइ सं तं भल्ल ॥३॥
[ २६.२.१
२.१ B संचियसुसुपरियहं । २. MBP पियः T पय पदानि । ३. MBP गई । ४. MBP वरबदल: T कुबली बदरी । ५. B सुदिवसहि । ६. MBP मासियउं रिसिहि । ७. MP पिच ; B बिज; T चि प्रावितम् ।
३. १. MBPKT ममसहित २ MBP भूसंतु । ३. MBP केकरें: ४. Mच्छं । ५. MBP रोहन । ६. MBP विहिति । ७ MP मोयणेक्ख । ८. P वि ९ MBP मा । १०, MBP दीवंगदीउ । ११. MBP १२. MBP णिच् ।
Q
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२६. ३. १७]
हिन्दी अनुवाद
१५५
नौ माहमें गर्भसे निकलनेपर, शुभ चरितका संचय करनेवाले, उन दोनोंके ऊंचा मुंह कर रहते हुए और हाथकी अंगुलियोंको पीते हुए सात दिन बीत गये । सात दिन घुटनोंके बल चलते हुए, फिर-फिर उठते-पड़ते हुए, सात दिन कुछ पद वचन बोलते हुए और एक दूसरेके साथ कुछ फोड़ा करते हुए बीत गये । फिर सात दिनमें स्थिर, गतिमें कुशल और स्फुट वाणीवाले हो गये।
और भी सात दिनमें भ्रमरके काले बालवाले और समस्त कलाकलापमें निपुणतर हो गये। दूसरे सात दिनमें प्रौढ़ तथा नवयौवन एवं श्रृंगारमें रूढ़ हो गये। उनका तीन कोस ( गव्यूति ) ऊंचा शरीर था । बेरके समान उनका श्रेष्ठ आहार था। वह भी तीन दिन में वे एक कोर ग्रहण करते ये। ऐसा हर्षसे रहित ऋषियोंने कहा है।
पत्ता-जहां सोनेको जमीन है, पानी ऐसा मोठा कि जैसे रसायन हो। जहाँ सूर्य कल्पवृक्षोंके द्वारा सत्ताईस योजन तक आच्छादित है ||२||
जहाँ सुख उत्पन्न करनेवाले इस वृक्ष हैं, जो जनमनका हरण करते हैं और चिन्तित फल देते हैं । मद्यांग वृक्ष, हर्षयुक्त पेय और मद्य, वादित्रांग, तुरंग और तूयं, भूषणांग हार, केयूर और होर, वस्त्रांग वात्र, गुहांग घर, जो मानो शरद् मेघ हों। भाजनांग वृक्ष, अंगोंको दीप्ति देनेवाले तरह-तरहके बर्तन देते हैं और जो भोजनांग वृक्ष हैं, वे विविध मोज्य पदार्थ तथा रसयुक्त सैकड़ों प्रकारके भोजन देते है । माल्यांग नामके वृक्ष देते हैं उन पुष्पोंको जिनसे मनुष्यका सम्मान बढ़ता है, पुन्नाग नाग श्रेष्ठ पारिजात, भ्रमरोंसे सहित नवमालाएँ, निर्दोष दोषांग वृक्ष तिमिरभावको नष्ट करनेवाले दीप देते हैं। ____ पत्ता-निस्य हो उत्सव, नित्य ही नपा भाग्य और नित्य ही शरीरका तारुण्य । भोगभूमिके मनुष्योंकी जो-जो चीज दिखाई देती है, वह सुन्दर है ||३||
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१५६
महापुराण
[ २६.४.१
ण दुज्जणु दूसियसज्जणवासु ण खासु ण सोसु ण रोसुण दोसु । ण लिंक ण जिभणु णालैसु दिटु ण णि ण णेणिमीलणु सुट्छु । ण रत्ति ण वासरु धतु ण धम्मु ण इविओड ण कुच्छिय कम्मु । अयालि ण मंषु ण चिंत ण दीणु कयाइ कहिं पि सरीक ण झीणु। पुरीसविसगु ण मुत्तपवाह । ण लाल ण समुण पित्तु वि डाहु । ण रोज णं सोउ ण सेट विसाव किलसुण दासु ण को बि' वि राउ। सुरूव सलक्षण माणव दिव्व अगव्व सुभब समाण जि सब्द । मुहाउ विणीसिउ सासु सुयंधु कलेवरि वज्जसमलियबंधु । तिपल्लपमाणु थिराउणिबंधु करीसर केसरि ते वि हु बंधु । म चोरु ण मारि ण घोरुवसग्गु अहो कुरुभूमि विसेसइ सग्गु । धत्ता-विहिं मि ताहं तहिं संठियह एकमेकरइरमण लुद्धई॥
भुजंतहं णाणासुहई जाइ कालु दिदणेह णिबंधहं ।।४।।
ताहि जि पईहरथोरकर
मलाइय जाय णर। पत्तभोयभूमीभवेण
वजर्जघरायजदेण। समाहिलेण अच्छंतपण
सुरंत रसिरि पेच्छतएपा। कासु वि भासियसम्मयहो कजेणेय समागयहो। देवहु दीवियदिप्पो
णिएवि विमाणु रविप्पहहो । पुधभवंतर संभरिक्ष
वं ललियंगदेवचरिउ । थिउ णियमणि जा विभइड भवणिवेयभावलइ। ताणहाज चारणजुयलु
ओयरित कहाणिहु विमलु । पंतु तेण हकारियन
रुइरास णि वइसारियप। सीस सीसेण जि विख
सविणयवायइ विण्णविउ । के तुम्हई कि आगमणु
कि किं तुम्हहं उपरि मणु। मह्र वट्टल गेहुल्लिय
ता गुरुमुणिणा बोल्लियः । पत्ता-जइयतुं तुहं अलयारिहि होतउ आसि महाबलु राणउ ।।
तइयहुं हउँ सइंयुद्ध तुद्द मंति मंतसम्भाववियाणउ ||५||
४. १. MB दुजण। २. MBP ण रोमु ण सोसु । ३. MBP णालस। ४. M णित्त । ५. MBP
वष्णु; T षष्णु । ६. MR मिच्च । ७. MRP पुरोमुवसग्गु । ८. MBP सिंभ । १. MBA पित्त ण डाह । १०. MB | सेउ ण सोज । ११. MBP कोइ । १२. MBP add after this : महज्मि (B महुन्जिा मुहजे ) ण मौसिय मासिय ( B चम्मु ण) रोम, सुरेसहु बुदि विसेसियकाम ( B कम्म ).
१३. MRP सरूव । १४. M करीसरि । १५, MBPK भुजंतह । १६. MB बढणेहणिवाई। ५. १. MBP सद्लाइ वि, २. MBP सुरहरसिरि । ३. MBP कर केण । ४. "देउ । ५. P वि ।
६. MBP कि अम्ह्हं तुम्हह ।
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२६. ५.१४]
हिन्दी अनुवाद
*
वहाँ सञ्जनके निवासको दूषित करनेवाला दुर्जन नहीं है। जहाँ न खोल है, न शोष कोष है और न दोष न छींक, न जंभाई और न बालस्य देखा जाता है । न नींद और नेत्र निमीलन । न रात न दिन । न ध्वान्त ( अन्धकार ), न धाम । न इष्ट वियोग और न कर्म । न अकाल मृत्यु, न चिन्ता, न दीनता, कभी भी कहीं शरीर दुबला नहीं । न पु विसर्जन और न मूत्रका प्रवाह । न लार, न कफ, न पित्त और न जलन, न रोग, न शोक, और न विषाद, न क्लेश, न दास और न कोई भी राजा सभी मनुष्य सुरूप, सुलक्षण और निरभिमानी, सुभव्य और सभी समान उनके मुखसे सुगन्धित श्वास निकलता है, प वज्रवृषभ नाराच संहनन है, तीन पल्य प्रमाण स्थिर आयुका अन्ध है। जहाँ गजेश्वर को दोनों भाई हैं। जहाँ न चोर है, न मारी है न घोर उपसर्ग | आचर्य है कि कुरुभूमि स्वर अधिक विशेषता रखती है ।
प्रता - एक दूसरे के साथ तिलन्ध, दु स्नेहमें बंधे हुए, वहाँ रहते है दोनोंका नाना प्रकारके सुख भोगते हुए समय बीतने लगा ||४||
५
शार्दूलादि भी ( सिंह, वानर, सुअर और नकुल ) वहीपर स्थूल और दोघं ब मनुष्य हुए। मोगभूमिमें जन्म पानेवाले वज्रजंध राजाके जीवको, अपनो महिला ( श्रीम साथ रहते हुए, कल्पवृक्षोंकी लक्ष्मीका निरीक्षण करते हुए, किसी कार्यसे आये हुए, सम्यक का भाषण करनेवाले, किसी सूर्यप्रभ देवके दिशापयोंको आलोकित करनेवाले विमानको अपना पूर्वभवका ललितांग चरित याद या गया। जब वह अपने मनमें विस्मित था, अं संसारसे निवेदभाव हो रहा था, तम्रो आकाशसे एक वारणयुगल मुनि उतरे 1 आते हुए उसने पुकारा और एक ऊंचे आसन पर बैठाया। शिष्यने सिरसे नमस्कार किया और अपनी पूर्ण वाणी से निवेदन किया- "आप कौन हैं, किस लिए यह आगमन किया, हमारा स्नेह हुआ मन आपके ऊपर क्यों है ?" इसपर गुरु बोले
1
पत्ता - जब तुम अलकापुरीमें राजा ये महावल नामसे तब में मन्त्र और सद् जाननेवाला तुम्हारा स्वर्यबुद्ध मन्त्री था ॥५॥
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महापुराण
[२६.६.१
णिहाइ भुत्तो सि विरतधित्तो सि। जझ्या कुवाईहिं सिविणंतरे तीहि । हो बप्प दुमोह तइया मए तुज्झ । संसारडाराई
जिणवयणसाराई। सिद्धा रिसी जेहि दिपणाई त तेहिं । होऊण ललियंगु मोत्तण दिवंगु। भीमारिणिण्णासि भूमीसु हूओ सि। मुणिवाणबुद्धी
बहुपुण्णसिद्धीइ। तुहं एत्थु जाओ सि णणेण णाओ सिं। संबंधिओ होसि
कि णेय जाणासि । खगवइविओएण मई मुफभोएण। किर घोरु तवयरणु इंदियछिहाहरणु । सोइम्मि सोहाल हुउउमनिलु । सइंपइविमाणम्मि दुक्नावसाणम्मि। इह जंबुदीवम्मि पुग्वे विदेहम्मि। पुक्खलहि मेइणिहि पुरिपुंडरिंकिंणिहि। पियसेणरायस्स
पसरंतरायस्स। कयणाहणेहम्मि सुंदरिहि वेहम्मि। जाओ मि ई भर आलाविणीसह । पीईकरो णाम
सुणि समिणीकाम । अलिवलयणिह केस पीईसरो एस।
मझाणुओ होइ दिन्दो महाजोइ। घत्ता-णि चिय हाउलहो णिगय बिणि वि णियघरषासहो ।
जाया सीस सयंपहहो अरहंतहो संतारिविणासहो ।।६।।
७
अवहिणाणि चारण संजाया बिगिण वि पई संबोहडं आया लइ सम्मसु अलाहि पलाव भावहि जिणदंसणु सम्भाव। अस्थि णस्थि किं संकण किन्नइ इहपरलोयख वजिज 1 गुणवंतहु दोहुँ वि ढंकिजा __ मग्गभट्ट पुणु मन्गि ठविलाइ ।
असुईकलेवरु जणु ण वियप्पई साहुहूं देहे दुगुल ण घिप्पइ | ६. १, MBP विवरति । २. MRP हा बप्प । ३. MP add after this : गयणेहि दिवो सि, ण
गयो तो सि । ४. Bछुहा'; T छिहाँ । ५. MBP आलावणी । ६. MRP पोईकरो 1 ७. MIIP
कामिणी : T रामिणी । ८. P ईस। ७. १. M अलंहि । २. MBP वि दोमु । ३. P अमुह । ४. M देहु दुगुछग; P देह दुगुंछु ण ।
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हिन्दी अनुवाद
१५९
जन तुम निद्रा में थे और जब कुवादियों द्वारा गतंमें फेंक दिये गये थे, तब स्वप्नान्तरमें भी दुर्गाय है सुभट, मैंने तुम्हें संसारका हरण करनेवाले जिनवरके उन वचनोंका सार तुम्हें दिया पा कि जिससे बड़े-बड़े ऋषिमुनि सिद्ध हुए हैं। फिर तुम ललितांग देव होकर, दिव्य शरीर छोड़कर, भयंकर शत्रुओंका नाश करनेवाली भूमिमें उत्पन्न हुए। लेकिन मुनिको दानको बुद्धि और अनेक पुण्यों की सिद्धिसे तुम यहां उत्पन्न हुए हो, जानके द्वारा तुम मेरे द्वारा जान लिये गये हो ? सम्बन्धित हो, क्या तुम नहीं जानते ? विद्याधर राज विधोया भोवते. मोड़कर मैंने इन्द्रियोंकी भूखको नष्ट करनेवाला भयंकर तप किया और सौषम स्वर्ग सौभाग्यशाली मणिचूल देव उत्पन्न हुआ, दुःखको नाश करनेवाले स्वयंप्रभ बिमानमें । इस जम्बूद्वोके पूर्व विदेहको पुष्कलावती भूमिमें पुण्डरीकिणी नगरी है। उसमें अपने राज्यको प्रसारित करनेवाले राजा प्रिपसेनको सुन्दरी पत्नी है। अपने पतिसे म्नेह करनेवाली उससे, वीणाके समान शब्दवाला में प्रीतिकर नामसे उत्पन्न हुआ। स्त्रियोंके द्वारा इच्छित, हे भद्र, तुम सुनो, भ्रमर समूहके समान केशराशिवाला, प्रेमका सरोवर, दिव्य महाज्योति यह मेरा छोटा भाई है।
पत्ता-स्नेहसे नित्य भरपूर अपने गहवाससे हम दोनों निकल पड़े तथा विद्यमान शत्रुओं का नाश करनेवाले स्वयंप्रभ अरहन्तके शिष्य हो गये ||६||
हम लोग अवधिज्ञानी चारण हो गये हैं और तुम्हें सम्बोधित करने आये हैं। तुम सम्यक्त्व ग्रहण करो, व्यर्थ बकवाद मत करो, सद्भावसे जिनदर्शनका विचार करो। 'है' या नहीं है, इसकी बिलकुल शंका नहीं करनी चाहिए, इहलोक और परलोकको भो आकांक्षा छोड़ देनी चाहिए। गुणवान व्यक्ति के दोषोंको ढकना चाहिए, जो मार्गभ्रष्ट हैं, उन्हें मार्गमें स्थापित करना चाहिए।
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१६०
महापुराण वेजावक्षु समठ वच्छल्ले फिज्जइ हियएं संघेहियल्ले। मिच्छु तुच्छु जो बसु कहिबाद अण्णदिद्विवढे सो ण धुणिजइ। वडाइ वडियदुक्कियलेवा
मलु कुदेवकुच्छियगुरुसेवह । समयवेयलोइयमूढत्तणु
अषसें करइ अणत्यपवत्तणु । अच्छइ वुझ्यणार्थणिबद्ध विठणाणम्मि धान सुपसिद्धः। एन:- किस जीवेदमा परु सयलु वि जाणिनाइ॥
हम्मइ जेण जियंतु पसु तं करवालु ण वेड भणिजाइ ।७।
सया णारिरत्तो सया भेञमत्तो। सया वित्तलुदो
सया सत्तफुद्धो। समोहो समाओ सदोसो सराओ। ण सो होइ देवो
खं सुण्णभावो। पलं जस्स खज महुँ जम्स पेज। बहू जस्स गेहे
रई जैस्स वेहे। गुरु सो वि हा हे जगे मंदमेहे। सपा सपाषा
णवंता विगावा। ण गच्छति सगं
ण वा तेऽपवर्ग। पता महंता
ण कायस चिंता। विसस्मावि हारे खमा होइ भारे। पमोत्तण वेयं
खगं वाइणतेयं । जिणि अणि
सुरिंदोहवंद । बिहुँ पीयरोस
अहिंसाणियोसं। विहाऊण एक
णयाणीयसक्कं । परो को हयारी जगे मोहहोरी। तिणा जो पत्तो असपेण पत्तो। अहिंसापयासो
वियाणागमो सो। पत्ता-पत्तीय धम्मु दयापरसु रिसि गुरु वेड जिणिंदु भहार ॥
लइ लइ तुटुं सम्मत्तगुणु मई अक्खि संसारह सारत ।।८।।
-
-
५. B संहहियल्लें । ६. MBPT पहु । ७. MP मुणिज्जद। ८. MBP गंयहि बर; T गंमणि
बदउ। ९. MBP जीवदया। ८. १. P मज्जि मतो। २. P सत्तकुरो। ३. MRP सयं सुषण; T संण न गगनं देवः । ४. MBP
तस्स ! ५. MBK विसस्सावहारे; विसस्साहवारे। ६. MBP मोहयारी; T मोहयारी मोहजारकः । ७, MB एत्तीय; P पत्तिम and gloss प्रतीत्या । ८. MB पर; P°परु ।
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२६.८.२०]
हिन्दी अनुवाद यह विचार नहीं करना चाहिए कि मनुष्य अपवित्र शरीर है। साधुओंकी देहसे घृणा नहीं करनी चाहिए। संघके हितसे भरे हृदयसे और वात्सल्यके साथ उनकी बेयावृत्य करनी चाहिए । अन्यका दृष्टिपथ जो मिथ्या तुच्छ और बन्ध्य कहा जाता है, उसको प्रशंसा नहीं करनी चाहिए । बढ़ता है पापका लेश जिसमें ऐसी कुगुरु और कुदेवको सेवासे मल ( पाप ) बढ़ता है। शास्त्र. शान और लोकको मूढ़ता अवश्य ही अनर्थका प्रवर्तन करती है। बुधजनके ग्रन्थोंमें निबद्ध सुप्रसिद्ध विद् धातु ज्ञानके अर्थ में है।
पत्ता-ज्ञान ( वेद ) के द्वारा जीवदया करनी चाहिए, स्व और पर सबको जानना चाहिए, जिसके द्वारा जीवित पशु मारा जाता है उस करवाल ( तलवार) को वेद नहीं कहा जाता ||
जो सदेव नारीमें रक्त है, सदा मदिरामें मत्त है, सदेव धनलुब्ध है, सदा शत्रुपर कुद्ध होता है, मोह सहित, माया सहित तथा दोष और रागसे सहित है, वह देव नहीं हो सकता। और देव शून्यभाव हो सकता है, जिसके घरमें वधू है, जिसके शरीरमें रति है, अरे खेदकी बात है कि मन्दबुद्धिवाले जगमें वह भी गुरु है। पाप सहित लोग पाप सहितको, विगतगवं नमस्कार करते है। ऐसे लोग स्वर्ग नहीं जाते और न ही अपवर्ग ( मोक्ष ) जाते हैं। महान् वे कहे जाते हैं जिन्हें, शरीरकी चिन्ता नहीं होती, हारमें या भारमें, जिनको विश्वके प्रति क्षमा होती है। इसलिए वेदको और वैनतेय ( गरुड़ ) को छोड़कर अनिन्द्य देव समूह द्वारा वन्दनीय, वीतकोच अहिंसाका निर्घोष करनेवाले इन्द्र के द्वारा प्रणम्य एकमात्र अनिन्द्य जिनेन्द्रको छोड़कर जगमें दूसरा कौन शत्रुओंका नाश करनेवाला है, और मोहका अपहरण करनेवाला है। उन्होंने जो कुछ कहा है, वह असत्यसे व्यक्त है, वह अहिंसाका प्रकाशन करनेवाला और विज्ञानका आगम है।।
पत्ता-दयासे श्रेष्ठ धर्म और ऋषि-गुरु-देव-आदरणीय-जिनका विश्वास करो, तुम सम्यक्त्व गुणको स्वीकार करो; मैंने संसारका सार तुमसे कह दिया |८|
२-२१
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ܘܐ
१५
१०
१६२
fertite :
भो बलियगत्त मित
छव्वभेय
पंचयिकाय
पंच
रिसिवय पंच छल्लेसभाष
तेरह चरित
नवविह पत्थ
सत्त भय सिट्ठ
अप्पाणुमार धरणाणिओच
जंलि सुणिविकर्मण
अज्जेण जेम
महापुराण
९.
भो धवलणेत्त ।
तपाई सत्त ।
छज्जीचकाय ।
भत्तिए णविच भवियणरवर्गे कुलिसवात ते किंकर च करेवि जाया णिरपज्जाह लोयसार अमिंदसुरत्तणु वज्जजंघु सइ सिरिमइ अज्जह हु ईसाणकप्पि वर सुरक्ष तहि जि कप्पिकुंददुसमप्पहि जिणचरणारविंदर यचित्तें हुई अमरु सर्वपणा aries वि क मुख ललियंगर
सुरणिकाय |
गैभेय पंच |
गिवियई पंच |
मणि तिणि गाव । * गुप्ति वि तित्त ।
दद्द धम्मपंथ ।
मय अठ्ठ दुट्ट ।
कम्माणुषाच । करणाणिओठ । मणिपुंगवेणे तं हि तेण ।
अब्जाइम |
घत्ता
- जिह सद्दूर्लज्जघणरेण कोलणारेण वि तिह पडिवण्णरं ॥ वाणरचरणिरिचरेहूं सम्मईस मुणिणा दिण्णलं ॥९५॥
१०
गय रिसि वेल्ललेवि इमगें । मइवराइ भत्तारि सुईकर | अविमाणि द्विमगेवजहि । पत्ता पुणपादपह्नुत्तणु । बेवियाई समंचियपुज्जई । सिरिपमंदिर णार्मे सिरिहरु । सीमंतिणि सुरगेहि सपदि । रिलिंग छिंदेवि समतें | सो रुवेण ण णिब्जित कार्मे । गिलइ मनोहरि डुड सिंग
[ २६.९१
९. १. K adds this line in the margin but sooren ft out २ MBP सुरच उणिकाय । ३. M गयमेय ४. MP र तित्त । ५. K " पुंगमेण । ६. B सिसुणवि P पिसुणवि ७. MBP महिउ । ८. MP सद्द्दल अज्जणरेण: B सद्दूलवज्जणरेण । ९. MP रिउचरई ।
१०. १. P उल्लेनि । २. MBP बहुमिदु । ३. MBP बजजजंषु सिरिमद्द तह अज्ज । ४ P मुबाई ५. हु । ६. MBPK सम्म । ७. K विश्वच ।
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२६. १०.१०]
हिन्दी अनुवाद
हे सुन्दर शरीर, धवल नेत्र मित्र! तुम श्रद्धान करो कि तत्व सात है। द्रव्यके छह भेद हैं, जोदकायके छह भेद हैं, मस्तिकाय पांच हैं और देवनिकाय पार हैं। ज्ञान पांच हैं, गतिभेद पांच हैं, मुनित्रत पांच हैं, गहस्थोके भी पांच व्रत है। लेश्यामाव छह हैं, गर्व तीन प्रकारके जानो, चारित्र्य तेरह प्रकारका है, और गुप्तियां तीन प्रकारकी। पदार्थ नौ प्रकारके हैं, धर्मके मार्ग दस प्रकारके हैं, सात प्रकारके भय कहे गये हैं, दुष्ट मद आठ प्रकारके हैं, आत्मानुवाद (जीवानुवाद) फर्मानुवाद, चरण नियोग और करपनियोगका उन मुनिने जो वर्णन किया, उसे कमसे सुनकर उसने ग्रहण कर लिया, आर्यने जिस प्रकार, आर्याने भी उसी प्रकार ।
पत्ता-जिस प्रकार शार्दूल के जीव मनुष्यने सम्यक्दर्शन स्वीकार किया, उसी प्रकार सुबो को सम्पप स्वीकारा पार और नकुलके जीव मनुष्योंको मो मुनिने . सम्यग्दर्शन प्रदान किया ||५||
भव्य नरसमूहके द्वारा भक्तिसे प्रणमित ऋषि आकाशमार्गसे उड़कर चले गये। वज़बाहुके के चारों मतिवर आदि शुभंकर अनुचर तपकर निरखद्य अधःप्रेवेयक स्वर्गके अहमेन्द्र विमानमें उत्पन्न हुए। उन्होंने लोकश्रेष्ठ अहमेन्द्रसुरव और पुण्यके प्रभावको प्रभुताको प्राप्त किया। वजय और आर्यिका श्रीमती, दोनों समतासे अंचित और पूजित होकर मर गये। धमजंघ ईशान स्वर्गके प्रोप्रभ विमानमें श्रीधर नामका श्रेष्ठ सुर हुआ और उसी स्वर्गमें कुन्द और चन्द्रमाके समान आमावाले स्वयंप्रम विमानमें वह स्त्री ( श्रीमती ) जिनके चरणकमलोंमें भक्ति रखनेके कारण सम्यक्त्वसे स्त्रीलिंगका उच्छेद कर स्वयंप्रभ नामका देव हुई, जिसे रूपमें कामदेव भी नहीं जीत सका। व्यानका मी जीव मनुष्य मरकर सुन्दर विमानमें सुन्दर अंगोंवाला सुन्दर
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१६४
देउ वराहच वि संजाय दविमाणि सरयकंदाहइ
महापुराण
णामें कुंडलिल्लू सुफलाय | आणि सामाि
T
घत्ता - कुरुभूमिहि मावु मरित्रि कंति णाई मियंकु दुइव || हिकमें पेरियर पहचरि मोगर हुड क्लज्ज ||१०||
११
सुहुं भुजेपणु कुरुधरणीगरु । णाम गोरु देव संख्यउ | जेण महाबलु धम्म लाविव । सो संजायत केवलिजिणवरु । गति बहु सिरिहरु । थु यिगुरु गुरुभक्ति करेपिंणु । पई महू दिष्णु हत्यु परमेसन | पकिय विसुद्ध | तुहुं समु स विणीसेसु वि ।
हवं तुह चरणजुयलु सरणं गई । बत्ता - भिच्छादिट्टि 'दुट्टमण पात्रयम्म शिद्धम्म वराया ॥ कहि मयणमणिमण कहि ते संति महारा जाया ॥११॥
sic आसि जम्म जो वाद दावत्तविणइ हू जो बुद्ध हो भावि पीकर तिलोयपीक पार्ण परियाणिवि सुरसहयक अमररालि पइसेपिशु feng विवरि मुणोसर प सबुद्ध बुद्ध' जगु बुद्धव जोईये तणीसे वि तुहुं महुगण "अभंग
कहइ भडार विणि कुधामनु असहरि संत संजोयेहु सुण्यायविवरणदूसियमइ तं सुनि सिरिहरु ग तेतहि पपि तं सतिमिरु कुविवरु अहो अहो सयम सुहि महाबलु भुत्ती सुरु जेण अलयाउरि सुरदुंदुहि गंभीरणिणाएं गुरुगा जिणवयणम्मि णिउत्तर
[ २६.१०.११
१२
गय भिण्णसहसमइ भीमहु । श्चितमंध विणिगोयहु । विडिव णरइ दुइज्जइ सयमइ । णार पर णिसण्णव जेतहि । भइ विमाणा सुरवरु | हवं सो खयरराज जसणिम्मलु । सामसा तुहुं रिकरिके सरि । तुम्ह,इं विणि वि जिणिवि विवाएं । सोप पत्तव ।
८. MP कुंडिलिल्लु । ९. MBP माग । १०. MBP मणहरु K मजहर but currcats it to भरहु ।
११. १. ६ सो । २. MBP विमाणे महू । ३. M मनोहर । ४. MBP सुरूप । ५. M पोईक ६. MP पीवर B गोयंकरु । ७. MH भक्तिहि; Pमति । ८. B करेविणु । ९. MP
पीई
मृधु । १०. MBP जाणियउं । ११. MUP अभग्गजं ।
१२. १. P सो जॉबहु । २ MBP मुहि । ३
शुरु | ४
१२. MB सुदिट्टिमण; P सुमुदुमण | MBP परंपरा ।
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२६. १२९]
हिन्दी
आप श्री&rs fair देव हुआ। वराहका जीव भी देव हुआ कुण्डलिल्ल नामका सुन्दर कान्तिवाला । शरद मैत्रोंके समान नन्दविमानमें वह ऐसा लगता, जैसे एक क्षणके लिए मेघमें विद्युत् समूह शोभा देता है।
घत्ता -- नकुलका जीव, मनुष्य मरकर कुरुभूमिमें मनुष्य हुआ जो कान्तिमें मानो दूजकर चौद था। इस प्रकार अपने शुभकर्मसे प्रेरित होकर मनरथवाला ||१०||
११
जो पूर्वजन्म में वानर था, वह कुरुभूमिके मनुष्यके रूपमें सुख भोगकर नन्दावतं विमान में उत्पन्न हुआ, सुन्दर मनोहर नामके देवके रूप में। पण्डितसमूहको अच्छा लगनेवाला जो स्वयंबुद्ध था और जिसने महाबलको धर्म में प्रतिष्ठित किया था त्रिलोकको प्रिय लगनेवाला वह प्रीतंकर नामका जिनवर केवली हुआ। देवसहचर श्रीधर ज्ञानसे यह जानकर उसकी वन्दनाभक्ति करने के लिए गया । देवसभाके भीतर प्रवेश करके और गुरुभक्ति कर अपने गुरुकी खूब स्तुति की - 'हे परमेश्वर ! भनविवरमें गिरते हुए तुमने मुझे हाथका सहारा दिया, तुम स्वयं बुद्ध बुद्ध हो, दुनियामें बुद्ध माने जाते हैं ? आपने हृदय विशुद्ध कर दिया है। आपने अशेष तत्वका साक्षात्कार कर लिया है, आप धनी और निर्धन में समान हैं। आप मेरे लिए आधारभूत अभग्न स्तम्भ हैं, मैं तुम्हारे चरणयुगलकी शरण गया था।
बता -- मिथ्यादृष्टि अत्यन्त दृष्टमन पापकर्मा धर्महीन और बेचारे वे हमारे मन्त्री कहाँ उत्पन्न हुए है कामदेवके मदका नाश करनेवाले कृपया बताइए ?" ॥। ११ ॥
१२
आदरणीय वह बताते हैं- " वे दोनों सम्भिन्नमति और सहस्रमति खोटे स्थानवाले भयंकर, कष्टको परम्परासे युक्त नित्य अन्धकारवाले नित्य-निगोद में गये हैं । शून्यवादके विवरण से दूषितमति शतमति दूसरे नरक में गया ।" यह सुनकर, श्रीधर वहां गया, जहां नरकमें वह था । अन्धकारमय उस कुविवर में प्रवेश कर अपने विमान में बैठे हुए श्रीधरदेवने कहा, "हे महाबल स्वयंमति सुनो, मैं वही यशसे पवित्र विद्याधर राजा है जिसने बहुत समय तक अलकापुरीका भोग किया । तुम्हारा स्वामीश्रेष्ठ और शत्रुरूपी हाथी के लिए सिंह । सुरदुन्दुभिका गम्भीर निनाद जिसमें है, ऐसे विवाद के द्वारा तुम तोनोंको जीतकर गुरुके द्वारा जिन वचनों में नियुक्त में सुखकी
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१०
१५
१६६
I
तुहुं पुणु पा एत्थ णिहित्तव atara जिणु भणु परमप्पड |
जीवदयोदमेण परिचत्तव दुure मा बिगडहि अपच घत्ता -- धम्मु अहिंस सहहि मोक्खमग्गु णिधु विद्यापहि ॥ जीवत्थ छिद्दारहिल मुणि णिमुकमोहु संमाणहि ||१२||
पहा जित्ततरणी पहू तेण मुणिओ दर्द क्षैति गहिओ जिविंदस्स समओ मुब्भूयदुरियं वो मधुरं सुरो सोम्मणो तओ बिदुरदलिओ
रिक विहियसमरा
मी लिमलिए सिरारूढहरिणो
सुरासाइ सह जला ऊरिया गई
महापुराण
तहु हिणि सोहम सुंदरि पाड असेसु चि अणुहुंजे ष्पिणु समइ सुहइलेण तहि तगुरुहु सो जयसेणु भार्णहरु ता सिरिहररु तर्हि जि पहुचठ ते विन्धु भीसणु पारद्ध
१३
विगेण करुणी जयादि भणिओ |
या दोसरहिओ । अमोविम । महादुखभरियं । गओ सग्गसिहरं । सियायंत्रणयणो |
Padam as cle
काले चलिओ ।
महारविवरा | वरे दीव वलए | महामेरु गिरिणो ।
विदेहम्मि विचले | मी मंगलाई ।
घत्ता - पट्टणु रयणसंच सधणु तेत्युं जि गरिंदु महीधर गायें || सुइवं सुब्भवु' गुणसहित चावदं णं दावि कामें ॥ १३ ॥
[ २६.१२.१
×
किं वणिजामें सुंदरि । जिण महाराष्पिणु । संणिमुहु जाम विवाह धर कण्णाकठ | वार धूलि लोहु बि मुक । उच्छ के सोक्खु ण लद्धड |
५. MBP दयाक्षण । ६. MBP भणु जिषु । ७. MB जिम्मुक्कमो; P णिमुक्कको । १३. १. B करणी । २. MBP जिणिदेण भणिओ। ३. MBP भर्ति । ४ M समुन्भूय । ५. MBP
पोत्तूण । ६. MRP सोमं । ७. MB यरं । ८. MBP 'करिय; K ऊरिय but corrects it to करिया in second hand ९ MBPK ट्यु गरिंदु । १०. MBP महीरु । ११. MBP "सुभव ।
१४. १. P गेहणि । २. MBP जिनमई । ३. K पालेपिणु । ४. MBP संणियं । ५. M.BP हि ।
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२६. १४.६] हिन्दी अनुवाद
१६७ परम्पराको प्राप्त हआ है। जोवदया और संयमसे रहित तुम लोग पापके कारण यहाँ उत्पन्न हुए हो । दुर्नयोंसे अपनेको मत भटकाओ, वीतराग जिन परमात्माका नाम लो। ___पत्ता-अहिंसाधर्मकी भद्धा करो। निर्ग्रन्थ मोसमार्गको जानो तथा जिह्वोपस्थ भूखसे रहित और मोहसे मुक्त मुनिका सम्मान करो" ॥१२॥
उसने प्रभासे सूर्यको और गतिभंगिमासे हथिनीको जोतनेवाले स्वामीको माना और कहा. है अनिन्ध, तुम्हारी जय हो । शीघ्र ही उसने हमेशा दोषसे रहित जिनेन्द्र के सिद्धान्तको दृढ़ताके साथ स्वीकार कर लिया। अमोहके साथ वह मृत्युको प्राप्त हुबा । महान् दुःखोंसे भरे हुए तमसे उत्पन्न दुःखोंवाले उस नरकको छोड़कर श्रीधर अपने यधुर स्वर्ग-विमानमें चला गया। उस समय पापोंको नष्ट करनेवाला पातमति अपने सामान नहीं हएः महालाला विवरोंको छोड़कर चला । मणिमय कमलोंके स्थान श्रेष्ठ पुष्करा) द्वीपमें, जिसके अग्रभागमें हरिण स्थित है, ऐसा सुमेरु पर्वत है। उसकी पूर्वदिशामें सफल विदेहक्षेत्रमें जलसे भरी हुई नदियोंवाला मंगलावती देश है।
षता-उसमें धन-सम्पन्न रत्नसंचय नगर है। उसमें महीधर नामका राजा है जो ऐशा जान पड़ता है मानो कामदेवने पवित्र बांससे उत्पन्न प्रत्यंचा सहित धनुष ही प्रदर्शित किया हो ॥१३॥
सौभाग्यमें सुन्दर और नामसे सुन्दर उसकी गृहिणीका क्या वर्णन किया जाये ? अपने अशेष पापोंको भोगकर तथा जिनमतमें श्रद्धानको पाकर शतमति पुण्यके फलसे उसका पूर्णचन्द्रके समान मुखवाला पुत्र उत्पल हुआ। वह जयसेन सूर्यको किरणों के समान प्रतापवाला था। जब वह विवाहके लिए कन्याका हाथ पकड़ता है, तभी श्रीवरदेव भी वहां आ पहुंचा। उसने धूलसे भरी हुई ह्वा छोड़ी। उसने भीषण विघ्न शुरू किया। विवाहमें किसीको भी आनन्द
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१६८
महापुराण
[२६. १४.७ तं पेच्छिवि वरदत्त भाविउ पहउ चिरु महं कह व णिसेविउ । एम कहि मि पाहाणिहि ताडिउ एम्व कहि वि खरपवणे मोडित ! एम कहि मि रयपुंज झंपिउ : एम्ब कहिं भी ले वन कंपिउ | एम सरिवि सुमरिउ णारयभव" जमहररिसिहि पासि लयजवळ । तर करेवि बंभिदु पहूयउ धम्मु जि जीवह ''अग्गइ.हूयत । घत्ता-अइगरुआ वि णवति गुरु चंदसूरवंदारयबंद ।।
सामण्णु त्रि सुरु धम्मगुरु सिरिहरु पुजिउ बंभसुरिंदें ॥१४||
चुउ मुइबि णियका सिरिहरू वि सग्गार। ससिसूरदीचम्मि इह जंबुदीवम्मि । हरिणिय गिरीसस्स मंदरगिरीसस्स । उत्तरोदेहम्मि
सुरदिसिविदेहम्मि। विस्थिण्णसीमाहि णयरिहि सुसीमाहि । सुइदिदि णरणाह रणि जस्स ण रणाहु। जो रोसु संवरह जो सिरिवहुं धरइ। जो कामु परिहर परणारिरइ हरह। जो माणु णिग्गहइ मउयत्तु संगह। जे उणिउ जैणि हरिसु जंण किड अइहरिसु । जे लोहु पिम्म हिट पुरिसत्थु जें महिउ।
मड जेण णिविउ मणु जेण थिरु ठविउ । घत्ता-रूर्व सोहग्गें गुणेण णावइ उवसि गं इंदोणी ।।
कि थुन्चाइ अम्हारिसिहि सुंदरि णंद णाम वहु राणी ।।१५||
सुरेवरु सग्गु मुपप्पिणु आयाउ तेण सुविहिगामेण जुवाणे मुणिहिं वि मयणुम्माय जगेरी सुय लीलाणिजियतंबेरम जो मिरिमइ हि जीउ स सयंपहुँ पुत्सु मगोरमाइ संजणियउ
ताहि गम्भि सो गंदणु जाय । णं पञ्चक्ख वम्मवाण । अभयघोसचक्कघाइहि केरी। परिणिय पण णि णाम मणोरम । सुरमंदिरचुज बहुपुण्णावहु । केसर णामें जणवइ भणियउ ।
६. Komics this font. ७. MB कहि मि । ८. RK पाहाणाहि । ९. MB' पायर' । १०, MBP
त; च । ११. MBP मगह; K सग्गह, but corrects it to अगइ । १५.१. M हरिणि । २. M उतुंगगेहम्मि । ३. MBP सिरिवहू वरई। ४, MBP जणहरिम् । ५. P
जिग कन । ६. MIBP इंवाइणि । ७. K सुंदर । ८. 8 राइगि । १६. १. MBP मिरिहए । २. MB°पुण्याउद ।
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हिन्दी अनुवाद नहीं आया। यह देखकर वर अपने मन में विचार करता है कि इसको तो मैंने कहीं भोगा इसी प्रकार कहीं पत्थरोंसे प्रताड़ित किया गया है। इसी प्रकार कहीं खरपवनसे मोड़ा गया इसी प्रकार कहीं घूलसमूहसे ढका गया हूँ, इसी प्रकार कहीं में दुःससे कोपा हूँ। इस पर विचारकर उसे नरकको याद आ गयी और उसने यमधरत्रीके पास जाकर प्रत ग्रहण कर सिर तप करके वह ब्रह्मेन्द्र हुआ। जीवके धर्म हो सबसे आगे रहता है।
घता-बड़े-बड़े लोग भी गुरुको नमस्कार करते हैं। चन्द्र-सूर्य और देवोंके द्वारा वन्द ब्रह्मसुरेन्द्रने भी देव श्रोषरकी धर्मगुरुके रूपमें पूजा को ॥१४॥
श्रीधर भी स्वर्गसे अपना शरीर छोड़कर चन्द्रमा और सूर्योके द्वीप इस जम्बूदीपमें, : इन्द्र जिन तीर्थकरको ले गया है, ऐसे सुमेरु पर्वतको पूर्व दिशामें विशाल आकारवाले विदेह । को विस्तीर्ण सोमाओंवाली सुसीमा नगरी में शुभदृष्टि नाभका राजा है, जिसके युद्ध में संग्राम नहीं है, जो क्रोधका संवरण करता है, लक्ष्मीरूपी वधूको धारण करता है, जो कामका परि करता है, परस्त्रियोंमें रतिसे दूर रहता है । जो मानका निग्रह करता है, मृदुताको धारण क है, जिसने लोगों में हर्ष पैदा किया है, परन्तु जो स्वयं अधिक हर्ष नहीं करता, जिसने लोभको किया है, जिसने पुरुषार्थ का बादर किया है, जिसने अहंकारको नष्ट कर दिया है, जिसने । मनको स्थिर बना लिया है।
पत्ता-जो रूप, सौभाग्य और गुणमें जैसे उर्वशो या इन्द्राणो यो ऐसी उसकी नामको सुन्दर रानीका वर्णन हम-से लोगों के द्वारा कैसे किया जा सकता है ? ॥१५॥
वह देव ( ब्रह्मन्द्र ) स्वर्ग छोड़कर, उसके गर्भस पुत्र पैदा हुआ। सुदिषि नामवे युवकसे, जो मानो साक्षात् कामदेव था, मुनियों के भी मनमें उन्माद उत्पन्न करनेवाली अभ चक्रवर्तीको अपनो गतिसे हाथोको जीतनेवाली मनोरमा नामकी प्रणयिनी पुत्रोसे विव लिया। जो स्वयंप्रम नामका देव श्रीमतीका जीव था, अनेक पुष्योंका धारण करनेवा
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१६९
२६. १६.६]
हिन्दी अनुवाद
नहीं आया । यह देखकर वर अपने मनमें विचार करता है कि इसको तो मैंने कहीं भोगा है । इसी प्रकार कहीं पत्थरों से प्रताड़ित किया गया है। इसी प्रकार कहीं खरपवनसे मोड़ा गया हूँ । इसी प्रकार कहीं धूलसमूहसे ढका गया हूँ, इसी प्रकार कहीं मैं दुःखसे काँपा हूँ। इस प्रकार विचारकर उसे नरककी याद आ गयी और उसने यमधरश्री के पास जाकर व्रत ग्रहण कर लिया । तप करके वह ब्रह्मेन्द्र हुआ। जीवके धर्म हो सबसे आगे रहता है ।
पत्ता - बड़े-बड़े लोग भी गुरुको नमस्कार करते हैं । चन्द्र-सूर्य और देवोंके द्वारा वन्दनीय सुरेन्द्र ने भी देव श्रीधरकी धर्मगुरुके रूपमें पूजा की ॥ १४ ॥
प्रभ
१५
श्रीधर भी स्वर्गसे अपना शरीर छोड़कर चन्द्रमा और सूर्योके द्वीप इस जम्बूद्वीपमें, जहाँ इन्द्र जिन तीर्थंकरको ले गया है, ऐसे सुमेरु पर्वतको पूर्व दिशामें विशाल आकारवाले विदेह क्षेत्रकी विस्तीर्ण सीमाओंवाली सुसीमा नगरी में शुभदृष्टि नामका राजा है, जिसके युद्धमें संग्रामदोष नहीं है, जो क्रोधका संवरण करता है, लक्ष्मीरूपो बधूको धारण करता है, जो कामका परिहार करता है, परस्त्रियों में रतिसे दूर रहता है। जो मानका निग्रह करता है, मृदुताको धारण करता है, जिसने लोगों में हर्ष पैदा किया है, परन्तु जो स्वयं अधिक हर्षं नहीं करता, जिसने लोभको नष्ट किया है, जिसने पुरुषार्थका आदर किया है, जिसने अहंकारको नष्ट कर दिया है; जिसने अपने मनको स्थिर बना लिया है,
पत्ता--जो रूप, सौभाग्य और गुण में जैसे उर्वशी या इन्द्राणो यो ऐसी उसकी नन्दा नामको सुन्दर रानीका वर्णन हम जैसे लोगोंके द्वारा कैसे किया जा सकता है ? ||१५||
१६
वह देव ( ब्रह्मेन्द्र ) स्वर्गं छोड़कर उसके गर्भसे पुत्र पैदा हुआ। सुविधि नामके उस युवकसे, जो मानो साक्षात् कामदेव था, मुनियोंके भी मनमें उन्माद उत्पन्न करनेवाली अभयघोष
वर्ती अपनी गति से हाथीको जीतनेवाली मनोरमा नामको प्रणयिनी पुत्रीसे विवाह कर लिया। जो स्वयंप्रभ नामका देव श्रोमतोका जीव था, अनेक पुण्योंका धारण करनेवाला वह
२-२२
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१७०
[२६.१
महापुराण जो सलजीज चित्तंग
सग्गहु णिवटिज कालवसं गज । सो वि बिहीसगेण सियणेत्तहि हुउ सुउ बरयत्ता पूर्यदत्तहि । जो चिर कोलजीउ कुंडलसुरु सो संप्राई- पुणु जम्मतरु । पंदिसेणराएं अणुरुवउ
तणउ अणंतमईहि पहूयउ। सयहिं बरोल जि जणि कोमिड : जो वाणरह जील मई तक्किउ | सो जि मणीहरु माणव सुगइहि रइसेणे हूयउ चंदमइहि । घत्ता-तहु चित्तंगर गाउं किउ ण उलु मणोहरु सुरु सग्गायउ।।
जो सो णिविण पहजणेण पुत्तु चित्तमालिणियहि जायज |॥१६॥
१७
संतमयणु जाणिजइ णामें ए णरवसुय सुहपरिणामें | कय रिसि सुविहि हि सुविहि हि सहयर अभयघोसराएं सहूं किंकर। विमलवाइ जिणवंदणेइत्तिद गय विविदवणवण वित्तिइ । अभयघोसु जिणघोसु सुप्पिणु चकु णिहाणई वसुह मुएप्पिणु । कामफसायषिसायविहंजणु हुउ मुणिवर णिग्गथु णिरंजणु । पंचसयाई सुयाई अजिंदई अट्ठारहसहसाई परिदहं। तेण समय दिक्खिय यराया वरदत्ताइ वितहि रिसि जाया । सुविहिणिहालियफेसबदेहें घरवइ संठिणंदणणेहें। पंधाणुव्वय तिणि गुणव्यय चच सिक्खावय कय वज्जिय मय । पत्ता-जेण सचित्तु णिरोहियर इंदिर्य विसयरसेसुण थकाइ ।।
तह माणषियहु धरि जि तउ जो अप्पागलं दंडेहुं सकई ॥१७||
१८ दसण व सामाईव पोसहु मचित्तयविरमणु जणदूसहु । वासरि णारिसंगपरिवजणु बंभचेर आरंभसमुज्झणु। दुबिहु वि संगमारु अवगणित पार्ने ण काई वि मणि अणुमणि | णिदिव ण तेण पडिवण्ण मुत्तउ परकिउ केण वि दिण्णां । अंतइ संथारयसवेणसणु
करिवि पतु अच्छंद इंदनणु । तायविओएं मेइणि मेल्लिवि। सीलायारभार उच्वनिवि।। जिणतउ तिव्वु चरेप्पिणु केसउ तहि जि नासु जार्यत्र पडिवास' ।
दो वि दुवीसंबुहिसरिसाउस इंदाउहधर णं णवपाउस। ३. MBP वरदत्तउ । ४. MBP पिमदत्तहि । ५. MI3P कुंइलिगुरु 1 ६. MBP संपाइज । ७. M
उल । १७. १. MBP बंदणभत्तिइ। २. MB पक्क । ३. AMBP शियनुवर्णहें । ४. Pइदिउ । ५. MBP दंडि १८. १. MBP सणु । २. P सामायह। ३. Af जिण । ४. ' पाउ वि काई ण । ५. MBP सरणत
६. MBP अनुयई । ७. P करेप्पिणु । ८. MB पडिजायउ; P पहिभायउ । ९. MEP उहा णं ( Pण ) पास।
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२६. १८.८] हिन्दी अनुवाद
१७१ स्वसि च्युत होकर मनोरमाका पुत्र हुआ। जनपदमें उसका नाम 'केशव' रखा गया। जो सिंहका जीव चित्रांग था, वह भी समयके वशीभूत होकर, स्वर्गसे च्युत होकर, विमोषणका श्वेत नेत्रोंवाली प्रियदत्तासे वरदत्त नामका पुत्र हुआ। जो सुअरका जीव कुण्डलदेव था, वह भी फिर जन्मान्तरको प्राप्त हुआ । नन्दीसेन राजाका अनन्तमतोसे उत्पन्न उसीके अनुरूप पुत्र उत्पन्न हुआ। स्वजनोंमें उसे बरसेन नामसे पुकारा गया और वानरके जीवको मैंने जो कल्पना की थी वह भी रतिसेनका सुगतियालो चन्द्रमतीसे सुन्दर मनोहर नामका मनुष्य हुआ।
पत्ता-उसका चित्रांग नाम रखा गया । नकुलको मनोहर नामका देव स्वर्गसे आकर, प्रभंजन नामके राजाका रानो चित्रमालिनीसे पुत्र उत्पन्न हुआ ||१६||
जो नामसे प्रशान्तवदनके रूपमें जाना गया। जिसने मुनियोंकी सेवा की है ऐसे सुविधिके सहचर मित्र और अनुचर ये राजपुत्र शुभ परिणामके कारण अभयघोष राजाके साथ विमलवाहन तीर्थंकरको विविध पूजाओं और विविध शब्दोंसे विभक्त वन्दना भक्तिके लिए गये। वहाँ राजा अभयघोष जिनघोष सुनकर चक्र, खजाना और धरती छोड़कर तथा कामकषायका विभंजन करनेवाला निग्रन्थ निरंजन मुनि हो गया। उसके साथ अनिद्य राजाओंके रागको नष्ट करनेवाले अठारह हजार पाँच सौ राजपुत्र तथा वरदत्तादि जन मुनि हो गये। अपने पुत्र केशव शरीरको देखभाल करनेवाले पुत्रस्नेहके कारण सुविधि गृहस्थ ही बना रहा। उसने पांच अणुव्रत, तीन गुणन्नत और चार शिक्षानत ग्रहण किये और मदोंको छोड़ दिया।
धत्ता-जो अपने चितका निरोध कर लेता है, उसको इन्द्रियाँ विषयरसमें नहीं लगती। तप तो उस मनुष्यके घरमें ही है कि जो अपनेको दण्डित कर सकता है ॥१७॥
१८ दर्शन-व्रत-सामायिक-प्रोषधोपत्रास, लोगोंके दोषोसे अपने चित्तका विरमण । दिन में स्त्रीके साथ सहबासका त्याग, ब्रह्मचर्य और आरम्भका परित्याग । दो प्रकारके परिग्रह भारकी उसने उपेक्षा की। और अपने मन में उसने किसी भी प्रकारके पापका अनुमोदन नहीं किया। निर्दिष्ट ( सोद्देश्य ) आहारको उसने ग्रहण नहीं किया। दूसरेके लिए बनाया गया और किसी द्वारा दिया गया भोजन स्वीकार किया। अन्त में संन्यासपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर अच्युत स्वर्गमें इन्द्रत्वको उसने स्वीकार कर लिया । अपने पिता के वियोगमें धरती छोड़कर शीलाचारके भारको उठाकर जिनवरका तीव्रतम तप तपकर, केशव उसो स्वर्गमें जन्म लेकर प्रतीन्द्रपदको प्राप्त हुआ। दोनों ही
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१०
१७२
वरदत्तय वरसेण जियंगय ए चत्तारि विचारविभाण
महापुराण
[ २६ १६ ९
संतमयण मुणिवर चित्तंगय ।
तेत्थु जि जाया मसि समाणहं ।
D
धन्वा - किं ससि भरज्जोययरु र्ण" गहकडित्ति णिहितिये कागणि ॥ अव गुणगणु गुणइ पुष्पयंतु सुरगुरु बुईसिरमणि ||१८||
बुथ महापुराणे तिसट्टिमा पुरिसगुणालंकारे महाकपु फवंत विरइए महाभयमरहाणुमजिए महाकब्जे भोषमूर्म सिद्दिरस्यं हे सुविह केस व इंदुपदिभवावणणं णाम छब्बीसमो परिच्छेओ समतो ॥ २६ ॥
weten ermed Ni vorbera difiere redu
१०. M कडिति णं । ११. MBP वित्तय । १२. MB बृहसिरिमणि । १३. MBP सुविहिं ।
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२६. १८.९] .::..:: :: :: . हिली अनुसार ....
१७३ बाईस हजार वर्ष आयवाले ऐसे थे मानो इन्द्रायुध करनेवाले नवपावस हों। वरदत्त, वरसेन, चित्रांगद और कामविजेता प्रशान्तवदन ये चारों ही मुनिवर समान चार विमानोंके भीतर उत्पन्न हुए।
पत्ता-क्या भारतको आलोकित करनेवाला चन्द्रमा है ? नहीं, आकाश-कटितलपर कागणी मणि रख दिया गया है । देवोंका गुरु, बुधों में शिरोमणि अच्युतेन्द्रके गुणसमूह गिनता है ||१८||
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंबाळे इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य मरत द्वारा अनुमत इस काम्पका मोगभूमि श्रीधर-स्वयंप्रभा-सुविध-काव
इन्द्र-प्रतीन्य जन्म वर्णन मामका बीसवाँ अध्याम समा हुभा ॥२॥
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५
१०
अइसोमसहाव महारवह किह बंचवि कालरहट्टचाम sts जाtिry वियलियाउ
सिरिणि
teaf se
संजयई विच्छाय ते ओहामियचंदहो || णिययंगई खयलिंग अयकपरिंदो ॥ध्रुव
१
संचलिय चल ससिरवि वल । घडिमा घिउ आउणीय । छम्मास समनिवि वीयराउ | भवियहु भवणासे वि वित्तु विमलु । कद्दू काले किर कवलिस ण देहु । किं भणमि विदेह विलासदिष्बु | हि वर पुक्खलव णाम देसु । ऐरु पुंडरिंकिणी तेत्थु सामि । राहु जिणेसह वजसेणु । सिरिकंता गायें तासु कंत । तहि हु णामे वज्जणाहि ।
संधि २७
चुड
रिहुत चरणजमलु 'काले •असणा इह जंबुंदीवि सुरगिरिहि पुबु रमणीय बाघ लिणिवेसु चवण्णमणिसिलाबद्धभूमि हरिमपविच्छ्रियपाय रेणु मुहस सिजोपाधव लिय दियंत सो तिसरा दुरियवाहि
वरसेणु वि हूय वजयंतु सुरलोयडु चेलिचि पसंतमयणु प सद्दूलाइय च सहाय हिमवज्जबिमाणवासु
आयट मद्दवरु जायउ सुबाहु
घत्ता - सग्गायड संभूयउ वरयत्तु वि तहि बालउ ।। विजयंकज हरिणकर्ण उग्गमित्र सुहालउ || १||
२
चित्तंग णामें पुणु जयंतु । अवराइड हूउ पल्लवयणु । जाया जुवराय इट्ठ भाय
मेल्लेष्पिणु जम्महु माणवासु । आनंदु वि णाम महंतबाहु |
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :गुरुधर्मोद्भवपावनमभिनन्दित कृष्णार्जुनगुणोपेतम् ।
भीमपराक्रमसारं भारतमिव भरत तव चरितम् ॥११॥
GK do not give it.
१. १. MVP कि बणमि । २. MBP धित्त । ३. M रिसि । ४. MBP चलणजुलु 1 4 MBP भवणास विवित्तु विमलू । ६. P जंबुदोउ । ७. MBP उववणावणि । ८. MBP हि पुस्खलवद्द णा दे । ९. MBP पुरि ।
२. १ MBP चयिवि २ MUP सद्द्द्लाई वि । ३. G वम्म |
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. सन्धि २७
अपने तेजसे चन्द्रमाको पराजित करनेवाले अच्यतेन्द्र के क्षयगे आलिगित अंग एकदम कान्तिहीन हो उठे।
___ अत्यन्त सौम्य स्वभाववाले और महाभयंकर चन्द्रमा और सुर्यरूपो चंचल बेल चल रहे हैं, पटीमाला (घटिका और समय ) से प्रायरूपी नीर कम हो रहा है, मैं कालरूपी रहटके आचरणसे कैसे बच सकता हूं। अपनी आयुको विगलित मानकर छह माह तक बीतगग भगवान्की समर्चा कर, श्रीसे युक्त और पापसे रहित उनके चरणकमल, जो भव्यके लिए भवका नाश होनेपर वित्त ( धन )के समान है। समय आनेपर अच्युत स्वर्गसे वह च्युत हुआ। कालो द्वारा किसको देह कवलित नहीं होती। इस अाबूतीपमें सुमेरुपूर्वतको दिशा दिलाससे दिय विदेहका क्या वर्णन करू ? उसमें सुन्दर उपवनोंकी कतारों और घरोंसे युक्त पुष्कलावती नामका देश है। अनेक रंगों की मणिशिलाओंसे विड़ित भूमिवालो पुण्डरिकिणो नामको नगरी है। उसका स्वामी इन्द्रमुकुटोंसे चाही गयी चरणधूलिवाला वज्रसेन नामका सूर्यको जीतनेवाला ग़जा है । अपनो मुखचन्द्रकी ज्योत्स्नासे दिगन्तको सफेद बना देनेवालो श्रीकान्ता नामकी उसकी पत्नी है। पापको व्याधिको नष्ट करनेवाला वह अच्युतेन्द्र उसका वचनाभि नामका पुत्र हुआ।
पत्ता-स्वर्गसे आया वरदत्त भी उसका घालक हुआ बिजय नामका, मानो जैसे सुधाफा आलय चन्द्रमा ही उदित हुआ हो ॥५॥
बरसेन भी वैजयन्तमें हुआ, और चित्रांगद जयन्त नामसे उत्पन्न हुआ। प्रशान्तवदन भी देवलोकसे चयकर प्रफुल्लमुख अपराजित हुआ। 'ये शार्दूलादि (सिंहादि ) चारों सहायक भी युवराज वचनाभिके इस भाई हुए । अधो| वेयक विमानके वासको छोड़कर, मानव जन्ममें आकर
१. सिंह - विजय, सुबर = वैजयन्त, नकुल = जयन्त, वानर - अपराजित, मतिबर मन्त्री = सुबाहु, बानन्द
पुरोहित = महाबाह, अकम्पन सेनापति = पीठ, धनमित्र सेठ = महापोठ, श्रीमतीका जीव =धनदेव ।
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१७६
महापुराण
[२७. २.५ आई मिंदु अकंपणु हुयउ पीदु धणमित्तु वि तेत्थु जि गठयपीटु । जे बज्जजंघभवि भिश्च तासु रायड पप्पलखेडाहिवासु। होता चिक एवाहि विहिवसेण हूया चत्तारि वि सहुँ जसेण । ते देविहि गम्भि महासई हि ताहि जि सुरसिंधुरवइगईदि। सुसणेहा शेट्ठसहोयरासु
को होइ वेसु णियभायरासु । पालेप्पिणु भक्कयकम्मछंदु तेत्थु जि पुरि केसवु सो पबिंदु । चणिवत्तें सुरयासत्तमइहि सिसु जणि उ कुबेरे गंतमाहि घसा-इयतूरहिं गंभीरहि बंधुवा आणंदिउ ।।
समाणे धणदाणे धणदेव जि सो सहित ।।२।।
एक्काहि दिणि झन्ति समागमहि भासिउ किं तुहं मोहिउँ गएहि । कि हित्तबुद्धि तुह हिय हपहिं जेहिं रजिओ सि णारीरएहिं । तुहूं देवदेउ तेलोकणातु
तहि अण्णाह को किर बोहिलाहु । इथ संबोहिउ लोयंतिएहि सो वजसेणु कयसंतिपहिं । सिंगारभारवेवमरस्टु
पविणाहिहि बंधिवि रायपटटु । अंबयवणि खणि णिक्खवणु कियउ तित्थंकरेण णियहियउ जियः । उच्पणाचं तायः घामला
असिसालइ रयणचकु। दाएण परज्जिस मोहचा
पुतण वि णिज्जित वइरिचकु । तायहु संठिय णिहि समवसरणि पुत्तहु वि व वि संभूय सरणि । ताया इंदा वि करंति सेव पुत्तहु वि भिच्च गणबद्ध देव । हुल ताज धम्मवरचकवट्टि सुब छक्खंडावणिचावट्टि । पत्ता-सिरि' मेइणि सुहदाइणि जुण्ण तणु व वियप्पिवि।।
पवितहो णियपुत्तहो पच्छइ रन्जु समप्पिवि ॥३॥
अंगुलिदलु णहपहकेसरालु सुरवरहसाबलिरवबमालु। मुणिभमरपीयमयरंदबिंदु आसंघिउ पिउचरणारविंदु । पन्यज्ज लइय धरणीसरेण विजएण वदजयंतेण तेण । संवेउ विवेत परावहिं धीरेहिं जयंतवराइयहिं । तउ लइउ सुबाहुं पस्थिवेण संतेण महाबाहुं णिवेण। ४, MBP अहमिद । ५. M पणुमेत्तृ;BP पणमेत्तु । ६. MBP ससणेहा । ५. G सुहोयरासु ।
८. M तवयं ; BP भवू कयकम्म छेदु । ९. MBP केसउ । ३. १. M मोहिउ । २. जिह । ३. कहि किर। ४. MBP णिहि संठिय । ५. B सिरिमेहणिहि
सुहदाइणिहि । ६. M रज्म । ४, १.M3P दल । २. P सुबाहु ।
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हिन्दी अनुवाद
१७७ मसिवर सुबाहु हुआ। आनन्द भी महन्तबाहुके नामसे उत्पन्न हुआ। अकम्पन अहमेन्द्र पोठ हुआ। और धनमित्र भी वहीं पर महापोठ हुआ। वनजंधके जन्ममें, जबकि वह उत्पलखेड नगरका अधिवासी राजा था, उस समय उसके जो मुत्य थे वे भी ( पूर्वोक्त) विधिके वशसे, यशके साथ चारों ही उत्पन्न हुए। वे देवेन्दगजपतिके समान गतिवालो उसी महासती देवीके गर्भसे जन्मे । स्नेहसे पूर्ण जेठे सगे और अपने भाइयों के लिए देष्य कोन होता है ? पूर्व जन्ममें किये गये कर्म छन्दका पालन करनेवाला वह प्रतोन्द्र केशव भी वणिकपुत्र कुवेरका सुरतिमें अपनी मति आसक्त रखनेवाली अनन्तमतीसे पुन उत्पन्न हुआ। : ... . ....... ....
धत्ता गम्भीर नगाड़ोंके बजनेपर बन्धुवर्ग अत्यन्त आनन्दित हुआ। सम्मान और धनदानके साथ उसका नाम धनदेव रखा गया ॥२।।
३
एक दिन शीघ्र आये हुए लौकान्तिक देवोंने उस ( वज्रसेन से कहा कि तुम मोहित क्यों हो? क्या तुम्हारी हितबुद्धि चली गयी, जो तुम नारीमें रत रहनेवाले, इन्द्रियरूपी अश्वोंके द्वारा यहा अनुरक्त हो। हे देवदेव, जहाँ तुम त्रिलोकनाथ हो वहां किसी दुसरेके लिए बोधिलाभ क्या होगा? शान्ति करनेवाले लोकान्तिक देवोंने इस प्रकार उस बच्चसेनको सम्बोधित किया। तब बज्रनाभिके लिए श्रृंगारभार वैभवके अहंकारका प्रतीक राजपट्ट बांधकर उसने आम्रवनमें एक क्षणमें संन्यास ले लिया। तीर्थकरने अपने हितपर विजय प्राप्त कर लो। पिताको धर्मचक्र उत्पन्न हुआ और पुत्र को शस्त्रशालामें चक्ररत्न । पिताने मोहचकको जीता, पुत्रने भी शत्रुचक्रको जीत लिया। पिताको निधि समवमरणमें स्थित थी, पुत्रके भी नव-नव निधियों शरणमें आयौं। पिताकी इन्द्र सेवा करते है, पुत्रके भी गणबद्ध देव अनुचर हैं। पिता धर्मश्रेष्ठके चक्रवर्ती हुए, पुत्र छह पण्ड धरतोका चक्रवर्ती राजा हुआ।
पत्ता-फिर शुभदात्री श्री और धरतीको पुराने तिनकेके समान समझकर, अपने पुत्र वज़दन्तको बादमें राज्य सौंपकर ॥३||
जिसको अंगुलियां ही दल हैं, नखोंको प्रभा केशर है, जो सुरवररूपी हंसावलीके शब्दसे शब्दायमान है। मुनीन्द्ररूपी भ्रमरोंसे जिसका मकरन्द पिया जा रहा है, ऐसे पिताके चरणरूपी कमलकी सेवामें आ पहुंचा। धरणीश्वर विजय और वेजयन्सने भी प्रवज्या ले ली। संवेग और विवेकको प्राप्त धीर जयन्त वरादिने भी तप ग्रहण कर लिया। राजा होते हुए बाह-महाबाहुने,
२-२३
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१७८
महापुराण णीसेसजीवविरक्ष्यकिवेण । पीढेश महापीढाहियेण । धणदेव णिवघराहिवेण । सज्जीवें पहुरयणुल्लएण हिम्मुशविविहरयणुल्लएण । दस रायहं सुयह वि इससयाई जइभावहु वेण समउ गयाई । एक्कु जि विहर रिसि वज्जणादि परिगणइ सदेहि घुलंत णाहि । घत्ता-महि हिंडइ तणु दंड णिवसइ कहि मिणिरासइ ।
भीसावणि ठित पिउवणि सुण्णावासपएसइ ||४||
दसणविसुद्धि गुरुविणयसार सीलम्बएसु अइअणझ्याह।
रंतर थिरु गोणोववार सत्तिइ तट णिरु संवेयभाउँ। किउ बझम्भंवरगथचाउ मुणिसंघहु वेज्जारजोर। जिणभत्तिपतरसुयसाहुभत्ति ते विरड्यपवयणि परमभचि । छावासएम जायरइ हाणि सरहतभन पावबाणाणि । भब्वेसु करइ कलिमलिणसमणु वच्छल्लु पबोहणु धम्भठवणु । णीराएं सहुँ रयहारणाई
असतह सोलहकारणाई। एयई अवमारोहणाई तेलोकचक्कसंखोहणाई। भावेण तेण संभावियाई घोरई दुरियई नहावियाई। घत्ता-संपुषण व चिण्ण कालकमेण जि लद्धलं ॥
जगपियरहो वित्थयरहो णा गोत्तु ते बद्धलं ॥५।
को एम दे दइवेण पुण्णु को संबई किर एवड्डु पुण्णु । चगातड तत्तु घोरतउ तत्तु दित्ततड तत्तु संखीणगत्तु । आभोसहीहि खेलोसहीहि जझोसहीहि विप्पोसहीहिं। सम्बोसहोहिं गावइ सहीहि सो सहई साहु रंजियमहीहि । तहु कोहबुद्धि वरषीयबुद्धि संभिषणसोत्त णामेण बुद्धि । पायाणुसारिणी अवर बुद्धि उप्पण्णी तणुविकिरियरिद्धि। अणिमामहिमालहिमाइ सिद्धि सुरसद्धि अहीणमहाणसद्धि ।
सो सुहुर्मसंपरायत्तकरणु चडियट गुणठीणु अउन्वकरणु । ३. MB add after this line : घणय व्व विविहदव्वाहिवेण । ४. M भीसावणि पिउरमणि
BP भीसावणि वणि पिउवणि । ५. १. P अइसणइयारु । २. MBP गाणोवोउ। ३. MBP संवेयचाउ 1 ४. MB वेज्जाव __P विज्जावज्ज । ५. P छावस्सएसु । ६. MBP आराहिवि सोलह । ७.G अपवग्गई रोह।
८. MBP तेलोय । ६. १. MUP आमोसहीहिं जल्लोसहोहिं खेललोसहीहि बिट्टोसहीहि ( P विप्पोसहीहिं ) । २. MBP मुर
सिद्धि; T सुरसद्धि । ३. MRP महासिनि । ४. MBP सुहुम् । ५. MBP गुणठाणु ।
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२७.६.८] हिन्दी अनुवाद
१७२ समस्त जीवोंके साथ कृपा करनेवाले पीठ-महापीठ राजाओंने, राजघरके अधिपति धनदेवने भी जो सतजीव, प्रभुको रजमें नत, और विविध रत्नसमूहको त्यागनेवाला था । ( इस प्रकार ) दसों राषाओं और एक हजार ( दस सौ) पुत्रोंने उनके साथ मुनिपद ग्रहण कर लिया। लेकिन मुनि पचनाभि अकेले ही भ्रमण करते थे वह अपने शरीरपर चलते हुए सोको नहीं गिनते।
पत्ता-धरतीपर घूमते हैं, शरीरको बर्षिता करते हैं, और कहीं भी आमहीन प्रदेश : रहते हैं । आश्रय प्रदेशोंसे शून्य एक भयानक मरघटमें वह स्थित हो गये ।।४॥
(१) दर्शन विशुद्धि, (२) गुरुओंकी विनयसे श्रेष्ठ ( विनय सम्पन्नता ), (३) शीलवतोंमें अनतिचार (शीलत), (४) निरन्तर स्थिर शानका उपयोग करते रहना ( अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ); (१) अपनी शक्ति के अनुसार तप ( शक्तितः तप), (६) और संवेगभाव ( जिनधर्मसे अनुराग )। उन्होंने बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर दिया और मुनिसंघका वैयावृत्य योग किया। बिनभक्ति, प्रचुर श्रुत और साघुक्ति, तथा प्रजित लोगोंमें उन्होंने परमति की। छह प्रकारके कायोत्सर्गमें वह कमोका आचरण नहीं करता, अपने ज्ञानसे अहंत मार्गका प्रकाशन करता है। वह भव्योंके पापमलका शमन करता है। वात्सल्य प्रबोधन और धर्मकी स्थापना। इस प्रकार वीतराग भावसे पापका हरण करनेवाली बहन्तको ये सोलह कारण भावनाएं मोक्षका आरोहण करानेवाली और त्रिलोकचक्रको क्षुब्ध करनेवाली हैं। उन्होंने उस भावसे इनकी भावना की कि जिससे घोर पाप नष्ट हो गये।
पत्ता-काल कमसे उन्होंने सम्पूर्ण प्रतको ग्रहण कर लिया और पा लिया। जगल्पिता तीर्थकर नामगोत्रका उन्होंने बन्ध कर लिया ॥५||
कोन देव, इस प्रकार देवसे परिपूर्ण है । इतना बड़ा पुण्य कौन संचित कर सकता है ? उसने उग्र तप तपा, ( और उग्र तप ऋद्धिका धारक बना) घोर तप किया। उसने दीप्ति तप, ऋद्धि तर किया, संक्षोणगात्र तप किया, अमृत-औषधियों, श्वेल-औषषियों, विप्र-औषधियों, सर्व-औषधियों, पृथ्वीको रंजित करनेवाली औषधियोंसे वह मुनि शोभित हैं। उन्हें श्रेष्ठ बुद्धिऋद्धि ( कोठारीकी तरह जिन सिद्धान्तोंका रहस्य बतानेवालो ) वर बीज बुद्धि-ऋद्धि ( बीजाक्षर ज्ञानसे सिद्धान्तोंका निरूपण करनेवाली), सम्भिन्न श्रोत्र-बुद्धि-ऋद्धि ( भिन्न शास्त्रोंका रहस्य आननेवाली ); पादानुसारिणी बुद्धि-ऋद्धि, ( पदके अनुसार अर्थ जाननेवाली ), तनुविक्रिया-ऋद्धि, अणिमा-महिमा-लधिमादि सिद्धि, सुरसिद्धि और महान महानस सिद्धिर्या उत्पन्न हुई। वह आठवें
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१८०
[२७.६.१
महापुराण णीसेसमोहसंदोहसमणु सिरिपहमहिहरमेहलहि समणु । आहारसरीरई चाउ करिवि पाउवगमणमरणेण मरिवि ।
सम्वत्यसिद्धि सुरहरि सुराहु अहमिदु हुय: रिसि बजणाहु । it ver..........., बहाः-जिव डिसहि विहिलड़ियहिं दिव्यु सरीरु लएप्पिणु ॥
सुकयंगउ अइचंगड अप्पाणउ जोएप्पिणु ॥६||
अवाही सेण जाणियर्ड जम्म पणविउ जिगु जिणवरकहिल धम्मु । घणमणिमहर्षिजरियमग्गि तेसहिपसलसिरचूलयरिंग। सिवपयणिवासु सिरिसोहमाणि बारहजोयणहि आपावैमाणि । पिहुजंबूदीवपरिपमाणि हिमसंखससिप्पहि नहि विमाणि । पविणाहभाउ कयधम्मसेव अट्ट वि जाया अहमिददेव । णव ते परमेसर सुकयपुण्ण सुविसुद्धफलिहमाणिकवणे। तणुमाणे जाणिय रयणिमेत अहिणवसयदलदलसरलणेत्त । ते सुकलेस मज्झत्थभाष
अपिसुणसहान परिहरियगाव । मद्धमाधुलियमंदारदाम पैरियाररहिय संपेपणकाम । खेत्तान ण खेत्तरहु जंदि उत्तरवेग्विय तणु ण लेति । वरिसहुँ वितीससंहसहि असंति तेत्तियहि जि पक्वहिं णीससंति । तेत्तीस समुद्दोयमु जियति जगणादि असेस विते णियंति 1 पत्ता-णाईदही खयरिंदहो त उ सधयमंदहो ।
'पुहईसहो ग सुरेसहो ज सुहुँ जगि अहमिदहो ॥७॥
गयगतव मम्वत्तणारूढ धरणीस पुणु भणइ रिसइसरो णिसुणि भरहेस । जयवम्मु होऊग सैणियाणदोसेण जाओ मि खयरिंदु कयधम्मलेसेण । हो महाबलिण संणासु मई क्रियन सइबुबुद्धीइ बहुपुष्णु संचियउ। तहि मरिवि ईसाणि ललियंगु सुर जाउ तेस्थाउ अवयरिवि पविजंघु हुद राउ।
६. M सिरिपहहिहरमेहलिहि; B सिरिपहहिहलिहे; P सिरिपमहिहरमेहलिय । ७. MBP पाइगमरणमरणेण । ८. M सुरहरे सराहे ; BP मुरहरि सरेहः सुरहरि सराह: T सराह । ९. BP
परिवडियहिं । ७. १. MBP कहिय । २. MBP "सिरिलियं । ३. MP अपावमाणि; B आयावमाणु । ४. K पवि
जाहि 1 ५, MBP add after this; दहमज षणदेव उप्पण्णु तेत्प, अहिलच्छि पिरंतर सोक्स जेत्थु । ६. MBP सरिसणेत्त । ७. MRP परिगलिय । ८. MAP पवियार । १. MBP संपृष्म । १०. BP लेतीस । ११. P तेत्तिमहहिं पक्वहिं । १२. MB तण्यमझसद्धयर्याचषहो; P शव सुह
जयमदहो; T शसद्धयमंव । १३. MBP पुहईसरहो ण सुरेसरहो। ८. t. MBP बनवम्मु । २. MBP मुणियाण । ३. MP बायो सि । ४.P साधु ।
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१७..४] हिन्दी अनुवाद
१८१ अपूर्वकरण गुणस्थानसे नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें चढ़कर दसवें समसाम्पराय गुणस्थानमें पड़ गये । समस्त मोह समूहोंका नाश करनेवाले, श्रीप्रभ राजाको धरतीके रसिक, आहार शरीरका त्यागकर, प्रायोपगमन मरणके द्वारा, सर्वार्थसिद्धिके शोभित देवविमानमें ऋषि वचनाभि प्रहमेन्द्र हुए।
पत्ता-विधिसे घटित परिपाटियोंसे दिव्य शरीर धारण कर और स्वयंको पुण्य शरीर और अत्यन्त सुन्दर ( अच्छा ) देखकर ।।६।।
७
उसने अवधिज्ञानसे अपना जन्म जान लिया । जिन और जिनवरके द्वारा कहे गये धर्मको उसने प्रणाम किया। जिसमें सघन मणिकिरणोंसे मार्ग पीला है, ऐसे प्रेसठ पटलवाले स्वर्गका अन्तिम पटल शिखामणिके समान है। उससे बारह योजन दूर श्रीसे शोभित सिद्धक्षेत्रमें शिवपदका निवास है। यहां जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन प्रमाणवाले हिम शंख और चन्द्रमाके प्रमान विमानमें वहाँ धर्मकी सेवा करनेवाले वजनाभिके आठों ही भाई अहमेन्द्र हुए। वे नौ ही पुण्य सम्पादित करनेवाले देव थे, जो विशुद्ध स्फटिक मणिके समान आभावाले थे। शरीरके मानमें उन्हें एक हाथ बराबर ऊंचा समझिए। अभिनव कमलके पत्तोंके समान उनके सरल नेत्र थे। शुक्ल लेश्यावाले वे मध्यस्थभाव पारण करते थे। अदुष्ट स्वभाववाले और गर्वसे दूर थे। उनके मुकुटोंके अनमागपर मन्दारमाला पड़ी हुई थी। कामसे रहित सम्पूर्णकाम थे। वे एक कत्रसे दूसरे क्षेत्र नहीं जाते। वे उत्तर वैक्रियिक शरीर ग्रहण नहीं करते। तैंतीस हजार वर्षों में वे भोजन ग्रहण करते हैं और इतने ही पक्षों में सांस लेते हैं। तैंतीस समुद्र पर्यन्त जीवित रहते हैं। वे विश्वरूपी नाडीको देखते हैं।
पत्ता-जममें जो सुख अहमेन्द्रको है, वह कामसे मन्द नागेन्द्र, खगेन्द्र, पृथ्वीश्वर और देवेन्द्रको प्राप्त नहीं है ॥७॥
ऋषभेश्वर कहते हैं- "हे गवरहित, भग्यत्वमें आरूढ़, धरणीश भरत सुनो--जयवर्मा लोकर, अपने निदानके दोषसे पोड़ा-सा धर्म करनेसे विद्याधरेन्द्र हुआ। फिर महाबल होकर मैंने संन्यास किया । और स्वयंबुद्धिसे बहुत-पुण्य संचित किया। वहां मरकर मैं ईशान स्वर्गमें
।
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१८२
[२७.८.५ कुरुधरणिणरु पुणु वि बीयम्मि कप्पम्मि सिरिहरु सुदासीय इंकयषियप्पम्मि । पुणु सुविहिवि हिवि हियजिणसासणार्णदु असु मुइवि हर हुस सोलइमसरिंगदु। पुणु वाणाहेण होऊण मे चिण्णु परिखलियजमकरणु तवचरगु संपेणु । सम्वस्थि अहमिदु हो अत्तिहरु पुणु भइ हूओ अहं एस्थ वित्थया । गपइसुया घणसिरी णिहयणयजुप्ति जामेण णिण्णामिणी विहण वणिन्ति । जाया पुणो सूहवा बद्धणेहस्स सिरिसरिस सीमंतिणी लियदेस्स । सिरिमझमहीसस्स मेयं पुणु वि कुरुणारि पुणु रवि सर्यपहु'धुगरवि वणुयारि । केसवु पुणो मरिवि संभूउ पद्धिसा संसारि संसरइ अगि जीच इह पछु । धणदेउ वउ धरिवि पुणु हुयल अहमिदु सयलस्थि सरयम्भि"संकमिव णं चंदुः तम्हा समोयरिवि कुरुवंससरहंसु इट पत्थु उप्पण्णु णरणाहु सेयंसु ।
पत्ता-मलु छिदह जिणु वंदह तिरयणाई मणि भाषह ।।
अमरत्तणु सुणरत्ताशु गइणु ण मोक्खु षि पावह ॥८॥
जो णरवाणामें आसि गिद्ध आहारणारिरससायगिद्ध। गरयम्मि चउत्थइ साहिवि षिद्गुरु पुणु हुयर पुझि चलकुडिलणहरु । पुणु वेच दिवायत मइयरक्खु, पर गेवनामरु सो विश्वचक्छु । पुणु रवि सुबाहु चिरजम्मार। णिहिलथदेउ आइमिंदु जाउ। अणुहुँजिवि जायच एत्यु भरहु मा सुटला होसहि तुई विणिरहु। पीईबद्धण चमुवइ सुगण्णु कुरुमणुयपहायर पुर पसंपण। छयपंकु अर्फपणु रिद्धिपोदु गईवेयदेख पुणु हुयडे पीढु । सम्बत्थईदु 'महु सुउ अरेणु । पुणु एहु पट्टयर वसहसेणु। जो हॉवर'सुइस महीसमंति कुरुकुवलयमाणच अमियति । जो पुणु जायठ कणया तियसु आणंदु णाम होएवि सवसु । हुउ पढमहिं पहुं पविषि साहु पुणु से महावाहु धरित्तिणाह । धत्ता-गउ इटहो सम्बट्ठहो पट्टहमिदसरीरउ ।।।
हुन भुयबलि पसमियकलि केचलि भाइ तुहारर ।।२।। ५. MB सुहासियत हं कय P सुहासीय हउ पीयं । ६. MBK संपुष्ण । ७. MBPT अहलश्छि। ८. MB देहस्स । ९, MB सुय; P मुय and gloss मुता । १०. MBP पहावंतु दहारि । ११ MBP
संक्रमिय । ११. MBP गेज्जामा । २. MBP भाइ । ३. MBP जाइ । ४, M जि । ५. MBP सुगत्तु । १. M
अपायह। ७. MBP पमुत्तु । ८. P गइवेई । २. MBP राउ । १०. MBP मह तणउ पून T अरणु जाभावरणाविरघोरहितः । ११. B स्रो हुतु । १२. M ए भएवि: B एह पएपि; PF चएवि; T पर बहमियः. १३. MBP सुनहीं । १४. १ परति ।
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हिम्बी अनुवाद ललितांग देव हुआ। वहाँसे अवतरित होकर मैं वनजंघ राजा हुआ। फिर कुरुभूमिका मनुष्य हुआ, फिर मैं कृतविकल्प दूसरे स्वर्गमें सुभाषी श्रीधर देव हुआ, फिर विधिपूर्वक जिनशासनका आनन्द करनेवाला सुविधि, फिर प्राणोंका त्याग कर मैं सोलह स्वर्ग में अहमेन्द्र हुआ। फिर मैंने वचनाभि होकर, यमकरणको नष्ट करनेवाला सम्पूर्ण तपश्चरण स्वीकार किया। फिर सर्वार्थसिद्धिमें पापोंकी वेदनाका हरण करनेवाला अमेन्द्र हुआ। हे भद्र, फिर मैं यहाँ तीर्थकर हुआ। वणिक् कन्या धनश्री, जो नयको थुक्तिको समाप्त करनेवाली थो, निर्नामिका नामको अत्यन्त गरीब लड़की हुई। फिर वह सुभग बद्धस्नेह ललितांग देवकी लक्ष्मीके समान पत्नी हुई। फिर मरकर कुरुभूमिमै श्रीमती नामसे राबाकी रानी हई। फिर स्वयंप्रभ देव, फिर राक्षसोंका शत्रु केशव, फिर मरकर प्रतीन्द्र हुआ। इस प्रकार जीव अकेला संसारमें परिभ्रमण करता रहता है। धनदेव मी व्रत धारण कर, सर्वार्थसिद्धिमें अहमेन्द्र हुमा, मानो शरमेघोंमें चन्द्रमा उगा हो। वहाँसे अवतरित होकर, वह कुरुवंश रूपी सरोवरका हंस यह राजा श्रेयान्स उत्पन्न हुआ।
पत्ता-इसलिए तुम मल नष्ट करो. जिनकी वन्दना करो, तोन रलोंको मनमें ध्यान करो। अमरत्व और सुनरत्वको तो ग्रहण हो नहीं करना, मोक्ष भी प्राप्त करो ||८||
जो गिव नामका आहार और नारीके रसके स्वादका लालची राजा था, वह चौथे नरकमें कष्ट सहकर चंचल और कुटिल नखोंवाला व्याघ्र हुआ। फिर देव और मतिवर नामका तेजस्वी मनुष्य, फिर दिव्य दृष्टि, प्रेयकका देव । फिर पुराने जन्मका भाई सुबाहु, फिर निखिल अर्थोका देवता महमेन्द्र हुआ, जो वहाँ सुख भोगकर यहाँ मेरा पुत्र भरत हुआ है । लो तुम भी शोघ ही पाप रहित होगे । जो प्रीतिवर्धन नामका सुगुण सेनापति था, कुरुभूमिका मनुष्य प्रभाकर नामका प्रसन्न देव, फिर हतपाप और ऋद्धियोंसे प्रौढ़, अकम्पन, फिर वेयक देव, फिर पीठ, फिर सर्वार्थसिद्धिका इन्द्र, फिर यह पापरहित मेरा पुत्र वृषभसेन हुआ। जो पहले राजाका मन्त्री पा, कुरुभूमिका मनुष्य नामसे अमितकान्ति । जो फिर कनकाम नामका देव हुआ, मानन्द नामसे अपने अधीन था। वहांसे च्युत होकर पहले वह राजा महाबाहु धरतीका स्वामी हुआ।
पत्ता-फिर वह इष्ट सर्वार्थसिद्धि गया । फिर अहमेन्द्र पारीर नष्ट होनेपर, कलहको शान्त करनेवाला यह बाहुबलि तुम्हारा भाई केवलज्ञानी हुआ ॥९॥
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१८४
महापुराण
[२७.१०.१
जो रायपुरोहिउ समियडमरु फुरुमणुयपहंजणु पषा अमरु । धणमित्तु पुणु वि इल सुहपहाणि ओज आईविहु परमठाणि । पुणु हविवि महापीठु वि संभेट सम्वत्यसिद्धि संभूब देख ! सो मरिवि महारउ णंतबिजट सप्पण्णु पुतु जीवेसु सक्छ। जो आसि मरेपिणु उग्गसेणु होवि वग्घु मुणिचालणलीणु । कुरुमाणुसु सो चिसंगयक्षु वरवत् णराहिम कमलचक्खु । अच्चुइ समसुरु हुउ विजयराम तपाचरणे खीणु करेषि काउ। सव्वट्टइंदु वयगयसरीरु
जसवइसुस ऍहु सोणंतवीरु । पहिलारस हरिवाहणकुमार पुणु सूयर पुणु कुरु अजसारु । सुरु कुंडलिन्लु वरसेणु संतु समषिबुहु पुणु वि जो वाजयतु । अहममरणाहु संजणियविणत तहि चुउ अच्चुर हुष्ट मझु वणस । वणि णागदत्तु वाणरु पेलासि अन्जर यउ कुरुभूमिवासि । घत्ता--सुमणोरहु सुरू हयदुहु पुणु चित्तंगत पत्थियु"॥
संचियसमु सुरवइसमु पुणु जयंतु णामें णिवु" ॥१०॥
पुणरवि अहमीसरु मोक्खेणियडि हूयउ विमाणि माणिकपयडि । जो सो दुईसंणदुरियभीर इड अम्हारच सुउ णाम वीक । लोलुप कंदुइ लोहेण मुयत्त जो चिरु गिरिफाणणि णखलु हुयस । पुणु अज्ज मणोहर अमयभोइ पुणु संतमयणु णरणाहु जोह। पुणु हरिसमाणु गिव्याणु पारु अपरजिव णामें णिवकुमारु । पुणु अंतिमिल्लु सुरवासवासु सुपसिधु अहंवइ तिमिरणासु । आवेप्पिणु हुब तुह मालदेहि सो एड वोरु मह तणइ गेहि । जा वजजंघभवि मझु बहिणि साणुंधरि णं परलोयकृहिणि । हूई पदाहि णं धम्मलील
बाहुबलिहि लदुई सस सुसील। जा सिरिमइभवि पंडीय धाय सा ममिवि पत्थु रमणीय जाय । बंभी षि तुझ जाणहि महीस जणु मोहें तम्मइ एदु कीस । परिममियसयलमुवणस्थली केत्तिच फिर कहमि भवावलीस | रंग गड गड बहुरुवधारि प्रणवरयदुविकम्माणुवारि ।
सा णस्थि यत्ति जेहिं जिस ण जाच पुणु धूमिछस भरहें वीयराछ । १०. १. MBP हुन । २. MBP ओविल्लु । ३. MBP एडम । ४. KP सहेछ । ५. K सुरु पित्त ।
६. P तवयरणे । ७. P एह अणंतवीरु। 4. MBP सुर । ९. P फकासि । १.. MBP समणोरह।
११. MBP परियट । १२. MBP जिउ I ११. १. MBP सोक्ख । २. MBP पुसणु । ३. MBP कंदन । ४:MBP परनाइ । ५. MP
गिव्वाण । ६. MBP सिरिमा चिरु । ७. MBP रंगगत गदु व मई। ८. Kपित अहिं । ५. P पुछिठ ।
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हिन्दी अनुवाद
१०
आडम्बरको शान्त करनेवाला जो राजपुरोहित या वह कुरु मनुष्य प्रभंजन प्रवरदेव, फिर धनमित्र, फिर सुखप्रधान परमस्थान में अहमेन्द्र हुआ। फिर महापीठ होकर भो, सर्वार्थसिद्धि में देव उत्पन्न हुआ। वह मरकर मेरा अनन्तविजय नामका पुत्र हुआ जो जीवोंमें सदय है । और जो उग्रसेन था, वह मरकर और बाघ होकर मुनिके चरणों में लीन होकर वह कुरुभूमिमें चित्रांगद मनुष्य हुआ फिर कमलनयन राजा वरदत्त हुआ। फिर अच्युत स्वर्ग में विजयराज सामानिक देव हुआ | तपश्चरण से अपने शरीरको क्षीण कर सर्वार्थसिद्धिका फिर कर वह यशोवतीका पुत्र यह अनन्तवीर्य है। पहला जो हरिवाहन कुमार था, वह सुअर फिर कुरुभूमि में श्रेष्ठ, फिर मणिकुण्डलदेव और वरसेन फिर सामानिक देव फिर वैजयन्त, फिर विनयसे सम्पन्न अहमेन्द्र और फिर वह अच्युत देव च्युत होकर मेरा पुत्र हुआ। जो नागदत्त पलाश ग्रामका वणिक् था वह कुरुभूमिका निवासी आर्य हुआ ।
२७.११.१६1
१८५
पत्ता- फिर सुमनोरथ देव हुआ, फिर दुःखका नाश करनेवाला चित्रांगद राजा हुआ । फिर समताका संचय करनेवाला सामानिक देव, फिर जयन्त नामका राजा ||१०||
११
फिर भी वह, जो माणिक्योंसे रचित है मोर मोक्षके निकट है ( अर्थात् जहाँ सिद्धशिला कुछ ही योजन दूर है ) ऐसे विमानमें अमेन्द्र हुआ । दुर्दर्शनीय पापोंसे डरनेवाला था, वह यहाँ हमारा वीर नामका पुत्र हुआ। और जो लोलुप कन्दुक लोभसे मरकर पहले गिरिकाननमें नकुल हुआ था, फिर अमृतभोगी आयं मनोहर, फिर प्रशान्तमदन राजा योगी, फिर सुन्दर सामानिक देव। फिर अपराजित नामका नृपकुमार । फिर अन्तिम प्रसिद्ध अमेन्द्र देव अन्धकारका नाश करनेवाला | वह वीर आकर तुम्हारी माताको देहसे मेरे घर में उत्पन्न हुआ। जो वज्रसंघ जन्म में मेरी बहन थी, वह अनुन्धरा जो मानो परलोकके जानेके लिए पगडण्डी थी, वह सुनन्दाकी धर्मका आचरण करनेवाली सुशील कन्या और बाहुबलिकी छोटी बहन हुई। और जो श्रीमती के जन्म में पण्डिता धाय थी, वह परिभ्रमण कर यहीं स्त्री हुई है। हे महीश ! तुम उसे ब्राह्मी जानते हो, आज भी जन मोहसे किस प्रकार वेदको प्राप्त होते हैं ? यह समस्त भुवनस्थली घूम रहो है, मैं कितनी भवावलियोंको बताऊँ ? रंगमंचपर गया हुआ बहुरूप धारण करनेवाला नट अनवरत दो प्रकारके कर्मोका अनुकरण ( अभिनय ) करता रहता है। ऐसा एक भी स्थान नहीं है जहाँ यह जोव पैदा नहीं हुआ ।" तब भरतने पुनः वीतराग ऋषभजिनसे पूछा ।
२-२४
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२०. १३.१०] हिन्दी अनुवाद
१८७ पत्ता-कितने बलभद्र, कितने नारायण, कितने प्रतिनारायण, मुझ जैसे कितने चक्रवर्ती राजा और आप जैसे कितने तीर्थकर उत्पन्न होंगे ॥११॥
यह सुनकर देवने इस प्रकार कहा-मुझ जैसे रागद्वेषसे रहित तेईस जिनवर इस भुवनमें होंगे जो श्रीधर्मतीर्थको प्रकट करेंगे। जिस प्रकार इनके, उसी प्रकार उन बाईस तीर्घकरोंके
आगामी शरीर ग्रहण करने और छोड़नेवाले जन्मान्तरोंका कथन उन्होंने किया और कहाजिसने अपने मुखचन्द्रसे चन्द्रकिरणों को पराजित कर दिया है, ऐसा तुम्हारा पुत्र और मेरा नाती यह मरीचि श्री वर्धमानके नामसे चौबीसवा विषगनाथ और तीर्थकर होगा। तब जिसका द्विज कपिल शिष्य है ऐसा महान् भरतका पुत्र यह सुनकर प्रसन्नचित्त होकर खूब नाचा। यह मूर्ख होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होगा। मेरा अहंकार छोड़कर मरेगा।
पत्ता-कपिलका गुरु तथा सांख्यसूत्रोंमें निपुण देव होगा। विनय करनेवाले अपने पुत्रसे आदरणीय ऋषभजन बार-बार कहते हैं ॥१२॥
१३
पोका पालन करनेवाले क्रोडाके विपुत शैलके समान बलवान् पहाड़ों सहित धरतीको धारण करनेको लोलावाले तुम्हारे-जैसे न्यायानुगामी ग्यारह चक्रवर्ती भूमितलपर होंगे। नव बलभद्र, नव नारायण भी होंगें, इसमें भ्रान्ति नहीं है। और नी ही प्रतिनारायण भी धरतीका भोग करेंगे । और भी तेईस कामदेव, रोवभाववाले ग्यारह रुद्र, तथा मुकुटबद्ध बहुत-से नामवाले माण्डलीक राजा उत्पन्न होंगे। तुम्हारा क्षात्रधर्म और मेरा परमधर्म और भी जो विशिष्ट कर्म हैं, धे सब युगान्तके दिनोंमें नष्ट हो जायेंगे। अग्निमय और विषमय मेघोंकी वर्षा होगी। तब जिन्होंने तृष्णारूपी कदलीकन्दका नाश कर दिया है ऐसे जिनेन्द्रकी राजाने स्तुति की
पत्ता हे जिनसंत भगवन्त, आपके दिखनेपर पाप नष्ट हो जाता है। बोर मनुष्यको सम्पूर्ण पवित्र केवलशान उत्पन्न हो जाता है ॥१३॥
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R
[२७.११.
१०
महापुराण पत्ता-का हलहर का सिरिहर कइ पहिसत गरेसर ॥
मई जेहा पई तेहा का होहिंति जिणेसर ॥११॥
१२ तं णिसुणिवि देवें वुस एम्ब मई जेहा जिणवर गयेविलेव । होहिंति मुवणि तेवीस एन्धु कैरिहि ति पयह सिरिधम्मवित्यु । आगमियाई जेहा इमाई धावीसाई वई तेहाई ताई। कहियाई जिणहं जम्मतराई संगहियविमुक्तकलेवराई। मुहयंदोहामियससिमरीह महु णत्तिस तुह तणुरुह मरी।। होसइ परवीसमु तिजगणाहु. सिरिमाणु णामेण एहु। विय कपिलसांस गुरुभरहवसं णिसुणिपि णविस मुइयमण । जाही मिच्छत्तहु मूढ होवि मरिही महु केरस मड मुएवि । पत्ता-होही सुरु कविलहु गुरु संस्खसुखपवियारत ||
णियतणयहु कयविणयह पुणु पुणु कहा महारउ ||१२||
सिरिबाला कोलाविउलसेल पलवंतसघरघरधरणलील। पर हा णिव मायापट्टि पयारह महियलि चावट्टि । णव बल णारायण जब मैति परिसत्तु व जि महिं मुंजिहिति। अवर वि तेवीस जि कामदेव एयारह रहमाणे । मंडलिय मउहबद्ध वि अणेय होहि ति हुत्त विणामधेय । तुह खराधम्मु महु परमधम्मु भवर विज कि पि विसिट्टकम् । सम्वहिं जुर्यति दिणि णासिहिति सिहिमय विसमय घण परिसिदिति । उम्मूलियविट्ठाकर्यसिकंदु ता भरणाहें संयुध जिणिंदु ।
पत्ता-जिणसंवह भयवनइ पई विठ्ठा मलु खिसा ।।
__ सयळामलु से फेवलु णाणु णरहु अप्पजइ ।।१३|| १०. MBPK जेहा। १२. १: Pविगयलेव । २. M करहिंति । ३. MBP जेहाई जाह। ४.७ पम्मतराई। ५. N.
संगहिवि । १. MBP रिसिवकमाणु । ७. P विलकर । ८. तणन। ९. G मइच मणुन '
glosचिसः। १३. १. P मणति । २. MBP कामएव । ३. MBP add after this: होसहि णारय णव ककहरू
जयभरवापरणसोल ( Pपरणलील)| ४, MBP पृत्त बहमाम । ५. P सवई । ६. P केलिए
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14
महापुराण
[२७.१४.१
णमो वीयराया महादेवदेवा कयाणेय गिवाणणिन्वाणसेवा। सरीरेण भूसा समीवे ण णारी तुमं देव स अणंगावहारी। " चा ण च ण स्वयं ण सुलं । दंडो ण हत्थे किवाणं करालं । तुमं देय पण रिऊणं ण गम्मो अहिंसाणिवासो सहावेण सोम्मो। ण डिंभ ण डंभो ण इ विलोहो । ण मित्तो ण सत्तू ण कामो ण कोहो । ण माया ण चिते पैहुत्ता हिमाणे समं पेच्छसे रायराय पि दोणं । ण छत्तेण णो कि पि सीदासणेणं ___ गयोमराहीससंऐसणे । उयासीणभाव सकम्मनपणं तुम जे ण वदति णाहं णिरेणं । गरा ते धुवं लोहयारस्स भत्था ससंता वसंती इहा कि णिरत्था। जई सो णिरासो तुमं छिण्णपासो तुम लोयबंधू पहू दिवभासो। तुमं जम्मकंतारडाहे किसा' तुम भूयभाबंधयारम्मि भाणु । जड़ा किं णिमंजंति मिच्छेत्तताए तुमाहि परो को 'गुरो जीवलोए। गमसेवि देव गओ भूमिणाहो असम्झाउरिभूरिसेणासणाहो । पाहो णियं मंदिरं बंदिरोल महातूरपोस महामंगलालं । पत्ता-धरणीसरु भरहेमा पुरतरुणिहि विहसंतिहि ॥
अवलोइड पोमाइच पुष्पदंत दरिसंतिहिं ॥१४॥
3
:25
.
इस महापुराणे निसदिमहापुस्मिगुणालंकारे महाकहपुप्फर्यतविरइए महामावभरहामजिए ___महाकावे पणाहितिवणसंखोहण हि पुण्णावणं णाम सत्तावासमो
परिच्छेको समतो 2011
संधि ॥२०॥
१४. १. Pणियाण । २. K करालं कक्षालं । ३. MB गम्मो । ४. M पर पाहिमाणं; BP बह
जाहिमामं । ५. ABP सछतण । ६.M सिंहासणेण । ७. P उदासीग । ८, MBP किसाण । ९. MBP भाण। १०, Bण मज्जति । ११. MBF मिनछत्तराए । १२. MBP गुरु। १३, MB पूरसेणा । १४. ABP पजणाह । १५. MBP पुज्जावणं ।
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२०....१६ ].:...:..:::
: : हिन्दी अनुवाद
हे वीतराग महान देवदेव, आपकी जय हो। आपको अनेक देव निर्वाण सेवा करते हैं। आपके शरीर पर वस्त्र नहीं हैं, पासमें नारी नहीं है। हे देव, आप सचमुच कामका नाश करनेवाले हो। आपके पास न चाप है, न चाक है, न खड्ग है, न शूल है, न दण्ड है और न कराल-कृपाण है। हे देव, आप निश्चयसे शत्रुओंके लिए गम्य नहीं हैं । अहिंसाके निवास आप स्वभावसे सौम्य है, न बालक है, न दम्भ है, और न ही विसका लोभ है, न मित्र, नशत्रु, न काम और न कोष । पित्तमें न माया है और न प्रभुताका अभिमान । आप राजराजा और दोनको समान मावसे देखते हैं । न छत्रसे और न सिंहासनसे और न गवसे भरे इन्द्र के आदेशोंसे आपको कुछ लेना-देना। उदासीनभाववाले, अपने कर्मोका नाश करनेवाले निष्पाप आपकी जो लोग वन्दना नहीं करते, वे लोग निश्चित रूपसे लोभाचारके भृत्य हैं, और श्वास लेते हुए हा-हा, व्यथं क्यों संसारमें रहते हैं। पति वही है, जो आशाओंसे रहित हो, आपने बन्धन काट दिये हैं, आप लोकबन्धु और दिव्यभाषी है। आप संसाररूपी कान्तार जलानेके लिए अग्नि हैं, आप प्राणियों के भावान्धकारके लिए सूर्य हैं। मूर्ख लोग मिथ्यात्वके जलमें क्यों निमग्न होते हैं। तुमसे महान् गुरु जीवलोकमें दूसरा कोन है। इस प्रकार देवको नमस्कार कर. भमिनाथ भरत अपनी प्रचर सेनाके साथ अयोध्याके लिए च दिया। बन्दीजनोंसे मुखर, महातुर्यों से निनादित तथा महीमंगलोंसे युक्त अपने भवनमें उसने प्रवेश किया।
__ पत्ता-हंसती हुई पुष्पोंकी तरह दांत दिखाती हुई नगर-तरुणियोंके द्वारा भूमीश्वर भरतेश्वर देखा गया और प्रशासित हुआ ।।१४।।
इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषोंके गुणों और भकारोंसे युक्त इस महापुराणमै महाकवि पुष्पदम्त द्वारा विरचित भौर महाभाय मरत द्वारा अनुमत इस महाकाम्पमें बननाभिका निभुवन संशोमन और जिनपूजा वर्णन नामका
सचाईसों परिच्छेद समाप्त हुभा ॥२०॥
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संधि २८
पुरु पइसिवि तेण पराहिवेण बहुदाणेहि समिद्ध ॥ दुस्सिविणयवसणहलहरणु संतिकम्मु पारद्धई ।। ध्रुवक ।।
जाउद्धजडिलरसेणायबई अहिसित्ताई जिणेसरबिंबई । हिमकणेकणयफैणोलिवियाहिं धष्ठपहस्थियर्पयघयधारहिं । मुणि अणितुहासयहोरिहिं चंदणतोडिल्लवरवारिहिं । पुज्जियाई छप्पयसलधामहि
कुवलयषडलमहुप्पलदामहि । संथुयाई बहुथोत्तालाविहि भावियाई सुबिसुद्धहि भावहिं । कंचणणिम्मियमुणिपडिमाल णाणामणिमऊहणियलउ । दसदिसि गयटंकारविसदृष्ट लंबियाउ घउवीस जि घंटस। पहि पहि रइयठ तोरणमालत एंतर्जतणिवणयणसुहालउ ।, दिण्णई दिपणसोक्खसंवाणई अभयाहारोससुयदाणई। भूमिदोहकयगोदुहसत्यहि अंघिउ धरि धरि अरुहु घरस्थाहिं। दिण्णई कारणेण दि अण्णई दीणाणाहर चीरहिरण्णई। पोसाहु सीलु दाणु देवच्चणु 'राएं संचोइइ पालइ जणु। घचा-धम्महि राए धम्मिट्ट धुठ दुक्कियरइ दुक्कियरउ ।।
रायाणुवट्टि जगि संचरह जिह णरवइ तिइ जणवच ।।१।।
सोहु व सावयाई अग्गेसर जिंणवरधम्मु करद भरहेसरु । भावैलिंगि होएषि गरेसरु चिंतइ चैत्तदेहु लंबियकरु। गोसयाहं गोदुधु जि पिज्जा णारीसहसह एक रमिजइ।
खारीसयभत्तई पसरल्लर रहलक्खई मह पा रहुल्लउ । MBP give, at the comruencement of this Sandhi, the following stanza :
मुखनलिनोदरसनि गुणहतहदया सदैव यदसति ।
__ चोजामिदमत्र भरते शुक्लापि सरस्वती रजा ॥१॥ M ready गुणधुतं for गुणहत । GK do not give it, १. १. MBPT मुणिबद्धलं । २. MBP हिमकण कणयं । ३. BP कणालि । ४. Pघयपये । ५. AME
हारहिं; P दारहि । ६. M चंदणतोयतडिल्ल । ७. MBP वरधारहि । ८. MB भाविहिं । ९. M
मणि । १०. MB°णियरालिउ । ११. ME राई। २. १. M जिण यम्मु । २. M भावलिंग होएव । ३. MBP चत्तदेह ।
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सन्धि
२८
___ अपने नगरमें प्रवेश कर उस राजा भरतने खोटे स्वप्नोंके फलको दूर करने के लिए नाना प्रकारके दानोंसे समृद्ध शान्तिकम प्रारम्भ किया।
हिमकण और कनक कणोंको पंक्तियोंके समान परिणामवालो घड़ोसे गिरतो हुई दूध और धोको धाराओं, मुनियोंके अनिष्ट और दुष्ट आशयोंका नाश करनेवाली चन्दनसे मिश्रित उत्तम जलोंसे, जाउड देश में उत्पन्न केशरसे लाल जिनेश्वर प्रतिमाओंका अभिषेक किया। भ्रमरकुलको परस्वरूप कुवलय-बकुल-मधु और कमलोंको मालाओंसे पूजा की। बहुत-सी स्तोत्रावलियोंसे संस्तुति की, विशुद्ध भावोंसे भावना की। स्वर्णनिर्मित मुनि-प्रतिमाओंसे युक्त, नाना मणिकिरणोंके समूहवाले, दसों दिशाओंमें जानेवाली टंकार वनिसे रचित चौबीस घण्टे लटकवा दिये गये। पथ-पथमें बन्दनवार सजाये गये, जो आते-जाते हए राजाओंके नेत्रोंको सुहावने लगते थे। जिन्होंने सुखपरम्परा दो है, ऐसे अभय आहार, औषधि और पास्त्रोंके दान दिये गये। भूमिदोहन और गायोंका दोहन करनेवाले गृहस्थोंने घर-घरमें अर्हन्तको पूजा की। करुणाभावसे दूसरे दोन-अनाथोंके लिए वस्त्र और सोना दिया गया। राजाके द्वारा प्रेरित प्रोषधोपवास शोलदान और देवाचनका लोग पालन करते हैं ।
पत्ता-राजाके धर्मनिष्ठ होनेपर जनपद धर्मनिष्ठ होता है, राजाके पापी होनेपर जनपद पापी होता है, विश्वमें जनपद राज्यका अनुगामी होता है, राजा जैसा चलता है, जनपद भी वेसा ही चलता है ॥१|
सावयों ( श्वापदों और श्रावकों) में सिंहके समान अग्रसर होकर भरतेश्वर जिनकर धर्मका आचरण करता है। वह भावलिंगी होकर, शरीरको चिन्ता छोड़कर हाथ लम्बे कर ( कायोत्सर्ग कर ) विचार करता है-"सैकड़ों गायोंमें एक गायका ही दूध पिया जाता है, हजारों स्त्रियों में से एक ही स्त्रीसे रमण किया जाता है, सैकड़ों सारी ( मापविशेष ) भर
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५
१०
१५
१०
१९२
महापुराण
किं रक्खइ
क राहं विधु महल्लाई पासा वि झि सयणीयलु जइ वि एम जाणइ संगाय तो वि जीच खज्जइ रायते कालच दंड गइदंड दरिसाव असहि कारणु कांगणिखणि सोहई दुहुलीह हो हो रायतें हो गंथ अणुदिशायं कथंद व घत्ता - सिढिलाई होति "राएसरहो णिग्यैमणमलपूरई || विडंति झत्ति खोणीयलई करकंकण केऊरई ||२||
३. १.
६.
हरि हरिवाह करि षि करिल्लई । इ परभुंज णिज्जु धरणीयलु । चिंतित सलु पराय । खविणासि संतावि पहुत्ते ।
छग जीव ण पेक्ख । मणि सोदामणि णहचुत जावु । चम्मु कयंत परवधारणु । अम्हारिसहं धरित्तिसमीहहूं । सुणिव परिवेटिव । उषि अंति" रायपरमाणुय ।
१५
[ २८.२.५
३
म.
जासू गं भरिएर कि जादित छ । मंगलणेषत्थई पडिवब्बिवि । सयल पर्यावित्तिय संचितम् । णिव सभासदानहिं रंजइ । संमाणिहिं हो अलिसियहिं । चर परमंडलंतु पट्ठावइ । पवरपडीपिंडर्हि पीणइ । घरि सच्छेदविहार अच्छ णियसरी भूसणाहं विहूसिवि । अच्छर कोई विपत्थिय लीलइ । गम कालु गराइ संतुहि ।
रायणाणु किं तासु हिज जासु खग्गु रणि को वि णं कइ जो पहाइ परमप्प पुचिवि णयसासणि चित्त अहियारियrिee णिउंज के त्रिसणेहालोयणई सियहिं दविणोबा पुरिसँ संभाव सयलकलाकुसल वि संमाणइ पशु अत्थाणविसग्गु समिच्छ मज्झइ मज्जाउं पईसिवि बालाचालियचामरमाइ
तर पहुँ विगोट्ठि
घत्ता - संपण्णइ खणि तिज्जइ पहरे जाणिव घडियावाएं ॥ पहु अच्छर वारबिलासिणिहिं सह कीलाइ विणोएं ||३||
४. MBP णरवराहु | ५. G पटिबद्ध गहल्लहं । ६. MBP राइत्ते । ७. MB कार्गाणि खर्गेण होइ दुहलोहहं; P कागणि खणि होस दुहलील; T खाणि आकरः । ८. MBP रायत्त गर्थे । ९. MBP बर बैकिट । १०. MR कयस्य and gloss रोग; I कथंरु व धूलिवि । ११. G जंतु; K जंतु but corrects to जंति and glossछन्ति । १२. MBP रज्जेसरहो । १३. G निगम; K णिग्गमल'. but carrects it to णिग्गयमणं ।
म कट्टर । २. MBP पपाच । ३. G पट्टई । ४ MBP हिउल्लउं । ५. M पयवित्तव । सहियहि । ७. MBP पुरिसु । ८. Our manuscript P ends with चामरं । ९. MB काईव । १०. MB बुणिवगोट्ठहि ।
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२८.२.१४ ]
हिन्दी अनुवाद
१९३
भातमें से अँजुली-भर चावल खाया जाता है। लाखों रथोंमें मेरा एक रथ है । मनुष्य बड़े मनुष्योंका प्रतिबद्ध (दास) है, अश्व अश्ववाहोंका, और हाथी हाथियोंका । प्रासादोंके भीतर भी शयनतल होता है। लो, इस प्रकार परिणीतलका भोग किया जाता है। तब भी जीव राज्यत्वसेक्षपको प्राप्त होता है; यह क्षणभंगुर और बहुत सन्तापकारी है। चक्र क्या कालचक्र से बचा सकता है, क्या वह छत्रसे ढके हुए जोवको नहीं देखता । दण्ड कुगतिके दण्डको दरसाता है, मणि आकाशसे च्युत बिजलीकी तरह है। असि (तलवार) कृष्ण उद्भट लेश्याका कारण है, सेना यमके नगाड़ों के शब्दको धारण करनेवाली है। दुःखोंसे आलिगित घरतोकी इच्छा करनेवाले हम-जैसे लोगोंके पास कार्कणी मणि क्षण-भर के लिए शोभित होता है । राज्यत्व और परिग्रह रहे । मैं मुनि हूँ, केवल वस्त्रोंसे घिरा हुआ हूँ । प्रतिदिन इस प्रकार ध्यान करते हुए उसके ( भारत के ) राग परमाणु धूलिके समान उड़कर जाने लगते हैं ।
पत्ता - इस प्रकार राजेश्वरके निकलते हुए मनोमलसे पूरित करकंगन और केयूर आभूषण शीघ्र ही धरतीपर गिरने लगते हैं ||२॥
पद
३
राजनीति विज्ञान उसीका कहा जा सकता है, जिसके मन्त्रका मेदन शत्रुमनुष्यों के द्वारा न किया जा सके। जिसकी तलवार से युद्ध में कोई नहीं बचता, जिसका प्रताप दिशाओंों में फैलता है, जो सवेरे परमात्मा की पूजा कर मंगलवस्त्र पहनकर न्यायशासनमें अपना मन लगाता है, समस्त प्रजा-वृत्तियों को चिन्ता करता है, अधिकारियोंको अपने नियोग में लगाता है, राजा सम्भाषण ओर दानसे रंजित करता है। वह स्नेहपूर्ण अवलोकन हैसीसे सम्मानित लोक अभिलाषामों और धनके उपायसे कितने लोगोंका बादर करता है, शत्रु मण्डल में धरोंको मेजता है, प्रवर स्वर्णपिण्डोंसे प्रसन्न करता है, फिर दरबारको विसर्जित करनेको इच्छा करता है, और घरमें स्वच्छन्द विहारसे रहता है। मध्याह्न में स्नानके लिए प्रवेशकर अपने शरीरको भूषणोंसे सजाकर, जिसमें बालाबोंके द्वारा संचालित है चमर ऐसी किसी राजलीलासे रहता है। भोजन करनेके उपरान्त राजा नृपगोष्ठी में अत्यन्त सन्तुष्टि के साथ अपना समय बिताता है।
पत्ता - घण्टी बाघातसे जाने गये तीसरे प्रहरका एक क्षण बीतनेपर राजा वेश्याओंके साथ कोड़ा विनोद करता हुआ रहता है ||३||
२-२५
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१९४
महापुराण
[२८.४.१
महिषड़ गयलीलइ पर्य ढोयेइ पुणु अंतेयह भमिवि पलोथइ। खणि संसहार्य मंतु पमतई धमु णस्थि कि छग्गुण चिंतइ । जाणइ अप्पर वण्णपवित्ति वि वत्तीयरणु णेयाणयजुन्ति वि। पुणु अवलोयइ विविपयार पहरणभवणई भंडागार। पुणु गुरुयणसहमंडवि पइस धम्मसत्थसंदेहु वि णासइ । कामसत्थु अवलोयइ जावहिं कामु वि तहु आसंकइ तारहि ।' इस्थिसस्थि हरिसस्थि ण मुंबई आउधेस धणुवेउ विउमाइ । जोइससचणसमूहणिमित्तई णरणारीलक्खणई विचित्तई। तंतु मंतु तेण जि संजोइन भरहें सई जि भरहु उप्पाइन । धत्ता-जसु जासु दियंतहिं परिभेमइ ससिकरणियरस पोसह ॥ .
तह भरहहु सरिसु महाणिवइ जगि णउ हुयउ ण होसइ ॥४॥
सो रायाहिराउ सामंतह मंडलियहं महिमाइ महंतई । एकाहिं दिणि धीरई गिरवायह अक्खइ खवित्तु बहुरायई। फुलमइअप्पयपयपरिपालणु अवर समंजसत्तु मलखालगु। णिसुणह मुयबलतुलियकरिंदई पंचभेउ चारित गरिंदहं। जेण चरिवि तर गिरिवरकंदरि अजिन तिस्थयरत्तु भवंतरि । एह लोर जे धम्मि पबत्तिर परिताइत खयाउ सो खत्तिन । कुलु णरणाहहं एत्थु विसेसे कुलु लक्विज वुहसहवास । दसणणाणचरितमासे
कुलु रक्खिज्जइ दुण्णयणासे । कुलु लखिनइ सुद्धायारे पढेऊण अणुव्वयभार। साइ अणाइ वि दीसइ जायउ। बीयंकरकमेण कुलु आयत । भरहेरावएहिं कुलु खिजद कालि कालि जिणणाहहिं किज्जाइ। घत्ता-पषियसिक मडलिखकरकमलु जाएं करइ इरि फित्तणु ॥
ते पस्थिव कुलसंताणयर ताई महादेवत्तणु ॥५॥
४. १. MB पर। २. 18 ढोइन । ३. JB पलोइउ । ४. । वत्तारयणु । ५. MB याणइ जुत्ति दि।
६. MB सत्यु संदेड्ड । ७. MB तहि 1 ८. B मुझइ । १. M दियत्तहि । १०. MB भरि भमइ । ५. १. Bणियाय: T हिरवाय। २. MB खत्तविति । ३. Bतरिय । ४. MRK चारित्त ।
५. M परताइस; T परिताइउ । ६. MB कुल गर । ७. MB चरित्ताभासे ८. M दलउड्ढेण; T दढऊद्वेण । ९. M बीयंकुरु ।
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हिन्दी अनुवाद
Y
राजा गजलीलासे अपने पैर रखता है, और फिर घूमकर अन्तःपुर देखता है । एक क्षण में अपने स्वभावसे मन्त्रका विचार करता है। यह वस्तु छह गुणवाली है या नहीं, यह विचार करता है। वह अपनेको और वर्णोंकी प्रवृत्तियोंको जानता है; वह कृष्यादि वार्ताओंके आचरण और न्याय तथा अन्यायकी उक्तिको जानता है। फिर वह विविध प्रकारके आयुधभवन औौर भांडागारोंका अवलोकन करता है। फिर वह गुरुजन्दोंके सभामण्डपमें प्रवेश करता है, तथा धर्म और शास्त्र के सन्देहको दूर करता है । जिस समय वह कामशास्त्रका अवलोकन करता उस समय काम भी उससे आशंका करने लगता है। वह हस्तिशास्त्र और अश्वशास्त्रको नहीं छोड़ता, आयुर्वेद और धनुर्वेदको भी समझता है। ज्योतिष, शकुन समूह और निमित्त शास्त्रको भी जानता है। नर-नारियोंके विचित्र लक्षणों को समझता है । तन्त्र और मन्त्रका संयोग उसोने किया। भरतने स्वयं भरतसंगीतको उत्पन्न किया ।
२८.५.१३]
१९५
पत्ता - जिसका यश दिशाओंमें घूमता है, और चन्द्रमाके किरणसमूहका पोषण करता है । उस राजा भरतके समान महान् राजा जनमें न तो हुआ है और न होगा ||४||
५
एक दिन राजाधिराज वह, महिमादिसे महात् सामन्तों, माण्डलीक राजाओं, धीर और अपाय रहित बहुत-से राजाओंसे क्षात्रधर्मका कथन करता है— कुलमति अपना और प्रजाका परिपालन भी मलको दूर करनेवाला सामंजस्य ( करना चाहिए ) सुनिए, अपने बाहुबलसे गजराजोंको तोलनेवाले राजाओंके चारित्र्यके पाँच भेद हैं। जिससे गिरिगुफा में तपका आचरण कर, जिनने पूर्वभव में तीर्थंकर प्रकृतिका अर्जुन किया। जिससे यह लोक धर्म में प्रवर्तित किया और उस क्षत्रियत्वको क्षय होने से बचाया गया। नरनाथको अपने कुलकी रक्षा विशेष रूपसे करनी चाहिए । पण्डितोंके सहवाससे कुलको लक्षित करना चाहिए। दर्शन-ज्ञान और चारित्रके अभ्याससे और दुर्नयोंके विनाश कुलको रक्षा करनी चाहिए। शुद्ध आचार और दृढ़तापूर्वक धारण किये गये अणुव्रत भारसे कुलकी रक्षा करनी चाहिए। यह कुल सादि अनादि और उत्पन्न हुआ दिखाई देता है, बीजांकुर न्यायसे कुल आया है । भरत ऐरावत आदिके द्वारा कुल नाशको प्राप्त होता है, फिर समय-समयपर जिननायके द्वारा वह किया जाता है।
घत्ता - सिर झुकाकर और करकमल जोड़कर इन्द्र जिनका कीर्तन करता है, वे राजकुलपरम्परा विधाता है और उनका हो महादेवत्व है ||५||
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५
१९६
अवरु विमइ राएं रक्खेबी णासइ जिवमइ मिच्छारंगें णासs मह चामीयरको णास मइ हरिसें चलते ories मह मरण माणेण वि णासह मइ वेसायणगमण
सइ मह जूयम्मि वित्ती मण जासु कलिकलुसें छित्ती विविब्जा रितिविज्जागामिणि
महापुराण
६
ring जि सिक्ख सिक्खेबी । कुगुरुदेव कुलिंगपसंगें । णास मइ पिरु कामें कोड़ें। णासह मइ जिणपढिकूलतें । णास मइ मइरापाणेण वि । णासह मइ कुरंगबहरमर्णे । णासह मह पररमणिहि रती । जिणवरचरणभोरुषित्ती | तहु होस इहपरभवि गोमिणि ।
पत्ता - मसुद्दि षड्ढद्द धम्मैमइ धम्मु वि मे सो घोसित || after heलिहिं जीवलोइ उषरसित ||६||
धम्मु खमाइ होइ गैरुयारस
अज्जर धम्भु पार्नु मायारउ धम्म उच्च धम्मु तवतपणु धम्मै बंभरें परिचाएं gure सो विउ इय मसुद्धि कहिय णउ रक्खमि हुपविणु हुयललियंगड सत्थग्गणु महाजलवोलणु एयई कुच्छ्रियमरणई दुद्दमि
सु
अवरु विराण कर णिरिक्खणु दुम्मर हुई जाणिव धाडइ जिह गोवर पाल गोमंलु
७
धत्ता
- मुर्णिचरणकमल उवसमु करिवि जो ण मुय संणासें ॥ चरासीलक्खजोगिमुहहिं सो परिभमइ किलेसें ||७||
.
धम्म मद्देवगुणु पहिला । धम्मु चवर्येणो वियार । असेसवत्थुपपणु । जेण ण कियउ वियाणवि राएं। रज्जे पुणु विरइ पाडेवर | तणुपरिरक्ख रिंद अक्खमि । विसकणकवलणु मरणु ण जंगल । गिरिणिवडणु अंतावलिघोलणु । रु भावि घिति भवकदमि ।
पर्यहि धम्मणाएं परिरक्खणु । तिब्वे दंडे गाइ पण ताढइ । तिह पालक गोवइ गोमंडलु ।
[ २८.६
०
६. १. MB कुबेल । २. M चवलितं । ३. MB read this line and the following as:
महण जासु कलिकलुसें छिती, पास मह पररमि ६. MB सो मई ।
मइ जुम्म णिउती, जिणवरच रणभोरुह चित्ती रती । ४. G मइमुवि । ५. MB धम्मू सई । ७. १. B गुरुमारज । २ MB मउ गुणु । ३. MB पाउ । ४ MB वयणौ । ५. MBK स ६. MB धम्मु जि- बंभचेरपरिचाएं । ७. MB हुबहु पविसणु हुन लखियंग । ८ MB चरण ८. १. पहिं । २. M पाव |
0
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२८.८३]
हिन्दी अनुवाद
१९७
और भी राजाके द्वारा बुद्धिकी रक्षा की जाये और अरहन्तकी ही सीख सीखी जाये। मिथ्यात्वके रंग कुगुरु, कुदेव और कुमुनिके सम्पकसे राजाको मति नष्ट हो जाती है। स्वर्णके लोभसे मति नष्ट हो जाती है। अत्यन्त काम और क्रोधसे मति न हो जाती है। हर्ष और अपकतासे मति नष्ट हो जाती है, जिनके प्रतिकूल होनेपर बुद्धि नष्ट हो जाती है, मद और मानसे बुद्धि नष्ट होती है। मदिरापानसे बुद्धि नष्ट होती है, वेश्याजन-गमन करनेसे बुद्धि नष्ट हो जाती है। हरिणवा करने से दुनिष्टहाला है। गुरमें न होनेसे बुद्धि नष्ट हो जाती है । परस्त्रीमें रमण करनेसे बुद्धि नष्ट होती है, जिनके चरण कमलों में पड़ी हुई जिसको बुद्धि कलिके पापको स्पर्श नहीं करतो उसकी बुद्धि नृपविद्या और ऋषिविद्यामें गमन करनेवाली होती है और इहलोक तथा परलोकमें धरती (या लक्ष्मी) उसकी होती है।
पत्ता-मति शुद्ध होनेसे धर्ममति बढ़ती है, और धर्म भी मैं उसे कहता हूँ कि जिसका उपदेश क्षीणकषायवाले केवलज्ञानियोंने विश्वमें किया है ।।६।।
धर्म क्षमासे गौरवशाली होता है। धर्मका पहला गुण मार्दव है। बार्जव धर्म और मायारत होना पाप है। विचार करनेवाला सत्य वचनोंका समूह धर्म है। पोच्य धर्म है, तप तपना धर्म है, समस्त वस्तुओंका परित्याग करना धर्म है, ब्रह्मचर्य और त्यागसे धर्म है। जिस राजाने जानते हुए भी धर्म नहीं किया, पूर्णायु होनेपर वह नष्ट हो जायेगा और राज्य उसे फिर नरकमें गिरा देगा। इस प्रकार मैंने मतिशुद्धि कही, मैं कुछ भी छिपाकर नहीं रखूगा, राजाओंको अब शरीरको रक्षा बताता हूँ। आगमें प्रवेश करना, सुन्दर शरीरको जला लेना, विषकणोंको खा लेना, ऐसा मरण अच्छा नहीं। जात्मघात, महाजलमें अतिक्रमण करना, पहाड़से गिरना, अपनी आंतोंको घोल देना (संघर्षण ) ये खोटे मरण हैं जो मनुष्यको धुमाकर दुर्दम भवपकमें गिरा देते हैं।
घत्ता-मुनिवरके चरणकमलोंमें उपशम धारण कर जो संन्याससे नहीं मरता, वह चौरासी लाख योनियोंके मुखोंमें कष्टपूर्वक परिभ्रमण करता रहता है ॥७॥
भोर भी राजाको निरीक्षण करना चाहिए। प्रजाका धर्म और न्यायसे परिरक्षण करना पाहिए। दुर्मति होकर गाय चिल्लाती है, यह जानकर घसे तीन दणसे ताड़न नहीं करना
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महापुराण
[२८.41 णिकारणमारणु जो राणउ सो रक्खसु जमयसमाण । मिसु मंडिवि हलहरसंघायह णिहोसहं दिय वणिहिं वरायहं । बुड्ढणारिडिंभयसंतावणु जो धणहरण करइ भीसावणु। जाणीसाससिटिहिं सो डझाइ अण्णु वि दुकियकम्में बज्झइ । लगगइ ण जियइ दुर्खहुयासइ ण वसइ देसु विसइ परदेस। पहु अणुरत्तपयई जो तासह काहि वि दियहहिं सो सई णासइ । रत्तउ सत्तर भिच भरिजइ तविवरीय अवहेरिनइ । बुझियकजावायसवाएं
णरणाहेण णिहालियणाएं। गुरुचरणारविंद सेवेवउ अवरु समंजसत्तु भावेवउ । रोसे पर विसिद्छ पहरेवउ दुद्वपक्खु ण कयादि धरेवा। पत्ता-इय पंचपयारपयासियन णिर्वचरित्तु जो पालइ ।।
कमलासण कमला कमलमुहि तहु मुहकमलु जिहालइ ॥८॥
तहि अच्छइ भरहेसरु जइयह गणि पभणइ सुणि सेणिय तइयह । कुरुजंगलजाणवयगयउरवह जिणकमकमलजुयलसेवारइ । सोमप्पहमहिणाहहु णदणु लच्छीवइमायहि दोसियमणु । सुंदक चोदेहभाइहि जेटर जउ णामें अत्याणि पंझुउ। कुमवसाहिवेण पणवेप्पिणु पमणिसं तेण राम विहसेप्पिणु | ताएं रायपट्टि महु बद्ध रिसिरयणत्तइ सई उवलद्धइ। वम्मि हुयइ णिक्कलि कलुसचुइ दाणारवत्तणि सुरवरसंथुइ । जाणियएयाणेयरियप्पन
रिसहसामिपयपंकयछप्पह । घोरवीरतवचरणवमुझ पित्तिई सेयंसाहिवि णिन्बुद । समहोयरु दिम्मुहाइ णियंतर जणियपुरवरति विहरंतउ । मारुयचोलियचलसाहाणु एकाहि वासरि गाउणंदणवणु । धम्माणंदे मणु आणदिउ दिहर सीलगुत्तु मुणि वंदिन । विट्टर फणिवरु समन मुयंगिइ धम्मु सुर्णतु सरलललियंगिए । गयसंवच्छरि पुणरवि आएं। सा दिट्ठी मुक्किय णियंणाएं। धता-दीव काओयक णाइणि वि विपिण वि धम्मु सुर्णतई ।।
मई लीलाकमले ताडियई तेहिं हि जाइरइरत्तई |९||
३. MB °णीसाससयह। ४. MB दुक्खु हयां । ५. M अणुरत्तु पयई। ६. MB रविंदु । ७. B भावंतउ । ८.Gणियचरितु । १. MB जंगलु । २. MB चवदह । ३. M°भावहिं । ४. 8 बइठ्ठउ । ५. MB वलियचवलसाहा। ७. MB फणिव। ८. M सरलललियंगइ; B सरललियंगिइ। १. MB मुक्की णियणाएं । १०. C°णियणायएं । ११. MB काओयह विसहरु णादणि वि । १२. M तहि जापयरइरत्तई ।
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२८.९१६
हिन्दी अनुपाव चाहिए। जैसे ग्वाला गोमण्डलका पालन करता है उसी प्रकार राजाको पृथ्वोमण्डलका पालन करना चाहिए । जो राजा कारण प्रजाको मारनेवाला होता है, वह राक्षस और यमदूतके समान है। दोष लगाकर कृषक समूहों, निर्दोष ब्राह्मणों और बेचारे पणिकोंका भीषण धनापहरण करता है, बुड्ढों, स्त्रियों और बच्चोंको सतानेवाला है, वह लोगोंकी श्वासज्वालाओंमें जल जाता है और पापकर्मसे बंष जाता है। दुःखको ज्वाला लगनेपर वह जीवित नहीं रहता, वह देशमें नहीं रह सकता, परदेशमें उसे प्रवेश करना पड़ता है। जो राजा अनुरक्त प्रजाको सताता है, वह कुछ ही दिनोंमें स्वयं नष्ट हो जाता है। उसे सच्चे और अनुरक्त भृत्यका भरण करना पाहिए, जो विपरीत है उसकी उपेक्षा करनी चाहिए। कार्यके उपाय और अपायको जानते हुए, व्यायकी देखभाल करते हुए राजाको गुरुके चरणकमलोंकी सेवा करनी चाहिए और उसे सामंजस्यका विचार करना चाहिए। कोषमें आकर विशिष्टका परिहार नहीं करना चाहिए, और दुष्टका पक्ष कभी भी ग्रहण नहीं कहना चाहिए।
पत्ता-इस प्रकारसे प्रकाशित नुपचरितका जो राजा पालन करता है कमलासन कमलमुखी कमला (लक्ष्मो) उसके मुखकमलको देखतो है ॥८)
गौतम गणधर कहते हैं- "हे श्रेणिक ! सुन, जब वहाँ भरत था, तभी जिनभगवान्के चरणकमलोंमें रत रहनेवाला कुरुजांगल जनपदके गजपुरका राजा सोमप्रम था। अपनी माँ कमोवतीके मनको सन्तुष्ट करनेवाला सोमप्रभ राजाका चौदह भाइयोंमें सबसे बड़ा जय नामका सुन्दर पुत्र गद्दीपर बेठा । कुरुवंशके उस राजाने प्रणाम कर बोर हंसते हुए राजासे कहा कि पिताके मुझे राजपट्ट बाष देने और स्वयं ऋषियोंके रत्नत्रय प्राप्त कर लेनेपर, और उसमें भी निष्पाप और कालुष्यसे व्युत हो जानेपर तया सुरवरोंके द्वारा संस्तुत दानका प्रवर्तन होनेपर, एकानेक विकल्पोंको जाननेवाले ऋषभस्वामीके चरणकमलोंके भ्रमर, घोर वोर तपश्चरणसे अद्भुत चाचा श्रेयांस राजाके बिरक्त हो जानेपर में दिशामुखोंको देखता हुआ अपने भाईके साप पुरवरके भीतर घूमता हुआ एक दिन नन्दन बनके लिए गया जो हवासे हिलती हुई चंचल शाखाओंसे सघन था। वहाँ मैंने शोलगुप्त मुनिको देखा, उनकी वन्दना की और धर्मानन्दसे मेरा मन नाच उठा। मैंने सरलसुन्दर अंगोंवाली नागिनके साथ एक नागको धर्म सुनते हुए देखा। एक साल बीत जानेपर मैंने उस नागिनको फिर देखा परन्तु अपने नाग धारा छोड़ी हुई।
पत्ता-दीपड़ जातिका काकोदर ( नाग ) और नागिन दोनोंको धर्म सुनते हुए । वहाँपर मी जातीतर { जातिसे भिन्न ) स्नेहमें अनुरक होनेवाले उनको अपने लीलाकमलसे प्रताड़ित किया||९||
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२००
महापुराण
[२८.१०.१ १० कसणारुणबिंदुयत्तणुराइहि कहिं णाइणि कहिं लग्गवि जाइहि । इय गरहिवि परिवारेणाइय सहुँ जारेण तेण सा णिग्गय | कासेपुप्फकंतिसंकासह
हर्ष पहिआग णियआवासच । सिंलि मियताहि मई आहासिर सयणाला तं णाणिविलसिस । खुमहिलखलपरियाई पयासमि जाम किं पि किर पिय संभासमि । विविहाहरणकिरणरंजियधरू साव तहि जि अवयरिज परामरु । पुच्छिष्ठ सो मई कि अवलोयहि दिहि वियारमरिय कि ढोयहि । तेण पउत्तर कि ण चियाणहि लोयह तुहुं वि धम्मु वक्खाणहि । दोसग्गहणु ण कासु वि किज्जइ पंगुलु पंगुलु केम भणिन। पई वि जाइरइ महु कुलकत्ती पाणिपोमपोंमें जं छित्ती। धत्ता-तं पाडिय सयले परियणेण उपलहिं वंडसहासें ॥
कंपतदेह जारेण सहुँ सा मुक्को णीसासें ॥१०॥
पुठवमेव मुत फणि वयधारर हर हुस भावणु णायकुमारउ । सप्पिणि हुई समपरिणामें
सुरसरि देवय काली णामें । बिपिण वि मिलियई हियवइ धरियर तं तुह दुववसित संभरियर |
आयत एत्थ जाम किर मारमि आरूसिधि बच्छयलु पियारमि । ता मई जाणि तुई पुषणाहिछ चरमदेह सीलेण पसाहिच । एम भणेपिणु तेण फणीसे समजलसिंचियरोसहुयासे। दिण्णई मह दिवई परिहाणई दिण्णई भूसणाई असमाणई। अवसरि सरसु भणिवि गउ सेत्तहि अहिवइविषरि णिहेलणु जेसहि । णिमणि देव सासयसंपययर जगि जीबहु धम्मु जि लग्गणतरु । घत्ता-विहसि वि कुरणाहें बोल्लियर भरइपसाहियमेहियल ।।
देव वि तह पायहिं पद्धहिं फुड जासु धम्ममइ णिचल ॥११।।
१२
इय जेए कहाण साहिय जावहिं अवरु वि मंति पराइउ तावहिं। गीयोलंबियमोत्तियहारै
सो दाविड रायहु पडिहारें। तेण पजत्तु णिसुणि णिवररिसि कासीविसइ णयरि वाणारसि १०. १. MR°तणुरायहि । २. MBK कासससंकति । ३. MB जाइरय। ४. MB पोमपंकृष्ट ।
५. MBK साडिय। ११. १. M पुव्ववसिह । २. MB चरमदेह । ३. MB समजल सिंचिय। ४. M भूवाणई। ५. MB
महियल। १२. १. B जइण । २. K गोवोलंबियं । ३. MB रायह दाविउ । ४. MB वरससि ।
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२८. १२.३]
हिन्दी अनुपाव
२०१
(यह सोचकर कि ) काले और लाल धब्दोंवाले शरीरसे शोभित विजातिसे नागिन कहाँ लग गयी । इस प्रकार परिवारसे आहत होकर वह अपने यारके साथ चली गयो । मैं कास पुष्पकी कान्तिके समान अपने घर वाया सा नया । सनिमें रायतकालमें नागिनना बह विलास अपनो पलीको बताया। मैं जबतक खोटी महिलाओंके चरितको बताऊँ और प्रिय सम्भाषण करूं कि इतने में विविध मामरणोंसे घरको रंजित करनेवाला एक सुरवर अवतरित हुआ। मैंने उससे पूछा, 'मुझे क्यों देखते हो, मुझपर विकार-भरी दृष्टि क्यों करते हो' । उसने कहा-'क्या नहीं जानते, लोगोंको तुम्हीं धर्मका व्याख्यान करते हो, किसीका भी दोष ग्रहण नहीं करना चाहिए। तुम्हें पंगुल-पंगुल ( पुंश्चली-पुंश्चली ) क्यों कहना चाहिए था। तुमने जन्मसे अनुरक्त मेरी कुलपुत्रीको करकमलके कमलके द्वारा जो ताडित किया था।
पत्ता-उसे समस्त परिजनोंने पत्थरों और हजारों दण्डोंसे गिरा दिया। कांपती हुई देहवालो वह, अपने यारके साथ सांससे मुक्त हो गयो ।॥१०॥
व्रत धारण करनेवाला नाग पहले हो मर गया और मैं भवनवासी नागकुमार हुमा और वह नागिन समपरिणामसे गंगामें काली नामकी देवता हुई है। हम दोनों भी मिल गये और तुम्हारी उस कुचेष्टाको याद कर उसे मनमें धारण कर लिया। मैं यहाँ माया और जबतक मैं तुम्हें मारूं और क्रुद्ध होकर तुम्हारे वक्षस्थलको फाड़ दूं, कि इतनेमें मैंने जान लिया कि तुम पुण्यशाली हो, चरमशरीरी और शीलसे प्रसाधित हो । यह कहकर समताके जलसे अपनी क्रोषाग्नि शान्त करते हुए उस नागेशने मुझे दिव्य परिधान दिये, और असामान्य आभूषण दिये । उस अवसरपर अत्यन्त सरस बोलकर वह वहाँ गया जहाँ नागराज बिलमें उसका भवन था। हे देव सुनिए, जीवका संसारमें धर्म हो शाश्वत सम्पत्ति करनेवाला आधारभूत वृक्ष है।
पत्ता-कुरुनाथने हंसकर कहा कि जिसकी धर्ममें निश्चल मति (या निश्चल धर्ममति) होती है-हे देव, भरतके समान धरतीको सिद्ध करनेवाले भी उसके चरणोंमें पड़ते हैं ॥११॥
इस प्रकार जैसे ही जयकुमारने कहानी कही कि वैसे ही दूसरा मन्त्री वहां आ पहुंचा। जिसकी गर्दनमें मोतीका हार लटक रहा है ऐसे प्रतिहारने राजासे उसकी भेंट करायी। उसने
२-२६
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२०२
महापुराण
[२८.१२.४ राक्ष अफंपणु राणी सुप्पह सालंकारी णं वरकइकह। फुजकुसेसयसंणिहसमुहह सहसु सुयह मंगयपमुहहं। सस मृगलोयण ताई सुलोयण लहुई लच्छीवइ सुहभायण | जेहि रूस काई फिर सीसह उबमाणु जि जहिं किं पिण दीसइ । पायहुंकाई कमलु समु भणियचं तं खणभंगुर काहिं ण मुणिय । विकलाई वासरि गरि निगम कण्णागमहा िणं णटुई। घत्ता-कुंरुपिंदु तणु वि जंघा यहो णासवंतु करु दंतिहि ॥
ऊरुजुयलहि जो समें भणइ सो सइ पडिया भतिहि ।।१२||
वण्णमि फाई णियंबगुरुत्तणु जाहिं पत्तउ तिहुयणु नि लहुत्तणु । भमन भम सो भूएं मुत्ता जाहि हि सरिसुण सलिलावत्तड । कहिं थणजुयलु चित्तगइरभणु भासद कणयकलस कर्हि कश्यणु । दड्ढा ताई दासिसिरमंडणु चंगउ ससहर समलु सर्खखणु । कि तरुणीवयणहु उवमिजा तासु सरिच्छत दं जि भणिजह । जेंचे कुमरिहियवउं संदाण मृगु ण ते अवलोयह जाणइ । किं सारंगणेयणि सा उत्ती केत्ति फिजाइ उत्तपत्ती। णवह लम्गिवि जा केसगाई वाम ताहि णिश्वमई वरंगई। लीलबोलणकीलाजुत्तई
छुहु जि वसंतमासि संपत्तई । घत्ता-अंकुरियउ कुसुमिव पजविउ महुसमयागमु विलसइ॥
वियसति अचेयण तक वि जाहि दहिं णा किं णउ वियसइ ।।१३।।
छुडु मायदेमक्खु कंदइयत महुलकिछइ आलिंगिवि लइयउ । छुडु चपयतर अंकूरचित णं कामुख इरिस रोमंचिउ । छुडु केहि किं पि कोरइयच णं वम्मचित्तारे रईयट। छुडु मंदारसाहि पल्लवियर चलदलु णं महुणा णञ्चवियर । छुहु जायर णैमेरु कलियालउ मत्तचओरकीररावालय । छुदु काणणि पप्फुज पलास पहियडे लग्गर विरहहुयासउ |
छुटु फुल्लिर मल्लियफुल्लोइड रमणीयणि पसरिउ रइलोहड । ५. B° समुहह । ६. भिगलोयण | ७, MB तक्मणि भंगरु । ८. B कुरुविंदत्तणु । ९. MB जंघा
जुयलहो । १०. K सम । १३. १, MB वि । २. जिम कुमरिहि हियवः । ३. MB मिगृ ण म ! ४. MB °णमण । ५. MB उत्त
पछुती । ६. MB कोलणजुसई । १४. १. MB मायंदु रुषषु । २. B रायस र रसउ । ३. Mणं मेरु; Bणामरु । ४. MBK पप्फुस्ल ।
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२८. १४.७] " हिन्दी अनुवाद
२०३ कहा-हे नृपवर ऋषि सुनिए, काशी देशमें वाराणसी नगरी है। उसमें राजा अकम्पन, रानी सुप्रभा है । अलंकरोंसे युक्त वह ऐसी लगती है मानो वरकविकी कथा हो। खिले हुए कमलोंके समान मुखबाले हेमांगद प्रमुख उसके एक हजार पुत्र हैं। उनकी बहन मगनमनी सुलोचना है। और छोटी सुखभाजन लक्ष्मीवती। उनमें-से बड़ीके रूपका क्या वर्णन किया जाये कि जिसके लिए कोई उपमान ही नहीं दिखाई देता। पैरोंको कमलके समान क्यों कहा गया ? वह क्षणभंगुर होता है, कविने इसका विचार ही नहीं किया। नक्षत्र दिनमें कहीं भी दिखाई नहीं देते, मानो जैसे वे उस कन्याके नखोंको प्रभासे नष्ट हो गये।
पत्ता-जो कवि छोटेसे शंखको अंपायुगलके, तथा हाथीको क्षणभंगुर सूडको करुयुगलके समान बताता है, वह भ्रान्तिमें पड़ा हुआ है ।।१२॥
१३
उसके उन नितम्बोंके भारीपनका क्या वर्णन करूं कि जहां विभुवन छोटा पड़ जाता है। जलावर्त ( भंवर) उसकी नाभिके समान नहीं है, लोगोंके द्वारा उसका घूम-घूमकर भोग किया जाता है। चित्तको गतिको रोकनेवाला स्तनयुगल कहाँ ? और कहाँ कविगण उसे स्वर्णकलया बताता है ? एक तो वे ( स्वर्णकलश ) आग, तपाये जाते हैं, और दूसरे उनसे दासोके रिका मण्डन किया जाता है । खण्ड और कलंक सहित चन्द्रमा अच्छा, परन्तु उससे युवतीके मुखको उपमा क्यों की जाती है ? उसके समान तो उसीको कहा जाना चाहिए। जिस प्रकार कुमारीका हृदय प्रकट होता है, वैसा अवलोकन भुग नहीं जानता। फिर उसे मृगनयनी क्यों कहा गया ? कितनी उक्ति-प्रतिउक्ति दी जाये। नखसे लेकर केशोंके अग्रभाग तक उसके जितने उत्सम अंग हैं वे निरुपम है। इतनेमें शोन वसन्त मासमें लीलादोलन और क्रोडाको युक्तियाँ बा गयीं।
पत्ता--अंकुरित, कुसुमित और पल्लवित वसंत समयका आगमन शोभित है। जिस बसन्तमें अचेतन तर भी विकासको प्राप्त होते हैं उसमें क्या मनुष्य विकसित नहीं होता ? ||१३||
शीन हो आम्रवृक्ष कण्टफित हो गया, मधुलक्ष्मीने आलिंगन करके उसे ग्रहण कर लिया। शीघ्र चम्पक वृक्ष अंकुरोंसे अचित हो गया, मानो कामुक हर्षसे रोमांचित हो गया। शीघ्र अशोक वृक्ष कुछ-कुछ पल्लवित हो उठा, मानो ब्रह्माकपी चित्रकारने उसकी रचना की हो; शीघ्र ही मन्दारकी शाखा पल्लवित हो गयी मानो चलदल (पीपल ) को मधुने नचा दिया हो। शीघ्र नमेरु ( पुन्नाग वृक्ष ) कलियोंसे लद गया, और मतवाले चकोर और कोरोंको ध्वनियोंसे गूंज उठा । शीघ्र ही काननमें टेसू वृक्ष खिल गया, और पथिकोंके लिए विरहाग्नि लगने लगी। शीघ्र
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२०४
महापुराण
[२८.१४.८ छुडु छहयेणविडउलि मउ वढिड वेल्लिकुसुमरसु चुधिवि कढिम् । कुंदु कामदनईि. पहालियर. ....कोईलु कापबढणं रसियन । दवणयकर्यकुड्यलपतत्तई चंदणकहमपिंडविलित्तई। धत्ता-छुडु केलीहरई विणिम्मियई "पुप्फन्छुरण पित्तई ।।
छुडु लग्गई मिहुणई सरहसई अवरोप्परु रयरत्तई ॥१४||
थिप्पिरमहुछडयहिं महिघुलियइं सुमणसुरहिरयरंगावलियहिं । णवस्तुप्पलकलियादीबहि चंदषयणडणवणभावहिं । धवलकुसुममंजरिधयमालाई गुमुगुमंतमहुलियगेयालहिं । रायहंसकामिणिकयरमणहिं थिउ वसंतपहु उवैवणभवणहिं । कुररकीरकारजणिणायहि
पष्णिजंतु व थोत्तणिहाणाई। सियजलकणतंदुलसोहालहिं भिसिणिपत्तवरमरगयथालहिं । अणलससयदलदल सरलकिछह चित्त सेस गं तहु वणलपिछह । फग्गुणपइसारह गंदीसरि छुडु सुरणविक दीवि गंदीसरि । पोसहपरिसमखामसरीरह धण यलंतविलंबियहारइ। पुत्तिइ पहसंत मुहकमले पहु दिवउ जिणसेसाफमलें। पत्ता-तेलोकपियामहु णववि जिणु णवमयरंदकरबिउ ।।
तंणलिणु परिदै णिहिट सिरे महुयरउलमुहचुबिउ ॥१५॥
१६
तेण धूय पियवयणहिं पुजिय गय सुंदरि णियगेहु पराइय भड़यणु सब्बु दरि ओसारिज तणयहि ब? दिणि गलियइं रत्तई णं दुपुत्तरइयई दुचरितई परि कुमारि केत्तिउ रक्खि जा सायरमंति चवद सरमहमुहु ढोयहि तासु फण्ण किं अपणे
करि पारण भणेवि विसजिय। वायहु चित्ते चिंत संभूदय । रायएं मंतिहि मंतु समीरिउ । महुँ दुइंदि भो अटु वि गैत्तई। अवलोयहु लहु णववरइत्तई । कासु वि कुलगुणवंतह दिजइ। अक्ककित्ति चक्कवइहि तणुरुहु । सामतेष लोयसामण्ण।
५, B विडयणविजलि । ६. MB कुंद । ७. MB कोइल। ८. MB कयकंदुयणपतई। ९. MBK
"पिंगविलितई । १०. MB पुप्पत्थरणई । ११. MB रइरत्तई। १५. १. M.B रमणिहि । २. MB बहुवणभवणिहिं । ३. MB कार । ४, M°णिकाहि; BFषणाहि;
K"णिहायहि; ५. MB जयति विलं । ६. MBK विवि । १६. १. MB राएं मंतिहु । २. MB उडविणं । ३. MB डहति । ४. MB अंगई । ५. Mण दुपुत्त
रहमाई; Bणं पुत्तरइयई। ६. MB कि मंण ।
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हिन्दी अनुवाद
२८. १६.८]
२०५ ही जुहीका पुष्प समूह खिल उठा और रमणीजनोंमें रतिलोभ बढ़ने लगा। शीघ्र ही भ्रमररूपी विटजनोंमें मद बढ़ गया और उन्होंने लताओंके कुसुमरसको चूमकर खींच लिया। कुन्दवृक्ष अपने पुष्परूपी दौतोंसे हंसने लगा और कोयलने मानो कामका नगाड़ा बजाना शुरू कर दिया। दमनक लताके कुडमलोंसे रचित और चन्दनकी कीचड़से लिप्त
पत्ता-शीघ्र ही केलिगह बना दिये गये और उनमें पुष्पोंके बिछौने डाल दिये गये। शीघ्र ही वेगयुक्त मिथुन रतिमें रत हो गये ||१४||
सघन मधुके छिड़कावों और फूलोंको सुरभि रजकी रंगोलोसे धरती रंग उठी । वसन्तरूपी प्रभु, नव रक्तकमलोंके कलिकारूपी द्वीपों, मयूररूपी नटके नृत्यभावों, धवल कुसुम मंजरियोंकी पुष्पमालाओंके गुनगुनाते हुए श्रमरोंको गीतावलियों, राजहंसकी कामिनियों द्वारा किये गये रमणोंके साथ उपवन भवनों में स्थित हो गया। कुरर, कीर और कारंज पक्षियोंके निनादोंके द्वारा जो मानो स्तोत्रसमूहके द्वारा वर्णित किया जा रहा हो। श्वेत अलकणोंसे चावलको शोभा धारण करनेवाले, कमलिनीके पत्तोंकी पंक्तियोंकी थालियोंके द्वारा, खिले. हुए. कमलोंके समान आँखोंवाली वनलक्ष्मीने मानो उसे शेषाशत समर्पित किया हो। नन्दीश्वर द्वीपमें फागुनके आनेपर, शीघ्र देवेन्द्र द्वारा नमित नन्दोश्वर द्वोपमें, जिसका शरीर उपवासके श्रमसे क्षीण हो गया है, स्तनयुगलके अन्तमें हार लटका हुआ है, ऐसी पुत्रीने हंसते हुए मुखकमलसे जिनपूजाके कमलके साथ राजाको देखा।
पत्ता-त्रैलोक्य पितामह जिनको प्रणाम कर, नवपरागसे अंचित और मधुकरकुलके मुखसे चुम्बित उस कमलको राजाने अपने सिरपर धारण कर लिया ॥१५||
पिताने प्रिय बचनोंसे पुत्रीका सस्कार किया और भोजन (पारणा ) करो यह कहकर उसे विसर्जित कर दिया। सुन्दरी गयी और अपने घर पहुंची। पिताके मनमें चिन्ता उत्पन्न हुई 1 उसने सब भटजनोंको दूर हटा दिया। राजाने मन्त्रीसे विचार प्रारम्भ किया, "ऋतुदिनमें ( मासिक धर्मके दिनों में ) कन्याके गलित और लाल आठों अंग मुझे इस प्रकार कष्ट देते हैं, मानो कुपुत्रके द्वारा किये गये दुश्चरित हों। इसलिए पीघ्र नये वरको खोजो। कुमारी कन्याको घरमें कितना रखा जाये, किसो कुलोन और गुणवान् व्यक्तिको दो जाये ।" सागर मन्त्री
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महापुराण
[२८ १६.९ सिद्धत्येण भणिउं मणरंजणु अच्छाइ राणत णामु पहुंजणु । गं पञ्चक्खीहूयच सई
रहवह बलि वज्जाउंहु घणसरु । सम्वत्येण लविच मुइ महिहर तुइ पुत्तिहि वह जइ विजाहर"। होति'ण अण्णहु तं लायण्ण
सुमइ कहइ मई पट्ट पडिवण्ण। अविरोहण सयंवरमखणु होउ ण कासु वि णेहु खंडणु। घत्ता-जं बहुसुएण परिणयमइण सुमइबुझेणच्भस्थित ॥
परियाणियि होंदी काजगह तं सयलहिं मि समस्थित ॥१६॥
१७ विमाणगोमिणीघवो कुमारिपुवयंधवो। सुरो विचित्तरंगओ तओ तहिं समागओ। त्रिणा सुमंडवो कओ' विचित्तमित्तिसोहो। ललवतोरणालओ धुलतपुप्फमालओ। समंद्रमतभिंगओ ........ प्रहम्गलरासिंगको!...... ... ... सुणीलबद्धभूयलो तमेण णाइ सामलो। कहिं पि हेमपिंजरो सरो व्ब कंजकेसरो। कहि पि रुप्पयामलो विलित्तचंदमंडलो। कहि पि वत्थुछण्णओ सुसपिछलण्णओ। गवतणस्थलीसमो महंचपुण्णसंगमो। मणीहि रायराइओ रईइ णाई छाइओ। कहिं पि देसि रतओ वहूदणाइ रत्तओ। थियो यो व्व मित्तओ सिरीविलासदित्तो। णिहित्तमोचियपणो ससंखकुंभवप्पणो। असेसमंगलासओ पगीयगेयघोसओ।
विसालमत्तवारणो दिवायरसुवारणो। घत्ता-मडवु किं वण्णमि देव हउ बहुमाणिक्कहिं जलिया।
जहिं दोसइ तहिं जि सुहावणस सगं महिहि णं पडियर ॥१७॥
७. MB पहजणु । ८. MB सुरु। ९. K वज्जालह; धणमा मेघेश्वरः । १०. MB महियरु;
T महिहरू राजानः । ११. MB विज्जाहरु । १२. MB होण। १७. १. MB add after this : समुज्यमंचसंगो ( B संघसंगओ) । २. MR सोहियो । ३, MB
add after this: : वरंगणाहिरोहियो। ४, B भर्मतमत्त । ५. MB बिचित्तवपणमंटलो; K विजितपद । ६. MB वत्यकपणो and gloss वस्त्रेणावच्छन्नः । ७. GK सुएसुपिछवण्णो but gloss शुकेशपिच्छवर्णः; T सुएस णुकाधानः । ८. M जयश्वणत्यली; Bणवत्तणत्पली । ९. MB देस । १.G दिसी° but corrected to सिरी in the margin | ११. MB कुंद । १२. MB°गीय । १३. MBK सगु ।
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२८. १७. १८) हिन्दी बनुवार
२०७ कहता है-"चक्रवर्तीका पुत्र, कमलके समान मुखवाला अकीति है, कन्या उसको दीजिए, किसी दूसरे लोक सामान्य सामन्तो क्या ?" सिद्धार्य ( मन्त्री) कहता है कि प्रभजन नामका सुन्दर
राजा है, जो मानो साक्षात् स्वयं कामदेव हो। रथवर बली वधायुष और मेघेश्वर भी है। तन सर्थ मन्त्री बोला-"यदि मनुष्यको छोड़कर, तुम्हारी पुत्रीका वर विद्याधर हैं, तो किसी अन्ममें वह लावण्य नहीं है।" सुमतिने कहा-“हे प्रम, मैने स्वीकार किया। सबसे अविरोषी बात यह है कि स्वयंवर किया जाये, जिससे किसीके भी स्नेहका खण्डन न हो।"
पत्ता-इस प्रकार बहुशास्त्रज्ञ परिणत बुद्धि सुमति मन्त्रीने ओ प्रार्थना की उससे कार्यको गति होगी, यह जानकर सबने उसका समर्थन किया ॥१६॥
१७
उस अवसरपर विमानरूपी लक्ष्मीका स्वामी और कुमारीका पूर्वजन्मका भाई चित्रांगद देव वहां आया। उसने सुन्दर भण्डपकी रचना की, जो विचित्र भित्तियोंसे शोभित, मूलते हुए तोरणमालाओं, हिलती हुई पुष्पमालाओंसे युक्त, मतवाले भ्रान्त भ्रमरोंवाला और अपने शिखरोंसे भाकाशके अग्रभागको छूता हुआ 1 नीलमणियोंसे निबढ भूमिसल ऐसा लगता है जैसे अन्धकारसे काला हो गया हो, कहींपर स्वर्णसे पीला कमलपरागसे युक्त सरोवर हो, कहीं चोदी-से स्वच्छ ऐसा लगता है मानो प्रदीप्त चन्द्रमण्डल हो, कहीं वस्त्रोंसे आच्छादित ऐसा लगता है, मानो शुकोंको पूंछोंके रंगका हो । नवतृणस्थलोके समान बोर महान् पुष्योंका संगम, मणियोंकी शोभासे घोभित और कान्सिसे आच्छादित, कहीं रक दिखाई देता है जैसे वचूके द्वारा अनुरक्त हो। श्रीके विलाससे दीप्त जो नवसूर्यके समान स्थित है, मोतियोंके अचनसे निहित, शंख-मंगल कलश और दर्पणसे सहित, अशेष मंगलोंका बाश्रय, प्रगीत गीतघोषोंवाला, विशाल मत्त गजोंवाला और सूर्यको किरणोंको आच्छादित करनेवाला।
पत्ता हे देव, में मण्डपका क्या वर्णन करूं। अनेक माणिक्योंसे जड़ा हुमा वह जहाँ दिखाई देता है, वहीं सुहावना लगता है मानो स्वर्ग ही धरतीपर आ पड़ा हो ॥१७॥
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५
१०
२०८
महापुराण
१८
जहिं कुमारि अलिस से वरु पई विणु तेण वि काई णवल afar एत्धु में हो मलासि तं णिणिवि हू कोअहलु मेरुघीरु जगणलिणदिणेसरु चलिउ पडिभडगय घडमणु चलि बलि रहेंषरु बजाउछु भूगोयर विज्जाहरराणा पहुहु अकंपणु पणवित जावहि सहं घाइइ भूसाहिं सती चोय हय महिंदरहिएं तहिं जोय सुंदरि कंचुइ दाइ
पत्ता- तहि अक्ककित्ति पलयकणिहु बलि भूयवलि विसमाणउ ॥ वज्जावहु वन्जु व आवडिस रुथइ को विण राणउ || १८||
तरुणिवयणु जोयवि जोचारें पुणु रहबर संचो ते
"
सो पार
णासयंवरु । लहु चल्लह किंकरच्छलें । कार ह संपैसिउ ।
दिण भेरि गुरुरव मिलियत बलु। पिसुणियि चलि भरद्देसरु । कित्तिणात दणु । चलित घणरउ णं कुसुमाउहु । गंपि सयंवरघरि आसीणा | संणि तरुणि चडाविय तावहिं । भास हा रक्खिती । रायकुमार परिद्वय ते जेहिं । एकु वि णरवइ मणहु ण भावइ ।
जिह जिह सुंदरि अप्पल दावइ कोणीसस ससेइ दिहि छंडे कंठाहरणु को वि संजोयइ को विनिययिणड़ई अगाई चिरभवि मई ण कियच मणणिग्गह को सिमिच्छहि अहरग्गहु arat as विरहमहाजरु मुलि पडि को वि विहलंगलु घसा - कर मोडइ छोडइ सिरेचिहर उभगतसिंगारहिं ॥ अहिलसह हसइ भासइ भडक भज्जइ कामवियारहिं ॥ १९ ॥
१९. १. MB सुखइ | २, MB छहुई । ५. MB महाग । ६. B सिरि बिहार । २०. १. MB] संजोद्दउ । २. B जयगरबद्द
१९.
तिहु तिह शिवतणयहुं तणु तावइ । ervie पुण षि पुणु विकु वि मंडइ । अप्पर दप्पणि को वि पलोयइ । य एयहि थणहि ण लग्गई। किह विरयमि एयहि कंठग्गहु । कासु विलग्गड काममेहग्गहु । कासु वि उरि खुत्तर वम्मइसठ । केण विनियलज्जहि दिण्डं जलु ।
२०
परियाणि सुरगिरिषीरें। आसीपड जड़े परवइ जेत्तहि ।
[ २८.१८ १
१८. १. MB सयंवद । २. Mण होह । ३. MB तुम्हहं पेंसिल । ४ MB रहबर । ५. MB भाई | ६. MB जेतहि ।
३. MB अंग को वि पृणु वि पृणु मंडई । ४. MB अहंगदं ।
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हिन्दी अनुवाद
१८
I
जिसमें कुमारी स्वयं अपने वरकी इच्छा करती है ऐसे पतिका स्वयंवर प्रारम्भ किया गया है। तुम्हारे बिना किंकर वत्सल उस नवीनसे क्या ? आप शीघ्र चलें, किसी दोष के कारण यहाँ अविनय न हो, मैं तुम्हें बुलानेके लिए भेजा गया है। यह सुनकर कुतूहल हुआ। भेरी बजा दी गयी । और भारी बलके साथ सेना इकट्ठी हुई। मेरुके समान धीर एवं विश्वरूपी कमलके लिए सूर्य के समान भरतेश्वर यह सुनकर चल पड़ा। तब शत्रुकी गजघटाका मर्दन करनेवाला अकीति नामका उसका पुत्र भी चल पड़ा । बलो रथवर वज्रायुष भी चल पड़ा। घनरव भी चला मानो कामदेव हो। इस प्रकार मनुष्य और विद्याधर राजा जाकर उस मण्डपमें आसोन हो गये। जबतक राजाओं द्वारा अकम्पनको प्रणाम किया गया, तबतक तरुणी ( सुलोचना ) को रथपर चढ़ा दिया गया। घायके साथ आभूषणोंसे शोभित होती हुई वह अपने हजारों भाइयोंसे रक्षित थी। महेन्द्र सारथिने वहाँको ओर अपने घोड़े चलाये जहां राजकुमार बैठे हुए थे। फेकी बता बताता है और कुमारी देती जाती है। एक राजा उसके मनको अच्छा नहीं लगता । पत्ता- वहाँ अर्कैकीर्ति प्रलय के सूर्य समान और बलि भुजबलिके समान था । वज्जायुध वज्र के समान दिखाई दिया। परन्तु उसे कोई भी राणा अच्छा नहीं लगता ॥ १८ ॥
२८. २०.२]
२०९
१९
जहाँ-जहाँ वह सुन्दरी अपनेको दिखाती, वहाँ-वहाँ राजपुत्रों के शरीरोंको सन्तप्त कर देती । कोई निश्वास लेता, कोई लम्बी साँस छोड़ता, कोई अपने आपको बार-बार अलंकृत करता, कोई कंठाभरणको ठीक करता । कोई स्वयंको दर्पण में देखता । कोई अपने अभग्न नखोंको देखता कि जो अभी इसके स्तनों को नहीं लगे हैं, पूर्वभवमें मैंने अपने मनका निग्रह नहीं किया, में इसके कण्ठग्रहको किस प्रकार पा सकता है। कोई उसके अधरोंके अग्रभागकी इच्छा करता है और किसीके लिए कामरूपी महाग्रह लग जाता है। किसीके लिए विरह महाज्वर आ गया। किसीके हृदयमें कामदेवका तीर चुभ गया। कोई विह्वलांग होकर मूच्छित हो गया और किसीने अपनी
के लिए पानी दे दिया ।
पत्ता - हाथ मोड़ता है, सिरके बाल खोलता है। उमड़ रहा है शृंगार जिनमें, ऐसे कामविकारोसे वह इच्छा करता है, हँसता है, मधुर बोलता है और भग्न होता है ||१९||
२०
सुमेरु पर्वतकी तरह गम्भीर सारथिने युवतीका मुख देखकर और मन जानकर फिरसे रथ उस ओर चलाया जहाँ राजा जयकुमार बैठा हुआ था। वह गजगामिनी उसे देखती हुई पूछती
२-२७
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२१०
५
महापुराण
[२८.२०.३ पुछद पेच्छंती गयवरगद पभणइ कंचुइ णि मुणि महासइ । ऐहु केरलवह पहु सिंघलवइ एड मालववह एहु कोंकणवइ । एड्व बब्बरवइ एह गुजरवइ एह जालंधरिसु एहु वजरवह।
राउ एहु सत्य मि कलिंगाएं। एडु कस्सीरणाहु देकेसर पड अवरु अवलोयहि तुई वर। सोमपहसुर ऐड सेणावह कुरुकुलणहि गर ससि णावइ । रुद्धणहंतरधरवित्थारहि
विसहरवरिसमाणजलवारहिं । णिष दिग्विजइ अणेयं परजिय मेच्छ अतुच्छवंस रणि णिज्जिय । गजिन णवघणघोसणिणाएं. मेहेसह जिहकारिच राएं। इय आयण्णिवि पियसहिवयगई मुद्धा पेसियाई णियणयणई। घत्ता-विह जोइड ताइ सुलोयणए जर णियवइ जयगारत ||
जिह रोमि रोमि तहि विप्फुरित वम्महु वम्मवियारउ ||२०||
२१
जिह जिह कपणइ पइ आलोइउ तिह तिह रेहिएं संदणु ढोइउ । परवरिंद णीसेस पमाइदि भर्वसिणेहसंबंधे जाइवि । सज्झसकंपावियगइगत्तइ वीलावसपरिमंडलियणेतहि । जयहु लच्छिकीलाभूमित्यलि पित सयंवरमाल उरथलि। 'कुसुमसरेण णं कुसुमसरावलि गहिय कुमारि तेण केयपंजलि। गत लहु सरह भरह साफेयह दुम्मइ परिवडिय जुयरायहु । ता दुईसणु दुद्धरु दुज्जणु दुछु दुरास दूसियसज्जणु । रविकित्तिहि सुहिवंदाकरिसणु अस्थि मंति णामें दुम्मरिसणु। मच्छरवंत वेण पउत्त
जहिं अहिंस तहिं धम्मु णित्तर। जहिं अरहतदेउ तहिं सयमहु ।। जहिं मुणिवह तर्हि इंदियणिग्गहु । जहिं महिवइ तहि रयणहं संगहु । ण करहेण खरेण वा गरबंदछ। घंटालंबणु सहइ करिबहु ।। हरिकरिधीआईयई णियंदहु सयलई रयणई होति णरिंदहु । धत्ता-संकेश्य पुत्ति अकंपणेण एह णिहालिउ बालए ।।। ___अवमाणिवि तुम्हई पित नाय घणरबु पुज्जित मालए ॥२॥
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३. GK गइवर but glogs गजवरगतिः; K corrects गई to गमे । ४. MB read lines 4, 5 and 6 as: एह केरलवइ एड कोसलवइ, एड्स सिंधलवइ एह मालवपइ; एह कुंकणनम्बरगुज्जरवइ, एह जालंधरेसु वज्जरवइ; एह कभोयकोंगगंगंगह, राज एव सव्वहं मि कलिंगहं । ५. MB इस्कैसा ।
६. MB पह। ७. MB जलधारहि। ८. MB अणेण । ९. MB जिह कारिउ । २१. १. MB रहिमं । २. MB भवसह । ३. MB मणिय । ४. MB सकुसुम गं कुसुमसरसरावलि ।
५. MB कि । ६. M13 अरहंतु घेउ । ७. MB add after this : अहिं सुवण्णु तहि विसयपरिग्गहः । ८. M योअइआई णियंदह, Bथीआइणिअंदह । ९. MB पडतणम ।
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हिन्दी अनुवाद
२८.२१.१५]
२११
है। कंचुकी कहती है- "हे महासती सुनिए, यह केरलपति है, यह सिंहलपति है, यह मालवपति है, यह कोकणपति है, यह बर्जरपति है । यह गुर्जरपति है, यह जालन्धरका ईश है, यह वज्जरपति है. ये कम्मोज-कोंग और गंगाके राजा है, सबमें यह, कलिंगका राजा है। यह कश्मीरका राजा है, यह टक्केश्वर है, यह दूसरा तुम्हारा वर है, इसे देखो, सोमप्रभका पुत्र यह सेनापति है जो कुरुकुल के आकाशमें चन्द्रमाको तरह उदित हुआ है । अवरुद्ध कर लिया है धरती और आकाश के अन्तरोंको जिन्होंने ऐसे विषधरोंके समान बरसतो हुई धाराओंोंके द्वारा इसने दिग्विजयमें अनेक राजाओं को जीता है। युद्धमें लेच्छ और अतुच्छ वंशके राजाओं को पराजित किया है। जब वह नवघनके घोष के समान गरजा तो राजा ( सोमप्रभ ) ने उसका नाम मेधेश्वर रख दिया ।" इस प्रकार प्रिय सखीके इन वचनोंको सुनकर उस मुग्धाने अपने नेत्र प्रेषित किये ।
*k at any 5 Marow
धता - उस सुलोचनाने जय करनेवाले अपने पतिको इस रूपमें देखा कि उसके रोमरोममें ममको छेदनेवाला कामविकार हो गया ||२०||
२१
जैसे-जैसे कन्याने पतिको देखा वैसे-वैसे सारथिने रथ आगे बढ़ाया । अशेष राजाओं को छोड़कर तथा पूर्वजन्म के स्नेह-सम्बन्धसे जाकर सत्कामसे प्रकम्पित है गति और गात्र जिसका, तथा लजासे जिसके नेत्र मुकुलित हो गये हैं, ऐसी उसने जयकुमारके लक्ष्मी कोड़ा के भूमिस्थल उरस्थलमें माला डाल दो। उसने अंजलो जोड़े हुए कुमारीको ऐसे ग्रहण कर लिया मानो कामदेवने कुसुमको माला स्वीकार कर ली हो। भरत शीघ्र ही अपने रथके साथ साकेत चला गया। यहाँ युवराजोंमें दुर्बुद्धि बढ़ने लगी। युवराज अकोतिका दुर्मर्षण नामका मन्त्री या जो दुर्धर, दुर्जन, दुष्ट, दुराशय, सज्जनों को दोष लगानेवाला और मिश्रसमूहको सैकड़ों भागों में विभाजित करनेवाला था । मत्सरसे भरकर उसने कहा - "जहाँ अहिंसा होती है वह निश्चयसे धर्म है । अन्त देव हैं वहाँ इन्द्र है, जहाँ मुनिवर है वह इन्द्रिय निग्रह है। जहां राजा है वहाँ रत्नोंका संग्रह है। ऊँट या गधेके द्वारा नर-समूहका अवलम्बन नहीं होता । घण्टावलम्बन राजके शोभित होता है। घोड़ा, हाथी और स्त्री आदि समस्त रहन नरश्रेष्ठ राजाके होते हैं।
पत्ता - राजा अकम्पन पुत्रीकी कोर इशारा किया । इसलिए बालाने इसकी ओर देखा । तुम्हारा अपमान कर चाचाके पुत्र मेघेश्वर ( जयकुमार ) का इसने सम्मान किया ॥२१॥
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२१
महापुराण
[२८.२२
२२
.....
.. .. .
रोसविमीसह
जयकासीसह। इच्छियवसण
दोई मि पिमुणह। "संभारे भिडप्पण सिरई खुडेप्पिणु। घिप्पा सुंदर
गं वम्मापुरि। विउसादुगुलिउ पहुणा इच्छिउ। फलहुइसिट
संतहु भासिउ । वं णिसुणेपिणु पिबहु णवेष्णुि । वरविहसेप्पिणु
का मुएप्पिणु। णिटुक्कियमा
चवह महाम। मुक्खइ झीणी
कोवविलीणी। माणुत्ताणी
भयविदाणी। जायर्वचित्ती
दुकाखें वत्ती। णिदइ मुत्ती
गमणासत्ती। सइंजि घिरती
अण्णेह रत्ती। पयडीवेस वि
जगपंकयरवि। सा करिकरमुय
भरहेसर सुय। जालिंगिज्जा
णेय रमिज्जइ। पह पत्ती
परकुलवत्ती। सद्दालंसह
जसु मइलसह। पाच मुयंत
उप्पहि जंतहं। भो जुवणिवव
इहपरभवगइ । अवसे णासह
तुइ किं सीसह। पत्ता-ससि दिणयर जलहरु जलणु जलु गयणु महीयलु वाउ वि ।।
जर्णजीवियकारेणु धुवु मुणहि सुंदर दुई तुह ताउ वि ।।२२।।
२३ एणवतेण अव वीणेण वि अकुलीण वि सकुलीण वि। लड्य सयंचरि कुवरि ण हिप्पइ हिंयवउ गरुएं पाये लिप्पइ। एह पियामहेण तुह ताएं मग्गु पयासित मणुसंघाएं। इहु लंधिवि जो भूयई तावह सो णरु दुज्जसु दुग्गइ पाव ।
एम कहतहं णव पद्वियुद्धट र्ण घरण सित्तठ धूमद्धध। --- - २२.१. MB फलहसत । २. MB add after this : कर मलेप्पिण । ३. MB add after this:
बहु संसेप्पिणु । ४, MB जा अवषिती। ५. MB read this line as : गमणासत्ती, णिदइ (B
शंद) भुती 1 ६. MB अण्णह। ७. Gomits this linel८. Bणु । १. MB कारण धुट। २३. १ MB सुकुमेणे वि अकुलोणेण वि ।
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२८. २३.५]
हिन्दी अनुवाद
२२
इसलिए क्रोध से भरे हुए दुःखको इच्छा रखनेवाले दोनों हो दुष्टोंसे - जयकुमार और काशीराज अकम्पनसे युद्ध में भिड़कर, सिर काटकर सुन्दरीको इस प्रकार ले लिया जाये, जैसे कामपुरी हो । विद्वानोंके द्वारा निन्दनीय, उसके द्वारा कहे गये कलहके उद्देश्यको राजाने भी इच्छा की। यह सुनकर, राजाको प्रणाम कर, थोड़ा हैसकर, कार्य छोड़कर, अपायबुद्धि महामति मन्त्री कहता है- “ भूख से क्षीण, कोपसे विलुप्त, मानमें ऊंची, भयसे खिन्न, उन्मत्त दुःखसे सतायो हुई, निद्रा में लीन, गमनमें आसक्त, स्वयं होसे विरक्त, दूसरे में अनुरक्त है । है विश्व कमलके रवि, भरतेश्वर-पुत्र, प्रकट वेश्याके समान, सुहके समान हाथबाकी, उसका आलिंगन नहीं करना चाहिए; उसके साथ रमण नहीं करना चाहिए। यह परकुलपुत्री कहा जाता है। इसे उड़ाते हुए, यशको मेला करते हुए, न्यायको छोड़ते हुए, फुमार्ग में जाते हुए, हे युवराज ! तुम्हारी इहलोक और परलोककी गति अवश्य नष्ट होगी। तुम्हारे द्वारा क्या कहा जा रहा है।
२१३
पत्ता - शशि- दिनकर जलधर- अग्नि-जल-गगन-धरती और पवन, तुम और तुम्हारे पिता, हे सुन्दर! जनजीवनके कारण हैं, इसे तुम निश्चित रूपसे जातो ||२२||
२३
_trance द्वारा अथवा दोनके द्वारा, अकुलीनके द्वारा अथवा कुलीनके द्वारा स्वयंवर में ली गयी कन्याका अपहरण नहीं किया जाता। इससे हृदय भारी पापसे लिप्त होता है। यह मार्ग तुम्हारे पितामह (ऋषभ ), तुम्हारे पिता ( भारत ) और मनुसमूहने प्रकाशित किया है । इसका उल्लंघन कर जो प्राणियोंको सताता है, वह मनुष्य अपयश और दुर्गतिको प्राप्त करता है।" लेकिन यह सब कहनेपर भी युवराज अर्ककीति प्रतिबुद्ध नहीं हुआ, उलटे जैसे जगमें घी
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२१४
महापुराण
[२८.२३.६ अक्ककित्ति पडिलवइ विरुद्धउ जइयतु वीरवट्ट तहु बद्भङ । जयतुं फणिवद भइण चवक्किउ जणणे जलहरसरू जउ कोक्किच । तइयतुं महुँ रोसाणलु हुयउ णियमिउ एंतु खलहं जमदुयउ । . वरिपति ...... अज सयंवरमालातुप्प। सो दूसह पञ्चलियर वैट्टइ रिउलोहियसित्तड ओहट्टइ। घत्ता-मो ओसरु कण्णइ काई महु हर किं मग्गुण र्बुज्झवि ।।
जउ अप्पु वि भडलीहहिं गणइ तेण समउ रणि जुझवि ॥२३॥
साडिय समरभेरि क कलयलु खणि उद्धाइउ च उरंगु वि बलु | रविनय सिक्खिय वहरिवियारण सूरारुढ सूर वरवारण। मेढेपयंगुट्टहि संचोइय
गज्जमाण मेहा इव धाइय। हरिखरखुरस्त्रयखोणीमंडल वाहिय वरकामिणीमणचंचल । रहखोलमाणधयडंवर
दित्तविचित्तछत्तकणंबर । चर्कचारचूरियविसहरसिर असिझसमसललउडिलंगलकर। सुणमि सुविणमि महापट णहयर अॅट चंद णामें विज्जाहर। जुवराएण रणंगणि मुक्का गरुडवूह हि विरइचि थका। विजयघोसि करिवरि आरूढउ बालु महाइवसर्यणिग्घुदृव । चकचूमझत्थु विहावइ रवि परिवेसे वेदिड णाव। एत्तहि कण्ण पट्ट जिणालउ णिश्चमणोहरु णाम विसालज ! रक्खिज्जती किंकरवम्गे थिअ गिलमण काओसगे । झाइय हो विवाहवित्थारे णाणाजीवरासिसंघारें। एतहि दूएं कज्जु समीरिल तं पकवइसुरणवहेरिस। घसा-एप्तहि जामाएं पुलइएण भगिउ अकंपणु धणुटु धरि ।।
रिउ जिणिषि जाम पडिवलमि हउं ता तरुणिहि रक्खणु करि ॥२४||
लेण समड वरवीर रणुभडु। खग्गपाणि भीसणु परसिरिहरु पंच वि ससिरविणायकुलुन्भव पंच विज आसीविसविसहर
घलिउ सुकेट सूरमित्त वि भडु । देवकित्ति जयवम्मु ससि रिहरु । पंच वि कयसंगाममहुच्छव। पंच वि म उहबद्ध रणसहचर।
२. MBK वीरपट्ट । ३. M वर । ४. M3K बुज्झमि । ५. MBK भहलीलहि । ६. MBK
जुजममि । २४. १. MB किंउ । २. K मैं । ३. MR हयखुरेहि खय । ४. MB चचारु। ५. MB अद्धचंद ।
६. MB सयणिम्यूटउ । ७. MB थिय तायाणकाओसगे। ८. MBाय । २५. १. MB वरघोरु । २. MB मित्तसूर । ३. B जयधम्मु । ४. MB रणसयकर; K रणसहयर।
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२८. २५, ४] हिन्दी अनुवाद
२१५ डाल दिया गया हो। वह विरुद्ध होकर कहता है कि "जब उसे बीरपट्ट बांधा गया, और जब नागराज भयसे चौंक गया था, और पिताने मेघस्वरको 'जय' कहकर पुकारा था, तभी मेरी क्रोधाग्नि भड़क उठी थी और दुष्टोंके लिए यमदूतको तरह मैंने नियन्त्रित कर लिया था। पिताने अपनी प्रच्छन्न उक्तियोंसे मुझे मना कर दिया था। किन आल स्वयंवराला घोसे व ! क्रोधाग्नि ) असह्य रूपसे प्रज्वलित हो रही है, वह शत्रुके रक्तसे सिंचित होकर ही कम होगी।
पता-अरे यह अवसर है, कन्यासे मुझे क्या क्या मैं मार्ग नहीं समझता हूं। जय अपनेको योद्धाओंको पंक्तिमें गिनता है मैं उसके साथ युबमें लडं मा" ||२३||
२४ युद्धके नगाड़े बज उठे। कलकल होने लगा। एक पलमें चतुरंग सेना उठ खड़ी हुई, रक्षित और शिक्षित तथा शत्रुओंका विदारण करनेवाले शूरोंसे आरूढ़ बहादुर हाथी, महावतोंके पेरोंके अंगठोंसे प्रेरित कर दिये गये। वे गरजते हए मेधोंकी तरह दो। अपने तीव्र खरोंसे धरतीमण्डलको खोदनेवाले और उत्तम कामिनियों के समान चंचल मनवाले अश्व हाक दिये गये। रथोंपर उड़ते हुए वजोंका आडम्बर ( फैलाव ) था, चमकते हुए विचित्र छत्रोंसे आकाश ढक गया। चक्रोंके चलनेसे विषधरोंके सिर चूर-चूर हो गये। सैनिक हायमें तलवार, शस, मुसल, लकुटि और हल लिये हुए थे। सुनमि और वितमि नामके जो आकाशगामी महाप्रभु थे और आठ चन्द्र नामके जो विद्याधर ये युवराजने उन्हें युद्ध के मैदानमें उतार दिया। वे गरुड़व्यूहकी रचना कर आकाश में स्थित हो गये। अपने विजयघोष नामक महागजपर आरूढ़ होकर, बालक होकर भी सैकड़ों महायुद्धोंका विजेता वह व्यूहके मध्यमें स्थित होकर ऐसा शोभित होता है, मानो सूर्य अपने परिवेशसे घिरा हुआ हो। यहां कन्याने जिनालय में प्रवेश किया, नित्यमनोहर नामका जो अत्यन्त विशाल था। अनुचर-समूहके द्वारा रक्षा को जाती हुई वह कायोत्सर्गसे निश्चल मन होकर स्थित हो गयी। वह ध्यान करती है कि नाना जीवराशिका संहार करनेवाले विवाह विस्तारसै क्या? यहाँ इतने थोड़े में चक्रवर्तीके पुत्र द्वारा अवषारित काम बता दिया।
पत्ता-पहाँ दामादने पुलकित होकर कहा, “अकम्पन ! तुम धनुष धारण. करो, शत्रुको जीतकर जबतक मैं वापस आता है, तबतक तुम तरुणोकी रक्षा करो" |२४||
२५
उसके साथ श्रेष्ठ वीर पुजमें उद्भट सुकेतु और सूरमित्र योद्धा भी चले। हाथमें तलवार लिये हुए, पाशुश्रीका अपहरण करनेवाला देवकीति, और श्रीधरके साथ जयवर्मा, ये पांचों ही चन्द्र-सूर्य और नागकुल से उत्पन्न थे। पांचों ही संग्राम का उत्सव करनेवाले थे। पांचों ही दाड़ों
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महापुराण
[२८.२५५ पंच वि लोयवालणं दारुण पंच वि पंध णाई पंचाणण | अरितरुमयकंतारविणासण पंच विणे सई पंच हुयासण | मेहप्पहु खगवइ तहि छठ्ठल करणहउयरि पाई मणु दिन । जब जि जीउ जहिं ववसित जायत तहिं ण धरइ रित कम्मणिहायउ। घिरा रचूद
वि वेयड्हमहाकरिकंधरि । दीसइ सोमप्पहसुड केहउ वणगिरिमत्थइ केसरि जेहउ । चोरहभायरेहि परियरियड रवि व सकिरणकलावहिं फुरिया । पत्ता--उक्खयकरवालभयंकरई आइवि कोवावण्णई ।।
आलमगई काणाकारणिण अक्ककित्तिजयसेण्णइं ।।२५।।
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परिहियकंचणकंचुइकवयई सामरिसई संवरियावयवई । भडमुहमुक्कहाललाई भामियचकाई भेसियसकाई। क्षसकोतासणिघोरायारई भणझणंतवणुगुणटंकारई। मुक्तपिसकछइयगयणयलाई रुहिरवारिरेजियधरणियलई। अंकुसवसविसंतभायंगई संदणसंकडपडियतुरंगई। असिणिहसणसि हिसिपिंगलियई लुयकरसिरउराई महिघुलियई। मिलियकरालकालवेयालई ह्णणरावसमुगायरोलई । मंडखंडभावियमेरंडई
खंडियधषलछत्तधयदंडई। घत्ता-जुझंतई दिई विसरिसई पयर्यालयवणहिरुलाई ॥
बेणि वि सेण्णई णं रेणसिरिए वद्धई केसुअफुलाई ॥२६॥
रत्तमत्तरयणियरमैले पहयह स्थिमस्थिक्कपंकर उद्धवद्धचिंधोहलूरणे उयरऊनवरयलधियारणे भीलवयणणीसरियहारणे ता जएण संपेमिया सरा आहया या विद्धया धया ते ण किंकरा जे ण मारिया
धारणीयलुलियंतचोंभले रसवसाणईजणियसंकए । तियससुंदरीतोसपूरणे। बइरिघरिणिमणिहारहारणे। मरणदारुणे तहिं महारणे। पुखलग्गहुँकारखरसरा। णिग्गया गया णिम्मया भया। ते राइणो जे ण दारिया।
५. M अइतर but gloss अरिः । ६. MB णावइ 1 ७. MB कोवाउण्णई। ८. MB °सेणई। २६. १. MB पत्रिय । २. M3 चुयं । ३. MB सकुंतामणि । ४. MB रुणुरुणतं । ५. MB
हणणकार । ६. M वणसिरिए; B गवसिरिए । २७. १. MB निभले । २. MB रसवसं गदं ।
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२८. २७.५1
हिन्वी अनुवाब विषधारण करनेवाले विषधर थे, पांचों ही मुकुटबद्ध युद्धसाथी थे। पांचों ही मानो भयंकर लोकपाल थे। पांचों ही मानो पांच सिंह थे। शत्ररूपी तकओं और मगोंके कान्तारका विनाश करनेवाले थे, पांचों ही स्वयं पाँच अग्नियाँ थे। वहां छठा था मेघप्रभ विद्याधर राजा, जैसे इन्द्रियोंके बीचमें मन देखा जाता है, वैसा। जहां जय ही जीवरूपमें व्यवसायमें लगा हुआ है, वहाँ शत्रु अपना कर्म संघात ( सुलोचनाका अपहरणादि कम ) धारण नहीं कर सकता। जिसके भीतर मकरव्यूह रच लिया गया है, ऐसे विजया अागलके कहे पर स्थित सोनाकः पु यकुमार ) ऐसा दिखाई देता है मानो वनगिरिके मस्तकपर सिंह बैठा हो। अपने चौदह भाइयोसे घिरा हुआ वह ऐसा मालूम होता है, जैसे सूर्य अपने किरणकलापसे विस्फुरित हो।
पत्ता-उठी हुई तलवारोंसे भयंकर, क्रोधसे लाल अर्ककोति और जयकुमारको सेनाएँ कन्याके कारण युद्ध में आ भिड़ीं ॥२५।।
२६ स्वर्णके कंचुक और कवच पहने हुए, अमर्षसे भरी हुई, अपने अंगोंको ढके हुए, अपने मुखोंसे हकारनेको ललकार छोड़ते हुए, चक्र धुमाते हुए, इन्द्रको डराते हुए, झस-कोंत और वज्रसे भयंकर आकारवाले, झनझनाते धनुषोंको डोरीकी टंकारोंवाले, मुक्त तीरोंसे आकाशको आच्छादित करनेवाले, रक्तकी धारासे धरतीपर रेलपेल मचा देनेवाले, अंकुशोंके वश शान्त महागजोंवाले, रथोंके समूहमें धराशायी अश्वोंवाले, तलवारोंके संघर्षशसे उत्पन्न अग्निको ज्वालाओंसे जो पोले हैं। जहां कटे हुए सिर, उर और कर भूमितलपर व्याप्त हैं, भयंकर काल बेताल मिल रहे हैं, मारो-मारो का भयंकर कोलाहल हो रहा है, भेरुण्ड पक्षियोंके झुण्डोंके खण्ड अच्छे लग रहे हैं, धवल छत्र और ध्वजदण्ड खण्डित हैं, ऐसे दोनों सेन्य
पत्ता-प्रगलित प्रणोंके रुधिरसे लाल और असामान्य युद्ध करते हुए देखे गये। दोनों ही सैन्य ऐसे लगते थे मानो युद्धलक्ष्मोने दोनोंको टेसूके फूल बांध दिये हों ॥२६॥
उस महायद्धमें, कि जो रक्तसे मत्त निशाचरोंसे विह्वल, धारणोयोंके द्वारा खण्डित आंतोंसे बीभत्स, वाहत गजोंके मस्तकोंके रक्तसे कीचड़मय, रस और चर्बोसे नदोकी शंका उत्पन्न करनेवाला, ऊँचे बंधी हुई पताकाओंके समूहको उखाड़नेवाला, देव-सुन्दरियोंके सन्तोषकी पूर्ति करनेवाला, उदर-ऊरु और उरतलको विदीर्ण करनेवाला, शत्रुओंकी स्त्रियों के मणिहारोंका अपहरण करनेवाला, डरपोक मुखोंसे निकलते हुए हा-हा शब्दको धारण करनेवाला और मृत्युसे भयंकर था, जयकुमारने अपने पुंख लगे हुए और हुंकारको तरह तीखे तीर प्रेषित किये। उनसे घोड़े घायल हो गये, ध्वज छिन्न-भिन्न हो गये, गज भाग गये और निर्मद होकर मर गये। , २-२८
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२१८
महापुराण
[२८.२७६ ते ण छत्तयं जंण छिण्णयं तंण बाहर्ण जंण भिण्णयं । सो ण रहवरो जो ण भग्गओ ___ सो ण खेयरो जो ण खं गओ। जाम पक्विपक्खेहि विडिय मागणेहि किषणं व तजिजयं । फुट्टकंचुयं फुट्टमहले
तुट्टपक्खरं मुक्ककुंतलं । घायधुम्मिरं पत्तगोंदलं
चक्किसूणुणो णिग्गयं बलं । समरकोच्छरो ईसियअच्छरो बंधुपरिहवे बद्धमच्छरो। झत्ति बाहुबलिदेवतणुरुहो सोमवंतसतिलयम्स संमुहो। मुयषलीषिलग्गो महाभुवो पहुं अणंतसेणो वि साणुओ। दिव्वलक्षवणकियसरीरहं सयई पंप भिडियई कुमारहं । घसा-पुरुदेवतणयतणयहिं मिलिवि जउ आदत्तउ जावहिं ।
हेमंग भारदहसमा सह अतार यि सावहिं ॥७il
२८
न तासिज्जइ छिज्जइ भिज्जइए एक नहिं मारिजइ । लुद्धभवणि णं विलियसत्थाई सस्थई आविवि जति णिरत्थई । चरमवेह ण मरंति महाहवि किर थाहिति महामुणि यादि । मेहेसरसरजालु जलंतर
कुमरहु उप्परि सिहि व पडतड । वसुसमससि विज्ञहिं पहिखलियड सहलु सपुंखर पिट व दलियच । एत्थंतरि असहायसहायड मुहूं अवलोइवि खेयररायहु । भणइ कुमार धषलु तुई ण कसरु व माम तुहारठ अवसरु । सुणमि णिवायहि जड महु वेरित ता तेण वि रिच रणि पच्चारित । कतामोहमइण्णवछूटर
रे जीमूयणाय तुहूं मदद। किं कडिन असिवरू पहुतणयहु होय णिवडिओ सि गुरुषिणयहु । संमुहूं थाहि थाहि माणासहि पेक्खहुं तिक्ख सिलीमुह पेसहि । ता सो जयणरणाहे इसियत इय धबंद किं पहहु ण हसियउ । पत्ता-तुई कारज परयारह पमुहु अझकित्ति सई कत्तः ।।
इर्ड णायणिउंजच धरणियले णियपहुपायह भत्तम ॥२८॥
एम वेवि घाउ अपफालिस ___णं काणणि हरिणा ओरालिउ । णाई कयंतह पलहें रसियउं जगु गिलेवि णं काले इसियउं ।
जीयार रद्दुः संजाय31 ३.Gछित्सर्य; Kछत्तयं, corrects it toछित्तयं but scares out the correction and restores it to छत्तयं । ४. MB विजियं । ५. MBK किविणं । ६. MB फट्ट। ७. M चित्त
गोदले। ८. MRK हरिसियच्छरो । १. Gपुरुदेवव्रणयहि । २८. १. MB तहिं ण । २. M चरमदेहे । ३. धिर । ४. MB कुम्मरहु । ५. M भाह। ६. MB
महण्णवे छूटत । ७. M कायर ।
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२८.२९.३] हिन्दी अनुवाद
२१९ ऐसे अनुचर नहीं थे जो मारे न गये हों, ऐसे राजा नहीं थे जो विदीर्ण न हुए हों, ऐमा छत्र नहीं था जो छिन्न-भिन्न न हआ हो. ऐसा वाहन न था जो क्षत न हआ हो. ऐसा रथवर नहीं था जो भग्न न हमा हो, ऐसा विद्याधर नहीं था जो आकाशमें न गया हो। जब पक्षियोंके पंखोसे उड़ाया गया, मग्गणों ( मांगनेवाले याचक और तीरों ) के द्वारा कृपण की तरह तजित, फूटी हुई कंचुकी और फूटे हुए मर्दल ( मृदंग ), टूटे हुए कवच और खुले हुए बालोंवाला आघातोंसे घूमता हुआ, समूह छोड़ता हुआ, चक्रवर्सी पुत्रका सैन्य भाग खड़ा हुआ तब समरके लिए उत्सुक, अप्सराओंको हंसानेवाला, अपने भाईको हारपर ईर्ष्या धारण करता हुआ बाहुबलिदेवका पुत्र पीघ्र ही सोमवंशके तिलक ( जयकुमार ) के सम्मुख आया। भुजलिसे लगा हुआ, महाभुज राजा अनन्तसेन भी अपने अनुजके साथ आया दिव्य सैकड़ों लक्षणोंसे अंकित शरोरवाले पांच सो कुमारोंके साथ।
घसा--पुरुदेवके पुत्रके पुत्रोंने जब कुमार जयको सब तरफसे घेर लिया, तब अपने एक हजार भाइयों के साथ हेमांगद आकर बोचमें स्थित हो गया ||२७||
वहां एकके द्वारा एक न अस्त किया जाता, न काटा जाता, और न भेदन किया जाता, न एक दूसरेको मारा जाता, मानो जैसे लोभोके भवन में विह्वल समूह हो। वहां शस्त्र आते परन्तु निरर्थक चले जाते । जो चरम शरीरो होते हैं, वे युद्ध में नहीं मरते । मानो महामुनि ही युद्ध में स्थित हों। मेघस्वरका जलता हुआ सरजाल कुमार अकोतिके ऊपर आगकी तरह पड़ता है। आठ चन्द्रकुमारोंकी विद्याओंसे प्रतिस्खलित होकर, इस तीर समूहकी फल और पुंसके साथ पीठ तक नष्ट हो गयी। इस बीचमें असहायोंके सहायक विद्याधर राजाका मुख देखकर कुमार कहता है-"तुम धवल बैल हो, गरियाल बैल नहीं, हे मामा, अब तुम्हारा अवसर है। सुनमि, तुम मेरे वैरी जयको नष्ट कर दो।" तब उसने भो युद्ध में दुश्मनको ललकारा, "हे कान्ताके मोह समुद्र में डूबे हुए, हे मेघेश्वर ! तू मूर्ख है। तूने राजाके पुत्रके विरुद्ध तलवार क्यों खींची? हे द्रोही, तु गुरुओंकी विनयसे पतित हो गया । भाग मत, मेरे सामने आ। देखें, अपने तीखे तीर प्रेषित कर।" इसपर राजा जयकुमार हंसा कि ऐसा कहते हुए तुम आकाशसे क्यों नहीं गिर पड़े ?
पत्ता-परस्त्रोके प्रमुख कारक (करानेवाले ) तुम हो, अर्ककीर्ति स्वयं कर्ता है । मैं न्यायमें नियुक्त हूँ और इस धरतीतलपर अपने स्वामीके चरणोंका भक्त हूँ ॥२८॥
इस प्रकार कहकर उसने धनुषका मास्फालन किया। जैसे काननमें सिंह गरजा हो । मानो यमका नगाड़ा बजा हो । मानो विश्वको निगलने के लिए काल हंसा हो । सुरनर और
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२२०
महापुराण
शिक्षणविदुरविणास मत्थ लोहवंत किर के पड माण गुणवजय किर के rs मिट्ठुर चित्तविचित्त के ण फिर चलयर सुद्धिवंत नियदित्ति दिवा
रिहि देहावयव पट्टा कोडीसरु जिजा पवरामणु पत्ता- अहहहि विससिमाना पिहिले हगणु रुद्ध ॥ णारायहिं णायहिं णं मिलिषि सुणमिहि बलु खणि खद्धउ ||२९||
णं जलहरु जलहरु गइ सिवि
मुभी पंचागु
सुणमिं मुकु जरंतु हुयासजु सुमं मुकु सेकंद मंद सुमिं मुकु विसंकु महाफणि सुमं मुकु महंतु महीरुहू
घणुकडिय तेण सई हत्थे । किर के च भीसण । पिच्छंचिय किर के पण इयर | धम्मण्णेसिय केड ताविर | खज्जु के णमोक्खु संपता । एक ण जयसर अण्ण वि दिट्ठा । ताण दुग्ग लक्खु विणासणु ।
कुंजर जेरभावेण व भग्या संण संदाणि बालहिं तिक्वरुप छिप छत्तई दिसु पछाइसरजालै एम दिसाबलि संदिजंत सुर्णामि मुकु बाणु संधार कोइ ण का वि वेत्थु निहाल पत्तेत्युमग्गियअभणु बलुपीलीरसि बोलिड जावई दिणयर सरदी विचव दिप्पहु घातं तु महंतु विषासियत उज्जोइडं नियेसुहिमुहुं ॥ जगि सज्जनसंग जायपण कासु ण संपण्णवं सुई ||२०||
३०
तुरय तुरंतंतयपछि लग्गा 1 भणु केहि किर णिज्जंति रहिनहिं । विधई चामरा वाइतई | विजाहर हरेवि णियकालें । पेच्छिवि पियय सेण्णु भर्ज्जत ! किस तेण वरिपरिवारउ । airy हरणु को fir चालछ । साळसणयणु पमेल्लियर्जिणु । जाम अहद्द जिद्द संप्री | तावंतरि संठ मेहपहु ।
३१
धाता सुमि आसिषि । पण सरहु फुरियाणणु । मेण मेई जलव रिसणु । मेण सकुलिस पुरंदरु ! पण गरुडखगसिरमणि । पण तण दूसह ।
S
[ २८. २९.४
२९. १. M मम्मे णिसिय; Bषम्मे णिसिय । २. MB ण संताविर | ३०. १. MB जरतावेण नि भन्या । २. MB तुरंत त ५. MBK बंधारउ । ६. M परणु । ७ MB
पछि । ३. MB कि कहि । ४. MB छिण्ा । भणु । ८. MB संपावर । ९. B जियसहिमुहं
३१. १. MB जलहर ं । २ MB मूखिखि ३. K मुणमि तासु । ४. MBK मेहू । ५. M सुकंदद ।
६. MB महातः । ७. M षण्य; B राणूणच ।
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२८. ३१.६ ]
हिन्दी अनुवाद
२२१
नाग-समूहको डरानेवाला प्रत्यंचाका अत्यन्त भयंकर शब्द हुआ। निर्धन और विधुरोंके विनाशमें समर्थ उसने स्वयं अपने हाथसे धनुष चढ़ाया। कौन-से मग्गण ( मांगनेवाले, और मार्गण = तीर ) लोहवन्त ( लोभसे युक्त, लोहे से सहित) नहीं होते, धमुज्झिय ( डोटीसे रहित और धर्मसे रहित ) कौन नहीं भीषण होते ? गुण ( डोरी और दयादि गुण ) से वर्जित कौन नहीं निष्ठुर होते ? पिच्छाचित ( पंख और पुंखसे सहित ) कौन नहीं नभचर होते ? चित्तविचित्त ( चित्तसे विचित्त और चित्र-विचित्र ) कौन नहीं चंचलतर होते ? मर्मका अन्वेषण करनेवाले ( वम्मणेसिय) कौन सन्तापदायक नहीं होते ? बुद्धिसे युक्त अपने दीप्तिसे भास्वर और सीधे कौन ( तीर और मुनि ) नहीं मोक्षको प्राप्त होते ? शत्रुकी देहके अंगोंमें प्रविष्ट हुए एक जयके ही तोर नहीं थे बल्कि दूसरे भी कामको जीतनेवाले थे । श्वर (धनुष और काम ) हो जिनका प्रवर आसन है। उनके लिए अपना लक्ष्य और विनाश दुर्गम नहीं है ।
पत्ता - अत्यन्त लम्बे और विषसे विषम मुखवाले तीरोंने समस्त आकाशको अवरुद्ध कर लिया, मानो जैसे नामोंने मिलकर एक क्षण में सुनमिके बलको खा लिया हो ||२९||
३०
कुंजर ज्वर के भावसे भाग खड़े हुए, तुरंग ( घोड़े ) तुरन्त यमके मार्गसे जा लगे । स्यन्दन बरछयों क्षत-विक्षत हो गये, बताओ सारथियोंके द्वारा वे कहाँ ले जाये जायें । तीखे खुरपोंसे छत्र छिन्नभिन्न हो गये । चिह्न चामर और वादित्रोंने भी सरजालसे चारों दिशाओंको बाच्छादित कर दिया और अपने समय से विद्याधरोंका अपहरण कर लिया। इस प्रकार दिशाबलि दी जाती हुई और नष्ट होती हुई अपनी सेनाको देखकर सुतभिने अन्धकारका बाण छोड़ा, उसने शत्रु परिवारको ढक लिया। वहाँ कोई भी कुछ नहीं देखता, कोई भी वाहन और हथियारों को नहीं चलाता । यहाँ-वहां लोग सहारा मांगने लगे। नेत्र अलसाने लगे, जम्हाइयां छोड़ने लगे । जैसे सैन्य नीले रंगमें डुबा दी गयी हो। जबतक लोग अभद्र नींदको प्राप्त होते, तबतक इस बोचमें दिनकर तीरसे दशों दिशाओंके पथोंको आलोकित करता हुआ मेघप्रभ विद्याधर स्थित हो गया । धत्ता--वह सारा अन्धकार नष्ट हो गया, अपने सुधियोंके मुख आलोकित हो उठे । विश्वमें सज्जनका संग मिलनेपर किसे सुख नहीं होता ||३०||
३१
मानो जलघर जलधरकी गति दूषित कर चला गया । इससे सुनम क्रोधसे भरकर दौड़ा। सुनमिने भयानक सिंह तीर छोड़ा, मेघप्रभने स्फुरितानन श्वापद तीर छोड़ा, सुनमिने जलता हुआ अग्नि तीर छोड़ा, मेघप्रभने जल बरसानेवाला मेघ तीर छोड़ा। सुनमिने गुफा सहित पर्वत तीर छोड़ा, मेघप्रभने वज्रसहित इन्द्र तीर छोड़ा, सुनमिने विषांकित महासर्प तीर छोड़ा, मेघप्रभने खगशिरोमणि गरुड़ तीर छोड़ा, सुनमिने महान् महोबर तीर छोड़ा, मेषप्रभने दुःसह
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महापुराण
मेहपण सीड वाढाङ । तं तं मे विद्धंस | सक्सि विसह रिउहि सर कसह व मुहुं वकेपिणुं ॥ ओसरि सुणमि खयराहिवइ संगरभार मुरविणु ॥३१॥
सुणमिं मुकु मत्तसोंडाल जं जं सुमि मा पेस
यत्ता -
भग्गह सुणमीसरि सोडोरहिं मेहप्पड परेहिं परजिव दाणवारिपीणियमहुचरउलु कणकण किंकिणिकोलाहलु आयस बलयबद्धवं तुज्जलु पणित अक्ककित्ति लहु आवहि वंग कियत रायपुत्तत्तणु परणरणारिहि भडयणमारिहि तं पण णिभिय पणु उत्तर
तं
चंद बिज्जाहरवीरहिं ।
सो णासंतु ण सुरहं वि लज्जि । हयललग्गतुंगकुंभत्थलु । कॅरसिकार सित्तेवरणीयलु 1 हा जण संचोइवि मयगलु| अज्ज वि सुंदर काई चिराहि । मिडियट तिहुयणि दुज्जसकित्तणु । रतओ सि जं देबकुमारिधि । निय जारवित्ति पारंभिय । डिपि भावि पुसें ।
धत्ता--महु संणिहि आउ सुलोयणए अस्थि भवणि घडदासित || दर्ज लग्गजं तुह सुयल यही पुत्रमेव असासि ||३२||
जेण बलेण जित्तु घणमंडलु 'बलु पेक्खह वावहि अम्ह वैहाविउ आवतचिलायहिं तहि अवसरि सेंदूरकेणारुण अ अदेहिं आवाहिय पशु दंति जुवराएं ढोइन
अरिक रिवरेण ते दंतहि सरससमुच्छलत पलखंडहिं
[ २८.३१.७
३३
दोसि ससुर सग्गि आईडलु । अज्जु परिक्ख करेबी तुम्ह । तुहुं वि यप्प जुनहि सहुं रायहिं । जयवारणडु बिलगा वारण | कक्व रिक्खगेज्जावलिसोहिय । इंदं अराउ चोर | चिडियणच विल्लंतहि अंतहि । chistences[हं ।
घता - गय पाछिय सूडिय णं सिहरि धरणिबी आकंपि ॥ देवासुरहिं हि संठियहिं जय जय जयणिव जंपिड ||३३||
4. MR महत्व संपेस । ९. MB शंके विणु 1
३२. १. MB सुर्णामि समर । २. MB बद्धनंद ३. M वि । ४. G करि । ५ MB सित्तु । ६ MB थिरावहि ७ MB उत्तर ८. MRK बारोसिउ ।
३३. १. MB सिंदूर । २. MB अद्धदेहि । ३. MB अवराइज । ४ MB देवापुर ।
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२८. ३३.१० ]
हिन्दी अनुवाद
अग्नि तीर छोड़ा, सुनमिने मतवाला महागज तीर छोड़ा, मेघप्रभने दंष्ट्राओंवाला सिंह तीर छोड़ा। इस प्रकार, सुनम जो-जो तोर छोड़ता है, उस-उस तीरको मेघप्रभ ध्वस्त कर देता है । धत्ता - विद्याधर राजा सुनमि शत्रुके तीराका सह नहीं सका, और गरियाल बेलकी तरह अपना मुँह टेढ़ा करके संग्रामभारको छोड़कर हट गया ||३१||
३२
गजों और आठों चन्द्रकुमार विद्याधरोंके होते हुए भी सुनमीश्वरके भग्न होनेपर, मेघप्रभके अस्त्रोंसे पराजित और भागता हुआ वह देवोंसे भी लज्जित नहीं हुआ। जिसने मदरूपी जलसे मधुकर कुलको सन्तुष्ट किया है, जिसका कैवा कुम्भस्थल आकाशको छूता है, जिसमें ध्वनि करते हुए स्वर्ण घण्टियों का कोलाहल हो रहा है, जो सूंड़के सीत्कारोंसे धरणीतलको सींच रहा है, जिसके दोनों उज्ज्वल दांत लोह श्रृंखलाओंसे बंधे हुए हैं, ऐसे मदगल महागजको प्रेरित करते हुए जयकुमारने कहा - "हे मर्ककीति, तुम शीघ्र आओ । हे सुन्दर, तुम आज भी देर क्यों करते हो ? तुमने राजपुत्रत्व खूब अच्छी तरह निभाया, त्रिभुवन में अपयशका कीर्तन स्थापित कर दिया है कि जो तुम परस्त्री योद्धासमूहको मारनेवाली देवकुमारी में अनुरक्त हो ? इससे तुमने राजाकी आज्ञाको नष्ट कर दिया है। हे निर्दय, तुमने चार वृत्ति प्रारम्भ की है।" यह सुनकर भरत राजाके धूर्त पुत्र अकीर्तिने उत्तर दिया
वत्ता----"तुम मेरे समीप आओ। सुलोचना जैसी मेरे घरमें घटदासी हैं। पूर्वसे ही आश्वस्त मैं तो तुम्हारे बाहुबल के मदके पीछे लगा हुआ हूँ ||३२||
३३
जिस बलसे तुमने मेघमण्डल जीता है और देवों सहित स्वर्ग में इन्द्रको सन्तुष्ट किया है वह बल तुम हमें बताओ हम देखेंगे। आज तुम्हारो परीक्षा करेंगे। अभी तुम आवर्त और किरातोंके साथ लड़े हो, तुम बेचारे राजाओंके साथ भी युद्ध करते हो !" ठीक इस अवसरपर सिन्दूरकणोंसे अरुण उसके गज जयकुमारके गजसे आकर भिड़ गये। वे माठोंके आठ चन्द्र विद्याधर कुमारोंसे प्रेरित थे और कक्षरिक्ख ( करधनी) और वस्त्रों से शोभित थे। युवराज जयकुमार ने भी एक हाथी आगे बढ़ाया, मानो इन्द्रने ऐरावत चलाया हो । शत्रुके श्रेष्ठ गजसे आहत वे गज दांतों, गिरती हुई नयी झूलतो बांतों, सरस उछलते हुए मांसखण्डों, दो टुकड़े होती हुई दृढ़ सूँड़ों
घता - के साथ गिर पड़े और नष्ट हो गये। मानो पहाड़ ही धरतोपर आ पड़ा हो । आकाश में स्थित देवोंने 'हे नृप, जय जय जय' कहा ||३३||
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महापुराण
[२८. ३४.१
एत्तहि रणु कयसूरत्थवण एत्तहि जायउं सूरत्थवण। पत्तहि वीरहं वियलिट लोहिल एत्तहि जगु संसारइसोहिछ । पत्तहि कालउ गयमयषिभमु एत्तहि पसरइ मंदु वमीतमु । एनहि करिमोत्तियई विहत्तई एत्तहि उग्गमियई णक्खत्तई । एत्तहि जयणरचरजसु धवलर एतहि घाव ससियरमेलउ । एत्तहि जोहषिमुबाई चकई एसहि विरहें रडियई चकाई । कवगु णिसागमु किं फिर तहिं रणु एउण बुझाइ जुझाइ भडयणु । ता चप्पिवि मंतिहि ओसारिस रणिहि जुज्झमाणु विणिवारि । तुमुलरंगें णिरु रोसाउण्णइं तेत्थु जि वसियई बेणि वि सेण्णई। घत्ता-रत्तिहिं रणरंगि भवंतियए गरवइकजि समत्त ।।
घरिणिइ पिड सहियाहि दावियत सरसयणयलि पसुचड ॥३४॥
का वि भणइ ईसावसरुट्ठी खग्गधार पियहियइ पइट्ठी। तक्कयरत्तहह कि नमामि इयविहि प्राणहिं काई ण मुश्चमि । का वि भणइ ज मैई पडिवण्ण पिय तं हियउ सिवहि किं दिण्णउं । जं मई चिरु दंतम्गादि संहिउँ अहरैविंचु तं पविखणिखंडिउ । का वि भणइ पिय कर मा ढोयहि ओसर कावालिय किं जायहि । पट्टालंकियसीसहु लक्खणु
मं छुडु तुई णिग्धिण दुवियखणु । जो मइ चप्पिड आसि थांतहिं सो रुद्ध उह करिवरदंतहि । पर्णयसणिद्धई पणइणिजाणई का वि सणाहु खंडइ वीणइं। का वि भणइ जाणवि सणुथाणुहि आणिय पासि परेहिं णिहाणुहि । गाहें अंतणिबंधणु दिण्णउं असिधेणुयइ सासु'लइ चिण्णर्ड । को वि दुषासखुत्तरिउचकट उप्परि रहहु महारहु थक्का। केण वि संचिय णिवरिणहारी रयणकोडि मायंगहु केरी। लइय भिडेप्पिणु दोहिं वि हत्यहि भणु किं ण कियख परथु समत्यहिं । पत्ता-रिउ मारिवि पच्छद वसमिषि मेल्लिवि ससा सरासणु ॥
गयवरसंथारह को वि मुउ करिवि वीरं संणासणु ।।३।।
३४. १. MB संझारुणु सोहिउ । २. MB रोसाइण्णई । ३५. १, MB कि उच्चमि । २. MB पाहि । ३. M मुहु; । मह । ४. K पट्टि । ५. MB अहरबिलु
पक्विणिहि बिडिउ । ६. MBK जोयहि । ७ र पिरिघ । ८. MB रुदउ अरिवरकरिदंतहिं । ९. ME समिद्धई । १.. MB आणई । ११. T णिभागृहे । १२, MB मज्ज णिबंधणु । १३. MB सीसु ला चिण्णउं । १४. MB घोरसंगासणु ।
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२८. ३५.१५]
हिन्दी अमुवाव
२२५
यहाँ रण शूरोंको अस्त कर रहा था और यहाँ सूर्यास्त हो गया। यहाँ वोरोंका खून बह गया और यहाँ विश्व सन्ध्याकी लालिमासे शोभित था। यहां काल मद और विभ्रमसे रहित हो गया था और यहाँ धीरे-धीरे रात्रिका अन्धकार फैल रहा था । यहाँ गजमोती बिखरे हुए पड़े थे
और यह िनक्षत्र उदित हो रहो, यहाँ जय राजको यस चा हो रहा था और यहां चन्द्रमाका किरणसमूह दौड़ रहा था। यहाँ योद्धाओंके द्वारा चक्र छोड़े जा रहे थे और यहाँ विरहमें चक्रवाक पक्षी विलाप कर रहे थे, इनमें कौन निशागम है और कौन सैनिकोंका युद्ध है ? मटजन यह नहीं समझते और आपसमें युद्ध करते हैं। तब उन्हें चांपते हुए मन्त्रियोंने हटाया और रात्रिमें युद्ध करते हुए उन्हें मना किया। युद्धके रंगमें रोषसे भरे हुए दोनों सैन्य वहीं ठहर गये।
पत्ता-युद्धके मैदानमें राजाके काममें मत्युको प्राप्त हुए, तथा तीरोंके शयनतलपर सोते हुए प्रियको, रात्रिमें सहेलियोंने भावी पत्नीको दिखाया ।।३४॥
३५
ईष्या कारण रूठी हुई कोई बोली-"तलवारकी धार प्रियके हृदयमें प्रवेश कर गयो, जो उसमें अनुरक है, उसे मैं कैसे अच्छी लग सकती हूँ ? हतभाग्य में प्राणोंसे मुक्त क्यों नहीं होती ?" कोई कहती है-“हे प्रिय, जो मैंने स्वीकार किया था वह हृदय तुमने सियारिनको क्यों दे दिया? जिसे मैंने पहले अपने दांतोंके अग्रभागसे काटा था वह ( अब ) पक्षिणीसे खण्डित है।" कोई कहती है-'हे प्रिय, हाय मत बढ़ाओ। हे कापालिक, तसे अलंकृत शिरके लक्षण क्या देखते हो, तुम मेरे लिए निर्दय और दुर्विदग्ध हो । जिसे मैंने स्तनोंसे चांपा था वह उर गजवरोंके दांतों धारा अवरुद्ध है।" कोई प्रणयसे स्निग्ध प्रगचिनीके लिए यान स्वरूप ? अपने प्रियको वीणाओंको खण्डित कर देती है। कोई कहती है कि शरीररूपो स्तम्भ समझकर, वह शत्रुओंके द्वारा नुपश्रेष्ठके पास ले जाया गया। स्वामीने उसे आंतोंसे बांध दिया और कटारीसे सिर काट लिया। जिसने अपने कठिन पाशसे शत्रुचक्रकी निमग्न कर लिया है ऐसा कोई मेरे रपके ऊपर स्थित है। किसीने राजाके ऋमको दूर करनेवालो हाथीको रलावली अपने दोनों हाथोंसे ले लो, बताओ समोंके द्वारा यहाँ क्या नहीं किया जाता ?
पत्ता-शत्रुको मारकर, फिर बादमें शान्त होकर और सर (तोर) सहित धनुष (शरासन ) छोड़कर कोई गजवरको तृणवाय्यापर मरकर संन्यास ग्रहण कर लेता है ।।३।।
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२२६
महापुराण
[ २८. ३६.१ २६ पुणु जामिणीगमणि दिणमणिसमुमामणि ।
कयजयविमहाई। जममुहरहाई हेरियंदणहाई। गजियमयंगाई हिंसियतुरंगाई। वाहियरहोहाई
संणद्धजोहाई। घलवलियचिंधाई धूलीरयंधाई। किलिगिलियणिसियरई जिगिजिगियअसिवरई। कपियर्धरग्गाई
सेषणाई लगाई। ता संदणस्थस्स
आहवसमत्थस्स। परसिर लुणंतस्स करि हरि हर्णवरस । विवियदणुयस्स लच्छिमातणुयस्स। परिचत्तसंकेहि
वसुसमससंकेहिं । उम्भूयगावेण
विजापहादेण । परपाणपहरणई छिपणाई पहरणई कोताई कंपणई
मुसलाई घणघणई। चावाई चकाई
चूरेवि मुकाई। ता गलियसत्येण चित्तें महत्थेण। जयणामराएण
इच्छियसहारण । जियसरयमेहम्मि जो आसि गेहम्मि । सिद्धो ससाणेण धैरोण वीरेण । अहिराज संभरि सो झत्ति अवयरिउ । फणिवासु रणिण तिब्बु अर्द्धदुसरु दिनु । ढोएवि स्वणि तासु गच णाइणीवाम् । ता विजयवंतेण ससिभासपुतण । जाला मुयंतेण
जालियदियंतेण। इयव
अदिविण्णबाण | कूधरधुरासहि
णिहिवि रेणि रहिय । दरमलियधयसंडि णश्चवियरि उडि । परिभमियगिद्धसलि पइसरिवि भइतुमुलि। अह दि विहू तेण बद्धा सुरतेण । कुरारितासेण
"दढणायवासेण। धरिओ रुसारुण चकवइपिउ तण। ३६. १. M हरियब । २. MB महंगाई । ३, MB किलिफिलियं । ४. MB घयग्गाई। ५. MBK
परियत्त । ६. B ormits this foot, ७. MB कप्पणई । ८. MB चिंतियमहत्येण । ९. MB धीरेण घोण; G घम्मेण वीरेण । १०. B अहदिग्ण । २. MB रहरहिय । १२. परंसहि । १३. M रिउखंडि । १४, MB णायपासेण । १५. MB°पिय ।
१४
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२८, ३६.३२]
हिन्दी अनुवाद
फिर रात्रिके जाने और सूर्योदय होनेपर जयके लिए संघर्ष करनेवाले नगाड़ोंके शब्द होने लगे। यममुखकी तरह रोद्र, हरिचन्दनसे आई गरजते हुए हाथी, हिनहिनाते हुए अश्व, हकि जाते हुए रथ-समूह, सन्नद्ध योद्धा, हिलती हुई पताकाएं, चमकती हुई तलवारें। धरतीके अग्रभागको कपाती हुई सेनाएं भिड़ गयीं। तब युद्ध में समर्थ एक और रथपर बैठे हुए, मनुष्योंके सिर काटते हुए, हाथी-घोड़ोंको मारते हुए, दानवोंको ध्वस्त करते हुए लक्ष्मीवतोके पुत्र जयकुमारके दूसरोंके प्रागोंका अपहरण करनेवाले, प्रहरणोंकी, शंकासे रहित आठ चन्द्र विद्याधरोंने, उत्पन्न है गर्व जिसे, ऐसो विद्याके प्रभावसे छिन्न-भिन्न कर दिया । कौन-कम्पण-धनएन-मसल-चाप और . चकोंको चूर-चूर करके छोड़ दिया। शस्त्रोंके नष्ट हो जानेपर चित्तमें समर्थ, सहायताको इच्छा रखनेवाले पुण्यवान्, धन्य और वीर जयकुमार राजाने शरमेघोंको जीतनेवाले घरमें जिसे सिद्ध किया था, उस नागराजका स्मरण किया। वह शीघ्र अवतरित हुआ। वह नागपाश और युद्धमें तीव्र दिव्य अर्धेन्दु उसे देकर एक क्षण नागिनीलोक चला गया। तब विजयशील सोमप्रमके पुत्रने ज्वालाएं छोड़ते हुए दिशाओंको जलानेवाले अग्निके समान, नागके द्वारा दिये गये बाणसे रथके मुखभाग और घुरा सहित सारथियोंको जलाकर, जिसमें ध्वजसमूह ध्वस्त है, शत्रुओंके घर नाच रहे हैं, गृद्धकुल परिभ्रमण कर रहा है, ऐसे भटयुद्ध में प्रवेश कर उसने आठों ही चन्द्रमाओंको तुरन्त बाँध लिया, कर शत्रुओंको सन्त्रस्त करनेवाले नागपायासे । क्रोषसे जाल चक्रवर्तीक प्रिय पुत्रको पकड़ लिया।
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२२८
[२८, ३६.१३
महापुराण घत्ता–जिणु तायताउ पिउ रायबइ तो वि णिबंधणु पत्तः ।।
उई माइ कुमार गराहिवेण दुक्कियफलु किह भुत्तर ॥३६।।
एम्व चयंतिहिं सुरवरगणियहिं वणिउं जयसाहसु घणथणियहिं । घलिउ कुसुमपयर सुरणियरें गाइई णं रुणुरुणिएं भमरें। अयविलासु जयरायहु केरल दइवह तणलं चाम विवरैरत। रहणिहियउ कुमार विच्छायच करकलियंकुसचोइयणाय उ । जलहरसह पइट्छु ससुरयचरि विजयाणंदु पैयदि उ पुरवरि । तक्खणि सामादि प्राकृतिक जिला महामद भत्तिइ । जम्मावासपासेविवरंमुद्ध वंदिड अरुह तिजगपुजारह। मिलियणरिदहिं मउलियपाणिहिं। मुहकुहम्गयसुललियवाणिहिं । बहुमिच्छत्तबीयउप्पण्णउ मोहविसालमूलु विस्थिपणउ । चटगइसंधु सुहासासाहट पुत्तकलत्तलुलियपारोह। गहियमुकबहुविहतणुपत्तर पुण्णपावकुसुमेहिं णिउत्तर । सोरखदुक्खफलसिरिसंपण्णउ इंदियपक्खिउलहिं पडिवष्णउ । अत्ता-इय भरतरु माणहयासणेण पई दडूढत परमेसर ॥
जिण जम्मि जम्मि महुं तुहु सरणु जय जय जियवम्मीसर ॥३७||
३८
अककितिदुज्जयजयरायह मह कारणि उच्चाइयघाय। एयहुं मरइ मज्झि जइ पकु वि पच्छइ इच्छा जइ मई सकु वि । तो वि णिवित्ति मझु आहारा लकिछहि कुच्छियकुणिमसरीरहु । इय चितंति पुत्ति संभाषिय लंबियकर ताएं बोलाविय। तुह सह सामर्थ असमंजस रणि उज्वरिय महीस महाजस । हुई संति हो किं झायहि सुंदरि करपाव चायहि । जणणययणु णिमुणेवि कुमारिइ णियमु विसरिजउ कामकिसोरिइ। सिरिणाहहु सिरि व आवगी जयरायड करपंकह लग्गी । जाइवि पासि कुमार गेहें। माहिणिहित्तदंडासणदेखें। जउ साफ पुणु पायहि पद्वियउ भासंह सामिभतिभरणमियउ । अम्हई गर तुई परपरमेसक अम्हई पक्खि देव तुहूं सुरतरु । अम्हइं णलिणायर तुहुं दिया अम्हई कुवलयसर तुई ससहरु ।
अणुपालियहं काई रूसिग्जइ अभयपदाणु समिरचहं दिग्जद । १६. M चकवह । १७. B एबमाइ । १८. K कुमार । ३७. १. MRणाइउ । २. MB पट्टिच । ३. K"मूल । ४. MB जय णिज्जियवम्मेसर । ३८. १. MB अइ मई इच्छ । २. MB संधि । ३. MB सानपणु; K सांकंपणु ?। ४. MP भावइ ।
५. M भत्तिभरणरियड; दत्तिभरगडियउ ।
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२२९
२८. १८.५३]
हिन्दो अनुवाद ___ पत्ता-जिसके पितामह जिन थे, और पिता राजाओंका स्वामी, तो भी वह बन्धनको प्राप्त हुआ । हे माँ ! देखो, कुमार राजाने अपने दुष्कृतका फल किस प्रकार भोगा ? ॥३६||
Here :..चाही समसार हार
इस प्रकार कहते हुए घनस्तोंवाली सुरवनिताओंने जयकुमारके साहसको प्रशंसा की । देवसमूहने पुष्पोंको वर्षा की । रुनरुन करते हुए भ्रमरोंने गान किया। जयकुमारका विलास और देवकी चेष्टा विपरीत होती है। रघमें बैठकर कान्तिवान्, हाथको अंगुलियोंके अंकुशसे गजको प्रेरित करता हुआ मेघस्वर (जयकुमार ) अपने मसुरके घरमें प्रविष्ट हुआ। पुरबरमें विजयका आनन्द बढ़ गया। सभी लोग उसी समय परभवको तुप्तिसे युक्त परमक्तिसे जिनभवन गये। जन्म और आवासके बन्धनोंसे मुक्त, त्रिलोककी पूजाके योग्य अहंन्तको सभी राजाओंने मिलकर अपने हाथ जोड़कर मुखरूपी कुहरसे निकलती हुई सुन्दर वाणीसे वन्दना की-"बहुमिथ्यात्वके बीजसे उत्पन्न यह विशाल मोहरूपी जडयाला, (संसाररूपी वृक्ष) विस्तीर्ण, चार गतियों के स्कन्धोंबाला, सुखकी आशाओंको शाखाओंवाला, पूत्र-कलत्रोंके सुन्दर प्रारोहोंसे सहित, बहुत प्रकारके शरीररूपी पत्तोंको छोड़ने और ग्रहण करनेवाला, पुण्य-पापरूपी कुसुमोंसे नियोजित, सुख-दुःखरूपी फलोंकी श्रोसे सम्पूर्ण, इन्द्रियरूपी पक्षिकुलोंके द्वारा आश्रित ।
पत्ता-इस प्रकारके संसाररूपी वृक्षको आपने ध्यानरूपी अग्निके द्वारा भस्म कर दिया है ऐसे हे जिन, जन्म-जन्म में तुम मेरी शरण ही, कामदेवको जीतनेवाले आपकी जय हो" ||३||
३८ 'मेरे कारण आघात करनेवाले अकीति और दुर्जेय जयकुमार इन दोनोंमें से यदि एक भी मरता है, और उसके बाद यदि इन्द्र भी मुझे चाहता है तो भी मेरी आहार, लक्ष्मी और कुत्सित कुणिम शरीरसे निवृत्ति ।' इस प्रकार सोचती हुई, कायोत्सर्गमें स्थित पुत्रीको पिताने पुकारा, "हे सती, तुम्हारो सामर्थ्यसे क्रोधसे भरे हुए दोनों महायशस्वी राजा युद्धसे बच गये। शान्ति हो गयी। अब तुम क्या ध्यान करती हो, हे सुन्दरी! करपल्लव ऊंचा करो।" अपने पिताके वचन सुनकर कुमारी कामकिशोरी ने अपना विनय समाप्त कर दिया। वह जयकुमारके हाथसे उसी प्रकार जा लगी, जिस प्रकार विष्णुसे श्री जा लगती है । कुमारके पास स्नेहसे जाकर और धरतीपर दण्डासनसे देहको धारण करते हुए, पेरोंपर पड़ते हुए स्वामीकी भकिसे भरकर अकम्पन कहता है, "हम लोग मनुष्य है, आप परमेश्वर हैं । हम लोग पक्षी हैं, आप कल्पवृक्ष हैं। हम लोग कमलोंके आकर हैं, आप दिवाकर है। हम कुमुदोंके सरोवर हैं, आप चन्द्रमा हैं। अपने अनुपालितोंसे क्या रूठना, अपने भृत्योंको अभयदान दीजिए।"
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१५
२३०
धत्ता - इय वर्यहिं सो भरइंग लच्छ्रीमइबहिणि सुलोचण
६. MB वयणें ।
महापुराण
मच्छरु माणु मुयावि || पुप्फयंतु परिणाविरु || ३६ ||
इस महापुराणे तिसट्टिमाहापुरसगुणालंकारे महाकपुष्यंतविरहए महामण्वभरहाणुमणिर महाकवे सुकोपणास मंच रविवाहो णाम अट्ठावीसमो परिच्छेओ समतो ॥ २८ ॥
संधि ।। २४ ।।
...
[ २८. १८. १४
आचार्य श्री गिरजी म
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२८. ३८. १९] हिन्दी अनुवाद
२३१ घसा-इन शब्दोंके द्वारा उसने भरतके पुत्र अकीतिका मत्सर और मान दूर कर दिया तथा सुलोचनाको बहन लक्ष्मीवतीसे उसका विवाह कर दिया।
इस प्रकार प्रेमठ महापुरुषों के गुणाकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा शिरचित एवं महामग्य भरत बारा अमुमत इस काम्बका मुलोचना स्वयंवर
वर्णन नामका बहाईसवाँ भन्याव समास हुभा ॥१४॥
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री अविहिासागरजी महाराज
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संधि २९
जे नद्धा मंगरि 'बद्धा ते णिव मेझिवि पुज्जिय।। विय क्यणहि वत्थाहरणहं णियणियपुरहं विसज्जिय ॥ ध्रुवर्क ॥
किह हउँ संपत्तउ बंधणार जा सोयइ अप्पड णिवकुमारु । ता पमणि तेणाकंपणेण जिणचरणलीणणिच्चलमण | तुई वद्ध णिव वंसि चिंधु तुहुं बद्धउ णं सुयणोहबंधु । तुहूं बद्धलणं मायंगदंतु तुहूं बद्धरण संरहलु महंतु । तुहूं बद्धरणं सासेण बीष्ठ तुहूं बद्धन णं पुण्णेण जीउ । तुडं बद्धल णं सिरिमणिविलासु तुई बद्धम णं सुकहाविसेसु । हेलइ जएण जयराइएण
तुहं बद्धरण रसवाइएण | इयरह कि अम्हह सहलु होसि अण्णाएं दूसिव खयहु जासि । इय भणिवि तेण कयदेहदिति णियपुरहु विसज्जिर अक्ककित्ति। पत्ता-धरु जाइवि लज्ज पमाइवि सिरु पयजुयलइ ढोइज ।।
ते भरहहु अरिहरिसरहहु कह व कह व मुहूं जोइ ।।१।।
लजंतु वि ताएं सो परन्तु वर गत्तम गन्मुमा होउ पुस्तु । वमाणेसु रमइ खलवयंशु सुणइ अविवेयभाउ सयमाई हणम् ।
जो पहउ सो वर कहि वि जाउ मा करउ पयहि परिय॑णहु ताउ । MB give, at the coinine.cement of this Sandhi, thu following stanza :
णा इन्दमरिन्दरिन्दवन्दिया जणियजणमणाणन्दा । सिरिकुमुभदसणकइमुहणिवासिणो जयह वाईसी ॥१॥ तन्त्रोचावरनिन्धवरकविरचितगंधपधरने कः कान्तं कृन्दावदातं दिशि दिशि च यशो पस्य मीतं सुरोधः । काले तष्णाकराले कलिमलमलितेऽप्यद्य विद्याग्रियो यः
मोऽयं संसारसारः प्रियसखि भरतो भाति भूमण्डलेऽस्मिन् ।।२।। GK do not give the stanzas here but at the commencement of Samdhi
XXX. See note: on Samdhi XXX, १. १. B बुद्ध।। २. MB पुरहु । ३. MB मुहिणेहबंधु । ४. M सरयण्णु; Br सरयल । ५. MBK
रसुवाइएण। ६. MB बस । ७, M विसज्जिय। ८. MB ढोश्यउ। ९. MB जोइप । २. १. MB वरु । २. MB°क्यण । ३. M किर । ४. G परिणयहु ।
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सन्धि
२९
जो युद्ध में अवरुद्ध थे और बांध लिये गये थे उन राजाओंको मुक्त कर उनका प्रिय वचनों और वस्त्राभरणोंसे सम्मान किया गया और उन्हें अपने-अपने घरके लिए विसर्जित किया गया।
जब कुमार अकीति यह सोचता है कि मैं बन्धनको प्राप्त क्यों हुआ? तब जिनचरणमें लीन और निश्चल मनवाला राजा अकम्पन कहता है:-"तुम बांधे गये मानो राजवंशमें पताका बंध गयी, तुम बाँधे गये मानो स्वजन समूह बंध गया, तुम बांधे गये मानो गजदन्त बांध दिया गया, तुम बांधे गये मानो तोरका महान् फलक बांध दिया गया, तुम बांधे गये मानो धान्यसे बोज बंध गया, तुम बांधे गये मानो पुण्यसे जीव बंध गया, तुम बांधे गये मानो सिरपर मणिबिलास बांध दिया गया, तुम बांध दिये गये मानो सुकथा विशेष निबद्ध कर दी गयो । खेलखेलमें जय और जयराजाने तुम्हें बांध लिया मानो रसवदीने (धातुवादीने ) रसको बांध लिया हो। दूसरोंको बात छोड़िए, हम लोगोंके लिए तुम सफल होगे। अन्यायसे दूषित व्यक्ति क्षयको प्राप्त होता है।" इस प्रकार कहकर उसके शरीरकी दीप्ति बढ़ाकर अर्ककोतिको अपने घरके लिए विसर्जित किया।
धत्ता-घर जाकर लज्जा छोड़कर उसने अपना सिर ( पिताके) चरणयुगलपर रख दिया तथा शत्रुरूपी सिंहके लिए श्वापदके समान भरतका मुख किसी प्रकार बड़ी कठिनाईसे देखा ॥शा
___ लज्जित होते हुए भी पिताने उससे कहा कि “गर्भ गिर जाना अच्छा परन्तु ऐसा पुत्र न हो कि जो व्यसनोंमें रमता है, दुष्टोंके वचन सुनता है, अविवेकशील होता है और स्वजनोंको
२-३०
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२३४
महापुराण मह चरपुरिसहि दुईनदुरिउ एयह केरठ बजरिव परि। होगण सुदुण्णयगारएण ता चितित तेण कुमारपण | गुरुको सिमु जाति मरगु गुरुको जैगि सिज्झइ तियरगुः । गुरुको को विप खयह जाइ गुरुको संपय घरह पह। गुरुवयणई कडुयई जाई जाई परिणामि सुपत्थई ताई ताई। लगाईण मुसमिति मानिस परिहउ तिम धुन मरणु ताई। लइ विजमि हउंदितु एत्थु लंघियउ जेण गुरुसुयपयत्यु । पत्ता-जयवंते सुप्पहकते तो पेसिउ गुणवंत ॥
आवेपिणु पहु पणवेष्पिणु पमण सुमइमहंतः ।।२।।
१.
भो देव कसणसियत बिराई लइ रयणई लइ पवरबराई। किं तु णव णिहिवइ पाहुडेण
किं किर जहिहि पाणियघडेण | लइ भत्तितो वि णियकिंकराई तुह पायपोमलालियसिराई। जयविजयाकंपणपस्थिवाह विण्णविन णिसुणि णिव अवणियाहं. पछिलल जि दोसु दोहरमुयासु जं दिण्णी सुय ण तुह सुयासु । बीयत जं कोकिन बरणिहाउ दावियज सयंवरविहिणिओउँ । तइयत्र ज ज मिक्खित माल रइलालस लग्गी तासुधाल । परपरिणि हरंतह रोमणडिय चोत्थन तुह् तणयहु समरि भिडिय। पंचमन दोसु वद्धप कुमार णिउ णियणयरहु रणरंगवीरु । उग्र दोहा दोसपरंपराई जंण वि मुचहुं अज्ज वि घराई। तं देव पइट्ठा तुझु सरगु
कि दंदु एत्थु सम्बस्सहरणु । किं मारणु कि भणु कि किसु तं णिसुणिवि जंपइ मेइणीसु । हो हर परिवजमि कासिराउ पसिया ताइ महु सो जिताउ । जई पुणे महु दाहिणु बाहुदंडु जं सो तं चक्षु ण वर्जु दंड । स्वयरइ अप्प संगाभकालि पल्ललियगिद्धखद्धतमालि । पत्ता-बलगव रोसें तिवें जो जणवर संघट्टइ ।।
सुरु दंडवि सो सई खंडवि जो उपहिण पयट्टए ॥३॥
इय कहिदि टेण पवित्र मंति उसो घोसइ णियपहहि मंति। परवइ मण्णव पई पिलाममाणु जय विजय वे चि रिउत्तिमिरमान । मह अवर चिणि मुयदंड भणइ तुम्हारउ माणुसु सुटठु गाइ । ५. B जाएण । ६. K सदुग्णय । ७. धुवु मिना । ३. १. ME *णिहाउ । २. रणरंगधीर । ३. MB सणुकिलेम् । ४. 3 जम् । ५. MBA
६. MBK बग्जदंडु। ७. M उवरइ ।। ४. १. G माणु सुट्ट।
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२९.४.३] हिन्दी अनुवाद
२३५ मारता है जो ऐसा है वह कहीं भी चला जाये । यह अच्छा है, वह प्रजा और परिजनोंको ताप न दे, मेरे चरपुरुषोंने इसका दुर्दान्त पापमय चरित मुझसे कहा है ।" अत्यन्त दुर्मयकारक होते हुए उस कुमारने अपने मन में विचार किया कि पिताके कोपसे बच्चे मार्ग जानते हैं, पिताके कोपसे विश्वमें त्रिवर्ग सिद्ध होता है। पिताके कोपसे कोई भी क्षयको प्राप्त नहीं होता। पिशाके कोपसे सम्पत्ति घर आती है। पिताके वचन जितने-जितने कड़ ए होते हैं वे परिणाममें उतने ही उत्तने प्रशस्त होते हैं। ये वचन जिसके कर्णकुहरोंमें नहीं जाते उनका जैसा पराभव होता है वैसा ही निश्चयसे मरण होता है। लो, मैं स्वयं दृष्टान्त रूपमें उपस्थित हूँ कि जिसने पितासे सुने पदार्थका उल्लंघन किया।
पत्ता-जयशील सुप्रभाके पति काशीराज अकम्पनके द्वारा प्रेषित गुणवान मन्त्री सुमति आकर और प्रणाम कर राजासे कहता है ।।२।।
"हे देव, कृष्ण-धवल और लाल रत्न तथा प्रवर वस्त्र ग्रहण करें । हे नवनिधियोंके स्वामी तुम्हें उपहारोंसे क्या ? जलके धड़ोंसे समुद्रको क्या करना ? तो भी भक्तिसे तुम्हारे चरणकमलोंमें अपना सिर रखनेवाले, अपने ही अनुचर जय-विजय और अझम्पनादि राजाओंने जो निवेदन किया है, उसे हे देव, सुनिए । उनका पहला दोष तो यह है कि दोधेबाहुवाले तुम्हारे पुत्रको अपनी ११ कन्या नहीं दी, दूसरा दोष यह है कि वरसमूहको आमन्त्रित किया और स्वयंवर विधि नियोगका प्रदर्शन किया, तीसरा दोष है कि प्रेमकी इच्छा रखनेवाली बाला उससे ( जयकुमारसे) लग गयी और उसके गले में माला डाल दो। चौथा दोष यह है कि परस्त्रीका अपहरण करते हुए तुम्हारे पुरसे युद्ध में लड़ा। पांचवा दोष यह है कि कुमारको बांध लिया और युद्ध रंगमंचके उस वीरको अपने नगर ले आया। यह मुझ द्रोहीकी दोष-परम्परा है कि जिससे मैं आज भी घर नहीं छोड़ता। हे देव, अब मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ, क्या इसका दण्ड सर्वस्व अपहरण है ? क्या मृत्यु, बताइए क्या दण्ड है ?" यह सुनकर राजा भरत उत्तर देता है-“हे काशोराज, मैं कहता हूँ कि पिताकेऋषभनाथके संन्यास ले लेनेपर वही मेरे पिता हैं। जयकुमार मेरा दायां बाहुदण्ड है और जयकुमार बायाँ बाहुदण्ड है। वह जो है वह न चक्र है और न वज्रदण्ड है। जिसमें झपटते हुए गोधोंके द्वारा आंतोंकी माला खायी जा रही है ऐसे युद्ध के समय जो उपकार करता है ।
पत्ता-जो बल घमण्ड और तीन क्रोधसं जनपदको पीड़ित करता है और जो खोटे मार्गसे जाता है ऐसे पुत्रको मैं खण्डित और दण्डित करता हूँ" ॥३॥
यह कहकर भरतने मन्त्रीको भेज दिया। वह गया। वह अपने स्वामोसे शान्ति पोषित करता है कि राजा तुम्हें पिलाके समान मानता है और जो जय-विजय दोनों शत्रुरूपी अन्धकार
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२३६
[ २९.४.४
महापुराण रूसह सदोसि गुणवंति महइ को भरहहु फेरी लील पह।। चंगउ किउँ पुतह दप्पसाडु जं फण्ण देवि विरझ्यत चाडु। तं मझुणिरारिउ वह अंगु गउ किग्ज खलि संभाणसंगु । ता जयपण हरिसियसुधाम कुरुवंसणाह वंसाहिराम । घरणिहियमतिअप्पाहिएण दुज्जयषिलायसपाहिएण। अणवरयणवियजिणवरपएण अणुहुंजियणरवासंपएण। अण्णहि दिणि आणं दियजएण आसक्छि णियससुरउ जएण । पत्ता- प्रोहिहि निरनिटिकि मशिद कि विश्व सङ् ॥
अविणन्में तो वि सम्में जीउ णियदिवि णिजाइ ॥४॥
को विसहइ सुहिविच्छोयसाउ परियाणषि कजेवियप्पभाउ । उन्मुक्कु सुयावर ससुरऐण ते जंत हरिखुरखयरएण। गहु पिहिव गिल्ल महि करिमण चलवलित स्वलित षयवड धएण । कय जलहिवलय चलवलियणीर थिए विसहर भरेभयदलिय धीर। उट्रिय गहीर भेरीणिणाय
आकंपिय कणिवास णाय । गच्छंतु संतु सो समियसत्तु दियहहिं गंगाणइटीर पत्तु । णियणियदसावासहिं सचण्ण हेमंगयाइ सयल वि णिसपण। पडकुरिहि महामह सुरसमाणु थिउ राणष गंग पलोयमाणु । पत्ता-सविहंगहि दिहई गंगहि छणससिरविपतिबिंबई ।।
णं वेल्लिहि अमरसुद्देलिहि कुसुमई पंदुरबई ||५||
आमेल्लिवि खंधावार तेत्यु कावयभडेहिं सह महिमहत्थु । साकेया जाइषि भुषणसारि थिउ पंजालियरु गरवादुवारि । पडिहारें पइसारिउ खट्टि विष्पविउ णवेप्पिणु पक्कपट्टि । विसहरणरखेयरविडियसेव जउ पणवह एत्तहि पेक्खु देव । ता दिण्ण दिहि गाहें विसाल ससिवियसिय णं कदोहमाल । पसरंतपणयरससायरेण
मुहं जोइवि सई परमेसरेण । णं कलियइ हमहीमहासु अंगुलियइ दाविस पीढ तासु । उपविदछु तु? संमाणु कियस पोरिसु परमुण्णई सेहहि णियउ ।
ण जलणड पासिर अवरु उगह परमाणुयाउ णम अवरु सह। २. MB रमह । ३. MB गमछ । ४. MB पुत्तह किट । ५. M°यदि हे । ५. १. । कञ्ज । २. MB add after this : परिको हिउ बृहमणे बरेण । ३. MB add after
this:. पडिपेल्लित संदणु संदणेण । ४. M भयभर; B पयमर । ५. MB वीर । ६. MBK कहणि
पासि । ७. MB तोरु । ६. १. MB सुट्छ । २. MB समहि ।
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हिन्दी अनुवाद
२३७ के लिए सूर्यके समान हैं, वे मेरे दुसरे भुजदण्ड है, वह ( भरत ) यह कहता है । तुम्हारे व्यक्तित्वको बहुत सम्मान देता है। दोषीपर क्रुद्ध होता है, गुणीका आदर करता है । भरतकी लोलाको कौन धारण कर सकता है। तुमने पुत्रका अच्छा दर्पनाश किया? लेकिन जो कन्या (अक्षयमाला) देकर उससे प्रेम जताया है वह मेरे शरीरको अत्यन्त जला रहा है। दुष्टके साथ सम्मान और संग नहीं करना चाहिए। इसपर कुरुवंश और नाथवंशके सुन्दर सुधाम जय और अकम्पन प्रसन्न हो गये। तब गृहिणो मन्त्री और अपना हित करनेवाले दुर्जेय चिलात और सर्पका अहित करनेवाले, जिनवरके चरणोंमें अनवरत प्रणाम करनेवाले, राजाकी सम्पतिका भोग करनेवाले एवं जयसे आनन्दित जयकुमारने एक दूसरे दिन अपने ससुरसे पूछा :
पत्ता--हे ससुर, तुम्हारी गोष्ठी और जिनवरकी दृष्टिसे विरति कैसे की जा सकती है ? तो भी अविनीत स्वकमके द्वारा जीव बलपूर्वक खींचकर ले जाया जाता है ।।४।।
सुधोजनके वियोग सन्तापको कौन सहन करता है ? फिर भी कार्यके विकल्प भावको जानकर ससुरने पुषी और वरको विदा कर दिया। उनके जाते हुए घोड़ोंके खुरोंसे आहत धूलने आकाश ढक दिया। गजोंके मदजलसे धरती गोली हो गयी। वेगसे ध्वजपट चंचल स्खलित हो गये। समुद्रमण्डलका जल चंचल हो उठा। धौर विषधर भारके भयसे दलित हो गये। नगाड़ोंका गम्भीर शब्द हो उठा । दिशाओंमें निवास करनेवाले गज कांप उठे। शत्रुओंको शान्त करनेवाला वह जाते-जाते कुछ ही दिनोंमें गंगानदीके किनारे पहुंचा। अपने-अपने तम्बुओके आवासोंसे सम्पूर्ण हेमांगदादि राजा सभी ठहर गये। वस्त्रके तम्बूकी कुटीमें महावरणीय, देवके समान वह राना गंगाको देखता हुआ स्थित हो गया।
पत्ता-लहरोंसे युक्त गंगामें पूर्णचन्द्र और सूपके प्रतिबिम्ब ऐसे दिखाई दिये, मानो भ्रमरोंको सुख देनेवाली लताके सफेद और लाल फूल हों।
अपनी छावनीको वहीं छोड़कर, भूमिमें महान वह अपने कुछ सुभटोंके साथ साकेत जाकर, भुवनमें श्रेष्ठ राजा ( भरत ) के द्वारपर हाथ जोड़कर स्थित हो गया। प्रतिहारने उसे शोघ्र प्रवेश दिया और चक्रवर्तीको प्रणाम कर उसने निवेदन किया, "विषधर नर और विद्याधरोंसे सेवित हे देव, देखिए यहाँ जय प्रणाम करता है।" तब उसने अपनी विशाल दृष्टि उसपर डाली मानो चन्द्रमाके विकसित नीलकमलकी माला हो । प्रसरित हो रहा है प्रणय रसका सागर जिसमें ऐसे राजाने स्वयं मुख देखकर, मानो स्नेह महावृक्षको कलीके समान अपनी अंगुलीसे उसे पीठासन बताया। तुष्ट होकर वह बैठ गया। राजाने उसका सम्मान किया। सभामें उसका पौरुष
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१०
५.
१०
५
१०
२३८
महापुराण
गयणंगणा गड अवरु गरुड जिणु मेल्लिवि को तेलोक्सामि पत्ता जो दुक्खड सो परिक्ड में दुल्लं ते लद्ध ।।
पई होते रणि पहले जय महुं काई ण सिद्धई ||६||
दय भणिवि विसज्जित्र जब महंतु वडिय वेमहाकरिदि चचौलिय पुणु दिण्णउ पयागु जोयवि गंगहि सारसहं जुयलु जोयँवि गंगहि सुललियतरंग जोगिंगहि आवैत्तभवंणु जोयवि गंगहि पप्फुल्लक मलु जोइवि गंगहि वियरंत मछ जोगिंग मोत्तिय पंति जोइवि गंगहि मतालिमाल
आईडलमय गलस रिसलीलु सहुं बहुवरेण पर्य ंतदाणु देहि पियदुहयअवलोयणाइ आलग्गपुकछुकछंतरालि अवलोईत्रि रुइओहामियक एत्थं तरि थरहरिया सणाइ चणदेष वारियन इरिणीइ णं धणसंपत्ति कामभो निविस पिउ सुरसरिहि तू हु रणि वणिजलि जलणि समाइएण
कामाउराउ ण्ड अवरु सरुड | पई मेल्लिव को सुहागि
७
राएंगल नियसिमि तुरंतु । णं दिrयरु उययमही हरिदि । पत्त सुरसरि जलमन्झठागु । जोयँइ कंतहि णकलसजुयलु । जोइ कंतहि तिवलीतरंग । जोइ कंतहि वरणाद्दिरमणु । जोयइ कंतहि पित्र वयणकमलु । जोयइ कंतहि चलदीहरच्छ । जोयह कंतहि सियदसणपंति । जो कंहि धम्मेल्ल गोल |
पत्ता - यिगेद्दिणि वम्मदवाहिणि देवि सुलीयण जेड़ी ॥ मंदाणि जहदाणि दीसह राएं तेही ||७||
[ २९.८. १०
.
r
तहि अवसर भय परिच पोलु । बहुजलविलति बोलिनमाणु । अप्पा घित्तु सुलोयणाइ हाहारaafड्डियगरुयरोलि । मंगमुह कुमार ढुक्क । देवगवत्थ सुइणिवसणाइ ! करि कर्द्धउ सुरसरितीरेणीइ । चद्धरिष अहिंसइ णं तिलोड | हरिसें चि किंकर समूहु ! रखिज्जपुरि पुराइएण ।
३. M दुषित 1 ४. MB परिक्लि । ५. M दुलहड; B दुलधु ।
७. १. MB सिविर । २. MB चलिय पुणु वि दिवं । ३. MB जोइउ । ४. MB जोइवि । ५. MB आवतु भवणु । ६. B णं सुहृदाइणि 1
८. १. MB हारें । २. M पलसंत । ३. MR read this tine as 5. ४. MB read this lino as 3. ५. MB पियसणाइ । ६. MB तीरिणी । ७. GK पिवस but gloss निमेषाधः ।
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२२.८.१०] हिन्दी अनुवाद
२३९ परम उन्नतिको प्राप्त हुआ। आगकी तुलनामें कोई दूसरा उष्ण नहीं है। परमाणुसे अधिक दूसरा सूक्ष्म नहीं है । आकाशके आंगनसे अधिक महान दूसरा नहीं है। कामातुरके समान दूसरा कोई संगी नहीं है । जिनको छोड़कर कोन त्रिलोकस्वामी हो सकता है ? तुम्हें छोड़कर सुभटोंमें अग्रगामी कोन है?
पत्ता-जो दुःखित था उसकी परिरक्षा कर दी गयी। जो दुर्लभ था उसे पा लिया। तुम्हारे रहने और युद्ध में प्रहार करते हुए हे जय ! मुझे क्या सिद्ध नहीं हुआ ? ॥६॥
।
यह कहकर राजाने महानु जयकुमारको विजित कर दिया। वह तुरन्त अपने शिविरमें गया। वह विजयाध महागजेन्द्रपर आरूढ़ हुआ मानो दिनकर उदयाचलपर आरूढ़ हुआ हो । सेना घल पड़ी। उसने प्रस्थान किया। वह गंगाके जलके मध्यभागमें पहुँचा। वह गंगाकी सारस जोड़ोको देखकर, कान्ताके स्तनरूपी कलशयुगलको देखता है। गंगाकी सुन्दर तरंगको देखकर, अपनी कान्ताको त्रियलि तरंगको देखता है। गंगाके आवर्त भंवरको देखकर, कान्ताकी श्रेष्ठ नाभिरमणको देखता है। गंगाका खिला हुआ कमल देखकर, प्रिय कान्ताका मुखकमल देखता है। गंगाके विचरते हुए मत्स्य देखकर, कान्ताकी चंचल लम्बी आँखोंको देखता है। गंगाकी मोतियोंकी पंक्ति देखकर, वह कान्ताको श्वेत दशनपक्ति देखता है। गंगाकी मत्त अलिमाला देखकर, कान्ताको नीलो चोटी देखता है।
धत्ता--जब सुख देनेवाली मन्दाकिनी ( गंगा ) राजाको बैसे ही दिखाई दी जैसी अपनी गृहिणी कामकी नदी सुलोचना ॥७॥
उस अवसरपर इन्द्र के ऐरावतके समान लीलावाले उसके हाथीको मगरने पकड़ लिया । प्रगलित है मदजल जिससे ऐसा वह गज वधूवर के साथ, अत्यधिक जलके आवर्तवाले हमें जाने लगा। प्रियके दुःखको देखने वाली सुलोचना जोरसे 'हा' को आवाज को । उसको ( गजकी) पूंछ कक्षाके मध्य लगनेपर, तथा हा-हा शब्दका कोलाहल बढ़नेपर, अपनी कान्तिसे सूर्यको परास्त करनेवाले हेमांगद प्रमुख कुमार यह देखकर वहां पहुंचे। इसी बीच, जिसका आसन कॉप गया है, तथा जो देवांग वस्त्रोंसे पवित्र निवासमें रहनेवाली है, ऐसी शत्रका विनाश करनेवाली वनदेवीने गजको गंगाके किनारेपर ऐसे खींचा, मानो धनसम्पत्तिने कामदेवको खींचा हो, मानो अहिंसाने त्रिलोकका उद्धार किया हो । आधे पलमें वह सुरसरिके तटपर ले जाया गया। किंकर समूह आनन्दसे नाच उठा। रण-वन-जल और आममें पड़नेपर पुरुषको पूर्वाजित कम हो बचाता है।
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{ २९.८.११
महापुराण पत्ता-वेउवि घर मणिणिम्मिस चारुतीरि संयसेविए ।
हरिऊढइ थविवि सुपीढइ हविय सुलोयण देविए ।।८।।
दिण्णइंसुरजोग्गइं णिवसणाई। दिण्णई अपणेण्णई भूसणाई। दिण्णी वियसिय मंदारमाल सह णरवरेण विभइय बाल । पभणइ का तुहं करि केण धरिस किं वारिय सरि सो कवणु तरिउ ।
सुरगुंशशि राशि : ला समद सा वि हिंडियपुलिंदि । विउरिक डा विंझहरि अस्थि पइ विझकेउ बलकलियहथि । महएवि पियंगुसिरी सुरूय इस विझसिरी णामेण धूय । परियाणवि तापं तुह पहार सिक्खहुं णीसेसु कलाकला। हउं तुझु समप्पिय हे वयंसि संभैरसि ण कीलहुं जं गयासि । णंदणवणि विरलि संततिलइ हउं दही सप्पे वेल्लिणिलइ । असिआरसाई बंजणविसिट्ठ पई परम मंत महु पंच सिट्ठ 1 घत्ता-ते णिसुणिवि दुकिड णिहणिवि यही लद्ध विहूई।
सुरणीडइ गंगाकूडइ गंगादेवय हुई ।।२।।
कोलंती कुच्छियविसहरेण सह सरसें णाहें णिव्मरेण । जा पहय सरलदलकोमलेण तुइ कत कररत्तुप्पलेण । जाणासंती अवरहिं परेहिं । मुसुमूरिय दंडहिं पत्थरेहिं । सा हुई णिसुणहि हलि पियालि जलदेवय णामें पत्थु कालि। ओलक्विधि अउ वइराणिबंधु पवणंदोलणघोलतचिंधु। मयरीइ हवेप्पिणु कूरिमाइ कुंजर कदिउ कुद्धाइ साइ। मई जाणिउं आसणकपणेण जा जणिय मयच्छि अकंपणेण । सा कि हम्मइ खलकालियाइ मुणिमइ किं छिप्पइ कालियाई । इय चिंतिथि हल अवयरिय जाम घारिणि गय णासिवि कहिं वि वाम । मई उत्तारिख सिंधुरु बलेण तुह हूयव सुह सुक्कियफलेण। घत्ता-मलु तुट्टइ बुद्धि पयहइ दिस वसुधारहिं दुब्मइ ।।।
रिउ णासइ णिहि धरि णइस धम्में काई ण लगभइ ॥१०॥
८. MB सुयसेविए । २. १. B अण्णई । २. MB सई । ३. MB तारिउ । ४. MR दिझइरि। ५. MB संभरिसि । १०. १. MB णिसुणहि हुई । २. MB कोषेण ।
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२९. १०.१२] हिन्दी अनुवाद
२४१ पत्ता-श्रीसे सेवित सुन्दर तीरपर मणिनिर्मित घर बनाया गया। देवीने सिंहासनपर स्थापित कर सुलोचनाको स्नान कराया ||८||
देवताओंके योग्य उसे वस्त्र दिये गये । और भी दूसरे-दूसरे आभूषण दिये गये। खिली हुई मन्दारमाला दी । अपने नरवर ( जय ) के साथ वह बाला विस्मयमें पड़ गयी। वह बोली"तुम कौन हो? और गजको किसने पकड़ा था? नदी कैसे पार हुई ? तारनेवाला कौन था ? सज्जनोंसे वन्दनीय हे सुरसुन्दरी, तुम बताओ बताओ?" तब वह भी बताने लगती है-"जिसमें शवर घूमते हैं, ऐसे विन्ध्याचलके निकट विन्ध्यपुरी नगरी है उसका राजा विन्ध्यकेतु था, जो अपनी शक्किसे हाथीको वशमें करनेवाला था। उसको सुन्दर महादेवी प्रियंगुश्री थी। मैं उसकी विन्ध्यश्री नामकी पुत्री थी। पिताने तुम्हारा प्रभाव जानकर और समस्त कला-कलाप सीखने के लिए हे सखी, मुझे तुम्हें सौंप दिया । क्या तुम याद नहीं कर रहो हो कि जब हम क्रीड़ा करने के लिए गये हए थे, विशाल वसन्ततिलक नन्दनवनके एक ल
ये हा थे. विशाल वसन्ततिलकनन्दनवन एक लताघरमें मैं सौपके द्वारा डंस ली गयी थी। तब तुमने 'असि आ उसा' आदि व्यंजनोंसे विशिष्ट पंच परमेष्ठीका पंचणमोकार मन्त्र मुझसे कहा था।
पत्ता-उन अक्षरोंको सुनकर और पापको नष्ट कर मैंने यह विभूति प्राप्त की । देवताओंक घर गंगाकूटमें गंगादेवो हुई ||२||
१०
पूर्व अपने सरस, कुत्सित विषधररूपी पतिके साथ क्रीड़ा करती हुई जिस नागिनको, तुम्हारे पतिने सरलपत्तोंसे कोमल, हाथके लीलारक्त कमलसे आहत किया था, और जो दुसरे मनुष्योंके द्वारा दण्डों और पत्थरोंसे कुचली जाकर मृत्युको प्राप्त हुई थी, हे प्रिय सखो सुनो, वह कालोके नामसे यहाँ जलदेवता हुई। पवनके आन्दोलनसे हिल रहे हैं विह्न जिसके ऐसे तथा बेरका अनुबन्ध करनेवाले जयकुमारको देखकर, क्रूर मगरी बनकर, कुद्ध उसने गजको खींचा। आसन काँपनेसे मैंने जान लिया कि जो मृगनयनी अकम्पन राजासे उत्पन्न हुई है वह दुष्टा कालोके द्वारा क्यों मारी जाये ? पापवृत्तिके द्वारा मुनिमतिका स्पर्श क्यों किया जाये ? यह विचार कर जब मैं यहां अवतरित हुई तबतक वह दुश्मन भागकर कहीं भी चली गयी। मैंने शक्तिसे गजका उद्धार किया, और तुम्हें अपने पुण्यके फलसे यह सुख प्राप्त हुआ।
घत्ता-मल ( पाप ) दूर होता है, बुद्धि प्रवर्तित होती है, धन-धाराओंसे दिशा दुहो जाती है, शत्रु नाशको प्राप्त होता है, निधि घरमें प्रवेश करती है। धर्मसे क्या नहीं प्राप्त किया जा सकता? ||१०||
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"..
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१०
२४२
५
पद :-- अभ्यार्थी हकहिं भणं हा पाह णाह विलवंतिया हिं सिंचिव चंदणमीसियजलेण पारावयमिहणालोयणेण हा रइवर हा रश्वर रसंति पारावर इवं रैविसेण आसि तुरश्वर पारावष्ट अ भंति
१०
इय विवि सुलोयण चंदहासु पुणु चोइषि वारणु णं गिरिंदु बहुकोपरिद्विर सुणि जात्र पेम्म सोक्संजोयणाइ अत्थाणि निण्णु जाम
महापुराण
११
गय गंगादेव नियणिवासु । गर रायडर पत्तर जयणरिंदु | सप्तंगु रज्जु पाळंतु ताव । एक्कहिं दिणि समत सुलोयणाइ । हि स्वयरमिष्णु ते दिडु ताम । मुच्छि पहु जम्मंतर संरेंतु । कुलति पणि याइयतियाहिं । आसासि चलवमराणिलेण । मुच्छि पिय पणयासायणेण १ सहिय पुणरवि सा णीस संति । चिरभवकुलत्ती तुज्नु दासि 1 लग्गी पियेगीयहि इय भणति ।
घता – कहिं णिववरु कहिं सो रहवर कवर्डे व किस्व || जयपश्चिद्दि भणिउं समत्तिहि कक्ष्गवेण जणु खम्बइ ||११|
सोमप्पपुते गाय रेण जाणतेण वि सुहभोयणेण पुच्छंत कंत सुरु वित्तु इह जंबुदीवि सुरदिसि विदेहि महीर देखि सोहापुरवर वयैपालु राम सहु दिपक रेणु अंडइसिरिघरिणिआलिंगियंगु हिंरंतु कर्हि मि लक्खणपसत्थु सामंते पुच्छिउ भणु कुमार किं फिर विरहि महि सेस वेण
घसा
१२
संसयहणारेण । पुच्छियपि अवहिविलोयणेण । वजरई सुलोयण नियचरितु । greates विलासगेहि । तहिं घण्णयमालवर्णतवासि । देव सिरिदेविसंअणियराउ । सामंतु पसिद्धउ सत्तिसेणु । tes णं रहभूमि अगंगु ।
रेबापत् ।
तुका तु सुसरीरमार ।
तं
'वय सुणेपि भणितं तेण ।
-उप्पेर भवणु पण रक्खि गउ हुजं सिसु इकारिव || पर साथ णिहुर बायर मंदिराउ णीसारि ॥१२॥
t
११. १. MB omit this line २. MBK जम्मंतर । ३. MT पणियंगण B पणयंगणं । ५. MB रहसेण । ६. MB पियगीहि ।
मुच्छवि
१२. १. MK भारेण । २ MB विसाल हि । ३. MH यपालु ४ MB वयसिरि ।
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हिन्दी अनुवाच
११
उस
चन्द्रमा के हास्य के समान सुलोचनाको इस प्रकार स्तुति कर गंगादेवी अपने निवास स्थानके लिए चल दी । तब गिरीन्द्रकी हुँच गया। सुखपूर्वक सप्तकात गजेन्द्रको प्रेरित कर राजा जय गया और हस्तिनापुर करते 'हुए जब बहुत समय बीत गया, जब प्रचुर प्रेम और सुखका संयोजन करनेवाली सुलोचना देवीके साथ एक दिन वह दरबार में बैठा हुआ था तब आकाशमें उसने विद्याधर की जोड़ी देखी। 'हे प्रभावती देवी तुम कहो' यह कहता हुआ और जन्मान्तरकी याद करता हुआ राजा मूति हो गया । तब हे स्वामी, हे स्वामी, इस प्रकार विलाप करती हुई कुलपुत्रियों और पण्य स्त्रियों के द्वारा चन्दन मिश्रित जलसे सींचा गया, ਚੰਦਨ चमरोंकी हवासे वह आश्वस्त हुआ । कबूतरके जोड़े को देखनेसे स्नेहका अनुभव होनेके कारण प्रिया सुलोचना भी मूर्च्छित हो गयो । हा रतिवर हा रतिवर - यह कहती हुई, वह निःश्वास लेती हुई फिरसे उठो । “मैं रविसेना कबूतरी थी, पूर्वजन्म की कुलपुत्री तुम्हारी दासी, और तुम रतिवर कबूतर थे, इसमें जरा भी भ्रान्ति नहीं।" यह कहती हुई वह प्रियके गलेसे लग गयी ।
२९.१२.१३ ]
२४३
पत्ता- कहाँ वह राजा कहाँ वह रतिवर कपटसे ही प्रिय बनाया जाता है ? जयकी पत्नीकी सौतने कहा कि कैतव ( छलकपट ) से लोग नाशको प्राप्त होते हैं ||११||
१२
जनमनके सन्देह निवारणमें आदर रखनेवाले नागर अवधिज्ञानके नेत्र वाले सोमप्रभके पुत्र जानते हुए शुभभावनासे प्रियासे पूछा। पुराना वृत्तान्त पूछते हुए पतिसे सुलोचना अपना चरित कहती है- " इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में विशाल घरोंवाला पुष्कलावती देश है । उसमें विजय पर्वत में स्थित धान्यकमाल वनके निकट बसा हुआ शोभापुर नामका नगर था। उसका राजा प्रजापाल था । वह अपनी देवश्री देवीका अत्यन्त अनुरागी था । जिसने चरणकमलोंके परागकी वन्दना की है, ऐसा उसका प्रसिद्ध शक्तिषेण नामका सामन्त था । अटवीश्री गृहिणीके द्वारा आलिंगित पशरीर वह ऐसा लगता था मानो रतिसे विभूषित कामदेव हो। कहीं घूमते हुए लक्षणोंसे प्रशस्त केवल एक बालक उसे प्राप्त हुआ। सामन्तने उससे पूछा है कामदेव के समान शरीरवाले, तुम किसके पुत्र हो ? बचपनसे हो तुम धरतीपर क्यों घूम रहे हो ? यह वचन सुनकर बालकने कहा
पत्ता- मैंने घरकी उपेक्षा की, उसकी रक्षा नहीं की । मैं बच्चा था, बुलानेपर चला गया था। परन्तु कठोरवाणी कहनेवाली माँने घरसे निकाल दिया || १२ ||
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२४४
महापुराण
मह वप्प सिसुत्तणि मुइय माय विशु मायइ डिंभ कवण छाय | मूयस्थ ताएय वि ण दिट्ठ
हुई तुम्हारउ पुरकरु पइट्ट । ता तेण सत्तिसेणे अगाउ
पडिषण्णु पुत्त सो सचदेव । पंचाहिं वि कहिउ पिरलियकम्मु अमियमअतिमईहि धम्मु । रामं वजिउ मह मन्जु मंसु राणियइ तेम तं किड ससंसु । सामंत पुणु अणगारवेल
पालिय जिणरायहु तणिय वेल । वणसिरिग्रह किन दुराि बिराम...... तद् अशुपुलहकलाणणामु । सा सिसु मयक्छि गुरुहार जाय। संचलिय तेत्थु जहि वस माय । परिमुक सिबिरु सरविउलकूलि सह पदणा वसइ वर्णतरालि । जा नावेतहिः महिसोक्खसयरि जणणहरि मुणालवर ति णयरि । कणयसिरि वणिदु सुकेत कंतु भवदेउ पुत्तु ण कलिकयंतु । बट्टेटेउ दुम्मुहु सो जि भणि पुरविर अण्णेकु वि तर्हि जि वणिः । घत्ता-सिरियत्सउ पिउपयभसउ विमलसिरी तह गेहिणि ।।
सुहकारिणि सुय मणहारिणि रइवेया रइवाहिणि ॥१३।।
विमलसिरिभाउ वणि विहयसोउ अण्णेक्कु वि अस्थि असोयदेउ । जिष्णयत्त घरिणि गंदणु सुकंतु सूह ल स सोमु सोमु ष सुकंतु । ता ससुरणिवासु दुवाम धरिवि बारहवरिसई मज्जाय करिवि । जइ हर्ड णावेसमि तोवरासु ता तेरी तणुरुह देजसु बरासे। णिविगु ण गिण मि अज्जु माम गउ वाणिज्जहि सो जाम ताम | चक्कवइसंख बच्छर पण कण्यहि थणयल समएण पुण्ण । पञ्चारिय सखि णिबंधु मुक्कु सुय दिपण सुकंतठ वइरि दुक्कु । णितिंसु तिखणित्तिंसवंतु मरु दीरवि मारवि वर भणति । मंडेवि णिरुद्ध थेरीथडेण वहुवर वि पण पैरोहडेग । गलगज्जिवि तज्जिवि कंचुईल अवलोयवि दंपई पयपईल । पत्ता-कुद्धि लगाउ पिसुणु अभग्गउ ईसावसु देवाइल ॥
सहं घरिणिइ हरिणु व हरिणिइ वणु वरइनु परराइज ॥१४॥
१३. १. MB सरविमलकूलि । २. M उटउ । १४.१. MB चिहियसेउ । २. MB सुसोम्मू । ३.M सायरासु । ४. M णियतणुष्ह । ५. MB परासु ।
६. MB बाणिज्ज । ७. B सखिणिबंधमुक्कू । ८. MB मारविदारवि। ९. MB मंडव । १०. MB परोवाडेण । ११. MBK पयगईन ।
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हिन्दी अनुवाद
१३
हे सुमट, बचपन में मेरी माँकी मृत्यु हो गयी । बिना माँके बच्चे के लिए किसकी छाया ? भूयय ( धनसे सम्पन्न ) पिताने भी नहीं देखा और मैं तुम्हारे पुरवरमें आ गया। तब उस शक्तिषेणने निष्पाप उस बालकको सत्यदेव के दर्म कारक व अमितमती और अनन्तमतीके द्वारा कहा गया कर्मोंका नाश करनेवाला धर्मं पांचोंने स्वीकार कर लिया । राजाने मद्य, मधु और मांस छोड़ दिया। रानीने भी प्रशंसापूर्वक वही सब किया। सामन्त शक्तिषेणने अनागार बेलाका व्रत लिया, और वह जिनराज ( मुनि) को पारणाकी बेला ( समय का पालन करने लगा । ( अर्थात् वह मुनियोंके आहार ग्रहण करने के समय के बाद ही भोजन करता है। उसकी पत्नी बटवीने पापका अन्त करनेवाला अनुप्रवृद्धकल्याणका तप किया । वह बालक और गुरुभारवाली मृगनयनी पत्नी वहाँ ( मृणालवती नगरीमें ) गयौ जहाँ उसकी माँ रहती थी । शिविर छोड़कर वनके भीतर वह सर्पसरोवर के तटपर अपने पति के साथ जब रह रही थी, तभी सुधियोंके लिए सेकड़ों सुख देनेवाली, पिताकी मृणालवती नगरी में कनकश्री पत्नी और उसका पति सेठ सुकेतु था। उसका भवदेव पुत्र मानो कलिकृतान्त था । वह अत्यन्त उन्मत्त और दुर्मुख कहा जाता था। उसी नगरीमें एक और बनिया था ।
२९. १४.१२]
२४५
धत्ता -- अपने पिता के चरणोंका भक्त श्रीदत्त, उसकी गृहिणी विमलश्री थी। रतिको नदी सुन्दर शुभ करनेवाली रतिवेगा नामकी उसकी कन्या थी ||१३||
१४
विमलीका भाई शोकसे रहित एक और सेठ था अशोकदत्त। उसकी गृहिणी जिनदत्ता थी । उसका पुत्र सुकान्त था। सुन्दर और सौम्य वह सोमकी तरह सुकान्त था । तब ससुर के निवास और द्वारपर धरना देकर और बारह वर्षकी यह मर्यादा कर कि यदि मैं (इस बीच ) नहीं आता हूँ तो तुम अपनी कन्या अन्य वरको दे देना । में निर्धन हैं, है ससुर, अभी कन्या ग्रहण नहीं करता। और जब वह वाणिज्य के लिए चला गया, तबतक बारह वर्ष पूरे हो गये और समय के साथ कन्या के स्तन भर गये। साक्ष्य और निबन्धसे मुक्त होकर उसने कन्याको पुकारा और सुकान्त के लिए दे दी | ( इतनेमें) दुश्मन आ पहुँचा, निर्दय और तीखी तलवार लिये हुए। वह कहता है कि मैं वरको विदीर्ण करूंगा - मारूंगा । वृद्धसमूहने उसे बलपूर्वक रोका। वधूवर भी धरके पीछे दरवाजेसे भाग गये। तब गरजकर और कंचुकियोंको डांटकर तथा दम्पतिको धरण-परम्पराको देखकर --
धत्ता -- अभग्न दुष्ट ईर्ष्यालु वह क्रुद्ध होकर पीछे लग गया। अपनी गृहिणी के साथ वह वनमें पहुँचा, जैसे हरिणीके साथ हरिण हो ||१४||
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२४६
महापुराण
[ २९. १५.१
१५
दोह वि पयरप्तई पयलियाई दोहं वि मुहकमलई मलियाई । ते रिउणा कह व मारियाई अंगई तरकंटयसीरियाई । चिम्मकिवि रयणिहिरीणयाई दुमलग्गफट्टपरिहाणयाई । पासेयधोयतणुमंडणाई
अपलोइयमयउलभंडणाई । सूरग्गमि पत्तई बे वि तेस्थु आवासिउ वणसिरिणाहु जेत्थु । दुजणु अणुलग्गु जि ढुक्कु केम चलपावश्यहं कुसुमसरु जेम । दिष्ट दोहि वि तहिं सत्तिसेणु आसंघिष्ठ कलमहि णं करेणु । कहिं णासह आय अज्जु मरणु लइ तुझु पदुई बे वि सरणु । णिंसुणिवि वइयह करमंडलग्गु दक्खालिड तेण किरातु भग्गु । गन गासिवि सहसा मलियमाणु किं करइ तिमिरु जहि फुरण भाणु । घत्ता-ण उपेक्खिउ बहुबर रखित किट पडिबक्खहु दूसणु ॥
धणवरिसहुँ जगि सपरिसह दीद्धरण जि क्षुमण ॥१५
विसकरिखरकरहतुरंगवाहु 'धरधीर धणेसह सत्थवाहु । धारिणिकतामुहरायरत्तु ___ता तहिं जि समागउ मेरुदत्तु। संठिल समीवि विरएवि ठाणु करिहरिरववहिरियसिहरिसाणु । फंतारमन्गि चारण पट्ट सरणागय पविपंजरेण दिट्ठ। बेषिण वि ठामणिय महाजसेण रिसिगयवर थिय विणयंकुसेण । मुणिचसह्ह णवविहु लेवि पुण्णु जोगाउ भोयणु भावेण दिपणु | णहयलि तूरई तियसहि हयाई अच्छरियई पंच' समुण्णयाई । घत्ता-मणि ढोयडे पुण्णु पलोयडे पैसरियमुहससिरायउ॥
तहु केरस पणयजणेरउ मेरुदत्तु घर आयर ॥१६।।
१७
तहिं तेण तासु जोएवि दाणु धारिणियह सहुं बद्धउ णियाणु । आगामि जम्मि महु होज पुत्तु एहउ दुस्थियकहाणमित्त ।। महि रंगमाणु णं णिसि णिरिकता तहिं पत्तड पंगुलउ एक्कु । पुझिछ वणिणा णियमंतिवग्गु भणु पयहु किं गइपसरु भग्गु ।
१५. १. MB दो चि1 २. Bomits this line | ३. Bomits this foot, । ४. MB कलहहि ।
५. MB पट्टा ये वि। ६. MB णिसुणेवि वइ । ७. MB भग्जिवि । ८. M.Bउ मेक्सिस । १६. १. MR बरवीरु । २. M3 add after this; रयहि सह फुल्लई पहिलयाई, वयणाई मणोबाई
योस्लियाई । ३. MB पसरिपमुई । १७.१. MB आगमि । २. B गिरक्त ।
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हिन्दी अनुधाव
१५
दोनोंके पैरोंकी लालिमा प्रगलित हो गयी, दोनोंके मुखकमल मुकुलित हो गये। उस शत्रुके द्वारा वे किसी प्रकार मारे भर नहीं गये थे। उनके शरीर वृक्षोंके काँटोंसे विदीर्ण हो चुके थे। पसीने से शरीरका सब मण्डन घुल चुका था। दोनों पशुकुलकी भिड़न्त देख रहे थे । सूर्योदय होनेपर दे दोनों वहाँ पहुंचे जहाँ कि अटवीश्रीका स्वामी ठहरा हुआ था। पीछे लगा हुआ ही वह वहाँ इस प्रकार पहुँच गया जैसे कि चल पापियोंके पोछे, कामदेव पहुँच जाता है। वहाँ उन दोनोंने शक्तिषेणको शरण ली, मानो शिशुगजोंने महागजकी शरण ली हो। कहाँ हैं वे, भागनेवालों के लिए मैं भरण माया हूँ; लो, वे दोनों तुम्हारी शरणमें चले गये। दुश्मनको सुनकर उस शक्तिषेणने अपनी तलवार दिखायी उससे किरात भग्न हो गया। और मलिनमान वह शीघ्र वहाँसे भाग गया । वहाँ अन्धकार क्या कर सकता है, जहाँ सूर्य चमक रहा है ।
२९. १७.४ ]
२४७
धत्ता - उसने उपेक्षा नहीं की, वरन् वरवधूकी रक्षा की और शत्रुपक्षको दोषी ठहराया। जगमें धनसे श्रेष्ठ ( धनवरिस ) सत्पुरुषों का भूषण दोनोंका उद्धार करता ही है ||१५||
१६
इतने में वृषभ, गज, खच्चर, ऊँट और घोड़ोंके वाहनोंवाला, पर्वतको तरह धीर धनेश्वर, अपनी पत्नी धारणीके मुखमें अनुरक्त सार्थवाह मेदस वहाँ आया। हाथियों और घोड़ोंके शब्दों से पर्वतशिखरको बहरा करता हुआ वह पास हो अपना डेरा डालकर ठहर गया। इतनेमें वनमागंसे दो चारण मुनि वहाँ प्रविष्ट हुए। शरणमें आये हुए उन दोनों को शक्तिषेणने देखा । उस महायशाळेने 'ठहरिए कहा। विनयरूपी अंकुशसे वे दोनों महामुनिवर ठहर गये। पुण्य लेने के लिए उसने मुनिश्रेष्ठोंके लिए योग्य नानाविध आहार भावपूर्वक दिया। देवोंने आकाशतलमें नगाड़े बजाये तथा पांच आश्चर्य प्रकट किये।
धत्ता - मणियोंको लो, पुण्यको देखो, जिसका मुखरूपी पूर्णचन्द्र खिला हुआ है और जो तुम्हारे लिए प्रणय उत्पन्न करनेवाला है ऐसा मेरुदत्त घर आ गया है ||१६||
१७
वहाँ उस मेरुदत्तने उसका दान देखकर धारणीके साथ यह निदान बांधा कि अगले जन्म में दुःस्थित लोगों का कल्याणमित्र यह मेरा पुत्र हो। तब वहीं रात्रि में चोरको तरह धरतीपर खलता हुआ एक लंगड़ा आया । वणिक्ने अपने मन्त्रीवसे पूछा - "बताओ कि इसका गतिप्रसार
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२४८
सणि जंपिउ असउण जाय एयह भवि तेण पणट्ठ पाय । भेसइणा भासिउ सुहमहेहिं परिह एह कूरगगइहिं।। धण्णंतरि जैपइ पयइदोसु सेंमें जडसु पित्तेण सोसु। पवणे भाइ माणवहु गत्तु भूयस्थे मंति पुणु पुउक्त। पत्ता-सरणत्तई गहणक्खत्तई सहुं पयईहिं पउत्तई ।।
चिभावह सयलह जीवई होति सम्मायत्तई ॥१७॥
१८ इय सणि सणि पभणेवि तेहिं पुणु पुछिउ गुरु मरलियकरहिं । कि सणु किं व दुग्गवियारु किं पयइदोसु किं कम्मचारू । किं कारणु पंगुत्तहु मुणिंद
ता भणइ सूरि सुणि भो वणिंद । बहिरंध कुट्टि वाहिल्ल भिल्ल दालिपिय दहव मय राम । अवसिट्ठ दुट्ट दैप्पिट्ट कट्ठ
होटु रुढ दुहघट्ट बठे। छिण्णो? कपणणासाविहीण दुग्गंधदेह काणीण दीण। जिल्लज्ज खुज वामण फुसील पलखंड सोल चंडाल कील । जरचीवरधर फरसुद्धकेस छोहाणलय कंकालवेस। जूयार जिसेवियणेयर टिंट पावेण होति पर कुंट मंट। पंगुल परघररपिंडावलुद्ध । विवरीय होवि धम्में विसुद्ध ।
न देव देति णव ते हरंति देविंद वि पुषणक्खइ मरंति । पत्ता-रिसिपिमुणिच भवियहिं णिसुणिउणियमें चित्तु णियत्ति ।
परदविणइ परवडरमणइ लोयणजुयलु ण बत्तिउं ।।१८।।
ता तहिं ओलविनउ तरणितेउ ए एहि पुत्त दे देहि खे सुय तुह सुयंगई कोमलाई होताई आसि महु सुइयराई सुय तुह मुहलालाबिंदुयाई सिक्खारिओ सि सिसुगावयाई । चीसरियउ सुर्य तुहूं कि सताउ इय पस्थिओ वि सो मंदणेह पिउणा तिर्मुडपविराइएण
भूयस्थ कोक्किन सचदेउ । कि वीसरियउं महु तणउ जाउँ । लम्गतई धूलीधूसराई। णिलोट्टियपियकताकराई। हउंसुयरवि णियउरयलि चुयाई। सिद्धणमाइं अक्खरखयाई । किं बहुएं महु घर जाहुं आउ। पडियागउ उ णियजणणगेहु । तवचरणु लइ णिव्वेइएण ।
३. MB सउणें । ४. M अवसवण । ५. MB सिमें। ६. MB मंतें । १८. १. M सण सण। २. MB भो सुणि । ३. M दुप्पिट । ४. M दुटोट । ५. B वट्ठ। ६. MB
णयरटेंट । ७. MB परहर । ८. M पित्तउं: B घित्ति । १९. १. MB सुपरमि | २. MB सिद्धतमाई 1 ३. MB कि तुह सुय ।
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२९. १९.९]
हिन्दी अनुवाद नष्ट क्यों हुआ ?" शकुनिने कहा-"इसे अपशकुन हुआ था इसलिए इस जन्ममें इसका पैर टूट
" गुहारतिरो कसम्मका नाश करनेवाले क्रूरग्रहोंने इसे लंगड़ा किया है। पन्वतरि कहता है कि यह प्रकृति दोष है । कफसे अड़त्व होता और पित्तसे शुष्कता आती है, तथा वातसे शरीर नष्ट हो जाता है । तब भूतार्थ मन्त्रीने पुनः कहा
धत्ता-प्रकृतियों ( वात-कफ और पित्त) के साथ कहे गये शकुन तथा ग्रह-नक्षत्र आदि मनुष्यका जैतन्यस्वरूप समस्त जीवोंके अपने कर्मके अधीन होते हैं ।।१७।।
१८
इस प्रकार धीरे-धीरे बात कर, अपने हाथ जोड़ते हुए उन्होंने गुरुजीसे पूछा, "हे मुनीन्द्र, लंगड़ेपनका कारण क्या है, क्या शकुन कारण है ? या खोटे ग्रहोंका प्रभाव है, क्या प्रकृति-दोष है, या कौका आचरण है ?" तब मुनीन्द्र कहते हैं-"हे सेठ सुनो ! बहिरा, अन्धा, कोढ़ो, व्यापा, भील, दरिद्री, दुभंग, गंगा, अस्पष्ट आवाजवाला, अविशिष्ट, दुष्ट, दर्पिष्ट, कठोर, दुष्ट ओठोंवाला, क्रोधी, दुःखोंसे धृष्ट, वंठ, छिन्न ओठोंबाला, कान और नाकसे रहित, दुर्गन्धित शरीरवाला कन्यापुत्र, दोन, निर्लज्ज, कुबड़ा, वामन, कुशील, मांसभक्षी, दारु विक्रेता, चाण्डाल, कील, जीर्णवस्त्र धारण करनेवाला, कठोर और खड़े बालोंवाला, कोषको आगसे आहत कंकाल रूपवाला, जुआही, नगरको वेश्याका सेवन करनेवाला, वामन और लुच्चा भादमी पापके कारण होते हैं । लेगड़े और दूसरेके घरके आहारके लालची और विपरीत होते हैं, धर्मसे पवित्र होते हैं। न तो देवता लोग कुछ देते हैं, और न वे अपहरण करते हैं, देवेन्द्र भी पुण्यका क्षय होनेपर मरते हैं।"
___घत्ता--महामुनिके द्वारा प्रतिपादित बात भव्यजनोंने सुनी, उन्होंने अपना चित्त नियममें लगाया। दूसरेके धन और दूसरेकी स्त्रीपर उन्होंने अपनी आंख तक नहीं डाली ।।१८।।
१९
वहां सूर्यके समान तेजस्वी सत्यदेव दिखाई दिया, भूतार्थने उसे बुलाया और कहा-"ह पुत्र! आओ, और मुझे आलिंगन दो। क्या तुम मेरा नाम भूल गये ? हे पुत्र, तुम्हारे कोमल सुभग पुत्र धूल-धूसरित होते हुए भी छूनेपर सुखद मालूम होते थे। हे पुत्र, प्रिय कान्ताके द्वारा पोंछी गयी तथा ऊपर वक्षपर गिरी हुई तुम्हारे मुखको लारको बूंदोंको अपने वक्षःस्थल पर गिरे हुए अनुभव कर रहा है। हे वत्स, तुम्हें शिशुगति और वचन सिखाये गये थे। सिद्धोंको नमस्कार हो, ये वचन सिखाये गये थे। हे पुत्र, क्या तुम अपने पितरको भूल गये, बहुत कहनेसे क्या आमओ अपने घर चलें।" मन्द स्नेह वह इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भी अपने पिताके पर वापस नहीं पाया। प्रशस्त मन-वचन और कायके व्यापारसे शोभित पिताने विरक्त होकर तपश्चरण ले लिया। उन्हीं आकाशचारी गुरुके पास दृढ़तर मोहपाशको काटकर, जिस प्रकार बृहस्पतिने ऋषित्व ग्रहण किया, उसी प्रकार शकुनो और धन्वन्तरिने भी।
२-३२
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२५०
[२९.१२.१०
महापुराण छिदेप्पिणु दढयरु मोहबासु तहु गुरुहि पासु णवारणासु । सुरगुरुणा गैहिउ रिसित्तु जेम्ब सेरणी धण्णंतरिणा वि तेम्द । धता-तं बहुबरु णवपंकयकर सेष्टिहि तेण समप्पिउ ।।
__ मड सामिहि गयवरगामिहि गेहि थवेज्जसु जंपिउ ।।१९।।
२०
गल वैणियाइ सोहाजा तुरंतु पणवेप्पिागु पहहि सकंतु कंतु । सो तेण णिरोपिउ तासु जाम एत्तहि वि सत्तिसेक्स्सु ताम | मारहरि थवेप्पिणु णिययरिणि । विझल याहरि पवरकरिणि । चंदिदि मुणालवइ जिणहराई अघलोयवि ससुरय मिरिहराई । गुरुहार णारि पैसढलसरीर सासुरयहु पर सक्कइ सहार । सासुरयहु णिमास मडवरिष्टु आवेपिणु सोहापुरि पझ्छ । धरि दिछ राठ इच्छियसिवेण बहुबरु मग्गिड पसरियकिवेण | णि णियय णिवासहु दिण्ण धामु गोउलु माहिसु फलछेत्तु गोमु । आसणु भूसणु णिवसणु समग्गु तवु करिवि मंति गय के पि सग्गु । मँउ मेरुयत्तु पायष्डियसिरिहि सहि देसि पुंडरिंफिणिपुरिहि । पयपालगरिदणिनिििण कुमार मार कुोरहित्य पत्ता-तुहु धारिणि मरिवि सुकारिणि जइ वि ण सम्माइद्विणि ।।
प्रः पालिवि दुकिल खालिवि हूइ धणवइसे ट्ठिणि ।।२०।।
पुत्तस्थिणि भवभावियणियाण सा एक्तीसपरिणिहिं पहाण । गन्भेसरि सयलकलापषीण धयरट्ठगमण सहेण वीण। भवदेवें पाय पसुबहेण
सं बढुवर दडल हुयवहेण । घरि अट्टहाणे मरिवि तेथु जोयत्र पुरसेहिणिवासि एत्थु । पारावयजुयलु मणोहिराम गुंजारुणच्छु चपणेण सामु । तं घेप्पइ खुजयथावणेहि
तं संभासिजइ परियहि । णच हक्कारिउ सदुदु देइ पविधउ पुणु रंगंतु जाइ। पुच्छिउ पहुणा कहिं पाय जंति धम्मेण जीव किर कहि वसंति । नं दावा चंचुइ गरयमगु
जद्धाइ ताइ सग्गापवरगु। तहिं पक्खिणि हलं रइसेण णाम तुहूं रइवरु पशिख सहकाम ।
अच्छहुँ कीलंत वि जाम सो सत्तिसेणु तहि. मरिवि ताम। ४, MB सहिर । ५. MB सजणें । २०. १, MI3 वणियह । २. MB णिरूविउ । 1. MB "पसविल'। ४. M सोहाउरि; B साहारि ।
५. MB दिपणु धाउ । ६, MB गाउ । ७. MB मुड। ८. MB पयडिय । ९. MB बउ । २१. १. MB पृत्तस्थि वि । २. M3 पुरि सेटि । ३. MIS संभासिज्जा परिमण जहि । ४. MB सिणहूँ ।
५. MB कोलंत बेवि।
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२९. २१. ११]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-उस शक्तिषेणने नवकमलके समान हाथोंवाला वह वधूवर सेठके लिए समर्पित कर दिया और कहा, गजवरगामी मेरे स्वामीके घरमें रख देना ॥१९॥
सेठ तुरन्त शोभापुर गया और जबतक वह प्रभुको प्रणाम कर कान्ता सहित कान्तको सौंपे, तबतक यहां शक्तिषेण नामका सामन्त अपनो पत्नीको उसकी माताके घरमें रखनेके लिए, मानों खिलताहन हथिनी रख लिए, मालबती नगरीके जिनमन्दिर देखने और ससुरालके श्रीधरको देखने के लिए गया। परन्तु गुरुभार और शिथिल शरीरवाली पत्नी अटवीधीको ससुराल भी सहारा नहीं दे सका। वह श्रेष्ठ योद्धा ससुरालसे भी चला आया। आकर शोभापुर में प्रविष्ट हुआ। कल्याण चाहनेवाले तथा बढ़ रही है या जिसमें ऐसे उसने राजासे भेंट की और वधूवरको मांगा। वह उन्हें अपने घर ले गया और अपना घर, गोकुल, भैंस, फलक्षेत्र, ग्राम, मासन, भूषण और वस्त्र सब कुछ दे दिया । मन्त्री भी तप करके कहीं स्वर्ग चले गये। मेरुदत्त भी मर गया । तथा प्रकट है वैभव जिसका ऐसी उसी देशको पुण्डरीकिणी नगरीमें कुबेरमित्र नामका वणिक हुआ, जिसका चित्त राजा-प्रजापालमें लगा रहता था।
घसा-फिर धारणी भी यद्यपि वह सम्यक्त्व धारण करनेवाली नहीं थी, पुण्यकारणसे व्रतोंका पालन कर, पापको नष्ट कर धनपतिकी सेठानी हुई ।।२०||
२१
दूसरे जन्ममें निदान बांधनेवाली तथा पुत्रकी इच्छा रखनेवाली वह इकतीस स्त्रियोंमें प्रधान थी । गर्वेश्वरी वह समस्त कलाओंमें निपुण, हंसकी तरह चलनेवाली, स्वरमें वीणाके समान थी। पशुवध करनेवाले उस दुष्ट नवदेवने उस वधूवरको आगमें जला दिया। घरमें आर्तध्यान कर वहीं मरकर वे इसी नगरके सेठके घरमें सुन्दर कबूतरके जोड़ेके रूपमें उत्पन्न हए हैं, गंजाके समान अरुण आँखोंवाले रंगसे श्याम । कूबड़े और बौनों द्वारा वह कबतर-कबूतरीका जोड़ा ग्रहण किया जाता और परिजनों के द्वारा उससे सम्भाषण किया जाता । पुकारनेपर नाचता और शब्द करता। भेजा गया क्रीडापूर्वक जाता। राजा पूछता है-'पापी कहाँ जाते हैं और धर्मसे जीव कहाँ निवास करते हैं ?' वह कबूतरका जोड़ा उसे चोंचसे नरक बताता है और उठी हुई उसी चोंचसे स्वर्ग-अपवर्ग बताता है। वहाँ मैं पक्षिणी रतिसेना नामकी यो और तुम स्तेहको कामना रखनेवाले रतिवेग थे। जब हम लोग कोड़ा करते हुए रह रहे थी तभी वह शक्तिषेण ( सामन्त ) मरकर
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a
२५२
महापुराण
पत्ता - ते वणिणा वणिसिरमणिणा धणवश्यहि सुत्र जायल || सोहगों जणमणों रूवं णं सुरराय ||२१||
यिकुलहर कमल सिरिकंतु सुमरेणु धम्मानंदजोव त्थंगुतियसत्तर भूसणंगु पवहइ पुंडुच्छुरसप्पवाहू णिचं विय पिचर सालिछेतु यमेव रणइ वीणा सवेणु इयदिषभोय अणखणालु पियसेणु तेण सहयक पत् इच्छइ भणु तेरन परममित्त एक दिगिय उज्जाण
लय णा एकपत्ति
पत्ता- -तेत्थु जि पुरि छुपं कियघरि वणि बसमणसमागर ।। धणवयहि बंध एयहि सायरदत्त् कुलीण ४ ||२२||
तहु फेरी णं अमिण सित्त तहि परजेम्मंतर बद्धपणय सुरयसोक्खमाणिकखाणि
पीला विलय संकास केस णामैं पियदत्त पसण्णदिठि अण्णा दिणि कित्तिमकुसुममाल गय लेपिणु ससुरयघरु वयंसि तं च्छिवि विभिन उन्भत 'बयणु सुणिवि सच्छ सई
तं
२२
णा सो भणि कुबेरकेतु । ते मंतिदेव तदेति भोट | महरंगु तुरिय भोयगु । मज्जा पवरिस वारिबाहु । अवरु वि सुइसुसिर सुहेलिमेत्तु | घरि चिति दुम्भइ काम घेणु ।
जोन्वणु पिणा दिट्टु बालु । किं बहुएं किं एक जि कलस । आहास सोपवणलणणेत्त । दि मुँणि दोहिं विलब लिगुज्झि । को पाइतु सु सीलसति ।
२३
गेहिणि णामेण कुबेरमित्त । हूई वणलचिल मरिषि तणय । कोई सगमण कल्यंठिवाणि । णं काममणिवेस | गुणणय णं चम्मचावलठि । कय ताइ लाई मर्येण सत्यसाल । पियकारिणि गइजियरायसि । एडविण्णाणु ण मुणइ मणुउ । free पर्ससिय घणवईइ ।
[ २९. २१.१२
पत्ता- पियवत्सइ सुइसुह मे तर मयणजलणु संधुर्किउ ॥
मणु लेते तेणे जलते शत्ति कुमारु झलुकिङ ||२३||
६. M तं । ७. MB सिरिमणिणा ।
२२. १. MB तु । २. MB तुरीयर भोयणं । ३. MS दोहि वि मुणि । ४ MB बज । ५. MBK वर्ण ।
२३. १. MB जम्मंतरबद्ध । २. MB कलहंसगमण । ३. MB गुणणयण ४. MB भयणत्ममाल; K मयणपरचसाल and glour अस्त्र; G tn gloss मदनशस्त्रशाला | ५. MB °तपुर । ६. MB एयहूं । ७. MB पियदत्त ८ MB संघुविक्रय । ९. MB जेण । १०. MBT सुलुक्किय ।
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२९.२३.११] हिन्दी अनुवाद
२५३ घत्ता-वणिक् श्रीके मान्य उस वणिक्से धनवतीका पुत्र हुआ। जो सौभाग्य और जनमनको अच्छे लगनेवाले रूपसे मानो सुरराज था ॥२१॥
72
मानो वह अपनी कुलगृहरूपी कमलश्रीका प्रिय था। नामसे उसे कुबेरकान्त कहा गया । धर्मानन्द योगको याद कर वे मन्त्रीरूपी देव उसको भोग प्रदान करते हैं। वस्त्रांग, भूषणांग, महरांग, चौथा भोजनांग ( कल्पवृक्षोंके द्वारा) पुण्ड्र और इक्षुरसका प्रवाह वहाँ नित्य प्रवाहित होता है, स्नानके लिए वारिका प्रवाह बरसता है। निस्य ही उत्तम धान्यके खेत पकते रहते हैं। नित्य हो सुखद लगनेवाली बांसुरी सहित वीणा स्वयं बजती रहती है। घर में चिन्ता करते ही कामधेन दह ली जाती है। इस प्रकार दिव्यभोगोंके भोगने में क्षण बितानेवाले अपने पत्रको पिताने नवयोवन में देखा। उसने उसके प्रिय सहचर प्रियसेनसे पूछा, 'क्या बहुत-सी वधुएं चाहिए, या एक ही कलत्र चाहता है, तुम्हारा परममित्र बताओ।' नवनलिन नेत्रवाला वह कहता है कि एक दिन हम लोग उद्यानमें गये हुए थे और वहांपर, दोनोंने चन्दनलता कुंजमें एक मुनिको देखा। वहाँ उसने एकपली नामका व्रत लिया है । तुम्हारे पुत्रको शीलवृत्तिको कौन पा सकता है। __घत्ता-चूनेसे पुते घरोंवाली उसी नगरीमें कुबेरके समान इसी धनपतिका बन्धु सागरदत्त नामक कुलीन सेठ था ॥२२॥
उसको अमृतसे सींची गयी कुबेरमित्रा नामकी गृहिणी थी। दूसरे जन्म में प्रणय बांधनेवाली अटवीश्री मरकर उसकी पुत्री हई । मानो वह सुरति सुखरूपी मणियोंकी खदान हो, मानो कलहंसके समान गतिवालो और कलकंठ ( कोयल ) के समान स्वरवाली हो। नीलो भ्रमरपंक्तिके समान केशवाली वह मानो प्रच्छन्न रूपमें कामभरली हो। प्रियदत्ता नामकी प्रसन्नदृष्टि और गुणोसे नत वह ऐसी लगती है, मानो कामदेवकी धनुषयष्टि हो। दूसरे दिन उसने एक कृत्रिम कुसुममाला बनायो जो मानो कामदेवकी शस्त्रशाला दी। मपनी गविसे राजहंसको जीतनेवाली प्रियकारिणी सखी उसे लेकर ससुरके घर गयी। उसे देखकर वणिक पुत्र विस्मयमें पड़ गया कि मनुष्य इस विज्ञानको नहीं जान सकता। यह सुनकर स्वच्छ सती धनवतीके द्वारा अपनी बहुको प्रशंसा की गयी।
पत्ता-कानोंको सुख देनेवाली प्रियवार्तासे कामकी आग धधक उठी। उसका मन लेते हुए, जलती हुई आगने कुमारको सन्तप्त कर दिया ||२३||
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२५४
महापुराण
[ २९. २४.१
जाणिवि तणयहु कण्णा हिलासु वणिणा पारद्ध विवाह ताम्। गंदणवाणि पट्टण जणमणोज णिवत्तिवि णियकुलजक्खपुज्ज। भायणई दुतीस सेमीरियाई णिरु चोखभक्खडिऊरियाई । तहि एक पंचमाणिकवंतु
जा गेण्हइ तहि सो होइ कतु । वणिउत्तियाज संपाइयाउ बत्तीस जि पिय दवाइयाउ ! सव्वहं वणिणाहें भूसणाई दिण्णाई विलेवणणिवसणाई । गेहह पणिवि परिभावियाई । चरभरियई थालई दावियाई।
ता कणयवत्त बहुभोज्जु थइर. एक्केक्का एक्केक्कल जि लइ । ..::: संरय प्रयदाता रिविलग्गु की लंघद किर भर्यिवमग्गु ।
पयपालसुयाहिं सुहालियाहिं गुणवइजसवइणामालियाहि । आलद्धरणउ तहिं चस्यवत्त यिवउ संसारहु खणि विरत्त । धत्ता-मृगरोलह गिरिकुहरालइ वर पसिवि तQ किजइ ॥
ण दाणहु सुहिसंमाणहु कारणि इलि कलहिज्जइ ॥२४॥
रायहरणियडि जिणवरणिवासि अमियमइअणं तमईहि पासि । तवु लइयर ताहिं सीमंतिणीहिं एसहि वि पडह्मंगलझुणीहि । वणितणयह सुयणुच्छाहराहु प्रियदैतइ सहुं विरइन विवाहु ।। वर्यवालु मरेप्पिणु लोयबालु पयपालहु सुरे हयप गुणालु । देवसिरिदेवि मल्हणगईहि वसुमइ सुय हूई धणवईहि । गयजम्मघरिणि सा दिण्ण तासु पुणु लम्गउ दोहि मि पेम्मपासु । संताणि थवेप्यिागु सो जि पुत्तु णरणा लश्यर भूणिचरिम् । देवीउ कणयमालाइयाउ
पठवज लएप्पिगु संठियार। जे परियण ते पवइय सव्य कोमलमइ थिय घरि घरि सगन्ध । एक्कु जि बुर स कुबेरमित्त सो भावइ तरुणहं णाई सत्त । पत्ता-चवलमई भासिड कुर्मई इसढुंग खेलहुं लन्मइ ।।
अपसत्थर ""भेलावस्थउ माणुसु एम जि खुबभइ ।।२५।।
२४.१.४ समारियाई । २. MB परिपूरियाई। ३. MB संपाइयाउ । ४. गेहं पणिचि । ५. Kपमा
वियाई । ६. MH एक्कैक्कल एकेक्कहिं । ७. MB पियदत्तहि । ८. MB भवियब्बु मग्गु । ९. MB
ण वि । १०. MB मिग । ११. MB वणि । १२. MB तट । २५. १. MB रायहरे णिय । २. MB त3 लइउ तेहि। ३. MB पियदत्तई 1 ४. MB णयचालु ।
५. MB सिसु । ६. MB गिमपरि । ७. MB चवलमइहिं । ८. MIS कुमहि । ९. MB खेल्लहूं। १०. MBT हेलावत्थइ।
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२९. २९.१२]
हिन्वी अनुवाद
२५५
२४
पुत्रकी कन्यामें अभिलाषा जानकर वणिक्ने उसका विवाह प्रारम्म किया। नन्दनवनमें जनसुन्दर नगर और अपने कुलयक्षकी पूजा कर, उसने सुन्दर खायोंसे भरे हुए बत्तीस पात्र फेला दिये। उनमें एकमें पाँच माणिक्य रखे हुए थे, जो उसे ले ले वह उसका पति होगा। प्रियदत्ता बादि बत्तीस ही पुत्रियां वहां आयीं। सेठने सभीके लिए आभूषण, विलेपन और वस्त्रादि दिये और यह कहकर कि अपनी पसन्दकै षड़े ले लो, उसने भक्ष्य पदार्थोंसे भरे घड़े बता दिये। तब बहुभोज्यसे भरा एक-एक स्वर्ण पात्र एक-एकने ले लिया। रत्नोंसे भरा घड़ा प्रियदत्ताके हाथ लगा, भवितव्यका मार्ग कौन लोघ सकता है ? गुणवती, यशोवती, नामावली, शुभसखी प्रजापालकी पुत्रियोंने यह भक्ष्यपदार्थोसे भरा स्वर्णपात्र नहीं लिया। एक क्षणमें उनका मन संसारसे विरक्त हो गया।
पत्ता-(वे कहने लगी ) अच्छा है पशुओंसे मुखर पर्वतरूपी घरमें प्रवेश कर तप किया जाये । सुधिसम्मान और दानके लिए, हे सखी कलह नहीं करनी चाहिए ।।२४॥
૨% राजभवनके निकट स्थित जिनमन्दिर में अमृतवती और अनन्तमती आर्थिकाओंके पास उन कन्याओंने नगाड़ोंकी मंगल-ध्वनियोंके साथ तप ग्रहण कर लिया। सुधीजनोंका उत्साह बढ़ानेवाले उस वणिकपुत्रका प्रियदत्ताके साथ विवाह कर दिया गया । व्रतोंका पालन करनेवाला लोकपाल मरकर प्रजापालका गुणवान् पुत्र हुआ। देवश्री देवी मदमाती चालसे चलनेवाली घनवतीकी वसुमती नामकी पुत्री हुई। पिछले जन्मकी पत्नी वह ( वसुमती ) उसको (प्रजापालके पुत्रको) दे दो गयी। फिर दोनों प्रेमपाश में बंध गये। पुत्रको अपनी कुल-परम्परामें स्थापित कर राजाने (प्रजापालने) भी मुनिव्रत ले लिये। कनकमाला आदि देवियाँ भी संन्यास लेकर स्थित हो गयीं । और भी जो परिजन थे वे भो प्रवजित हो गये। जो कोमलमतिके लोग थे वे सब सगर्व घरमें रह गये । कुबेरमित्र नामका एक बूढ़ा मन्त्रो हो ऐसा था, जो तरुणोंके लिए शत्रुके समान था।
पत्ता-कुमति चपलमति ( तरुण ) कहता है कि न हम हँस पाते हैं और न खेल पाते हैं। वृद्धावस्थाको प्राप्त यह अप्रशस्त मनुष्य क्षुब्ध होता है ॥२५॥
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महापुराण
[२९. २६.१
२६
जो णिव तुह ताएं णिहिउ मंति तह देखणेण अम्हहुं ण संति । किं विह ढियकरण णियंति कज्ज़ हो थेरई कम्मु ण कि पि दिजु । मात्रउ अम्हई भिवंतु दिदि अच्छर णियमंदिरि ताम सेहि । राउ षि कुमार मंति वि कुमार दीर्ण वि होति जोव्वणि बियार । सुहिदिट्ठपरंपर बहु सुयडहु बारित पहुणा घर एंतु बुड्छ । अविपिसाबुद्धि कीलणसहाच सिसुमंतिहिं सहूं गयाहिराउ । अण्णहि दिणि पदणषणि पाहू अरुणश्च्छवि वाविजलोहु दिट्ठ । पुच्छित विहसिवि चवलमइ तेण । इह लोहिउ जलु किह कारणेण । बुइसिविसिट्ठगईघुरण पडिपि विचलमई सुपण ।। "वाषीयलि अच्छा मणि णिहितु तहु छाया दीसइ सलिलु रत्तु । ता तेहि मिलिवि असंसरहिं पाणिउं बहि बलि घडसएहिं । चिखल्लतल्ललोलणविलोल थिय सयल णाई कर्यफील कोल । माणिकुण दिट्ठर तेहिं केम बहुमोहंधहि जिणक्यणु जेम । अपणाणफिलेसें णस्थि सिद्धि गय घरह परिक्खिय मंतिबुद्धि । धत्ता-रुंगावा सपणयकोवइ पयहिं पडंतु वि कयरइ ।।
वसुमइयइ रयणिहि दइयइ चरण सिरि हर णरवइ ॥२६।।
मंडलियमउडाइरइयराइ अत्याणि णिसणे सुप्पहाइ। 'जो मह सिर पहणइ णियपएण तहु किं वुत्त णरव इणएण । से तरुणमति पुच्छिय णिवेण तेहिं वि पनत सर्फरुसरवेण । तुह जेणे दिपणु सिरि चरणधार खंडिबा णिव तहु तणउ पाउ | तं वयणु सुणेप्पिणु विमलवंसु संठिउ हेद्वामुह रायहंसु। महु सिरचूडामणि मयणसरणु खंडिज किह सुंदरिहि चरणु । अविवेल महंतच जासु गेहि दुकल सिरि णिवसई तासु देहि । संसिद्धसमग्गतिवमालिंगु भल्लारउ मुवणि वियहसंगु । इय चिंतिवि णियकुलकमलमित्त, कोकाविउ तेण कुबेरमित्त । आच्छिर तंणीरारणत ___ अवरु वि जं सीसि पयग्गु चित्त । तं णिसुणिवि मामें वुत्त एम पाणियरत्तत्तणु णिसुणि देव । घत्ता-रसगिद्धे घंतित गिद्धे तीररुक्खि मणि अच्छष्ट् ॥
तहु छायइ पसरियरायइ जणु वणु लोहिउ पेच्छाइ ॥२७॥
२६.१. MB देसणि अम्हइं पाहि संति । २. MB भिउडत । ३. MBK दीगह । ४. MB किं । ५. MB
धावीजलि | ६. B असेसएहि । ७. MB चिक्खिल्ल । ८. ME कयलील । ९. MB गुरु । २७. १. MB ornits this line 1 २. MB फसें मणेण । ३. MB दिग्ण जेण । ४. B गहि । ५. MB
अवरु वि सीमें पमलग्गु पित्त, । ६. MB चित्तउ।
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२९. २७.१३]
हिन्वी अनुवाद
२५७
२३
हे राजन् ( लोकपाल ), तुम्हारे पिताने जो मन्त्री रखा है, उसको देखनेसे हमें शान्ति नहीं मिलती। विगलित इन्द्रियोंवाला वह क्या काम देखेगा? अरे, वृद्धोंको कुछ भी काम नहीं देना चाहिए । वह हम लोगों को भकुटियोंके बीच दृष्टिपथमें न आये । वह सेठ तबतक अपने घरमें रहे। राजा भी कुमार था और मन्त्री भी कुमार था। दोन भो व्यक्ति योवन में विकारशोल होता है। तब राजाने पण्डितोंकी परम्पराको देखनेवाले वृद्ध मन्त्रीको घर मानेसे मना कर दिया। अपरिपक्व बुद्धि और कीड़ा करनेके स्वभाववाला यह राजाधिराज शिशुमन्त्रियों के साथ दूसरे दिन नन्दनवनमें प्रविष्ट हुआ । वहाँ उसने लाल कान्तिवाला बावड़ी-जल देखा। राजाने हंसकर चपलमतिसे पूछा कि यह पानी किस कारणसे लाल है ? पण्डितोंके द्वारा कही गयी विशिष्ट बुद्धिसे रहित विपुलमतिके पुत्र चपलमतिने प्रत्युत्तर दिया कि बावड़ीके तलमें मणि रखा हुआ है, उसकी कान्तिसे जल लाल दिखाई देता है। तब संशय रहित उन लोगोंने सैकड़ों घड़ोंसे बावड़ीका जल बाहर फेंक दिया। समूची बावड़ी ऐसी दिखाई देने लगी मानो कोचड़के तलभागमें लोटनेसे चंचल, क्रीड़ा करता हुआ सुअर स्थित हो। परन्तु उन्हें माणिक्य उसी प्रकार दिखाई नहीं दिया, जिस प्रकार अत्यधिक मोहसे अन्धे लोगोंको जिनवरके वचन दिखाई नहीं देते। अज्ञान पूर्वक क्लेशसे सिद्धि नहीं होती। वे घर गये। वहां मन्त्रीकी बुद्धिको फिर परीक्षा की।
पत्ता-अत्यन्त गर्दीली प्रणयपूर्वक कोपवाली पत्नी वसुमतिने रात्रिमें पैरोंपर पड़ते हुए प्रेम करनेवाले राजाको सिरमें पैरसे आहत कर दिया ॥२६॥....................
मण्डलित मुकुटोंकी कान्तिके समान शोभित, प्रभातमें आसन पर बैठे हुए, राजासे उन तरुण मन्त्रियोंने भी कठोर शब्दोंमें कहा कि जिसने तुम्हारे सिरपर लातसे प्रहार किया है, हे राजन्, उसके पैरको काट दिया जाये । यह वचन सुनकर विमलवंशका वह राजहंस अपना मुंह नीचा करके रह गया कि मेरे सिरकी चूड़ामणि, कामदेवकी शरण सुन्दरीका चरण कैसे खण्डित किया जाये ? जिसके घरमें महान् अविवेक रहता है, उसके धरमें लक्ष्मी बड़ी कठिनाईसे निवास करती है। अत: जिसे समग्र त्रिवर्गको पहवान सिद्ध है, ऐसा वृद्ध संग ही जगमें अच्छा है। यह विचारकर, अपने कुलरूपी कमलके लिए सूर्यके समान कुबेरमित्रको उसने बुलवाया और पूछा, पानीका वह लाल होना और जो सिरमें पादाप्रसे आहत किया गया था। यह सुनकर आदरणीय कुबेरमित्रने कहा-हे देव, पानीका लाल होना सुनिए
धत्ता-रसके लालची गृद्धके द्वारा छोड़ा गया मणि तटके वृक्षपर स्थित है। उसकी कान्ति फैलनेपर लोग जलको लाल देखते हैं ॥२७॥
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२५८
महापुराण
[२९, २८.१
२८
गुरुणारीडिंभयचरणु पहि सिरिलगगइ अण्ण ण सहलविहुहि । तुइ पुणु जाणवि रोसंफियाइ सिरि घनित होही पर पियाइ। तं पुजिजेइ धरणेटरेण
ता संथुस सेट्ठि महीसरेण । धवार पइहि फरुलोलिणीलि विट्ठउ पलियंकुरु कण्णमूलि । साइंतु व जिणधम्मोवपसु जरवासिर दूसिउ दइयकैसु तं पेपिछवि भन्छ कुबेरमित्तु अवरु वि पन्वइउ समुदत्त । सुरमहिहरू गंपि सुधम्मजाइहि । हूया सुसीस सुविसुद्धमइहि । जाया मरेवि मेहारहासि
लोयंतिथं सुर बंभंतवासि । षिउलमेह णाम चारणमुणिंदु पियदत्तइ मुंजाविउ अणिंदु । सिसु चिंतिवि पुच्छिउ त दुगेमु कश्यहुं होसइ मुणिणाह मज्नु । दाहिणपंचंगुलियस करग्गि वामइ कणि? दाविधि णइम्गि । गत मुणिवरु फाले पंच पुत्त लहुएं कुबेरदशरण जुत्त। जो सचदेव मुढं सो जिएस संभूत पुणु वि पिउ बद्धणेहु । घत्ता-कह गिरबहु तोसियभरहहु जयष्टु सुलोयण भासइ ।।
सोहंती पहई फुरती कुंदपुष्फदती सइ ।।२८।
इस महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकापुप्फर्यतविरहए महामस्वभरहाणुमब्धिाए महाकावे जयमहारायसुलीयणामवसंमरणं णाम एकूणतीसमो
परिच्छेओ समसो ॥२१॥
संधि ॥२२॥
२८. १. B पुज्जजह । २. MB सुसीसु विसुद्ध । ३. MB हिमहारहासि । ४. MB लोयंतिय ते ।
५. MH विमलम 1 ६. MB तउ । ७. MB सुट । ८. MB पहय ।
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२९. २८.१५]
हिन्दी अनुवाव
२५९
अपने कुलके चन्द्र राजाके सिरपर गुरु, बालक और स्त्रीका पैर लगता है अन्यका नहीं। I. . . . "और गंभ यह जानकर कि क्रोधसे भरी हुई नियाके द्वारा तुम्हारे सिरपर लात मारा गया होगा,
उसे तुम्हें श्रेष्ठ नूपुरसे पूजना चाहिए। यह सुनकर राजाने सेठकी प्रशंसा की। धनवतीने केशराशिसे नीले कर्णमूलमें सफेद बाल देखा, मानो जिनधर्मका उपदेश कहते हुएके समान वृक्षारूपी दासीने पतिके बालको दषित कर दिया था। यह देखकर भव्य कबेरमित्र और दसरा समद्रद भी प्रवजित हो गया और सुमेरुपर्वत पर सुविशुद्ध मतिवाले सुधर्म मुनिके पास जाकर उनके अच्छे शिष्य बन गये । मरकर वे ब्रह्म स्वर्गमें बुद्धिसे महान् लोकान्तिक देव हुए। प्रियदत्ताने विपुलमति नामक मन्तिम चारण मुनीन्द्रको आहार कराया और बच्चेका विचारकर उसने पूछा-हे मुनिनाथ, मुझे दुर्ग्राह्य तप कब प्राप्त होगा? तब हायके अग्रभागको पांच दायों अंगुलियां और बायें हाथको कनिष्ठा बताकर वह आकाशमार्गसे चल दिये। तब सबसे छोटे कुबेर दयित सहित उसे समयके साथ पांच पुत्र हुए। वह सत्यदेव भी मरकर वही यह हुआ है, बद्धनेह और प्रिय ।
पत्ता-निष्पाप भरतको सन्तुष्ट करनेवाले जयसे सुलोचना कथा कहती है। प्रभासे विस्फुरित वह कुन्दपुष्पोंके समान दांतोंवाली वह शोभित है ॥२८|
इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषोंके गुण-अलंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामण्य मरत द्वारा अनुमत महाकाम्पका जय महाराज सुलोचना-भव
स्मरण नामका उनतीसवाँ परिमच्छेद समास इक्षा ॥२९॥
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संधि ३०
अमियमइअणंतमईसई हिं सीलगुणेहिं पसाहिच ।। जिणवइगुणवइवरजसवइहिं रधुवगु संबोहिउ ।। ध्रुवकं ।।
लोयवालु सा बसुमइ राणी पलरंदरियहि तेयहिं समोणी । बारहविहदिक्खाइ समग्गई बिपिण वि सावयवइ दिदु लग्गई। खंतिहिं कहियउँ धम्मु गिरतरु असहमग्गि लग्गउ अंतेवरू । णिषुच्छवमंगलणिग्धोसा ताम कुबेरक्तवाणिवासहु । चरियागरको शिस्मराराट. ... .. संघाकामयसाय । यदत्तावरइत्तै णवियर
छुहु जि तेण पंगणि पत्र थवियत्र । ता वहिं पक्खिजुयलु संपत्त पक्खहिं पहणइ पयरत भत्तउ। ' दोहि विमणि गणिहिंजोयंत धम्मबडिहोउ ति भर्णताम्। रिसि पेच्छिवि भउ सुमरिवि मुच्छिउ महि हि पद्धंतु णरेहि पियकिछउ । सलिले सिंचित थियज सइत्तउ अवरोप्परहुं जि णवर विरत्त । भरई पक्खि कि कीरइ पक्खिणि कहिं रइवेय महारी पणइणि । सरइ संकोंति पुण्णससिकते किह जीवमि णिम्मुक सुकत । घसा-सोहापुरि बहुबरु एउ चिरु एवहिं दंपइ णहयर ॥
लोलंत पलोयवि धरणियले कड अलाह गय मुणिवर ।।१।।
वसुमईइ णवपंकयणेत्तइ चंचुइ पट्टियम्मि संणिहियई णहयरियहि सकंतु जाणाविर मा विहडेवि चरह म विरप्पह
बिपिण चि पुच्छियाई प्रियदत्तइ । दोहिं मि गयभवणामई लिहियई। रश्वेयागमु खयरहु दावित। विणि षि सुई मुंजह कंदपङ् ।
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MB give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :
णाइन्दणरिन्दरिन्दवन्दिया जणियजणमणाणन्दा ।
सिरिकुसुमदसणकइमुहणिवासिणी जया वाईसी ॥१॥ GK give this stanza as well as tarifare: etc, here for which see note
on Samdhi xxix. १. १. MB सियहि । २. M सवाणी। ३. MIT सिक्खाइ। ४. MB कहिन । ५. MB परंतर !
६. MB पिथदत्ता । ७. MB ता तं पक्खिमिहशु । ८. MB मणह । ९, MB सुफंति; T सर्कुति । २. १. MB पियदसह । २. MB पट्टयम्मि ।
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सन्धि
३०
अमृतमतो और अनन्तमती सतियों तथा जिनवती, गुणवती तथा श्रेष्ठ पशोवती आदि द्वारा शीलगुणोंसे प्रसाधित बन्धुवर्गको सम्बोधित किया गया।
वह राजा लोकपाल, वह रानी वसुमती, जो इन्द्राणी-जैसी स्त्रियोंके समान थी, बारह प्रकारको दोसासे, वे दोनों श्रावकवतके अपने मार्गमें लग गये । शान्ति आयिकाने निरन्तर धर्मका आख्यान किया। अन्तःपुर जिनमार्गमें लग गया। इतने में जिसमें नित्य उत्सव मंगलका निर्घोष हो रहा है ऐसे कुबेरकान्तके निवासस्थानपर चरियामागमें रागसे रहित बंधाचारणयुगल आया। प्रियदत्ताके पति लोकपालने उसे नमस्कार किया, उसने भी शीघ्र उसके आँगनमें पैर रखा । इतने में वहां दो पक्षी आये, भक्त वे मुनिके चरणोंकी धूल अपने पंखोंसे झाड़ते हैं। दोनों गुणी मुनियोंने देखते हुए 'धर्मबुद्धि हो' यह कहा। ऋषिको देखकर और अपना पूर्वभव याद कर पक्षियोंका वह जोड़ा मूच्छित हो गया। धरतीपर गिरते हुए उसे लोगोंने देखा। पानी सोंचे जानेपर जब वे सचेत छए तो केवल एक दूसरेके प्रति विरक्त हो उठे। पक्षी याद करता है, पक्षिणी क्या करती है। मेरी प्रणयिनी रतिवेगा कहाँ है। पक्षिणी याद करती है कि पूर्णचन्द्र के समान कान्तिवाले सुकान्तके बिना मैं किस प्रकार जीवित रहूंगी?
पत्ता-पहले शोभापुरमें यह वधूवर थे और इस समय नभचर दम्पति हैं। धरतीतलपर पड़े हुए देखकर ( और इसे ) अन्तराय मानकर मुनिवर चले गये ॥१||
नवकमलोंके समान नेत्रोंवाली प्रियदत्ता और वसुमतीके द्वारा पूछे जानेपर दोनोंने चोंचोंसे लिखे गये गत भवके नामोंको रख दिया। पक्षिणीके द्वारा अपना पति सुकान्त बता दिया गया, और पक्षोके लिए रतिवेगाका आगमन बता दिया गया । "अलग-अलग होकर मत विचरो, एक
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५
१०
१०
१०
२६२
वय तेण ताई पुणु रत्तई रुपयगिरिसमीचि सुरवर गिरि ते हि चारण जनवर महि अमईहि वि पुच्छि ते कुसुमसरणिवारा
महापुराण
कणु चुर्णति खेति प करिदंसणविरुद्ध रुजियहरि । ....... लायवि थक तिणाणदिबायर | जायद संजहि बिहिं तीहिं वि । पारावयसं बंधु महारा ।
पत्ता - माणव मिडुगुल तं मरिवि भवसंषष्टि संदाणि || मुणि अक्ब रक्खइ कि पि ण वि जिह णाणेण वियाणिडं ||२||
जिह इसलि पहूयई बालई जिह जायउ विवाह जिह हई जिह खलु मंगलग्गु भिच्छिउ पाटिल व जिद सज्जणसस्थ जिड़ परि रिवणा कराए पलीवणु ये जिह जिह साहिल मुनिगार्डे विह सिंह कंतियादि आनेष्पिणु सुहसंजोय सिद्धिलिय सोयहु
३
रवेया कंतणामालाई । जिह सामंत सरजु पट्टई । कण्ण कडुव यहिं दुगुछिए । जिह भत्र उ सुइसामर्थे । जिद्द बहुषरु पत्तर पक्खित्तणु । मयणहरिण विद्वंसणवाऐं । लोवारवर पसेप्पणु 1 साहिब सयलहु सावयलोयडु |
घत्ता - इयणिसुणिवि जणवर धम्मरुद हूयड विथैसियत्रत्तइ || गुणवइजसवइपायंतिय लक्ष्य व मृगणेत्तर ||३||
[ ३०.२.५
४
घर मे पणु घणवइसे ट्टिणि । दिक् लेषि थिय सुट्ट अदणी | तं विद्दिविदिवि चोइन । कहिं मि तु पुरंतिमगामहुँ । जाम चरs किर वइसामीवइ । बिंदु व पिंगलोयगु । उट्टे तहिं जाय मंजन | सेण कंठि पाराव लईयउ । णियपियपरिहवि गोरि वि कुप्पड़ । कमसति खगु खधु विरालें ।
अजय हुई सम्माइट्टिणि अवर कुबेरसेण रायाणी किंकरेण केण वि ण पलोइड गव कत्रोयजुयलु साराम क चंचु कडुइ जयगीवई सरहुँदुर सेढामि सभी असुरतिक्खकुडिलगहूपं जरु वविवराव झति णीसरियड पक्खिणि पासिहि भमित्रि झडप्पर चिरभवइरें दसणकरा पत्ता - मुइ जहि दुहविद्दाणियए विहि बलवंतु पत्त ॥ are a fort रिन्द्रियैए पिसदंसह मुहि धित्त ||४||
३. MB] पडिवत्तमं । ४. MB पमत्तई । ५. MB विरुद्धे जिय ।
३. १. MB वर २ MB इह । ३. MB विहसिय" 1४. MB व मिगं ।
४. १. K भवंतु। २. MB परंतम । ३. MB णीहरियउ । ४. K धरियउ। ५. K णारी कुप्पड़ ।
६. M कसमसंतु: B
समसत्तु । ७. T रिच्छिए ।
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२०.४.१२] हिन्दी अनुवाद
२६३ दूसरेपर विरक्स मत होमो, दोनों ही कामका सुख भोगो।" इन शब्दोंसे वे दोनों पुनः अनुरक्त हो गये । वे कण चुगते और दूसरेपर आसक्त होते हुए क्रीड़ा करते हैं। तीन ज्ञानरूपी दिवाकरवाले के जंघाचारण मुनि आकर सुमेरु पर्वतपर विजया पर्वतके निकट, जहां कि गजोंको देखकर सिंह उनके विरुद्ध दहाड़ते रहते हैं, स्थित हो गये। अमृतमती और अनन्तमती भी और वे तीनों आयिकाओके द्वारा भी जाकर, कामदेवके बाणोंका निवारण करनेवाले आदरणीय मुनिवरसे पारावतके सम्बन्धके विषयमें पूछा।
पत्ता-जिस प्रकारसे यह मानव ज़ोहा मरकर भवसंकट में पड़ा था और जिस प्रकार उन्होंने केवलज्ञानसे जाना था, वह मुनि सब बताते हैं। कुछ भी छिपाकर नहीं रखा ।।२।।
किस प्रकार वैश्यकुलमें दो बालक उत्पन्न हुए थे-रतिवेगा और सुकान्ता नामसे । किस प्रकार उनका विवाह हुआ और किस प्रकार भागे, किस प्रकार सामन्त शक्तिषणको शरणमें गये। किस प्रकार पुष्ट पीछे लग गया, किस प्रकार उसे डांटा गया और कर्णकटु अक्षरोसे निन्दित किया गया। सज्जनको संगतिसे किस प्रकार प्रतोंका पालन किया और किस प्रकार सुख सामर्थ्य से जन्म लिया। किस प्रकार शत्रुने उनके घरको जला दिया और किस प्रकार वधूवर पक्षियोनिको प्राप्त हुए? कामरूपी हरिणके विध्वंसके लिए अखेटकके समान मनिनाथने जिस-जिस प्रकार कहा उस-उस प्रकार कान्ताओंने आकर और लोकपालके पुरवरमें प्रवेश कर शुभ संयोगवाले शिथिलित स्नेह समस्त प्रावकलोकसे यह सब कहा ।
वत्ता-पह सुनकर जनपदको धर्ममें रुचि हुई। विकसित मुखवाली मृगनयनी प्रियदत्ताने गुणवती और यशोवती बायिकाके चरणोंके मूलमें व्रत ग्रहण कर लिया |३||
घनवती सेठानी भी घर छोड़कर सम्यकदर्शनमें स्थित होती हुई आर्यिका हो गयो। और कुबेरसेना रानी भी दीक्षा लेकर मदीन हो गयो। एक बार किसो नौकरने नहीं देखा और विधिके विधानसे प्रेरित होकर कबूतर-कबूतरीका वह जोड़ा घूमता हुआ, उद्यानवाले नगरके सीमान्त प्राममें चला गया। अबतक वह अपनी गर्दन मुकाकर चोंचसे कण निकालता है और बाड़के समीप परता है, तभी वह दुष्ट, उन्मत्त (सरदुंदुर और सेठ) के आमिषका भोजन करनेवाले, नवमघुबिन्दुके समान पिंगल आँखोंवाले, अशुभ तीखे और कुटिल नखोंके शरीरवाले बिलावके रूपमें उत्पन्न हो गया । बाइके विवरसे शीघ्र निकलकर उसने कबूतरको कण्ठमें पकड़ लिया। कबूतरी सब ओरसे घूमकर उसपर झपटती है। अपने पतिके पराभवपर स्त्री भी कुपित हो उठती है। पूर्वजन्मके देरके कारण कांतोंसे भयंकर उस बिलावने कसमसाते हुए उस कबूतरको खा लिया।
पत्ता-पतिके मर जानेपर दुःखसे विदारित कबूतरीने विधिको बलयान कहा और अपनेको तुणवत् समझती हुई उसने सापके मुंहमें गल दिया !
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२६४
महापुराण
पविखहिं पसुहृ वि पेम्मु एयदृश् णरह ण किं विरहें मणु फुट्टइ।। पुणु तहिं पुखलवइदेसंतरि जीवदयाहलेण सुहसुंदरि । रययसेलि खगदाहिणसे ढिहि सिरिहि णयरिहि मोक्खं णिसेणिहि । विणयरगइ णिषसइ खयरेस तेएं णं पञ्चरखु दिणेसरु । बहु ससिपहदेविनि बुद्ध प्रदाता शिक्षाका तेत्थु जि गिरिवरि उत्तरसेढि हि गउरीविसयभोयपुरुरूढि हि । चडियउ तहिं राणउ विज्जाहरु । __ मारह माइविय हि देविहि बरु । सा रइसेण मरिवि तहिं पक्खिणि ताहं बिहि मि हुई णं जक्खिणि । धूय पसिद्ध पहावइ णामें
रूवें सलाहि जिइ सा कामें। गयउ कहिं वि णंदणवणकीलइ दिट्ठ कवोयमिहुणु तहिं लीलइ । तेण हिरण्णवम्मणामाल
परमंत्र सुमरिवि लिहियज बालें। पडि जं वित्तउ जम्मकहाण पेक्खिरूपविरदयसमाण उं । घत्ता--कैद पिउणा पवरसयंवरए ताइ मयपिछइ लक्खिन ।।
पारावयजुयलल णियणियडे संचरंतु सुणिरिक्खिउ ।।५।।
णियभवु बुझिवि णिवडिय महियलि सिंघिय पाणिएण सिरि उरयलि। रइसेणाचरि मज्झ खामिय सा रइवरविरहें आयामिय । कंचुइणा णरवइ विषणवियउ दुहियहि देड्ड दुरोएं खवियउ । होउ सयंवरेण किं किनइ आउ आउ खगवह जाइजइ । दइयई चित्तपटु पट्टाविज सो वि ताइ णियहियवइ भाविउ । मंदेरि जायवि गइरणु मंडिल फुल्लदामु जं सई तेहि छनि । सुरगिरि परियचिवि द्धाइय खयरह अग्गइ कुंरि पराइय । लइयउ तं जाव सुरु ण पाव पुत्तिहि केरी गैइ को पावद। जाम जणशु हरिस कंद इय३ मंतिवयणु अवलोयघि मुइयउ। खेघरणियरु जाप छुडु जित्तर ताप हिरण्णवम्मु तहिं पत्ताउ । घत्ता-पुणु माल पञ्जिय मंदरहो बिणि वि सह धावंतई ।।
विदई फणिकिणरससिरविहि तरितं पयाहिण देई ।।६।।
५. १. MB उसिरहिं । २. MBK सोक्स । ३. K घडिउ । ४. MB णं । ५. MB पक्विणिभवधि
रक्ष्यसंमाण; K पविखरूवु विरश्य । ६. MB कय । ६, १. M3 मंदरु । २. MB ज तहि सई छडिउ । ३. MB कुमरि । ४, MB को गद ।
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३०. ६.१२]
हिन्दी अनुवाद
२६५
५
जब पशुओं और पक्षियोंमें प्रेम होता है तो मनुष्यका मन क्या विरहसे विदीर्ण नहीं होता? फिर वहीं जीवदयाफलसे सुन्दर पुष्कलावती देशमें विजयाथै पर्वतको दक्षिण श्रेणी में मोक्षकी नसेनी उशीरवती नगरी में आदित्यगति नामका विद्याधर राजा निवास करता था । तेजमें वह मानो प्रत्यक्ष कामदेव था । उसको पश्नी शशिप्रभासे रतिवेग ( कबूतर ) हिरण्यवर्मा नामक कामदेव के समान सुन्दर पुत्र हुआ। उस पर्वत में गौरी देश और भोगपुर नगरसे प्रसिद्ध उत्तरश्रेणी में वायुरथ नामका विद्याधर आरूढ़ था, जो स्वयंप्रभा नामक विद्याधरीका पति था । वहाँपर वह रतिषेणा नामकी पक्षिणी मरकर उन दोनोंसे इस प्रकार जन्मी, मानो यक्षिणी हो । वह कन्या प्रभावतीके नामसे प्रसिद्ध थी । रूपमें उसकी प्रशंसा कामदेवके द्वारा की जाती थी । एक दिन कुमार (हिरण्यवर्मा ) नन्दनवन की क्रीड़ाके लिए कहीं गया हुआ था । उसने देखा कि एक कबूतर जोड़ा क्रीड़ा कर रहा है । उस युवा कुमारने पूर्वजन्म की याद कर पट्टपर जो पक्षीरूपमें आचरित सम्माननीय बीता हुआ जन्म कथानक था, वह लिख डाला । घत्ता - स्वयंवरवाली उस मृगनयतीने अपने जाते हुए उसने एक कबूतर - जोड़ा देखा ||५||
प्रियको लक्षित नहीं किया। अपने पाससे
६
अपने पूर्वजन्म की याद कर धरतीपर गिर पड़ी। उसे सिर और उरललपर सींचा गया। रतिषेणा जी मध्य में क्षोण प्रभावती रतिवर विरहसे पीड़ित हो उठी। कंचुकीने राजासे निवेदन किया कि कन्या की देह लोटे रोगसे नष्ट हो गयी है । स्वयंवरसे क्या ? हे विद्याधर, आओ आओ चला जाये । प्रियने उसे चित्रपट भेजा है जो उसे अपने हृदयमें अच्छा लगा । मन्दिरमें जाकर उसने गति प्रतियोगिता प्रारम्भ की है। जिस पुष्पमालाको वह स्वयं छोड़ती है, यह सुमेरु पर्वतको प्रदक्षिणा के लिए दौड़ी, और विद्याधरोंके आगे कुमारी पहुंची, तथा जबतक वह उसे ले नहीं लेती, तबतक सुख नहीं पाती। पुत्रीकी गतिको कौन पा सकता है। जबतक पिता हृषैसे रोमांचित होता है और मन्त्रोके वचनको देखनेके लिए जाता है और जबतक विद्याधर समूह जोत लिया जाता है, तबतक हिरण्यवर्मा वहाँ पहुँचा ।
घत्ता -
-- फिर सुमेद पर्वतसे पुष्पमाला गिरा दी जाती है और दोनों साथ दौड़ते हैं। शीघ्र ही परिक्रमा देते हुए उन्हें नाग, किन्नर, चन्द्रमा और सूर्यने देखा ||६||
२०३४
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२६५
महापुराण
[३०.७.१
रहबरचक रइरहसे चोइड घुलइ माल जहिं तहिं संग्रह। तेण परिच्छिय महि हि पडती पायलि स्वगको मिणि व णडती। दिट्ठी कुसुमावलि अलिधारिणि कामें संघिय सरधोरणि । दोहिं वि परियई चषिधि चिसइ धोलतई विवलतइंणेत्तई। दोहि मि दिण्णलं दलियफर्णिव दढलअंकुसु मयणगइंदह। गॅस वर ताई जोयवि मणहारिणि तावंतरि संठिय पियकारिणि । पर साइ तासु देक्वालिट सेण वि तरलच्छोहि णिहालिय। जोइलि त्रुजिषय पहिलयका ::: ताहि सा तरुणि पहाणी। ससयण पिषहरु पत्त पहावद जो णाईबहु वष्णहुं णावइ । कस विवाह बहुतूरणिणायहिं रविगइमारुयरहखगरायहि । दोहिं वि कतार्फतहुँ एयहुं पयलियपेवंबंधेपासे यहुँ । धत्ता-परियलइ कालु कुलमंडणहं पसरियविट्टिवियारहं ।।
दसणसभासणगुणविणयदाणदिण्णसिंगारई ॥७॥
अण्णहिं वासरि वे वि रमंतई पत्तई गयणुच्छंगि चंडवई। हलियर्घटाटकाराल
सिद्धसिहरु णामेण जिणालट । मोहजालतरुजालहुयासह सहि पुजिवि पहिमा जिणेसह । मुणि बम्मइवम्मोइवियारणु पुणु वंदिवि सम्वोसहिचारणु । पुपिछड णियेय तेहिं जम्मतरु रिसिणा कड़ियन गयउ कहतह । वणिभवि मायापियरई तुम्हह जाई ताई एवहं सुई कम्महं ।। पुणु संजायई केत्तिस सीसह भवसंसारहु छेउ ण डीसह । जो भवदेवप्पु चिर पणिवत यह उप्पण्णड सोहणहयर। पुषणामु सिरिवम्मु पयासिर रिसि सम्वोसहिचारणु भासिर । गयणगमणु तबताये सिद्ध सइयड पाणु विसेसें लद्धउ । पणविवि पयजुयलब रइसेणहु मुकउ दुझियदुक्वविहाणहु । घता-गुरुवयणकुठारे तिक्खरण भषतरुवक मई छिण्ण॥
विधतस पंचहि मगपाहि मयणु दिसायलि दिपणज ।।८।।
७. १. MB संपाविज । २. MB खगका मिणि णिवडती। ३. G विधई। ४. M3 गउ वह जोइपि बहु
मणहारिणि । ५. MB दिवमालित । ६. MB रविगय । ७. MBK पेम्मघ । ८. १. MB परंतई। २. MB मोहमहातरुजाल । ३. MB तेहिं णिक्य । ४. K सुकामहं । ५. MBK
कुडारें।
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३०.८.१३]
हिन्दी अनुवाप
२६७
रतिके हर्षसे प्रेरित, रतिवरका जीव (हिरण्यवर्मा) जहाँ माला गिरनेवाली थो, वहाँ पहुंचा। उसने आकाशमें विद्याधरीके समान नृत्य करती हुई और धरतीपर गिरती हुई उस पुष्पमालाको ग्रहण कर लिया। भ्रमरोंको धारण करनेवाली पुष्पमाला इस प्रकार दिखाई दो मानो कामने तीरोंको मालाका सन्धान किया हो । दोनोंने चितोंको चापकर रख लिया, दोनोंने गिरते हुए और कांपते हुए नेत्रोंको धारण कर लिया, दोनोंने नागराजोंको दलित करनेवाले मदनरूपी गजेन्द्रको लज्जाका दृढ अंकुश दिया। तब घर उस सुन्दरीको देखनेके लिए गया, इस बीचमें प्रियकारिणी आकर स्थित हो गयो। उसने उसका पट्ट उसे दिखाया। उसने भी अपनी तिरछी निगाहोंसे उसे देखा। देखकर वह पक्षीको कहाना समझ गया। यहां प्रमुख विद्याधर युक्तो प्रभावती स्वजनोंके साथ पिताके घर पहुंची। बहतों के निनाद के साथ आदित्यगति और वायुरथ विद्याधर राजाओंने ऐसा विवाह किया कि नागेन्द्र भी उसका वर्णन नहीं कर सकता। प्रेम. सम्बन्ध से प्रगलित बह रहा है पसोना जिनसे, ऐसे
पत्ता-कुलमण्डन और प्रसरिल दृष्टि विकारवाले इन दोनोंका दर्शन, भाषण, गुणविनयदान और श्रृंगार करते हुए समय बीतने लगा ||७||
एक दूसरे दिन कोड़ा करते हुए तथा आकाशको गोदमें चढ़ते हुए ये दोनों हिलते हुए घण्टोंकी ध्वनियोंसे निनादित सिद्ध शिखर नामके जिनालयमें पहुंचे। वहाँपर मोहजालरूपी तरुजालके लिए हताशनके समान जिनेश्वरकी प्रतिमाको पूजफर, फिर कामदेवके व्यामोहका विदारण करनेवाले सर्वोषधि चारण मुनिकी बन्दना कर उन्होंने अपने जन्मान्तर पूछे । मुनिने उन्हें बीती हुई कहानी बता दी। वणिभवमें जो तुम्हारे माता-पिता थे । सुकान्तके अशोक ओर जिनदत्ता, रतिवेगाके श्रीदत्त और विमलश्री ), इस समय शुभकर्मवाले तुम लोगोंके वे ही पुनः माता-पिता हुए हैं। कितना कहा जाये, भवसंसारका अन्त नहीं है। वह बेचारा भववेवका जीव वणिक्वर, मैं यहाँ उत्पन्न हुआ। पहला नाम श्रीवर्मा प्रकाशित हुआ फिर स!षधि चारण कहा गया । तपके प्रभावसे आकाशगमन सिद्ध है और विशेष रूपसे तीसरा अवधिज्ञान मुझे प्राप्त है। पाप दुःखोंका नाश करनेवाले रतिषेण मट्टारकके चरणयुगलको प्रणाम कर में मुक्त हुआ।
पत्ता-गुरुवचनरूपी तीखे कुठारसे मैंने संसाररूपी वृक्षको छिन्न-भिन्न कर दिया और पाच बाणोंसे बिद्ध करते हुए मैंने कामको दिशाबलि दे दी ||८||
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१०
५
१०
२६८
सुहमद वद्द्द्विय रमणिहि रमणहु मेहकूड जो बिष्ण
महापुराण
९
तं आणि िगयई सभवणहु । मारुयरहु फयज्ज पवण्णउ । दियरगइ वि जइत्तणि संठिड। रखि हिरण्णवम् तद्दु केर । महरहु दि चित्तरहहु । घण्णय मालवणंतरि भमियई । बिष्ण व वजम्मु जाणेपिणु । रजि सुवण्णवम् सारिउ । चरणमूलि सिरिपालमुणिक्हु । पण पावड़ गुणगस्य गुणि । करणचरणसत्थत्थई सिक्खिय | ताई पुंडरिंकिणि अवइण ।
पुत्तु मणोर रचि परिट्टिङ थिङ ब्भिउ सतंगपयारइ णियसुरइव तं सुह, णिव दहु अनहिं दिणि गणंगणि रमियई संप्पसरोवरचिंधु णिरविणु आयई णिपुरवर दकारिउ पेहूब सिरिकुवलय चंद सद्द हिरण्णवम्मु चारणमुणि गुणवइया पहाव दिक्खिय o भई कम्मुविण पत्ता - रिमिरिहित गरिविराइ ॥ जुयमेतदिट्टि वियरंतु तहि पृयदत्तहि घर आयउ ||
वणिणि विजयपणा रुद्धव आसवेष्पिणु किंण विमाणि पपइजोन्वणु हियपरिमियसुमहुरभा सिनियर पत्थु जि सजणणयणादिरि अहं भषि होताई कवोयई रइसेणाचररश्वरणामई श्रीणियाण मणुष्णु कुबेरकंतु वरु तेरड सेट्टिणि भण णिणि संजमधरि
तं जीवि भोजु सुद्धि | ताइ पहावइ भणिय णवेषिणु । किं तारुण्ण संसेवि षणु । तं णिसुणेवि भासि तबसिनियइ । अहर माइ तुहारइ मंदिर । किंण वियाणहि चिहियविणोयई । कंठसङ्घउको इयकामई । पत्तदोहिं मिलें नियमि मणु I कहिं सो अल सुहई जणेरउ | पियक णिपयपंकयमहुयरि ।
यता - कहिं विणि भवणु पराइयो जिणवरबइणिहि केरउ || महं भोषणु देवि मसियल पयजुयल सुहगारउं ॥ १०॥
[ ३०.९१
९. १. MB दिष्णु । २. MB सच्छु सरौ; T सच्छु and gloss यस्य तीरे पूर्वजन्मनि शक्ति पुण्येम रक्षितस्तस्येदं नाम । ३. MB सुबरेप्यिणु । ४. B सई । ५. MB कम्मुत्तिष्णई । ६. MB पुरबाहिर । ७. MB पियदत्तहि ।
१०. १. MB मुंजाविधि । २. MB अणुरन्तु । ६. MB पाणि ।
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३०. १०.१२]
हिन्दी अनुवाद
यह सुनकर पति और पत्नीकी सुमति बढ़ गयी और वे अपने घर गये । वायुरथ विद्याधर मेशिखर देखकर विरक्त हो गया और उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। उसका पुत्र मनोरय गहोपर बैठा । आदित्यगति विद्याधर भी जेनत्वको प्राप्त हुआ। उसके सप्तांग प्रकारवाले राज्यमें हिरण्यवर्मा स्थापित हो गया। अपनी पुत्री रतिप्रभा उसने सुखके समूह मनोहर पुत्र चित्ररथके लिए दे दी। एक दूसरे दिन उन्होंने आकाशके प्रांगण में रमण किया और धान्यमालक बनके भीतर भ्रमण किया। सर्प सरोवरके चिह्नोंको देखकर और पूर्वजन्मको जानकर दोनों अपने नगर आये। उन्होंने सुवर्णवर्माको पुकारा और राज्यपर प्रतिष्ठित कर दिया। ऋषिकुलबलयके चन्द्र श्रोपाल मुनीन्द्रके चरणमूल में चारणमुनि होकर पति ( हिरण्यवर्मा ) शोभित हैं। गुणी गुणोंसे महान वह उन्नति पाते हैं। गुणवती आर्यिकासे प्रभावती दीक्षित हुई। उसने करणानुयोग और चरणानुयोग शास्त्रोंके अर्थों को सीखा । कोसे विरक्त सभी भव्य पुण्डरी किणीमें अवतीर्ण हुए।
__ पत्ता-आर्यायुगलसे विराजित मुनि नगरके बाहर प्रवर उद्यानमें ठहर गये। युगमात्र है दृष्टि जिसको ऐसो आर्या गुणवती विहार करती हुई उस प्रियदत्ताके घर आयो ||९||
सेठानीने विनय और प्रणामसे उन्हें रोक लिया और स्निग्ध भोजन कराया। फिर योग्य आसन देकर उसने प्रभावतोसे प्रणाम करके पूछा-"तुमने अपने पतियौवनका तिरस्कार क्यों किया ? और तारुण्यमें तुमने वनका सेवन क्यों किया?" यह सुनकर हित, मित और सुमधुर बोलनेवाली तपस्विनीने कहा, "यहींपर सज्जनोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले इस तुम्हारे ही घरमें, दूसरे जन्ममें हे आदरणीये, हम कबूतर थे विनोद करनेवाले हम दोनोंको ( कबूतर-कबूतरी) क्या तुम नहीं जानती ? रतिषेणा और रतिवर नामवाले, अपने कण्ठ शब्दोंसे कामको संकेत करनेवाले। जीवदयाके लाभसे हम दोनोंने मनुष्य जन्म पाया और इसीलिए हम दोनोंने अपना मन नियमित कर लिया। बताओ तुम्हारा कुबेरकान्स वर कहाँ है ? सुखका जनक वह, इस समय कहाँ है ?" इसपर सेठानी कहती है-हे संयमधारिणी और जिनके चरणकमलोंकी मधुकरी, प्रियकी कथा सुनिए।
__घत्ता-एक दिन घरपर आयी हुई जिन संन्यासिनोको आहार देकर उनके शुभकारक दोनों चरणोंको नमस्कार किया ।।१०।।
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२७०
महापुराण
[३०.११.१
११ जिह. पई तिहमहु साइ पयासिउ णियतवकारणु णिहिलु समासिउ । इह रइसेणु णाम आयष्ठ चिर भूमिविहार स्थित सुंदरगिरु । गंवणवणि चलंत हितालइ
तालितालतालूरपियार। वेलीहरि पसुप्तु विज्जाहरु पायंगुद्वप लग्गर विसहरु । णाहु वि तह जि भमंतु पराइड धाडिवि फणिवाइ वगु अबलोइट। कोएं बंझं ईस ईरिस
गरु गरुलेण व तेणुत्तारित। हूयष्ठ गाढ बिहिं वि मित्चत्तणु गड खगु सणयरु वणियह सभवणु । आयर खेयर पुणरवि तं वणु अवलोयंतिइ बढुणायरजणु । उत्तउं कंतइ एत्थु जि अफटुं कोलोउ रमंतु णियच्छहुँ । ता रइसेणहु तणियइ णारिइ महु पिययम् जोइउ गंधारिइ। पत्ता-हियजल में दिएण सहि करउ बिलियउ॥
वरकुंजरपर चप्पिये दिसिहि जैलु चुच्छलियाई ॥११॥
१२
माणि पवियंभिइ जलयरचिंधह आमच्छिच पियवा 'पेम्मंधइ । कवणु एह पिर्ययम किं किंगर अक्खं जक्ख किं किंण विसहरु । तेण पउत्सउ मित्तु महारर वणिउ कुबेरकंतु गुणसार । एण मंतु गरलंसु विहाविउ फणिणा खद्धा हज जीवावित्र । बेवि समुकिभयचीपवियाणई कंकेशीतलतलि आसीणई। किं रक्खमि तिखाई गहगई फुलई चीणमि पिय तुइ जोगगइ । गय पिययम मिच्छुत्तर संधिवि। कंटएण करपार विधिषि । हा हा हरयएण हर्ड इंकिय णियरिय मिच्छाविसवेयकिय । कते ओसहसयई णिउत्तई
पियह घडावियाई सिरि णेत्तई । महिलहि कोण मुवणि वेहाविष्ट कंतु विओय सोय संप्राविउ । गज तेसहि तुरिएं पंजलियरु जाहिं अच्छइ उवइट्ठ महु वरु । पत्ता-तेगुत्तन आवहि मित्त तुई विसु सम्बंगई तावइ ।।
फणिदही परिणि महुं वणिय तुह मंते धुवु जीवइ ।।१२।।
११. १. K भवंतु । २. M चयिय । ३. MB जल व उच्छलियउं । १२. १. MB पैमंघद । २. MB कि पिययम । ३, MB अक्कु सबकु कि 1 ४. MB समुन्मियवीणक्यिाणई;
G समुग्मियवीणुवियाणई, but gloss समुद्धृतधीनाम्बरध्वजो "वितानो वा । ५. MB संपाविज । १. MB घुउ ।
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२७०
महापुराण
[३०.११.१
जिह पई तिह महु ताइ पयासिउ णियतवकारणु णिहिलु समासिउ । इह रइसेणु णाम आयध चिर भूमिविहार स्थिर सुंदरगिरु । णंदणवणि चलंसहिंतालाइ तालितालतालूरपियारइ। वेल्लीहरि पसुत्तु विजाहरु पायंगुट्ठ लग्गड विसहरू। णाहु वि तहिं जि भेमंतु पराउ धाडिवि फणिवा वगु अवलोहन । कोएं वझं इस ईरिस
गरु गरुलेण व तेणुत्तारिल। हूयक्ष गादु बिहि वि मित्तत्तणु गत खगु सणयरु वणिवइ सभवणु। आयउ खेयरु पुणरवि तं. वणु अवलोयंतिइ बहुणायरजणु । उत्तर कंतइ एत्थु जि अफछर्ल्ड कोडे लोट रमंतु णियच्छहुँ । ता रइसेणहु तणियइ णारिद महु पिययमु जोइन गंधारिह। पत्ता--हियजल उस में णिरएण तहि केरठ णिहलियउं ।
वरकुंजरघर पप्पियै दिसिहिं जैलु बुच्छलियर्ड ॥१२॥
१२ मणि पवियंभिह जलयरचिंधड आइच्छिच णियया पेम्मंधइ । कवणु एड्ड पिर्ययम किं किं णरु अक्खु जख्न किं किंणरु विसहरु। तेण पउच्चर मित्तु महारड वणिउ कुबेरकंतु गुणसार । एण मंतु गरळेतु विहाविउ फणिणा खद्धष्ट इउं जीवाविउ । थे वि समुंबिभयचीणवियाणई केलीतरुत्तलि आसीण। किं रक्खमि तिवाई जहगई फुझई चीणमि पिय तुह जोग्गइ । गय पिययम मिच्छुत्तर संधिवि। कंदएण करपल्लर विधिषि । हा हा रयएण छडं किय णिवडिय मिच्छाविसवेयकिय । कते ओसहसयई णिउत्तई पिय घडावियाई सिरि णेत्तई । महिलहि कोण भुवणि वेहाविड कंतु विओय सोय संप्रावित । गज तेसहि तुरिएं पंजलियरु जहिं अच्छइ उवइहर महु वरु । घसा-तेणुत्तव आवहि मित्त तुई विसु सवंगई तावइ ।
फणिदही परिणि महुं तणिय तुह मंते धुवु जीवइ ।।१२।।
११. १. K मवंतु । २. M चप्थिय । ३. MB जल व उच्छलियउं । १२. १. MB पेमेषइ । २. MB कि पिययम । ३, MB अक्कु सक्कु किं । ४. MB समुन्भियवीणरियाणई;
Gसमुग्भियवीणुरियाणई, but gloss समुद्घतचीताम्बरध्वजी "वितानो वा । ५. MB संपाविउ । 1. MB धुउ ।
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३०. १२. १३]
हिन्दी अनुवाद
जिस प्रकार तुमने, उसी प्रकार उसने अपने तपका कारण थोड़ेमें बताते हुए कहा-पहले यहाँ रतिसेन नामका सुन्दर वाणीवाला विद्याधर भूमिविहारके लिए आया था। जिसमें हिताल. वृक्ष आन्दोलित हैं, और जो ताली-ताल और तालूर वृक्षोंसे प्यारा है. ऐसे नन्दनयनके लताधरमें वहाँ सोया हुआ था, विषधरने उसके पैरके अंगूठेमें काट खाया। मेरा स्वामी भी घूमता हुमा वहां पहँचा। चिल्लाकर उसने वन में सांपको देखा। क्रोधसे उसने वं झं हंसक कहा । और गरुड़के समान उसने वह विष उतार दिया। उन दोनों में प्रगाढ़ मित्रता हो गयी। विद्याधर अपने नगर और सेठ अपने घर चला आया। वह विद्यापर द्वारा उस इनमें आया। वह बहत-से नगरजनों को देखते हुए उसको कान्ता गान्धारोने कहा कि मैं यहीं पर हूँ और कौतुकसे कीड़ा करते हुए लोकको देचूगी । तब रतिषणा नामक विद्याधरको स्त्री गान्धारीने मेरे प्रियतमको देखा।
धत्ता-निर्दय कामदेवने उसके हृदयको विदोणं कर दिया, मानो श्रेष्ठ गजके चरणोंसे आहत जल दिशाओंमें उछल पड़ा ||११||
१२
मनमें कामदेवके बढ़नेपर प्रेमकी उस अन्धीने अपने पतिसे पूछा- प्रियतम, यह कोन है, क्या मनुष्य है, बताओ क्या यह यक्ष है क्या किन्नर है? क्या विषधर है। उसने कहा यह हमारा मित्र है। गुणश्रेष्ठ कुबेरकान्त सेठ । इसे गरुड़ मन्त्र याद था। मुझे सौपने काट खाया था, इसने मुझे जोवित किया। चीनांशुकको धारण किये हुए वे दोनों अशोक वृक्षके नीचे बैठ गये। मैं इन तीखे नाखूनोंका क्या करूं? हे प्रिय, तुम्हारे योग्य पुष्पोंको चुनती हूँ। प्रियतमा चली गयी, और झूठ उत्तरको खोजके लिए, और कांटेसे करपल्लवको बेधकर, हा-हा मुझे सांपने काट खाया, इस प्रकार विषको झूठी वेदनासे अकित होकर गिर पड़ी। प्रियने सैकड़ों दवाइयोंका प्रयोग किया परन्तु प्रियाने अपनी गाँखें सिरपर चढ़ा ली। स्त्रीसे संसारमें कौन प्रवंचित नहीं हुआ । पति वियोग और शोकको प्राप्त हुआ। वह तुरन्त हाथ जोड़कर यहाँ गया, जहां मेरा पति ( कुबेरकान्त ) बैठा हुआ था।
पत्ता-उसने कहा-हे मित्र, तुम आओ । विष सब अंगोंको जला रहा है ? मेरी पत्नीको नागने काट खाया है, तुम्हारे मन्त्रसे वह निश्चित रूपसे जीवित हो जायेगी ।।१२।।
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२७२
महापुराण
[३०.१२.१
मिते मित्तहु णियमणु ढोइट जायवि मुद्धडि पर्यणु पलोइट। पक्षणा गरललिगु णो लक्खिई खयर मउलियणयणे अविस्वम् । मंदर जाइवि लहु दिव्योसहि हलं आणमि तुहूं रक्खइ पियसहि । एम कहि वि गड सुंदरु जावहिं सुंदरि शत्ति बट्ठी वावहिं। भणइ ण खेजमि सविसमुयंगें हळू खद्धी पई धुसमुयंगें। जइ मम्मणमंते तणु अंचहि जई रइरसजलधारह सिंचहि । तो हठं मुञ्चमि विरहषिसोहे ता पडिजंपिड पसमियमोहें। पीयलु हरिकारुणिफलु जेहत अंगु वियाणहि मेरउ तेहउँ । वम्महसरहं कयाइ पण भिजमि संदु पुरधिहि ह ण रमिजमि । परकुलउत्ती जणणिसाणी तुहं पुणु जाय विहिणि मित्ताणी। पत्ता-इसेणु वि आयन मंदरहो वणि पुच्छिवि सकलत्तः॥
गंधारणयरु सो अप्पणलं णहि विहरतल पत्तः ॥१३॥
१४ तह पुणु सेहुँ महिलइ वियरंतदु उप्पलखेडहु बाहि गहि जतहु । खलिउ विमाण दिट मुणि श्ववणि बंदिउ भावे दोहि वि तक्खणि । पुच्छिउ धम्म रिसिद भासिउ सायमगु विसेसे देसिउँ । गुणवंतेण सुणिम्मलवाणा तहिं परयारु णिवारित जइणा । परयारिज लोएं णिदिज्जा असिधाराकरवत्तहिं लिज्जइ। तित्ति ण पूर जूरइ सजणु बइ कामडाड पसरइ मणु । लोयणजुयलु बलइ कयणेहउ परयारियहु सोक्खु कहिँ केहज । जइ वि लोउ णियकज्जु पवुक्खइ संकालुहि तं तोसु जि दुक्खइ।। मत्थयमुंटणु विमणिबंधणु
कुखरारोहणु णासाखंडणु। जारु होइ तिहुयणि अपसंसउ मुउ पुणु दुहेस दुछु णसङ । घत्ता-श्य रिसिषयणाई सुणतियए गंधारिहि मणु तप्पा ॥
हा हा मई दुट्टा दुटहु किउ इय णियहियइ वियप्पन ॥१४।।
मण्णिवि मुणिवरु बे दि पयट्टई हयलगिहियपायकंदोई। फंतइ गुरुवयणई चितंतिइ भारयविवरवडण संकतिइ ।
कतहु साई अहिमाणविणासउ कहिउ कुबेरकंतअहिलासउ । १३. १. MB देह ! २. MR गरुलं । ३. MB मजलियवयणे । ४. MB सव्वोसहि । ५. MB खज्जतं ।
६. MB जा रसजलधारहिं मई सिंचहि । ७. MB | काई वि ! ८. MIS माय बहिणि । १४. १. MB महिलाहि सहुं। २. MS सावयधम्मु । ३. MB दंसिउ । ४. MB पवुक्का; T बुक्कइ ___ ब्रवीति । ५. MB तासु खुडुबकइ । ६. M दुसउ । ७. MB तणु । १५. १. BM पहलि णिहियं । २. परयविवरणिघडण । ३. MB विणासिउ ।
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हिन्दी अनुवाद
१३.
Sad
मित्रने मित्रको अपना मन दे दिया। उसने जाकर उस मुग्धाका मुख देखा। मेरे पति ने farer कोई चिह्न नहीं देखा, अपनी आँखें बन्द किये हुए विद्याधर ने कहा- मन्दराचल जाकर मैं शीघ्र मैं दिव्यौषधि लेकर आता हूँ। तुम प्रिय सखीकी रक्षा करना । यह कहकर उसका प्रिय जैसे ही गया, वैसे ही वह सुन्दरी शीघ्र बैठ गयो । वह कहती है- मुझे विषवाले सांपने नहीं काटा है, मुझे तुम धूर्तं भुजंग (बिट) ने काटा है। यदि कामदेव मन्त्रले शरीरको अभिमन्त्रित्र कर दो, यदि रतिरसकी जलधारा सींच दो तो मैं विरहविषके समूहसे बच सकती हूँ | तब प्रशान्त मोह मेरे प्रियने कहा कि जिस प्रकार इन्द्रवारुणी फल पोला होता है तुम मेरे शरीरको उस प्रकारका समझो में कामके तीरोंसे कभी विद्ध नहीं होता। मैं नपुंसक हूँ, मैं स्त्रियोंसे रमण नहीं कर पाता। दूसरेकी कुलपुत्री मेरे लिए माता के समान है। फिर तुम मेरी बहन और मित्र हो ।
1
३०. १५.३]
२७३
धत्ता - इतनेमें रतिषेण भी मन्दराचलसे आ गया । सेठ कुबेरकान्त पत्नी सहित उससे पूछकर आकाशमें विहार करते हुए अपने गन्धार नगर आ गया ||१३||
१४
अपनी पत्नी के साथ विहार करते हुए उत्पलखेडके बाहरी आकाशमें जाते हुए उसका विमान स्खलित हो गया । उसने उपवनमें मुनिको देखा। दोनोंने भावपूर्वक उनकी बन्दना की । पूछे जानेपर मुनिने धर्मका कथन किया, श्रावक मार्गका विशेष रूपसे उपदेश दिया। गुणवान् और पवित्र वचनत्राले उन मुनिने परस्त्रीसेवनका विशेष रूपसे निवारण किया कि परस्त्री-सेवन करनेवालेकी लोक द्वारा निन्दा की जाती है, असिधारा और करपत्रसे उसका छेदन किया जाता है । उसको तृप्ति नहीं होती और सज्जन सन्तप्त होता है। कामदाह बढ़ता है । मन फैलता है। स्नेह करनेवाले दोनों नेत्र जलते हैं। परस्त्रो सेवन करनेवालेको सुख कहाँ ? यद्यपि लोक अपने कार्यकी आलोचना करता है, परन्तु शंका करनेवालेको उससे भी दुःख होता है। सिरका मुण्डन, ( बिल्लfणि बन्धन ) खोटे गधेपर आरोहण, नासिकाका खण्डन इस प्रकार तीनों लोकके जार अप्रशंसनीय होता है। मरनेपर पुनः दुभंग, दुष्ट, नपुंसक होता है।
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पत्ता - इस प्रकार मुनिके उपदेशों को सुनते हुए विद्याधरीका मन सन्तप्त हो उठता है । 'हा-हा, मुझ दुष्टाने दुष्ट काम किया ।' वह अपने मनमें विचार करती है ||१४||
१५
मुनिवरका मान कर आकाशतलमें अपने चरणकमल रखते हुए वे दोनों भी चल दिये। मुनिके वचनोंका विचार करती हुई और नरक पतनसे डरती हुई कान्ता विद्याषरीने अपने
२-३५
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[ ३०.१५.४
महापुराण हउं पापिहूँ तुहारी दोही
मा होजउ तियमइ मई जेही। ... ... .. .: शुद्ध मुह जानियेत मात्रमाद्धि... उत्तर दाएं दिण्णु सभजह ।
मणु जं पई पररइमलाइलिउ तं आलोयणजलपक्खालि। एवहिं तुई मह सुद्ध महासह आउ जाई ता बहु पडिभास । जीवदयधियधारासितें
सुहपरिणामसमीरपलिते। घत्ता-घरमोहबहलघूमुझिएण जइ तवजलणे दशमि ।।
ती तत्तसुवण्णसलाय जिह हउँ भत्तार विसुज्झमि ।।१५।।
केम वि घायसयहिण थक्की ताणाण णियंबिणि मुक्की । बेणि विताई तेत्थु पावइयई एवं णय विहरंवई अइयई। थिउ मुणि वाहिरदेसि रषण्णइ घर आयइ अन्जाइ पसण्णा । जिहे जिह सा महु कहिय कहाणी गुज्झरहन्छ चार विराणी । निह तिह पिययमेण आयष्णिय णिग्गच्छिवि सा तेण पर्म पिणय । भत्तिइ तहि पणामु विरयंत थुय गंधारि धीरधी की। सम्वहिं जायवि हयसंसारन वंदिर सो रइसेणु भडारउ । सकुलामु गुणवालहु दिपणउ लोयवालु पवन पवण्णउ | पुत्तचउक सहुँ भत्तार
णिप्पिहेण तोडियमयमारें। लइय दिक्ख वालियश्यभार मोहिय लहुययरेण कुमार। हर कुबेरदइएं सेणच्छामि पुत्तहि मुह पहपहसि पेच्छमि । घत्ता-गुणवालहु कयमंगलसयहिं घल्लिय कामिणि सेसहो ।।
पुणु दिण्णी ताइ कुबेरसिरि णियकुमारि धरणीसहो ॥१६॥
सा कुबेरेपृय तणुसहु पुछिछवि इंदियसुहसंबंधु दुगुछिवि । पत्तई पारावयई औरतणु
पेच्छिवि अरुधम्मचारत्तणु। कयलीकंदेलकोमलगता कित णिक्खवणु तुरिज पृयदत्तइ। संतहि दंतहि बहुगुणगणणिहि चरणमूलि तहि गुणवइगणणिहि । कयजयवयणावंगालोयण पुणु वि कहाणरं कह सुलोयण | ४. MB पाविट्ठ घिट्ट तुह दोही। ५. BM पाविजहि । ६. MB गुऽ । ७. M धारोसित्तें ।
८. M तो; भो। १६. १. MB साई तेत्यु वि । २. MB इय जिह जिद्द मह । ३. M धुक्षहहत्थें; B गुजाहरत्थें । ४, MBK
विराणी । ५. M आयाणिय । ६. M पमाणिय । ७. MD पमाणु ! ८. MB चालिय। ९. MB
लहुयरेण इह कुमार । १० M मुहूं मह पहसि; 11 मुहूं पहपहसिउं । १७. १. MB कुबेरपिउ । २. MB पेच्छिवि । ३. MB मणुयत्तणु । ४. MD धम्मु भारतणु 1 ५. MB
कयलीकोमलकंदलगत्तइ । ६. AIB पियदत्त।
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२७५
३०. १७.५]
हिन्दी अनुवाद अभिमानको खण्डित करनेवाली कुबेरकान्तसे सम्बन्धित अभिलाषा (पतिको ) बता दी और बोली, "मैं पापात्मा तुमसे विद्रोह करनेवाली है। मेरी जैसी स्त्री संसार में न हो. हे निय, मुझे छोड़िए, मैं : बज्याके लिए जाती है।" तब पति अपनी पत्नीके लिए उत्तर देता है-"जो तुम्हारा मन दूसरेके प्रेमरूपी मलसे मैला था वह आलोचनारूपी जलसे प्रक्षालित हो गया। इस समय तुम मेरे लिए विशुद्ध महासती हो । आओ चलें ।" इसपर वधू ( विद्याधरी) कहती है"जीवदयारूपी धीसे सिक एवं शुभ परिणामरूपी समीर से प्रदीप्त--
पत्ता----घर-मोहरूपी प्रचुर धूमसे रहित, तपरूपी ज्वालासे मैं दग्ध होती हूँ और हे प्रिय, तपी हुई स्वर्णशलाकाके समान में विशुद्ध होतो हूँ।" ।।१५।।
इस प्रकार वह सैकड़ों मनुहारोंसे नहीं थकी। तब प्रियने उस विद्याधरीको मुक्त कर दिया। वहाँ वे दोनों प्रजित हो गये। और विहार करते हुए इस नगरमें आये हैं। मुनि बाहर सुन्दर स्थानमें ठहरे हुए हैं, और घर मायी हुई आयिका (विद्याधरी) ने जिस-जिस प्रकार गुह्य रहस्यसे सुन्दर और विरागिणी कहानी मुझसे कही है, उस-उस प्रकार प्रियतमने उसे सुना और निकलकर उसने उसे प्रणाम किया। भकिसे उसे प्रणाम करते हुए प्रियने धीर बुद्धि गान्धारीकी स्तुति की। सब लोगोंने जाकर संसारको नष्ट करनेवाले आदरणीय रतिषेण मुनिकी वन्दना की। उसने अपना कुलक्रम (उत्तराधिकार) गुणपालको दिया और लोकपाल प्रवजित हो गया। नि:स्पृह मद और कामको नष्ट करनेवाले और व्रतोंके भारका पालन करनेवाले स्वामीने चार पुत्रोंके साथ दीक्षा ले ली। लेकिन मैं सबसे छोटे पुत्र कुमार कुबेरदयित मोहमें पड़कर यहाँ हूँ। मैं प्रभासे प्रहसित पुत्रका मुंह देखती हूँ।
____ पत्ता-उसे प्रियदत्ता ( कुबेरकान्तकी पत्नी ) ने दूसरे सभी राजाओंको छोड़ते हुए अपनी कन्या कुबेरश्री कामिनी सैकड़ों मंगल करते हुए दे दी ॥१६।।
वह कुबेरप्रिया अपने पुत्रसे पूछकर, इन्द्रियोंके सुख-सम्बन्धको निन्दा कर, कबूतर पर्यायसे मनुष्यत्व प्राप्त करनेवाले, अरहन्त धर्मका आचरण करनेवाले (हिरण्यवर्मा ) को देखकर, केलेके वृक्षकी तरह कोमल शरीरवाली प्रियदत्ताने शान्त-दान्त बहुत-से गुणोंसे गणनीय ( मान्य ) गुणवतो आधिकाके चरणमूलमें तुरन्त संन्यास ले लिया है । जयकुमारके मुखकी ओर अपांगलोचन
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२७६
महापुराण
[३०. १७.६ तहिं पुरि बहि मसाणि सो जइबल थक्कु हिरण्णवम्मु लवियफल । जरव पुरु परियणु संखोहिउ मुणि पडिमाजोर संबोहित । सत्तमि दियहि पण्णि पहावा मुणिचरियाणुय गिरिणिचलम। थिय णिसिं णयरपओलिसमीवर जिणु थुर्वति णियमणराईवइ । ऐप्तहि जो रित वणि पुणु मंजर सो णरु हूयउ तलवरफिकरु । णिसिहि समागय गयेदेरगामिणि तासु पासि पुरवेणिवाइकामिणि । सा कुंदलय तेण परिपुच्छिय अजु सुइर सुंदरि कहिं अच्छिय । धत्ता-मुणि पडिमाजोपं संठियन नहु पलणाई णरि ।।
बंदियई असेसे पट्टणेण अम्हारएग वणिदं ॥१७॥
१८
.: . स च, धि .. गुणवइजसषइगणणीसंघे ।
सम्वहिं संथुय जइवरपायई तं पिउवणु मेलिप्पिणु आयई ।। चिरु मुणिणाहहु केरी गेहिणि बुद्धिविसुद्धसीलजलवाहिणि । वयधारिणि अस्थवियइ सूरह एंति एंति थिय जयरदुवारह। दुम्महवरमहसरसंघारी तणुविसग्गु विरपवि भहारी। ताई बे वि पारोवयजुम्मई सेटिगेहि जाणियजिणधम्मई। वणि लद्धई खद्धई मज्जार जायई मणुयई सुहसंचारें। बे वि विरसई धरियचरितई तवतचाई पत्थ संपत्ताई। ताह णाहु गरे बंदणहत्ति तेण समागय गरुयहि रत्तिहि । ता णिसुणियविसदंसपवंचं भवु संभरियउ तलवरभिः । ताई बे पि जाणवि महु अहियई मई जि पुरुषजम्मतरि पहियई। घका-मिच्छुत्तर वेसहि परिवि गट कोष ग्गिपलित्तः ।।
जहिं अच्छइ संजमधारिणिय नहिं (रि बाहिरि पचाउ ।।१८।।
१२
सा जोइषि पुणु मुणि अवलोइड सिहि मसाणकट्टहि संजोइउ । पडियाएण तेण पश्चारिय
पाविट्रेण ते विधिकारिय । तुहुँ मड्ड पुत्वभवम्मि पलाणी जेण समउ अच्छिय सुहलीणी ।
सो वरइत्तु काई पई मुहर अच्छा तुह रईरमण दुका। ७. MB पडिबोहिउ । ८. MB णिसियर। ९. MB यति । १०. MB एतहि वहरिः । ११. MB दरगयं । १२. M पासि वणिधर परि कामिणिः B पासि पुरवगिवरफामिणि ।
१३. MR असेसई। १८. १. MB बुद्ध बिसुस । २. MB जम्मइ । ३. MB मंजारें। ४. MB बायइ मणुएं । ५. MB बंदण___ गउ हत्तिइ । ६. MB भउ । ७. MB पुरबाहिरि । १९. १, MB अवलोमउ । २. MB रइमणहो चुक्कर ।
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३०, १९, ४] हिन्दी अनुवाद
२७७ जिसमें, ऐसी सुलोचना पुनः कहानी कहती है कि उस नगरमें बाहर मरघट में अपने हाथ लम्बे किये हुए यतिवर हिरण्यवर्मा विराजमान थे। प्रतिमायोगके सात दिन पूरा होनेपर, मुनिने सम्बोधित किया। राजा, परिजन और नगरमें हलचल मच गयो । मुनिचरितका अनुगमन करनेवालो गिरिकी तरह निश्चलमति प्रभावती आपिका, रात्रिमें नगरके समीप प्रतोलिमें, अपने मनरूपी कमलमें जिनवरका ध्यान करती हुई स्थित थी। यहींपर वह शत्रु वणिक् ( भवदेव ) जो बादमें बिलाव हुआ वह मनुष्य होकर नगरका सेवक कोतवाल बना। नगरसेठकी गजवरगामिनी स्त्री, रात्रिके समय उसके पास आयी। उस स्वर्णलतासे उसने पूछा, 'हे सुन्दरी, इतनी देर कहाँ थी।"
___ पत्ता-( उसने कहा )-मुनि प्रतिमायोगमें स्थित थे, उनके चरणोंकी वन्दना अशेष नगर और हमारे सेठने को ॥१७॥
१८
विनोंसे रहित श्रावक वर्ग, गुणवती और यशोवती आयिकाओंके संघ–सबने यतिवरके पैरोंकी संस्तुति की। उन्हें हम मरघट में छोड़कर आये है। पहले जो मुनिनाथकी गृहिणी थी, बुद्धि और विशुद्ध शील गुणकी नदी नतोको धारण करनेवाली आदरणीय वह आते-आते सूर्यके अस्त हो जानेपर नगरके द्वारपर कायोत्सर्ग कर ठहर गयी। उन दोनोंने सेठके घरमें ही कबूतर-कबूतरी जन्ममें जिनधर्मको जाना था। बिलावने उन्हें वनमें पाकर खा लिया। परन्तु पुण्यके योगसे वे मनुष्य हुए। दोनों विरक्त हो गये और उन्होंने चारिश्य ग्रहण कर लिया। तप तपते हुए वे यहाँ आये हुए हैं। मेरा स्वामी उनको वन्दनाभक्ति करने के लिए गया हुआ था, इसोलिए इतनी रात बीत जानेपर में आयी । इस प्रकार सुनी है विषदंशको प्रवंचना जिसने, ऐसे तलवर भृत्यको अपने पूर्वभवका स्मरण हो बाया कि अपना अहितकर जानते हुए मैंने पूर्वजन्ममें उन दोनोंका वध किया था।
धत्ता-क्रोधकी आपसे जलता हुआ वह उस वेश्याको झूठा उत्तर देकर वहां गया, जहांपर नगरके बाहर संयम धारण करनेवाली वह आर्यिका स्थित थी ॥१८||
उसे देखकर उसने फिर मुनिको देखा। और मरघटकी लकड़ियों में आग लगायी। वापस आकर उन दोनोंको पुकारा, और पापीने उन्हें धिक्कारा कि "पूर्वभवमें, जिसके साथ सुख में लोन तुम नष्ट हुई थी, अपने उस वरको तुमने इस समय क्यों छोड़ दिया? तुम्हारा रतिरमण
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महापुराण आउ तुझु मेलण समारमि एवहिं हर्ष विवाहु अषयारमि । पम भणेविणु खंधि चहाविय बिरयटु णियवि विरय संपाविय । आलिंगह भणेखि रइलद्धई... बिगिण वि एकीकरिबि णिबद्धई। भीमें भोसणेण स्वयधातहि । वित्तई चियाई जलतजल तहि । दड्ड वि पिण वि सिमिसिमियंगई णिग्विणु णिहणेप्पिणु णीसंगई । रसवसवीसंद गंधालित्तम आवेष्पिणु णियभवणि पसुप्तत । णिइयर जंपइ वेरि
चंगर सहुँ महिलइ मई मारिउ । तं णिसुणिवि वेसइ उवलक्खिर रविउम्गमि जइजुयलु शिरिरिखउ । पेयालइ हुयवहेण पलीवित राएं पउरयण सिरु चालिस घता-मणि चितिउ ताइ विलासिणिए दुकिड कासु कहिज्जइ ।।
इह जम्मि अहव परजम्मि स पावें पाउ गिलिज्जइ ॥१९॥
हाहासई रुपणु णरोहें
अप्पाणउ णिदिउ परणाई। बहकारिहि लोएहिं गैविट्टल पायमग्गु पुरि गपि पइवर । खलु गा वि रू वि पट्टिवि जउ भयभावेण विसद्विधि । एकमेक खय करुण लइयई देणि यि मरिवि ताई पावड्यई। उघपण्णाई सम्गि सोहम्मद मणिकूडइ विमाणि रुइरम्मइ। सुरु मणिमालि देवि चूडामणि णं मेहहु सोदइ सोदामिणि । आउ ताई मुणि गणणासुद्ध पल्लई पंच पमाणणिबद्ध । उसिराणयरिहि कयपयणायड कहि सुवष्णवम्मखयरायड । केण वि पालियर्सजमणियरई मारियाई बिणि वि तुह पियरई। घत्ता-सा देव पुंडरिकिणि णयरि हुयवहजालहिं डझाइ ।।
रिसिमारय संगठ्यारि खलु गुणवालु वि रणि बज्झइ ॥२०॥
तं णिसुणिवि सहुँ सेपणहि णिग्गउ साहणु सिद्धकूडु संग्रौइउ देचें देविहि कहिउ कहाणलं अम्हह मरणु मुद्धि णिसुणेपिणु पुरषरु डहहूं पहु संचलियड
२२ सो गलगजिविणावइ दिग्गज । तं सुरमिहुणु वि तहिं जि पराइड | तुह तणएण विइष्णु पयाण । गुणवालहु उत्परि रूसेप्पिणु | अम्हटुं दइववसेण जि मिलियन ।
३. MB विरद संपाइय। ४. B भीसंतेण। ५. M जलतजलंतिहि: Bomits जलंतालसहि।
६. M बीसर । ७. M पिघल इय जंपा।८. MB वरिउ । ९. MB हयवाह पलि।। २०. १. B गरिदउ । २. MB पुरु। ३. M पाउं स्व विBणा विरूदें। ४. M कारणे; B करणे ।
५. MB पन्वयई । ६. MB रहरम्मह । ७. MB गणिणा । ८. Mणामह । २१. १. MB णाई दिसागउ । २ MB संपाइउ । ३. MB मुद्धि मरणु । ४. M वि ।
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३०. २१.५]
हिन्दी अनुधाव
पास आया हुआ है। आओ मैं तुम्हारा मेल कराता हूँ। इस समय मैं तुम्हारे विवाहकी अवतारणा करता हूँ ।" यह कहकर उसने उसे कन्धेपर चढ़ा लिया और विरत ( मुनि) के पास विरता ( आर्या ) को ले गया । आलिंगन करो, यह कहकर रतिलुब्ध उन दोनों को एक-एक करके बाँध दिया 1 क्षयको स्थिरता देनेवाली जलती हुई चितामें उस भयंकर भीमने उन्हें डाल दिया । सिकुड़ते हुए वे दोनों जल गये । और वह निर्दय अतासंग ( मुनि आर्यिका ) को जलाकर रस और मज्जा विश्रब्ध और गन्धसे दुर्वासित आकर अपने घरमें सो गया। ( रात में ) नींद में सोया हुआ वह बकता है- "अच्छा हुआ महिला के साथ मैंने दुश्मनको मार डाला ।" यह सुनकर वेश्या जान गयो । सूर्योदय होनेपर मुनि युगलको मरघट में जला हुआ देखा और राजा तथा पुरखतने अपना माथा पीटा।
धत्ता - उस वेश्याने अपने मन में सोचा कि यह पाप किससे कहा जाये ? क्योंकि चाहे इस जन्म में हो, या दूसरे जन्ममें, पाप पापकी खा जाता है ||१९||
ana RRIONS
२०
हाहाकार कर नरसमूह रो पड़ा। राजाने अपनी निन्दा की। वध करनेवालेको लोगोंने खोजा । वह पापमार्गी नगरमें जाकर प्रवेश कर गया। दृष्टरूप और नाम मिटाकर, भव्य भावसे airकर नष्ट हो गया। एक दूसरे ( मुद्धि और आर्थिकाने ) विनाशको करुणाभावसे लिया, वे दोनों ही संन्यासी मरकर सीधमं स्वर्ग में उत्पन्न हुए, कान्तिसे सुन्दर मणिकूट विमानमें । देव मणिमाली था और देवी चूड़ामणि थी, मानो मेघों में बिजली शोभित हो रही हो । उनकी आयु मुनिगणके द्वारा बतायो पाँच पल्य प्रमाण थी। किसीने जाकर उशोरवतीके प्रजाके साथ न्याय करनेवाले, स्वर्णवर्मा नामके विद्याधर राजासे कहा कि संयमसमूहका पालन करनेवाले तुम्हारे दोनों माता-पिता को किसीने मार डाला ।
चत्ता - हे देव, वह पुण्डरीकिणी नगरी आग की लपटोंमें जल रही है, मुनिके घातक संग्रहकारी दृष्ट गुणपालको भी युद्धमें मार दिया गया है ॥२०॥
२१
यह सुनकर सेना के साथ गरजकर वह चला जैसे दिग्गज हो । सेना सिद्धकूट पर्वतपर पहुँची। वह देवमिथुन भो वहां पहुँचा । देवने देवोसे कहानी कही कि तुम्हारे पुत्रने प्रयाण किया है। हे मुग्धे, हम लोगोंका मरण सुनकर और गुणपाल राजाके ऊपर क्रुद्ध होकर नगरवरको
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महापुराण
[३०.२१.६ एम्ब भणेप्पिणु बिणि विजायई संजमधर संजमवरकायई। आसीणई वसहिदि पलिया . बियाई कुरकुनीयक
: कंचणेचम्में विणि वि भावें वत्त मायामुणिवरदेव । किं कुइओ सि पुत्त लबसंतई अम्हई अच्छहुंचे वि जियंसई । सावल विरयजुयलु किं मारइ अन वि सो पटु हियइ विसूरह । घसा--जेणम्हई पावई मारियई सो सम्वत्थ गवेसिन ।
तगुरुह गुणवालणराहिवेण अप्पउ दुबखें सोसिउ ॥२१||
२२ जइ वि मुंयई तो षि किर ण मुयइ अम्हई वेणि वि भुजियमयई । जायई देवई दिवसरीरई अणिमामहिमाईहिं गहीरई। बार वार भव सुकिस पसंसिउ सुरमिहुणे णियरूज पदसिष। कणयवम्मु खमभाव लइयउ देवेंदिण्णभूसणवाइयउ । गउ णियवासहु सो खयरेसरू वपछदेसि सिवघोसु जिणेसरु । संवदहुँ संपत्तु सुरेस
अरुहदत्तु णामें चकेसम । अवरु वि सा अच्छर सो सुरषर संथुर संसमेणे तित्थंकरु । जिणे दिव्वझुणिरंजियकण्णाई छुडु छुडु सव्वई जाम णिसण्णई। ता तहिं पच्छइ सयमहरामउ अवइण्णउ सई मीणइणाम । जिणु चक्केसि पुच्छिउ पायडु किं घरयम्मषिहाणे वावडु। समज पुरंदरेण कि णायड देविजुयलु दारिसियमुहरायउ । केवलणाणपईवें दिट्टर
चकीसहु जिग्गणा सिट्ठउ। घत्ता--विहिं मालायारिहि दिछु वणे वंदिल मुणि हयकम्मउ ।।
कर मलिकरिवि आयणियउ भावे सावयधम्म उ ।।२२।।
लहेर पडे घरविहि परिक्ट्ट जाहुँ जिणिदभवणु ण पयट्टर 1 उत्तमंगु भत्तिइ जानेप्पिणु देच गमोरहंत पभणेप्पिा । बेवि चिर्वति चंदरविणयण पदम चिय कुसुमंजलिगयणई । एण जिओथं गलिया कालह एकहि बासरि लपलिलयालइ । एक्कहि पाणिपोमि फणि लग्गउ हाहारउ वयणाउ विजिग्गउ । सहि णियसहियहि पासु पधाइय सावि भुयंगमेण आसाइय। विसमविसाणलेण जलजलियई बिहि वि सरीरई महियलि घुलियई। ५. B वसुहहिं । ६. MB कंचणवणें । ७. M उत्तम् । ८, साविउ ।। २२. १. M13 मुयाई । २. MB दिन्ध । ३. GK TP संभषेण इति पाठेबादरेण । ४. M विणदिव्यं ।
५. MB तो। ६. M विणायउ । ७ MBणारिजुयल । २३.१. MB लइय। २. B वर पर। ३. MB जाहं ।
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३०. २३.७]
हिन्दी अनुवाद
२८१
जलाने के लिए यह निकला है, और देवके वशसे यह हम लोगोंके लिए मिल गया है। यह कहकर वे दोनों मुनि और आर्यिका बन गये और धरतीके आसनपर बैठ गये । अपने कुलरूपी कुमुदके चन्द्र स्वर्णवर्माने दोनों को भावपूर्वक वन्दना की। तब माया मुनिवरदेवने कहा- "है पुत्र, तुम कुपित क्यों हो, हम दोनों तो जीवित हैं। वह भावक राजा मुनिथुगलको क्या मार सकता है ? वह राजा ( गुणपाल ) तो आज भी हृदय में दुःखी है ।
घसा -- जिस पापोने हम लोगों को मारा है उसको तो सर्वत्र खोज लिया गया । हे पुत्र, गुणपाल राजाने अपनेको शोकसे सुखा डाला है ॥२१॥
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२२
यद्यपि हुम 'लोग मर गये हैं तो भी मरे नहीं हैं, हम दोनों अमृतका भोग करनेवाले दिव्य शरीरवाले एवं अणिमा-महिमा आदिसे गम्भीर देव हुए। बारबार उन्होंने संसारके पुण्यकी प्रशंसा की, और उन्होंने अपने रूपका प्रदर्शन किया। स्वर्णवर्माने क्षमाभाव धारण किया। और देव द्वारा दिये गये आभूषणोंसे अपने को विभूषित किया। वह विद्याधर राजा अपने निवासके लिए चला गया । वत्सदेशमें शिवघोष जिनवर हैं उनकी वन्दनाके लिए देवेन्द्र आया और अरुहृदत्त नामका चक्रवर्ती और भी, वह अप्सरा तथा वह देव । समीचीन उपशम भावसे उसने स्तुति की। जिनेन्द्र भगवान्की दिव्यध्वनिसे जिनके कान रंजित हैं ऐसे सब लोग जब बैठे हुए थे, तभी वहां बादमें इन्द्रकी शची और मेनका नामक स्त्रियां अवतरित हुई। चक्रेश्वर अदत्तने जिनसे प्रकट पूछा कि इन्होंने कौन-सा गृहकर्म विधान किया है, अपने मुखरागको प्रकट करनेवाला यह देवयुगल इन्द्रके साथ क्यों नहीं आया ? तब केवलज्ञानरूपी दीपकसे देखो गयी बात जिननाथने चक्रवर्तीसे कही ।
बत्ता - माला बनानेवाली इन दोनोंने वनमें कर्मको नष्ट करनेवाले मुनिको वनमें देखा, और उसकी वन्दना की। दोनों हाथ जोड़कर भावपूर्वक श्रावकधर्मं सुना ॥२२॥
२३
उन्होंने यह व्रत लिया कि तबतक घर के कामसे निवृत्ति रहेगी कि जबतक जिनेन्द्र भवन नहीं जातीं। अपने सिरको भक्तिसे झुकाकर देव अरहन्तको नमस्कार कहकर वे दोनों चन्द्र और सूर्य हैं नेत्र जिसके ऐसे गगनको सबसे पहले मालाएँ अर्पित करतीं। इस नियम के साथ उनका बहुत-सा समय चला गया। एक दिन चन्दनलता- घरमें एक करकमलमें नागने काट खाया, उसके मुँहसे हा-हा शब्द निकला। सखी अपनी सखी के पास दौड़ी, वह भी सौपके द्वारा काट
२-३६
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[३०. २३. ८
महापुराण ....दोहि विदेरदेयणाई मेरनिहि... विटुन इंदागमणु मरंचिहि ।
भोयाकखाइ करिषि णियाण रुद्ध सुरवाइनेवीठाणर्छ । धरणिणाह छुहु कुहु सत्पण्णस तेण समागया सुरकण्णव । एयर षिणि वि णियवाइपच्छा एयह करत अच्छा कन्छ । अज्नि वि णिबसिड तणुजुयलुलाई लोपं जोइन गयजीलाई । पत्ता-कह कहा सुलोयण सहु जयहो भरहधरणणषियंगहो ।।
कंतीइ पयावे दुनयहो पुष्फयंतगुणतुंगहो ||२||
इप महापुराणे तिसट्विमहापरिसगुणाकारे महापुष्फयंतविरहए महामवमरहाणुमणिए
महाकावे जिणपित्तपुःजलिफ णाम तीसमो परिधी समसो ॥१०॥
सं॥ि10॥
४. MB गर । ५. MK सहलिहि; सरतिहि । ६. MB भोयाकख करेवि । ७. M गुणचंगहो ।
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२९. २३. १४ ] हिन्दी अनुवाद
२८३ लो गयो । विषम विषकी आगसे जलते हुए उनके शरीर धरतीपर गिर पड़े। किंचित् वेदनासे जिनेन्द्रको याद करते और मरते हुए इन्द्रका आगमन देखा। भोगकी आकांक्षासे निदान कर इन्होंने इन्द्रकी देवियोंका स्थान ग्रहण किया। हे राजन्, ये अभी-अभी उत्पन्न हुई हैं इसी कारणसे ये दोनों सुरकन्याएं अपने पतिके पीछे आयों । इनका गतजीव तनुयुगल आज भी पृथ्वीपर पड़ा हुवा है। लोगोंने उसे देखा।
पत्ता-इस प्रकार सुलोचना भरतके चरणोंमें अपना शरीर झुकानेवाले तथा कान्ति और प्रतापसे अजेय पुष्पदन्तके ( सूर्य-चन्द्र ) के गुणोंसे ऊंचे उस जयसे कहती है ।।२३।।
सठ महापुरुषोंके गुण और अलंकारोंवाले इस महापुराणमें महाकवि पुम्पदम्त द्वारा विरचित और महामन भरव द्वारा अनुमान महाकायका जिनमित्त प्रपोजली
फाल नामका वीसा परिच्छेद समाप्त हुआ ..
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संधि ३१
जिणवयणई आयपिणवि मालइमालामालिउ
णियहियबलाइ मापिणवि ॥ सर्दु कंतइ मणिमालिउ ।। ध्रुवकं ।।
गर सिरिमाणणु पहि विदरंतउ उपणयतालस णाई पसिद्धट हंसहि धवलिउ चलजललित गयमयसामलु पसहि णीलिज दिउ मणहरु मणि विष्फुरियर
करिसिसे धत्ता-आसि जम्मि संक्षियधणु
तुहं रैइवेगपियारी
नवकमलाणणु | कोणणु पत्तउ । धण्णयमाल। महिरिद्ध। चकहि मुह लि। कमलहि फुलि। केसरपिंगलु भमरहिं कालिद । सप्पंसरोवरू। भव संभरियन । भासिउं देखें। हवं सुकंतु वणिणंदणु ॥ होती परिणि महारी ॥१२॥
दीसइ पुरि एह मुणालवइ जहिं हूई बिहिं वि विवाहरइ। णे धरियई कह ष चीरंचलइ उद्देटर लम्गल पच्छला। इह प्राणहरणभयविडियई धावंतई विणि वि णिवडियई। इह तुह पयलोहि पयलियर्ड इह महु उप्परियणु वियलियम् । इह कंटइ लम्गत कंचुयर इह दोहं मि देहकपु हुयट । एड्छ सो सरवरु लगभूसियन जसु जलेण देह आसासियछ। एस्थेत्थु जाम सो धरइ खलु तावेत्थु जि दिष्ट पपैलु बलु । सो सतिसेणु राणन सुयशु संभरहिण किं तुहूं इलि सुयणु । पुषिजउ जम्मु णिहालियड सा देविइ सिरु संचालियउ। इय पर्यंणु बियारित जाम नहिं रिसि एकुणिरिक्खिल ताम वहिं।
अमरें बिहुणेपिणु सिरफर्मलु पुणु जंपिठ वण्णपंतिसरलु । १. १. Bणं कमला। २. MB काणणि । ३. M फेसरि । ४. MB सच्छ । ५. MB भर । ६. B
कयसिरिसे।। ७. MBK रस्यपियारी। २. १. MB |उ धरिय । २. MB पाणं ।३. MB पवर । ४. यषण । ५. M तहिं । ६. M°कवल ।
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सन्धि ३१
धिन-वचनोंको सुनकर और अपने हृदयमें मानकर मालतीकी मालासे शोभित मणिमाली देव अपनो कान्ताके साथ गया। नवकमलके समान मुखवाला और श्रीको माननेवाला वह आकाशमें विहार करता हुआ, जिसमें ऊँचे तालवृक्ष हैं, ऐसे धान्यकमाल नामक काननमें पहुंचा, जो जगमें प्रसिद्ध और वृक्षोंसे समृद्ध था। इससे धवलित और पाकवाकोंसे मुखरित था। उसने सुन्दर सर्पसरोवर देखा, जो चंचल जलसे आन्दोलित, कमलोंसे पुष्पित, गजमदसे श्यामल, केशरसे पिंगल, पत्तोंसे नीला बोर भ्रमरोंसे काला था। वह अपने मनमें चौंक गया, पूर्वजन्मको उसने याद की । मुनिकी सेवा करनेवाले देवने कहा
पत्ता-पूर्वजन्ममें में मकान्त नामका वृणिन् पुत्र, शा. प्रतसचिन करनेवाला। और तू रतियेगा नामसे मेरी प्यारी घरवाली थी ।।१।।
यह मृणाळवती नगर दिखाई देता है, वहाँ दोनोंका विवाह-प्रेम हया था। किसी प्रकार चीरांचलसे पकड़ा-भर नहीं था, और वह गुण्डा पीछे लग गया था। प्राणोंके हरणके भयसे विघटित, दौड़ते हुए हम लोग यहाँ गिर पड़े थे। यहाँ तुम्हारे पैरोंका खून गिरा था। यहाँ अपरी वस्त्र गिर गया था। यहाँ कंचुकसे कांटा लगा था। यहां हम दोनोंको कम्प उत्पन्न हुआ था। पक्षियोंसे विभूषित यह वह सरोवर है जिसके जलसे देह साफ होती है । यहाँपर वह दुष्ट जब हमें पकड़ना चाहता था, तो इतनेमें उसने वहींपर एक प्रबल सेना देखी। वह सज्जन शक्तिषण सजा था। हे सखी, क्या तुम्हें उसकी याद नहीं आ रही है। जब उसने पूर्व दिखला दिया, तब देवीने अपना सिर हिला दिया। जबतक उसने ये शब्द कई तबतक उसने एक मुनिको देखा। देवने अपना सिर कमल हिलाकर, शब्दों और पक्तियों सहित यह बात कही।
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२८६
[३१. २. १२
धत्ता-बेणि वि रमणरसड्ढई
पारावयभवु पत्तई
महापुराण
जेण णिहेलणि दढई ।। खद्धई णिमायरत्तई ॥२॥
पुणु उप्पण्णई विज्जाहरई भवदेव बिडालन मालसर . सो एवहिं जायस एड जइ परिभावहुँ एयहु तणिय मइ इय जैपिषि यवम्मइसरह कय वंदण पुच्छिय धम्मविहि सत्थे साहुं लेसासन मुणि हउं कि पि ण याणै णवसर्वेणु फोगाइहु तियसह णच रहित जिह जीवाजीवपुषणगइट जिह आसवसंघरणिज्जरई तिह मुणिणा सयलु पयासियत पई लइउ सिमुत्तणि तषयरणु पत्ता- णिसुणिवि ध्यरायड
केवलिकहियच वइयर
हुणियाई मसाणइ मुणिवरई। जो होनात चिरु दकिय णिरन । उज्झहुं संसारु विधिसंगह। किं रूसह किं अम्हां खमइ । आसण्णु णिसण्णठ जइबरहु । रिसि भासद सूय सुयणाणणिहि। ए एंति पपुच्छहि तच गुंणि । किं देवहु करमि धम्मसवणु । पुणु तेण तासु सिजगु वि कहिछ । जिद्द वडियार पावयमइन । जिह बंधमोक्खभावंतरई । तं णिसुणिवि तियर्से भासियउ । भणु वहरायड कारणु कवणु।। मगंभीरइ वायह॥ देवहु अक्खा मुणिवरु ॥शा
घरसिहराहदरमियनयरि अत्थीह पुंडरिकिणि णयरि । तहिं कुंभोयर णिवसइ वणिउ णामेण भीमु णंदणु जणिउ। उन्विण्णत णिलयहु णिद्धणहु हड कीलइ गठ णंदणवणहु । जह वंदिवि सावयबर गहिर घर आया पप्प ण साहिलं । परवलियम्मेणुष्णिहियहो 'उस किं सुंदर दालिदियहो। जे दिण्ण अप्पहि तासु सुय आवेहि जाएं लहु वोहमुय । ताएण सहत्थें पेजिय
मुणिवासहु ई- पुणु चमियउ । परमारउ परथीदग्धहरु
परमम्म विहट्टणु अलियसह । लुद्ध वि पहिषधु णियपिछयाउ जणणे एकेका पुच्छियाउ ।
तेहि वि अक्खि णियणियधरिलं हिंसालियवयणहिं परियरिख । ७. MB भव । ३. १. MB मवदेउ । २. MB मुणि । ३. K यामि । ४, B समशु 1 ५. MR किय । ६. MB तवचरणु । ४. १. MB°वउ लयउ । २. BMणुण्णिदयहो; G शुधिदियहो and gloss निद्रारहितस्य; K गुणिदियहो
but corrects to मुग्गिदियहो; T उणिदियहो । ३. MB बउ । ४. MB पुणु ह । ५. MB read in place of this line: पाणहरु बलियभासिरउ येणु, परमहिलारत मगमहलरेणु; T मणभइलरेण मनसि मलं पापं रेणुषच सानवर्शनावरणलक्षणं रजः।
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३१. ४.१३]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-जिस कारणसे रमणरसमें दक्ष वे दोनों अपने घरमें जला दिये गये। पारावत जन्मको प्राप्त हुए बाहर जानेके प्रेममें अनुरक्त वे मार्जारके द्वारा ( बिलाव द्वारा) खा लिये गये थे ॥२॥
फिर हम विद्याधर उत्पन्न हुए और हम मुनिवर आगमें होम दिये गये। भवदेव, मार्बार और कोतवाल, जो कि प्राचीन समयसे पापनिरत था, वह इस समय यति हो गया है, इस विचित्र गतिकाले संसारको जलानेके लिए । चलो इसकी बुद्धिकी परीक्षा करें कि यह हमसे कुख होता है, या हमें क्षमा करता है। इस प्रकार विचारकर कामदेवके तोरोंको नष्ट करनेवाले यतिवरके आसनके निकट जाफर वे बैठ गये। उन्होंने वन्दना की और धर्मकी विधि पूछी। मुनि कहते हैं-हे पुत्र, श्रुसज्ञानके निधि गुणी यह लेश्यासंख मुनि संघके साथ आ रहे हैं इनसे तत्त्व पूछो। मैं कुछ भी नहीं जानता, मैं नवश्रमण हूँ। देवके लिए मैं क्या धर्मश्रवण कराऊ । पर आग्रह करनेवाले देवसे वह बच नहीं सका। तब उसने फिर उससे त्रिजगका कथन किया । जिस प्रकार जीव-अजीव, पुण्य गतियाँ, जिस प्रकार बढ़ी हुई पापबुद्धि, जिस प्रकार आस्रवसंवर और निर्जरा, जिस प्रकार बन्ध-मोक्ष और जन्मातर है, वह उस मुनिने सब प्रकार कथन किया। यह सुनकर देव बोला-आपने बचपन में तपश्चरण ग्रहण कर लिया है, उस वैराग्यका क्या कारण है।
पत्ता-यह सुनकर रागको नष्ट करनेवाली मृदु और गम्भीर वाणीमें वह मुनिवर केवलीके द्वारा कहा गया पूर्व वृत्तान्त उस देवको बताते हैं ? ||३||
__ जिसके शिखरोंपर आरूढ़ होकर देवता रमण करते हैं, यहाँ ऐसी पुण्डरीकिणी नगरी है। उसमें कुम्भोदर नामका बनिया निवास करता था। उसका भीम नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। निधन घरसे विरक्त होकर मैं कोड़ाके लिए नन्दन वनमें गया । यतिको वन्दना कर मैंने श्रावकवत स्वीकार कर लिये, घर बानेपर बापने यह सहन नहीं किया। दूसरोंके भारको ढोनेके कमसे निद्रा रहित दरिखके लिए क्या व्रत सुन्दर होता है ? हे पुत्र, जिसने ये व्रत दिये हैं उसोको सौंप दो। हे दीर्घबाह, आओ जल्दी चलें।" पिताके अपने हाथसे प्रेरित मैं पुनः मुनिके निवासके लिए चला । दूसरेका हिसक, परस्त्रीका अपहरण कर्ता, दूसरेके ममका उद्घाटन करनेशला, झूठ बोलनेवाला, और लोभीको भी, रास्ते में बंधा हुआ देखा । पिताने एक-एकसे पूछा। उन्होंने भी अपना-अपना चरित बताया कि जो हिंसा और झूठ वचनोंसे घिरा हुआ था।
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जेण पररूपसु हिसर
जसु मणु परबहुरत्तर ॥४॥
जो लोहकसाएं मावियर मई मणि तार्य एयई वैयई पएँ वयविवरंमुह बद्ध जिह तं णिसुणिवि पिचणा इच्छियउ गय विण्णि वि णयहजाणवर वहु वयणे वणिवर उपसमिर दोगे किं वर करमि तवु मई एम गएण समुल्लविर तसथावरजीवई कयदयह घत्ता-कयफणिसुरणरसे बहु
दूसईदुक्खणिरंतर
सो कवणु ण विहुरे ताविया । मई गहियई वदिवि रिसिपयई। हर रोएं बज्झमि जणण तिह। मई देसचरित्त पद्धिच्छियउ। पणविउ मुणि मुरणाणंदयरु। घरधम्मि जिणिदसेटि रमिठ। किं णासमि लद्धत मणुयभवु । पिच्छत्थहु अप्पर मेलविर । उद्धरियई पंचमहन्वयई।
पायमूलि जिणदेवहु ॥ णिमणि णियजम्मंतर ।।५।।
महु निहुयणणा, ईरियउ पई वणि मिहुणुलउ मारियउ । णिसि चिरु भवदेवें विप्पिएण होतेण कालकदलपिएण । पुणुतं चि वि जुयलउ लक्खियर मजार होइवि भक्खिय । जइयतुं ताई जि तवतत्ताई पई धरित्रि हुासणि हित्ताई। तइयर्ड होतो सि तलारु तुहं ओसहिगुणेण भट्ठो सि लहुँ । गुणवाले तुहुँ अण्णेसियर
कह कह व ण जमउरि पेसियन । जाइवि अण्णेत्थ वासु रइउ सो गरवद हुउ जं पावइल । पई पुणरवि णयरि पवेसु कंड अंजणगुणेण दिश्चारु ह। लोयहु केरउ धणु घोरियड पउरें रायहु पुकारियउ। ते आरक्तियस्लु गरहियर तेण वि पडियंजणु साहियः ।
तुहुं विजुचोरु दिउ धरिट पई वित्तणिवासु वि बजरित । ६. MBK परस्सु विहित्तउ and gloss in MK on विहित्तउ विशेषेण हतम्; T परस्सु वि
परद्रव्यमपि । १. १. M reads this line as: मई गहियई वंदिवि रिसिपयई, मई मणि ताइ एयई वयई । २. MK
ताइ । ३. MB वयई। ४. MB ए.। ५. MB पावें । ६. MB दोगतें किंकर । ७. T एण णएण। ८. MB दूसह। MBKT रिसि and gloos in T रिसि हे भोममुने । २. M दलि । ३. MBT तं चिय जुक्लुल्ल खियजं । ४. K हुयासें णिहिताई । ५. MB अण्णत्य । ६. MB हूयस पवहन । ७. MB कयउ । ८. MB ; Tह ।
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३१. ६.११] हिन्दी अनुवाद
२८९ पत्ता-जिसने जीवकुलकी हिसा की है, जिसने असत्य वचन कहा है। जिसने परपनका अपहरण किया है, और जिसका मन परवघूमें अनुरक्त है ॥४॥
"जो लोभ कषायसे अभिभूत हैं, वह कौन है, जो दुःखसे सन्तप्त नहीं हुआ।" मैंने कहा, "हे पिता, मैंने यही व्रत मुनिके चरणोंकी वन्दना करके प्रहण किये हैं। ये लोग जिस प्रकार बतोंसे विमुख होकर बंधे हुए हैं, हे पिता, उसी प्रकार में रागसे बंधा हुआ हूँ।" यह सुनकर मेरे द्वारा स्वीकृत अणुव्रतोंको पिताने इच्छा की। हम दोनों नगरके उद्यानवरमें गये और विश्वके आनन्द करनेवाले मुनिको प्रणाम किया। उनके वचनसे वणिग्वरको उपशान्त किया। वह जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट गृहस्य धर्मका पालन करने लगा। दरिखसे क्या ? अच्छा है में सप करूं । प्रास मनुष्य जन्मको क्यों नष्ट करूं? मैंने इस प्रकार न्यायसे कहा, और पिताके हाथसे अपनेको मुक्त कर लिया । त्रस और स्थावर जीवोंके प्रति दया करनेवाले मैंने पांच महावतोंको ग्रहण कर लिया।
धत्ता-जिनको सेवा सुर और नर करते हैं ऐसे जिनदेवके पादमूलमें असह्य दुःखोसे निरन्तर भरपूर, अपने जन्मान्तरोंको मैंने सुना ।।५||
मुप्त (भीम) से मुनिनापने कहा कि तुमने वनमें एक जोड़े (सुकान्त और रति वेगा) को मारा है रात्रिमें । जब तुम अप्रिय विनाश और कलहके प्रिय भवदेव थे। फिर तुमने उस जोड़ेको देखा और बिलाव होकर खा लिया। और जब वे लोग तप तप रहे थे, तब तुमने पकड़कर उन्हें आगमें साल दिया। उस समय तुम कोतवाल थे। औषधिके गुणसे तुम शीघ्र नष्ट हो गये। राजा गुणपालने तुम्हें खोजा और किसी प्रकार तुम्हें यमपुरी नहीं भेजा । तुमने जाकर किसी दूसरी जगह अपना घर बसाया । वह राजा गुणपाल जर प्रवजित हो गया तो तुमने पुनः नगर में प्रवेश किया और अंजनगुणसे तुमने दृष्टिके संचारको रोक लिया, (अदृश्य हो गये) तथा लोगोंका खूब धन चुराया। पोरने राजासे पुकार मचायी। उसने आरक्षक कुलकी निन्दा को। तब आरक्षक कुलने प्रतिजनको सिद्धि कर लो। तुम विधुच्चोरको उन्होंने देख लिया और पकड़ लिया । तुमने धनकी जगह बता दी।
२-३७
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[३१.६.१२
पत्ता-कचरमणीयणकोलणि
पई णिहियाई जियलाई
महापुराण
कंचणयारणिहेलणि ॥ हरिवि सत्त माणिलाई ।।६
तं मंदिरु दाविउ णिषणेरहुं सोण्णाह वि मई हकारियर पहुणा सो पुंलिउँ भोयण आणाविय मणि गेहे णिहिय जिम्ब साहि छाणु जिम देहु धणु इय विमइहि दंड वियारियर गोमन वि ण भक्व हुं सकियट परिवाडिई सोतिषण वि कैरिपि सुटुं पुणु पंडालहु ढोइयत फुद्धस दोहि मि पहु घणतिमिरि "पई मणि पाण प्राण हरणु पत्ता-ता चंडाल भासि
जं संसारइ पत्त
फरवालकोंतकंपणकरें। मम्गित ण देइ विहिवारियल । तं घरणिहि भासिवि लेछण 1 वणिमालइ ओलक्खिवि गहिय । जिम्य विसहहि मन मुट्टिहणणु । मन्ले पाहि ओसारियन । पसु ढोयइ चिन्ति वर्षिया । दुम्मइ दुग्गई पत्तै मरिवि । ब्रेश लायउ तेण ण घाइयः । दोणि वि बंधिवि धत्तिय विवरि ।
इउं संभावित किं णच मरणु। __णिसुणहि कम्मु दुविलसित ।।
मई णियदेखें मुत्तरं ७)
इह होवर गुणवाल णिवई राणी कुवेरसिरि सञ्चवइ। पुहुई वसुशामें धीरमण
सच्चवियहि भायर चिण्णि जण । गैस्यत्ते सरिस मेरुगिरिदि एकु जि बंधउ कुवेरसिरिहि । अच्छंतई ताई तेत्थु सरि णिवकरिवरिंदु कीलंतु सरि। वणि समनसरणि जिणदेवगुणि आयण्णवि जायज झत्ति गुणि । अवलंबिउ हिंसविरैत्तिय
जि जोयवि सणियउं दिएणु पर। अविसुद्धट गासु ण अहिलमइ गयवालन महिवालहु दिसह । करि कवलु गिण्हा प्राणपूल ताराएं पहिर कुवेरपिउ। ते प०पिंड दरिसादियउ तं गणियह कैरि बरभावियः ।
पुणु अण्णु वि सुदृ पयच्छियउ। तो इत्थिदेण पडिपिछयउ । ७. १. Mगराह: B गरई । २. M कराह; B करहं । ३, M सोणार; B सुग्णारू । ४. MRK पुस्छिन ।
५. MBK भणि मणिगणि गिहिय। ६. मल्लि | .. MR भक्तहिं । ८. MB चकियउ । १. MB As: KE but in second hand | १०. MB घल्लिय बंधिवि । ११. M मई पणिलं पाणु पाणहरणु; B मई पहणि पाणु पाणहरणु ! १२. MB संपाइछ । १३. MB भासिय । १४. MB दुविससियउं ।
।। २. MB हिंसविरत्ति जिन । ३. MB जोवि सणिपउँपहि दिण्ण पर। ४. MB पाणपिउ । ५. MB करिव भावियः। ६. MRK सु ।
८.१.MBगक्ष्यत्त।
.MPहिसावतात व
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३१.८.१०]
हिन्दी अनुवाद __ पत्ता-जहां रमणीजन कोड़ा करतो हैं, ऐसे स्वर्णकारके घरमें तुमने सूर्यको जीतनेवाले सात माणिक्य हरणकर रखे थे ॥६॥
४
तलवार और भालोसे जिनके हाथ कांप रहे हैं, ऐसे राजपुरुषों को वह घर बता दिया। ने सुनारकी की सूचनासपिपिपारित वह मांगने पर भी हीरे नहीं देता। राजाने भोजनकसे पूछा कि उसकी गृहिणीको अभिज्ञान चिह्न बताकर घरमें रखे हुए मणि ले आओ। या तो किसी प्रकार गोबर खाओ या सब धन दो, या पहलवानोंका मुष्टि प्रहार सहो। इस प्रकार विमति (सुनार ) के लिए दण्ड सोचा गया। मल्लने आघातोसे उसे हटा दिया, वह गोबर भी नहीं खा सका, अपने चित्तमें चौंककर वह धन ढोता है। प्रतिवादीके द्वारा तोन काम कराये जाकर, वह विमति मरकर दुर्गतिको प्राप्त हुआ। तुम फिर चण्डालके पास ले जाये गये। उसने व्रत ले रखा था, इसलिए उसने मारा नहीं। राजा दोनोंसे नाराज हो गया। दोनोंको बषवाकर उसने निविड़ अन्धकारवाले विवरमें हलवा दिया। तुमने कहा-हे चण्डाल, प्राणोंका हरण करनेवाले मरणको मैं क्यों नहीं पहुंचाया गया ?
पत्ता-तब चण्डालने कहा-दुविलसित कर्मको सुनो कि जो मैंने संसारमें पाया है और अपने शरीरसे मोगा है ||
यहां गुणपाल नामका राजा था । उसको रानी कुबेरी और सत्यवती थी। पृथ्षी और बसु नामक, षोरमनवाले उसके दो भाई थे। कुबेरश्री का एक ही भाई था, जो गुरुत्वमें सुमेरु पर्वतके समान था। जब वे अपने घरमें रह रहे थे तब राजाका श्रेष्ठ हाथी सगंवर क्रीडा कर रहा पा। वनमें समवसरण में जिनवरकी ध्वनि सुनकर वह बोध गुणी हो गया। उसने हिंसासे निवृत्तिका सहारा से लिया । जीव देखकर, वह धीरे-धीरे पग रखता, अविशुद्ध कौर को वह इच्छा नहीं करता। तब महावत राजासे कहता है कि प्राणप्रिय गज कौर नहीं खाता। तब राणाने कुबेरप्रियसे कहा। उसने उसे मांसका पिण्ड बताया। उत्तम विचारवाला गज उसे देखता तक नहीं । फिर उसे खूब अन्ल दिया गया, तो उस गजराजने उसे स्वीकार कर लिया।
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धत्ता - वारणु दुण्णयबार उ मवियाणि
अण्णा दिणि परणाहरु घरु आयउ णश्चाचिय दुहिय पुच्छिय राएं विरश्यतिलय मणादिविसेणुब्भंतियए मुद्धर णीराट पर्जपियड frees जाएदि वणीसरहु सासु पडिवणे हय संबोहिय सहियइ हंसगड़ दुम्मम्म मर्गेण दिय स वित्तु दुसंधवच इपिं स समावहि तो मैरवं णिरुत्तरं कहिए मई घत्ता - सहि पण अट्टमदिणि tिras अरु घरेपि
तहुं तु संवियक्षाणरसु श्य तेहि बिहिं वि आलोय frs ओलंबियकर धी जहिं उच्चावि आणिवि बालिय मुद्धा सुरयविधि सयलु कर रसबल्लिय तं पण विजयष्णिय उस बेस पर परिहरिषि
घत्ता-लूयासु बज्झइ सहि जणु विडइ
महापुरान
९.
כי
हुयच अणुब्वयधारच ॥ णि पाणहु संमाणित ||८||
[ ३१.८११
डुमरी रसविन्भमहावभावसहिय । मेपलमाला विलय | वणिव इस चिंतंतियए । राएं निययि वियप्पियत्र । साइणिजिय दूइ बहू | यंगणरयहु णिवित्तिय । दुलहलंसु म करहि रह । ता जंपइपवर विलासिनिय । संभूय वल्लहु णचणवउ । जर सूईबु कह व ण मेलवहि । असमखि रुवेव माइ पई |
थकइ जिणभवणंगणि ॥ कवि करेपि ॥९॥
१०
चावि आणमि सो अवसु । अमित पराइ | आलिइ जायेष्पिणु तुरिउ तहिं । पिठ अपि उप्पलमालिय । वह थक्कड णावह कट्टभउ । जहिं अच्छिउ तहिं पुणु वल्लियड । बहु रित्तणु मण्डिं । aft की भरु धरिवि ।
महत्थि णिज्झइ ॥ तिमि विश्वइ ||१०||
७. MB
|
९.
१. MB add bufin५: this the following lines : पुणु शिवएं तूसिकि दिष्णु वह, सेडिं पउत्तु आणंद, अच्छ ( M अच्चड ) वरु यवजीराय मह जश्या मग्गेसमि देसि पहु । २. MB पणि । ३. MB मम्मणवणिया ; K " बणियं । ४ ME बिलासिणिया । ५. MB
|
६. MB हउ उ मह मेलवहि । ७ MB मरमि । ८. MB काउसि ।
१०. १. MB तहु संचिय । २. MB तावट्टमिं । ३ MB थिय। ४. MB वीरु । ५. M आवेपि । ६. MH अध्वज । ७. MB हो णीरसुति । ८ MB वाणियजं । ९. M विरुद्द |
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३१. १०.१०]
हिन्दी अनुवश्व धत्ता-वारण ( गज ) दुर्जयका निवारण करनेवाला' और अणुव्रतोंका धारण करनेवाला हो गया है, इस प्रकार उसे बुद्धिमान् जाना, और सेठका प्राणसे भी अधिक सम्मान किया ॥८॥
दूसरे दिन राजाका नवतोरणक नाट्यमाली नट घर आया। और उसने रसविभ्रम हाव और भावोंसे सहित अपनी कन्यासे नरय करवाया। तब राजाने किया है तिलक जिसने ऐसी उत्पलमाला नामक वेश्यासे पूछा । कामरूपी सपके विषसे उद्विग्न और सेठका स्वरूप, अपने मनमें सोचती हुई उस मुग्धाने राजासे जो कुछ कहा उसने उसे अपने मनमें रख लिया। अपने घर जाकर उस वेश्याने उस सेठके घर दूती नियुक्त कर दी। वह, उस सुभग ( सेठ) के प्रतिवचनोंसे आहत हो गयी। प्रणतांग नरकसे उसकी निवृत्ति की। सखीने उस हंसगामिनीको समझाया कि दुर्लभ लभ्योंमें प्रेम मत करो। तब दुर्लभ कामदेवके बाणोंसे आहत वह प्रवर विलासिनी कहती है, "हे सखी, चित्त दु:सस्थित है । वह मेरा नया-नया प्रिय हुआ है। हे सखो ! तुम पंचमकी तान गाओ, यदि वह प्रिय किसी प्रकार नहीं मिलाती हो । मैंने कह दिया कि मैं निश्चयसे मरती है । तुम मेरे परोक्षमें रोओगी।
पत्ता-सखी कहती है कि आठवें दिन वह जिनभवनके आँगनमें अपने हृदयमें जिनवरको धारण कर कायोत्सर्ग धारण करता है ||५||
"तब संचित किया है ध्यान रस जिसने, उसे उठाकर में अवश्य ले माऊंगी।" इस प्रकार उन दोनोंने आलोचना की। इतने में पाठवां दिन आ गया। वह धीर जहाँ अपने हाथ लम्बे किये हुए स्थित था, सखोने तुरन्त जाकर उसे उठा लाकर बालिका उत्पलमालाके लिए समर्पित कर दिया। उस मुग्धाने कामकी सब चेष्टाएँ की परन्तु पर स्थित रहा, जैसे काठका बना हो । उसने यह दुर्वचन कहा कि यह नीरस है। वह जहां था, उसे वहीं स्थापित कर दिया। यह बात राजाने भी सुनी और वणिक्षरकी दृढ़ताकी सराहना की। नरको छोड़नेके लिए वेश्याका उपहास किया गया । यह ब्रह्मचर्य धारण कर अपने घरमें स्थित हो गयी।
पत्ता-कोलिक सूत्रसे मच्छर बांधा जा सकता है, हाथी नहीं रोका जा सकता। वेश्यामें मूर्खजन गिरते हैं विद्वान्का यहां मन खण्डित हो जाता है |॥१०॥
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५
१०
२९४
तळवर अत्र वि मंतिसुङ हि मत्तमग्गयगामिद्देि एकहु जि एक्कु दक्खालियउ परिवाडि दिग्णचयणणियल पिहि तिहि विहिणा आणियउ जो दिउ सुकियसास रसहि सो आपणु महू देसि ज मंजूस सक्खिकयग घरहु जिह हारु तेण उच्छवि गहिउ सुरयाइ पडिव जिह मणिणि मंति ओहामिय
धत्ता
- गहियंगारयद्दत्थहिं फुड मंजूसि समासहि
महापुराण
११
भोयालय णिवेमोइणिहि सुत्र ।
ए घर आया कामिनि । भयभाव मणु संचालियउ
तामायसवलयविहूसियए पविण्णु हारु गर्योदिहि पई देहि सुंदरि eco चोज्जुनियरु घुणिउँ परवणहरगार साडियउ ते तिणि वि तहिं णिश्गय कुविड रणा पुच्छ्रिय सच्चवर पिहिचिहि अलद्धकं चणधव घत्ता - खलु दुव्यणिहिं दोच्छिवि महिणा आणादिउ
आनंदु पनि माणिणि दंड अणु पवियपयड भोइणि तलवर मंतिहि तणय
।
मरु तरुण माणियउ | महु त उ हारु पर्छ णियस सहि । तो देमं हवं मिइ रमणरइ । ates दिणि उग्रमि दिणथरहु । जिह लोहि पुणरबि रहिउ । वित्तं हि । णिज्जीवसक्खि आणावियत्र ।
दासिहिं मणि समत्थहि || मासि || ११ ||
१२
सहसा घोसित मंजूसियए । तुडुं कट्ट कह किं भणहि मई । मा पहि मंति णारयदरिहे । कहिं तरु चर्षति पहुणा भणिडं । मंजूस मुहं धाडियस । पारिहि के के पत्र मलिय जड । सा भाइ भडारी सुद्धम | भई हरु समपि बंधवहु | ता समंति णिब्भकिछवि ॥ हि भूण देवा
||१२||
१३
मणि रोसु रायचूडामणि । असतें एम पर्यपि । तिणि वि घाडह दूसियचिणय |
[ ३१. ११. १
११. १. MB विभोर्याणि । २. MB महागयं । ३. MB पिहिविवि । ४ MB र मग्गिर तरुणिय । ५. MB देहि । ६. K देवि । ७. MB पडिदिष्णु । ८. M मणि णियए: B माणिणियए । ९, MU मंजूस । १०. M पयसहि ।
१२. १. MB वा आपस । २. MBK गई दिवहि । ३. MB महिब । ४ MBK भूस । १३. १. MB ते दंडणाणु परियप्पियज ( B पर्वि )।
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हिन्दी अनुवाद
११
कोतवालका पुत्र, एक और मन्त्री पुत्र तथा विलासी राजाको रखेलका पुत्र, ये मतवाले महागज के समान गतिवाली उस वेश्याके घर आये। उसने एकको एक दिखलाया और की भावनासे उनका मन चकित कर दिया। क्रमसे उसने वचनोंकी श्रृंखला देकर सबको मंजूषामें बन्द कर दिया । भाग्यके द्वारा पृथुधी भी वहाँ लाया गया । रतिकी याचना करनेवाले उससे युवतीने कहा- "ओ तुमने पुण्यरूपी धान्यका आस्वाद लेनेवाली अपनी बहन के लिए मेरा हार दे दिया है, यदि वह लाकर तुम मुझे दोगे, तो में भी तुम्हें रतिरमण दूंगी।" मंजूषाका साक्ष्य बनाकर पृथुषी घर गया। दूसरे दिन सूर्यका उद्गम होनेपर जिस प्रकार उसने उत्सव में हार ग्रहण किया था और जिस प्रकार लोभसे पुनः वह ठगा गया और सुरतिकी आकांक्षासे जिस प्रकार उसने दे दिया, उस प्रकार सारा वृत्तान्त राजासे कह दिया । उस मानिनीने मन्त्रीको नीचा दिखा दिया, वह निर्जीव साक्षी - गवाह ( मंजूषा ) ले आयी ।
३१. १३. ३]
२९५
बत्ता -- तत्व समर्थ दासियोंने अपने हाथोंमें अंगारे लेकर कहा - है मंजूषे ! थोड़े में साफसाफ कहो, आगके मुखमें मत जाओ ||११||
१२
तब लोके वलयोंसे विभूषित मंजूषाने घोषणा की कि गत दिवस तुमने हार देना स्वीकार किया था । तुम कठोर कठोर यह मुझसे क्या कहते हो ? सुन्दरीका आभूषण दे दो। हे मन्त्री, तुम नरककी घाटीमें मत पड़ो। राजाको आश्चर्य हुआ । उसने अपना माथा पीटा और कहा क्या कहीं का भी बोलता है। मंजूषाका मुँह खोल दिया गया, परवनका हरण करनेवाला नष्ट हो गया। ये तीनों बिट उसमें से निकले। स्त्रियोंके द्वारा कौन-कौन जड़-बुदघू नहीं बनाये जाते ? राजाने सत्यवती से पूछा । शुद्धमति आदरणीय वह स्वीकार करती है जिसे स्वर्णध्वज प्राप्त नहीं है ऐसे अपने भाई पृथुको मैंने हार दिया था ।
पत्ता- तब उस दुष्टको दुर्वचनोंसे भर्त्सना कर और अपने मन्त्रीको डांटकर राजाने वह आभूषण बुलवाया और उसे दिलवा दिया ||१२||
१३
मानिनोका आनन्द बढ़ गया। परन्तु उस राजश्रेष्ठके मनमें क्रोष बढ़ गया। बाद में उसने aust कल्पना की और इसे सहन न करते हुए उसने कहा, "रखैल, तलवर और मन्त्रीका पुत्र ये
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५
१०
१०
२९६
सिरकम लुह पुद्दहि तपउं परिणाम विहाबिय
तयहुं जो पई सई दिष्णु तरु परदेस मा पिंडद ता तहिं धरणी किवं करुणु araणु गर्दिजं किय वाखहु दोसें सरिसु संचितई सो मारमि मरमि धत्ता-- पुणु गए पइतीरप विजाकर विलिय
अवनी
अंगुलिइ कय सुहृदाइणिय किं जो यह मंतें पुच्छिय महू कामवधरि मुद्दडिय णं पिययम णाहासिक्ख विय पुणु मग्गिय खयरे दिष्ण तहो लहुयउ भायरु वसु सिक्खवित एकाणि चडियट राणिय साँ पैकखइ यियसहोयरस पिणे ही दिणवि ं पत्ता - — जोवणमयमत्ते माप चरु संजोयहि
मायावइत्तविलंबिय दुपिच्छ मच्छरुको
ण वियाणि कवहरूवरयणु to जाइवि राहु पेस णिण पिहि वी चारितमहिड्डियष्ट
महापुराच
ता वणिवर चवइ सुझावणउं । जयहुं कुंजरू जावियट । सो अदेह सिंतियरु । एहु विमा खर्गे खडवहि । वारि विदेसवर मरणु | तं हि विचित्तु रोकियत । फणिदिण्णलं दुधु वि होइ विसु । सेहिहि णिहु अबसें करमि । तेन तुसारसमीरण || अंगुत्थलिय निहालिय || १३ ||
१४
ता स्वयरु पलोयइ मेइणिय । सेत्त इह हवं अलिय । एत्थेत्थु मित्त कत्थs पडिय ।
तसा विसिषि दक्खषिय | संnge गर णि मंदिर हो । मुद्द कुबेरपिट सो बि किड | सच्चद्दि धम्मचियाणियदे | जणु पेक्ख वैणि अयजणिरव । परमेसर तुह फलन्तु रमितं ! यदि पुत्ते ||
जावि अप्पणु जोयहि ||१४||
[ ३१. १३. ४
१५
मुद्धर डिंभर सिरि चुंबिय । राएं स लोया । fee rasiगभंगुर वयणु । जमदूषण व जमसासणिण । पडिमा परिट्टि कयिष्ठ ।
२. MB पई जो महू दिष्णु । ३. MBT पट्टवहि । ४ MB विरयणु । ५ MB चितइ सो मारम पुणु मरमि । ६. MB ठाइनि ।
९४. १. MB] कंपियमाणा हायें खविय। २ B मरिगवि । ३, M सो। ४. MB वणि विभज्जर | ५. K धणजो । ६. MM पियदसह । ७. M वर पर ।
0
१५. १. MB] वसतु । २. MB कोवर्णा । ३. MB चिह्निविवि परित K पिट्टि बात ।
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हिन्दी अनुवाद तीनों दूषितविनय है। निकासंविधा कापी कला सिर काट लो।" तब वह सेठ सुहावने स्वरमें कहता है-"जब मैंने परिणामका विचार किया था और हाथीको भोजन कराया था, उस समय तुमने जो दर मुझे दिया था, हे राजन् ! शान्ति करनेवाला वह वर माप भाष मुझे दें। इनको परदेश न भेजें, इसको तलवारसे खण्डित न करें।" राजाने इसपर करुणा को
और देश निकाला और मृत्युदण्डको उठा लिया। राजाने जो सेठका कपन मान लिया, उसने मन्त्री पृथुधीको कुपित कर दिया । उपकार भी दुष्टके लिए दोषके समान होता है। नागको दिया गया दूध विष ही होता है। वह सोचता है कि मरूंगा या मागा, सेठका प्रतिकार अवश्य करूंगा।
पत्ता-फिर जब वह हिम शीतल नदी किनारे गया हुआ था। वहां उसने विद्यापरके हाथसे गिरी हुई एक अंगूठी देखी ॥१॥
सुखदायिनी उसे उसने अपनी अंगुलीमें पहन लिया। इतने में विद्याधर धरती देखता है। भान्त्रीने पूछा-तुम क्या देखते हो? उसने उत्तर दिया-"मैं यहां था। मेरी कामरूप धारण करनेवाली अंगूठी, हे मित्र, यही कहीं गिर गयी है, मानो जैसे पति के द्वारा नहीं सिखायी गयी प्रियतमा हो।" तब उसने वह अंगठी हसकर उसे दिखायी और पुनः उससे मांगी। विद्याधरने वह अंगूठी उसे दे दी। वह सन्तुष्ट होकर अपने घर गया। उसने अपने छोटे भाई वसुको सिखाया, उसने अंगूठीसे कुबेरप्रिय बना दिया। वह धर्मको बाननेवाली सत्यवती रानीके एकान्त आसनपर चढ़ गया। वह उसे अपना सगा भाई समझती है, लोग उसे अकार्य करता हुआ सेठ दिखाई देता है। किसी दुष्टने राजासे निवेदन किया, हे परमेश्वर, तुम्हारी स्त्रीसे रमण किया है
धत्ता-नवयौवन मदसे मत्त धनवतीके पुत्रने निश्चय से। किसी दूतको मत भेजो खुद जाकर देखो ॥१४॥
१५ उस मुग्धाने उस मायावी वणिकत्वको प्राप्त उस बालकको सिरपर चूम लिया। दुर्दर्शनीय ईष्यसि उत्कण्ठित नेत्रोंसे राजाने स्वयं उसे देखा। वह नहीं जान सका कि यह कपटरूपकी रचना है। भौंहोंकी भंगिमासे उसका मुख टेढ़ा हो गया। पृथुषोने भी घर जाकर राजाके आदेशसे, यमशासनसे यमदूतके समान, चारित्र्यकी महाऋद्धिसे सम्पन्न प्रतिमायोगमें स्थित सेठको
२-३८
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वणिवई मारहुं णेवावियर जूरइ ससवा कुबेरसिरि अण्इ ससहर रवि सीयलय अहवा लइ एउं होइ जद वि तहिं अक्सर सो चंडालयदु पत्ता-पाणे प्रति विमुकी
खग्गलहि जमदुई
महापुराण
[३१. १५.६ सप्फाले जण मेलादिया । हा कि चलु हयउ मेरुगिरि । हा कि जायउ धम्महु पलट । पहु भव्यहु सीलु सुधु तइ वि। अप्पिर तोलियारवालयतु । पणिगलकंद लि दुही। सियहारावलि हूई ॥१५॥
१६
साहु ति मणिवि पणवियपयए सोवण्णभूमि मणिमंडविय णिकरेणु साहु जो णिम्महह अवरेकाहिं मच्छरणिन्मरहिं अण्णेकई वेद्धाइयई बहु दिव्वछु अमरिसु वद्धियर सो भणइ काई मई दोसु किच मुहापवंचु पररूषगइ गुणिबंधणु रायह भिण्णमइ पडक्य कललच्छि कुवेरसिरि गर सहिं अहिं अच्छइ बाइसवइ घसा-पिसुणकवडण वियक्किड
खमहि षष्प जं दूमि
पचमासणु किउ पुरदेवयए। तहु पाखिहेरसिरि णिम्मविय । भूरहिं णिबद्धउ सो पुहर। णिदिवि सिरि चूरिज करहिं । जहि णरवइ तहिं संपाइयई। पहु पायहिं धरिवि णियढियल | भासइ पिसायगणु धम्महिउ। सुहिबंधणु परकलत्तविरई। ते सोसिय पणविवि सखवइ । सवसामिवि गरहिधि णिययसिरि । मसलियकर सो पत्थिर चवइ ।
मई पायें कि दुकिटं ॥ कसताडणहि किलामिउ ॥१६॥
वणि भणइ पुराइल कम्मु महुं ते णासमि एवहि तज करमि पिठ भणिवि सभषण आणिय
णिकारणि अंकुइओ सि तुहुं ।
उ तुझुप्परि माछरु धरमि । जाहेण इट्ट बहु माणियट ।
४, MB add after this the following lines :पृण हट्टहु मों पालियत
सब्धेहि जहि णिहालिया । णिज्जत पेक्खिवि जणु रुवइ
कु वियामि पामि थाहत मुयाह । कुवि सबइ राउ कु वि पुहश्मर सुंदरू सुसील दुह पावियत । जो दुरएहिं हुरएहिं जंतु चिव जामहिं जंपाहि गुणपरु । उदहशु ओम गडिउ बगेप
रोवते सयले परियणेण । सो एवहि चरणहिं सरह किह कम्महिं पायउ पुरिसु जिह । १६. १. M णिकरणु । २. MB सिरु । ३. MB अण्णेक्कें । ४. MB संपाइयई। ५. M वमहिउ । १७. १. MB read this line as: म दुप्परि मारु परमि, तं जासमि एहिं तर करभि ।
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३१. १७.३]
हिन्दी अनुवाद निकाला । उसे मारनेके लिए ले जाया गया। पटहध्वनिसे लोगोंको इकट्ठा कर लिया। सत्यवती
और कुबेरधी दुःखी होती हैं-हा ! क्या सुमेरुपर्वत डिग सकता है ? चन्द्रमा उष्ण और सूर्य क्या शीतल हो सकता है ? हा ! क्या धर्मका प्रलय हो गया है अथवा बाह र हो रद..... भी उसका भव्यका शील शुद्ध है। उस अवसरपर तलवारको उठाये हुए चण्डालको वह सौंप दिया गया।
घत्ता-चाण्डालके द्वारा मुक्त वह तलवार सेठके गलेपर शीघ्र पहुंची और यमकी दूती वह खड्गलता श्वेतहारावलि बन गयो ॥१५।।
'साधु' यह कहकर, और पैर पड़ते हुए पुरदेवताने पद्मासनको रचना को, और उसके लिए मणिमण्डित स्वर्गभूमि तथा प्रातिहार्य-श्रीका निर्माण किया। निष्करुण जो साधुको मारता है वह पृथुधी भूतोंके द्वारा बांध लिया गया, मत्सरसे परिपूर्ण, और दूसरोंने निन्दा कर टक्करोंसे सिर चकनाचूर कर दिया। अनेक कोषसे भरे हुए वहाँ पहंचे जहां राजा था। उनका बहत और दिव्य क्रोष बढ़ गया और राजाको पैरोंसे पकड़कर खींच लिया। राजा कहता है कि मैंने क्या दोष किया ? लब धर्मका हित करनेवाला पिशाचगण बताता है-मुद्राका प्रपंच, दूसरेका रूप बनाना, परस्त्रीसे विरत होनेपर भी सुषिका बन्धन, गुणोजनका बन्धन और राजाको विभिन्नमति करना। उसने प्रणाम करके सत्यवतीको सन्तुष्ट किया। पतिव्रता कुललक्ष्मी कुबेरपीको शान्त कर अपनी श्रीकी निन्दा कर राजा वहां गया, जहां सेठ था। हाथ जोड़कर वह राजा कहता है
पत्ता-मैंने दुष्टके कपटकी कल्पना नहीं की थी, मुझ पापीने दुष्कृत किया है। हे सुभट, क्षमा करें जो मैंने तुम्हारे चित्तको खेद पहुँचाया और कोड़ोंके आषातोंसे तुम्हारे शरीरको सताया ॥१६॥
१७
सेठ कहता है कि यह मेरा पूर्वाजित कर्म था कि जो तुम अकारण कुपित हुए। अब उस (कर्म) को नष्ट करूंगा, अब मैं तप करूंगा ! तुम्हारे प्रति ईर्ष्याभाव धारण नहीं करूंगा। प्रिय
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महापुराण
[३१. १७.४ चंडालें अहमिचपदसिहि पालिय अहिंस दिण्णी रिसिहि । पुणरवि पाणं चोरहु कहिउ जिह गुणपाले उ संगहित । ते बइसे वारिसेणदुहिय .. . विषयाकडलकाबाहिर | दिण्णी कुवेरसिरि पदणहु वसुपालह मुवणाणंदणहु । तहु जणणे मणि कुबेरपिउ किं मोक्खड्ड कारणु कहमि पिउ । तेण जि पलत्तु धम्मु जि भणमि सिषकारणु अण्णु ण परिगणमि । णिव जामि होमि हर जइचरिउ सो तिणि दियह पवणा धरिउ । सुयरक्खणु को वि णिरिक्खियट दिणि तिजह एंतु व लक्खियउ। पर पुच्छहूं वणिच पराइयउ महिलय हि विसंभह धाइयच । धत्ता-कहिं सिणिसवु कहिं मक्खिय केणाणिय किं भक्खिय ।।
जीवहु कम्मु सहेजल अण्णु ण किं पि दुजय ॥१७॥
१
डिंभहुं मुंहुं दातु जि करइ सिरिपालु सचवइदेहराहु दइवण्णुरहि आएमु कम कह णिसुणिषि कुसुमाले दमिय णरयाउसु तेणोसारियर्ड जं सायरसंखहिं मेलविउ सिरिपालविवाहि सवंतवण सो चोरु मरिवि विडिउ परइ बहुवियहहिं तेत्याहु णीसरिउ इस अफछवि हर्ष संजमुबह मि पत्ता-ता देवेण समीरिख
तं जइमिहुणु णियच्छहि
किं मायैवप्पु चिंतिवि मरह। होस पकवर पहुल मुहु । गुणवालु संवणि मुणि होषि गर। मइ खतिइ संलिइ संसमिय। तइयाउ पहमि संचारिय। तं वरिसलक्खकोडिहिं थविउ । वसुपाले मुका ये वि जण । पहिलारइ भीमदुक्ख णिलइ । वणि कुंभोयरधरि अवयरिउ । जिएवं मासिउं सहामि ।
जे जम्मतरि मारिख ॥ ता कि रोसे पेच्छहि ॥१८॥
१९ कि खमहि भडारा फुड कहि किं अज्ज वि वहरु चित्ति वहहि । तं णिसुणिवि रिसिणा बोझियउं पाविढे जं मई सनियर । तं एव हि णिस्सलु जि करमि तहु हियमियवयणई वज्जरमि ।
सा तियर्से जंपि णिसुणि रिसि अम्बई जिताई विणि वि सबसि। २. MB बज | ३. MB विण्णायस्थ । ४. MRK कहहि । ५. B वि चत्तु । ६. K पर गणमि ।
0. MB यंतु । १८. १. MB सुई दुई दाज । २. K मारबप्यु । २. T सवाणि श्रेष्ठिना सह । ४, MB तेणोहारियउं ।
५. MB दुक्खभीमणिलए । ६. MB जिणदेवें। १९. १. MB अग्ने वि । २. Kणीसएन ।
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३१. १९.४]
हिन्दी अनुवाद
३०१
कहकर वह अपने भवन ले आया। राजाने उसे बहुत इष्ट माना । चाण्डालमें भी मुनियोंके द्वारा दो गयी अहिंसाका अष्टमी और चतुर्दशीके दिन पालन किया। फिर चाण्डालने चोर (विद्युत् चोर) से कहा कि किस प्रकार गुणपालने व्रत ग्रहण किये। उस सेठने अपनी कन्या
।
रूप और लक्षणोले सहित थी, कुबेरश्री के पुत्र
वाणिजो विज्ञान, विताने कुबेरप्रिय (सेट) से कहा कि मोक्षका क्या कारण है ? हे प्रिय बताओ। उसने कहा, मैं धर्मको ही शिवका कारण मानता हूँ, अन्य किसी कारणको नहीं गिनता। हे राजन्, मैं जाऊँगा और मैं मुनिका चरित्रधारक बनूंगा ? तब उसे तीन दिनके लिए राजाने रोक लिया। उसने पुत्रोंकी रक्षा करनेके लिए किसीको खोज लिया। तीसरे दिन आता हुआ-सा दिखाई दिया । राजासे पूछने के लिए सेठ आया, उसी समय ) मक्खोके ऊपर छिपकली दौड़ी
पत्ता - कहाँ छिपकली और कहाँ मक्खी ! कणोंको खानेवाली किस प्रकार भक्षित कर ली गयी। जीवको कर्म सहना पड़ता है और कोई दूसरा नहीं है ||१७||
१८
सन्तान के लिए सुख देव करता है चिन्ता कर मां-बाप क्यों भरते हैं ? सत्यवतीका पुत्र श्रीपाल पहला चक्रवर्ती होगा । देवज्ञोंने आदेश दिया। गुगपाल श्रमण मुनि होकर चला गया । कथा सुनकर चोरने शान्तिसे अपनी मतिको शान्त और संयत किया। उसने अपनी नरकायु हटायो और तीसरे नरकसे उसने पहले नरकका बन्ध कर लिया । जो सागरोंकी संख्यामें थी, वह लाख करोड़ वर्षोंमें रह गयी । श्रोपालके विवाह में वसुपालने रिसते हुए घाववाले उन दोनों ( चाण्डाल और चोर ) को मुक्त कर दिया। वह चोर मरकर भयंकर दुःखोंके घर पहले नरक में गया । बहुत दिनोंके बाद वहाँसे निकला और उनमें कुम्भोदर घरमें उत्पन्न हुआ । यहाँ रहकर मैं संयमका पालन करता है और जिनदेवके द्वारा कहे गये पर श्रद्धान करता हूँ । पत्ता-तब देवने कहा- "जिसे तुमने जन्मान्तरमें मारा था, उस यतिक्रे जोडेको देखो, ar अब भी तुम उसे क्रोधसे देखते हो १ ||१८||
१९
या क्षमा करते हो, हे आदरणीय ! स्फुट कहिए, क्या आज भी बेर अपने मनमें धारण करते हो ।" यह सुनकर मुनिने कहा- "पापिष्ठ, मैंने जो अपनेको पीड़ा दी, उससे अब मैं अपनेको निःशल्य करता हूँ और उससे हितमित वचन कहूँगा " इसपर देव बोला - "हे ऋषि, सुनिए ।
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५
2.
५
१०
१५
३०२
प पहयई देवई जायाई तुम्ह पयजुयल वंदिय हा दुदुमाई मंतिय हा दुदु मई भासियत
करणीस मुहं जिह तुम्हें विह तिज गहु जि खमिडं घसा-ता दूरुझियमच्छरु गुरु दिविसग्गहु
सो भीमसाहू विहषि महि आवेवि सिवंकरि संठिय पण केवलणाणुखणे त एक छत्तु दो चामरई पोमा मणि वि पहुव प्रियाच चडज क्खिणि तहिं अक्सर पवणुगर विणु पणा ताहिं नियच्छिय जाप भइमोमिया वसुसेण वसुंधर धारिणिय सिरिम असोय संती त्रिमल यहि अहिं वि सुणिम्भयई core मरिवि सुहसूइय घसा - रइसेणा सुरकामिणि सुइवर कोमलहत्थी
महापुराण
लंजिय पवार व कयवयच तह चित्तवेय जंक्खेसरिय अज्जु जि adore froत्र कुले सुरदेव दाणमणियउं
दुरंतु सदु
२०
A
इथ कोई सि भवंतर आयाई । ता मुणिणा अप्पर णिदिव । हा दुहु दुमईचितियउ । हा दुछुछु म बसियट । एवहिं ण व केणावि सहुं । हवं एवहिं भण्णमि संज मित्र ।
अमरु सचामरु सच्छरु || लिउ जिणवरमग्गहु ||१९||
वसुपालणयरि उाणवहि । ag मोहू असेसु वि पिट्टियउ । कंपावियसुरवरसुरभवणे । वियई चउवि वरामरई । मुज्जलु छज्जइ धरणियलु । आय अण्णा वियक्खवि । देवी अद्धव सभागयउ | को पर छोड़ी जइ पुछियउ । इह पुरि सुरदेव गेोहिणिया । rore yes सुहकारिणिय । चोथी घरदासि तासु विमल । वणि मुणिहि पासि गहियई वयई । gas देवि हूइ |
२१
[ ३१. १९५
अवर सुसेण सुहारिणि ।। चित्तसेण सुपसत्थी ||२०|
भूइया वणदेवयल | does aणदेषी धणसिरिय । इह एयर पेच्छड गयणयले । रिसिदिअंतडं अवगण्णिय | पुणु वाय पुणु उंदुरु सरदु ।
३. MB करहि । ४. MB तुम्हई तिजग । ५. MB बलिउ ।
२०. १. Kपासणु । २. MB मणिमंडउ । ३. MB बिमलु । ४. MBK omit this live |
५. MB नयारि । ६. MB पवृतु । ७ MB सुणिम्मलई । ८. MB कंताज |
२१. १. MB चक्केसरिय । २. MB बणवड़ बणदेवी । ३. MB गहु हु ।
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३१. २१.५]
हिन्दी अनुवाद हे स्ववशिन, हम ही वे दोनों हैं । आपके द्वारा आहत होनेपर देव हुए और कहीं भी भ्रमण करते हए यहां आ गये और आपके चरणकमलोंकी वन्दना की।" तब मनिने अपनी निन्दा को-"Erहा! मैंने दुष्ट सोचा, हा हा मैंने दुष्ट चिन्ता की । हा-हा मैंने दुष्ट भाषण किया। हा-हा मैंने दुष्ट चेष्टाएं की। मैं क्षन्तव्य हूँ, मुझे निःशल्य बनाओ । इस समय किसीके भी साथ मेरा बैर नहीं है। जिस प्रकार तुम छोगोंके लिए उसी प्रकार त्रिजगके लिए मैंने क्षमा किया। इस समय मैं मुनि कहा जाता है।"
पत्ता--तब दूर हो गया है मत्सर जिसका ऐसा वह देव चमरों और अप्सराके साथ गुरुकी वन्दना कर स्वर्ग चला गया, वह जिनवरके मार्गसे ज्युत नहीं हुआ ||१९||
वह भीम मुनि धरतीपर विहार करते हुए वसुपालके नगरके शिवकर उद्यान पथमें आकर ठहर गये । यहाँ उनका अशेष मोह नष्ट हो गया। सुरवर भवनोंको कमानेवाला एक क्षणमें उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उनके एक छत्र और दो चामर थे। चारों ओरसे सुरवर झुक गये। पद्मासन विपुल मणिमण्डप और हेमोज्ज्वल धरतीमण्डल सोभित है। अपने स्वामोसे रहित, तथा एकसे एक विलक्षण चार व्यन्तर देवियां आयीं। उसी अवसरपर पवनसे उद्धत आठको आधी ( चार ) देवियां और आयीं। पतिके बिना, उन्होंने दर्शन किये और यतिसे पूछा कि उनका पति कौन होगा ? यतिने कहा कि इस नगरीमें मतिको मोहित करनेवाली तुम सुरदेवकी गृहिणियाँ थों। वसुषेण, वसुन्धरा, धारिणी और पृथ्वी। ये शुभ करनेवाली थीं । श्रीमती, बीतशोका, विमला और वसन्तिका ये चार उनको गृह दासियाँ थीं। इन आठोंने वनमें मुनिके पास पवित्र बत ग्रहण किये । कन्याएं मरकर अच्युत स्वर्गके इन्द्रकी शुभसूचित करनेवाली देवियां हुई।
पत्ता-सुरकामिनी रतिषणा, सुहाविनी सुसेना ( सुसीमा), कोमल हाथोंवाली सुखावती और सुप्रशस्त चित्रसेना ||२०||
२१ व्रत करनेवाली चारों दासियां भी वनदेबियां हुई । ( व्यन्तर देवियाँ हुई ), अनमें यक्षेश्वरी, चित्रवेगा, पनवती, धनश्री व्यन्तर देवियां आज भी दिव्यकुलमें उत्पन्न हुई हैं, यहाँ इनको आकाशतलमें देखो । ऋषिको दिये जाते हुए दानको सुरदेवने नहीं माना, उसकी अवहेलना की।
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३०४
पुणु दाहाभासुर बोणसड मई समउ आसि सो घिन्तु बिले जिणधम्मु तिसुद्धिव भावियल शेण वि तहु आउ पयासियर ओसारियदूसहमवरिणई उप्पण्णउ एव हि फुडु जि दिवि सो पई तुम्हार गांवथसुर पत्ता-सुरदेवहु जा मायरि
एत्थु जि देसि चिरतणे
महापुराण
पुणु हुड चंडालु कुमाणुसन । हई मरिवि पर्यत परयबिले। बउले चिरु जइबइ सेवियउ । सत्त जि अहरचई भासियच । संणासु करिवि रिसिसम दिणई। को पुसइणे विहिणा वियि लिवि । लइ सो जि भारस धम्मगुरु ।
सा मरेवि तुच्छोयरि ।। उपलखेडा पट्टणे ॥२१॥
सिरिधम्मपालणिवर्णदियहे मुणिदाणहत्रेण सुसोलिणिय तहि तहि विवाहि कयणिग्गहहो रइसंभवसोक्खाकंखिणिहि भणु भणु मुवि को अम्हई रमणु जं पाण कय संणासगइ दरिसावियसोहबग्घमुहहे सो होसइ तुम्हहं हिययहरु पत्ता-माणवदेहु मुएपिणु ___ गाढालिगणु देसइ
उप्पण्णी पुत्ति अणिदियदे। जगसुंदरि मंदरमालिणिय । अम्हई मुक्का बंदिग्गइहो । गुरु पुच्छित्र चउहुं मि जक्खिणिहिं । ता कहइ काममर्यावरवणु। तहु तणः पुत्तु अज्जुणु सुमइ । अणसणि थिउ सिद्धसेलगुहहे। बरु महत णायइ कुसुमसरु ।
जक्खु सुरिंद इवेप्पिणु ॥ तुम्हह पुलउ जणेसइ ।।२२।।
अनुयपबिंदु सिंगारधरु
हूयड आयउ सो वडेलचर। ते बंदिउ णियगुरु गरुयगुणु सहियउ देविहिं गउ सामु पुणु । जक्विहिं जाएचि जसैब्रुणहो संणासु करतहु अझुणहो । आगामि पुण्णु पसंसियल तहु णियमहिलत्तणु भासियउ । तहि अवसरि वणिवरदत्तु णर लग्गस देविहिं पसरंतकर। जाया ताप णिसणउ विडि खुसड वम्महमग्गण । असहतें विरहविरोमियत तेणप्पच कफरि घञ्जियउ। मुष्ट योगदत्तवाणिवरहु सुर सहससि पिसजदेव हुल । धत्ता-तेत्थु जि णयणाणंदणु पुरि सुकेट वणिणंदणु ।।
गेहिणि तासु वसुंधरि बाहइ णाहु वसुंधरि ॥२३॥ ४. M दाढीभीसणुः । दाला भोसणु । ५. MB बि । २२. १. MB धम्मवालसिरिदियो । २. MB मुक्कई । ३. MB विमण । ४. MBKजें। २३. १. B बउलघरु । २. MB जसम्मणहो । ३, 3 अलहते । ४. MB विरोलिय; T विरोलज ।
५. MBणायदत । ६. MB पिसल्लज । ७. Bणाह।
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३०५
३१. २३.१०]
हिन्दी अनुवाव वह मरकर दो दांतका गधा हुआ, फिर कौआ, फिर चहा, फिर सोड़, फिर दाढ़ोंसे भयंकर सुअर, फिर चाण्डाल और कुमनुष्य । मेरे साथ वह भी नरकबिल में डाला गया। में मरकर नरकबिलमें उत्पन्न हुआ। मन-वचन और कायकी शुद्धिसे जिनधर्मकी भावना की। फिर बकुल नामके चाण्डालने यतिवरकी सेवा की। उन्होंने भी उसकी आयु प्रकाशित की कि उसके सात दिन-रात बचे हैं । असह्य भव-ऋणको हटानेवाले उन सात दिनोंमें संन्यास कर इस समय वह स्पष्ट रूपसे स्वर्ग में उत्पन्न हुआ है । विधिके द्वारा लिखी गयी लिपिको कौन मिटा सकता है ? यह नया देवता तुम्हारा पति है. और लो, वही हमारा नया धर्मगुरु है।
धत्ता-सुरदेवकी जो माता थी वह कृशोदरी मरकर इस प्राचीन उत्पलखेट नगरमें-॥२१॥
२२
-श्री धर्मपाल राजाको आनन्द देनेवाली अनिन्दितासे पुषी उत्पन्न हुई। मुनिके दानके फलसे मन्दरमालिनी नामकी वह कन्या अत्यन्त सुशील और विश्वसुन्दरी थी। वहाँ उसके विवाहके अवसर पर निग्रह करनेवाले बन्दीगृहसे हम लोग मुक्त हो गये। रतिसे उत्पन्न सुखकी इच्छा करनेवाली उन चारों यक्षिणियोंने गुरुसे पूछा-"बताओ-बताओ, संसारमें हमारा प्रिय कौन है ?" तब काममदका नाश करनेवाले वह कहते हैं-"जो चाण्डालने संन्यासगतिसे मरण किया है उसका अर्जुन नामका सुमति पुत्र है। जिसके मुखपर सिंह और बाघ दिखाई देते हैं ऐसी सिद्ध शेलको गुफामें वह अनशन कर रहा है। वह तुम्हारे हृदयका हरण करनेवाला सुन्दर वर होगा, कामदेवके समान ।
पत्ता- मनुष्य शरीर छोड़कर यक्ष-सुरेन्द्र होकर वह तुम्हें प्रगाढ़ आलिान देगा और रोमांच उत्पन्न करेगा" ॥२२॥
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२३
बकुल चण्डालका वह जीव आया और श्रृंगार धारण करनेवाला अच्युत प्रतीन्द्र हुआ। उसने आकर महान् गुणोंवाले अपने गुरुकी वन्दना की और देवियोंके साथ पुनः स्वर्ग. चला गया। यक्षिणियोंने आकर यशसे उज्ज्वल, सन्यास करते हुए अर्जुनके आगामी पुण्यकी प्रशंसा की और उसे बताया कि वे उसकी स्त्रियाँ होगी। उस अवसर पर वरदत्त नामक वणिक् मनुष्य, अपने हाथ फैलाये हुए देबियोंके पीछे लग गया। वे देवियां अदृश्य हो गयीं। कामदेवके बाणोंसे वह धूर्त क्षुब्ध हो गया, विरहकी विडम्बनाको सहन नहीं करते हुए उसने स्वयंको पर्वतको चोटीसे गिरा लिया। इस प्रकार सेठ नागदत्तका पुत्र मर गया और शीघ्र पिशाचदेवके रूपमें उत्पन्न हुआ।
__घला-उसी नगरीमें नयनोंको आनन्द देनेवाला सुकेतु नामका वणिक् पुत्र था। उसको पत्नी वसुन्धरा थी। वह वसुन्धराका पालन करता था ॥२३॥
२-३९
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[३१.२.१
अण्णु वि फणिदत्तु णामु यमद वैणिस लोयदिष्टुिभवणु पुरवाहिरि पड़ किसि करइ जहिं बहिमोल्लि अन्लयमोसियउं पहे जतिइ साड्ड पलोइयर ससिषयण पद्विवणिणायहरे वाणोण तेण जणसंथुयई गिग्वाहिं रयणाई घिसाई पत्ता-जोइवि मणिगणवुट्ठी
गय घर्णकणिसह छेत्तदु
तहु कंत सुणेत्त सुदत्तसइ। कारावित सेण णायभवणु । अपणहि दिणि चल्लिय परिणि तहिं । भोयेणु गेहवि सुश्वासियउं । थाहाड तासु तहि ढोइयर । मुत्तउ मुणिणा संणिहित करे। जायई पंच वि अचन्मयई। करकब्बुरियाई विचित्ताई। पणइणि तसिय पणट्ठी ।। अक्खइ सा णियकवट्ठ ॥२४॥
तुह क्रूरकरवर आणिया केण घि तहिं फुरलाई मुकाई अण्णेत्तहि कारकिरणअडिय अण्णेत्तहि काई दिगनियर अण्णेत्तहि साहु साहु भणि तं णिसुणिवि हस गट्ठी समय तुई मछु केरी घरकमलसिरि तुहुँ गुणमाणिकई तणिय स्वणि पत्थर ण झोति ते दिवमणि धरियर विवक्खवइसेण धणु घचा-हिमगोखीराभासा
पडियई सहरहियचाई
जो तेण साह मई पीणियउ । पिययम महु मत्थइ थकाई। गयणंगणा पत्थर पडिय । णे जाणसं वज्जेन वञ्जियट । अण्णेत्तहि वरिसिरघणझुणिर्छ । ता भणइ णाहु हैलि तुहं सदय ।। पर होतिइ होसइ मझु सिरि । पई कियच धम्मु मुंजविच मुणि। श्य भणिवि अहीहरु टुकु वणि | उत्तर सुकेत मा किं पि भणु । महु केर फणिवासा॥ मह जि होति माणिकई ॥२५॥
इयरे पयुत्तु दुई खुद्ध खलु महु धरिणिहि केरउ वाणहलु । मा हरहि चोर रूसइ णिव ता दवु लएप्पिणु सो कुमइ । गत तहिं जहिं अच्छा धरणिवा को पावइ धम्म तणिय गइ । सो राणस अवरु वि सोपणिस विम्मूढगूड लोहे वणिः ।
जिह जिह मणि तं सीकरइ घणु सिह तिह जि होइ इंगालगणु। २४. १. MB वणिज । २. M फणिदसे । ३. MB ओयणु । ४. MB ताइ तह । ५, B मणगणमुद्धी ।
६. MB एणकसणव । २५. १. MB पं । २. M वज्जु । ३. BM पेच्छिवि । ४. MB तुह हलि । २६. १. MB धिम्मूढ मूड K विम्मूख गूकु ।
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३१. २६.५]
हिन्दी अनुवाद
३०७
२४
वहाँ एक और नागदत्त सेठ रहता था, उसकी सुन्दर नेत्रोंवाली पत्नी सती सुदत्ता थी। उस वणिक-मूत्रने लोगोंको दष्टिके लिए आश्रयस्वरूप (सुन्दरताके कारण) एक सुन्दर नाग भवन बनवाया । नगरके बाहर जहाँ उसका (वसुन्धराका पति खेती करता था, दूसरे दिन उसकी पत्नी वहाँ जाती है। दहीसे गीला, अदरकसे मिश्रित सुन्दर बधाग हआ भोजन लेकर ग़रतेगे जात हा उसने एक साधको देखा। उसने उसके लिए आहार दिया। उस शत्रवणिक्के नागघरमें चन्द्रमुखीके द्वारा हाथपर रखा हुआ भोजन मुनिने कर लिया। उस दानसे लोगो द्वारा सस्तुत पोच आश्चर्य उत्पन्न हुए। देवताओंने रत्न बरसाये, रंगबिरंगे और विचित्र ।
घत्ता-रत्नोंकी वर्षा देखकर प्रणयिनी त्रस्त होकर भागी। यह सघन कणोंवाले खेतमें जाती है और अपने पतिसे कहती है ।।२४||
"मैं जो तुम्हें दही-भात लायी थी, उससे मैंने साघुको सन्तुष्ट कर दिया। किसीने वहां फूल बरसाये, हे प्रियतम ! वे मेरे माथेपर गिरे। एक और जगह सुन्दर किरणोंसे जड़े हुए पत्थर आकाशसे गिरे। एक और जगह भी कुछ गरजा, मैं नहीं जान सकी। बाजा बजा। एक और जगह साधु-साघु कहा गया, एक और जगह बरसनेवाले बादल गहगडाये। वछ सुनकर में डरकर भागी।" इसपर स्वामी कहता है, "हे सखी, तुम सदय हो । तुम मेरी गहरूपी कमलको लक्ष्मी हो, तुम्हारे रहते हुए मुझे लक्ष्मी प्राप्त होगी। सुम गुणरूपो माणिक्योंकी खदान हो। तुमने यह धर्म किया कि जो मुनिको आहार दिया। वे पत्थर नहीं दिव्यमणि हैं।" यह कहकर यह वणिक् शोध नागभवन पहुंचा । लेकिन शत्रुवेश्य ( सुकेतु ) ने वह धन ले लिया । सुकेतु बोलाकुछ मत कहो ।
पत्ता-हिमकिरण और क्षीरको सरह मास्वर मेरे नागभवनमें गिरे हुए अत्यन्त कान्तिवाले माणिक्य मेरे ही होते हैं ॥२५॥
२६ दूसरेने कहा-"तुम क्षुद्र और दुष्ट हो । यह मेरी पत्नी के दानका फल है। हे चोर, उसका अपहरण मत कर, राजा नाराज होगा।" तब यह कुमति धन लेकर वहाँ गया जहाँ राजा था। धर्मको गतिको कौन पा सकता है? वह राजा और वह बनिया भी अत्यन्त मूर्स और लोभसे प्रवंचित थे। जैसे-जैसे बद्द मनमें वह वन स्वीकार करता, बेसे-वेसे वह इंटोंका समूह होता
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१०
ܕ
१०
३०८
र देवियमुकहिं दीरहिं राषि tिres संकिय दिण्ण रयणोहु दप्पु गलिउ घत्ता - अण्णा दिणि पण्णयधरि आसायपरवि
वं क िक व कह व धरिवि महु करि ण चहि किं वारिवि परंत छल्लिषि स्वयलि गंडे वियारियट धणसं ववहारेण जिउ घणु वह जाय जेत्ति जि कुपुरि वसु वग्गिय तेजुस म धरहि भिउडिमुडुं पुणु तेण फर्णीसर पुंच्छिय
दिणु व
ring किंपि वता-षणि पभणइ सुर्यभूम
कई
भो भो बिसहरलारा
पडिजंग फणि गंभीरसणु प्राणवहरु बहु को करई मई तो तासु तु अह्निदि भणु फणिवइ कम्मभारु बहुइ ता जायवि वितिय विप्पिय कि यिमंतु विहावियउ जीसेसई कम्मई णिट्टिय माइ पेसणु वरजंगमउ आणि भवणंगणि लड्डु ठवहि तबिंधिविखंभि सुघणघणद्द
महापुराण
भेसाविय फिर टंढरहि । संठित सुकेर पुलकियत । भणु तववते कोण मलिउ । free मणि तरुकोडरि ।। कवि अहि
||२६||
સફ
पुणु रोया विष्फुरिवि । गुरु पाहाणे करिव । हिरु त लग्गड भायलि | arjun कारय । हरन्तु वसुंधर जिउ । हारिउ नहिं पिसुर्णे तेत्तिडं ' जि । तं दव्व सुकेडं मगियउ । देवा पाय देमि तुहुँ । ह परं किं देव गलत्थियउ | ता भण अणु देवि वरु | बलु सुकेपविद्धं ॥ दिब्ज मज्नु भडारा ॥२७॥
२८
दविणेण ण जिप दिधणु । जसु पुण्णु साउं संचर५ । मज्जाव णु एह लबष्टि । जगत्थि कम्मु तो पई वहइ । फणि तेण सुकेहि अपियड 1 अहि दियइव काराबियत । संसिद्धई कज्जई संठियई । वणि भाइ खंभु पाहाणमंत्र |
आर वाणरु तुहुं हवहि । गलि संखल लाइव अप्पण |
२. MB] पुरदेवि विमुक्कहि; K पुरदेवि मुक्कहि । हिदि ।
[ ३१.२६. ६
3. M कि किर । ४ MB दिण्णउ । ५, M
२७. १. M गय; B गरुएं । २. MB जग्गयखंडेण । ३. M अहरति । ४ MBK जेउं । ५. MBK तेत्त ं । ६, MB गधिबयल; T वग्गियउ । ७. MB पत्थियन । ८ MB भूभूषणु ।
२८. १. MB पाणाव । २. MBT भल्लषहि । ३. MB जं ।
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३१. २८. १०] हिन्दी अनुवाद
३०९ जाता । नगरदेवीके द्वारा मुक्त राक्षसोंने अनुचरोंको डरवा दिया । राजा भी अपने मनमें आशक्ति हो गया परन्तु सुकेतु रोमांचित हो उठा। उसने रत्नसमूह दे दिया। दर्प दूर हो गया। बताओ तपवालेसे कौन मलिन नहीं होता।
पत्ता-दूसरे दिन नागभवनके तरुकोटरमें दूसरेके धनका जिसे स्वाद लग गया है, ऐसे नागदत्तने कहीं एक मणि देखा ॥२६।।
२७
किसी प्रकार रखने के लिए उसने उसे निकाला । फिर कोषको ज्वालासे विस्फुरित होकर, और यह कहकर कि यह मेरे हाथपर क्यों नहीं आता, हंकार भरते हए उसके भारी पत्थरसे प्रहार करनेपर वह मणि आकाशमें उछलकर उसके भालतलसे जा लगा। उसके उठे हए खण्ड ( नोक ) से वह विदारित हो गया । नागदत्तको बुलाया गया। धन-संख व्यवहारोसे जीता गया वसुन्धराका पति (सुकेतु) हारको प्राप्त हुआ। लेकिन जितना धन उसका बढ़ा, वह दुष्ट उतना ही धन हार गया (जुएमें ) धनगवसे दुष्ट आदमी उद्दण्ड ( उद्भट ) हो जाता है। सुफेतुने वह धन मांगा। उसने कहा-"तुम अपनो भौहें टेढो क्यों करते हो, देवोंके प्रभावसे में तुम्हें दूँगा"। फिर उसने ( नागदत्तने ) नागराजसे पूछा-हे देव, आपने मुझे क्यों दरिद्र बना दिया है ? मांगते हुए भी कोई पर मुझे नहीं दिया । तब नाग कहता है, देता हूँ।
पत्ता-वणिक् कहता है---भो-भो! विषधरश्रेष्ठ आदरणीय, सुकेतुका नाश करनेवाला और बाहुओंका भूषण बल मुझे दीजिए ॥२७॥
गम्भीर ध्वनिवाला सौप कहता है-"धनसे दिव्य धन नहीं जीता जा सकता। जिसका पुण्य सहायक होकर चलता है उसके प्राणोंका अपहरण कौन कर सकता है ? लोभी तुम मुझे उसके लिए समर्पित कर दो, और यह मर्यादा वचन उससे कह दो। कहो कि मागराज कर्ममार पारण करना चाहता है । यदि कर्म नहीं है, तो तुम्हें धारण करना चाहता है।" तब बुरा सोचनेवाले उस सांपको उसने सुकेतुके लिए सौंप दिया। सुकेतुने अपना सोचा हुआ किया। उससे मनचाहा काम कराया। अशेष कामोंका उसे आदेश दिया गया। जब सब काम सिद्ध हो गये, तो सांप आदेश मांगता है । वणिक् कहता है कि पत्थरका एक खम्भा लाकर घरके भनिन में स्थापित करो और तुम एक बहुत बड़े बन्दर बन जाओ। वहाँ मजबूत खम्भेसे एक जजीर बांधकर और
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१०
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३१०
तुहुं तत्थु बप्प सट्टेण विणु
इम्ज
घसा-ता विसहरु बिसेष्पिणु वे वरेपिशु
स्वभासिहरि डिषि च अहि दिन से कह रंतर णिसिदिई गमइ विसि भइ मित भई मेल्लवहि ता तेण माणु अवत्थियङ पई मणुएं णार्ड वि बधु जहिं बुद्ध घणेण वि तुडुं जि गुरु तं णिणिवि मेल्लविघल्लिय अवलोव दियरक्षत्थवणु संसेवि गुरगुरुचरणु सिंहराहि णिरु जिन्भयहि दिक्खकिय परिणि वसुंधरिय मुणिवरु सुकेर मुख बिहुरहरे धीलिंग हणेपिणु रुवमिय सम्मत्तालकिय भव्षवर पत्ता- भरजणणविण्णाय होति ण वणभवणंतरि
महापुराण
रुणुत्तरहिं खवहि दिणु । देसि यहुं जि ।
तु खं आपणु ॥ fre अप्पर बंचेपि ॥२८॥
२९
उत्तर सरह धरणिहि पडइ | साहु साहू जिह |
विद्दिषाणु सम्बठ्ठ भम । वि स णिम्म चवहि । वेणु पथिय । वणिजः साहस काई तहिं । भी बस मेलहि णायसुरु । फणिes वैणिणा मोकल्लियड | णियसुयह समपिविणियभषणु । विलय तवचरणु | "गणियहि पणवेष्पिणु सुव्वयहि । परिपालिवि छावासयकिरिया । उप्पण्णव सम्गि सयारवरे । तेत्थु जि सुरु हुई तासु पिय । रामासु विराणामय ।
पढे रणिय || पुष्पदंतवासंसरि ॥ २९ ॥
[ ३१.२८. ११
श्य महापुराणे विसद्विमापुरसाकंकारे महाकइपुष्कयंत विरहए महामन्य भरहाणुमणिए महाकवे " णिणागदत्त सुकेउ कहा संबंधो नाम एकतीसमो
१४
परिच्छेओ समतो ॥ ३१ ॥
संधि ॥३१॥
४. B सिपि । ५. MB मक्क ।
२९. १. M अहिदितेण । २. MB लग्गद्द । ३. MB दिवस ६. MB] मेहलद्दि वच्च । ७. MB वणिवद्द; T वणिणा भराहि । १०. MB गणिहि । ११. M सुर डूवत । K पम पर । १४. MB मणि ।
। ४. MBK देख |
।
८. M गुणहरु गुरुं । ९. MB गुणणि५. MB जि । १२. B विरामं । ११. M अपभरभ
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३१. २९. १७] हिन्दी अनुवाद
३११ उसे अपने गलेमें डालकर हे सुभट, तुम बिना किसी धूर्तताके चढ़कर और उतरकर अपना दिन बिताओ। और उसने कहा कि जब तुम इसे नियमित रूपसे करने लगोगे तभी मैं तुम्हें दूसरा काम दूंगा।
पत्ता-तब विषधर हँसकर तुरन्स खस्या लाकर, बन्दरका रूप बनाकर और अपनेको .. बांधकर स्थित हो गया ॥२८॥
खम्भेके अग्र शिखरपर उठकर चढ़ता है, उतरता है, पलता है और घरतीपर गिरता है। नागदत्तने नागको इस प्रकार देखा जैसे कोई साधु सन्त ध्यानमें लगा हुआ है । लगातार वह दिनरात बिताता है। छो, विधिका विधान सबको घुमाता है ? साँप कहता है, हे मित्र, तुम मुझे छोड़ दो। प्रतिपक्षके साथ नम्रतासे बोलो। तब उसने मान छोड़ दिया और सुकेतुको प्रणाम कर प्रार्थना की कि जहाँ तुमने मनुष्य होकर भी नागको बाँध लिया, वहाँ मैं तुम्हारे साहसका क्या वर्णन करूं। तुम बुद्धि और धन दोनोंसे बड़े हो, हे वत्स, सुम नागसुरको छोड़ दो।" यह सुनकर छोड़कर डाल दिया। सुकेतुने सौपको भुक कर दिया। एक दिन सूर्यका बस्त देखकर, अपने पुत्रको अपना भवन देकर सुकेतुने गुणधर गुरुके चरणोंको सेवा की ओर तपश्चरण ले लिया। तथा मत्सरसे रहित निर्भय सुव्रता आर्याको नमस्कार कर उसकी गृहिणी वसुन्धराने दीक्षा ग्रहण कर ली।बह आवश्यक क्रियाओंका परिपालन कर मनिवर सकेत विघरगारमें भरकर श्रेष्ठ स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी वसुन्धरा भी स्त्रीलिंगका उच्छेद कर उसी स्वर्गमें अनुपम देव हुई, सम्यक्त्वसे अलंकृत और स्त्रियोंमें, वीतरागोंको प्रणाम करनेवाली।
पत्ता-भव्यजीव भरतके पिताके द्वारा विशापित अन्तिम छह नरकों, भवनवासी और व्यन्तरवासी देवोंके विमानोंमें जन्म नहीं लेते ॥२९॥
इस प्रकार सर महापुकों के गुण-भलंकारोसे पुक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाम्पका वणिक नागदस और सुकेतु कमा
सम्बम्ब नामका इकतीसवाँ परिच्छेद समास हुमा
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संधि ३२
सुरासुरविजाहरसरणे औसीणें आसि समवसरणे ॥ गुणपालजिणि जं भगिजं मई वि
देवि सुविसु कहा इय जण पुच्छि भासइ सइ त्थु जिचारु पुंडरिकणिपुरि सिरप बपालु सरु ता चिंतिल कुबेरसिरिमायत्र chers सव्यु लोड सवियारब roga सो कुबेरपि भायरु य बेण्णि वि ते पुणरवि णाया एम भणतिहि बाम लोयणु हियचइ परमुच्छाहुण माइ धत्ता-सो पभणइ भयणवियारहरु गुर्णा देव सुरपरियरिउ
ture वितिहिं गुतिहिं गुत्तउ जो कुबेरपि जायत मुणिवरु तं विवि मंचिय दत्त गय परमेसरि चलिय सुंदर चोइय संद
१
वि सुंदरि सुणि ॥ ध्रुवकं ॥
बजरहि मज्जु अहणाणलं । सिरपाल के गुणसंत | घर सोहाणिज्जिय सुरवरघरि । सहुँ विसड णं ससुर सुरेसरु | ive मुकुरुग्यवायइ । पण दीस पाहू महारथ । तेषं विज्जिय चंदु दिवायरु | किं जानहुँ विहाय सिविजाया । द सुहिदंसणसं पाणु । तामसमुहं वणवा पराइ | सुणि सामिण केवलणाणधरु ॥ उज्जाण महारिंसि अवयरि ||१||
२
झाणचसेण निमीलियणेचर । सो आय तुम्हार भारु । वेल्लि व अमयरसोहें सिंचिय । हुई हयगयलालामयसरि । अपर्णे पंथ बिणि वि पांदण ।
MB give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :
बम्भण्डाहृण्डलखोणिमण्डलुच्छलियक्रित्तिपसरस्स
सण्डेण समं समसी सियाइ करणो ण लज्जन्ति ॥३१॥
GK do not give it.
१. १. MBK आसोपेणासि । २. MB वृत्तु । ३. MB सिरिवालहु । ४. सिरिपाले वसु Bसी सिरिपावसुं । ५. G कुरम्यं; K कुहरगम but corrects it to "कुहरुग्यं । ६. K गय ते बिणि वि । ७. M समुहं B सुमुहुं । ८. M गुणवाल ।
२. १. Bomits from देषि down to चल्लिय in 5a.
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सन्धि ३२
मनुष्यों, सुरों, असुरों और विद्याधरोंके लिए शरण स्वरूप समोशरणमें विराजमान गुणपाल जिनेन्द्रने जो कहा था और जिसे मैंने और तुमने सुना था।
हे देवि सुलोचने ! उस बोते हुए कथानकको मेरे अभिज्ञानके लिए कहिए।
इस प्रकार सती सुलोचना, जयकुमारके पूछनेपर श्रीपालकी गुण-परम्पराका कथन करती है। अपने घरोंको शोभासे इन्द्र के विनोदी जीका द क्षिण में श्रीपाल राजा वसुपालके साथ इस प्रकार रहता था मानो इन्द्र देवोंके साथ रहता हो। इस बीच कुबेरश्री माताने विचार किया और अपने मुख-गह्वरसे निकलनेवाली वाणीसे कहा-'सब लोग भावपूर्ण दिखाई देते हैं। अकेला मेरा स्वामी दिखाई नहीं देता। और एक दूसरा मेरा बह भाई कुबेरप्रिम कि जिसने अपने तेजसे चन्द्रमा और सूर्यको जीत लिया है। वे दोनों गये और फिर लौटकर नहीं आये। क्या जाने वे मोक्ष चले गये? ऐसा कहते हुए उसका सुधीजनको मिलानेवाला बायाँ नेत्र फड़क उठा। उसके हृदयमें परम-उत्साह नहीं समा सका। इतनेमें वनपाल सामने आ पहुंचा।
___पत्ता-वह कहता है-हे स्वामिनी सुनिए । कामदेवके विकारका नाश करनेवाले केवलज्ञानके धारी, महाऋषि, गुणपाल देवताओंसे घिरे हुए उद्यानमें अवतरित हुए हैं ॥१॥
वापर एक और तीन गुप्तियोंसे युक्त तथा ध्यानके कारण निमीलित नेत्र, जो कुबेरप्रिय मुनि हुआ था, वह तुम्हारा भाई आया है। यह सुनकर देवी रोमांचित हो उठी। मानो अमृतरससे लताको सौंच दिया गया हो। यह परमेश्वरी वन्दना-भक्ति के लिए गयो। अश्वों और गजोंकी लार और मदकी नदी बह गयी। दूसरे रास्तेसे दोनों सुन्दर पुत्र चले, जिन्होंने रथ
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महापुराण
[३२.२.६ दिह तेहि उवषणि वियोयधु सदलु सहलु कोमलु वड़पायवु । पत्थरघडिस जडिन बहुरयणहि संथुर णाण बुहयणवयणहिं । नहू तलि जक्खु णाम जंगपालव अवर णिहालिउ परवरमेलउ । धत्ता-जगपालणरिंदह तवचरणे सुरु लोएं तहिं संणिहिउ चणे ॥
तहु अग्गा पश्चिउ गरमिहशु वसुपालु भणइ सिरिपाल सुणु ||२||
विणि वि णारित विषिण वि गरवर जइ पेइंति होति ता मणहर । तं णिसुणेवि फुमारे उत्तउं वेव देव मई मुगिउं णिरुत्ताई। जरवेसेपा सरलसोमाली
एह दुइजी णडइ महेली। तहि अवसरि कामें सरु ढोइउ मायापुरिसें रमणु पलोइन । ढिल्लीहूयउ णीवीबंधन
परिभमंति जयणई कइ मणु । फुरइ अहरु पासेउ पाक्यलइ - कैसभा दढवधु वि विधलइ। सुसइ वयणु खलियक्खरु भासइ ता कंचुइइ सुइयह सीसइ । पुक्खलवइविसयम्मि सुहम्म रम्मउ देसु धणोहे रम्म । तहि सिरिरि लच्छीहर णरवाइ तहु सुहकारिणि धरिणि जयावइ । जसमइ दुहिय महिय णिचंदे
पुच्छिष्ठ जावइ णविवि परिंदें। खयकंदप्पडप्पदुमद
अक्खिउ इंदभूइसवणिदें। पुरिसवेस पश्चंती जाण
जो सो पुतिहि जोवणु माणइ । तं णिसुणिवि महु गायणवायण दिपणा राएं भाउप्पायण । दिट्ठल मंतिहिं जं जिह जेहन कन्जु पयासित तं तिह तेहज । घत्ता-परियचिवि पुरई सधयवडई पयराइं सखेडई कब्बडई॥
णचावहि दावहि तणय तिह वरइत्तु णिहालहि तुरिध जिह ॥३॥
पेक्खु पेस्खु पश्चात णिरावय ता मई आणिय वणदेवय । सुय जयराउ णयरि णचंती
जणु णवरससलिले सिंचती। पहिं एउ समागय पुरधरु तुहं दिट्टो सि होसि एयहि बरु । णचइ मुद्धहि सच्छ सहेजी णपरमेसरपुत्ति दुइज्जी। ताई जुवेस दिपणई वत्थई आहरणई मंदिरई पसत्थई। एस्थतरि संहिसुहई जणरज जणणियाद पेसिउहकारउ । २. MB बिहियायउ; T विहयायउ । ३. MB पायउ । ४. B जुगपालज । ५. MB सुरलोए । ३. १. MB पच्चंत । २. MB वृत्त । ३. MB सरु कामें । ४. MB कपिय तणु । ५. MB दढबंधु वि
विलुला। ६. B सुसियवयणु । ७. MB कंचुइया । ८. MB सहम्मड । ९. MB सिरिजलि ।
१०. MB णिवर्षदें। ४. १. MB णज परमैसर । २, B सुहा जणियारउ ।
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३२. ४.६]
हिन्दी अनुवाद प्रेरित किया (हाका) था ऐसे-उन्होंने उपवन में कोमल वटका वृक्ष देखा जो घामको नष्ट करनेवाला, दलों और फलोसे लदा हुआ था। वहां पत्थरसे निर्मित अनेक रत्नोंसे जड़ा हुआ, मनुष्यों के द्वारा बुधजनोंके वचनोंसे संस्तुत जगपाल नामके यक्ष और मनुष्योंके मेलेको देखा।
पत्ता-जगपाल राजाके तपश्चरणके कारण लोगोंने उस सुर ( यक्ष ) को वनमें स्थापित किया था। उस यक्षके आगे मनुष्योंका जोड़ा नृत्य कर रहा था। राजा वसुपाल कहता है कि है श्रीपाल ! सुनो- ||
यदि दोनों नर, नर या नारी, नारी होकर नाचते तो सुन्दर होता ।
यह सुनकर कुमार श्रीपालने कहा कि हे देव-देव ! मैंने निश्चित रूपसे जान लिया है कि यह दुसरी सरल और सुकुमार महिला है, जो मनुष्य रूपमें नाच रही है। उस अवसरपर कामने अपना तीर छोड़ा और मायावी पुरुषने सुन्दर कुमारको देखा। उसकी नींवोकी गांठ ढोलो पड़ गयी, नेत्र घूमने लगे और मन कांप उठा, ओठ फड़क गये, पसीना छूटने लगा, कसकर बंधा हुआ केशपाश भी छूट गया, मुख सूखने लगा और वह लड़खड़ाते शब्दोंमें बोलने लगी। तब कंचुकी उस सहृदयसे कहता है कि पुष्कलावती देशमें सुन्दर प्रासादोंवाला रम्यक नामका देश है जो धन-समूहसे रमणीय है। श्रीपुर नगरमें उसका राजा लक्ष्मीधर है, उसकी शुभ करनेवाली जयावती रानी है, उसकी आदरणीय 'यशोवती' नामकी लड़को थी। राजाओंमें श्रेष्ठ उस राजाने जगतपति मुनिको प्रणाम करके पूछा--जिन्होंने कामदेवके दर्परूपी वृक्षकी जड़ोंको नष्ट कर दिया है, ऐसे इन्द्रभूति मुनीन्द्रने कहा था--जो इस कन्याको पुरुषरूपमें नाचते हुए पहचान लेगा, वही इस कन्याके यौवनका आनन्द लेगा। यह सुनकर राजाने मझे रसभाव उत्पन्न करनेवाले गायन ओर वादनकी शिक्षा दिलायी। मन्त्रियोंने जिस प्रकार जैसा देखा था, उस कामको उन्होंने आज प्रकाशित किया।
धत्ता-ध्वजपटवाले, गांवों, नगरों, खेड़ों और कब्बड गांवोंमें जा-जाकर इस कन्याको इस प्रकार नचाओ और दिखाओ, जिससे इसका वर शीघ्र देख ले ।।३।।
प्रत्यक्ष बिना किसी बाधाके उसे देखो-देखो। "तब एक नगरसे दूसरे नगरमें नाचती हुई और नौरसरूपी जलसे लोगोंको सींचती हुई, इस कन्याको लाया हूँ--जो मानो बन-देवताको तरह है । इस समय इस नगरमें आया हूँ। तुम्हें मैंने देख लिया है, तुम इस कन्याके वर हो गये। और जो उस मुग्धाको सुन्दर आँखोंवाली सहेली नृत्य करती है वह दूसरो नटराजकी पुत्री है। तब उस युवेशने उन लोगोंके लिए वस्त्र, आभरण और प्रशस्त घर दिये । इसी बीचमें सुधीजनों
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१६ महापुराण
[३२.४.७ तहु वयणे चल्लिय बिपिण विजण अग्गा अणुसरवि जा सज्जण । साम णियच्छिन तेहिं अरूढड गरवर चंचलतुरयारूढ़। आसु पमगिाउ सो सिरिपाले दिण्ण धणु लेप्पिणु हवाले। घसा-सो तहि कयपरिणामें डिउ सहसा कुमार हयवरि पदिस॥
आसगणु जि सेण्णमझि चलिम हरि दुरु गपि दूरुल्ललिष्ठ ॥४॥
बाइपवाइजलोल्लियणयणहं...हाहारत मेल्लंवई सयणहं ।
माहवा माउसमीच समायउ । इद्वविओयसोयतवियंगम पण पखुजिम उ पहिउ विहंगेउ । जणि वि सोड करंति णियारिय मंतिहि कह व कह व साहारिय। गयई तेत्थु जहिं जियवम्मीसरु केवलणाणधारि जोईसरु । वंदिउ बंदारयसयवंदिङ
भत्तिइ मव्वलोउ माणंदिङ । भणिउं कुवेरसिरीइ दुरासे पुप्त महारउ णि मायासे । तहु भयवंत समागमु कइयहुं पभणइ जिणु सप्तमु दिणु अइयाहुँ । तइयतुं आयेड पेक्खहि वाला ता पणवेप्पिणु मुणि गुणवालल । सुरगिरितलि संठियई सुरत्तई सिविर मुऐपिणु मायापुत्तई। पत्ता-यमहामहिहरणियडि काणणि कुसुमियतरुवरि वियडि ॥
रिउणा तुरयत्तणु परिहरिय भीयरु रयणीयररूवु धरिउ ||५||
३. MB अणुसरंत । ४. MB षणवालें । ५. १. MB add after this the following lines :पेनस्वेविणवण सोयकतज
समल वि परियणु हि भवंतउ । अवलोकंतु भमाइ महि संतउ (Boxnits it) हाहाकार करतउ देखिए
पुच्छिय मंति जगत्तयसेविए । कहह एह कि मुच्छि3 गंदणु
जो अगचंदु (B जगवंदु) जेम वरचंदणु । केण वि कहिय पत्त परमेसरि
हरिवरेण हिउ परवरकेसरि । तं णिसुणेवि वच्छ पभणंती
माहियले णिवडिय देवि रुवंती । अंगु समोडह दुक्खें राणी (४ रोणी) सपि व दंडाहय विहाणो । हा हा पुत्त मझु विच्छोइस
केण दुरासें हयवद बोइज । कि अवहरियई रणि चरंसह
पविखणिहरिणिवसंहिहि पुतई। हा कि पावें हित मह गंदणु
तिहणजणमणणयणाणदणु । हा विहि दइव फेण हरि ढोइड
में मह पुसजु पलु विच्छोइउ । पुहणाह गुणमणिरयणायह
हा कहं मुस्कु (B कसु मुक) कसर भाया । जेण अर्णगह हय बाणावलि
सो पई पुत्त ण बंदिर केवलि । कसू थाहावमि को आसंघमि
हा हा दइव करण दिसि लंघमि । २. MB मावइ । 1. MB मुएविणु । ४. MB रणियरत्तच ।
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३२. ५.१२]
हिन्धी अनुषाव को सुख देनेवाला माताके द्वारा हकारा आया। उसके कहने पर वे दोनों ही चल दिये और जो सज्जन थे वे उनका अनुसरण करने लगे। इतने में उन्होंने चंचल घोड़ेपर बैठे हुए एक अप्रसिद्ध आदमीको देखा, श्रीपालने उस घोड़ेको मांगा, अश्वपालने उसे धन लेकर दे दिया।
पत्ता-वहाँपर वह कुमार अपने किये हुए कर्मके परिणामसे प्रवंचित हुमा। जैसे हो कुमार घोड़ेपर घड़ा, सेनाके बीचमेंसे जाता हुआ वह 'अश्व' दूर जाकर एकदम ओझल हो गया है . .
HERE *
आँसुओंके प्रवाह जलसे पोलो आँखोंवाले, स्वजनोंके हाहाकार करते हुए भी वह घोड़ा शीन अदृश्य हो गया। राजा वसुपाल माताके समीप आया, इष्ट-वियोगके शोकसे सन्तप्त शरीरवाला वह इस प्रकार गिर पड़ा, मानो पंखोंसे रहित पक्षी गिर पड़ा हो। शोक करती हुई माताको मन्त्रियोंने किसी प्रकार मना किया और उसे सान्त्वना दो। वे लोग वहां पहुंचे जहा कामदेवको जीतनेवाले केवलज्ञानधारी योगीश्वर थे। देवोंके द्वारा सैकड़ों बार बन्दनोय उनको वन्दना की। भक्तिसे मध्यजन आनन्दित हो उठे। कुबेरश्रीने कहा कि-खोटो आशासे मायावी घोड़ा मेरे पुत्रको ले गया है। हे ज्ञानवान् ! उसका समागम कब होगा। तब जिनवरने कहा कि सातवें दिन आये हुए बालकको तुम देखोगी। तब मुनि गुणपालको प्रणाम करके मां और पुत्र उस शिविरको छोड़कर सुमेरुपर्वतके तलभागमें स्थित हो गये।
घत्ता-विजया नामक विशाल पर्वतके निकट खिले हुए वृक्षोंवाले जंगलमें शत्रुने अपना अश्वपन छोड़ दिया और भयंकर राक्षसका रूप धारण कर लिया ||५||
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५.
१०
१०
३१८
विलुलिया सिद्द रहा रो पंडुरपत्रिरत्तदीहरदसणो मंदरकंदरसं तिडो सिसहरसमदादा भी सो णवघणसामलकुवलयकालो भासह हित्ता घरिणि महारी कुतु दुर्तकयंती भरइ कुबेरसिरी पुत्तो एहि भवजलसायरसरणं मामणिओ तुरण कुमारो ता विहंगजाणियसुं हिदुक्खो बत्ता - रणभेरैघुरधारियकंधर हो जुवराय कारण दुद्धरहो
महापुराण
६
कपाल जी अ 13
भई क्खु खल रोसपरत्वम मागिवड जलति काळापलि मा ओहट्ट आस तुहारज अमरिसरसवसु कहिं मिण माइउ सो रक्खे खगेण दुहाइ हुय बिपिंग विचत्तारि समुग्गय पद्य चारि अटुपडिया सोलह बत्तीस भयंकर
रूबउ
तं पिबड्डिड ववगयसंखहिं यत्ता -- रयणियरहु मुयबलु उ कलिउं किं होड़ी कम्मु नियंतियचं
[ ३२.६. १
कडियल लक्ष्य घोणस घोरो । वग्धचम्मवर विरइयवसणो । मणुयाचचिकिय गंडो । जलियजलणजाला णि केसो | खयरो होऊणं वेयालो । पई यजम्मि सुचंपयगोरी | जोसि इदाणी कह जीयंतो । अहमिह मियकम्मेण णिहितो | जिणवरकमकमलं मह सरणं । इय जणवत्ताबुझिय चारो । पतो तहिं जयपालो जक्खो । चंडासिदंड मंडियकरहो || fing क्रयणीयो ||६||
जाहि जाहि बिज्जाहररक्खस | वइव सवयणविवरि जगबंधलि । मातासह कुमार मडु केरल | एम भतु महंतु महाइउ । वणसुरबरु विहिं रुवि हि धाइड | गलत दिव्य दिग्गय | अवि हय सोलह संजाया । बत्तीसह चट्ठि मधुर । अट्ठावीस सर्व संभूय । जलु लुलु पियत जखहिं । देवहु हिय संचलितं ॥ भविrog कुमार चितियउं ॥ ७॥ ॥
६. १. MB विरयं । २. MB संहितुंड । ३. MB गयजम्मे चंपयगोरों । ४. MB तुरंतु कयंतो । ५. MB एवहि कहि तुहु जासि नियंतो । ६ MB भणइ ७ MB जाम चिह्निख B सामणो K. माणिणिभ । ८. MB सुदुक्खो । ९. MB जगपालो । १०. M रणभरघरघारिय; G रणभरधारि ।
७. १. M मत । २. MB परिमाया । ३. M अट्ठावीसा सव । ४ MB य बड्ड्वड 1 ५. MB
कम्मणियत्तिय
।
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हिन्दी अनुवाद
६
वह वेताल जिसके उरतलपर सर्पोंका हार झूल रहा है। कटितलपर बँधे हुए सर्प विशेषसे जो भयंकर है, जो सफेद विरल लम्बे दांतोंवाला है, जिसने बाघके श्रेष्ठ चमड़ेके वस्त्र धारण कर रखे हैं, जिसका मुख मन्दराचल पर्वतकी कन्दराके समान है, जिसका गण्डस्थल मनुष्यों की
से शोभित है, जो बालचन्द्र के समान (श्वेत) दाढसे भयंकर है, जिसके बाल जलती हुई आग की ज्वाला के समान है, जो नवघनके समान श्यामल मोर नीलकमलके समान काला है, ऐसा वह ताल आकाशगामी विद्याधर बनकर उससे कहता है कि तुमने चम्पेके समान गोरी मेरी घरवालीका पिछले जन्म में अपहरण किया था। तुझपर इस समय दुर्दान्त यम क्रुद्ध हुआ है । इस समय जीता हुआ व कहाँ जायेगा ! तब कुबेर-श्रीका ने । याद करता है कि यहाँ मैं अपने कर्मके द्वारा लाया गया हूँ। इस समय भवजलरूपी समुद्रसे तारनेवाले जिनवरके चरणकमल ही मेरी शरण हैं । तब वह पर जिसने जनवार्तासे समाचार जान लिया है और जिसने विभंग अवधिज्ञानके द्वारा सुधीजनका दुःख ज्ञात कर लिया है ऐसा जगपाल नामका यक्ष वहाँ आ पहुँचा और बोला कि मेरा कुमार अश्यके द्वारा ले जाया गया है ।
३२. ७.१२]
३१९
पत्ता- वह यक्ष युवराजके लिए, जिसके कन्धे युद्धभारको धुरा धारण करने में समर्थ हैं। तथा जिसका हाथ प्रचण्ड अस्थिदण्ड मण्डित है, ऐसे दुर्धर निशाचरसे भिड़ गये ||६||
७
यक्ष कहता है कि - हे क्रोधसे अभिभूत विद्यावर राक्षस तू जा जा । तू जलते हुए कालानल और विश्वके लिए संकटस्वरूप यमके सुखरूपी दिवरमें मत पड़ तेरी आयु नष्ट न हो, मेरे कुमारको तू मत सता। इस प्रकार अमर्षके रससे वशीभूत महाआदरणीय वह महान इस प्रकार कहता हुआ कहीं भी नहीं समा सका। राक्षसके द्वारा वह दो टुकड़े कर दिया गया। लेकिन वह व्यन्तर देव दो रूपोंमें होकर दौड़ा, उसने उन दोनों को आहत किया वे चार हुए, मानो गरजते हुए दिव्य दिग्गज हों। चारोंको आहत करनेपर के आठ हो गये, आठ आहत होनेपर गोलह हो गये, सोलहको आहत करनेपर भयंकर बत्तीस हां गये, बत्तीसको आहत करनेपर चौंसठ हो गये । चौंसठके दो टुकड़े करनेपर एक सौ अट्ठाईस हो गये। और वे भी दुगने बढ़ गये। इस प्रकार असंख्यात यक्षोंने जल-थल और नाकाशको आच्छादित कर लिया ।
घत्ता --निशाचरका बाहुबल कम नहीं हुआ। देव ( यक्ष ) का हृदय डिग गया, कि क्या होगा । उस कर्मको देखते हुए उसने कुमारके भविष्यको चिन्ता की ||७||
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३२०
महापुराण
[३२.८.१
से तह होतउ सुटुं पडिवण्ण थिउ विरवि सेवु पच्छण्णम् । कप्पयसेलहु अप्परि थाइवि जोयणसन गयणंगणि जाइति । रिउणा पित्तउ खयलोयरियड देवि लहु विज्जइ धरियछ । सणि सणि सिरिसिहर उषियल णिवर्णदण तहि तणाखवियल। फलिसिलायलु टंकिउ सरवर । दिट्ठल जलु मणिवि गड सुंदर । तोयाकंखर धवलि पवित्थरि पसरियकरयल लग्गा पत्थरि । चितइ बालउ विभिई गिभरु देवसहा सलिलु वि णिहरु । ता तहि अवसरि कामकिसोरी घडकडियल संप्रीय गोरी जलविषरंतरि सा पइसंती विट्ठी तरुण णीरु भरती। तेण वि मग जायवि कोमलु रसिज तेण सुकुसुमयपरिमलु । घत्ता-धवलेहिं चलंतिहिं लोयणिहि सो महिवइ मयंणुकोषणिहिं ।।
कलसं कियकडिइ णियच्छियउ पडिहाहयाइ णारंछियत्र ।८।।
सरसमणुब्भवपणयसणिद्धा हरि जइ तो तह चक्कु ण लंछणु ससि जइ तो तह पास्थि कुरंग सुरवा तो जइ कुलिसुण तहु करि मई अवलोइस एकु जुवागर किं जाणहुं जं जणव घोसइ लइ आयउ पिययमु तुम्हार ता संचालियर पंच कुमारिज णं कंद मलिउ मुक्त भासिड भहे धलियगयणहिं किं महु आसण्णाउ णिविट्ठल तं णिसुणेप्पिणु विहसिवि बिहाइ घत्ता-पुक्खलवइमहिहि सुगोहणइ
सीहरि सहइ णरवालणिवू
आइय भवणहू भासिउँ मुद्धइ । वम्म जइ तो तहु ण कोसुमैधणु। रवि जइ तो सो ण वि अत्थं गड़। तोयह जंतिइ माइ महासरि । कि जाणहु तेल्लोकहु राणः । सो सिरियालु णराहिच होस । घोलन थणयलि णं मणिहार । गयहु पासि णावइ गणियारिख । तार तास आसण्ण दुछ। किं जोयह अदृढहि णयहिं । आसि कालि किं कत्थइ दिट्ठउ । दिपणु पडुत्तर जेट्टकणिट्टइ।
पर्यडम्मि देसि दुजोहण ।। लच्छीकंतहणं लच्छिधुवु ||
८. १. MR सुह । २. MB स्व । ३. MB देखें दसु लङ्गः T दलदह पर्णलघु । ४. MB सिलार्याल।
५. MB मण्णेविण सुंदह । ६. MB सविस्वरि । ७. MB करयलु । ८. MB विभयं । ९. MB संपाइयं । १०. MB रयपरिमलु । ११. MB अवलचलंतहि लोयणहि; K वलंतहिं । १२. MB
मयणुक्कोयहिं । १३. MFB पडिहाय णायाच्व्यिव; T परिहाह्य । ९. १. MB समिदद । २. MB कुसुभषणु । ३. ME गणियारउ । ४. MB धलियवयहिं । ५. MB
अदहि । ६. MP पायति । ७. ME"णि । ८. MB लच्छिपरा
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३२.१.१४]
हिन्दी अनुवाब
उसने उसके होनेवाले शुभको स्वीकार किया। और वह अपना प्रण्छन्नरूप बनाकर स्थिर हो गया। विजया पर्वतके ऊपर स्थित होकर सो योजन आकाशके आँगनमें जाकर शत्रुके द्वारा फेंके गये आकाशसे गिरते हुए कुमारको देवेन्द्रने शीघ्र अपनी विद्यासे धारण किया। धीरे-धोरे श्रीपर्वतके शिखरपर उसे स्थित (स्थापित ) कर दिया। वह राजकुमार वहाँ भूखसे व्याकुल होने लगा। स्फटिक मणिको चट्टानोंसे का हुआ सरोवर था, उसने उसे देखा और जल समझकर वह सुन्दर वहाँ गया। जलकी इच्छासे विशाल श्वेत पत्थरपर फैलाये गये उसके हाथ पत्थरसे आ लगे। बालक अत्यन्त विस्मित होकर सोचता है कि देशके स्वभावके सदृश यहाँ पानी भी कठोर है । इतने में उस अवसरपर एक कामकिशोरी गोरी कमरपर घड़ा रखे हुए वहाँ आयो। उस तरुणने जलके विवर्तमें प्रवेश करती हुई और पानी भरती हुई उसे देखा। उसने भी उस मार्गसे जाकर अच्छी कुसुम रजसे सुभाषित कोमल जलको पिया।
पत्ता-कलशको कमरमें लिये हुए कामकी उत्सुकतासे युक्त धवल चंचल नेत्रोंके द्वारा उस राजाको देखा और जिसको प्रतिभा आहत है, ऐसी उस बालाने पूछा नहीं ||८||
जो सरस मनमें उत्पन्न प्रणयसे अत्यन्त स्निग्ध है, ऐसी उस भोली गोरीने भवनमें आकर पूछा-कि यदि वह विष्णु है तो उसके चक और चिह्न नहीं हैं, यदि वह कामदेव है तो उसके पास कुसुमधनु नहीं है, यदि वह चन्द्रमा है तो उसके हिरण चिह्न नहीं है। अगर वह सूर्य है तो उसका अस्त नहीं हुआ है । यदि वह इन्द्र है तो उसके हाथमें वज्र नहीं है। हे आदरणीय ! महासरोवरमें पानीके लिए जाते हुए मैंने एक युवकको देखा है, क्या जानू कि वह त्रिलोकका राणा हो? क्या जानूं कि जिसके बारे में लोग कहते हैं वह वही श्रीपाल नामका राजा हो । लो, तुम्हारा प्रियतम आ गया और अपने स्तनों, मणिहारोंको घुमाओ। सब पांचों कुमारियां चलीं, मानो हाथीके पास उसकी हथिनिया जा रही हों, मानो कामदेवने अपनी भल्लिकाएं छोड़ी हों, वे उस कुमारके पास पहुंचीं। उस भद्रने कहा-आकाशको धलित करनेवाले और आधे-आधे नेत्रोसे आप क्यों देख रही हैं। मेरे पास आकर क्यों बैठी ? लगता है कि कहींपर आप लोगोंको मैंने देखा है । यह सुनकर ढीठ बड़ी कन्याने जवाब दिया।
पत्ता--पुष्कलावती भूमिपर अच्छे गोधनवाले दुर्योधन नामक प्रसिद्ध देशके सिन्धुपुर नगरमें लक्ष्मी नामकी अपनी पत्नीसे राजा नरपाल ऐसा शोभित था मानो विष्णु हो ।।२।।
२-४१
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महापुराण
[ ३२. १०.१
१०
हई सस एकतहि लहुयारी जयदत्ता एयहुं गरुयारी। मयंणत मयणव कुमारिहि जयवा जेट्टई जणमणहारिहि । अवर वि विमल वयंसिय छट्ठी असणिवेयखरिद दिट्ठी। अम्हाहि सहुँ उववणि कीलंती कामुयमणेहेणुब्भंती। मग्गिउ ते ताएण ण दिण्णा पुच्छिउ जइ को परिणइ कण्णउ । मणि जणणु रिसिणा पिहुँबोहें एवहिं गरवइ काई विवाहे । रोहिणीउ होसंति पिसजिह तुह पुसिउ सिरिवालहु चलिहु । पुणु अम्हाई मग्गइ तडिवेयर पिवयणेण णिरुत्तर जायज । चोरिवि आणिया णिकरुणे जलयसिंगसंचोइयचरण। तेण दुरासएण दुईते
णिहिया णिजणि रोसु वहते। पत्ता-णिवस काणणि णिषच्छवि जणित तालेरजुयलसंणिहथणिउ ।
अप्पड हियवद सोयंतियन सिरिवालपंथु जोयंतियउ॥१०॥
तुहूं जिणाहु पई तवियई अंगई अण्णु कि गाइन मत्था सिंगई। लइ लइ परिणि कंत रिचचंहि अवरुंडहि दीहहिं मुयदंडहिं । भासद सूई उ जइ चि रवण्णलं कपणारयणु होइ णादिण्णउं । अण्णेक वि कुमारि संप्राइय रक्खंसिरुवं कहि वि ण माइय । णियडी होति अणंगें सैद्धी पंचहिं सरहिं उरत्थलि विद्धी । सवर हय सारगि व लोलइ सुयह केरसु वयणु णिहालइ । तहि अवसरि गइयड छ वि तरुणित बग्घिहि गंधे णावह हरिणिउ | इयरइ पुणु पासाउ विरइयाउ सयामग्गु सोहइ अइसइयाउ | सरसालाव तासु सुइ पाविय यणजुवल मीणा इव भामिय । जं वजहु मईइ अवरुंडिउ । जं कण्णावत कपणइ खंडिउ । त दोसेण विज गय णासिवि थिय सेसिमुहि अप्पाण दूसिवि । हूई कामगहें विवरेरी
पुच्छा सुहट तुहूं कह केरी। धत्ता--अचलते णिज्जियमहिहरह सा कहा सवइयरु णरवरहु ।।
सिरिसिहरहु चउजीयणसयहिं रयणरु अस्थि मंडिउ धयहिं ।।११।।
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१०. १. MB मयणकति । २. MB तेण ताज |उ दिण्णज । ३. M पहुदोहें। ४. B णियवयणेण ।
५, Mणिरुत्तज । ६. MB मालूर । ११. १. MB परिणि । २. MB सुहउ जइ वि सुरवपणउं । ३. MB संपाइय । ४, MB संखसरूविणि
कह वि । ५. MB लुसी। ६. MB पंचसरेहि। ७. M जयणजुवल मीणी इव; 8 पायणकूद मीणी इन । ८. MB मंडह।...MB ससिविमुह ।
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३२. ११. १४] हिन्दी अनुवाद
३२३ १० मैं उसकी रतिकान्तासे छोटी कन्या हूँ । इनमें बड़ी जयदत्ता है । मदनकान्ता और मदनावतो, जनमनके लिए सुन्दर कुमारी जयावती जेठी है और भी छठी साली बिमला है। जिसे हमारे साथ उपवन में क्रीड़ा करते हुए अशनिवेग विद्याधरने देख लिया। उसको कामुक वृत्ति स्नेहसे भंग हो गया। उसने कन्याको भौगा, पिताने. इनकार कर दिया। उसने मुनिसे पुछा कि कन्यासे विवाह कौन करेगा? पृथुबोध मुनिने पितासे कहा कि हे राजन् ! इस समय विवाहसे क्या ? तुम्हारी पुत्री बाणयुक्त श्रीपाल चक्रवर्तीको गृहिणी हो गयी है। फिर अशनिवेगने हम लोगोंको मांगा, किन्तु पिताके वचनसे वह निरुत्तर हो गया। तब जलदके शिखरके समान अपने पेरको चलानेवाला वह निष्करण हमें चुराकर ले आया और खोटे आशयवाले उस दुर्दान्तने मनमें क्रोध करते हुए हमें यहाँ रख दिया ।
पत्ता-हम लोग राजकुमारियां होकर भो तालपत्रोंसे अपने स्तनको ढंकती है, और अपने मनमें सन्ताप करते हए राजा श्रीपालका रास्ता देख रही हैं ॥१०॥
११
तुम्हीं मेरे स्वामी हो, क्योंकि तुमने हमारे अंगोंको सन्तप्त किया है। नहीं तो क्या ? स्वामीके सिरपर सींग होगा। हे स्वामी ! इस गृहिणीको लो और अपने शत्रुओंसे प्रचण्ड भुजाओंसे उसका आलिंगन करो। तब वह सुभग कहता है कि यद्यपि कन्यारत्न सुन्दर है-फिर भी बिना दिये हुए वह मेरा नहीं हो सकता । एक और कुमारी वहाँ आयो। राक्षसोके रूपमें जो कहीं भी नहीं समा पा रही थी। कामदेवसे आक्रान्त उसके निकट आती हुई वह (कामदेव ) के पांचों बाणोंसे उरस्थल में विद्ध हुई भीलसे आहत हरिणीको तरह वह चंचल थी। और उस सुभगका मुख देख रही थी। उस स्वसरपर वे छहों तरुणियां चली गयीं। जिस प्रकार बाघकी गन्ध पाकर हरिणियां चली जाती हैं। दूसरीने एक प्रासाद बनाया । उसमें सोने का पलंग अत्यन्त शोभित था। श्रीपालके कानों में सरस आलाप आने लगा और श्रीपालके नेत्रयुगल मछलीकी भांति घूमने लगे। जैसे ही उस कन्याने प्रियका आलिंगन किया वैसे ही उसका कन्या लत बरम हो गया। इस दोषके कारण विद्या नष्ट होकर चली गयो। और वह चन्द्रमुखी अपने को दोष देती हुई कामग्रहस विवर्ण हो गयी। सुन्दर कुमारने पूछा कि तुम कौन हो?
__ पत्ता-अचलतामें महोघरको जोसनेवाले नरश्रेष्ठ श्रीपालसे वह अपना वृत्तान्त कहती है-श्रीशिखरसे चार सौ योजन दूर और ध्वजोसे मण्डित रत्नपुर नगर है ॥११॥
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३२४
महापुराण
[३२.१२.१
थणिय वेड तहि अस्थि णरेसर जोइवेयदेविहि पल्ला वरु। असणिवेड तहु पुत्तु पमप्तड तेणाणेप्पिणु इह तुटुं षिक्त । हवं तहु तणिय वहिणि पिय तडिरय लें पेसिय पइंणियह समागय | किं जीवहि कि मुव सिंधियसिलि णिव डेपिणु खयलि गिरिवरयलि। दूरह जोइओ सि मई रोसे किर पई हणमि णिसायरिवेसें। जवर ह जिहय वम्महकंडे इंदचंदणाइंदविहंडे। दें सोहग्गभिक्ख मई मनिगल मच्छरु मेझिवि तुहं ओलग्गिष्ठ । एकवार ज करि करु ढोयहि एकवार जइ मुहूं अवलोयहि । तो जीवियफल मई जगि लद्धलं .. तं तहि भासित तेण णिसिद्धय । मह विण पारद्ध महुच्छव
जाइ पई देति मिलेविण बंधव । तो गिण्हमि तो धुन बजमि कण्णासाहसेण हर्ड लज्जमि । ता सा गय जवेग रयणउरा भासइ भाइहि मारियवइरह । मुत्र सो पर मग्गियपलसयलई मई दिह भमियई गिद्धलाई । घत्ताणीसासजलणजालियदिसह असहंतिइ असणिवेयससह ॥
जहिं शिवसइ थिरु वर जित्तमहि तहिं पेसिय मयणवडाय सहि ।।१२।।
-
ताइ गपि सूहल अम्भत्थित जो रक्वेसइ जणवाड दुत्थिर । विजाहररायहिं रइधुत्तिउ धणियवेयमस्वेयहं पुत्ति। सो परिणेसइ रुइयरविरह चकट्टि सिरिपालु महापड । रूवं तुहारउ हियवइ भावह विजुवेय पिय दुका जीवइ । भणइ कुमार काई भासिज्जा होतउ केण कम्मु लंपिज्जा ! जाहिहह पिययमु होसमि। पालहि लीलालिंगणु देसमि । तं णिसुणिवि गय गेहह दूई आलोइय कुमारि किस हुई। आइय पुणु विरहाउर तेत्तहि अच्छा णरमयरद्धउ जेत्तहि । कुमारिउ रमणभावरस गिल्लाउ संभासंतु ताल पुर्तिवल्लए । चत्ता-अवलोइवि सुंदरि सुंदरित दणि गट्ठउ खणि के वि कुंयरिउ ॥
णं मुणिवरवित्तिहि दुग्गइलणं सुकइमइहि जडकइमाउ ॥१३॥ १२. १. ४ जाइवेयं । २. MB तुई इह । ३. MB णिसायरवेसें । ४. M दिहि । ५. MB कर करि ।
६. MB बहुविणए । ७. K मिलेप्पिणु । ८. MB मारीय । १३. १. MB सिरिवालु । २. MR छ । ३. MBK विज्जवेय । ४. B सुंदरु । ५. MBT मोयरित
and gloss in Tक्षामोखराः।
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२२. १३. ११]
हिन्दी अनुवाद
१२ वहांपर स्तनितवेग नामका राजा है, जो ज्योतिवेगा देवीका प्रिय पति है। अशनिवेग उसका उद्दण्ड प्रमादी पुत्र था। उसने यहां लाकर तुम्हें डाल दिया है। मैं उसकी प्रिय बहन विद्युद्धेगा हूँ। उसके द्वारा भेजी गयी मैं तुम्हें देखने आयी हूँ कि तुम जीवित हो या आकाशसे पहाइमें चट्टानपर गिरकर मर गये। वह कहती है कि मैंने रोषपूर्वक दूरसे तुम्हें देखा कि जबतक मैं तुम्हें निशाचर रूपमें मारूं, तबतक में कामदेवके बाणोंसे आहत हो उठी। ( इन्द्र-चन्द्र-नागेन्द्रको विखण्डित करनेवाले बाणसे) में सौभाग्यको भौख मांगते हैं। वह मझे दो। इा छोड़कर मैं आपकी शरण में हैं। एक बार यदि तुम मेरा हाथ अपने हाथ में ले लो, एक बार यदि मेरा मुंह देख लो, तो मैं अपने जीवनका फल संसारमें पा जाऊँगी। तब उस कुमारने उसके कहे हुएका निषेध किया और कहा--"यदि तुम्हारे भाई लोग एकत्रित होकर बड़ा उत्सव प्रारम्भ करके विनयपूर्वक तुम्हें देते हैं तो मैं विवाह ( ग्रहण ) करूंगा। यह मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ। तुम्हारे इस कन्या सुलभ स्वभावसे में लज्जिल हूँ।" तब वह वेगसे रत्नपुर चली गयो। और शत्रुओंको मारनेवाले अपने भाईसे कहती है कि वह आदमी मर गया। मैंने मांस-खण्डोंको खोजते हुए गिद्धोंके झुण्डको वहाँ घूमते हुए देखा है।
पत्ता-नि:श्वासकी ज्वालाओंसे दिशाओंको प्रज्वलित करनेवाली अशनिवेगकी बहन वियोगको नहीं सहती हुई, अपनो सखी मदनपताकाको वहां भेजती है कि जहां पृथ्वीको जीतनेवाला वह स्थिर वर निवास कर रहा था ।।१२।।
उसने वहां जाकर उस सूभगसे प्रार्थना की कि जो इस दुःस्थित जनपद और विद्याधर राजाओंकी रतिसे व्याप्त पुत्रियोंको स्तनितवेग और पवनवेगसे रक्षा करेगा, अपनी कान्तिसे सूर्यके रथको आहत करनेवाला वह महाप्रभु श्रीपाल चक्रवर्ती उनसे विवाह करेगा। तुम्हारा रूप मुझे हृदय में अच्छा लगता है। "प्रिय विद्युवेगा कठिनाईसे जीवित है। कुमार कहता है कि तुम क्या कहती हो ? होनेवाले कर्मका उल्लंघन कौन कर सकता है। हे दुती ! तुम जाओ। मैं उस बालाका प्रियतम हूँगा । और उस बालाको लीलापूर्वक आलिंगन दूंगा। यह सुनकर दुती घर चली गयी, और एकदम दुचली हुई कुमारीको देखा। फिर वह विरहातुर वहाँ आयी कि जहाँ वह वामदेव था। रमण भावके रमसे आदें वह कुमारी अपने पहलेके तातसे सम्भाषण करती हुई।
___घत्ता-उस सुन्दर सुन्दरीको देखकर वे छहों कुमारियां एक क्षणको वनमें भाग गयी हैं, मानो सुकविकी मतिसे जड़ मतियां भाग गयी हों ।।१३॥
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महापुराण
[३२. १४.१
आय णिसण्णी णियडि खगेसरि णाई समुद्दासषण महासरि । चवइ सवयणु पिहेप्पिणु हत्थे ऐत्यु जि घोरतवह सामथे। मोमसियको हावत्यारा .. मरणु का वि होइ भडारा। हउँ वि साहिं जंपिय ऐक्स्वमि' तं पई पुण्णवंतु किर रक्खमि | तो वि देव वीसासु ण किजइ वणयरदुग्गड भवणु रइन्जाइ । एम वेरिफ्णु मरगयतोरणु खंभा उम्परि कयल णिहेलणु । तहि कुबेरसिरितणमह णिहियर रत्ते कंबलेण संपिहियउ। अणुदिणु ऐतिहिं रइरसतुरियहि जिह णउ घिष्पइ भूगोयरियहि । तिह तहिं दुद्धरि रमणु थवेप्पिणु गय पणइणि पेसणु मासेप्पिा । अरुणावरणच्छपणु खरतो. मणिवि भासपिंडु मेरुडे । णि णिवचंदु रुंदगयगयलहु अंगुत्थलिय घुलिय करकमलहु । घत्ता-आएसपुरिसणामंकथरि दूसहविओयसिहितावहरि।
ताँ रक्त्रणभिश्चहि णिम्मलहु धर्म आणिवि अप्पिय पप्पिलहु ॥१४॥
णाणारयणफुरतपईवद
सिद्धकूडजिर्णणिलयसमीवद। जाव पवित्र धरणियलि परिविउ ता पहु अंगु बैलेप्पिणु उहि । तसिउ खयरु उहि पाहि चंचलु। वहं पयणहलग्गव गल कंवल | पडित धरहि किंकरहिं णियच्छिउ जाणवि मयणवईहि पयच्छिउ । एतहि एण वि दिवउ जिण दुकियदुक्खलक्खणिक्खयकरु । थुइ विरयंतह दुण्णयसाडई विहडियाई दढकुलिसकवाडई। जे दिवें गट्ठा संघिउ मलु
में विट्ठ उप्पलइ केवलु । जे दि कुदिवि ओहट्टा जे विहें सम्मइ परिवइ । जे दिह उवसमु संपन्जइ
जे दि अप्पउ परु णाजइ। जे दिळे दुमाइगइ णासह जं दिखें जगु सयलु यि दोस। सो दिदउ दुकामणिवारउ देवदेव अरहंतु भडारउ। थोत्तवित्तु कइमग्गपसिद्ध
गुणवालंगरुहें पारद्ध। घता-तुटुं माययप्पु तुहुँ संतिया तुहुं गिरलंकार वि हिययहरु ।
जिण णिम्मय तेरी जेहिं तणु इह तिहुयणि तेसिय जि अणु ॥१५||
१४. १. M अत्यु ब मोर । २. MB मणेप्पिणु । ३, MB भावेप्पिणु । ४. MB सा । ५. MB परि । १५. १. MB जिभवण । २. M लेविट दिउ; B बलेविगु तुट्टिउ । ३. MB एतएण ते दिउ ।
४, MB णिटु पंचिय मल १ ५. M°णिवारिउ । ६. MB तिहुयणि फुड तेसिय ।
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३२. १५.१४]
हिन्दी अनुवाद
३२७
वह विद्याधरी पास आकर बैठ गयी। हाथ से अपने मन्त्रको ढककर वह कहती है कि यहाँ घोर तपकी सामथ्यसे हे कामदेवके वाण समूहका विस्तार करनेवाले, हे आदरणोय ! किसीका भी स्मरण नहीं होता। मैं भी स्नेहसे कहीं गयो तुम्हें देखती हूँ। पुण्यात्मा तुम्हारी रक्षा करती हूं। सब भी है देव विश्वास नहीं करना चाहिए और वनचरोंके लिए दुर्गम भवन बनाना चाहिए । यह कहकर पन्नोंके तोरणवाला एक प्रासाद उसने खम्भेके ऊपर बनाया, उस में 'कुवेरश्री के पुत्र 'श्रीपाल' को रख दिया और लाल कम्बलसे ढक दिया। जिससे प्रतिदिन आनेवाली रतिरसरूपी घोड़ियां इन मनुष्यनियोंके द्वारा यह ग्रहण न कर लिया जाये इस प्रकार उस प्रियको उस दुर्ग्राह्य धरमें रखकर आज्ञा लेकर वह प्रणयिनी चली गयी। अरुण लाल कपड़ेसे देके हुए उसे मांसका पिण्ड समझकर तीखी चोंचवाला भेरुण्ड पक्षो राजाको ले गया। विशाल आकाशतलसे उसके करकमलसे अंगूठी गिर गयी।
___घत्ता-आदर्श पुरुषके नामको अपनी गोदमें धारण करनेवाली, दुःसह वियोगको आगके सन्तापको दूर करनेवाली, उसे रक्षा करनेवाले अनुचरोंने घर आकर निर्मल पवित्र बप्पिलाको सौंप दिया ॥१४॥
१५
नाना रत्नोंसे चमकते हुए सिद्धकूट जिनालयके समीप धरतोतलपर जैसे ही बैठा, वैसे हो अपने शरीरको हिलाकर राजा श्रीपाल उठा। यह चंचल पक्षी इरकर आकाशमें उड़ गया। कम्बल उसके पैरोंके नलसे लगा हुआ चला गया। धरतीपर पड़े हुए और मदनवतीका इच्छित समझकर अनुचरोंने उसे देखा। यहाँपर इस श्रीपालने भी दुष्कृत लाखों पापों और दुखोंका नाश करनेवाले जैन मन्दिरको देखा। स्तुति करते हुए, दुर्नयको नाश करने वाले दृढ़वानाके किवाड़ खुल गये । जिसको देखनेसे संचित कुदृष्टि पाप नष्ट हो जाता है। जिसको देखनेसे केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। जिसको देखनेसे सम्यक् दर्शन प्राप्त हो जाता है। (विरत्न ) जिसको देखनेसे उपशम भाव प्राप्त होता है। स्व और परका विवेक होता है। जिसको देखनेसे दुर्गतिका नाश होता है। जिसको देखनेसे समग्र संसार दिखाई देता है। ऐसे उन दष्कर्मों का निवारण करनेवाले देवोंके देव आदरणीय अनन्त भगवान्को देखा और कवि मार्गमें प्रसिद्ध स्तोत्र व्रतको 'गुणपाल' के बेटे 'श्रीपाल' ने प्रारम्भ किया।
पत्ता-आप मां-बाप हैं । आप शान्ति करनेवाले हैं, आप अलंकारोंसे रहित हृदयका धारण करनेवाले हैं । हे जिनेन्द्र ! जिन परमाणुओंसे तुम्हारे शरीरकी रचना हुई है वे परमाणु तीनों लोकोंमें उतने ही थे ॥१५॥
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५
१०
१५
१०
१२८
महापुराण
१६
सुमं कुमार विठ्ठड। आहास सिरसंजोयकरु । अणिलवेड पायें खगराणच । सुय भोयवइ भोयजलवाहिणि । पुच्छ तेण को वि जोईसरु | तं जाणियि जंपियड जईसें । सिद्धकूड जिणभवणक बाई ।
इय दिवि जिणु गुणहिं विसिदृड ता तहिं संपत्त खेयरणरु इह भोगवरि समुष्णयमाणव पिय कंतबर णाम तहु गेहिणि को होहि त्ति पणयतणयदि वरु गाहधरिय संजम सुहली सें जेणाएं विद्धति सुणिविडई होस सो वम्महसरमत्थहि हवं जोय रायण णिवेइउ च्छंतु वि कुमारु उचाइल faaiति पासायडु उप्परि सा भोवइ तेण सुईलीनें एह पारि आसविस णाइणि far आहारे एह विसूई पत्तद्राहिपुरियंचिणि थणजुयलड णिश्चणिरूवियउं
[ ३२. १६. १
गुदाइ |
तु सुबह सुर्खेव सत्य हि । रव तुहुं वर्हि संभोइड । हरु दुरि पुरु संपते दावि सुंदरि । विदिय बंधयविलीणें । एह णारि असुभ विखणि डाइणि । विसिहिणा व चुरुति संभूई ।
दुजलीण मणता विणि । नियमणथर्द्धत्त दाविय ॥ १६ ॥
१७
गरलेसति णं भारणसीली । समलहु दोसायरहु पढुक्कई । साणि व दाणमेत्तकयमेत्ती । मायभा जइबेणि वि पेच्छमि । हो पहुच मनु विवाहें । दरिसि सुंदर मायवेयहु ।
कंदरेण विणु वघि महेली रयण व मिस पुरवण थक्कइ मरा इव शिशु जि मयमत्ती हो हो उक्कंठित शिरु अच्छमि तो उं जीवमि दिट्ठे गाई म भiतु यरिमेयहु
अणु विक्खि जि जड इच्छिउ जिह तं पारीरयणु दुछिउ । त्रिसूयणिंदावायविरुद्धे
उत्त उच्च एप्पिणु णिणि थेर
तं णिसुनिवि खयरेसें कुद्धे । एहु गहिल घउ पिवणि । घत्ति सो तहिं तेण जि भिसें ।
वत्ता - छुडु छुडु जि विहित बालु तेहिं हॅरिकेड पवणजवपुत्तु जहिं || झायंतु मंतु बलणिज्जिय सोसवितजियम ||१७||
१६. १. MB सुहमंडनि । २ MB उवइउ । ३. MB दो। ४. MB सरूवं । ५. MB संभासि । ६.CK record सहली इति पाठे सर्वेषां कर्णपरिचितेन; शास्त्रलीनेन वा । ७. MB परताविणि । ८. MB चढतणु ।
D
१७. १. MB गयसति व परमारणं । २. MB मयराह व ३, M साणि व दाणमसकय; B साजिदकयमेती । ४. MB दुर्गाछिउ ५ MB रू घरेवि । ६. MB जहि । ७. MB सा हरियागंज
तु
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३२. १७.१]
हिन्दी अनुवाद
१६
इस प्रकार विशिष्ट गुणोंसे परम जिनेन्द्रकी वन्दना कर वह कुमार रंगमण्डपमें बेठ गया। तब एक विद्याधर पुरुष वहाँ आया। और अपने दोनों हाथ सिरसे लगाते हुए बोला-इस भोगपुरी नगरीमें उन्नत मानवाला 'अनिलवेग' नामका विद्याधर राजा है। उसकी कान्तिवती नामको प्रिय गृहिणी है । उसकी भोगवती नामकी लड़की है। राजाने योगीश्वरसे पूछा कि इस प्रणय पुत्रीका वर कौन होगा? जो प्रगाढ़ धारण किये गये संयममें धुरन्धर हैं ऐसे योगीश्वरने विचारकर कहा कि-शिसोनार की बराह लगे हुए सिद्धकूट "जिन-भवन' के किवाड़ खुल जायेंगे वह कामदेवके बाणोंको धारण करनेवालो स्वरूपमें प्रसिद्ध तुम्हारो कन्याका बर होगा। राजाके द्वारा निवेदित में यहाँ देखते हुए-हे राजन् ! मैंने तुम्हें देखा नहीं चाहते हुए भी उसने कुमारको उठा लिया और वह नभचर शीघ्र आकाशमागंसे उड़ा । प्रासादके कार खेलती हुई, नगर आनेपर कन्या उसे दिखायी। अपने बन्धओंके शोकमें लीन तथा शास्त्रमें लोन उस 'श्रीपाल' ने 'भोगवती' को निन्दा की। यह नारी विषैले दांतोंवालो नागिन है। यह नारी अशुभ कहनेवाली डाइन है। ये बिना आहारको विषूची है, ये बिना ज्वालाओंकी आग है।
पत्ता--विद्याधर राजाकी वह लड़की उस दुर्जनमें लीन मनको सन्तप्त करनेवाली अपने निस्य सुन्दर अनुपम स्तनयुगलको तथा अपने मनमें दोउपनेको उसे दिखाया ।।१६।।
यह महिला बिना गुफाकी बाधिन है, ये मारनेवालो विषशक्ति है, रात्रिके समान यह मित्र (सूर्य) के सामने नहीं ठहरती, यह श्यामल दोषाकर (चन्द्रमा ) के पास पहुंचती है। यह मदिराके समान नित्य मदमत्त रहनेवाली है, कुत्तोके समान दानमानसे मित्रता करनेवालो है, "अच्छा-अच्छा मैं उत्कण्ठित यहाँ स्थित रहता हूँ, जिससे दोनोंका मायाभाव देख सकूँ। स्वामीके देखनेपर ही मैं जीवित रह सकता हूँ। विवाहसे मुझे क्या लेना-देना?" ऐसा सोचते हुए सस सुन्दरको जिसने शत्रुभेदन किया है, ऐसे मारुत वेगके लिए उसे दिखाया और उसने यह भी कहा कि जिस प्रकार उसने उसे नहीं चाहा, और उसने नारीजनकी निन्दा की। अपनी कन्याकी निन्दाकी बातसे विरुद्ध होकर उस क्रुद्ध विद्याधर राजाने वह सुनकर कहा कि-उठाकर इस पागलको प्रेतवनमें फेंक दो। तब 'देत्य' ने श्रीपालको बुढ़ियाका रूप बनाया और उस अनुचरने उसे वहाँ फेंक दिया।
पत्ता-शीघ्र ही उस बालकको वहां फेंक दिया गया कि जहाँ 'पवनवेग' का पुत्र 'हरिकेतु' मन्त्रका ध्यान करता था। और बलसे जोते गये जिसे सर्वोपधि विद्याने मंट दिया था॥१७॥
२-४२
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महापुराण
[३२. १८.१ १८ तविरणेता पिंगलकेसह दाढाभीसणरकनससह। विनइ यतै अंह उहिवि अंजलि तं तं तेहउँ । पिव पिव ताहि भांतिहि पीयस सुइडपितु ण वि कि पि वि भीयउ। पुरुछा पड तुहुं हिरि सिरि दिहि महि कह देवि हर सा सवोसहि । सिद्धी तुझु वीर परमों ती पविलोइय वुडढावस्थे। लद्धदिव्वविज्ञासामर)
णियतणु पुसिय तेण णियहो। सो जायट पुणरवि णवजोव्यणु ता पत्तर खयराहिवर्णदणु । पभणइ सीह केड तुहूं सामिष्ठ इई तुह फिकरु पेसणगामिउ । ओ कहिओ सि आसि रिसिवयणहिं सो दिवो सि देव गियेणयहि । मुटु दुसजाइ णि हिरवजा जाणिओ सि मैंई सिद्ध विज्जइ। घसा-बारह संवच्छर बह वसिड फलकालि अन्ज विजहि तसि ।। दश्वेण लच्छि दारिसहं
हारिसदा
एम भणिवि गर गइयर जावहिं पहर चयारि वि णिट्ठिय तावहिं । गलिय रयणि सग्गमित दिवायर संचझिउ वसुवालसहोयरु । रण्णि भवसे तेण णिविट्ठी जरसीमंतिणि तरुतलि दिट्टी। उग्गामिषि कर भिडुषि णयणई देइ ताहि जणवउ दुव्वयणई। चितइ गरवइ वर होजल तणु गाउ माणुसु विणिबंधु विणिद्धणु । हो किं णायरेहिं कलहिज्जा थेरि भणेपिणु एह हसिज्जइ । ता चिरणारिइ णियतणु जेही विहिय कुमारडु तक्खणि तेही । में हत्ये णियंगु परिम
जिह पुग्विजय सिंह पुणु दिछ । पुरुमहिलाइ रायहु विण्णवियर मई बरश्त्तवरिष्ठ समविथउ । जं जिह देहि देव णिव्यतित तं तिह अरर्सस्वु परियत्तिक । तासु गवेसा पेसिय राएं
वणि जर्ने कुबेरसिरिजाएं। सीहसरहसरपूरियविप्पहि। संठिय चदिसु मिलिय पउप्पहि । दिदद्या सोलह सुहद महाबळ सोलह पत्थर घट्टपवट्टल । पचा-सो टेहि भणिड सुमारगिरिहिं अग्गइ थाइवि पंजलियरिहिं ।
भो भो कुमार किं" चिक्कमहि गोलयहु उपरि गोला थषहि ॥१९||
१८. १. MB दाढी । २. MB भीसइ। ३. MB मियउं । ४, MB ताए बिलोइय । ५. MB विहि
पपहिं । ६. MB णिव 19. M संसिव।। १९. १. MB भवंती। २. B जव । ३. ME भिडिवि । ४, MB वरि होना। ५. MB णिसंषज
णिवण: T विणिबंधड । ६. MB हा फिह । ७. MB पर मट्ठउ । ८. M जरसरूड; Bअरससउ । ९. MBउदिति। १०. B तेष। ११.G के।
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३२. १९.१५]
हिन्दी अनुवाद
१८ लाल लाल आँखों और पोले बालीवाली और दादास भयंकर राक्षसका वेष धारण किये हुए विद्याने जैसे-जैसे वमन किया, पियो-पियो कहनेपर कुमारने अंजलीमें भरकर उस-उसको उसी प्रकार पिया। वह वीरचित्त उससे जरा भी नहीं इरा। राजा उससे पूछता है कि तुम ह्री श्री-धृति-कोति या मही क्या हो। वह देवी कहती है कि मैं वह सर्वोषषि विद्या हूँ कि हे वीर ! जो तुम्हें परमार्थ भावसे सिद्ध हुई हूँ। तब उस वृद्धावस्थावालेने उसे देखा। प्राप्त है दिव्यविद्याकी सामर्थ्य जिसमें ऐसे अपने हाथसे उस कुमारने अपने शरीरको छुआ। उसका फिरसे नवयौवन हो गया और तब विद्याधर राजाका बेटा आया। वह सिन्धुकेतु बोला कि थाप मेरे स्वामी हैं। और मैं आपका आज्ञाकारी सेवक । मुनि-वचनोंके द्वारा जो कुछ कहा गया था, उसे मैंने आज अपनी आँखोंसे देख लिया। दुःसाध्य निरवद्य सिद्धविधाके द्वारा मैंने आपको अच्छी तरह जान लिया।
पत्ता-बारह वर्ष तक मैं यहां रहा और फलकालके समय आज विधाने मुझे पीड़ित किया। देवने तुम-जैसे लोगोंके लिए लक्ष्मी दो और हम लोगोंका उद्यम ( पुरुषार्थ ) व्यर्थ गया ॥१८॥
इस प्रकार कहकर जैसे ही वह विद्याधर वहाँसे गया, वेसे ही चार पहर बीत गये। रात बीती, सूर्य उदय हुआ और वसुपालका भाई चला । जंगलमें चलते हुए उसने एक वृक्षके नीचे बेठी हुई एक बूढ़ी स्त्रीको देखा। हाथ उठाकर, नेत्रोंको टेढ़ाकर, लोग उसे दुर्वचन कह रहे थे। राजा 'श्रीपाल' ( असे देखकर अपने मन में सोचता है कि तिनका होना अच्छा लेकिन बन्धुरहित गरीब होना अच्छा नहीं। अफसोस है कि नागरिकोंके द्वारा झगड़ा क्यों किया जाता है। बुढ़िया कहकर इसका उपहास क्यों किया जा रहा है ) उस बुढ़िया स्त्रीके छूनेपर कुमार बुढ़ियाजैसा हो गया। कुमारने अपने अंगको अपने हायसे छुआ, उसका शरीर जैसा पहले था, वैसा ही अब दिखाई दिया। उस अतिवृद्धाने राजासे निवेदन किया कि मैंने वरके चरित्रको सत्यापित कर लिया। हे देव ! उसके शरीरमें जो मैंने वृद्धरूप निवर्तित किया था, उसी प्रकार उसने उस सपको छोड दिया। तब राजाने उसके खोजनेवाले भेजे। बनमें जाते हए 'कबेरपी' के बेटे 'श्रीपाल' ने सिंहों, सोसे पूरित हैं दिशापथ जिसके तथा जिसमें चारों दिशाएं मिल रही हैं, ऐसे चतुष्पय में सोलह महाबलशाली सुभट देखे और अत्यन्त गोल सोलह पत्यर देखे।
__घत्ता-उन लोगोंने हाथ जोड़कर, आगे बैठकर अत्यन्त मधुरवाणीमें कुमारसे कहा कि हे कुमार ! आप क्यों जाते हैं, इन गोछ पत्थरोंको रख दीजिए ॥१९॥
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३३२
महापुराण
[३२.२०.१
२०
इयरहं पंथिय जाडंण लम्भइ रायाणइ गोसिंगु ण दुभइ । इय विहसेप्पिणु पंथिउ दुई व उप्परि वटु ण थकद। जामि बप्प कि एण पलावें रायविणोएं मिच्छागावें। एम्व भणंतु वि धरिउ णिसं भिषि देवाइखें सत्तिइ भिवि। पट्टत्तिविडि वि रइय छल्ले पुच्छिय किंकर बुद्धिमहिों। कवणु देसु को परवइ मुंजइ वट्टहि बट्टठवणु किं जुज्जइ । भिच कहति महासिहरूढहु उत्तरसेढियाहि वेयड्ढहु। पवणवेत णामें खयराहिउ एत्थ महीवइ अक्खयराहिउ । जो आवह णरु वट्टपरिक्खहि सोलहखयरणरेसरसिक्ख हि । उज्जलवण्या णवलायपण सो परिणेसाइ सोलह कण्ण । गय अणुयर णियणियरायंतिउ कुवरे अग्गइ गमणु जि चिंतिन्छ । मेह विमाणसिहरि जोएप्पिणु भूयरमणु काणणु मेल्ले प्पिणु ! थकुमहाणयरछु बहि जाम्वहिं अवर वि वुढ पराइय ताम्बहिं । पत्ता-जरकसरसिरह लंबियथणिइ आवेप्पिणु थेरणियबिणि ॥ : रोगीलाइ कि पिबषित “पलोइसपिडवर थविष्ट ।।२०॥
पसिदिलचम्मछिरौलविवण्णी तरुतलि वासु जि णियडि णिसण्णी। णिववाल? फेरउ सिरिमागणु दिट्टष्ठ ओइल्लिर कमलाणणु । छुहतण्डापहखेएं खीण
अंगु णिहालवि णिक विराणर्ड | तिणि तिसाछुहपाहसमणासाई दिण्णई बोरई अमयाभासई। प्रासियाई सुहएं रस गिद्धई बीयई पीरंचलई णिबद्धई । वसुवालहु जावि परिसेसमि णियपुरणदणवणि पाइरेसमि । इय चिंतंतु जाम सो अच्छा णियबंधवसंजोड णियच्छा। ता वुड्ढइ कुंदुजलदंतिइ । देहि भोल्लु भासिर पहसतिइ । महु फलाइं कि मुहियइ भक्खहि । वयणु फेम णिलज णिरिक्वहि। चवणरिंदु असञ्चु ण जंपमि जं मग्गहि सं सयलु समप्पमि । जाइ आवधि तुई णयस महारत वो मिणमि दालिदु तुहारउ |
कवणु पयक को तुहं के जायड भण येरि भो इह कि आयउ। २०. १. MB वि । २. BK बुक्का । ३. MBT हाइवें; GK record ap हाइवें इति पाठेऽप्यय
मेवार्थः; T हेवाखें इति पाठेऽप्ययमेवार्थः । ४. MBK महल्ले । ५. MB महासिहरहा G महासिरह । ६. MB परिणा सोलह णिवकण्यउ । ७. MB गय पर णिपणियरायई मंति) T अणुयर ।
८, MB °सिहए । ९. MB तेण पविज । २१. १. MB पसडिल । २. MB बिराल । ३. MB मोहल्ल; K बोहल्लिडं । ४. MB पासियाई ।
५. MB रसविडई। ६. MB सेसमि । ७. MB किंबह ।
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३२. २१. १२] हिन्दी अनुवाद
३३३ २० अन्यथा हे पथिक! तुम जा नहीं सकते। तब पथिकने हंसते हुए कहा कि राजाको आज्ञासे गायके सींगको नहीं दुहा जा सकता । हे सुभट ! मैं जाता हूँ। इस प्रलाप, राजविनोद और मिथ्याधर्मसे क्या ? ऐसा कहते हुए भी उसे रोककर पकड़ लिया। उसने कुपित होकर शक्तिसे स्तम्भित कर गोल पत्थरों को पोठिका उस शैलमें बना दो और बुद्धिसे श्रेष्ठ उसने अनुचरोंसे पूछा कि ये कौन-सा देश है ? कौन सा राज्य काला है ? स्त्री को प्रत्यारों की क्या उपयक्क है ? तब अनुचर कहते हैं कि बड़ी-बडी शिखरोंसे यक्त बिजया पर्वतपर 'पवतवेग' नामका विद्याधर राजा जो कि 'अक्षय' शोभावाला है, यहाँका राजा है। सोलह विद्याधर राजाओंके द्वारा सीखी गयी, इस पत्थरोंकी परीक्षामें जो मनुष्य सफल होगा उसको एक लड़की मिलेगी। वह गोरे रंगवाली नवलावण्यसे युक्त सोलह कन्याओंसे विवाह करेगा। अनुचर अपनेअपने राजाके पास चले गये। कुमारने भी आगे चलनेका विचार किया, और चल दिया। मेघ विमान शिखरको देखकर तथा भूतरमण वनको छोड़कर जिस समय कुमार महानगरके बाहर ठहरा हुआ था। इतने में एक और वृद्धा वहां आयी-अत्यन्त बूढ़ी अत्यन्त जीणं । । ।
धत्ता-बुढ़ापेसे सफेद सिर और लम्बे स्तनोंवाली वृद्धा स्त्रीने आकर कहा कि है आदरणीय ! मैं बहुत दुःखी हूँ। ऐसा कुछ भी कहा और बेरोंकी पिटारी रख दी ।।२०।।
शिथिल चमड़ी और अत्यन्त विद्रूप, वह पेड़के नीचे निकट बैठी हुई थी। उसने राजकुमारका लक्ष्मीके द्वारा मान्य कमलरूपी मुख नीचे किया हुआ देखा। भूख-प्यास और पथके श्रमको शान्त करनेवाले अमृतका आभास देनेवाले उसने बेर दिये। उस सुभगने रससे स्निग्ध उनको खा लिया। और दूसरे बेरोंको अपने अंचलमें बांध लिया। (यह सोचकर कि इन्हें राजा वसुपालको दिखाऊँगा और अपने नगरके नन्दनवनमें इन्हें बोऊंगा।) ऐसा सोचता हुआ जब वह बैठा था, तभी अपने भाई के संयोग की इच्छा करता है । तब जूहीके फूलके समान उज्ज्वल दांतोंवाली उस वृद्धाने हंसते हुए कहा कि ( मेरे बेरोंकी कीमत दो ) मेरे फलोंको क्या तुम मुफ्त खाते हो ? निर्लज्जको भौति मेरा मुख क्यों देखते हो? तब राजा कहता है कि मैं झूठ नहीं बोलता, जो तुम मांगती हो वो सब दूंगा। यदि तुम मेरे नगरमें आती हो तो मैं तुम्हारा दारिद्रय नष्ट कर दूंगा। तब वह वृद्धा कहती है कि तुम्हारा कौन-सा नगर है ! तुम कोन हो? तुम्हें किसने जन्म दिया ? और यहां किस लिए आये हो ?
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३३४
महापुराण
[३२. २१. १३ पत्ता-ते णिसुणिवि भासइ चकवह पुरि पुंडरिकिणि दिपणेरद ॥
गुणेपालु रास बहु तणन सुट वसुपालहु भायर इङ लहुल ।।२१।।
जगि सिरिपालु णामु जाणिजमि सुरवीणातविहिं गाइजामि । मायाइरिवरेण एस्थाणिउ जोइसिरहिं असेसहिं जाणिउ । गुरुविओयसंतार्वे णिट्ठिल अच्छमि सुट्ट इहलकंठिट। अइ भायरहु मिलमि तो जीवमि गं तो णिच्छत जमउरि पावमि । भणइ बुड्ढे मो तुहुँ गर दीणउ एण सहाय होसि ण राणउ । बोरहिलियन बंधिवि लइवर्म। कवणे दइथे तुहुं नवु रइया । परदोगेषु तुई वि किं णासहि अप्पाणउं णरणाह पयासहि। तेरठ पुरु महियरई अगोयरु। कहिं तुहुं कहि सो तुझु सहोयर । पत्थि दविणु अलियन जि म भासहि महु वाहिल्लहि वाहि विणासहि । आरा सर सा भणिय' महीसे णासि रोउ पाणिसफासे । घचा-णवरलिवि पयणियपुलह आलग्गी तहु गलकंदला ॥
जाणिय तेण वि भायाविणिय लइ एह खयरि मयणे वणिय ॥२२॥
कहा कुमारु म भनंहार चालहि हो हो केत्तिउ मईखेरियालहि । कईयवेण किं पूरै आढप्पड़ सम्भावेण मृद्धि J घिपद। वा अररूप विमुकर कयणा उस कोमलसामलवपणइ । भो भो णिणि गरेसर णिकल पुवाधिदेहइ वसुमाइ पुक्खल । तेत्थु धोयकलहोयमहीहर तहिं रावैधरि वसइ करिकरकर । राउ अकंपणु विज्बाहरवार ससिपह गेहिणि धूद सुहावइ । णामें हलं मुषणयलि पसिद्धी साण विज जा मह पर सिद्धी। णहयरणाहहिं मिलिवि सणिद्ध मह विज्जाजयप णिवद्धष्ठ । को वरु ताए पुच्छिष्ट जइवर तेण वि कहिलं तासु चकेसह । अवरु वि णिसुणि देव तुहूं सुइङ्लु कच्छावइवसुहधि रर्ययायलु । तहि मेहहरइ मयगलगामिणि कंपणु खगया परिणि बिमाणिणि । ताई पुत्ति बप्पिल महु पियसहित मंगोमिणिरमणिहि वल्लह महि । ८. MB सक्फवइ । ९..MB दिण्णरुह । १०. MB गुणवालु । ११, MP वसुवालह । २२. १. MB सिरिबाल । २. MB अणेयहि । ३. MB युद्दल तुहूं गरवर दीणउ । ४. MB णिउ ।
५. MB दोगत्त । ६. B णासमि 19. MB संपरिर्से । २३.१. MB ससियारहि T खरियालहि। २. MB कइवएण । ३, MB पिट । ४. MB बुर । ५. MB
गयरि णिवसह। ५. मिलवि। ७. MB तुह जि। ८. MB रयणायल। ९. Bगोमिणिवि णवलवल्लह महि।
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२२. २३.१२]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-या सुनकर परवर्ती कहता है-कान्तिसे युक्त पुण्डरिंकिणी नगरीमें गुणपाल नामक राजा है उसका पुष वसुपाल है मैं उसका छोटा भाई हूँ ॥२१॥
२२
जगमें श्रीपालके नामसे जाना जाता है और देव-वणिों में 'मैं गाया जाता है। एक मायावी घोड़े द्वारा मैं यहां लाया गया है। यह बात समस्त ज्योतिषियोंके द्वारा जानी गयी है। गुरुके वियोगके सन्तापसे दुःखी अपने प्रियजनों के वियोगमें अत्यन्त उत्सुक दुःखी 'मैं' यहाँ रह रहा हूँ। यदि मैं अपने भाईसे मिलता है तो जीवित रहता है। नहीं तो निश्चय ही मैं यमपुरके लिए चला जाऊँगा। वृद्धा कहती है कि अरे तुम तो दोन व्यक्ति मालूम होते हो। इस स्वभावसे तुम राजा नहीं मालूम होते हो । तुम बेर बांधकर लाये। किस विधाताने तुम्हें राजा बनाया । तुम दूसरोंके दारिद्रयका क्या नाश करोगे। तुम्हारा नगर धरती निवासीके लिए अगोचर है । कहाँ तुम ? और कहो तुम्हारा माई ? भन नहीं है. यह तुम सर कहते हो, तुम झूठ मत बोलो। तुम मेरे बाहरको व्याधि नष्ट कर दो। राजाने कहा मेरे पास आओ और उसने अपने हाथके स्पर्शसे उसका रोग दूर कर दिया।
पत्ता-नव-सौन्दर्यसे उल्लसित होकर रोमांचको प्रकट करती हुई वह उसके गलेमें आकर लिपट गयी। उसने भी जान लिया कि यह मायाविनी कोई विद्याधरो है जो कामदेवसे आहत हो उठी है ॥२२॥
२३ कुमार कहता है कि हे देवि ! अपनी भौहें मत चलाओ। अरे-अरे तुम मुझे कितना अपमानित करती हो । तुम कपटसे प्रियको क्यों अर्जित करना चाहती हो। निश्चयसे सदभावपूर्वक तुम इसे छोड़ दो। तब कन्याने अपना वृद्धरूप छोड़ दिया और कोमल श्याम रंगवालो उसने कहा-हे राज-नरेश्वर-निष्कपट बात मुनिए ! पूर्व विदेहमें पुष्कलावती नामको नगरी है। उसके रामपुर नगरमें जिसने स्वर्णके समान महीपरोंको धोया है ऐसा हाथीके सूंडके समान हाथोंवाला अकम्पन नामका विद्याधरोंका स्वामी राजा है। उसकी 'शशिप्रभा' नामको कन्या है। वहीं मैं भुवनतलमें इस नामसे प्रसिद्ध है। ऐसी कोई विद्या नहीं है जो मुझे सिद्ध न हई हो। समस्त विद्याधर राजाओंने मिलकर स्नेहके साथ मुझे विद्याओंको जीतनेका पट्ट बांधा है। पिताने मुनिवरसे पूछा कि इसका कोन वर होगा? उसने कहा कि उसका वर चक्रवर्ती राजा होगा। हे देव ! अब और भी सुनिए। तुम्हारे शुभ फलकी कच्छावती धरतीपर रत्नाचल है। उसके मेघपुर नगरमें कम्पन नामका राजा है और उसकी हाथोके समान चालवालो मानसे रहित गृहिणी है। उसकी लड़की बप्पिला मेरी प्रिय सखी है। जो भानी पृथ्वीरूपी (लक्ष्मीरूपी) रमणीको प्रिय सखी है।
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३५६
महापुराण
[२२. २३. १३ धत्ता-अवलोयवि तुझंगुत्थलिय सा नोएं तिम्मा कंचुलिय ।।
खज्झइ विरहें वेल्लहल किह दवदहणे अहिणवेल्लि जिह ।।२३।।
धरु गइयहि मुहणिग्गयवायइ महुँ अक्खिर तहि तणियइ मायइ । को दि आएसपुरिसु नहु मुहिय पेच्छिवि सुय मयणेण विमदिय 1 बालवयंसियाइ ण विकप्पिर मज्झु वि ताइ संहियर्ड समप्पिउ । मई धीरिय सा ससिरयराहि... .. मेलाबकु करमि सहु णाहि । चामीयरपुरवारे हरिदमण मणधेयसीमतिणिरमणहु । तहिं जि देसि अण्णेक वि सुंदरि मयणबइ ति दुहिय विजाहरि। जणणहु पुच्छंतहु रयणुजलु जो जोइहिं भासिउ हयहिमदलु । आणि उं पेच्छेवि तेरउ कंवलु वियलिस तहि तरुणिहि मणि दिहिबलु । सूहव तुन्झु विओएं पीडिय चिताच सा वि भमाडिय । कंदइ कणइ विमुंछुतंसी
दुकर जीवइ मझु वयंसी। पत्ता-तं तेरउ पेम्मपरत्वसइ उद्दामकामकोलणरसा॥
सहिहत्थह दीणइ मम्गियल पंगुरणु मई वि आलिंगियज ॥२४॥
तुहुं एत्थाणिउ सडिजवखयरें एष पजंपिउ पारेवइणियरें। हउणन पत्तियंति गय तेतहि तेरी णयरि पराहिव अत्तहि । पर्यकुवलयसंगेहणचंद्हु
पयहिं पडिय गुणपालजिणिदछ । सजणणयणाणंदजणेरउ पुच्छिउ सो आगमणु तुहारस। तेण पउत्तर सिमभूमीसर सत्तमि दिणि आवर भाभासुन । विजालाहे सहं धरि पइसइ पुरयणु सयलु जि एल जि भासह । दिट्ठउ तुह भायर अलिकुंतल दिट्टी मायरि सोयविसंतुल। सुरमहिहरसमीवि विणसंतई हा सिरिपाल देव भणंतई। कंदतई विमुशसिरकेसई
विट्ठई परियणसयणसहासई। पवह पहमिहिंति पुरि तइयई तुई मिलिहीसि णराहिव जइय९ । घत्ता-गरतम गये गय जि गयागयउ गणियाव णाई वणदेवयः ||
भो वल्लह पई एक्षण विगु जणसंकुलु पट्टणु णाई वणु ॥२५॥ २४. १. MB घर । २. ME अमु । ३. MB विपिउ । ४. MB सहिउ । ५. MB सिसिरथराहें ।
६. M तेरउ पेच्छिवि: B तेरस पुच्छिवि । ७. MB मण । ८. MBT विमुक्कवयंसी; GA विमुक्का
तेसीति पाठेऽप्ययमेवार्थः; K विमुक्कतसोति पाठेऽप्ययमेवार्थः; T विमुषकत्तसीति पाठेऽप्ययमेवार्थः । २५. १. BK परवर । २. MB पिय । ३, MB गुणवाल । ४. MB वि । ५. MB मायर तुह ।
६. MR विसंयुल । ७. MB सिरिवाल देव पभणतई। ८. MB सिरि । ९. MBK सम्बई । १०. M गयगज्जिगयाग; B गय मय जि गयागयहो।
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हिन्दी अनुवाद
३३७
३२. २५. १२]
घता-तुम्हारी अंगूठी देखकर वह अश्रुजलसे अपनी चोली गोली कर रही है। वह कोमल विरहसे उसी प्रकार जल रही है, जिस प्रकार दावानलसे नयी लता जल जाती है ॥२३॥
२४ घर जानेपर मुझसे--जिसके मुखसे वाणी निकल रही है, ऐसी उसकी माने कहा-कोई आदर्श पुरुष है उसको 'मुद्रा' देखकर लड़की कामसे पीड़ित हो उठी है। उस बालसखोने कुछ भी विचार नहीं किया और उसने मुझे अपना हृदय बता दिया। मैंने उसे धीरज बंधाया कि चन्द्रकिरणोंके समान शोभावाले प्रियसे तुम्हारा मिलाप करा दूंगी। उसी देशमें चामीकर (स्वर्णपुरमें ) 'भदनवेगा' स्त्रीसे रमण करनेवाले हरिदमनकी 'मदनावती' नामको विद्याधरी सुन्दरी सड़को थी। पिताके पूछनेपर मुनियोंने कहा था कि जो रत्नोंसे उज्ज्वल हिमदलकी कान्तिको आहत करनेवालेको लाये गये तुम्हारे कम्बलको देखकर विगलिस हो जायेगा उस युवतीके मनमें वही उसका धैर्यबल ( मन ) होगा। हे सुभग ! तुम्हारे वियोगमें वह पीड़ित है। और बेचारी तुम्हारी चिन्ता-वियोगमें पोड़ित है। उसने कर्णफूल छोड़ दिये हैं। और मेरी सखीका जीना कठिन है।
घत्ता-प्रेमके वशीभूत होकर तथा उत्कट कामक्रीड़ाके रससे भरी हुई उस दीनने वह तुम्हारा कम्बल मोगा और मैंने भी अपने हाथसे उस प्रावरणका आलिंगन किया ॥२४॥
तुम यहाँपर अशनिवेग विद्याधर द्वारा लाये गये हो। नरपति समूहने ऐसा मुझसे कहा । उसपर विश्वास न करते हुए 'मैं' वहाँ गयी। हे राजन् ! प्रजारूपी कमलोंका सम्बोधन विकसित करने के लिए चन्द्रमाके समान गुणपाल जिनोंके पैरोंपर 'मैं' पड़ी थी। तथा सजनके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले तुम्हारे आगमनको उसने पूछा-उन्होंने कहा कि बाल राजा जो प्रकाशसे भास्वर है, सांतवें दिन आयेगा। और विद्यालाभके साथ घरमें प्रवेश करेगा। समस्त पुरजन भी यही बात कहते हैं। मैंने भ्रमरके समान काले बालवाले तुम्हारे भाईसे भी बात की, शोकसे विह्वल मातासे भी मिली । सुमेरु पर्वतके निकट निवास करते हुए, हे देव ! वे हा-हा श्रीपाल कहते हुए, उन्हें तथा आक्रन्दन करते हुए, जिनके सिरके बाल मुक्त है ऐसे सैकड़ों परिजन और स्वजनोंको भी मैंने देखा। वे सब नगरमें तभी प्रवेश करेंगे कि जब हे राजन् ! तुम उन्हें मिल जाबोगे ।
धत्ता-नररूपी तरु चले गये, और गज भी गये और मा गये। जो गणिकाएँ हैं मानो वे वनदेवियाँ हैं । हे प्रिय ! तुम्हारे एकके बिना लोगोंसे व्याप्त वह नगर भी वनकी भांति मालूम होता है ॥२५॥
२-४३
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३३८
महापुराण
[ ३२. २६.१
गिरिसरिदरिषणसयई गियंतिह . खयरावासहिं पई जोयंतिइ। दिदी मउलिच्छि लोलती पंधी
पंखुडधुलियालेयवती। विजुवेय तुह विरहें सोसिय मरणमणोरह मई मम्मीसिय । जइ सुह पियसंजोत संधमि तो विजाहरपट्ट ण बंधमि। णियभालयलि किसोयरि जाणहि अप्पड मा ललियंगि विमाणहि । भोयषइहि केरी वियलियमय रक्ष्यारिणि सहि तहि जि समागय । सत्ता ताइवयंसिइ दिन अज्जु चंदु णिसि भवणि पइट्ठल । जिग्गड पुणु जाणिउं दुस्सिविणउं जिणपुलच्छव परइ सण्हवणउं । संतिअत्थु सयलहिं सुअरेवर सिद्धकूडजिणणिलइ. करेत्वर । पत्ता-अवरई कपणड्ड अवरउ महिउ अवरहुं वि लेहु मुदइ सहिउ ।।
भोयवइहि तुई सहि गवरविय हकारी तुह ह पट्टविय ।।१६।।
एम कहेप्पिणु गय सा सुंदरि मणिमयकुंडलमंडियण्णउ सत्तावीस जोयणवत्तउ असणिवेयनयरें वणि चित्तड उच्चाइवि णियपुरचरु णीयउ हई पई दोदियहई जोयंती जाम ताम तेरी वित्थारें एत्थायइ तहुं मई अवलोइउ कंचुइरूड देव मई धरियल जाणिओ सिणेमित्तिकिबंधे धत्ता-इय भरहणरेसरकिंकरहो
कह कहइ पुरंधि सुलोणिय
हर आरूढी सिरिसिहरुप्परि । दिउ तहिं काणणि छक्कयणउ । भूगोयरियन पिय तुह रत्तठ । मई कारुण्णारण मृगेणेसा । अप्पियाउ गरवालहु धीयउ । अच्छमि खगणयरेसु चरती। कहिय वत्त हरिके उकुमार। मयणे पंचमु सरु मणि ढोइउ ! पिडउल्लाउ कुवलीहलभरियर | कहिय पुंडरिकिणिपुरचिंधे।
जयरायहु तिजगभयंकरहो।। वरकुंदपुष्पदंताणणिय ॥२७॥
हम महापुरारे सिसट्टिमहापुरिसगुणाले कारे महाकहपुप्फयंतविरहए महामभरहाणुमषिणाए
महाकम्वे विजाहरकुमारीविरहोषण्णण जाम बसोसमो परिच्छेयो समत्ती ॥२॥
संधि ॥१५॥
२६. १. MB दरिपट्टणाई भमंतिह । २. MP मंभीसिय । ३. MB ह तुह । २७.१. MB मिगणेत्तउ । २. MB पंचमसरू । ३. MBT णेमित्तिणिबंधें। ४. MB
बिरहदण्णणं ।
। ५. M3
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हिन्दी अनुवाव
२६
We ha
सैकड़ों पारियों वाहनों रहनों को देखते हुए तब विद्याधर निवासों में तुम्हें देखते हुए मैंने आंखें बन्द किये हुए तथा जिसके सफेद गालोंपर बलकावली हिल रही है, ऐसी चंचल विद्युतवेगाको तुम्हारे वियोग में शोषित देखा। मरणको इच्छा रखनेवाली मैंने उसे अभय दान दिया कि मैंने यदि तुम्हारे प्रिय संयोगकी तलाश नहीं को तो 'मैं' विद्याधर पट्टको अपने भालस्तरपर नहीं बांधूंगी। इस बातको तुम जान लो और हे ललितांगी ! तुम अपनेको कष्ट मत दो । तब भगवतीकी विगलित मदवाली तथा रति उत्पन्न करनेवाली सखो भो वहाँ आ गयी । उस सखीने कहा कि आज मैंने रातमें चन्द्रमाको अपने गृहमें प्रवेश करते हुए देखा। और फिर यह निकल गया । सबने इसे दुःस्वप्त समझा और सोचा कि सवेरे सिद्धकूट जिनालय में शान्तिके लिए 'जितेन्द्र' की पूजाका अभिषेक करना चाहिए।
३२. २७. १२ ]
३३९
पत्ता - दूसरी सखियाँ जिनका मुद्रा सहित लेख है । भोगवतीको तू सहेली अत्यन्त गौरवान्वित है, जो मुझे भेजकर तुझे बुलाया ||२६||
२७
ऐसा कहकर वह सुन्दरी चली गयी। 'मैं' श्रीपर्वत के ऊपर चढ़ गयी। उस काननमें मणिमय कुण्डलोंसे मण्डित कानोंवाली छह कन्याओं को देखा कि तुममें अनुरक्त जिन मनुष्योंको अशनिवेग विद्याधर ने सत्ताईस योजनवाले उस वनमें बन्द कर रखा है। मैंने करुणापूर्वक उन मृग-नेत्रियोंको उठाकर अपने नगर में ले आयी हूँ। और उन कन्याओंको राजाके लिए सौंप दिया है। मैं दो दिनों तक बाट जोहती हुई, विद्याधर नगरोंमें घूमती रही थी । तब हरिकेतु कुमारने तुम्हारी कथा विस्तारसे कहो 1 यहाँ आये हुए मैंने तुम्हें देखा । कामने मेरे मनमें अपना तीर 'चला दिया । हे देव ! मैंने वृद्धाका रूप धारण किया और बेरोंसे भरी हुई यह पोटली रख दी । पुण्डरीकिणी नगरमें ज्योतिषीने इस बातको जाना था और कहा था ।
घत्ता - इस प्रकार श्रेष्ठ कुन्द - पुष्पों के समान दांतोंके मुखवाली सती सुलोचना यह कथा. तीनों लोकोंके लिए भयंकर तथा भरत नरेश्वरके अनुचर राजा जयकुमारसे कहती है ||२७||
सठ महापुरुषोंके गुण और अलंकारोंवाले इस महापुराणमै महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका विद्याधरकुमारी-विरह
वर्णन नामका बत्तीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ३२ ॥
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4
१०
१५
संधि ३३
सम्ब्रोस हिसामत्थु तरुर्णे ते पयासि ॥ aaj सुहावश्याsणियबुद्धत्तु विणासि || ध्रुवकं ॥
संमाहिय विजासोसणेण सहामकामकामगमईहि for f तारुणाकियाई गृह देव महारण प्राण विजाहर पिसुण ति जेम मधु कंचुइवेसुद्धा रिणीहि धरि थेट सुविचितकूड तहि वोही पीवरथणीउ कंकेल्लिबालपल्लवमुयाउ ता धारोहण किय तेण उल्लंघिवितुरिव महंगणंतु
१
भोयर भडारी विज्जुवेय hers समाय मयणलील अण्णा मनोहरणिया जरसरिधुय सिर के सासियाई
अवलोयवि तरुणद्दि तणिय रिद्धि छंडिजर जाणियम ईइ
कोमलकर फासणेण । त्रिणिय जर सुहाई । खग वयणई जंपियाई । तु चकपाणि यमेव विट्ठ ! ण करे चि म वि तेम । चडुखंध से सुहकारिणीहि । आवेहि जाहुं तं सिद्धकुड़ । मिलिद्दिति अन तुह पणइणीउ । अवलोयहि खेरवइयाउ । सा विज्जुचबल चल्लिय गण । संपतेई जिणहरगणंतु ।
चत्ता--वंदिर तिहुयणणाहु श्रोत्तस्य वरघुटुई | चिणि नि बुढा मुहसालहि उपविट्टई ||१||
*
तहिं दुक्की वप्पिल णिरुवमैय ररमणिहि केरी णाई कील । कपणा अह अवइण्णियाउ । कुरि रई संभासियाई । पुणु कंचुइ थितिर्बुद्धि । freसिरि दक्खाविय सुदवई ।
MB give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :विनयाङ्कुरशालवाहनादौ नृपचक्रे दिवमीयुषि क्रमेण |
भरत तव योग्यसज्जनानामुपकारो भवति प्रशक्त ( प्रसक्त ? ) एव ॥ १॥
GK do not give it.
१. १. MB साइण । २. MB पाणइछु । ३. MB सुहयारिणीहि । ४. MBT बोदहीउ । ५. MB
संपत्तव ।
२. १. M४ मणोरम । २. MB कुअरिहिं । ३. MB. विसमेतबृद्धि । ४. MB छडिवि ।
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सन्धि ३३
उस तरुण श्रीपालने अपनी सर्वोषधिको सामथ्यं प्रकाशित की। सुखावतीने जो उसका बुढ़ापा किया था उसने उसे नष्ट कर दिया। जिसने विद्याओंके शासनको सिद्ध किया है ऐसे श्रीपालने अपने कोमल करतलके स्पर्शसे उद्दाम कामको इच्छाकी मति ( बुद्धि ) रखनेवाली उस सुखावतीके बुढ़ापेको भी नष्ट कर दिया। वे दोनों यौवनसे अलंकृत हो गये। विद्याधर कुमारीने ये शब्द कहे-हे देव ! तुम मेरे प्राण इष्ट हो, तुम साक्षात् चक्रधारी विष्णु भगवान हो। दुष्ट विद्याधर जिस प्रकार दूसरोंको मारते हैं, कहों वे तुम्हें और हमें न मार दें। इसलिए शुभ करनेवाली वृद्धाका वेश धारण करनेवाली मेरे कन्धेपर चढ़ जाइए। वृद्धरूप धारण कर आओ। विचित्र शिखरोंवाले उस सिद्धकूट पर्वतपर चलें। वहाँ युवाहदय-पोन-स्थूल स्तनोंवाली तुम्हारी प्रणयिनिया आज मिलेंगी। अशोक वृक्षके नव-पल्लवोंको तरह बाहवाली विद्याधर कुमारीको वहाँ देखोगे। तब उस कुमारके कन्धेपर आरोहण किया। बिजलोको तरह चंचल वह आकाश मार्गसे चली । नभके आँगनको लांघती हुई, वह तुरन्त जिनेन्द्र मन्दिरके प्रांगणमें पहुंची।
पत्ता--उच्चरित सैकड़ों स्तोत्रोंसे त्रिभुवनके स्वामी जिनेन्द्र भगवान् की उन्होंने वन्दना की, और वे दोनों बूढ़े मन्दिरकी मुख्यशालामें बैठ गये ॥१॥
आदरणीय भोगवती, विद्युत वेगा और अनुपम बप्पिला वहां पहुंचीं। कामदेवकी लीला धारण करनेवाली मदनावतो आमी । जो मानो रतिरूपी रमणीको क्रीड़ा हो और भी मनोहर वर्णकी रंगवाली माठ कन्याएँ यहाँ अवतीर्ण हुई। वृन्दावनरूपी नदीसे धोये गये है केश जिसके, ऐसे उन वृद्ध-यूलासे उन कुमारियोंने बातचीत की। उन युवतियोंकी ऋद्धि देखकर वृद्ध 'श्रीपास'
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३४२
महापुराण
[३३. २.७ थिय पुणु पच्छण्णी सा कुमारि दुल्लक्खचारु होएवि थेरि । वरइत्तु ताइ दंसणरयाहि भूभंगें दरिसिउ तबिरयाहि ।। ताइ वि बोल्लाविउ पिउ अणंगु .....मायाजराइ पच्छाइयंगु । भायवइइ तहिं पारदधु हासु वुड्ढहु उपरि पेम्माहिलासु । हलि असणिवेय सैसि काई करहि लहु णवजुवाणु वरु को वि घरहि । घत्ता-ता खयरायसुयाहिं बंभु महेसरु अचः ॥
णिरलंकारु जिणिंदु सालंकारहिं संथुउ ||२||
द
रत्ताहराहिं भवसयविरत्तु चंचलचितहिगिरिथविरचित्त । विरहें तत्तहिं तवचरणतत्त मृगणेत्तहिं झाणिलीणणेत्तु । मझ खीणहिं संखीणपाउ थर्दूत्थणीहि णिद्धभाउ। कुडिलालयाहिं अकुडिलमइल्ल जणमणसजिहि णिमुक्कसन । पहचारकमियमंदरदरीहिं. दिवि परमेसर सुंदरीहि । अहिसेउ कयल पुजापयारु ता बंकगीउ णामें कुमारु । संपत्तः सहुणियपरियणेण थेरेण थेरि पुच्छिय अग्रेण । आहरण विसेसहिं विष्फुरंतु कि धावइ णरमेलउ तुरंतु। ता हसिवि पउत्तर कंचुई के के म वि हय विज्जाईइ । इय भोयर्वति पुरि तिसिरैराउ णिवसइ रइपेहकंतासहाउ । सुग तासु पहावइ जेट्ट पुत्तु सिधु णामें गुणमंडपणे' गिउत्तु । एयहि रयणिहि संजंतसाणि बहुरूविणि साहंतहु मसाणि । विरइस विझइ कोट्टग्गभंगु जरवेएं कंपावियर्ड अंगु। पत्ता-आवेष्पिगु पणएण भिसएं भेसह दिण्णउं ।
वडूढंतउ जरलिंगु रायकुमारहु छिण्ण ॥३॥
कमाल
णउ फिट्ट कंठहु बंकभाउ किह होसइ सिसुगले उज्जयतु सम्वोसहि सिज्झइ मुवणि जासु करफंस तहु चकेसरासु आवेसइ मो जिणणाहणी/
आउच्छिउ जणण बीयरा। ते णिसुवि जइवइणा पउत्तु । तुह पुत्ति पहावइ पिययमासु । होसइ सुयगीयाभंगणासु। णामेण पसिद्धउ सिद्धकूडु।
५. MB सो बोइउ । ६, B सस; K ससे । ७. K. स्वगराय । ८. । सुहि । ३. १, B omits from गिरि down to मृगणेत्तहि inclu sive | २. M मिग । ३, 13 घड्ळ ।
४. MB णित्यर्छ । ५. MBK णिम्मुक्कु । ६, MB बंकगी: । ७. M धावउ । ८. MBK तिसिंह
राउ । ९. MB रहि । १०. MB सिल । ११. MB °मंडणु । ४. १. M सिसुगल उज्जयत्तु । २. MIK गोवा । ३. MB सहसफूडु।
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३४३
३३. ४.५]
हिन्दी अनुषाव की भूरिया जानोमा सुशासन शोली उसे दिखाई फिर वह कुमारी छिपकर बैठ गयी। और दुर्लच्छ है आचरण जिसका ऐसी वृद्धा बनकर बैठ गयी। उसने दर्शनमें लीन विद्यतधेगाके लिए भौंहके द्वारा वरको दिखाया। उसने भी उससे कहा कि प्रिय कामदेव है। लेकिन मायावी बुढ़ापेसे उसके अंग छिपे हुए हैं। तब भोगवतीने वहां मजाक करना शुरू किया कि तुम्हारी प्रेम अभिलाषा वृक्षके ऊपर है। है विद्युतवेगा! सखि तुम क्या करती हो। शीघ्र ही किसी युवक लड़के से अपनी शादी कर लो।
घत्ता-तब विद्याधरकी कन्याओंने अलंकार पहने हुए स्वयं ब्रह्मा, महेश्वर, आदि जिनेन्द्रकी संस्तुति को जो स्वयं बिना अलंकारोंके थे ॥२॥
लाल-लाल ओष्ठोंवाली ( रक्ताधर ) उन्होंने सैकड़ों संसारोंसे विरक्त जिनेन्द्र भगवानको संस्तुति की। चंचल चित्तवाली, यौनगिरीके समान स्थिर चित्त जिन भगवान्की, विरहसे आर्द्र सन्तप्ताओंने तपश्चरणसे सन्तप्त जिनधर की, मृगनयनियोंने ध्यानमें लीन नेत्रवाले जिनेन्द्रकी, मध्यमें क्षीण स्त्रियोंने पापोंक क्षय करनेवाले जिनेन्द्र की, स्निग्ध स्तनोंवालियोंने स्नेहसे रहित जिनेन्द्र की, कुटिल आलाप करनेवालियोंने अकटुलों में श्रेष्ठ जिनवर की, जनमनको शल्य रखनेधालियोंने शल्योंसे रहित जिनवरकी तथा इस प्रकार अपने आकाशगमनसे मन्दराचलको घाटियोंका उल्लंघन करनेवाली उन सुन्दरियोंने परमेश्वरकी वन्दना कर अभिषेक और तरह-तरहकी पूजाएँ कीं। इतनेमें बेकनीय नामका कुमार अपने परिजनोंके साथ वहाँ आया। इस वृद्धने उस वृक्षासे पूछा कि विशेष अलंकारोंसे चमकता हुआ यह मनुष्योंका मेला तुरन्त क्यों दौड़ रहा है। तब उस वृद्धाने हंसकर कहा कि विद्याके आकर्षण ( कान्ति ) से कौन-कौन लोग आहत नहीं हुए । इस भोगवती नगरीमें त्रिसिर नामका राजा है। उसकी सहायक रतिप्रभा नामकी पत्नी है। उसका प्रभावतीसे बड़ा बेटाहा. शिव नामका गणोंसे मण्डित रात्रिमें जिसमें कुत्ते भौंक रहे हैं, ऐसे मरघटमें विद्या सिद्ध करते हुए । इसका विद्याने कोटाग्र ( गर्दन ) को टेढ़ा कर दिया है, और अवरके आवेगसे इसका शरीर कैंपा दिया ।
पत्ता-प्रणयसे आकर वैद्यने इसे औषधि दी। और बढ़ते हुए कुमारके वृद्धापनको छीन लिया ॥३॥
लेकिन उसके कण्ठका टेढ़ापन नहीं गया। पिताने वीतराग मुनिसे पूछा कि हमारे पुत्रका गला सीधा कैसे होगा? यह सुनकर मुनिवरने कहा कि संसारमें जिसे सर्वोषधि विद्या सिद्ध होगी ऐसे तुम्हारी पुत्री कुमारी प्रभावतोके प्रियतम, उस चक्रवर्तीके छूनेसे लड़केकी गर्दनके टेपनका नाश हो जायेगा। 'जिनेन्द्र भगवान्' का घर जो सिद्धकूट नामका प्रसिद्ध मन्दिर है
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[३३. ४.६
महापुराण रंगवि भडसमेन अवयरइ एह सररिउणिके। जो णासइ कंधरभंगुरत सो चुंबई कण्णहि तणलं वत्तु । अण्णेक्कु लहइ मंडलु हयारि ता पभण धोः परोवयारि । किं कण्णइ कि देसेण मझ धम्मेण करमि साभैत्य सन्म । ता वेज वेज घोसित णिवेण आरा सर हो भासित णिवेण | णलिगाह करगें छित्तु जाम गलेमोडि पणही तास ताम । गत मंदिर सणुरुहु सरलगीउ अवलोयवि सुद्छु पहट्ट ताउ । परमेठिधरंगणसंठिएण परकज्जारमुकठिएण। केण वि कंचुइणा बाहि महिय इय मंतिहि वस पवित कहिय । साविश्यकचउडर होकणवायहो।
चल्लिच तुरिउ गरिंदु पासु तासु जावायहो॥४॥
छुडु छुडु करि चोइउ दाणवासु जिणहरु छल्जीचयाणिवासु । भाइण्ण जाम खगिंदु तिसिह Kहिसुहदसणु पाणीयविसिक। ता मायादिइ बंधणमई
णिउ सुंदरु णावह मठ मई । पियजीवर्धष्णरक्खणमई मणिवाविहि मिहिन सुहावई । पल्लट्टङ तिसिक अपेच्छमाणु जलहरवहजववाहियविमाणु । एत्तहि मुद्धा अहिणववरासु तडिवेयायार गरेसरासु। करसाहाणिहियह मुश्यिाइ कड माणकणयणविमेहियाइ । गय पत्त सुहाया अवर का वि णामेण सुहोदय जेत्थु षावि । पत्ता-वईदीवरणेत रायहंससहवासिणि ॥
पाणियवस्थणियस्थ सोहा वाविविलासिणि ||५||
कपणउ इकारइ जाम तेरथु जलकीलहि देतिउ कमलहत्थु । तामेक्क वि तरुणिण दिठ्ठ ताइ । गइयउ सरु परियाणि उं इमाइ । एत्तहि राएं उद्दामतेय
अप्पाणले विठ्ठल विज्जुवेय । अवणियउ समाहप्पंगुलीउ गियरूवधारि थिउ मंतु गीत।
तो तहि अवसरि तहि चेडियाइ किं मुदइ हत्थहु फेबियाइ | ४. MB वीरु । ५. MB सामस्धु सज् । ६. M विज्जु विज्जु; बेस वेज्नु but gloss वंद्य वैद्य । ७. MB सिषेण 1 ८. MB परणाह। ९. MB गलमोष्ठिय फिट्टिय। १०. MB मंदिर
तणुरुह । ११. MB पहिछ । १२. MB जामायहो । ५. १. MB दयाववासु; T°दयावासु । २. B अइवण । ३. M सुहमुहवसणपीणोय; B मुहिमुह
पाणीय 1 MBधम । ५. MB°विमुद्दियाइ । ६. १. MB तो।
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३३. ६.५]
हिन्दी अनुवाद वहाँ वह आयेगा । उस दिनसे लेकर इस 'जिन मन्दिर' में वह योद्धाओं सहित अवतरित होगा। वह कुमारके कन्धेके टेपनको दूर करेगा। और कन्याका मुख चूमेगा, और भी वह शत्रुओंको मारनेवाले मण्डलको प्राप्त करेगा। तब वह धीर परोपकारी कहता है कि मुझे कम्यासे क्या उद्देश्य ? मैं धर्मसे अपनी सामर्थ्य और सिद्धिको प्रास करूंगा। तब आचार्यने उसे वेद्य घोषित किया। राजाने कहा कि पास आइए । श्रीपालके निकट आओ। कमलके समान जब उसने हाथसे उसे छुआ। जैसे ही उसने छुआ, वैसे ही उस लड़केका टेढ़ापन दूर हुआ। सीधी गर्दनका वह पुत्र मन्दिरमें गया, पिता उसे देखकर प्रसन्न हुआ। परमेश्वरोके परके आँगन में जिन मन्दिरमें स्थित, दूसरों का काम करने के लिए उत्कण्ठित किसी कंचुकीने व्याधि नष्ट कर दी। मन्त्रियोंने यह पवित्र बात राजासे कही।
पत्ता-रची गयी कपट मायाके द्वारा जिसने अपनो नयो काया ढक रखी है, ऐसे उस दामादके पास राजा चला ||४|| .. .. . . . . . . :
शीघ्र ही उसने मद सरनेवाले हाथीको प्रेरित किया। और जिसमें छह जीवोंकी दया निवास करती है, ऐसे जिन-मन्दिर में पहुंचा। जिन-मन्दिरमें जबतक सुधीजनोंके लिए दर्शनके लिए तिसिर नामका विद्याधर पहुँचता है, तबतक प्रवंचना बुद्धि रखनेवाली मायाविनी वह शोभावती उस सुन्दरको उसी प्रकार ले गयी जिस प्रकार हरिणी हिरणको ले जाये | प्रियके जीवनरूपी धान्यको रक्षाके विचारसे उस सुखावतीने उसे एक मणि बागोंमें रख दिया। जिसने आकाशमें पवनवेगसे अपने विमानका संचालन किया है, ऐसा वह तिसिर विद्याधर कुमारको नहीं देखकर लोट आया। यहाँपर उस मुग्धाने अभिनव वर उस राजाको हाथकी अंगुलीमें पहनी गयी तथा मनुष्योंके नेत्रोंका मदन करनेवाली अंगूठीसे विद्युतवेगाके आकारका बना दिया। वह वहाँसे चली गयी और वहां पहुंची जहाँ सुखोदय नामको दूसरी बाबड़ी थी।
पत्ता-वह बावड़ीरूपी विलासिनी शोभित थी। नव नीलकमल ही उसके नेत्र थे। राजहंसोंके साथ निवास करनेवाली और जलरूपी वस्त्र उसने पहन रखा था ॥५॥
बह कन्या जलक्रीड़ाके लिए अपने कर-कमलको बढ़ाती हुई जैसे ही कन्याओं को पुकारती है वैसे ही उसे एक भी कन्या दिखाई न दी। इसने जान लिया कि वे तालाबसे चली गयी हैं। या वे सरोवरको चली गयी हैं। यहाँ राजा 'श्रीपाल' ने उद्दाम वेगवाले अपने विद्युत्-रूपको देखा। अपने महत्त्ववाली औलोको उसने हटा लिया और अपना रूप धारण करके स्थित हो गया। उसने अपना मन्त्र पढ़ा, उस अवसरपर उसकी दासीने कहा कि तुमने अपने हायसे मुद्रिका श्यों हटा दो।
२-४
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३४६
धयरद्वसिलिंधेयगामिणीय सुसुहावई मह सामिणी । जलरमणकजसंकेझ्याउ
इह खगवाधीयउ णाश्याच । बलिवुधियगयेलेंबियधयाड अण्णेत्तहिं कत्थइ जहिं गया । तहिं गय इणिहिय समीवि तुझु अवरु धि परिद वजरमि गुज्झु । कण्णाकारणि मच्छरु वहति असमंजसु ध्रुवु पई से वहति | एहत्व जाणिवि मदु राणियाइ इन्वसिआइल्लसमाणियाइ । पत्ता-अस्थि वहरि खरिद ताहे जाणु दलयट्टिल ।।
अंगुत्थलियइ माह तुह सख्वु पल्लटिउ ।।६।।
जो जो आवइ तहुँ तहु ससाहिणियतणुसरिच्छससिसियजसाहि । चिंतेजसु अनु महाणुभाव । संचेजसु पिसुण समुदराव । सविमाणविलंपियविविकेट एत्वंतरि पत्तज असणिवेत। ससहोयरिस्ट णिहालमाण
गउ सो णहेण स्वरमाणुमाणु । खेयर दहिं पर वि ण मुणं ति महु महु जि बहिणि सयल वि भणति । अण्णे मुणियपवचएण
तावक्खिर तहिं कुसुमंधएण | सुपरिद्वियदिष्टिअमूढपण गय णयर रक्खारूढएण। दषसोक्खउम्पायणेहि मई विट्ठट अप्पणु लोयणेहि । विणु मुद्देश कण्ण जि पुरिसरयणु सचः पपउ भासमि अलियवयणु । जं वजरंति गुणवंत साहु
गंभीर धीर रिउ सोमराहु । जो अम्गइ होसइ पकणाहु णिच्छन्न सो पहु सिरिपालु एहु । घत्ता-धम्मोरूढगुणग्गि जो आरूढ भावह ।।
इड सो वम्मबाणु णारिसरीरई तावइ ।।७।।
ता धाश्य भर आहवसेमस्थ
हणु हणु भणंत हलमुसलहत्थ । लद्धउ वरित कहिं जाइ अजु कहि होइराउ कहिं करइ रज्जु । इय भणिवि पवेदिउ खेयरेहि जं पिउ पुण्णालिहि उत्तरेहि। णं सिहरि पलंबिरजलहरेहि मंदिवसु दिवसीहाकरेहिं । णं चंदणतरुवर विसहरेहि हम्मइ ण जाम फुरियाह रेहि ।
जोएप्पिणु सरवर सारणालु हंसीमुहचुंबिय सिसु मरालु। २. MB °सिलिंबय। ३. M सुसहावईइ । ४. MB गयटुंबियं । ५. MB धुउ । ६. MB माणु ।
७. M सुरुड; B सका। ७. १. M सखुदभाव; B खुद्दभाव; T समुहराव । २. MB भुद्दिछ । ३. MB होहइ । ४, MB सिरिवाल ।
५. M अम्मा गुणग्गे । ८. १. MB बाहदि समस्य । २. MB पलंबियं । ३. MBK दिवसणाहहं ।
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३३. ८.६] हिन्दी अनुवाद
३४७ हस-शावकके समान गतिवाली मेरो स्वामिनी सुखावती, जो जलक्रीड़ाके कामके लिए संकेतित विद्याधर कुमारियां यहां नहीं आयी हैं तथा भ्रमरसे चुम्बित गजोंपर अवलम्बित ध्वजाओंवाली वह कहीं और चली गयी है-वहाँ गयी है और मुझे तुम्हारे पास छोड़ा है । हे राजन् ! एक और गुप्त बात सुनिए कन्याके लिए ईष्या प्रदान करनेवाले वे दोनों विद्याधर निश्चय ही तुम्हारे साथ असामंजस्य करेंगे। यह जानकर उवंशीसे भी अधिक मेरी रानी सुखावतीने
पत्ता-विद्याधर राजा शत्रु है, इसलिए उनका ज्ञान नष्ट कर दिया और हे स्वामी ! इस अंगूठी के द्वारा तुम्हारा स्वरूप बदल दिया ॥६॥
हे महानुभाव ! जो-जो आता है, उसे अपने शरीरके समान तथा चन्द्रमाके समान पत यशसे युक्त बहन के रूप में अपने को सोचना और इस प्रकार समुद्रके समान गर्जनवाले दुष्टोंको प्रपंचित करना। इसी बीच जिसके अपने विमानमें तरह-तरहके ध्वज लगे हुए हैं, ऐसा अशनिवेग आया, और अपनी बहनका रूप देखकर तीव्र सूर्यके समान प्रवाहवाला वह आकाश-मार्गसे चला गया। वहाँपर दूसरे बहुत-से प्रचुर विद्याधर मी नहीं जान पाते हैं, और सब उसे मेरी बहन है मेरी बहन है, यह कहते हैं। तब एकने जिसने इस प्रवचनको जान लिया है, ऐसे कुसुमचक मालीने उस समय कहा कि सुपरिस्थितिको देखने में अभ्रान्त है तथा जो पेड़पर चढ़ा हुआ ऐसे उस नागरिकने जानेवाले गये विद्याधरोंसे कहा कि मैंने देखने योग्य चीजमें सुख उत्पन्न करनेवाले अपने नेत्रोंसे स्वयं देखा है कि वह कन्या बिना मुद्राके पुरुषरल है। मैं सच कहता हूंझूठ वचन नहीं बोलता । जो गुणवाद साधु, गम्भीर तथा चन्द्रमाक लिए राहुके समान शत्रु कहा जाता है और जो आगे चक्रवर्ती होगा निश्चयसे यह वही राजा श्रीपाछ है ।
पत्ता-धनुषकी डोरोके अग्रभागपर स्थित यह वही कामदेवका बाण है, जो स्त्रियोंके शरीरको सन्तप्त करता है ||७॥
आज हमने शत्रु पा लिया। अब यह कहाँ जायेगा ? वह कहाँका राजा है ? और कहाँ राज्य करता है ! यह कहकर विद्याधरोंने उसे उसी प्रकार घेर लिया, जैसे पुश्चरियोंने प्रियको घेर लिया हो। मानो मेघोंसे अवलम्बित सूर्यको किरणोंने, दिवसको घेर लिया है, मानो चन्दनके श्रेष्ठ वृक्षको सोने घेर लिया हो। और जबतक फड़कते हुए ओठोंवाले उन विद्याधरोसे वह आहत नहीं होता तबतक कमलोंके सरोवरको देखकर कि जिसमें हंसनियों के मुखों द्वारा हंस
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૨૪૮
महापुराण
{ ३३. ८.७
कण्णउ गयाउ कोलवि समत्व सा पियवयंसि मणियावि पत्त । अवलोयचि रिउसेणावियार बालइ अईसागु किव कुमारु । हि सोल्यु कम : अण्णाणिएहि सव्वण्हु जेन । यत्ता-नुचाइवि परिहत्थु अहिणवर्कघणघण्णइ ।
पुवुत्तइ जिणगेहिं वरु संणिहियउ कण्णइ ॥८॥
करिणि व्य कहिं वि कोलीवणासु गय सुंदरि णिययणिहेलणासु । णियहओहामियचंदकति पेच्छंतउ फलिहसिलायलंति । धरणीसुताइ मुद्दाइ रहिउ ण कामु कामकामिणिहि कहिल। अवलोयवि बप्पिल सालपण परियाणि उग्णयमालपण । इहु सो परिंदु गुणपालतणउ जो पगइणीहिं संजणियपणउ | जो गिजइ देवेहि धरिवि वेणु जो दुस्थियमवणकामधेणु । णं पलइ समुमाउ धूमकेत इय चिंतिवि धाइउ धूमकेउ । जिणपंगणाउ रायाहिराउ उक्खिउ गरुडे जाई जाउ । णि रिउणा उसिरावइसमीवि कालइरिहि पबियणीलगीवि । कालनखगुहहि कालाहिवासि घिसट हरिवाहिणिसेन्जदेसि । बत्ता-दाहिणदवारभि खयकालेण विर्वजिउ ॥
सेज्जहि णाहु णिसण्णु कालभुयंगें पुज्जिउ ॥९॥
उसिरावइपुरवरि हेमवम्मु तहु भिचाहिं भासिड तासु कम्मु । जिह धडिर सेजि जिह णविष णाट जिाणिग्गड पत्तड धूमकेउ । जिह णिउ णरवइ अण्णत्व झत्ति सिह केण वि ण मुणिय पुण वि थत्ति । विह णिसुणिवि उसिरावइपुरेसु किंकरई कुइड किं कियउ दोसु ।
उ रक्खिउ किं आएसपुरिसु किं आउंघिउ महु होंतु हरिम् । तावेत्तहि रइसुहलुद्धरण
वप्पिलमेहुणएं कुद्धएण। चंदरि णिसिहि वमजालपीलि पेयालइ पह णिक्खित्तु सूलि । तालिड वग्गे पुणु मोगरेण पुण्णाहिउ णड धिप्पइ गरेण । णस भिउजइ सुले सम्बलेण
ण खज्जइ णा रक्खसकुलेण । पत्ता-पित्तउ जलणि जलंति तहि वि परिहिउ अवियलु ॥
जिणपयपोभरयासु अम्गि वि जायज सीयलु ॥१०॥ ४. B अग्णाणि हिंस व एह जाम । ५. B पुरवत्ता। ९. १. MB णियसुणिहेलणासु । २. MR णियुमुटु ओहाँ । 4. MB गुणवाल । ४. B°सज्वस ।
५. B पंगणाहि । ६. B अश्विग्णउ । ७. MB वाहिणि। ८. MB विसज्जित । १०.१. B कि रविवउ । २. MB सडएण।
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३३. १०.११)
हिन्वी अनुवाब शिशु चूमे जा रहे हैं। यह देखकर कि कन्याएं जलकोड़ा समाप्त करके चली गयी है। वह प्रिय सखी अपनी मणि वापिकापर आ गयो । शत्रुसेनाके उपद्रवको देखकर उस बालाने कुमारको छिपा दिया। उन विद्याधरोंको वह विद्याधर उसी प्रकार दिखाई नहीं दिया, जिस प्रकार अज्ञानियोंको सर्वज्ञ दिखाई नहीं देते ।
पत्ता-अभिनव स्वर्णकी तरह रंगवाली उस कन्याने शीघ्र ही कुमारको उठाकर 'जिन मन्दिर' को पूर्व दिशा में रख दिया ।1८]
हथिनीकी तरह वे विद्यारियां क्रोड़ा वनसे अपने-अपने घर चली गयीं। अपने मुखसे जिसने चन्द्रमाकी कान्तिको पराजित किया है, ऐसे स्फटिक मणिकी चट्टानको देखते हुए राजाको उसने मुद्रासे रहित इस प्रकार देखा, मानो रतिके द्वारा पूजित कामदेव हो। उसे देखकर उन्नत मालवाले बप्पप्रिय सालेने जान लिया कि यह वही गुणपालका बेटा राजा है कि जिसे प्रणयिनियों के बारा प्रणय उत्पन्न किया गया है। देवताओंके द्वारा जो वीणा लेकर गाया जाता है, जो सज्जनरूपी कामधेनुको दुहनेवाला है। यह विचार करके धूमकेतु विद्याधर इस प्रकार दौड़ा मानो प्रलयकालमें पुच्छल तारा उठा हो। और उस जिन मन्दिरके आंगनसे वह राजाधिराज इस प्रकार ले जाया गया जैसे गरुड़ने नागको उठाकर फेंक दिया हो। शत्रु उसे सरावतीके समीप ले गया और जिसमें नीलमयूर नृत्य करते हैं, कालगिरिको ऐसी कालगुहामें, यमके अधिवास हरिवाहिणी देशमें उसे फेंक दिया।
घत्ता–देवीके अनुकूल होनेपर क्षयकालसे रहित वह स्वामी सेजपर बैठ गया और कालभुजंगने उसकी पूजा की ॥९
उसरावती नगरीमें हेमवर्मा था। उसके अनुचरोंने उसका कम उसे बताया कि किस प्रकार वह शय्यापर चढ़ा और जिस प्रकार वह सेजपर चढ़ा, नाकको चढ़ाया, नवाया और धूमकेतु निकल गया । जिस प्रकार राजा अन्यत्र ले जाया गया और जिस प्रकार उसे स्थापित कर दिया गया कि कोई नहीं जान सका। यह सुनकर उसरावती नगरीके राजा नौकरों, अनुचरोंपर कुद्ध हुआ कि तुमने गलतो क्यों की ? तुमने उस आदर्श पुरुषको रक्षा क्यों न की। तुमने मेरे होते हुए उसके हर्षको क्यों छीन लिया? तब बहाँपर रतिसुखके लोभी बप्पिल सालेने कुद्ध होते हुए कहा कि चन्द्रपुरमें अन्धकारके समूहसे नीलो रातमें, मरघटमें उस राजाको सूलीपर चढ़ा दिया तथा
वार, मोगरीसे उसे आहत किया गया । लेकिन जो पुण्यादि थे वह विष द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता, शल, सब्बल से न भेदा जा सकता। वह मनुष्य नहीं राक्षस कूलसे खाया जा सकता है।
धत्ता-जलतो आगमें डाला वह भी उसीमें अत्रिकल स्थित रहा। जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमलोंके लिए अग्नि भी ठण्डी हो गयी ॥१०॥
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३५०
महापुराण
जिणु सुमरंतहं सीह वि ण खाइ विसुदुम्महु फणि संमुह ण थाइ । असिघडणहुयवहुग्गमियजालि ओवडियसुइडसंगामकालि । जिणु सुमेरंतह रिउ थरहरंति धीर वि पन्छाउहुं ओसरंति । करडयलगलियमयजलपवाहू गुमुगु मुगुमंतचलेमट्टयरोड धातु रंतु गिरिवरसमाणु उरि देतु वे? बद्धयविसाणु । रयपिंजरु कुंजरवर वि खलइ जिणसुमरणकुसंकुसित पलइ । वणगलियरहिर करसद्धियणास अविणढकढकुहाविसेस । खयखासजलोयरजणियसोय जिणु सुमरंतड्डू णासंति रोय। णित्याहस लिलि सरहयदिधति
फरिमयरमच्छापुच्छलति । माणिककिरणमालाविचित्ति फलोलंदोलियजाणवत्ति। जिणु सुमरंतहं जलयररउधि बुहिजइ ण कयाइ वि समुहि । जिणु सुमरंतई मंगलई होति पर्यसंखलवलयई परियलंति । धत्ता-सत्त वि मित्त हवंति विहिं वि भजउ वासरु ।।
लिए मा यो वा फारलु सकेसरु ॥११॥
गोमरिउ हुयासह अध्यापिंडु सोहइ णि णं सोवण्णपिडु । आसीणु सिलायलि रायइंसु णं भिसिणोवलयलि रायइंसु। अवलु णामें पुरि षसह तेत्थु विज्जाहरु पिज्जायलसमत्थु । णं बम्महरायहु तणिय सेणा तहु घरिणि कुसीलिणि चित्तसेण । मुहहरुमायफरसक्खरेण सा सइरिणि णिसि गरहिय वरेण | आगय पिउवणडु तहि णिभाणु विदउ सिहि मुहणिगच्छमाणु । चिंतित अणाइ जयलच्छिगेहु ण पलित्तस एयह तणर देहु । जं तं होएव कारणेण
काई के संबंधषियारणेण। इय मणिवि महिल कोऊहलेण ताहि सा पविट गवराणलेण। ण दट्टी जालाघारिएण
सम्वोसहिरसाइयवीरिएण | णीसरिवि णिसण्णी णिबहु पासि । अवण्णा ता पिउवणणिवासि | अइबलु गेहिणिचरणयलवडिल हर मंदबुद्धि पिसणेहिं डिउ। आवेहि कंति वचई णिकेत ता चवइ घुत्ति संभरिवि हे । घत्ता-हकारहि णियबंधु दोवु घरेप्पिणु गच्छमि ॥
असंहत्तणमलेणेण भइलिय केत्तिड अच्छमि ॥१२॥ ११. १. M सुमरंतहः । सुमिरंतह । २. MB वीर । ३. MB पच्छामुढे । ४. MB घरमा । ५. MB
लोहबढस । ६. MB सहिरु । ७. MP खरखास; 6 खरखाम । ८. MB लिलसरसय । १. MB
परिसंघल । १०. MR परिगति । १२. १. MB वि। २. T भेउ । ३. MB दी। ४. MB असतणयकलंक।
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३३. १२. १५ ]
हिन्दी अनुवाद
३५१
११
जिनेन्द्र भगवान्का स्मरण करनेवालोंको सिंह नहीं खाता। विषसे कर्मुर नाग भी उसके समक्ष नहीं ठहरता। जिसमें तलवारोंके संघर्षसे उत्पन्न मागसे ज्यालाएं उत्पन्न हो रही हैं ऐसे सुभट संग्रामका क्षण आनेपर भो "जिन भगवान् का स्मरण करनेवालोंसे शत्रु पाथर कांपते हैं और धीर होते हुए भी पीछे हट जाते हैं। जिसके गण्डस्थलसे मदबलको धारा बह रही है, चंचल भ्रमर-समूह गुन-गुना रहा है, जो गिरिवरके समान दौड़ता हुआ आता है, जिसके दांत बंधे हुए (नियन्त्रित ) हैं, जो हृदयपर आघात कर रहा है, ऐसा परागसे पीला गजवर भी जिनवरके स्मरणरूपी अंकुशसे नियन्त्रित होकर लड़खड़ा सा है पौर मुड़ जाता है। जिसमें घावोंसे रखत बह रहा है, हाथ और नाक सड़ चुके हैं, ऐसा नष्ट नहीं होनेवाला कष्टकर बचा हुआ कुष्ठ" रोग, क्षय, खांसी और जलोदरके द्वारा शोक उत्पन्न करनेवाले रोग जिन भगवान्का स्मरण करने. से नष्ट हो जाते हैं। जिसमें अथाह पानी है, जिसमें स्वरोंसे दिगन्त आहत है, जिसमें गजों, मगरों और मत्स्योंकी पूछे उछल रही हैं, जो माणिक्योंकी किरणमालासे विचित्र है, जिसकी लहरोंसे बड़े-बड़े यानपात्र विचलित हो उठते हैं, जो जलघरोंसे भयंकर है, ऐसे समुद्र में भी जिनवरका स्मरण करनेवाले कभी नहीं डूबते।
घता-शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। वर्षा भी अच्छी और दिन भी अच्छा रहता है। जिनका स्मरण करनेसे तलवार भी परागवाले कमलकी तरह हो जाती है ||११||
१२ वह राजा आगसे अक्षत शरीर निकल आया। वह स्वर्णपिण्डके समान ऐसा शोभित है। वह राजहंस शिलातलपर बैठ गया मानो कमलिनी दलमें राजहंस हो। उस नगरीमें अतिबल नामका विद्यापर रहता है जो विद्यावलसे सामथ्यवाला है। उसकी चित्रसेना नामको दुराचारिणी स्त्री ऐसी थी मानो कामदेवकी सेना हो। जिसके मुखरूपी कुहरसे कठोर अक्षर निकल रहे हैं ऐसे विद्याधर पतिने उस स्वेच्छाचारिणी पत्नीको रातमें डॉटा । वह उस मरघटमें आयी । उसने राजा श्रीपालको आगके मुंहसे निकलते देखा। उसने विचार किया कि विजयलक्ष्मीके घर इस राजाका शरीर इस आगमें जो नहीं जला तो इसके लिए कोई कारण होना चाहिए। अथवा इस कारणका विचार करनेसे क्या? यह विचारकर वह पापी महिला कुतूहलसे उस आगमें घुस गयी। जिसकी सर्वोषधिसे शक्ति आहत हो गयी है ऐसो ज्वालाओंको धारण करने वाली उस विशाल आगसे वह जली नहीं। वह निकलकर उस राजा श्रीपालके पास आकर बैठ गयी। तब मरघटके निवासमें विद्याधर अतिबल आया और अपनी पत्लोके चरणतलपर गिर पड़ा, और बोला कि मैं मूर्ख बुद्धि दुष्टों द्वारा ठगा गया 1 हे प्रिय ! आओ, हम घर चलें । तब कारणका विचारकर वह धूर्त बोली ।
पत्ता-अपने भाइयोंको बुलाओ, मैं दीप धारण करके जाऊँगी। क्योंकि असतीत्वके मलसे मैली मैं ( बदनाम ) होकर कब तक रहूँगी ॥१२॥
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३५२
महापुराण
[ ३३. १३.१
१३ ता महिलारइरसेवेभलेण मेलाविय बंधव अश्वलेण। उचिट्ठी सइरिणि धगधगति हुयेवहि दूसहि विद्वत्यति । सा तेण व दड्डी कह वि केम मायावि णि वेस जडेण सेम । वंदिय लोएण महासईहि ह्य सिदि सीयलु सुखमईहि । दुचारिणिवरित णियच्छमाणु पवियप्पा रिउमहिमह किसाणु । जिगवसीलु को संपयाइ पारद्धिर को सेविउ द्याइ। भणु सौसिट रायपंसार कासु सघरत्थु विकणे सहा हयास। बसणेण ण किउ को जगि णिरत्थु असईयणे वंचिड को ण पत्थु । पत्ता-अविवंचिणारीहिं महियलि को वि ण यसइ ।
भरहपुप्फतेहिं पेच्छे उ जणु जिह रुच ॥१३॥
इस महापुराणे तिसद्विमहापुरिसाणामकारे महाकापुप्फयंत विरहए महामन्बमरहाणुमषिणए महाकाव्ये विबाहरीमायापवंचणो णाम तेतीसमो परिच्छेभो समतो ॥ १५ ॥
संधि ।। ३३॥
१३. १. MB °रसविभलेण । २. MB हुयवहदूसहि विद्धत्यति। ३. MB कहि । ४. MB विडेण ।
५. MB णिगंथ सील । ६. MB सासत । ७. M पसाय । ८. MB | १. MB जगि को। 10. MB अविचिस । ११. Mपेन्हिाउ ।
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३३. १३.१०] हित्वो अनुवाद
३१३ मार्गदर्शक :- आता श्री दुनिशिसारी हाराल
तब स्त्रीप्रेमके रससे व्याकुल अतिबल विद्याधरने माइयोंको एकत्रित किया। वह स्वेच्छाचारिणी अन्धकारको नष्ट करनेवाली धक-धक जलती हुई उस आगमें प्रविष्ट हुई। उस आगमें वह उसी प्रकार नहीं जलो, जिस प्रकार मुर्खके द्वारा मायाविनी वेश्या दग्ध नहीं होती। लोगोंने उसकी धन्दना की । शुद्धमतिवाली इस महासतीके लिए आग ठण्डो हो गयो। उस दुश्चारिणोके चरित्रको देखने वाला वह कुमार जो कि शत्रुरूपी वृक्षोंके लिए कृशानु ( आग है), विचार करता है। गर्वहीन शीलको कौन सम्पादित कर सकता है ? कौन शिकारी दयासे सेवित हो सकता है ? बताओ कि राजाका प्रगाद हमेशा किसे मिलता है। घरकी भाग किसे नहीं जलाती है । व्यसनसे संसारमें को व्यर्थ नहीं हुभा । असतीजनसे संसारमें कौन वंचित नहीं हुआ।
घता-इस धरतीपर नारियोंसे वंचित नहीं होते हुए कोई नहीं बचा। भरत और पुष्पदन्त दोनोंने देखा कि लोगोंको क्या अच्छा लगता है ॥१३॥
इस प्रकार प्रेसर महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभष्य भरत द्वारा अनुमत इस काम्यका विद्याभरीमाया
प्रवचन मामा सेतीसवाँ अध्याय समास हुआ ॥१३॥
२-४५
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संधि ३४
सा कपडपइन्वइय आलुचियवय णियपियभवणि पइट्ठी ।। कामिणिमणहार तहि जि कुमारं कणपिसल्लिय दिवी ॥ ध्रुव ।।
जियसत्तु विमलमइ देविसुय कमलवइ णाम सोहगगजुय | विज्जासंसाहणि गहगहिर आणिय पिउवणु ससयणि महिय । जियरिउणा सुंदर पत्थियल इह तिहुयणि जो जो दुत्थियउ | वहु तहु तुहुं बंधव॑ देहि सय महु तणयहि करहि सणाक्रिय । ता तरुण मंतवसिनियहि पिसउल्लव पुसित पिसल्लियहि । अवरोप्परु हियवउँ ढोइयर्ड दोहिं वि अहिलासें जोइय! ईसाक्सेण हसिवि वरहो गय झ त्ति मुहावइ णियघरहो। बुज्झिउ परणाई चकवई
आणिउ णियभवणहु मुवणवइ । धत्ता-पुजिशिवरादि शशिकिरायलास्निगलियान
तेहिं वि पृय मुद्धहि रुवालुद्धहि गियणियमणि संणिहियाउ ।।१।।
मा चदमुह
ससुरेण ऋणि भो चंदमुह कीरइ विवाहकल्लाणु तुह । तेण वि तहु वयणु पलोइयर हिय उल्लउँ बंधुविओइयउं । हे माम साम मई णेहि तहि वसुपालु सहोयरु वसइ जहिं । तह मिलिवि धरमि कर सुंदरिहि सुरणरणयणंतरंगहरिहि । तं णिसुणिवि सञ्जष्णमणु मुणिर्ड जियसत्तं सैलिल सेणु भणि उ | सुंदर लएचि बढुसोक्खयरि लहु जाहि पुंडरिकिणिणयरि ।
ता सुइल लएप्पिणु भमियगद्दे गर वारिसेणु वारिहरवहे। MB givo, at the commencement of this Samdhi, the following stanza --
तौवापदिवसेषु नन्धरहितेनैकेन तेजस्विना संतानकमतो गतापि हि रमा कृष्टा प्रभोः सेवया। यस्थाचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पद
मोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कालो सांप्रतम् ।। GK do not give it. १. १. MB पव्वय । २. MB बंघउ । ३. MB सिय । ४. MR किय । ५. MB भुवणहु । ६. MB __ पिय । ७. MB सुधु विमुर्हिः 13 सुषिमुहि । २. १. 13 वसुवालु । २. M13 क्रियरात्तु । ३. M सलिलासणु ! ४. HB तुहुँ । ५. MB भणिय गहे ।
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श्री की
सन्धि ३४
नियमोंका त्याग करनेवाली वह मायाविनो पतिव्रता अपने प्रियके भवनमें प्रविष्ट हुई। वहीं पर कामिनियों के लिए सुन्दर कुमारने एक कन्या देखी, जिसे 'भूत' लगा हुआ था ।
१
जितशत्रु और विमलावती देवीकी कमलावती नामकी सौभाग्य से युक्त कन्या थी । विद्यासिद्धि करते समय वह 'भूत' से ग्रस्त हो गयी। अपनी बहनों में आदरणीय उसे मरघट ले आया । जितशत्रुने सुन्दर कुमारसे प्रार्थना की कि इस त्रिभुवनमें जो-जो दुःस्थित है, पीड़ित है। उसके लिए आप बन्धु हो । आप इतनी श्री दो, और मेरी लड़की के स्वामी बनने की कृपा करो। तब कुमारने मन्त्रोंसे वशीभूत पिशाचीसे ग्रसित कन्याका पिशाच दूर कर दिया। दोनोंने अपना हृदय एक दूसरे को दे दिया। अभिलाषा के साथ दोनोंने एक-दूसरेको देखा। ईर्ष्यावश कुमारसे अप्रसन्न होकर सुखावती अपने घर चली गयो । राजाने समझ लिया कि यह चक्रवर्ती है और उस विश्वपतिको अपने घर ले आया ।
घत्ता -- लोगों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाले मणिहारोंसे उसकी पूजा कर राजाने कन्याओं को अन्धपुरमें रख दिया । रूपकी लोभी उन मुग्धामोंने अपने-अपने मन में उसे प्रियरूप में स्थापित कर लिया ||१||
२
ससुरने कहा कि हे चन्द्रमुख, तुम विवाह कर लो। उसने भी उसका वचन देखा, उसका मुख देखा और कहा कि मेरा हृदय बन्धु-वियोगसे दुःखी है। हे ससुर ! इसलिए आप मुझे वहाँ ले arry कि जहाँ मेरा भाई वसुपाल रहता है। उससे मिलकर में देवता और मनुष्योंके नेत्रों तथा हृदयको चुरानेवाली इस सुन्दरीका हाथ पकड़ेगा। यह सुनकर सज्जन मन जितशत्रुने वारिसेनसे कहा कि इस सुन्दर कुमारको लेकर तुम अनेक सुखों को करनेवाली पुण्डरीकिणी नगरीकी और शोघ्र जाबो । तब उस सुभगको लेकर जिसमें ग्रह घूम रहे हैं, ऐसे आकाशपथ से
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३५६
४. २.८
httpet महापुराणी वि . जी. णिसि णिवा लिसइ सोसियवयणु पत्तउ विमललमसुंगतणु । जलु जोयहुं चलित खगाहिवह जा विढि कमलवाविहि घिवइ । ता सुक णिरिक्खिय तेण कि पिण्णेह विलासिणिकील जिह। पत्ता-दृसियंदेहुण्डाइ लइयड तण्डा धायझलकारीणठ॥
वसत्तच्छयतलि खगकोलाइलि जहिं अच्छइ आसीणउ ||२||
विजाहरेण मासासियउ सहि जायवि पढ़ संभासियत । आइिंडिवि देव असेसु वणु मा बीहि आणवि सिसिरु वणु । इय मणिवि वेयवाहिणि सरिया गड दिट्ट तेण पाणियभरियाँ। अइअविहयह रिणुतणियहि अणुहरिय सा वि मायण्हियहि । रायाहिराय दलियावह सोसिय कण्णाइ सुहावईइ । पिड जाइवि मालइ साडियस तहाफिलेसु णिद्धाडियर। अलहंतु सलिलु विडवुभाहु आयउ सरसेणु सरीयडहु । छण्णइ कण्णइ बोझावियर तुई केण इप्प बेहादिय:। किं पाविजा घरु रमणु पई जजाहि तुरिउ भणिओ सि मई। एयहु रिज दुञ्जय अस्थि जइ मा करहि विच अहिमाणमइ । सं णिसुणिवि सो पझट्ट पर णिविसेण पराइउ णिययघरु । सयणई संबंधु समासियत श्वाविजलोहर सोसियउ। सई पुहरिंदु परिग्गदिड । हङ एन्धु कुमारिए "संपहिउ"। पत्ता-तहि तणियइ मौलिइ चलभसैलालिङ पहु छुइ तण्डु ण पावइ ।।
जसु घरिणि सुहावह हियवउ रावइ तासु दुक्खु कहिं आवइ ॥३॥
६. M दूणिय । ३. १. MB आणउ । २. MB सरिय । ३. भरिय । ४. MB हरिणु व वण्डियहि । ५. MB वियडमउद्धः
I विडम्भबहु । . MB add after this the couplet :
पत्ता-खरतावविभोसें गिभविसेसें कच्छवमच्छवहा॥
असिलदिव दीसा कि किर सीसह णिण्णाणिय ण हई ॥१॥ and number the कवक as 3 and subsequert कढतकs as 4 etc., upto 13 | ७. MB रमण । ८. M णिवसेण; B णिमिसेण । ९. MB णयवावि । १०. MB संपिहिज । ११. MB add after this the following three linus : हरिणुल्लज वहइ ससंकु जल, संजणा सविंबर तेण मल, महससहरु मिगणयणबहार, अपपंत जाहि पोढिम वहः कय उत्तिम जासु वियवखणिय, अहिंदीसह तह जि सलबलणिय । १२. MB माला: K मालिक but correcta it to मालइ। १३. MBK "भसलालह। १४. M किं।
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२४.३.१५] हिन्दी अनुवाद
३५७ वारिसेन ले गया। रात्रि राजाका मुख प्याससे सूख गया। वह विमलपुर नगरको ऊंचाईपर पहुंचा। विद्याधर राजा पानी देखने वला और जैसे ही उसने कमल वापिकापर दृष्टि डाली वैसे हो उसे उसी प्रकार सूखा देखा जिस प्रकार कि विलासी वेश्याको स्नेहहीन क्रीड़ा हो।
पत्ता-असह्य शरीरको उष्णतावाली, प्याससे सन्तप्त तथा दोड़नेके आवेगसे प्रान्त कुमार 'श्रीपाल' सप्तपर्णी के पत्तोंके नीचे पक्षियोंके कोलाहलके बीच जब बैठा हुआ था ||२||
वहाँ विद्याधरने जाकर उसे आश्वासन दिया और कहा कि हे देव! तुम रो मत मैं शीतल जल लेकर आता हूँ। यह कहकर बह गया, और उसने वेगसे बहनेवाली पानीसे भरी हुई नदी देखी। लेकिन वह नदी भी, जिसने हरिणोंके लिए अत्यन्त वितृष्णा सत्पन्न कर दी है, ऐसी मुगमरीचिकाके समान दिखाई दो। राजाधिराज राजा श्रीपालको मापत्तियोंका दलन करनेवाली सुखावती कन्याने उस नदोको सुखा दिया। उसने जाकर प्रियको मालतीकी मालासे ताड़ित किया और उसके प्यासको पीडाको नष्ट कर दिया। विकट और उद्भट नदी तटसे पानी न पाकर वारिसेन लौट आया। तब प्रच्छन्न कन्या (सुखावती) बोली-तुम बेचारे किसके
प्रवेचित हए हो, तुम अपने सुन्दर घरको किस प्रकार पा सकते हो. तम फौरन पले जामो मैंने कह दिया । इसका शत्रु यदि अजेय है, तो तुम व्यर्थ अपने चित्तमें अभिमान बुद्धि मत करो। यह सुनकर वारिसेन लोट पड़ा और पलमात्रमें अपने घर आ गया। थोड़ेमें उसने अपने लोगों और बन्धुओंको बता दिया कि किस प्रकार बावड़ो और नवीका जलसमूह कुमारीने सोख लिया और स्वयं पृथ्वीनरेश ( श्रीपाल ) को ग्रहण कर लिया है, और मुझे यहाँ भेज दिया है।
पत्ता-उसकी पंधल भ्रमरोंसे सुन्दर मालतीसे राजाको भूख और प्यास नहीं लगती। जिसकी गहिणी सुखायती हृदयको रजित करती हो, उसे आपत्ति कहाँसे आ सकती है ? ||शा
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५
१०
५
३५८
महापुराण
४
कण्णइ तिजगु वि उच्छल्लियउ । सात् पहु सुद्दा हि । रणा रहूँ उठिय ६४ कुसुमहिं मायाखुज्जियइ । गणपति किं वम्महद्दु । हिंसण समुल्लिय | कण्णासरूप वहु णिम्भविउ । संचियसंसयसंमूढमइ । विणु सुद्द पुणु हि संभविष्ठ ।
तं पिसुगिविसयहं बोलिय सिरिपोल कल्पतरुवरइद्दि एत्तहिणंदणवणि संडियट सुमरंतु सहायह दुजियइ चितइ कुमार मुणिमणमह हु पैइरत्तड़ पुव बहुल्लिय लवणमाणमा मषि चिंत चियालु सुबणवश् ag hr कुमाfing ofविड धत्ता--तुं कुले पिएप्पिणु सहित अहर्णे असा ॥ णियगोस दिवायर बिण्णि वि भायर विनोहर सहु लग्गा ||४||
एकहि भिसिणिहि दो इंसवर जड़ होंति होंतु ण घड अवक raft aour किं विष्णि जण इतर पारंभियव सिरिधूमवेयहरिवाहण अंतरि गरुवार भाइ थिउ मित्तत्तणु विड बंधवाई इ भणिवि णिवारिय बे विवर रुपयरह्ररायडु तष्णवं घट रोयं तहिं चार वियप्पियव
५
एकहि किसकलियहि दो भमर । सरु संबिंधन कुसुमसर | करहिं माणंति थण । चिद्दि विणिसुंभियउ । अरोप कपिणहूं । विद्दि पेम्मणिबंधु रद्दु किल । किं पुण इह अवरहं अहिणवहं । जैक्खयकरवालकरालकर । नियमायाकुयरिषत्तुंग सिद्ध । तणयाहरि सिविक समप्पियच ।
घत्ता – जुत्रयणमणघोरिहि भणिउँ कुमारिहि रह कासु कि आइय || वा पीवरथणिय खर्गवामणियइ विहसिवि वृत्त निवेदय ||५||
हमा सामिणी महंगुणेद्दि जुचिया एत्थ काम लंपडेण वेयरेण आणिया हारो रैभूसियंगि तारतंबणेशिया
६
[ २४.४. १
पुंडेरिंगिणीपुरीण रात्रिस्स पुत्तिया । भूपसिद्ध मुद्ध भूमिगोयरी वियाणिया । बंपर ण भाउमाविओोयतत्तिया ।
४. १. MB सिरियाल । २. MB परत कामगहिस्लियद्द, ता पहसिवि पुत्रवहल्लिय६ । ३. M सिंचियसंपय ं; ¤ संचियसंपय; T संधिपं । ४. MB | ५. B विज्जाहर
O
५. १. MB रहसेण पवाहियावाहनहं । २. MB उपायसुकरालकिवाणकर । ३. M कुर्यारत तुंगसिंह । B कुवरिउत्तुंगसिर । ४. B राय तह चाय समप्पिय । ५. B सबद । ६ MB खगकामिणिय | ६. १. MB पुंडरिकिणीं । २. MB "भूसियंग |
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हत्या अमुवाद
यह सुनकर स्वजनोंने कहा कि इस लड़कोने तो तोन लोकोंको उछाल दिया है। श्रीपालरूपी कल्पवृक्ष जिसका पति है, ऐसी सुखावतोने अपनी सामथ्र्यका डंका बजा दिया है। यहांपर नन्दनवनमें स्थित वारिसेनके लिए राजा उत्कण्ठित हो उठा। सहायताका स्मरण करते हुए उसे उस दुर्जेय मायाकी कुठाने फूलोंसे आहत कर दिया। वह कुमार अपने मनमें सोचता है कि क्या मनिमनका नाश करनेवाले कामदेवके ये तीर पर रहे हैं। पतिमें अनुरक्त पूर्वको वयमें अदृश्य रूपसे युक्त उसका ( श्रीपालका ) लक्षण और प्रमाणसे युक्त कन्या स्वरूप बना दिया । जिसकी मति संचित संशयसे मूढ़ है, ऐसा चिन्ताकुल वह भुवनपति अपने मनमें सोचता है कि मेरा यह कन्या रूप किसने बना दिया ? बिना अंगूठोके यह दुबारा कैसे सम्भव हुआ।
पत्ता-उसके उस रूपको देखकर और महिला समझकर, असह्य कामवेदनासे नष्ट (भग्न) अपने-अपने गोत्रोंके दिवाकर दोनों विद्याधर भाई उसके पोछे लग गये ।
एक कमलिनी लेकिन उसके लिए दो-दो हंस, एक दुबली-पतली कली उसके लिए दो-दो अमर यदि होते हैं तो यह होना घटित नहीं होता। केवल कामदेव वेधता है। और सर सन्धान करता है। क्या दो-दो आदमी एक तरुणीके स्तनोंका अपने कोमल करतलोंसे आनन्द ले सकते हैं। यह विचारकर उन्होंने युद्ध प्रारम्भ किया। दोनोंने सजनताका नाश कर दिया। एकदूसरेके ऊपर जिन्होंने अपने शस्त्रका प्रहार किया है ऐसे उन विद्याधरोंके बीच में बड़ा भाई आकर स्थित हो गया और बोला कि (दोनोंने प्रेम सम्बन्धको भयंकर बना लिया इससे भाइयोंको मित्रता विघटित होती है। फिर दूसरे नये लोगोंका क्या होगा?) यह कहकर उसने अपने हायमें भयंकर तलवार उठाये हुए उन लोगोंको मना किया। तब वह माया कुमारी, जिसका उत्तंग शिखर ऐसे अपने विजया पर्वतवाले घरपर उसे ले गयी। रागसे उसने उसे सुन्दर समझा और तृणको सेजपर उसे निवास दिया।
पत्ता-युवजनके मनको चुरानेवाली उस कुमारीसे कहा कि यह किसकी है और क्यों आयो है ? तब पोन स्तनोवाली उस विद्याधर स्त्रीने हंसकर यह बात निवेदित की ||५||
हे स्वामिनी, यह अनेक गुणों से युक्त पुण्डरी किणी नगरीके राजाकी लड़की है। कामसे लम्पट विद्याधरके द्वारा धरतीमें प्रसिद्ध भोली पण्डित यह मानविका कन्या यहां लायी गयी है। स्वच्छ और लाल आँखोंवालो हारडोरसे विभूषित शरीरवाली यह भाई और माताके वियोगसे
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३६०
महापुराण
। ३४.६.४ ताम जक्खदेवएण दहिमा वियारिया लच्छिवाल चकवट्टि पस जो कुमारिया। खुजिया वि खेयरी सुहावई सुईकरो ता रइपहाइ भासिया इणं मणोहरी। दक्खवेहि वह विलासभासियाण संगई सूहवं समापिणी अदीणमाणणिग्गह। तं मुणेवि सुंदरीइ पणलंछणाणणो रूवि वम्महो गहीररायरिद्धिमाणणो । मंतिऊण चिंतिऊण विश्वमंतर्सगर्म दूसिऊण णासिऊण णारिरूवविन्मभं । दंसिओ वहुल्लियाण पुंडरिंकिणीवई तं पलोइऊण ताण पट्टिया मणे रई । का वि कामसल्लिया महीयले णिवाइया का वि णीससंसिया वयंसियाहि जोइया। पारंवसोणिया सहोयणस्स लजिया का वि मुच्छिया चलंतचामरेहिं विजिया । वत्ता-इय कणयंतेउरु पेफछंतर वरु मयणे चप्पहि थवियउ ।।
भिचाहि जाएपिणु पणड करेपिणु पुररायहु विष्णवियउ॥क्षा
जा तरुणी बाला लाइ थचिय सा अम्हई खुइ दक्ख थिय । सामुपण मला र सिरियाणाम रायाहिषइ । ता खयरकुमार वीरपवर धाइय अणंत इच्छियसवर। असिकणयकोतविप्फुरियदिस वग्गिय ममिगयसंगाममिस । सुंदरु पेक्खिवि उपसेत किह जिणणाहु णिहालवि भव्य जिह । सहि समय खगिंदु पराइयट जामा सिणेहें जोइय। जाणिउ परमेसर चक्कबह संतोसिउ विज्ञाहरणिव। संमाणित कंकणकुंडलेहि
वरहारदोरमणिउचलेहिं। लियसाहबजयसिरिलपडेहि हरिवाहणधूमवेयभडेहि। चिंतिउ दोहि पि समेहलाहिं अम्हहिं किं कियर समेहलहिं । धत्ता-सिउ कण्णारूवें मायामा रिउ पड संघारिख ।
गये विज पणासिषि गुणगणु दूसित्रि अप्पड पर वेयारिउ ॥॥
गयदिणि जे अम्हहिं कलहियउ खगणाहे णेवरु पुग्छिथउ पुणरवि संजायर पुरिसु जिह तं णिसुणिवि तेण समासियठ
त केण वि कहिं मिण सेलहियउ । तुहं महिलायार णियछिछयः । विचंतु असेसु वि कहाहि तिह। बालासामथाइ विलसियर |
३. MB विलासहाससंगह। ४. M समाणमाणिणीए माणणिग्गह; T अदीण । ५. MBK सुणेवि ।
६. MB सब । ७. MBK add का वि before this | ७. १. MB जखह । २. MB इनिछ्यसभर । ३. MB समाझ्यउ । ४, M सणेहें जोश्यर; B सणेहें
पुज्जियउ । ५. MB तियसाहिए । ६. MB गय बज्जेवि णासिवि । ८. १. M सालहिय; B मलहियउ। २. MB णरवक। ३. B पुरिस । ४, BM कहिच । ५. MB
"सामत्यु पविलसिया
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+
1
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1
३४.८४]
हिन्दी अनुवाद
३६१
दुःखी होकर बोलती नहीं। तब यक्षदेवने उसके बुढ़ापेको नष्ट कर दिया। ये चक्रवर्ती लक्ष्मी श्रीपाल और ये तो कुमारियाँ हैं । कुब्जा, विद्याधरी, सुखावती भी सुन्दर हो गयीं तब रतिप्रभा यादि भो कन्याओंने यह सुन्दर बात कही कि हजारों विलासोंसे युक्त दोनोंके भावोंका निग्रह करनेवाले सुन्दर प्रियको हे मानवीय हमें दिखाइए। यह विचार कर सुन्दरीने चन्द्रमाके समान मुखवाले तथा रूपमें कामदेवके समान गम्भीर रागऋद्धिका उपभोग करनेवाले उस राजाको घोरे-धीरे दिव्य-चिन्तन और रूपके विभ्रमको नष्ट कर, उस पुण्डरीकिणीका राजा श्रीपाल बन्धुओं को दिखा दिया। उसे देखकर उनके मन में रति उत्पन्न हो गयी । कोई-कोई कामसे पीड़ित होकर धरती पर गिर पड़ी, कोई निःश्वास लेती सखी द्वारा देखो गयी। कोई शुक्रके पतनसे सखीजनों द्वारा लजायी गयो । किसी मूच्छितपर हिलते हुए चँवरोंसे हवा की गयी ।
धत्ता - इस प्रकार कन्या के अन्तःपुरको देखते हुए कामने वरको खोटे मार्गपर स्थापित काहिसा । अनुसरोंने बाहर करते हुए नगरके राजासे जाकर कहा ||६||
जो युवतो वाला यहाँ रखी गयी है, जिसे उस कुब्जाने हमें दिखाया है वह हंसगामिनी कन्या नहीं है। अपितु श्रीपाल नामका राजा है। तब युद्धकी इच्छा रखनेवाले अनेक वीर और प्रबल विद्याधर कुमार दौड़े। अपनी तलवारों और कनक तोपोंसे दिशाओं को आलोकित करनेवाले तथा युद्धका बहाना चाहते हुए वे भड़क उठे। लेकिन उस सुन्दर कुमारको देखकर वे वैसे ही शान्त हो गये जैसे जिन भगवान्को देखकर भव्य लोग शान्त हो जाते हैं। उस समय विद्याघर राजा आया और बड़े स्नेहसे उसने जंवाईको देखा। उसने समझ लिया कि ये परमेश्वर चक्रवर्ती हैं, विद्याधर राजा सन्तुष्ट हो गया। उसने कंगन कुण्डलसे सम्मान किया। बड़े-बड़े हार-डोर मणियोंसे उज्ज्वल तथा देव संग्रामको विजयश्री के लिए लम्पट तथा हरिवाहन तथा देव धूमवेग दोनों योद्धाओंने विचार किया कि मेखला धारण करनेवाले तथा शान्त भावकी इच्छा रखनेवाले हम लोगोंने यह क्या किया ।
घता -- कपटी मायावी कन्या रूपमें युद्धमें स्थित शत्रुको भी हमने नहीं मारा। इसका नतीजा क्या हुआ ? विद्या नष्ट होकर चली गयी और गुणगणको दूषित कर हमने केवल अपनेको नष्ट किया ||७||
፡
गत दिन हम लोगोंने जो कलह किया, उसकी कहीं भी किसीने सराहना नहीं की । उस विद्याधर राजाने नरवरसे पूछा कि तुमको महिला रूपमें देखा था, फिर तुम जिस तरह इस पुरुष रूपमें हो गये वह समस्त वृत्तान्त कहिए । तब उसने संक्षेपमें कहा कि यह सब इस कन्या की
२-४६
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[३४.८५
महापुराण गत विज्जावइ णियमविरह णिइंगि रमिय तह सुंदरह। सुईसुसु जि खयरिहिं हरवि णिव भणु कामु ण रुचर प्राणप्रिउ । गुलेखदु रसावणु जेरिस सुहयह सुइवत्तणु तेरिस । किं वष्णमि दियणमुहियन णिज्जवह तोसुण्णिदियाउ । मुह तामरसु व आयाससरि दीसह वियसिउ पवलंबुहरि । अगगरुयल गयणु विरोइयष अरइंतु व तेण पलोइयज । घचा-पुणु णियसीमंतिणि तंतिणि "मंतिणि दितिय तेण सुहावइ ।।
पई विणु मणहारिए वैवि भडारिए को रक्स्थाइ महु आवइ ॥८॥
.."
37
138
हर्ष णिम्वि लम्गर केण कहिं किं जीवमि किं ध्र मरमि जहिं । रवियरपजालियमठहमणि तां पयड परिद्विय पाइरमणि । पभणइ किं जूरहि पुरिसहरि ओहमछमि हडं तुह विहुरहरि । जं भणसि तं जिरेला करमि......... पलयकवि गायणि जंतु धरमि । कमलवाहि विण्णा दिदि जाई ईसाइ इस मुद्यो सि तहिं । कपणाकारणे पुण वि मई बिरहें जलिय जोयंतु पई । सचाइविणेतु णिहेलण
हरिसेण करंतु व मेलणजे । इई णिविसु पि पिययम जइ मुवमि तो किं णिसि णिहइ सुई सुअमि। पत्ता-इह जणवा खलसंकुलि कयरणकलयलि अण्णु ण णयणहिं पेक्वमि ॥
विहादिवसरीरी होइवि धीरी पई वि भडारा रक्खमि ।।९।।
वल्लहतरंगंगफंपणं
एम जाम जायं पर्यपणं। माणिमाणवित्थारमंथर्ण सित्पंथसंणिहियमागणं । जाणिऊण मयणं खल. वर्ण सुंदरीहिं विहियं खलंघणं । णहधरित्तिदिन्भित्तिलग्गओ 'ताम भीमसहो समुग्गओ।। सिहरिकुहरहरिणा वि णिग्गया भयवसेण दूरं गया गया। शाणमेव महमुणिहिं जंजिर्य सकलुस मईदेहिं हंजियं। पडिय विडवि कुड़ियं रसायळं घुलिय महियले भीरुभभलं । रूवरिद्विणिजियसईई
संफिया मणे सा सुहाबई। दुट्टिपुट्ठिकल्लाणदाणा
गयणपंगणस्येण राहणा। सई णिरिक्खिओ सुरहिपरिमलो फरवगलियओहलियमयजलो। ६. B सुहसुत्त टु जि । ७. MB पाणपिउ; K प्राणिप्रिल 1 ८. Bखंड । ९. MBT तासु विणिर्णायन ।
१०. B मुह सामरसु । ११. MB मिरासत । १२. मिसिणि; T मंतिणि । ९. १, BM. णिज्जामि । २. MB घर । २. MB तो। ४. ट्रादितिसरीरी। ५. MB इंजि। १०.१. MBT सिंथपंथ; K सिंडपंप । २. MB महिउलं। ३. MB भीह भले । ४. MB अविहलिय ।
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२४.१०.१०]
हिन्दी अनुवाद सामर्थ्यस घटित हुआ। विद्याधर राजा अपने घर गया । और उस कुमारके शरीरसे नींद रमण करने लगी। सुखसे सोते हुए उसे विद्यारियां उड़ाकर ले गयीं। बतामो कि अपना प्रिय किसे अच्छा नहीं लगता 1 मुड़ और रसायन जैसे मीठे लगते हैं। ले जाते हुए मैं क्या वर्णन करूं? त्रिभुवनको प्रसन्न करनेवाला वह उठ गया। चंचल मेघोंको धारण करनेवाली आकाशरूपी नदीमें उसका मुख खिले हुए रक्त कमलकी तरह दिखता है। जगमें श्रेष्ठ, महान् शोभित आकाशको उसने अनन्त भगवान्की तरह देखा।
पत्ता--फिर उसने तन्त्र-मन्त्रवाली अपनी स्त्री सुखावतीका ध्यान किया। हे सुन्दरौ! देवो आदरणीया !! तुम्हारे बिना इस आपत्ति में मेरी कोन रसा करता है ।1८॥
में किसी के द्वारा कहीं ले जाया जा रहा हूँ। यहाँ में जीवित रहूँगा या मर जाऊँगा । यहां में यह नहीं पाहा माकता। तुल, जिसका मुक्तट मणि सूर्यसे प्रज्वलित है ऐसी विद्याधर स्त्री प्रकट हुई और बोली-हे पुरुषश्रेष्ठ, तुम्हारे कष्टोंको दूर करनेवालो तुम्हारी मैं यहां स्थित है। तुम जो कहते हो उसे मैं अनायास कर देती है। मैं आकाशमें जाते हुए प्रलयके सूर्यको भी पकड़ सकती हूं। कमलावतीके लिए तुमने जब अपनो दृष्टि दी थो तब ही ईर्ष्या कारण हे स्वामी ! कन्याको दयासे तुम्हें विरहमें जलते हुए देखकर अपने घर ले जाते हुए और हर्षसे मिलते हुए हे प्रियतम, तुम्हें यदि में एक पल के लिए भी छोड़ती हैं तो क्या मैं रातको सुखसे सो सकती हूँ।
घत्ता-दुष्टोंसे व्याप्त तथा जिसमें पुडके लिए कोलाहल किया जा रहा है ऐसे जनपदमें, 'मैं किसी दूसरेको अपनी आँखोंसे न देखूगी और दृष्टिसे अदृश्य शरीर होकर धैर्य धारण करते हुए मैं हे आदरणीय ! तुम्हारी रक्षा करूंगी ।।९।।
१०
जबतक प्रियके अन्तरंग अंगको कपानेवाली यह बातचीत हुई। तबतक जिसने अपनी प्रत्यंचापर तीर चढ़ा लिये हैं तथा जो माननीय स्त्रीके माननीय विस्तारको नष्ट करनेवाला है ऐसे दुष्ट मेधको कामदेव जानकर सुन्दरियोंने आकाशका उल्लंघन कर लिया। इतनेमें नभ और धरती तथा दिशारूपी दिवालोंको हिलानेवाला भयंकर शब्द उत्पन्न हुआ। गज पहाड़को गुफामें रहनेवाले हरिणोंके समान भयके कारण दूर चले गये। महामुनिने अपना ध्यान केन्द्रित कर लिया । मृगेन्द्रोंने क्रोधके साथ गर्जना को। वृक्ष गिर पड़े। रसातल फूट गया और भयसे विहुल भूमितल हिल गया। तब अपनी रुचि ऋद्धिसे इन्द्राणीको जीतनेवाली सुखावतीको मनमें शंका हुई। पुष्टि और कल्याणको देने वाले आकाशके आँगनमें स्थित राजा घोपालने स्वयं देखा। एक हाथी जो सुरभित गन्धवाला था, जिसकी सूइसे अविकलित मदको जलधारा बह रही थी, जिस
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१५
५
१०
३६४
क
लुलियवेलियपडिवलिय अलिलो यियधव लिमाधोयणहयलो सोयरंभसिंचिय दिसाणणो पंचदंड देहुओ लंबाच कण्णपल्लवो संबु तालु
म्हणो
छिरम सिरिपालु घाइओ पत्ता - परिवक्वविमारणु पेक्खित्रि वारणु रायहु हरि ण माइड || णं विलसिलाल हरिवरु सेलहु गलगजंतु पधाइ ॥ १० ॥
श्री सुि
सर
दातु दंत करु करि घिवइ yas लेपि दम चरण बिहू सणहू चलु उचरणंतरि पइसरह लंच आसंघ कुंभलु सदिसि विडिइ कुंजरहु निम्मर गहीरसरेण सह आकुंचियत चणकुसलु बलिया बलेण निम्बू ढबलु
महापुराण
मरेद्दासोहापरियरिज तं 'गयण कुसुमणियर घुलि जाणेपिणु पुण्णपुरि पवरु करिणा सुंदर कंधरि थविठ शिव तहिं जहिं अच्छइ खयरवइ
चरणचप्पणो णवियमहियलो । बलविरुद्ध भारिमयगलो | घडविणद्दिलिय काणणो । ताण दूर्ण परिहासोहओ । दाट्टो महारो । केलास सच्छो । भद्दत्थि गेणे पलोइओ ।
आलिंगह सःयंगई छिवर । पुणु के पास भ्रमइ । eyers for कामिणिजणहु । इक हुंकार णीसरइ | पावई पुच्छ्प्पल वच्छयलु । विजुजु जलहरहु । ன் रंतु घरे करेण करु | अकमिव क्रमेण दसणमुसलु । जुप्पिणु सुरु मतबलु ।
घत्ता-सो करिमय णित्रभर लीलामंथर गरणा संभाइ ॥ मंदमहिहरु सुयदंडहिं] उचाइ ॥ ११ ॥
णं किं
१२
जं जुज्झि वि दंति तेण धरिष्ठ । गुरुरुहुलिचव । परिहरिवि सुषणभीरु समरु | विजाहर किंकरेहिं वि । सो पण पुलयपसण्णमइ ।
[१४.१०.११
。
५. MB बलियपयपडियं । ६. MBKT परिणाहं । ७ MB लंबतालु पायं । ८. MB चित्रक ९. MB छिरमणे सिरिय धाइयो । १०. MB गयणे ।
११. १. MB षणु । २. MB घुक्क । ३. B चउदिसिहि । ४. MB ब । ५. Mतणु धारणकुसलु । ६. M मंद
Baधरधरण
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३४. १२.५]
हिन्दी अनुवाद पर चंचल भ्रमर समूह आ-जा रहा था, जो चरणों से चापनेवाला और धरतीको भुकानेवाला था, जिसने अपनी धवलतासे आकाशको धवलित कर दिया था। जिसने अपने बलसे ऐरावत हायोंकी क्रुद्ध कर दिया है, जो शीतल मदजल बिन्दुसे दिशामुखको सींच रहा है, जिसने अपने चार दांतोंसे जंगलको उजाड़ दिया है। जो पंचदन्त ऊंचे शरीरवाला है, रक्षकोंसे त्रस्त जो परिधानसे शोभित है, जिसके लम्बे चंचल कान पल्लबके समान हैं, लम्बी पूंछवाला, महाशब्द करता हुआ, लालतालुवाला लालमुख, नखवाला, कैलास पर्वतको तरह चमकता हुआ स्वच्छ कान्तिवाला, लक्ष्मीसे रमण करनेवाला श्रीपाल दौड़ा। उसने जंगल में भद्र नामक हाथीको देखा।
पत्ता-शत्रुपक्षका नाश करनेवाले उस हाथोको देखकर राजाका मन हर्षसे फूला नहीं समाया। बड़ो-बड़ी चट्टानोंवाले पर्वतसे गरजता हुआ वह राजा ऐसा दोड़ा, मानो गरजता हुआ सिंह दौड़ा ॥१०॥
उसके दांतोंको दबाता हुआ वह हाथीपर अपना हाथ डालता है। उसके सब अंगोंका आलिंगन करता और छूता है, शरीरकी रक्षा करता है और फिर मिलनेके लिए करता है, फिर पास पहुंचता है, चारों ओर घूमता है। श्वेत दांतोंवाला वह हाथी अनेक रत्नोंके आभूषणवाले कामिनी जनका अनुकरण करता है। वह चंचल श्रीपाल उसके चारों पैरोंके नोचेसे जाता है। हकलाता और हुंकारता है और निकल आता है, उसे लांघता है, कुम्भस्थलपर बैठता है, पूंछ, सूड ओर वक्षस्थलपर प्राप्त करता है। वह हाथीको दसों दिशाओंमें घुमाता है। वह स्वामी ऐसा मालूम होता है, मानो मेघोंमें विद्युत् पुंज हो। अपने गम्भीर स्वरसे उसके भयंकर स्वरको पराजित करता और कोड़ा करता हुआ उसकी सूंड़को अपने हाथसे पकड़ लेता है। जिसका शरीर आकुंचित है ऐसा प्रवंचनामें कुशल वह क्रमसे उसके दांतोंरूपी मूसलका अतिक्रमण कर बलवान बलका निर्वाह करनेवाले महाबलशाली उससे खूब समय तक लड़कर
घत्ता-गजमदसे परिपूर्ण, लीलासे मन्थर उस हाथीको राजा श्रीपालने प्रसन्न कर लिया। मानो प्रबल गुफाओंवाले. मन्दराचल पहाड़को उसने अपने बाहुदण्डसे उठा लिया हो ॥११॥
१२ मदरेखाको शोभासे परिपूर्ण उस हाथीको जब राजा श्रीपालने युद्ध करके पकड़ लिया तो आकाशसे जिसमें चंचल भवरे गुनगुना रहे हैं, ऐमा सुमन समूह गिरा। उसे प्रबल उच्च पुरुष जानकर तथा विश्व-भयंकर युद्धको छोड़कर उस हाथीने उसे अपने सुन्दर कन्धेपर चढ़ा लिया। और विद्याधरके अनुचरोंने उसे नमस्कार किया और वे उसे वहाँ ले गये जहाँ विद्याधर रहता
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३९६
महापुराण
तावप्रिय सुकंतरमना वणवाला बाहुं तुहुँ जि व – करि खंभि बिड कंतिसैणिद्धर भरइसयणसुचिणीयत ॥ सिंदूरें पिंजर साइज पुष्यंतु पणं बीयर ||१२||
घता
रइकंवा सिरिकंता मयणा ।
जामा
क
म जियकुसुमसर ।
[ ३४. १२६
इस महापुराणे विसट्टिमहापुरिसगुणाऊंकारे महाकपुस्फयंत विरहषु महामध्यम रहामणि महाकवे महाकरित्यर्णकंभ णाम घडसीसमो परिच्छेभो समत्ती ॥ ३४ ॥
संधि ॥ ३४ ॥
अवर्य श्री सुशी की
१२. १. MB पिय । २. MB add after this : इय पणिवि घरि पइसारियल, पुरणरणारिहि जयकारियल ३. K सिणिच । ४. MB मुप्फदं । ५. MB रयणालंभं ।
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३४. १२.७] हिन्दी अनुवाद
३६७ था। रोमांचसे प्रसन्न बुद्धिवाले उस विद्याधर राजाने कहा कि अपने प्रिय पतिसे रमण करनेवालो कान्तावतीको प्रिय मेरी रतिकान्ता, श्रीकान्ता, मदनावती, वनमाला कन्याएं हैं। तुम उनके वर हो और कामदेवको जीतनेवाले मेरे दामाद ।
घत्ता-कान्तिसे स्निग्ध वह महागज खम्भेसे बांध दिया गया। भरत और स्वजनोंके लिए विनीत सिन्दुरसे पोला, फूलोंके समान दांतोंवाला वह गज मानो दूसरा दिग्गज हो ॥१२॥
इस प्रकार श्रेस महापुरुषों के गुणों और अर्ककारीसे युक्त इस महापुराणमें महाकषि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभा परत द्वारा शहए इस बाइलयारा
महाकरिश्रनकाम मामका चौतीसवाँ परिच्छेद समास हा ॥
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संधि ३५
ता पम्खु णिबंधिवि खेयरहं तिजेगुत्तिमलायण्णइ ॥ গৰ স্থিকিন্তবিবি ভিষপ্তধষজ্ঞ ঞ্চ
।
चंडकिरणकरविण्णालिंगणि पुच्छइ पृङ' गच्छंतु णहंगणि। कहसु सुहावइ कि सरयम्भई fण घरई पाहग्गणिसुंभई । किं दीसति बलायन एंतित णं ईधयमाल घोलंतिउ । किं सुरचाबई भदि विचित्तई णं णं पिय तोरणई पवित्तई। किं णवत्तई पंण रयणई मंदिरलग्गई णं पुरणयणई। किं गहु पहुधरगि णिसण्णसं णं णं णागणयरु विस्थिण्ण । देव णायबलु णा राणउ एत्यु षसइ बलवंतु अदीण । एम चवंतई बिण्णि वि तुरियाई __ जहिं जणु मिलियउ सहिं अवयरियई । पभणह पिययमु हलि किं जणवत्र कहा कुमारि एत्थु णिवसइ हरु। सहियदुसहससिलेहाविरह गंधवाहरुप्पयचित्तरहई । सो हरि धरहुँ ण जाइ गरिंदहु चंचलु मणु णावह कुमुर्णिदहु । घत्ता-णिहरियणयणु णिम्मंसमुह लक्खणलक्खविसिट्ठउ |
सुणिउम्भक्खुम्भमखुरु वियहरु राए हयवर दिट्टन ||१||
धाइट दुद्धर
खरखुरखयधर। मरगयणिइतणु कंपावियजेणु । हंबिरणयणन
भंगुरक्षयण। दसणभयंकर
अरिअमरिसहरू। भुवणविम
लिहिलिहिस। बहिरियदस दिसु
मग्गियरणमिसु। MB give, at the commencement of this Sandhi, the following stanza —
इति भरतस्य जिनेश्वरसामायिकशिरोमणेर्गुणान् अक्तुम् ।
मातुं च वाघितोयं चूलुकैः कस्यास्ति सामर्थ्यम् ॥ GK do not give it. १. १. MBK तिजगृत्तमं । २. MB पिङ । ३. MR बलायापति उ । ४. MB घयमालाच पुलंदिउ ।
५. MB पुररयणई। ६. B णिरियणपणु। २. १. MB खुरखयधर । २. M कंपावियतणु । ३. MB दंसणभयकर । ४. MBK हिलिहिलिस।
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सन्धि ३५
तब विद्याघरोंको आँखोंको अवरुद्ध कर तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ सौन्दर्यवाली वह सुखावती कन्या वहाँसे ले गयी।
__ जिसमें सूर्यको किरणोंसे आलिंगन किया है ऐसे आकाशके आंगनमें जाता हुआ प्रिय पूछता है कि हे सुखावती, बताओ कि क्या नाकाशमें ये शरद्के बादल हैं। वह कहती हैनहीं-नहीं, ये आकाशको छूनेवाले घर हैं। क्या ये आती हुई बलाकाएँ दिखाई देती हैं ? नहीं-नहीं ये हिलती हुई ध्वज-मालाएँ हैं। हे कल्याणी, क्या ये रंग-बिरंगे इन्द्रधनुष है ? नहीं-नहीं, प्रिय ये पवित्र तोरण हैं। क्या ये नक्षत्र हैं ? नहीं-नहीं ये रत्न हैं। या नगरकी आंखें मन्दिरपर लगी हुई हैं, क्या ये धरती के अप्रभागपर आकाश स्थित हैं ? नहीं नहीं, यह नागनगर फेला हुआ है। हे देव ! यह नागबल नामका राजा है। बलवान और अदीन इस नगरमें रहता है। इस तरह बात-चीत करते वे दोनों वहाँ उतरे जहां लोगोंका मेला लगा हुआ था। प्रियतम पूछता है क्या यह कोई जनपद है। कुमारी कहती है, यहाँपर हय ( घोड़ा) निवास करता है। जिन्होंने शशिलेखाका असह्य विरह दुःख सहन किया है, ऐसे गन्धवाह रूप्यक और चित्ररथका वह अश्व राजासे पकड़ा नहीं जा सकता, उसी प्रकार जिस प्रकार खोटे मुनि अपना चंचल मन नहीं पकड़ पाते।
पत्ता-उरावने नेत्रों और बिना मसोंवाला लाखों लक्षणों से विशिष्ट और लोहोंके नालसे रचित खुरोंवाला विशाल वक्षका वह धोड़ा राजा श्रीपालने देखा ॥१॥
तीखे खुरोंसे धरती खोदनेवाला, मरकतके समान शरीरवाला, लोगोंको कपानेवाला, लाललाल नेत्रोंवाला, टेढे मुखवाला, दांतोंसे भयंकर, शत्रुके क्रोधको चूर करनेवाला वह घोड़ा दौड़ा। विश्वका मर्दन करनेवाले कुमारने लिहिलिहि शब्दके द्वारा दसों दिशाओंको बहा बनानेवाले
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३७०
महापुराण वर परिंदें
पवलु मईदें। ण सारंगस
धरिउ तुरंगत। कुंकुमपिंजरु
पलु पसरवि कर। मुयबलपो.
पुणु आरूढे। रायहं पीलिए
घग्गइ चालिउ । अवलोइघि कसु हरि एयर बसु । पुलइयकाएं
खगसंघाएं। पयलियमंगलु
घुटर कलयलु। घत्ता-ता बुझिदि.महिवइ अतुलबलु अहिवलेण सुरवण्यो ।
वरचंदणपरिमलचंदमुहि चंदलेह तड्ड दिण्णी ||२||
१५
चंदलेह आउच्छिवि णिग्गत णियउ सुहावईइ णिबिसे गड। तेत्तहि जेतहि सीमामहिहरु विठलणियंबुग्गैयणवसुरतरु । बे वि चारुचामीयरवण्णाईला लयाहरि जाम पिमण्णई । ता सखग्ग खग चेषिण समागयणं णहि णिसियर णिसिहर जग्गय । महुरगिराइ पजियविणएं पुच्छिय ते वणितणयातणएं । दीसह वे वि सुह सुच्छाया कहह कासु कि कारणु आया। तेहिं पत्तउ णियपुर छंडिवि गयणु पायपुंडरियहि मंडिवि । अम्हई आया पई जि गवेसडे वइ बुद्धि पोरिसु विण्णासहूं। लेइ लइ लहु णित्तिंसु पर्वदहि एह पंहीणखंभु जइ छिंदाहि । तो तूहुं होसि बप्प बसक विजाहरभूगोयरईसर । धत्ता-णिसुणिवि असिषरु करि करिवि खंमु कुमार घाइच ॥
असिजलधारइ सो गिट्ठरु वि पत्थर तइ वि दुहाविउ ।।३।।
तुई सो चकवट्टि जयत्तिरिहर मुहबईइ मत औराहिवि तरुणतरणिणिडु वरुणहुँ ढोइड बहुविनासामथसमग्गइ
इय अहिणदिवि गय ते हयर । तं करवालु करालु पसाहिदि । पीडिवि मुढिइ तेण पलोइछ । मुदइ मुद्धयंदसोहग्गह।
५. MR पसरियकस K पसरेवि करू । ६. न किसु । ७. MB तो। २. १. MB णिवसें । २. MB °ग्गयसुरतरुवरु। ३. B तेण तणयातणएं। ४. MB read for this
line : लइ णित्तिसु देव भुयद; परबलबलदलणेण पर्य. and add the following : एह पाहाणखंभु जा छिदहि, अम्हहं हियवउ लट्ट साणंदहि ( B आणंदहि )। ५. MB बप्प होसि ।
६. K दोहावित। ४. १. K गरवर । २. MB मवेणाराहिवि । ३. MB कराल करवाल । ४. MB °समस्यसामगइ ।
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added
३५.४.४]
हिन्दी अनुवाद
३७१
1
और युद्धका बहाना खोजनेवाले उस घोड़ेको उसी प्रकार पकड़ लिया जैसे सिंह हरिणको पकड़ लेता है। और फिर अपना केशर से पीला चंचल हाथ फैलाकर । फिर उसपर बैठा हुआ अपने बाहुबल से प्रबुद्ध राजाने उसे प्रेरित किया। राजाके द्वारा लगामसे चालित कोड़ा देखकर वह घोड़ा में हो गया । पुलकित शरीर विद्याधर समूहने मंगल शब्दको प्रकट करनेवाला कल-कल शब्द किया ।
घसा तब राजा अहिबलने उसे अतुल बलशाली राजा समझकर देवताओंके रंगकी तथा सुन्दर चन्दनसे सुभाषित अपनो चन्द्रलेखा नामकी कन्या उसे दे दो ||२||
चन्द्रलेखासे पूछकर वह चल दिया। सुखावती के द्वारा ले जाया गया, वह पल-भर में वहाँ गया जहाँ कि वह सीमान्त महीषर था, कि जिसके कटिबन्धपर बड़े-बड़े कल्पवृक्ष लगे हुए थे । स्वर्णके रंगवाले वे दोनों जब लताकुंज में बैठे हुए थे तब दो विद्याधर तलवार अपने हाथ में लिये हुए आये । मानो आकाशमें सूर्य और चन्द्रमा उग आये हों। तब विनयका प्रयोग करते हुए कुबेर के पुत्र श्रीपालने मधुर वाणी में उनसे पूछा कि आप दोनों सुन्दर कान्तिवाले दिखाई देते हैं। बताइए आप किस कारण, किसके लिए माये हैं। उन्होंने कहा कि अपना नगर छोड़कर तथा चरण-कमलोंसे आकाश मण्डित करते हुए हम लोग आपको खोजने तथा द्वय बुद्धि और पोरुषकी परीक्षा करने आये हैं । लो-लो यह तलवार और इसे नमस्कार करो। यदि तुम पत्थरके इस खम्भेको तोड़ देते हो तो तुम विद्याधरों और मनुष्योंके ईश्वर चक्रवर्ती समाट् होंगे ।
धत्ता - यह सुनकर तलवार अपने हाथ में लेकर कुमारने खम्भेपर आघात किया। उसकी तलवाररूपी जलधारासे वह पत्थर भी दो टुकड़े हो गया ||३||
४
वे दोनों विद्याधर - तुम्हीं विजयधोका वरण करनेवाले चक्रवर्ती हो, इस प्रकार अभिनन्दन कर चले गये । सुखावती के मन्त्रसे आराधना कर, उस भयंकर तलवारको सिद्धकर, कुमारके लिए जो तरुण सूर्य के समान उपहारमें दी गयी उस तलवारको उसने अपनी मुट्ठीसे दबाकर देखा। हर एक विद्याओंकी सामर्थ्य से सम्पूर्ण मुग्धजनोंके लिए सौभाग्यस्वरूप मुग्धा सुखावती
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܀
५
१०
4
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अइको सुवि
पण टि महियलु चरणरहिउ णं तवसि कुसीलड दूरु मुक्कं णं करणु दुरस दिसणं खलु परतीय व आयंबिरणेत्तर अणु विजउँ जगप्रसणु
दिउ मणयजुयलु अमलियबलु 1 रयणरहिउ जावई रयेणालउ । दुसह विणं पलयमा चणु । पालु णं विरइयमंडलु । का कावा चिन्तन । मोर दादाभीसणु । हरंतु प्रमत्तष्ठ ||
दि
सो विसहरु भामिवि गयणयति महियलि झत्ति निहित्तव ||४||
धत्ता
- दिदु पुछि धरिवि पुहईसरिण प्राण
महापुराण
जायक रेवण सोज हयगयघड अंगुली अंगुलियहि दिवण ते भणि बर्खे पणवेपिशु जर तुहुं पयई रण घट्ट तो ते ताई णिहि रयाई सिद्धs for मंसिट लोएं अच्छि अंधा दिउ पिंड सूर्याहिं मराठा
विजयrयरि जस किसलय कंदे पुणु घण्णउरि घणाहिवराएं उप्पण्णा सेणावर घरवर पुणु वि सुहावs पे चालिर दस सिर मच्छेर जलणुष्पायणु हरगलगरलत भालु व कालउ कृष्ण कडुयवयणाई मत पश्चारिय रणि तेण सुहावइ मा मह अगर धरहि सरासणु
जं जिपंति समरि पडुपडिभड । store fartoon अवद्दण्ण्ड | RE डाव कुलसमय पिणु । तो जाणमिति च पलोहि । दुसोहं णयई । मणि वणिरं दिष्णं विहोएं | हर बहरत उ मु जीवs सिरिबालपहावे ।
पत्ता - परियाणि गुणगणु हरिसिएण कुवलयच्छि कुवलयमुय ॥ सिरिसे तहु सिरिउरवणा वीयसोय दिण्णी सुय ||१५||
६
कितिमई दरकित्तिणरिंदें । विमलसेण ढोइय अणुराएं । सपुरोहिय शिवराय परिणयमइ । धूमवेत गयणद्धि णिहालिन । बीस पाणि पर बीस व लोयणु । भिडिभंगभंगुर भालालउ 1
राई वणु व गण्णं । मेलिमेलि सिरिचालु रसाव | मावहि यासि जमसासणु ।
[ ३५.४.५
५. MB मयराल । ६. MH कालपासु । ७. M बम् ८. MB] संपासणु । ९. दिडुपुच्छे B दिनु पुच्छि । १०. MB पाण
५. १. MB सो ज्जि रयणु । २. MBK जे । ३. MB दावि । ४ MB ताम्त्र हिट्टई । ५. MI मुवि । ६. MB लोयहं । ७. MB दिण्णविहोय । ८. MB सहासहि । ९. बहिरंतहि । १०. MB कामलच्छि कोमलभूम |
६. १. B गि । २. MB मच्छर T मच्छरजलणं । ३. MBK वर । ४. MB वराश्य तक गंवें ।
I
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३५. ६.९]
हिन्दी अनुवाद फिर नभतलसे ले गयी। फिर उसने धरती-तल और अमलिन बलवाला एक युगल पुरुष देखा। जो पैरोंसे रहित कुशल तपस्वीकी तरह था। जैसे रत्नोंसे रहित समुद्र हो । मानो जिसने अपना कवच छोड़ दिया है, ऐसा युद्ध करनेवाला योद्धा हो। मानो असह्य विषयाला प्रलयित महाधन हो, मानो दूसरोंके दोष देखनेवाला दो जिह्वावाला दुष्ट हो, मानो जिसने मण्डलकी रचना की हो ऐसा राजा हो । जो शत्रुके तीरकी तरह लाल-लाल नेत्रवाला है जो मानो कालके द्वारा कालपाशकी तरह फेंका गया है, जो मानो दूसरा यस है। इस संसारको निगलनेके लिए ऐसा दहाड़ोंसे भयंकर महानाग उसने देखा । "
घता-उस पृथ्वीश्वरने प्राण हरनेवाले उस सांपको उसकी मजबूत पूंछ पकड़कर आकाशतलमें धुभाकर शीघ्र ही पृथ्वी-तलपर पटक दिया ॥४॥
वही सपं अस और गजघण्टारूपी रत्न हो गया। जिससे युद्ध में चतुर शत्रु-योद्धा जीते जाते हैं । अंगुलीमें अंगूठो पहना दी गयी। एक और शत्रु पुरुष वहाँ अवतीर्ण हुआ। उसने कपटसे प्रणाम कर कहा कि यदि आप इस वजमय मुद्राको लेकर इन रत्नोंको नष्ट कर दो तो मैं समझंगा कि तुम त्रिभुवनको उलट-पुलट सकते हो तब उसने उन रत्नोंको नष्ट कर दिया। उससे दुर्जनोंके नेत्र बन्द हो गये। लोगोंने रत्नसिद्ध हुए कहकर नमस्कार किया। और जिन्हें ऐश्वर्य धन दिया गया है ऐसे उन लोगोंने उसे माना और उसकी प्रशंसा की। हजारों लोग आंखोंसे देखने लगे, बहरेका बहरापन दूर हुआ, गूंगे लोग सुन्दर बालापमें बोलने लगे, मृत व्यक्ति श्रीपालके प्रतापसे जीवित हो उठा।
पत्ता-उसके गुणगानको देखकर श्रीपुरके स्वामी राजा श्रीशयन हर्षित होकर कमलके समान नेत्रों और हाथोंवालो अपनी वीतशोका नामको लहकी उसे दे दो
६
विजयनगरमें यशरूपी कोंपलका अंकुर यशकोति अंकुर, घरकोति राजाने कीतिमतो कन्या और धान्यपुरके पनादित राजाने अनुरागसे विमलसेना कन्या उपहारमें दो। उसे राजनीतिविज्ञानमें परिपक्व मति पुरोहितके साथ सेनापत्ति और गृहपति भी प्राप्त हुए। सुखावती फिर भी पतिको ले चली। उसने आकाशमें फिर धूममेधको देखा। दस सिरोंकाला ईर्ष्याकी ज्वाला उत्पन्न करता हुआ, बीस हाय और बीस अखियाला, शिवके गले के विष और तमालको तरह काला, भौंहकी वक्रतासे युक्त भालयाला, कानोंको कटु लगनेवाले वचनोंको बोलते हुए उस स्त्रीने श्रीपाल और सुखावतीको तिनकेके समान समझते हुए युद्ध के लिए ललकारा और कहा कि हे रसावति ! तू भोपालको छोड़-छोस । मेरे सामने धनुष धारण मत कर। हे हताश, तू यमके शासनसे भी नहीं बच सकती।
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३७४
[३५. ६, १०
१०
महापुराण पत्ता-जसु हियवइ भडहंकार णवि हलि महुँ हासउ दिजइ ।।
रविखज्जन पई वि महेलियइ सो किह संदु रमिजद ।।६।।
चबइ किसोयरि एउंण जुत्ताउं रे रे धूमय पई वुत्तउं। सप्पमन्गु जइ सप्पु जि बुज्झइ खयरें सहुँ जइ खयरु जि जुल्झइ । पहु धराया तुहुँ गयेणायरु वन्जिवि विजउं पसरहि णिययरु । जइ तुह एदु किं पि आसंका विवरीयाणणु पार वि कंपइ। जइ तुहूं ण मरहि एयहु मुयबलि तो हर पईसाउं जलियमहाणलि। खल दलवट्टिवि हरिस णञ्चमि वइरिमारि उंणारि ण वुचमि । आउ आउ णियणाहु ण मेल्ल मि तिक्खतिसुले पई उरि सझमि । एम घंति तेण "सा घाइय करवालेण दुलंघ दुहाइय। घत्ताता जायउ बिणि सुहावइड उक्खयेखग्गविहत्थर ।।
हणु हणु पभणति उ हुंकरिवि थकाउ जुजझसमत्थउ ।।७।।
अकु वि सकु वि चित्ति चवकर सुहडु हर्णतु ण णिविसु वि थकाइ । दूण दूर्ण वड्डिय संजायज
काउ कण्णावेस जाय। वेदिउ धूमदेउ घउपासहि
आहट जिगिजिगंत णितिसहि । विप्फुरंतु जयसिरिउकठिड सो वि जाम बिहिं रूवाहिं संठिउ । ता वुत्तउ णिवेण मा धायहि बहुय होंति रिख कन्जु विवेयहि । अण्णु वि मुइ मई कहि मि वर्णवरि आवेज्जसु पुणु जिर्तइ संगरि। एकहि यय होएप्पिणु भंडहि अरिसिरकमल खग्गे खंडहि । ता मुद्धइ पिउ धजिउ महिहरि थिउ लंबियतणु ककरतरुवरि । दूर णिसद्धचंडकिरणायवि बाहहिं लंबमाणु सहिं पायवि । विट्ठल विज्जाहरिइ परेसर णं गुणि संधि मयरद्धयसरु । घसा-तं पेविखवि बम्महबाणाय सीमंतिणि तहिं दुको।
जंप पयडई विडपाहुयई कुलमज्जायइ मुक्की ||८||
७. १. MB अजुताई। २. MB गयणेसब। ३. MB णियकरु । ४. MB विदरीमायणु । ५. MBK
चकइ । ६. MB पइसमि । ७. MB दलबटुमि । ८. MB पेल्लमि । ९. MB लवंति। १०. MH
संवाइय । ११. MB दुहाविय । १२. MB उगय । ८. १. MB चमक्कई । २. MBT बिहु सहि । ३. MBK कज्ज । ४. MB वितह : ५. MB संदिन ।
६. MB मज्जायपमुक्की।
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३५.८.१२ हिन्दी अनुवाद
३७५ घत्ता--जिसके हृदयमें योद्धाका अहंकार नहीं है। मुझे हंसी आती है कि वह तुम महिला द्वारा रखा जाता है। वह तुम्हारे द्वारा कैसे रमण किया जायेगा।
वह कृशोदरी सुखावती कहती है कि हे धूमवेग ! जो तुमने कहा यह ठीक नहीं है। सांपकी मारको सांप.ही जानता है। यदि विद्याधरके साथ विद्याधर लड़ता है तो यह ठीक है। यह धरतीका निवासी है और तुम आकाशवारी। इसलिए विद्या छोड़कर तुम अपना हाथ फैलाओ। यदि यह तुझसे कुछ भी आशंका करता है, और उलटा मुंह करके थोड़ा भी कांपता है, यदि तुम इसके भुजबलसे नहीं मरते तो मैं जलतो आममें प्रवेश कर जाऊंगी। हे दुष्ट, तुझे चकनाचूर कर मैं हर्षसे नाचूँगी । शत्रुको मारनेवाली मैं कहती हूँ कि मैं शत्रुओंको मारनेवाली हूँ। आओ आओ मैं अपने स्वामीको नहीं छोड़ती । तीखे त्रिशूलसे तुम्हारे छातीके शरीरको छेद दूंगी। ऐसा कहकर धूमवेगने आक्रमण किया और तलवारसे अलंध्य दो टुकड़े कर दिये।
- घत्ता-तब जिनके हाथमें उठी हुई तलवार है ऐसी सुखावती दो हो गयी। और मारो. मारो कहती हुई युद्ध में समर्थ वह स्थित हो गयी ॥७।।
उसे देखकर सूर्य और इन्द्र भी अपने मनमें चौंक गये। वह सुभट भी मारता हुमा एक पलके लिए नहीं ताकता। वह पान्या भी दुनी-दुनी बढ़ती गयी। कन्यारूपमें उत्पन्न उस युद्ध में चमकती हुई तलवारोंसे घूमवेग चारों ओरसे घिर गया। तब विजयधोके लिए उत्कण्ठित, फड़कता हुआ, वह भी जम दो रूपोंमें स्थित हो गया तो राजा श्रीपालने कहा कि तुम आक्रमण मत करो। बहुतसे शत्रु पैदा हो जायेंगे । अपने कामका विचार करो। किसी बनान्तरमें मुझे छोड़ दा, युद्ध जोतनेपर फिर आ जाना। एक हृदय होकर तुम लड़ो। ओर शत्रुके सिर कमलीको तलवारसे खण्डित करो। तब उस मुग्धाने प्रियका पहाड़पर रख दिया। वह भी ककर वृक्षके नीचे अपना शरीर लम्बा करके लेट गया। जिसमें दूरसे सूर्यके प्रतापको रोक दिया गया है वृक्षके नीचे हाथोंसे लम्बे होते हुए राजा श्रीपालको उस विद्याधरीने देखा। मानो कामदेवने अपनी प्रत्यंचाका सुन्धान कर लिया हो ।
__ पत्ता-यह देखकर कामदेवके बाणोंसे आहत एक सीमन्तिनी यहाँ पहुंची। कुलमर्यादासे मुक्त वह स्पष्ट चापलूसीके शब्दोंमें बोली ।।८॥
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३७६
महापुराम
भो भो पुरिससीह दुइस मिल पत्थु केण तुहूं आणिवि घडिट । सुहब कह व जइ मुयहि महीना तो पियहि गिरत्तु हेहामुहु। हाई कसैमसंति भजंतई
अट्ठ वि अंगई पलयदु जंतई । मा सप्पैक्खहि छणचंदाणण भो पत्थिवपठमाणण माणण । इच्छ इच्छ मई पई ण पयारमि। घोरहु कतारहू उत्तारमि । भणेइ कुमारवीर किं खिजहि परपुरिसहु मणु देविण लज्जहि । वर एत्थु शिरसावहि सुक्यमि' परमारणिक्य णिरिक्खमि | वर णक्खाई सिलायलि भग्गई पाउ परणारीउरयलि लग्गई । दंसपंति पर जाउ दिसंतरि मा खुप्पस परवदुबिधाहरि । केसभार वर वाएं णिबध मा परपणयणीहिं कडिलर । वच्छत्थलु वर पक्खिहि खजउ मा परतृपयेथणेहिं पेल्लिज्जउ | पत्ता-णयणई घोलंति णिवारियाई दियबाट जाइ षियारहु ।।
संतास पवढ्इ रयणिदिणु सित्ति ण पूरइ जारहु ।।९||
गेहंदुवारि गिरोह करेसइ पिसुणु को वि संगहणु धरेसइ । लहु आलिंगिवि मुकणिबंधणु लहु उट्टर संवरइ पइंधणु। आस कियमणु किं फिर कीलइ दुब्जेसु धूमें अप्पर णीलइ। अण्णु अण्णु जइ काइ वि मंतइ तो परयारित णियमणि चिंतइ । एयहिं सक्वेियहिं हर्ड जाणित एवहिं कहिं वश्चमि सदाणित । इहभवपरभवदुण्णयगारर परट्यरमणु सुट्ट विन्यारत। जाहि ण इच्छमि परघरसामिणि उध्वसि जई वि रंभ सुरकामिणि । रमणीयइ पररमणालुद्ध
तं णिसुणिवि णहणारिइ कुद्धद। णरणाहे पियसहि वणि मेझिय साहिसाह सा छिदिवि घलिय । घसा-थरहरियपाणिपय सिरकमलु विहुरयालि सुहजणणियइ ।।
णिवडतउ धरित सेई मुहिँ जक्खिइ चिरभषजणणिइ ॥१०॥
१०
२. १. M कसमसति । २. Bomits this line 1 ३. B omits this foot | ४. M अक्खमि ।
५. MB बायइ । ६. MB परतिय । ७. MB घोलत T चोलंति । १०.१. MB गेहि वारि। २. MB लइ। ३. MB म । ४. M संवरियत; B संवरिठ। ५. MB
दुज्जस । ६. MB परतिय । ७. MB जहि । ८. MB रंभ जइ वि। . M सयंभुयहि 3 सयंभुवहिं।
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हिन्दी अनुवाद
३७७
है पुरुष श्रेष्ठ ! दुःखसे प्रेरित तुम्हें यहां किसने लाकर डाल दिया। हे सुन्दर! और इसो तरह वृक्षसे तुम छोड़ दिये जाओ तो तुम नीचा मुँह किये हुए निश्चय ही गिर पड़ोगे। कसमसातो तुम्हारी हड्डियां टूट जायेंगी, सम्पूर्ण अंग चकनाचूर हो जायेंगे । राजलक्ष्मीको माननेवाले हे राजा, तुम मुझ चन्द्रमुखीको उपेक्षा न करो। तुम मुझे चाहो-चाहो, मैं तुम्हें धोखा न दूंगी और इस भयानक जंगलसे उद्धार करूंगी । तब वह कुमार बोला कि तुम खिन्न क्यों होतो हो। परपुरुषको अपना मन देते हुए शर्म नहीं आती। ये अच्छा है कि 'मैं इस कल्पवृक्षको डालपर ही सूख जाऊँ। परस्त्रीका मुख न देखूगा। मेरे अंग चट्टानपर नष्ट हो जायें, पर वे परस्त्रीके उरस्थलमें न लगेंगे। अच्छा है मेरे दांतोंको पंक्ति नष्ट हो जाये, वह दूसरेकी स्त्रीके बिम्बाधरोंको न काटे। अच्छा है केशभाग नष्ट हो जायें, पर वे दूसरेकी प्रेमिकाओं द्वारा न खोंचे जायें। अच्छा है इस वक्षस्थलको पक्षी खा जायें, लेकिन दूसरोंको स्त्रियोंके स्तनोंसे यह न रगड़ा जाये।
धत्ता-अंधारण किये हुए भी हिलते रहते हैं। हृदय-विकारको प्राप्त होता है। और रातदिन सन्ताप बढ़ता रहता है। किन्तु दुष्ट प्रेमीको तृप्ति पूरी नहीं होती ॥९॥
वह गृहद्वारको निरुद्ध करता है और दुष्ट किसी पुंश्चल जोड़ेको एकड़ता है। ऐसा वह शीघ्र उठता है कि आलिंगन करके कण्ठश्लेष छोड़ता है। वह शोध उठता है और अपनी धोती पहनता है। इस प्रकार आशंकित मनवाला वह क्या क्रीडा करता है, केवल अपयशके धुएंसे अपनेको कलंकित करता है। और वह यदि किसी दूसरेसे मन्त्रणा करता है तो परस्त्री लम्पट अपने मन में विचार करता है तो वह कि इन विवेकशील लोगों द्वारा में जान लिया गया हूँ| इस समय अब 'मैं' किसके सहारे बचूं ? इस प्रकार परस्त्रीका रमण इस लोक और परलोकमें दुनय करनेवाला तथा अत्यन्त विद्रूप है। यदि परघरको स्वामिनी, रम्भा, उर्वशी और देवबाला भी हो तब भी मैं उसे पसन्द नहीं करता। यह सुनकर दूसरेके साथ रमण करनेवाली उस विद्याधरी स्त्रीने कुद्ध होकर श्रीपालके साथ प्रिय सखीको वनमें भेज दिया, और पेड़की डाल काटकर ऊपर डाल दी।
पत्ता-जिसके हाथ-पैर और सिररूपी कमल थरथर कांप रहा है, ऐसे उस गिरते राजाको संकटकालमें सुरभवकी पुरजनीने अपने हाथों में ग्रहण कर लिया ॥१०॥
२-४८
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३७८
महापुराण
११
यसारिउ सोचण्णसिलायलि मणि णिसुणि हूई जक्खहुँ कुलि | हउँ तुह माय पुत्त पोमावा पुठवजम्मि होती पाडलगइ। एम्व चवेष्पिणु णेहपयासे बालु पसाहिउ करसंफासें। मुक्खेतण्हणिहालमु गाउ तणड पवुत्तु ताइ संतुहल । फुरियविविहमणिकिरणणिरंतरि पइस हि गिरि गुइविवरभंतरि । तं णिसुणिवि सो तेत्थु पहाड | तावेत्तहि संगामि पणट्टत । धूमवेउ सज्जियसरजाहि विज्जाछेड करतिहि बालहि । पुणु उत्पाणु वियप्पु विहीसरु जिह देविइ उद्धरिउ णिहीसर । गय णियवासहु वीणालायिणि एचहि राव रायडामणि । पत्ता-पसंतु विसंतुलि विवरवहि सलिलमेहादहि पडिया ।। ___ तहि जंतु वरंतु सिलामयहु खंभट उप्परि चडियज ॥११॥
तावत्थइरि सूरु संपत्तर ___णं दिणराएं झेंदुइ घिचउ। सहइ जंतु वरुणासालाणिहि मणि व पडंतु महण्णवखाणिहि । कुंकुमकुसुमामेलु व रसउ ण चउपहर सहिररसलित्तउ। शं व महामहरियाई : लु व दिसतमणिइ बसियत्र । भाणुबिंबु किरणाव लिजलियउ उग्गत्तेण अहोगइवडियउ । मंदतमालणीलि पसरियतमि तहिं विवरंतरि रयणिसमागमि । णकचकमयपसरविसपण णीलसिलायलखंमि णिसण्णम् । सिरिअरहंतसिद्ध आयरियहुं उजझायडे साहाई कयकिरियहुं। पंचहुँ संचियसम्मयादिष्टिहिं सुयरइ पहुचरणई परमेट्टिहिं । धत्ता-असियाउसाई पंचक्खरई झायंसह साणंदई ।
चोरारिमारिसिहिपाणियई उवसमति मृर्गवंदई ॥१२॥
१३
ताम पहाइ कालि रवि उपराउ णं महिउयह वियारिवि णिग्गव । शीर तरेप्पिणु तेण तुरंत
तीरि परिट्टिय तहि जि भमंत । राएं णयणाणंदजणेरी
दिही पडिम जिणिदह केरी। णि व्वियार णिग्राथ मणोहर पहरणव जिय ओलंबियकर । लक्खणलक्खुवलक्खियदेही हज सा भणमि अहिंसा जेही ।
हज सा भणमि कुहिणि अपेषग्गहु कढिणमुयग्गल णारयमग्गहु । ११. १. MB पुत्त माम । २. B°तिहुँ । ३. पढउ । ४. B धूमकेउ । ५. MB भहद्दहि । E, MB
तुरंतु । ७. T विसंकलि । १२. १ MB दिसप्तरूणिइ । २. MB गइपडियउ । ३. MB सिलायलि | ४. MB मिग । १३. १. MBK पहायकालि । २. MB अववाह ।
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३५.१३.६]
हिन्दी अनुषाव
३७२
___ उसे स्वर्ण सिंहासनपर बैठाया, उसने कहा-सुनो, यक्ष कुलमें उत्पन्न हुई मैं पद्मावती, है पुत्र! तुम्हारी हंसकी तरह चलनेवाली तुम्हारी माता थी । यह कहकर स्नेहको प्रकट करनेवाले हाथके स्पर्शसे बालकको सज्जित किया । उसको मुख, निद्रा और आलस्य नष्ट हो गया। उस सन्तुष्ट बारको उसने कहा--विविध प्रकारके किरणोंसे भरपूर गिरिगुहाके विवरमें तुम प्रवेश करो। यह सुनकर राजा वहाँ गया। इतने में यहाँ संग्रामसे घूमवेग भाग खड़ा हुआ। शरजालको सज्जित करती हुई उसके लिए दैवी वाणो हुई कि किस प्रकार उस निधीश्वरका उद्धार हुआ। वीणाके समान बालाप करनेवाली वह देवी अपने घर चली गयी। यहां वह राजश्रेष्ठ राजा
धत्ता-उस ऊंचे-नीचे विवरमें प्रवेश करते हुए एक महासरोवरके जलमें गिर पड़ा। उसमें जाते हुए और तिरते हुए शिलासे बने खम्भेपर चढ़ गया ॥१९॥
१२ इतने में सूर्य अस्ताचलपर पहुंच गया। मानो दिनराज द्वारा फेंकी गयो जैद पश्चिम दिशाकी परिधिमें जाती हुई शोभित हो रही हो । या महासमुद्रकी खदानमें पड़े हुए मणिको तरह वह कुंकुम और फूलोंके समूहकी तरह रक्त है। मानो रकरूपी रससे लाल चतुष्प्रहर है। मानो आकाशरूपी वृक्षसे नवदल गिर गया है। मानो दिशारूपी युवतीने लाल फलको खा लिया है। किरणावलीसे विजडित सूर्यका वह बिम्ब मानो उग्रताके कारण अधोगति में पड़ गया है । स्थूल तमाल वृक्षोंसे नीले, जिसमें रत्नोंका समागम है ऐसे विवरके भीतर कि जिसमें अन्धकार फेल रहा है। श्रीपाल नील-शिलाहलके खम्भेपर बैठा हुआ, मगर समूहके भयके प्रतारसे उदास होकर श्री अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और आचरणनिष्ठ साधुओं, पांचों सम्यग्दृष्टिको संचित करनेवाले परमेष्ठियोंके प्रभु चरणोंका ध्यान करता है ।
पत्ता-पांच अक्षरोंवाले णमोकार मन्त्रका आनन्दसे ध्यान करनेवालेके सम्मुख चोर, शत्रु, महामारी, आग, पानी और पशु, जलचर समूह सानन्द शान्त हो जाते हैं ॥१२॥
१३ इतने में सवेरे सूर्योदय हुआ, मानो धरतीका उदर विदारित करके निकला हो। उस राजाने तुरन्त पानीमें तैरकर घूमते हुए, किनारे पर स्थित नेत्रोंको आनन्द देनेवाली, जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमा देखी। निर्विकार निर्ग्रन्थ सुन्दर, प्रहरणोंसे रहित, हाथोंका सहारा लिये हुए जो लाखों लक्षणोंसे उपलक्षित थी। मैं ( कवि ) कहता है कि वह अहिंसाके समान थी। मैं कहता हूँ कि वह अपवर्गकी पगडण्डी थी, और नरकमार्गके लिए कठिन भुजारूपी अर्गला थी। स्वामी
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१८०
महापुराण
[२५. १३.७ सा णाहिं सरसलिलहिं सिंचिये वियसियधवलहिं कमलहि अंचिय । पुणु जिणतणुसिरि संथुय भत्तिइ सम्धभूयगणविरइयमेसिइ । भरपसत्यहत्वगुणराइय
ताम तहिं जि जक्खिणि संप्रौश्य । घचा-संभासिवि णिहिलणिहीसरिइ हरिसुप्फुल्लियणेसर ॥
बैंइसारिवि पट्टि पयाहिवइ मंगलकलसिहि सिसत ॥१३॥
१४
भूसपपरिहाणाई रवण्णई छचदंडरयणई तहु दिण्णई। गयणगमण पायजुयलुसर दिण्णाउ अपणु वि जं जं भल्लास । ताम तहिं जि परिभमिवि समायइ रयकारणसंभूयकसायइ । खैइरिह सझरिणीय पहु जोइट पाहाणोहु पाहाउ णिवाइड । सो पर्दतु सयलु वि णिहलियर दिवछत्तरयणे पडिखलिया। पुष्फयंतफणिफुकारियसरि मई ण रमंतु मरउ विवरंतरि । एम भणिवि ताए विस्थिषणी सेलगुहादुवारि सिल दिण्णी। णवर चंडदंडे सा खंडिय कुषलयवाणा फणु कणु खंडिय । घचा-उम्याडिषि वार गराहिवइ पाउयजुयले गच्छद ।।
पहि जंतु पुंडरिकिणिणियहि सुरमहिहरष्णु पेक्खइ ||१४||
पेच्छइ खंधावार विमुक्का सचमु दिवसु श्रज्जु सो दुकान । माइ तुहार लहुए थणद्ध म[यदेसु णावइ मयरद्ध। तिजगबंधु महु बंधत गाइड एम भणिवि जलहरबड जोइउ । वसुवालेण मणि किं ससहर णं णं छतु णिसिहरू। किं दीसई णवसंझाजलहरू पक्ति को विपणं णिच्छत णरु | सोदामिणि णं णं दंडासणि तारावलि णं णं मूसणमणि । एम वियपिवि राएं वुत्तर एइ सहोयर एह णित्ता । इय पलवंतहु तर्हि जि पराइड विहिणा सोक्खुपुंजु णं ढोईल । सुहिपरियणु हरिसें रोमंविध तं गज माणसु जं ण णचिउ। पणषिउ पहु णिलयणु णिय तायड जगतायहु पञ्चवविहायहु । सेहिं बिहिं वि तेणं जिणु पेच्छिवि भवसंसरणेविस्थ दुगुंछिवि ।
३. MB संचिय । ४. B omits this line। ५. B ormits this foot | ६. MB संपाइय ।
७. T अहिसारिवि । १४. १. M°परिहाणई महुवणार; Bपरिहाणई घरवण्णई। २. MR अवर । ३, MB रइकारण ।
४. MB खरिद सारिणियइ । ५. MB णिवाया। १५. १. MB मयणवेसु । २. MB णापा । ३. MB जोयह। ४. MBK पाउ ससिहरु । ५. MBK
सीसइ । ६. MB ठोहयउ । ७. MB णिज णिलयः । ८. MB तेण वि । ९. MB संसारापत्य ।
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३८१
३६.१५.११]
हिम्बो मनुवाद
भरतने उसे सरके जलसे अभिसिंचित किया, सफेद खिले हुए कमलोंसे अचित किया, फिर उसने जिनके शरीरकी श्रीकी भक्तिभावसे स्तुति की कि जो सब प्राणियोंसे मित्रताका भाव स्थापित करनेवाली थी। इतनेमें भद्र प्रशस्त और हस्त गुणोंसे शोभित यक्षिणी तत्काल वहाँ आयो ।
घत्ता -- अखिल निधियोंकी स्वामिनीने बात करके, जिसके नेत्र हर्षसे उत्फुल्ल हैं, ऐसे प्रजाधिपति भरतको यहाँपर बैठाकर मंगल कलशोंसे अभिषेक किया ॥ १३॥
१४
सुन्दर अलंकार, वस्त्र, छत्र और दण्ड रत्न दिये तथा आकाशमें गमन करनेवाली खड़ाओंकी जोड़ी दी। जो-जो सुन्दर था, वह वह दिया। तब जिसे रतिके कारण ईर्ष्या उत्पन्न हुई है ऐसी विद्याधरी घूमती हुई वहाँ आयी । उस स्वेच्छाचारिणीने राजाको देखा और आकाशसे पत्थरका समूह गिराया। लेकिन दिव्य शत्रुरत्नसे प्रस्खलित होकर वह गिरती हुई चट्टान चूरचूर हो गयी। मुझसे रमण नहीं करते हुए पुष्पदन्त नागको फुंकारका जिसमें स्वर है ऐसे विवरके भीतर तुम मरो। इस प्रकार कहकर उस स्वेच्छाचारिणीने उस शेरगुहाके द्वारपर एक बड़ी चट्टान फैला दी। लेकिन उस पृथ्वीपतिने अपने प्रचण्ड-दण्डसे खण्डित करके उसके टुकड़ेटुकड़े कर दिये ।
....
पत्ता - द्वार खोलकर राजा पादुका युगलसे जाता है । आकाशमें जाते हुए पुण्डरीकिणी नगरके निकट यह विजयार्धं पर्वतको देखता है ॥ १४ ॥
處
१५
वहाँ विमुक्त स्कन्धावार देखता है कि आज वह सातवां दिन भी आ पहुँचा । हे माँ ! तुम्हारा छोटा बेटा कामदेव के समान कामदेव नहीं आया। तीनों जगका मेरा भाई नहीं माया । ऐसा कहकर उसने आकाशकी ओर देखा । तब वसुपालने कहा – क्या यह चन्द्रमा है ? क्या यह नम सन्ध्या मेघ दिखाई देता है ? या कोई पक्षी है ? नहीं नहीं यह निश्चय ही मनुष्य है । नया यह बिजली है ? नहीं नहीं यह रत्नदण्ड है । क्या तारावली है ? नहीं नहीं ये अलंकारोंके मणि हैं। इस प्रकार विचार कर राजा व सुपालने कहा कि यह निश्चयसे हमारा माई आ रहा है। इस प्रकार उनके बात करते श्रीपाल वहाँ आ पहुँचा मानो विधाताने उनके लिए सुखपुंज दिया हो । सुधीजन और परिजन हर्षसे रोमांचित हो उठे । वहाँ एक भी मानव ऐसा न था जो नाचा न हो। उसे विश्वके पिता और प्रत्यक्ष विघाता-पिता के समूह - शरणमें ले जाया गया। उन्होंने स्वामीको प्रणाम किया। उन दोनोंने उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के दर्शन कर संसारमें परिभ्रमण करने की अवस्थाको निन्दा की ।
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३८२
[३५.१५.१२
महापुराण पत्ता-सि रिवाले गुरुगुणवालु लहिं मष्टचडावियाहत्थे ।
पंदित परमेसर परममुणि परमप्पर परमत्थे ।।१५।।
जेण विणासिवि घणि ईसर पुच्छिउ देविड सो जोईसह । पुत्तु महारच केण विहूसिउ चंदु व पवरपहाइ पयासिउ । पमणइ जिणु गयजम्मि किसोयरि एयड हुयमेत्तहु मुय मायरिं । हुई काणणि जक्खसुरेसरि बहुविन्भमविलास णं सुरसरि । जाणवि गंदणु अप्पणु देहें ताइ एह पुजिन बेहुणेहें। आय सुहाषा कहिष कुमार एयद रक्खिउ इट बलसारें। विजाहरई परासियवसण मायाषियहं अणेयई पिसुणहं। एह मझु हूई विहडतहु
लम्गणवझरि अवडि पद्धतछ । एह मज्झु हूई चिंतामणि
कामघेणु कप्पदुमगोमिणि । एह मधु संजीवणि ओसहि विहुरसमुरणाव णिरु पियसहि । घत्ता-हर एयइ रखिर सुंदरिय एयहि जीव वि दिजइ ।
जसु पुत्तु कलत्तु ण मित्सु सुहि सो दुइसलिले मज्जइ ॥१६।।
पई सहुँ महु उम्गयमुहरायर माइ माइ मेलावत जायउ । जं तं एयहि तण विजंभच श्यहि परबलु बलिण णिसुंभिउ । तं णिसुणिवि विणएं पणयंगिय, सासुयाइ कुलबहु आलिंगिय | पुत्ति पुत्ति पई काई पसंसमि सिहिसिह कि रविपडिमाहि दर्रामि । चकवहिलपखणसंपुण्ण
पुत्तु महारउ पई महु दिण्णव । तुई जि एक मढ आसाऊरी तुहं संगरि सूराह वि सूरी। जुवईमहउ हलि कहिं तेरउ कहिं पोरिसु परचीरवियारउ । तुह केरज जियकरिकुंभत्थलु घणुगुणछणियउं जयक्ष थणस्थलु । महु तणयहु यम्महपासा इव तुह मुम रिउहुँ कालपासा इव । पभण कण पुण्णसामस्थ गिरि चुल धरित धणेस रिहत्थे । सूले भिष्ण भिज्जइ अंगउ जहिं तुह सुउ तहिं सयलु वि चंगठ । पुणु कुबेरलच्छिा परिपुच्छिउ केहउं भवि सुय तहिं कम्म णियच्छिउ । पत्ता-ता कहइ महामुणि राणियहे धोरवी' तबु तत्तर ॥
चिरभयि दोहिं वि तुह तणुरुह हि अणसणु किउ जिणवुत्तड ॥१७|| १६.१. MB मिरुणेहें। २.MBहसलिलि णिमज्जा । १७. १. G सुहे । २. MB विभिउ । ३. B पवलबलेण। ४. MB देसमि । ५. M°संपण्णउ । ६. MB
मह पई। ७. B सूरह । ८. MB धणेसर । ९. B सुलिण । १०. MB कम्मु । ११. M धोरु बीर तव; B घोरवीर तव ।
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३८३
३५. १७.१४ ]
हिन्दी अनुवाद
घत्ता - श्रीपालने अपने दोनों हाथ मुकुटपर चढ़ाते हुए महान् गुणोंके पालन परममुनी परमात्मा परमेश्वर की परमार्थ भावसे वन्दना की ||१५||
१६
जिन्होंने कामदेवको नष्ट करके डाल दिया है, ऐसे योगीश्वरसे माताने पूछा कि मेरे पुत्रको किसने अलंकृत किया। यह चन्द्रमा के समान महान् बभासे आलोकित क्यों है ? जिनेन्द्रभगवान् कहते हैं कि हे कृशीद पूर्वज में इसके पेक्षा होने ही इसकी मर गयी। जो जंगलमें यक्ष-देवी हुई । जो मानो गंगाकी तरह अनेक विभ्रम और विलासवाली थी । शरीरसे इसे अपना पुत्र समझकर उसने अत्यन्त स्नेहसे इसकी पूजा की। इतनेमें सुखावती आ गयी । कुमारने कहा कि इसने अपनी शक्तिसे मेरी रक्षा की है। दुःख प्रकट करनेवाले विद्याधरों और माया अनेक दुष्टोंसे घूमते हुए और आपत्तियों में पड़ते हुए मेरी यह आधारभूत लता रहो है । यह मेरे लिए चिन्तामणि, कामधेनु, कल्पवृक्षको भूमि सिद्ध हुई है । वह मेरे लिए संजीवनी औषधि कष्टरूपी समुद्री नाव जैसी है । मेरी प्रिय सखी
धत्ता -- इसने मुझे बचाया है। संसार में जिसका न पुत्र, कला और न
इसके लिए मुझे अपना जीव भी दे देना चाहिए। इस सुधीजन ऐसा व्यक्ति दुःखरूपी जलमें डूब जाता है ||१६||
१७
तुम्हारे साथ ही मेरे मुखका राग चमक सका और हे आदरणीय, मेरा मिलाप हो सका । जो-जो है, वह सब इसकी चेष्टा है। इसीके बलसे मैंने शत्रुबलका नाश किया। यह सुनकर विनयसे प्रणतांग होती हुई कुलवधूको सासने गले लगाया और वह बोली- हे बेटी ! 'मैं तुम्हारी क्या प्रशंसा करूँ 1 क्या मैं सूर्यं प्रतिमा के लिए आगकी ज्वाला दिखाऊँ। तुमने मुझे चक्रवर्ती लक्षणोंसे सम्पूर्ण मेरा बेटा दिया। तुम्हीं एक मेरी आशा पूरी करनेवाली हो । युद्ध में तुम सूर हो। कहाँ तुम्हारी युवती सुलभ कोमलता ? और कहीं शत्रुको विदोण करनेवाला पौरुष ? जिसने हाथियों के गण्डस्थलोंको जीता है ऐसा तुम्हारा स्तन युगल जो धनुषको डोरीसे मच्छन्न धनुषकी तरह है । मेरे पुत्र के लिए कामदेव के पाशकी तरह तुम्हारी दोनों भुजाएँ शत्रु के लिए कालपाशके समान हैं । तब कन्या कहती है कि पुण्यके सामर्थ्यसे यक्षिणीने अपने हाथसे गिरते हुए पहाड़को उठा लिया। और त्रिशूलसे भेदे जानेपर भी शरीर भग्न न हुआ । हे आदरणीय ! जहाँ तुम्हारा बेटा है। यहाँ सब कुछ भला होता है। कुबेरलक्ष्मी फिर पूछती है कि किस कर्मसे मैंने ऐसा पुत्र और कर्म देखा ।
धत्ता-तब महामुनि रानीसे कहते हैं कि पूर्वजन्ममें तुम्हारे दोनों पुत्रोंने जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया अत्यन्त कठिन तप और अनशन किया था ॥ १७ ॥
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महापुराण
[३१.१७.१
सम्गसिहरि सुरवरसिरि मुंजिवि जिणपडिषियहु पुन पउंजिधि । दिन्दु देहु मेलेप्पिणु आया ए बिपिण वि तुह सुय सैजाया । वसुवालहु सिरिवालहि केरी पुषणपषित्ति गरुयसुहगारी। मुणि विवि सयलई संतुद्वई उच्छवेण णियणयस पट्टई। पुजिवि पत्तावलिविण्णासहि चेलियरयणाहरणपिसेसहि । मुक सुहावइ पिययम मायइ धणुधारिणि सम पाउसछायद । गय सुंदरि णियमंदिर जामहि वसुवालहु विवाहु कष्ट तामहि । करपझवि लग्गष्ठ रइजुसिहि अट्ठोत्तर सह गरवत्तिहिं। धता-पुणु कहइ सुलोयण णियचरिउ सइ परिपुरिसपेरंमुह ॥
भरहादिवभिचाहु घणरबहु पुष्फयंतसोदिय मुह ॥१८॥
इप महापुराव्ये तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकपुष्कयंतविहए महामम्वभरहाणुमजिए
महाकावे पासिरिपाईसंगमो णाम पंचतीसमो परिष्ोत्रो समत्तो ॥१५॥
मंधि॥१५॥
१८. १. MB दिम्वदेहु । २. M परंमुह; B परंमुहहो । ३. M"मुह; B°मूहहो । ४. MB "सिरिवाल ।
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३५. १८.१४]
हिन्दी अनुवाद
३८५
स्वर्गमें इन्द्रकी विभूतिका भोग कर, जिनप्रतिभाकी पूजा कर, दिव्यदेहको छोड़कर वे दोनों यहाँ आये और दोनों तुम्हारे पुत्र हुए। वसुपाल, श्रीपालको अत्यन्त महान् शुभकारो पुण्यप्रवृत्तिको सुनकर तथा मुनिवन्दना कर सब लोग सन्तुष्ट हुए। और उत्साहके साथ अपने नगरको चल दिये । मायासे रहित प्रियतमा सुखावती ऐसी मालूम होती थी, जैसे पावसकी छायासे इन्द्रधनुषी। जब वह सुन्दरी अपने घर गयी तब तक वसुपालका विवाह कर दिया गया। रतिसे युक्त एक सौ आठ रत्न युवतियां उसके कर-पल्लवसे लगीं।
पत्ता-इस प्रकार पर पुरुषसे परामुख, पुष्पदन्तके समान शोभित मुखवाली सती सुलोचना अपना चरित्र राजावर्गके अनुचर जयकुमारसे कहती है ||१८||
इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषों के गुण-अलंकारोंसे युक्त महापुराणका महाकवि भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यमें प्रभु श्रीपाठ संगम नामका
पैतीसवाँ परिच्छेद समास हुमा ॥१५॥
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संधि ३६
सरक
छवि लेप्पिनु कण्णड बरसणुण्ण खगहु अकंपडु सा सुय ॥ समदिणि हम पत सुहावैइ णनिय वाइ सई सासुय || ध्रुवकं ॥
सुहिताय बरिष मति ण अम्हई खेयर मेरe मेलिबिरिष्ठ जीवहरु अविसेस दिवाहें कि फरमि
१
भासि भद्द गुणजुत्तिय होहित भणिवि भृर्गेणे सियट - संमाणहि मई संमाणियस ता लच्छिता पसाहियच पुरुष थिय तेत्यु पैरिट्टियाई teera कहिं बि विश्रश्यव पहिलाच परिणिय सेट्ठिसुय अ अर थोरणिव विरह ग्गितावणीषावण दिए करंतु सो पृठ" ललिड
१०
बचा - जोएवि सवन्तिद्दि मुंडे वणिचत्तिहि णोख सेषि" दुहणणहु ||
ईसावसकुद्ध तक्खणि सुद्धा आसंघिढ घर जणणहु ॥ १ ॥
।
तुइ सुकुलति तवे गहण णिहितियक | एवहि तुह मंदिर आणियष्ट । पवमालामाला वाहियउ । भूगोयरेहिं कंठियहिं । माया पिरेहिं वि जोश्व जसव णामें जसकंतिजुय । रइताइयड सुहासिणिउ । अहिं तरुणि सहुं मेला | "गुत्तिहिं समिइहिं णं जिणु मिलिए ।
२
भूगोथर भूगोयेर परिव । अणुरत गुणविहियायर । पहिल जि किराडिहि धरिउ कद । वरं णिचलु कपणावर घेरमि ।
M has, at the commencement of this Samdhi, the following couplet in the margin :--
फणि
सरु दिष्णव सह सन्ति ।
मारिट मिच्छमग्राहिवड गुणु पुणु तियणकिति ॥ १॥
BGK do not give it,
१. १. K सत्तमे दिने । २. B सुहामइ । ३. M एयहि । ४. MB मिगं । ५. MB परिष्ट्रियउ | ६. MB उपकंठियउ । ७. MB पियरहि विच्छोदय 1८. MBK पृणु । ९ MB
|
१०. MB पि । ११. MB गुतीसमीहि । १२. B महू । १३. M णीसेसवि ।
0
२. १. K. वय । २. MB "भूगोधरिं GK add second "भूगोयर' in the margin;
T भूगोयरचरित । ३. M वद : ४ G करत
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सन्धि ३६
विद्याधर राजा अकम्पनकी वह पुत्री शुभमतिवाली सुखावती, उत्तम रूपरंगवाली छहों कन्याओंके साथ सातवें दिन वहां पहुंची। उसने स्वयं अपनी सासको नमस्कार किया।
वह भद्रा बोली-"गुणोंसे युक्त तथा हरिणके समान नेत्रोंवाली ये पुत्रियो तुम्हारी कुलपलियाँ होंगी--यह सोचकर अशनिवेग विद्याधरने इन्हें जंगलमें छिपा रखा था। मेरे द्वारा सम्मानित इनका आप सम्मान करें। इस समय मैं इन्हें तुम्हारे मन्दिरमें ले आयी है।" तब कुबेरश्रीने मालती मालाओंको धारण करनेवाली उन कन्याओंका प्रसाधन किया। इतदेवने पहलेसे ही वहां स्थित और उत्कण्ठित इन मनुष्यनियोंसे वियोग करवा दिया, ये माता-पितासे भी विमुक्त हुई। सबसे पहले श्रीपालने यश और कान्तिसे युक्त सेठकी यशोवती कन्यासे विवाह किया। उसके बाद दूसरी स्थूल और सघन स्तनोंवाली तथा सुमधुर बोलनेवाली रतिकान्ता बादिसे। उन आठों कन्याओं के साथ विरहाग्निके सन्तापको शान्त करनेवाला मिलाप करता हुमा वह सुन्दर प्रिय श्रीपाल, उसी प्रकार देखा गया, जिस प्रकार गुप्तियों और समितियोंसे मिले हुए जिन भगवान् देखे जाते हैं।
घत्ता-अपनी सौत वणिक पुत्रो यशस्वतीका मुख देखकर ईयकेि कारण ऋद्ध होकर और उच्छ्वास लेकर, सुखावती दु:खका हनन करनेवाले पिताके पर तत्काल चल दी ॥॥
सुखावतीने मनुष्यनी यशस्वती आदिका चरित अपने पिताको बताया कि वे गुणों के कारण आदर करनेवाले तथा अनुरक्त हम विद्याधरोंको कुछ भी नहीं मानते । उसने ( श्रीपालने ) शत्रके प्राणोंका अपहरण करनेवाले मेरे हाथको छोड़कर उस किराती ( यशस्वती) का हाथ पहले पकड़ा । इस अति सामान्य विवाहसे में क्या कहेंगी? अच्छा है कि मैं अचल कन्याप्रत ग्रहण
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३८८
..
[ ३६. २.५ ण अण्णणारिरयरंजिया आलिंगणु देवि तासु प्रियह। पहिलवइ जणणु मुइ कलमलउ विडु होइ सहावें चंचलउ । अण्णण्णाहिं कुसुमहिं दिणु गमइ कि एकहि वेल्लिहि अलि रमह । एत्वंतरि सिरिवाले णयरि मग्गिय मृर्गलोयण घरि जि घरि । णालोयंत पुणु जाणिय
हा पृथमाणुसु अवमाणियटं। अई लजिवि णियभवणहु गय3 किं जंतु जंतु वि विरहें मयड। इय चितिवि णहया एकुणरु पेसिउ लह'लेलिपं लेहधरू । संपत्तउ गेहु अकंपणहु जिणधरणभत्तिभावियमणहु । घत्ता-लेहें सहूं पादुडु ढोइवि खगभडु पडिज खगिदहु पायहिं ।।
तुहुं मण्णिउ सज्जणु विणियदुजणु वसुसिरिवालहिं रायहि ।।२।।
तेण वि णियहत्थि णिवेइया आलिहियट पत्तु पलोइयच । तं सोहेइ वण्णहं पंतियहि अलवंतीहिं वि पलवंतियहिं । कंचुइवणाई सुणेवि सद जं परिणिय वणिवरतणय मइ । त' पालिय कुलपरिही सकुलि मणु पुणु तुद पुत्तिहि मुहकमलि । चंपयकुसुमात्रलिगोरियहि संभरेमि सुयाहि तुहारियहि । जिह कठिण थणस्थलु तिह पाहाँ जिह र रचरणु तिह अहरु । फण्णंतु समागय णयण जिह परमारणसीला बाण तिह। जिह ममुखीणु तिह् विरहियणु जि धणु गुणमंडिउ तिह जि तणु | जणणंकासगइ णिसण्णियइ कणियह कुसुमसरछपिणयइ । तं णिसुवि णिभर चितियउ महणाहे माणु णियत्तियध । तहि पिउणा तं जि पबोल्जिय हयगमणभेरिबलु चल्लिय। तारण समज गय कुमरि तहि णिवसह सूहट वरइत्तु जहि । पत्ता-संपत्तु अकंपणु स करि ससंदणु पेकिछवि हाणु णहंगणु ।।।
गय विग्णि वि सायर संमुह भायर ममामा आलिंगणु ।।३।।
५. MB देमि ण तामु। ६. MB पिय; K पृयहु । ७. M विड। ८. MB मिगलोमणि । ९. MB पियं । १०. MBK लइ। ११. जणु जंतु वि। १२. M ललियं । १३. MB लेहु ।
१४. B°भावियरणहु । ३. १. MJ साहइ । २. MB बयणाई। ३, ME ता । ४. MB हासमले। ५. MB read for this
foot : लडहाहि मुणिमणचोरियहि । ६... कढिणु । ७. B adds after this : मह आवासयई णिवारियई, संभरमि मुयाहि तुहारियाह । ८. B रस रत्तरणु । ९. M सोहा । १०. M सरसंणियइ; B सरकण्णियह T कणियई। ११. Badds after this : णियपुत्तिहि मणु णीसल्लियन । १२. MB add after this : तह सहें तिहयणु हल्लियउ। १३. MK आलिगिण ।
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३६.३.१४]
हिन्दी अनुवाद कर ले। दूसरी स्त्रियों में रत होकर रेजित करनेवाले उस प्रियको आलिंगन नहीं दे सकती। तब पिताने कहा-हे पुत्री, तुम ईजिनित खेदको छोड़ो। विट स्वभावसे चंचल होते हैं ! भ्रमर दूसरे-दूसरे फूलोंमें दिन गवाता है। क्या वह एक लतामें रमण करता है? इस बीच में श्रीपालने सुखावतीको घरों-घर ढूंढ़वाया। उसे नहीं देखते हुए वह समझ गया और अफसोस करने लगा कि मैंने अपने प्रिय मनुष्यको अपमानित किया। वह अत्यन्त लज्जित होकर अपने भवनमें गया। प्रत्येक प्राणी विरह से पीड़ित होता है। यह विचारकर सुन्दर श्रीपालने एक लेखधर विद्यावर मनुष्यको भेजा। जिनवरके चरणों में भावित मन विद्याधर राजा अकम्पनके घर वह लेखधर पहुंचा।
धत्ता-लेखके साथ उपहार देकर वह विद्याधर योद्धा विद्याधर राजाके चरणोंमें पस गया। (और बोला ) दुर्जनोंका नाश करनेवाले आप सज्जन, बसुपाल और श्रीपाल दोनों राजामौके द्वारा मान्य हैं ।।२।।
उसने भी अपने हाथमें निवेवित लिखा हुआ पत्र देखा। वह पत्र नहीं बोलती हुई भो, बोलती हुई शब्दोंकी पक्तियोंके द्वारा शोभित था। कंचुकीके वचनोंसे स्वयं सुनकर जो मैंने सेठको कन्यासे विवाह किया है वह मैंने अपने कुलमें मर्यादाका पालन किया है । परन्तु मेरा मन, तुम्हारी पुत्रीके मुखकमलमें है। मैं तुम्हारी चम्पक कुसुमावलिके समान गोरी कन्पाकी याद करता है। जिस प्रकार उसके स्तनतल कठोर, उसी प्रकार उसका प्रहार । जिस प्रकार रक्तरण लाल होता है उसी प्रकार उसके अधर लाल हैं। जिस प्रकार उसके कान नेत्रों तक समागत हैं, उसी प्रकार उसके बाणोंका स्वभाव दूसरोंको मारना है। जिस प्रकार उसका मध्यभाग क्षीण है. उसी प्रकार यह विरहोजन; जिस प्रकार धनुष गुण ( डोरी) से मण्डित है उसी प्रकार उसका शरीर गुणमण्डित है। पिताके निकट आसनपर बैठी हुई कामदेवके तीरोंसे घायल कन्याने यह सुनकर अपने मन में अच्छी तरह विचार किया कि मेरे स्वामीने मान छोड़ दिया है। उसके पिताने भी उससे यही कहा। कूचका नगाड़ा बजाकर सेना चल दी। अपने पिताके साथ कुमारी वहाँ गयी जहाँ उसका प्रिय वर निवास करता था।
पत्ता-अपने हाथी और घोड़ोंके साथ अकम्पन वहाँ पहुंचा । नभके आंगनको आच्छन्न देखकर दोनों ही भाई आलिंगन मांगते हुए आदरपूर्वक सम्मुख आये ||३||
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३२०
महापुराण
[१६.४.१
घरि आसीणाई सणेहदय लहु अब्भागयपडिवचि कय । हेट्ठामुह बहु वरेण भणिय कि हुई तुह मलिणाणणिय। घणु सोइइ एकाइ विजुलई वगु सोहह एका कोइला । इह सोह मि ६ एकाइ पई गुरुवयणु करेवड तो वि पई । मा ससहि सजणषच्छलिइ अलिणीलकुडिलमउकोंतलिद । तें क्यणे रोसंणियत्तण
जायउं तहि रम्मु पेम्मु धणउं । वप्पिल संग्राइय रमणक्या तडिरयतडिवेयह तणिय ससा । चलणयणजुयलणिज्जियहरिणि रइकंता मयणवाई तकणि 1 एंबहसहासई राणियह परिणियई सेण खयराणियहं । पुणु पच्छेड़ गिरुवमभोयचइ ... ... ...बावसय में भोयवइ । घत्ता-सेणावइगह वइहयगयतियमइथवइपुरोहियजुत्तई ॥..
सज्जीवई रयणई रंजियणयणई सत्त तासु संपणई" |||
रोसेण सुहावइ हुकरइ
ईसाइ ण पियपुरि पइसरह । सुरमणियवणियवणसिरिहि थिय भवणु रएप्पिणु सुरगिरिहि । घरदासिहि जसइवु किट अपणेबाइ रायड्ड विण्णविउ । परमेसर वणिसुय परिविय घरलंजियवेसे घरि थविय । संणिसुणिविणवा संचालित हरिखुरघूलीरच णहि मिलिन । पदभत्तहि शक्ति महासयहि संपतु णिवासु सुहावइहि । प्रियवयणहि विह विह जंपियन जिट जिह मणु मुद्धहि कंपियउ । ईसालुय पइणा उपसमिय जाइवि वणितणय ताइ णविय । विजाहरि विकमहरिहरिहि थिय सा वि पुंडरिकिणिपुरिहि । पहरणसालहि सुहलियतबद्ध उप्पण्णाई पछु णराहिबहु । णवणि हिवाइ जायउ चकवाद किं वण्णइ अम्हारिसु कुकइ । धत्ता-सलिमयलि रवण्णइ ससहरयण्णइ पद्धिवजिवि एकासणु ।।
जसवैइयइ राएं सहुँ सपसाएं किंउ सुटुंहसभासणु ॥५।। ४. १. रोसु । २. MB संपाइउ । ३. MB 'वस 1 ४. MB सस । ५. MB पयट्ट । ६. MB
राणियाहं । ७. MB'राणियाहं ! ८. B पुच्छा। ९. MB गिह । १०. MB संपत्तई । ५. १. MB स्व । २. MB पइभत्तिहि । ३. MB पियं । ४. B ईसालुन । ५. MB जसबद महिराएं ।
६. MB सुहाहूं संभासणु ।
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३६. ५.१३]
हिन्दी अनुवाद
स्नेह और दयासे परिपूर्ण वे घरमें ठहरा दिये गये। शीघ्र ही उन्होंने अभ्यागतोंका अतिथिसत्कार किया। नीचा मुख कर बैठी हुई वघूसे कुमारने कहा कि तुम्हारा मुख मलिन क्यों हैं ? धन एक बिजलोसे शोभा पाता है, और वन कोयलसे शोभित है। यहाँ में शोभित हूँ तुम्हारे एकके द्वारा । तब भी मुझे गुरुजनोंसे वचन करने होते हैं। इसलिए सज्जनोंके प्रति वरसल रखनेवाली तथा भ्रमरके समान नीले धुंघराले और कोमल बालोंवाली तुम मुझसे रूठो मत। इन शब्दोंसे जसके क्रोधका नियन्त्रण हो गया और उसका प्रेम सघन तथा सुन्दर हो उठा। इतने में प्रियकी वशीभूत बप्पिला आ गयो, विधुदव और विद्युत्वेगकी बहन भी आ गयी। अपने चंचल नेत्रोंसे हरितीको जीतनेवाली रतिकान्ता और मदनावती युवतियां भी आ गयीं। इस प्रकार उसने आठ हजार विद्याधर रानियोंसे विवाह किया। फिर बादमें उसने अनुपम भोगवाली विद्याधर पुषी मोचतीसे किसाहनिया . ::..:...
__ पत्ता-सेनापति, गुरुपति, अश्व-गज-स्त्रो-स्थपति और पुरोहितसे युक्त तथा आंखोंको रंजित करनेवाले सात जीवित रत्न उसे प्राप्त हुए ||४||
सुखावती क्रोधसे हैं करती है, और ईष्याक कारण प्रियके नगरमें प्रवेश नहीं करती। जिसकी वनश्री देवोंके द्वारा मान्य और वयं है ऐसे सुमेरु पर्वतपर घर बनाकर वह रहने लगी। ग्रह-दासियोंके द्वारा यशस्वतीका रूप बना लिया गया। एक औरने आकर राजासे निवेदन किया-“हे परमेश्वर ! वणिक कन्याका अपमान किया गया है, उसकी गृहदासीके रूपमें घरमें स्थापना की गयी है।" यह सुनकर राजा चला, अश्वोंके खुरोंकी धूल आकाशसे जा मिली। शीघ्र वह पतिभक्ता महासती सुखावतीके निवासपर पहुंचा। प्रिय शब्दोंमें वह इस प्रकार बोला कि उससे उस मुग्धाका मन कांप उठा । पतिके द्वारा ईर्ष्या करनेवाली वह शान्त कर दी गयो, उसने जाकर वणिक कन्याको नमस्कार किया। वह विद्याधरी ( सुखावती) इन्द्र के पराक्रमका हरण करनेवाली पुण्डरी किणी नगरी में जाकर स्थित हो गयी ( रहने लगी)। जिसका तप सुफलित है ऐसे उस राजाको आयुधशालामें चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई। वह चक्रवर्ती नौ निधियोंका स्वामी हो गया। हमारे-जैसा कुकवि उसका वर्णन केसे कर सकता है।
पत्ता-चन्द्रमाके समान रंगवाले ( सफेद ) और सुन्दर तलभागमें एकासन स्वीकार कर, यशस्वतीके साथ राजाने प्रसादपूर्वक सुख-दुःखकी बातें कीं ||५||
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३९२
महापुराण
अरि असणिवेउ चिरु मच्चरिउ मायाहएण हउ अवह रिस। लिउ तेहि रययायलि विलि हिडिज तहि काणणि गिरिगुहिलि । गइलंघियणयलजेलहरहं। विट्टई कवडई विजाहरहे। मई रइयई पसरियलमरिसई अवलोइवि णाणासाहसई ।। चलकरयललुलियसूलमुसल आरुट्ट दुट्ट दापिट्ठ खल। उहणपयंडपलंयपिहिर
रिउ विज्बुमालिहरिवर खयर । दूसासण दुम्मुंह कालमुछ हरिवाहणधूमवेयपमुह । ए पिसुणियपिसुण मयच्छि महुं ता चवह कंत कंतेण सहुँ। कीरइ रिजबलमयणिम्मेहणु तुप्पेण समइ किं दबदहणु । उसमइ खमाइ ण खलहिय असिचावहिं जाम ण कलहियउं । पत्ता-पुरिसेण महत एत्थु जियतें जेण वीणु ण भरिनइ ॥
णंदति ण सजण जति ण दुजण खयह तेण किं किजह ।।६।। ..
महाविइ क णियच्छिय इय पहाड राएं इच्छियर। भोयवइहि बंधत्तुं कुलधवलु णामें इरिकेउ विसालबलु । अहिसिंधिवि पट्टणिबंधु का सेणाव खगबइ होवि गउ। रणि जिणिवि णिबंधिवि सतु विणा आणिय णं विसहर पदरविणा | सो तुझ्यारूदड दंडकर
पणतु पलोइट णिवेण णरु । बहलंसुजलोल्लियत्तियहि विलवतिहिं खेयरपुत्तियहि । णियणाहहु दीणवयणु लविउ बहिणिहिं बंधव उलु विच । सयल वि ते परिवट्टियकिबहु चरणारविंद णिवडिय णिषहु । राएं कारुण्णु ताहं करिषि पेसिय देसह अन्मुद्धरिवि। घत्ता-महियलु पालिज्जैइ मग्गिल दिज्जइ पणविज्जइ जिणयंदहु ।।
पयवडिव ण हम्मइ मम्गे गम्मइ एउ चरितु णरिंदहु ॥७॥
१. १. MB रययालिइ सहि । २. MB घलयरह। ३. MBK 'तुलिय' । ४. MK पलयमिहिर;
B मलयमिहर; G पलपपिडिर but originally पलय मिहिर which is corrected to
पिहिर by yellow pigment । ५. MB दूसह । ६. MB तिम्महण । ७. १. B पुग्थ्यिउ। २. MP बंध। ३. MB होइ। ४. MB मेलाविह। ५. MB चरणारविंद ।
६. B पाविज्जह । ७. MB जिणदह ।
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३६.७.११]
हिन्दी अनुभाव
३९३
पहने मशनिवेग मुझसे ईष्या रखता था। मायावी अश्वके द्वारा मेरा अपहरण किया गया। मुझे विजयाध पर्वतपर छोड़ दिया गया। मैं उस गम्भीर जंगल में घूमा। फिर मैंने अपनी गतिसे आकाशतल और मेघोंका अतिक्रमण करनेवाले विद्यापरोंके छल-कपट देखे। मैंने ईजिनक कितने ही साहसी कार्य किये। उन्हें देखकर, जो अपने चंचल हाथोंमें चंचल हल और मूसल घुमा रहे हैं, ऐसे वे गर्थीले दुधजन अप्रसन्न हो उठे। जलाने में प्रचण्ड प्रलयकालके सूर्यफे समान, शत्रु विद्युमाली और अश्ववेग विद्याधर, दुःशासन, दुर्मुख, कालमुख, हरिवाहन और धूमवेग प्रमुख, दुष्टोंके लिए भी दुष्ट ये मेरे दुश्मन है ( हे मृगनयनी )। तब प्रिया अपने प्रियसे कहती है-शत्रुके बल और मदका दमन किया जाता है क्या घोसे दावानलको ज्याला शान्त होती है। जबतक तलवार और धनुषसे न लड़ा जाये, तबतक दुष्ट हृदय क्षमासे शान्त नहीं होता।
धत्ता-इस संसारमें जीवित रहते हुए जिस महापुरुषने दीनका उद्धार नहीं किया, जिससे सज्जन आनन्दमें नहीं हुए और दुर्जन विनायको प्राप्त नहीं होते, उससे क्या किया जाये ( वह किसी कामका नहीं है )
महादेवीने कार्य निश्चित किया। राजाने भी इस प्रकार उसको इच्छा को । भोगावतीको कुलश्रेष्ठ विशाल बलवाले हरिकेतु नामक भाईका अभिषेक कर पट्ट बांध दिया। वह विद्याधर राजा सेनापति होकर चला गया । वह शत्रुओंको जीतकर और बांधकर ले आया मानो गरुड़ सोरोंको पकड़कर लाया हो। अश्वपर आरूढ़, हाथ में दण्ड लिये हुए और प्रणाम करते हुए उन मनुष्योंको राजाने देखा। जिनके नेत्र आँसुओंकी प्रचुरताके कारण आई हैं ऐसी विलाप करतो हुई विद्याधर पुत्रियोंने अपने स्वामीसे दोन शब्द कहे, और इस प्रकार बहनोंने अपने बन्धु समूहको मुक्त करा दिया। वे सबके सब बढ़ रही कुपासे युक्त राजाके चरणाग्रमें गिर पड़े। राजाने उनपर करुणा कर और उनका उद्धार कर अपने-अपने दिशों में भेज दिया।
घत्ता--महीतलका पालन किया जाये, याचकको दान दिया जाये, जिनेन्द्रके चरणोंमें प्रणाम किया जाये, पैरोंमें पड़े हुए व्यक्तिको न मारा जाये, और अच्छे मार्गपर चला जाये, राजाओंका यही चरित्र है 1॥७॥
२-५०
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महापुराण
चउरासीलक्खई कुंजराई तेत्तिय सहसई रहवराह। छण्णव सहासई राणिया बत्तीस णिहं संताणियाई । सोलहसइसई सिद्धहसुरई आणायराइं पंजलियराई। घरि बोरह रयणईणव वि णिहि महि एयछस अणुकूलपहि। सिरिचालहु पुराणु पवित्यरि
जणु दण्णइ पुत्वभवायरिउं| जं णयरायरउप्पण्णु धणु
तं जसवा पइसारइ भवः । सा सकलुस चविष सुहावइए .. छुद्धह संघियड जसोचइए । वसु पविण पपई मरणादणे. yort भीमणि पेयषणे | डज्मेवळ सहुँ विहिं कप्पडेहिं किं पुत्तकलप्तहिं लंपडेहि। धन्धा--ता मंति'' मासिङ गुरुगु फ्यासिई एवमाइ मा भासहि ॥
जसबइयहि केरी तिहुयणसारी सीलवित्ति मा दूसहि ॥८॥
जसवंइकुच्छिडि जिणु संभविही असवइयहि होही परमविही। जसवइयहि जसु महियलि ममिही जसवयहि पेय इंदु वि णषिही। परियाणिवि दिव्य मुणिंदु मुणि छम्मासहि होही एत्थु गुणि । देविड पेसणसंभाश्यस सिरिहिरिदिहि किपट भाइयउ । बसुहार पढिय परप्रंगणइ सुर मिलिय अणेय' णहंगणइ । हरि करि रवि जलणरासि जलिय दिट्ठी सोलह सिविणावलिय । थित चंडपुरंदरथुयचलणु जिणु देविहि देहा कयकलुणु । सा सुंवरि पविय सुरासुरहि भावणवेतरहिं सविसहरहि । तहि अवसरि माणमरट्ट चुट मणि धम्माणंदु अणंतु हुड ।
आवेप्पिणु णिम्मच्छरमश जसबह सई णविय सुहावनइ । दिर्स कषण सुरासहि अणुहरइ किं अवरहि रवि उम्ग करइ । का पुज्ज णारि पई माई विणु अण्णाइ उयरि किं धरिउ जिणु । पत्ता-अमुणिय संबंधइ पिरु रोसंघद फरुसक्खर ज जंपियः ॥
तं अमेरपियारिइ खमहि भडारिइ मई बालइ दुकिउ किथंई ।।।। ८. १. M तेत्तियई गि लक्खई संदणाह; B omits thla foot; K तेत्तियई सहासई रहवराहं ।
२. MB add after this : तहु परिय सुछ संदणवराई । ३. B सहस । ४. MB सहस संताणियाहं । ५. B सहासई । ६. MB सुराहं । ७. MB अणुकुलविहि; K बहि but corrects
it to विधि । ८. MB पुण्ण । . MBK कप्पाहि । १०. MBK लंपरहि । ११, MB मंतिहिं । ९. १. MB जसवहहि कुञ्छि । २. MB पयई वि इंदु गविही । ३. MBT मुणि । ४. MB
परपंगणइ । ५. MBK चंद । ६. MB सुरासुरेहि । ७. MB सविसहरेहि । ८. MB दिसि कम्वण । ९. MB भएवि अणु । १०. MB पिच । ११. MB अरुह । १२. MB फिउ ।।
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३६.९.१४]
हिन्दी अनुवाद
२९५
चौरासी लाख हाथो, तेतीस हजार श्रेष्ठ रथ, छियानबे हजार रानियाँ, फुल-परम्पराके बत्तीस हबार राजा, मानाकारी और हाथ जोड़े हुए सोलह हजार देव उसे सिद्ध हुए। घरमें चोदह रल
और नौ निधिर्या सिद्ध हो गयीं। अनुकूल पथमें उसे एकछत्र भूमि प्राप्त थी। लोग कहते हैं .... ... .वि. पूर्द करार में जित, लोगो का निस्तार हो गया। तब सुहावतीने यह कीचड़ उछालनी
शुरू की कि नगरकी खदानोंसे जो धन निकलता है उसे यशस्वती अपने घरमें प्रविष्ट करा लेती है, लेकिन यशस्वतीके द्वारा संचित धन मृत्युके दिन एक पग भी उसके साथ नहीं जायेगा। भीषण मरघटमें उसे अकेले ही जलना होगा, दूसरे, कपड़ोंके साथ । लम्पट पुत्र-कलनसे क्या ?
पत्ता-तब मन्त्रीने कहा और यह गुरु वात प्रकट कर दी, इस प्रकार मत कहो। यशस्वतीको तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ शीलवृत्तिको दोष मत लगाओ ||
यशस्वतीको कोखसे जिन भगवानका जन्म होगा, यशस्वतीका परम सौभाग्य होगा। यशस्वतीका यश संसारमें धूमेगा। यशस्वतीके चरणोंमें इन्द्र प्रणाम करेगा। यह जानकर कि गुणी दिव्य मुनीन्द्र छह माहमें होंगे। आशादानके सम्मानसे सम्मानित प्रो-ही-कीति वादि देविर्या सेवाकी सम्भावनासे आयीं। घरके आंगनमें धनकी वर्षा हुई। उसने सिंह, गज, सूर्य, समुद्र और जल आदि सोलह सपनोंको आवलि देखी। जिन्होंने करुणा की है, और जिनके चरण प्रचण्ड इन्द्रोंके द्वारा संस्तुत हैं, ऐसे जिन भगवान् देवीको देहमें स्थित हो गये । सुर, असुरों तथा विषधरों सहित भवनवासी और व्यन्तरोंने उसे प्रणाम किया। उस अवसरपर सुस्त्रावतीका मान-अहंकार च्युत हो गया, उसके मनमें अनन्त धर्मानन्द हुआ। सुखावतीने ईयासे रहित होकर, स्वयं आकर यशस्वतीको नमस्कार किया, और कहा-पूर्व दिशाका अनुकरण कौन दिशा कर सकती है ? क्या किसी दूसरी दिशामें सूर्यका उदय हो सकता है। हे आवरणीय, तुम्हारे बिना कोन स्त्री जिनवरको अपने उदरमें धारण कर सकती है।
पत्ता-कोषसे अन्धी, मैंने सम्बन्धको नहीं जानते हुए जो कठोर शब्दोंका प्रयोग किया उन्हें हे देवताओंकी प्रिप आदरणीये, आप क्षमा कर दें। मुन्न मूर्खाने बहुत बड़ा पाप किया था ।।९।।
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णामेण विलासिणि रंगसिरि अकमलकर णं सयमेव सिरि। गाईति पलोइय वणिवइणा पहि जति भणिय पड्डियरक्षणा। मुहयंदुजोइयसयलदिस
किं हि वहि पुलयवस। ता कहिल ताइ वणिणाह लहु देवीपयफासे पट्ट महु। बारह वारिसियर खासु किह जिणदसणेण जणदुरिस जिद्द । पुसणे श्रमिएं सिंचियर तेणंगु माझ रोमंचियउ। जसवइपयगलियजलेण जरु णासइ गभूथपिसायडरु। सा धूमधेय वइरिणि खगइ अपर वि गुरुहार जाय जुवइ । जुबेराय हवेसह पोट्टि तहि जुयरायपट्ट बद्धक्ष अणहि । तो जणणिइ जणियस वित्थयक भइयइ थरहरियड पंचसरु । उत्तारिउ धणु दिकविय सर जिणजम्मणि कम्महणस्थि धर । णिउ मेरुहि तियसाहिं जिणधषलु जाण मि सिवसिरिकण्णहि धवलु । घत्ता-सई हवा पुरंदक आसणु मंदर "कायकोंडु रयणायरु ।।
जहिं पहाइ जिणेसर तं पठवण णक कहइ को वि जणायन ।।१०।।
११
भाषणतरकप्पादिवहि
देवहिं इच्छियसासयसुहहिं । गुणषालु गाउं किस जिणवाहि आणिवि अप्पियउ जसोवइहि । णवमासहिं अवर महासइहि संभूयः पुत्तु सुहावइहि । ससहोयर भोयवईइ सहुं खयरहुं णियकेर समुरिसर्छ । गउ णरवैइ सणरु सकरि सरह । अरिवरहरिजूहहु णं सरह । वेयमहीहरि संपरा
विजाहररायहं महि हरइ। साहिय फणि जक्ख वि किंणर वि वह भइया कंपइ किं प रवि । परमप्पड एयड जासु घरि णिवसाद सिरि अबसे तासु करि । मुंजंतहु कामभोयसेयई
लक्खाई तीस पुष्पहुं गयई। पञ्चर्हि विणि जिणु णिवेइयउ लोयंतिपहिं संबोहियउ। घसा- ढोइवि णीस घणु णीसेसह दुक्खायामियकायहं ।।
पच्छइ पनिषण्ण गुणसंपुण्ण सुचरिङ स्त्रीणकसायह ॥११॥
१०. १. M महि इंसुज्जोय; BK मुहइंदुजोइय । २. MB वचहि जयहि । ३, MB पयो ।
४. MB बारहरिसियज वि । ५. MBK जुपराउ। ६. MB पट्ट। ७. Kसा। ८. M सिर ।
९. MBK कामहू । १०. MB कायकुंकु । ११. १. MB वितर। २. MB सासयसिबहिं । ३. MB परषा सरि सहरि सरह । ४. B भएं ।
१. M"सुई; B सहई।
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३६.११.१२]
हिन्दी अनुवाद
३९७
विलासिनी नामकी एक रंगश्री (नतंकी ) थी जो कमलसे उत्पन्न न होते हुए भी स्वयं लक्ष्मी थी। सेठने उसे जाते हुए देखा। जिसे कामवासना बढ़ रही है ऐसे उस सेठने रास्तेमें जाते हुए उससे पूछा-"अपने मुखचन्द्रसे दिशाओंको आलोकित करनेवाली तुम रोमांचित होकर नाचती हुई क्यों जा रही हो?" उसने सेठसे कहा-देवीके घरण-स्पर्शसे मेरी बारह वर्षको खांसी मिट गयो है, उसी प्रकार, जिस प्रकार जिनदेवके दर्शनसे लोगोंके पाप मिट जाते हैं। मेरा पृष्ठभाग मानो अमृतसे सिंचित हो। इसोसे मेरा शरीर रोमांचित है। यशस्वतोके पैरोंसे प्रगलित जलसे ज्वर और ग्रहभूत-पिशाचोंका नाश हो जाता है। वह धूमवेगा वैरिन विद्याधरो नष्ट हो गयो । और भी उस युवतीका पर भारी हो गया। उसके उदरसे युवराजका जन्म होगा, इसलिए एक दूसरीने उसे युवराज-पट्ट बांध दिया । तब माताने तीर्यकरको जन्म दिया। भयसे कामदेव पर गया। उसने अपना धनुष उतार लिया और तीर छिपा लिये। जिनवरके जन्मके समय कामदेवके लिए रक्षा नहीं रह जाती। देवोंके द्वारा जिनेन्द्र श्रेष्ठ सुमेरु पर्वतपर ले जाये गये, मैं जानता हूँ कि वह शिवलक्ष्मोरूपो कन्याके भर्ता हैं।
___ पत्ता- देवेन्द्र स्वयं स्नान कराता है, मन्दराचल बासन है, समुद्र शरीरके लिए कुण्ड है (जलपात्र है), स्नानगृह वही है जहां जिन स्नान करते हैं ऐसा कोई चतुर मनुष्य-गणधर आदि कहते हैं 11१०॥
११
शाश्वत् सुखको छा रखनेवाले भवनवासी, व्यन्सर और कल्पवासी देवोंने जिनपतिका नाम गुणपाल रखा और लाकर यशस्वतीके लिए सौंप दिया। महासती सुखावतीके भी नौ माहमें एक और पुत्र हुआ। भोगवतीके साथ तथा अपने भाईके साथ वह विद्याधर रावाबोंमें अपनी आज्ञा स्थापित करनेके लिए अनुचरों, घोड़ों, गजों और रयों के साथ गया, मानो शत्रुस्पो हाथियोंके झुण्डपर सिंह टूट पड़ा हो। वह विजया पर्वतपर परिभ्रमण करते हुए विद्याधर राजाओंको धरतीका अपहरण करता है। वह सिद्धों और किन्नरोंको सिद्ध कर लेता है। उसके भयसे सूर्य कांपता है, जिसके घरमें परमात्माका जन्म हुआ है, उसकी गोद में लक्ष्मीका निवास अवश्य होगा। सैकड़ों कामभोगोंको भोगते हुए उसके तोस लाख वर्ष बीत गये। एक दिन जिन भगवानको वैराग्य उत्पन्न हो गया। लोकान्तिक देवोंने आकर उसे सम्बोधित किया।
पत्ता-निर्धन और दुःखसे झुकी हुई कायावाले समस्त दीन-दुखियोंको मन दिया। फिर बादमें उसने क्षोणकषायवाठोंका गुणों से परिपूर्ण समस्त चारित्र स्वीकार कर लिया १११
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५
१०
१०
३९८
महापुराण
१२
सिविसेस
गुणवा भडारड गुणम हिच सोभिषि दुयसीलाई पुबई सरें पप्फुलियाल कमलमुहड्ड परिस्थितिवि जन्मजरामरणु सोलहसहासवरणीसरहं संसारबोरभारे इ स पुतसहा सो सहर देवि परमत्थवियाणियई बुधम्म झिरप
धत्ता-सा वरिष्ठ चरेष्पिणु तेत्यु मरेष्पिणु सई अमेहि हुई । जासियत में जिणवरधन्में वावइ पुरठ बिहूई ||१२||
संजायन केवल वित्यरु | विहरs महिलि देवहिं साहेब | जिणसूर वे मद्द मोक्खु लहु । सिरियालु वि भुंजिवि सरल घर । सिरि पट्ट णिबंधिषि वणुरुह । जियतनयजिदि गए सरणु । से सहूं पवश्य मँहासरहूं । वसुवालु रिंतु वि पीवइ । सं जमतं को बद्दश । पण्णा ससेहोस राणियहं । तब संठिडे समचं सुझावश्ए ।
१३
देह सत्तधा घडिय । aft लोडु ण कोढ ण कामजर 1 जहिं केवल जोड जि पाणमड | सिरियालु वि गड काभ्रेण तहिं । अरहंतु करण महु रविरमु । घणरवेण दिष्णु आलिंगणएं । रायवसविरोलियेलोयणहि । इदं खगजम्मंतर संभरमि । जन्मंतरविष्ठ आइयड | गणयविहारपवितियच । d पेक्खिवि भणइ पियंगुलिरि ।
[ ३६ १२ १
जहिं मुक्खण तह ण हिडिय सण भिण घरिणि घरु माणुणमायण मोहु मच म इंदिय पंच वि णत्थि जहिं वसुवालु वि गुणषालु वि परमु सुणिविकत अप्पण तूपिणु वाहि सुलोयणहि भणितं देवि हियवइ भैरंवि तर्हि अवसर हरिसुद्धा इय गंधारिगो रिषण्णन्तियत णिय सोहाणिज्जिय कमलसिरि मत्ता - जाणै भाषिणि अइमायाविणि कंसह चायकारिणि ।। अलि जि कहंतर भवणेरंतर कहइ दुइ दुबारिणि ॥१३॥
१२. १. M गुणवाल १ २ GK बुर but gloss कमलम् । ३. MB सोक्खु ।
४, M सकेर । ५. MBK पट्टु । ६. B पर चितिवि । ७. MB महीसरहं । ८. MB पव्बउ । ९. MB चल । ११. MB सहसरायाणियहं । १२. MB] संख्यि ।
१०. MB वेवहि परमत्यु वियाणिग्रहं ।
१३. MB] अमराहिय ।
१३. १. MB सिरिवा गयउ । २. MB विरोलिय । ३. MB बरमि । ४. B वज्जि । ५. MB आाणमि । ६. MB भषणे निरंतर ।
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३६.१३. ११] हिन्दी अनुवाद
३९९ १२ यह चौंतीस अतिशयोंको धारण करनेवाले केवलज्ञानी तीर्थकर हो गये। गुणोंसे महान् आदरणीय गुणपाल देवोंके साथ धरतीपर विहार करते हैं। भव्यरूपी कमलोंको सम्बोषित करनेवाले हे जिनदेवरूपी सूर्य, आप मुझे शीघ्र मोक्ष प्रदान करें। बयासी लाख वर्ष पूर्व तक, पर्वतों सहित समस्त घरतीका उपभोग कर श्रीपाल भी खिले हुए बालकमलके समान मुखवाले बालकके सिरपर पट्ट बांधकर जन्म, जरा और मुत्युका विचार कर अपने पुत्रोंके साथ तीर्थकर गुणपालको शरणमें चले गये। उसके साथ सोलह हजार गम्भीर धोषवाले राजा प्रवजित हो गये। संसारके घोरभारसे विरक्त होकर वसुपाल राजा भी प्रवजित हो गया। यह हजारों पुत्रोंके साथ शोभित है, वैसे संयम और व्रतको कौन धारण कर सकता है। परमार्थको जाननेवाली पचास हजार रानियां भी रतिको छोड़कर, धर्मको जानती हुई, सुखावतीके साथ तपमें लीन हो गयीं।
धत्ता-वह भी तपश्चरण कर, और मरकर वहाँसे स्वर्गमें इन्द्र हुई। कोको नाश करनेवाले जिनवरके धमके प्रभावसे ऐश्वयं आगे-आगे दौड़ता है ।।१२।।
जहाँ न भूल है, न प्यास है और न नींद है, जहां शरीर सात धातुओंसे रचित नहीं है, न शत्रु है, न मित्र है, न गृहिणी है, न घर है, जहाँ न लोभ है और न कोप है, जहां न काम है, न ज्वर है. न मान है,न माया है,न मोह है, न मद है, जहाँ जीव केवल ज्ञानमय है, जहां पांचों इन्द्रियों और मन भी नहीं हैं, समय आनेपर श्रीपाल भी वहां पहुंचा। वसुपाल, गुणपाल तथा परम अरहन्त भी मेरी रतिका विराम करें। इस प्रकार अपना कथान्तर सुनकर प्रेमके वशसे अपनी आँखोंको घुमानेवाली उस सुलोचनाको सन्तोष देनेके लिए जयकुमारने उसे आलिंगन दिया । उसने कहा कि हे देवो, मैं तुम्हें हृदयमें धारण करता हूँ। मैं विद्याधरके जन्मान्तरकी याद करता हूं। उसी अवसरपर हर्षसे उछलती हुई पूर्व जन्मको विद्याएं आयीं, गान्धारी, गौरी और प्रज्ञप्ति जो आकाशतलमें विहार करनेकी प्रवृत्तिवाली थीं । अपनी शोभासे कमलश्रीको जोतनेवाली प्रियंगुश्री उसे देखकर कहती है
__पत्ता-मैं समझती हूँ यह भामिनी अत्यन्त मायाविनी और प्रियको चापलूसी करनेवाली है । यह दुष्ट दुराचारिणी झूठमूठ कथान्तर और भवजन्म-परम्परा कहती है ।।१।।
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४००
महापुराण
सुटुं देवि सुलोयणि अववरिय इसे पापसवति स्वार भरिय । पई कहिस करगुण साइंदि ला विठ्ठप एषहिं कि हवि। रमणीयणसिरेण्डामणिहिं णोसल्लु कय दोहि वि जणिहिं । लहुभाइहि रज्जु समाप्पियर घणघोसे सहरिसु जंपियर्ड।
जिणु बमु मयंभु सई वसइ जहि । रयणालंकारहि विष्फुरित विज्जाहरवेसु तेण धरिठ। जं होतउ आसि पहावयहि तं रुधु धरेप्पिणु णियवाहि । थिय पासि सुलोयण जलयवहि षिणि षि सल्ललियई झप्ति णहि । जणु जोयह पद्धदिहि मुयइ असहंतु विओर कलुणु दया। अंवेवर परियणु णीससह बंधवयणु संभरंतु सुसह। पत्ता-उल्लंबियजलहरि सुरवरमहिहरि भदासालवणंतरि॥
तं पइसइ बहुवर चलकिसलयकर जिणवरभवणभवरि ॥१४॥
बिणि मि बदेपिणु अिणधवलु तंभासालु सोलसरलु । परिहरिवि ताई सपरि गयई रोत्थाउ पंचजोयणसयई। नहिं जाणि पुजिवि चेड्या यणि चविसु अकयणिकार्य । पुणरवि विसद्विसहसाई सवरि जोयणहं चडेप्पिणु सुरसिहरि । वणु दिहरु णामें सउमणसु करिदसणाहयतरुगलियरसु। पणवेवि तहि मि जयतिजगुत्तमर जिणवरपडिमा अकित्तिमध। पुणु पंचतीससहसाई धणेई पंचसयालंकिरजोयणई। लंघिषि पंहुयवणि पइसरिवि अहिसेड अठहथिंबई करिषि । जोइवि चूलिय मेरुहि तणिय चालीस जि जोयण परिगहिय । जोइय उत्तरकुर देवकुरु
अबलोइय दह विछ कम्पतक। छ वि कुलपध्वय चोरह गइष्ट विट्ठल बहभूमिमेयगइस । धत्ता-जेहिं पस सगुणगणु णिरु णिरुवमतणु जंबुदेव रंजियजणु ॥
जबूतरु जोहड रयणुज्जोइड जंबूदीवह लंछणु ।।१५।।
१४, १. MB पावसन्ति । २. T कहा । ३. MB सहमि । ४. MB कमि । ५. MB सिरि ।
६. MB संभु । ७. MB रूउ णिएप्पिणु । १५. १. B सालहिं सरलु । २. MB गंदणवणि पुजिवि । ३. MB चेश्यई। ४. MB "णिकेश्यई । ५. M
पणषि तहि मि अयजगुत्तमर; B पपवेवि तेहि वि तिमगुत्तमच । ६. B वणहं । ७. MBK परिगणिय । ८. MB भूमिमोय । १. MB हि णिवसह गुणगणु ।
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३६. १५. १३]
हिन्दी अनुवाद
४०१
"हे देवो सुलोचने ! तुम अवतरित हुई और में पापी सौत खारसे भर गयो। तुमने जो कथांग कहा, उसमें में श्रद्धा नहीं करती। लो मैंने सब देख लिया, अब क्या छिपाऊँ।" तब रमणीजनोंके लिए चूड़ामणिके समान उन दोनोंने उसे शल्यरहित बना दिया। जयकुमारने अपने छोटे भाईके लिए राज्य सौंप दिया और मेषके स्वरमें घोषणा की कि आज मैं आकाशमें वहाँ-वहाँ जाता हूँ जहाँ जिन, ब्रह्मा और स्वयम्भू स्वयं निवास करते हैं। उसने रस्नालंकारोंसे विच्छुरित विद्याधरका स्वरूप बनाया। जो प्रभावदोका रूप था, अपने पतिके लिए उस रूपको धारण कर सुलोचना आकाशपथमें प्रियके पास स्थित हो गयी। दोनों शीघ्र आकाशपथमें उछल गये। जन उन्हें देखता है और अपनी ऊपरको दृष्धि छोड़ देता है। वियोगको सहन नहीं करता हुआ रोता है। अन्तःपुर और परिजन निःश्वास लेता है, बान्धव जन याद करता हुआ शुष्क होता है।
यत्ता-जिसने मेघोंका अतिक्रमण किया है ऐसे सुमेरु पर्वत और भद्रशाल वनके भीतर जिन-मन्दिरोंमें चंचल कोयलोंके समान हाथवाले वधूवर प्रवेश करते हैं ||१४||
दोनों जिनश्रेष्ठको वन्दना कर, सालवृक्षोंसे सरल उस भद्रशाल बनका परित्याग कर उनके ऊपर पांच योजन गये । वहाँ नन्दनवनमें चारों दिशाओं में अकृत्रिम चैत्यालयों और चैत्योंकी पूजा कर, फिर वेसठ हजार योजन ऊपर चढ़कर सुमेरु पर्वतके शिखरपर उन्होंने सौमनस नामका वन देखा, जिसमें हाथियोंके सँड़ोंसे आहत वृक्षोंसे रस रिस रहा है। वहाँपर भो जयसे भुवनत्रयमें उत्तम अकृत्रिम जिनवर प्रतिमाओंको प्रणाम कर फिर पैंतीस हजार पाँच सौ योजन ऊपर मेत्रोंको लांघकर पाण्डुक वनमें प्रवेश कर, अहंन्त बिम्बोंका अभिषेक कर, मेरुपर्वतको चूलिका देखकर, चालीस योजन और जाकर उत्तरकुरु और दक्षिणकुरुके दर्शन किये और दस प्रकारके कल्पवृक्षोंको देखा । छहों कुलपर्वत, चौदह नदियाँ और भेदगतिवाली अनेक नदियां देखीं।
पत्ता-जहां अपने गुणों और गणोंसे युक्त लोगोंको रंजित करनेवाला अनुपम शरीर जम्बू स्वामी रहता है, ऐसा रत्नोंसे उद्योतित जम्बूदोपका धिल्लु जम्बू वृक्ष देखा ।।१५।।
२-५१
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४०२
महापुराण
तं जोयषि आयई सुक्षिणहरि जहिं हुई सहि सिरिविंझसिरि। तणुणवलइय मणिमयभूमणिय सोहम्मसुरिंदविलासिणिय । जहिं जोयणमेत्त अस्थि कमलु जंqण्णयणिम्मियविमलदलु । अहिं सुरह वि चोजुप्पायण णालु वि इवह दहजोयणई। तषणीयविणिम्मिय णं णविय कपिणय गन्हपरिट्रविय । जहि कोसपमाणु बिमाणु तहे लहछीदेविहि अरविंदवहे।
पेच्छिवि णयल्लि चलियाई विणि वि णियमणि गंजोझियई। गंगासिंधूसिहरई णिइवि सहि तण सलिलु परिमलु पिइति । सरपलणिसेवियमेहलहो पुणु आयई वेयड्डायलहो। जयरूषणलिणलंपडि भमरि थिय पंथु णिरोहिवि तहिं खयरि । सा भणइ वसइ इह तुलियजगु गंधारिपिंगु णामेण खगु । घचा-हउँ तह केरी सुय णवकुवलयमुय पई णियंति जणरामें ।
[णि मग्गणु संधिवि ठाणु णिबंधिवि विद्धी हियवद कामें ||१६||
गमिणहयरणाइड गेहिणिय हउँ जगि पसिद्ध वडिमालिणिय ! विधासहाससंपयधरई
रणि दुजय हार्ड विजाइरह ! मई इच्छहि सूहव अन्जु जह तुद दुल्लहु काई वि णस्थि तइ । तं णिसुणिचि भरहसेणाहिवा भासइ तुई सुंदरि मूढमइ । ओसरु सरु पयह सइरिणिए किं पहि वोमविहारिणिए । महु जणणिसमाणी परघरिणि जो पेइसिवि सका वइतरिणि । सो पई सेवउ णिरु णिरिघणस हवं पुण तुहहोमि माइ तणः । ता रूसिवि पिंगलकेसियत
सइइ रयणियरिउ पेसियज । सिसुससिसंणिहदाढालियन णवधणणीलंजणकालियउ। चलजीबापल्लवरणिय
गुंजापुंजारुणणयणियड। लंबियघोणसफणिमेइलट किलिकिलिसमें कयकलयल। घत्ता-सुरक्षणुविण्णासहि विज्जुबिलासहि थिरसरधारामेहि ।
आढत अण्णेयहिं पहरणभेयहि भिण्णमहाभउदेहहिं ।।१७॥ १६. १. MB जंबणय । २. MB वि पविमज । ३, M तहि तणउ सुपविमलु जलु पिइनि; B तह तगड
जि पविभल जलु पिकवि । ४. M सुरवरवलसेवियं; B सुरणरठलसेविय । ५. MB लंपड। ६. B पियपंथु । ७. MB गंधारपिंगु । ८. MB गुणमग्गणु । १७. १, M दुज्जिय । २. MB पासहूं। ३. MB गेम्हज । ४. M असइयह रयाणा रिउ पेसिड; B असईए
रयणियरत पेसियन । ५. विज्जुसहासहिं ।
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T
हिन्दी अनुवाद
१६
उसे देखकर वे हिमगिरि पर्वतपर आये, जहाँ सखी बिन्ध्यश्री देवी हुई थी, शरीर बलित, मणिमय भूषणोंवाली और सोधर्म स्वर्गकी विलासिनो । जहाँ एक योजनका कमल है, जिसके विमल कमलदल स्वर्णसे निर्मित है, जिसमें देवों में भी आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला दस योजनका कमल माल है तथा सोनसे निर्मित एक गव्यूति प्रमाण नयो कणिका है, अरविन्द सरोवर में उस लक्ष्मीदेवीका एक कोश प्रमाण विमान है। उसे देखकर वे लोग आकाशतलपर चले । दोनों ही अपने मनमें पुलकित थे । गंगा और सिन्धु नदीके शिखरों को देखकर उनका सुगन्धित जल पोकर वे लोग शवरकुलसे सेवित मेखलावाले विजयार्थ पर्वतपर आये । वहाँपर जयकुमार के रूपरूपी कमलकी लम्पट एक विद्याधरी रास्ता रोककर बैठ गयी। वह कहती है कि यहांवर तीनों विश्वों को तोलनेवाला गान्धार पिंग नामका विद्याधर रहता है ।
३६. १७.१३]
४०३.
पत्ता - में उसकी कन्या हूँ। नवकमलके समान भुजाओंवाली तुम्हें देखते हुए जगसुन्दर कामदेवने प्रत्यंचापर तीर चढ़ाकर तथा अपने स्थानको लक्ष्य बनाकर मुझे विद्ध कर दिया है || १६ ||
q
नमि विद्याधरकी गृहिणी में विश्व में तडित्मालिनी के नामसे प्रसिद्ध हूँ। हजारों विद्याओंको सम्पत्ति धारण करनेवाले विद्याधरोंके युद्धमें अजेय हूँ । है सुन्दर यदि तुम आज चाहते हो तो तुम्हारे लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा ? यह सुनकर भरत के सेनापति जयकुमारने कहा"हे सुन्दरी, तुम मूढमति हो । है स्वैरचारिणी, मागसे हृद । है व्योमविहारिणी ! तू क्या कहती है ? परस्त्री मेरे लिए माता के समान है। जो वैतरणी नदी में प्रवेश कर सकता है वह अत्यन्त निर्धन तुम्हारा सेवन करे हे माता, मैं तुम्हारा पुत्र होता है ।" तब उस असतोने क्रुद्ध होकर पीले बालोंवाले निशाचरको भेजा, जो बालचन्द्रके समान दाढ़ोंवाला, नवमेव और अंजनके समान काला, चंचल जीभरूपी पल्लवके मुखवाला, भुजा समूहके समान आँखोंवाला, लम्बे घोणस सनिकी मेखलावाला, किल-किल शब्दसे कलकल करता हुआ ।
धत्ता- इन्द्रधनुष के विन्यासों, बिजलियोंके विलासों, स्थिर जलधारावाले मेघों तथा बड़े-बड़े सुभटोंके शरीरोंका भेदन करनेवाले नाना प्रकारके अनेक शस्त्रोंके द्वारा उसने उसे घेर लिया ||१७||
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५
१०
१०
var
जयसीलविद्धि तेहिं हयां थिय नियमियचित्त सुलोयण वि तो से दुलिया बुझिचड जब मंदच विवठाणहु पढाई भं रूसेज जं मई दूमिय गय एम भणेपिणु गणयरि कुंदुहिसरु महुरु समुछ लिङ तेत्त इंदे पेसियर
जा पई रोहिवि थिय घणथणिय तुह सीलु पिहालहुँ पहुलिय
महापुराण
ઢ
हिये जण गुरुखंति कयाँ । जाणंति तो वि खललोय ण वि । हामि फिल तुच्छ विवितावत्ति खलन । विव पेसिबि आयामियत । अमरहिं पुजिउ अरिहरिणहरि ।
यउ ।
पहुणा सुरवरु मिलिठ | मई मा गसियड । साहव खेरि सुरगणिय । पई पियजणणी विव विश्वेत्रिय ।
घत्ता – कुरुकुलणयलससि णाणुब्भववसि कंपावियदसँदिव्यइ || चारितु तुहार भवभयहारष्ठ भणु किर केण पण थुन्च ।। १८ ।।
१९
तं सुणिवि पभणइ रु पचरु । बरु मग्गमि हउं संसारहरु | पुणु विडर सुरवर बंदु रवि । जहिं कामयेण पञ्चलह । हरं तत्ति करेंमि सुरतहु वरहो । गड अमरु अमरलोयहु तुरिङ । बहुबरु केलासु पराइयउ । आसीण रयणसिलायल | ता णि सद्दु सुरडिंडिमई । बिणि वि गयाई महियद्वियई । जहिं भरणराद्दिवणिम्मियई ।
जो रुच्च सो तुहुं मगि वर व सम्मति णाणपवित्तिय ह अरे वरेण महंकण वि जहिं सोया संचल सो मोखु णिलणु जिणवरहो ता वैदिवि जयरायहु चरिउ तं देवपसंस राइयल रीणउ गइ विरइवि मध्यलइ कणयमय कोणताडणख मह सण तेण आयद्विय सुरसरितरंगस सियर सिय धता--चामीयरघडियएँ मणिगणजहियई दिई घर जिजेर्स रहूं ॥ पयपणेवियसीस तहिं घडवीसहं दिक्खादमियदुरास ||१९||
[ ३६. १८. १
१८. १. MB हृय ।
५. B रोहि ।
६. MB चितषिय । १९. १. MB पवरणय
२. M३ MBण काई सि । ४. MB हुयासणु पज्जलद । ५.B कर । ६. MB सुणिज । ७. MB विणि वि विगयाई महवियई । ८. M जिणेसहं । ९ MB "पण
।
२. MB हिमवद्द । ३. MB क्रय ।
७ MB दह ।
४. MB जयभाउ
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३६. १९. १३ ]
हिन्दी अनुवाद
४०५
१८
उनसे भी जयकुमारके शोलको पवित्रता नष्ट नहीं हुई । अपने हृदयमें जयने महान् शान्ति धारण की। सुलोचना भी अपना मन नियमित करके स्थित हो गयी। तब भी दुष्ट लोक नहीं समझ सका । तब उस पुंश्चलीको समझ में आया कि मैंने व्यधं युद्ध क्यों किया। यदि मन्दराचल अपने स्थानसे चलित होता है, जो तुम्हारो (जयकुमारकी ) चित्तवृत्ति पलित हो सकती है। मैंने तुम्हें जो पीड़ा पहुँचायी है, और विद्या भेजकर कष्ट दिया है, उससे क्रुद्ध मत होना। यह कहकर वह विद्याधरो चली गयी। शत्रुरूपी हरिणीके सिंह उसकी देवोंने पूजा की। मधुर दुन्दुभि स्वर उछल पड़ा । रतिप्रम नामका सुरश्रेष्ठ उससे आकर मिला। उसने कहा कि इन्द्र के द्वारा
त मैंने तम्हारे पवित्रभावका अनुसन्धान कर लिया। सघन स्तनोंवालो जो तुम्हें रोककर स्थित थो वह विद्याधरो नहीं, अप्सरा थी, जो तुम्हारे शोलको परोक्षा करनेके लिए भेजी गयी यो। लेकिन तुमने अपने मनमें उसे अपनी माताके समान माना।
घत्ता-हे कुरुकुलरूपी आकाशके चन्द्र, इन्द्रियों को वशमें करनेवाले दसों दिग्गजोंको कंपानेवाले हे जयकुमार, संसारके भयका हरण करनेवाले तुम्हारे चारित्र्यको प्रशंसा किसके द्वारा नहीं की जाती ॥१८॥
प्रेषि
जो अच्छा लगे वह वर मांग लो। यह सुनकर वह श्रेष्ठ मनुष्य कहता है, "मैं ज्ञानको पवित्रता करनेवाला वर मांगता हूँ। मैं संसारका हरण करनेवाला वर मांगता हूँ। किसी दूसरे वरसे मुझे काम नहीं है । इन्द्र, चन्द्रमा और सूर्यका पतन होता है। जहां सुख कभी भी विचलित नहीं होता, जहां कामकी ज्वाला प्रज्वलित नहीं होती, जिनवरका पर वह मोक्ष मुझे पाहिए । मैं उसी वरसे सन्तुष्टि पा सकता है। इस प्रकार जयकुमार राजाके धरितकी वन्दना कर वह देव तुरन्त देवलोक चला गया। देवप्रशंसासे शोभित वधू और वर कैलास पर्वत पहुंचे। आकाशतलमें अपनो गति क्षीण कर वे रत्नोंसे निर्मित शिलातलपर स्थित हो गये। तब उन्होंने, स्वर्णदण्डोंके ताड़नसे सक्षम देव-दुन्दुभियोंका शब्द सुना। उस शब्द से आकर्षित होकर, वे दोनों वहाँ गये जहाँ महाऋतियोंसे सम्पन्न, देव गंगाकी जल लहरोंसे शीतल, भरत राजाके द्वारा निर्मित,
घसा-स्वर्णरचित मणिसमूहसे विजड़ित, जिनके पैरोंपर इन्द्रादि प्रणत है, जो दीवाक द्वारा संसारको दुराधाओंका दमन करनेवाले हैं ऐसे चौबीस जिनेश्वरोंके मन्दिरोंको देखा ॥१९॥
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महापुराण
[३६.२०.१
२०
रिसह रिसिमग्गपयासरं अजियं जियवम्ममुकसर । संभषदेव संभवमहणं
अहिर्णदणमहिणं दियभुवर्ण। अदुगुंछियइपिछयमोक्खेगई ... ... सुमन मुमाई वृजियकुई। पोमप्पहेमोष पोमाइरण
गयपासं णमह सुपासजिणं । चंदप्पहमहिहयचंदविह सुविहिं सुविहिं जसपुंजणिहं । सीयलवयर्णभइयंगसहं
सीयलणाहं वंदे अरुहं। सेयंस सेयपवित्तियरं
वासवपुलं तिहुयणपियरं। सिरिवामुपुजणामं णिरह विमल विमलं तवतावसई । वंदे भयवंतमणंतमहं
मणममिरभूरिभीसणतमहं । धर्म दहधम्मुवदेसयरं
प्रणमामि जिर्ण जाणियसवरं । संत' संति जगसतियरं सोलइमं परमं तित्थयर। कुंथु कुथु वि दयाविरयं बहुगंथियगंथपंथविरयं । पणमामि अरं संणिहियसमं "अरमयलं मूलियमोहदुर्म। मझिं मजियदामंघिययं मुणिसुखयमुणिरायं सुवयं । णिणमिय णमिणाई जगसामि गुणरहोमि चंदे पोमि । पास पासासिकराण हियं सत्तूण वि दरिसियधम्ममृयं ।
ये वयवट्टमाणणियमं सिरिवहमाणवीर चरैम। घत्ता-जिह भरहणरिदै कुवलयचंदें बंदिय सयल जिणेसर ।
तिहते जयराएं समियकसाएं पुप्फर्यत जोईसर ॥२०॥
इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणाकारे महाकइपुष्फर्यतविरइए महामन्धमरहाणुमणिए महाकर जयसुकोबणातित्यर्वदणं णाम इसीसमो परिच्छेभी समतो ॥
संधि ।।
५।।
२०. १. MB मोक्खरयं । २. M मुमयं । '३. M कुमयं । ४. MB पोमप्पह पवि । ५. र मुविहं । १. MB
पवितयरं । ७. MB धम्मपयासयरं । ८. MB कम्मटुगंठिणिण्णासयरं; T"सरं स्वपरम् । ९. M संतं । १०. MB कुंमेसु दयां । ११. MB दयावह K दयावरयं । १२. MB विहर T"विरयं । १३. MB अरमयलम्मूलिय; T°उम्मूलिय। १४. 3°करण । १५. MB वरसियसम्मसिम । १६. MB परिम।
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३६. २०. १९]
हिन्दी अनुवाद
४०७
मुनिमार्गका प्रकाशन करनेवाले ऋषभको, कामदेवके द्वारा मुक्त बाणोंके विजेता अजितनाथको, संसारका नाश करनेवाले सम्भवनाथको, संसार और धरतीको आनन्द प्रदान करनेवाले अभिनन्दनको, अनिन्दित मोक्षगतिको चाहनेवाले तथा कुमतिको छोड़नेवाले सुमतिको, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीको धारण करनेवाले पद्मप्रभ भगवान्को, बन्धनसे रहित सुपाश्वको नमस्कार करो। चन्द्रमाको विशिष्ट कान्तिको नष्ट करनेवाले चन्द्रप्रमको, यशःसमूहमे समान बुद्धिवाले सुविधिको, अपने शीतल वचनोंसे संसारके रोगोंको दूर करनेवाले शीतलनायकी में वन्दना करता है। कल्याण-प्रवृत्तिके विषाता श्रेयांसको, त्रिभुवनके पिता इन्द्र के द्वारा पूज्य, पूजनीय श्रीवासु. पूज्पको, तपके तापके सहनकर्ता पवित्र विमलनायको, मनको घुमानेवाले प्रचुर और भयंकर अज्ञान अन्धकारफे नष्ट करनेवाले ऐश्वर्य सम्पन्न अनन्तनाथको मैं नमस्कार करता हूँ। दस धोके उपदेशक और स्व-परको जाननेवाले धर्मनाथको में प्रणाम करता है। स्वयं शान्त और विश्व शान्तिः के विधाता सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथको, अत्यन्त सूक्ष्म जीवोंके प्रति दया करनेवाले, तरहतरह-को (अन्तः बाह्य) प्रन्थियोंसे परिपूर्ण पन्थोंको दूर करनेवाले कुन्थुनायको, शममावके धारक, अचल मोहवृक्षको उखाड़नेवाले अरहनाथको, मालती पुष्पकी मालाओंसे अंचित मल्लिनाथको, सुव्रती मुनि सुवतको, चक्रवतियोंके द्वारा प्रणम्य विश्वस्वामी नमिनायको, गुणरूपी रथको नेमि नेमिनाथको, पाशोंके लिए हाथ में तलवार लेनेवाले पारवनाथकों तथा शत्रुके लिए भी धर्मको श्री दिखानेवाले, व्रतोंसे नियमोंकी उत्तरोत्तर वृद्धि करनेवाले, अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान को मैं प्रणाम करता हूँ।
पत्ता-जिस प्रकार पृथ्वीमण्डलके चन्द्र भरतराजाने समस्त जिनेश्वरोंको वन्दना की, उसी प्रकार शान्त कषाय जयकुमार राजाने पुष्पदन्त योगोश्वरों (तीर्थंकरों) को धन्दना की ॥२०॥
श्रेसठ महापुरुषोंके गुणाकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदम्त द्वारा विरचिव और महामण्य भरत द्वारा अनुमत महाकाम्पका जयसुबोचना तीर्यपादन
नामका छत्तीसवाँ परिषद समासामा ॥१॥
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संधि ३७
जयराएं रयणविणिम्मियई पसरियकरणि संबई॥ तेवीसह जिणहं अणागयह बंदियाई पखिविंबई । धुवकं ॥
चंह मुंदेरि चेइयई जाम सहि अछिय मुणिवर थिण्णि ठाम | से तियसहि गय सहुँ समवसरणु जहिं णिवसइ रिसड तिलोयसरणु । वहुवरई णवेप्पिणु गुरुपयाई मम्गेण तेण ताई वि गयाई। पत्तेहि तेहिं होहिं चि जणेहि जिणदसणवंदणकयमणेहि। वरविजयवाइजर्यताइयाई दोरई पत्तारि पलोइयाई। तोरणइंमाणमंदरणिसुंभ माणिककरुजलमाणखंभ। सरवरपविमलजलखाइयाउ पप्फुजियवेलिड वेझ्याउ। पायारु पदिणिलणाई मुणिणाबरई सुस्तषणाई। जोयंतहिं जोयणमेत्तु दिछ मणिमंजस जहिं जगजणु णिविट्ठ। पत्तीस सुरिंद परिंदु एक भरहेसरु बीयत्र जाइ सछु। जोइसवइ आणिय घबसूर सम्पुरिसमहापुरिसारिजूर। किंणरवइ दोणि महोरईस ते कायमहाकायंकभीस। पत्ता-किंपुरिसह राणा विणि जण कहिय पुरिस किंपुरिस वि॥
परिणिहि सोमप्पहतणुरुहेण अवलोयवि वरविवि ॥१॥
गंधन्वहं पहु समविसमणाम जक्खिद पुण्ण मणिभर भणिय तहिं काल महाकाल चि पिसाय
रक्खसहं भीम अचंतभीम । भूयाहिव रूष विरूव भणिय' । दाविय गेहि णिहि पिसायराय ।
MB give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza
गुरुधर्मोद्वपावनभिनन्दितकृष्णमर्जुनोपेतम् ।
भीमपराक्रमसारं भारतमित्र भरत तब चरितम ॥१॥ GK do not give it. १. १. MB°णितरंबई । २. MB सेवीसई । ३. M अणागयहं । ४, B सुंधर । ५. B ommits this
foot | ६. G करुज्जलु । . MB यंभ। ८. MB परिद । ९. MB किपुरिसा। १०.M
वरच्छवि; Bअवरविछवि। २. १. MB मुणिय।
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सन्धि ३७
राजा जयकुमारने बनायत ( आगामी ) तेईस तीर्थकरोंके, जिनसे किरणोंका समूह प्रसारित हो रहा है, ऐसी रत्ननिर्मित प्रतिमाओंको बन्दना की।
जबतक सुन्दरी चैत्योंकी वन्दना करती है कि वहाँ दो मुनिवर विद्यमान थे। वे दोनों देवोंके साथ उस समवसरणके लिए गये, जहाँ त्रिलोकशरण ऋषभ निवास करते थे। वधूवर भी गुरु चरणोंको नमस्कार कर उसी मार्गसे वहाँ गये। जिन भगवान के दर्शनोंको इच्छा रखनेवाले उन दोनोंने भी वहां पहुंचकर वर विजय वैजयन्तादि चारों दरवाजों धौर तोरणोंको देखा। मानरूपी मन्दराचलका नाश करनेवाले तथा माणिक्यको किरणोंसे उज्ज्वल मानस्तम्भ, सरोवरोंकी स्वच्छ खाइयों, खिली हुई लताओंवाली वेदिकाओं, प्राकारों, नटराजोंके घरों, मुनिनाघोंके निवासों, कल्पवृक्षोंके वन और एक योजनका बना हुआ मण्डप देखा, जिसमें विश्वजन समूह बैठा हुआ था। बत्तीस इन्द्र, (कल्पवासी १२, भवनवासी १०, व्यन्तर ८ ओर चन्द्र तथा सूर्य) एक भरतेश्वर चक्रवर्ती, जो मानो दूसरा इन्द्र था, ज्योतिषपति और चन्द्रसूर्य कि जो सत्पुरुषों मोर महापुरुषोंको पीड़ा उत्पन्न करनेवाले हैं, किन्नरपति दोनों महानागराज, कि जो काय और महाकायांकसे अत्यन्त भयानक थे।
पत्ता-किंपुरुषोंके दो इन्द्र थे जो पुरुष और किंपुरुष कहे जाते हैं। सोमप्रभके पुत्रने अपनी गृहिणीको नये सूर्यके समान छवि देखकर ॥१॥
गन्धर्वोका समविषम नामका राजा। राक्षसोंके भीम और अत्यन्त मोम, यक्षेन्द्र पुन: पुण्यभद्र और मणिभद्र कहे जाते हैं। भूतोंके राजा रूप और विरूप हैं। पिपाचोंमें वहां काल और
२-५२
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[ ३७.२.४
........: ४६०::: :::.:...:...:.महापुराण
षल वइरोयण दणुईद कहिय गाईव धरण फणिवइण रहिय । पइ वेणुणालि पुणु वेणुदेश सोवण्णकुमारहं सोक्खदेव । दीवहिं वीवंगल दीवचक्खु व्यहिहिं जलकंतु जैलप्पहक्खु । अमियाइ अमियवाहण दिसेस हरि हरिकंत वि सोवामणीस । गर्जत ऐति अलिणोलह थणियाहिव मेह महंतमेद। अग्गिः अग्गि हुबषहसिहाई बेलब पहजण पवणणाई । श्य पवित्रवि वीस वि भावणिंद धम्माहिणंद बंदिय मुर्णिद । पत्ता-विभयपूरियहियमझएण हरिसुप्फुलियययणें ॥
जर जय पभणते जयणिवेण पदिसु पेसियणयणें ॥२॥
णाहेयपायणियह प
पुणु षसहसेणु गणणाहु दिछ। पुणु वीयट गणहर जैवरिंतु अवलोयस कुंभु महारिसिंदु। पढरहु विहिपरियक सत्तुवमणु गणि देवसम्म धणदेस समणु । धम्माणंदणु इसिर्णदणक्खु जह सोमयंसु सुरदत्त भिक्खु । [णि वारसम्मु मागोवविह देवग्गि अग्गिदेर वि वरिख । रिसि अग्गिगुच अण्णेकुगोस्तु तेयसिस सत्तुष्यासगुत। इलहरू महिहरु माहिंदु धीर पसुपच वसुंधर अलु मेरु। विण्णाणवंतु विण्णायणेक्ष भुणि मयरकेट ईयभयरकेट । थिरषितु पवित्तु धरित्तिगुत्तु सयलोसहिगुत्तु वि विजयगुत्तु । पुणु जपणेगुत्त पुणु सव्वगुत्तु पुणु सम्वस्थि आयमि पछत्तु । पुणु विजयभडारठ विजयमित्तु विजइल सिरिअवराइट णिस्तु । अवर वि परमेसर परमजोइ परासी गणहर एवभाइ । घसा-विहिणा लिहिया"इव भित्यिले माणलीण मणधीरा॥
जोश्य जपणे जियजमकरण सम्व वि साह मडारा ||३||
उग्गसवमहावदतत्तत्वह तवसिद्धपुनधिज्जाहराई आहारयतणुलयधारयाई
वित्ततव तवंतह घोरतवहं। अणिमाइगुणड्डहं गुणहराई। मयरहियई मोक्खासारयाई ।
२. MB णानिद । ३. Bहलपहक्छु । ४. MB एंत । ५. MB अग्गिवाद । ३. १. MB णिविठ् । २. MB जसरिंदु । ३. MB सोमपत्त । ४. M. मुणि चारसम्मु; B मुणि पात्र
समुज्माणो । ५. MB सिरि बग्गिगोतु । ६. MB सततं । ७. MB अचल । ८. M मय: B सर्य । ९. MB अणयगुत्तु । १०. MB सच्चउत्तु कायम । ११, MB लिहियाइ वि । १२. MB अण्ण । १३. B करणा।
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३७. ४.३]
हिन्दी अनुवाद महाकाल राजा हैं । बल बोर वैरोचन दानवेन्द्र कहे जाते हैं। नागराज धरणेन्द्र और फणीन्द्र भी बाकी नहीं बचे । स्वर्णकुमारोंके सुखके कारण उनके राजा वेणुवालि और घेणुदेव है । द्वोपकुमारके दीपांग और दोपचक्षु हैं, समुद्रोंमें अलकान्त और जलप्रम। दिक्कुमारोंके अमितगति और अमितवाहन । विद्युत्कुमारोंके हरि और हरिकान्त । भ्रमरके समान कृष्णशरीर स्तनितोंके देव मेघ और महन्तमेघ । अग्निज्वालाओंके अग्नि और अग्निदेव, पवनोंके स्वामो बेलम्ब और प्रभजन इस प्रकार बोस भवनवासी इन्द्रोंको देखकर उन्होंने धर्मसे अभिनन्दनीय मुनियोंकी वन्दना की।
पत्ता-आश्चर्यसे भरे हुए हृदय और हर्षसे खिले हुए जय राजाने जय-जय कहते हुए तथा पारों ओर दृष्टि घुमाते हुए ।
३
वह नाभेय ( ऋषभ ) के चरणोंके निकट बैठ गया। फिर उसने प्रमुख गणघर वृषभनाथके दशन किये। फिर दूसरे गणधर यतिवरेन्द्र और महाऋषोन्द्र कुम्भको देखा। फिर धैर्यक समूह शशुदमन गणधर देवशर्मा, श्रमण, पनदेव, धर्मनन्दन, ऋषिनन्दन, यति सोमदत्त, भिक्षु सुरदत्त, ध्यानमें स्थित मुनि वायुशर्मा, देवाग्नि और वरिष्ठ अग्निदेव, मुनि अग्निगुप्त एक और दूसरे गोत्रके तेज अंशवाले अग्निगुप्त । हलधर, महीधर, धीर माहेन्द्र, वसुदेव, वसुन्धर, अचल मेरु, विज्ञानवान, विज्ञाननेय, कामदेवको नष्ट करनेवाले मुनि मकरकेतु, स्पिर चित्त, पवित्र, धरित्रीगुप्त, सकल औषधिगुप्त और विजयगुप्त भी, फिर यशगुप्त और फिर सर्वगुप्त, फिर सर्वार्थगुप्त जेसा कि आगममें कहा गया है। फिर मट्टारक विजय, विजयभित्र, विजइल (विजयदत्त ) और श्री अपराजित और भी परमेश्वर परमज्योति इत्यादि चौरासी गणधर थे।
पत्ता-विधाताके द्वारा भित्तितलपर लिखे हुएके समान, ध्यानमें लीन और मनसे धीर, सभी यमको बीतनेवाले आदरणीय गणषरोंको जमने देखा ।।२।।
उप तप और महातप तपनेवाले, दोस तप तपनेवाले, घोर तपवाले, तपसे सिद्ध पूज्य विद्याओंको धारण करनेवाले, अणिमादि गुणोंसे सम्पन्न गणपरों, आहारक शरीरको धारण
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अवियलसुयसायरपारयाई णग्यहं णीसंगहं णीरयाह। पयवीयको?धुद्धीसराह तेजश्यरिद्धिसिहिभासुराई । पंचविणाणउपाययाह बुझियपयत्थपजाययाई । छम्मासपरिसचबवासया तकोडरकंचरवासियाई। कंदप्पदप्पविणिवारणाएं जलसेढितंतुणहचारणा समसत्तुमिचकंचणतणाई पासायवीवणिवलमणाई। दुञ्जयपरवाइगिराहराह
पलियंकत्थई लंबियकराह। बँपियक्खपक्खभिक्खारयाई चउरासीसहसई जईवराई । पत्ता-बहु सो सोमप्पड दिवु मुणि इहु सेयंसुवि समियमणु ॥
इहु पेक्खं सुलोयणि तुझु पिउ रायरिसिंदु अकंपणु ॥४॥
इहु जोयहि भायसहासु तुज्यु थिङ जाणिवि धम्महु तणउं गुज्झु । जेणासि सयंवरि सुरदित्ति साविय महरणि अचकित्ति । इहु सो दुम्मरिसणु णरवरिंदु सममावि परिटिङ हुड मुणिंदु ।। सम्मत्तसुद्धिसोहियमईहिं पाणुगमणिलरियरईहि । ऐवंबरछड्ययणस्थलीहि इलवट्टियकलिमलकंदलीहि । जल्लमलविचित्तंगोयरीहि विजाहरीहिं भूगोयरीहिं । सुइसोलसलिलसंगहसरीहिं से षियकाणणमहिहरदरीहि । आसंघियबंभीसुंदरीहिं
लक्खाई तिषिण संजमधरीहि । अज्जियसंखहि कहियाई जाई पण्णाससहसअहियाई ताई। तेत्तियां जि लक्खई सावयाई परिपालियबारहविहवयाई । जीवह अदिपणहिंसावईहिं नहिं पंचेषे य छक्खाई सावईहिं । पत्ता-कागणिकर सुरगुरु फणिवइ वि परिगणन्तु मणि मुज्झइ॥
पणवंतह देवह दाणवई मृगई संस्ख को बुझाइ ।।५।।
अञ्चंततततवणीयवण्णु
कंकेमिकरुहछाहीणिसण्णु । पेच्छिवि सइमंडषि जगजणे णं जंबूदीवहु मज्झि मेरु ।
इच्छियभवेभमणषिणिग्गमेण सकलस विलसियवसमेण | ४१. MB अविलय । २. MB ते जाय । ३. M उपायणाहं । ४. M रुवकोडर । ५. M सेविय
तंतु। ६. M reads this foot as 11 ।। ७. M reads theis foot a1106। ८. B
जईसराहं । ९. M सर्यसु । १०. MB पेक्ति । ५. १. MB भाइसहासु K मायसहासु but corrects it to भायरसहासु । २. MB एकंबर । ३. MB ___विलितं । ४. MB पंच जिललाई K चरपण जि कानई। ५. MB "कर, MB मिगह । ६. १. MB भवभवर्ण ।
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३७. ६.३] हिन्यो अनुवाद
४१३ करनेवाले मदसे रहित, मोक्षकी आशामें लीन रहनेवाले, अविचल श्रुतरूपी सागरको पार करनेवाले, नग्न-अनासंग-निष्पाप, कोष्ठ बुद्धीश्वरोंको पदोंमें प्रणत करानेवाले, तेजमें ऋखिमों और आगसे भास्वर, पांच प्रकारके ज्ञानको प्राप्त करनेवाले, पदार्थ और उनके पर्यायोंको जाननेवाले, छह माह और एक वर्षमें उपवास करनेवाले वृक्षोंकी कोटरों और पहाड़ी कन्दराओंमें निवास करनेवाले, कामदेवके दपंको चूर-चूर करनेवाले, जलश्रेणी-तन्तु और आकाशमें विचरण करनेवाले, शत्रु-मित्र, कांच और कंचनमें समताभाव धारण करनेवाले, प्रासादमें रखे हुए दीपक समान निश्चल मनवाले, अजेय पर-सिद्धान्तवादियोंकी वाणीका अपहरण करनेवाले, पर्यकासनपर हाथ लम्बे कर बेठे हुए इन्द्रियोंके पक्षका नाश करनेवाले, भिक्षा में रत चौरासी मुनिवरोंको देखा।
पत्ता-यह वह दिव्य मुनि सोमप्रभ हैं । यह वह मनको शान्त करनेवाले राजा श्रेयांस हैं। यह देखो सुलोचने, तुम्हारे पिता राजर्षि अकम्पन हैं !
यह देखो तुम्हारे एक हजार भाई हैं जो धर्मका रहस्य जानकर स्थित हैं । जिसने स्वयंवरमें सूर्यके समान दीप्तिवाले अकीतिको महायुद्ध में रुष्ट किया था, यह वह दुर्मर्षण नरवरेन्द्र सममाक्में स्थित मुनीन्द्र हो गया है । सम्यक्त्व और शुद्धिसे शोभित बुद्धिवाली ज्ञानके उद्गमसे रतिको नष्ट करनेवाली, अपनो स्तनरूपो स्थलोको एक वर्षसे बाच्छादित करने वाली, पापमलके अंकुरोंको नष्ट करनेवाली, प्रस्वेदमलसे विचित्र अंगसे गोचरी करनेवाली, पवित्र शोलरूपी जलके संग्रहको नदी, कानन और महोषरोंको घाटियों में निवास करनेवाली, बाह्मी और सुन्दरीको शरण लेनेवाली, संयम धारण करनेवाली, विद्यापरियों और मनुष्यनियोंको संख्या तीन लाख थी। जितनी आयिकाओंकी संस्था कही गयी है, उसमें पचास हजार अधिक और उतने ही लाखअर्थात् साढ़े तीन लाख बारह प्रकारके व्रतोंको धारण करनेवाले श्रावक थे। जीवमात्रको हिंसाकी धापत्ति नहीं देनेवाली वहाँ पाच लाख भाविकाएं पों।
घत्ता-कागणिकर, बृहस्पति, नागराज भी संख्या गिनते हुए मनमें मूच्छित हो जाते हैं । उन्हें प्रणाम करते हुए देवों, दानवों और पशुओं की संख्या कौन समझ सकता है ।।५।।
अत्यन्त तपे हुए सोनेके रंगके समान, अशोकवृक्षको छायामें विराजमान सभामण्डपमें जगत्पिताको देखकर, मानो जम्बूद्वीपके बीच में सुमेरुपर्वत हो, भवभ्रमणसे निवृत्तिको इच्छा रखने
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५
१०
१०
×××
इह चचषट्टिणाहिवेण जय देव विष्णवषिमलमणीस जय जीवलोयबंधव दयाल जय कप्परुख अय कामचेणु जय सयरायरलोयावलीय
पारधु थुणडुं जयपस्थिवेण । जय जिण तिर्येणचूडामणीस | जय पुरुसित्थंकर सामिसाल | जय चिंतामणिमयतरुकरेणु । संसारमहणणवतरणपोय ।
घत्ता - परं प्रयाणेयबियपणयणाएं बारियै परमपथ ॥ परं जीवहं थावर जंगम खयभीयहं भासिय जीवदय ||६||
महापुराण
बड्ढा विथ मिच्छामोहरथई पई जिणिविगाह जं तत्रु सिट्ठ सयल मणि बिसह सामलगि तुहुं जाणहि तिजगु यि बीयरा तुडुं परमध्पन देवाहिवेष इय बंदिवि जिणु जियतरुणिविरहु पहु मेह गछमि करि पसाउ तं सुणिविचव रायाद्दिराउ ण पहुच जइ दुइ गयउरेण एयं सयलेण वि सरयणेण हवं अच्छमि अंडर पछु पत्ता-मा जाहि तवोषणु चमुपमुह वैहाविष्ठ रिष्ठ रायहिं ॥ पई जेइ वी महाभड वि जिप्पइ विसयकसायहिं ॥ ७॥
८
या विहसिवि वि पुरंदरेण । होस गणहरु गेहु । पिणइणि आच्छिय जपण | अं णासिविसबास गयाई । अरिणा घरि सिहिणा जावियाई । विष्णि वि मज्जारे मारियाई । जं विषयजल पडलियाई । जायाई सग्गि जं वहुवराई । f हूय सो तेलो कणा । साहेव भई परलोकज्ज ।
जिणण्षणवारिधुयमंदरेण ' मेल' भरहाहिब जाए एहु तियसिं तं पडिषण्णु लेण जं चि पिलिय णिग्गयाई
सत्तिसे परिपालियाई जं भंगूरणहरहिं दारियाई मुणिवर स्खलेण निहालियाई विणुसोहराई जं वणि पचारिड भीम साहु तं सुरमि सुंदरि जामि अज्ज
[ ३७.६.४
समयई तेस्रदृई विणि सयई । वं सुइण बंदु बिट्ट । विठ संभरति किं सप्तभंगि। तु इंदभण्डमणिघडियपाश्व | दक्षं कैरेवी तुहारी चरणसेव । पणविवि संभासित तेण भरहु । तचरणु लेभि भंजमि विसाउ । इ रज्जु तुहुं जि जय होहि राउ | तो पूरइ किं ण धरायलेण । आयबिढयणव णिहिडधणेण । तु मुंजहि महि आणि णिवि ।
7
२.
विणं । ३. MB धारिय; T निवारिता निराकृता ।
७. १. K. डारि । २. MB भणिधिय ( चिट्ठ ? ) ३. MB करमि । ४. B भणछ । ५. MB
कट्टु ! ६. MB वर ।
८. १. G मंदिरेण । २. MB मेल्लहि । ३. MB दियं । ४. MK सरवाहहु ।
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३७. ८.१०]
हिन्दी अनुवाद वाले उपशमभावसे शोभित अपनी पत्नीके साप पक्रवर्ती भरतके सेनापति राजा जयकुमारने स्तुति प्रारम्भ की-"विमल बुद्धि देनेवाले हे देव, आपकी जय हो, त्रिभुवन श्रेष्ठ आपको जय हो, जीवलोकके बन्धु और दयाल आपको जय हो, पुरुतीर्थकर स्वामिश्रेष्ठ आपको जय हो, है कल्पपक्ष, हे कामधेनु, जय हो। हे चिन्तामणि और मदरूपी वृक्षके लिए गज, आपकी जय हो । सचराचर लोकका अवलोकन करनेवाले आपको जय हो, संसाररूपी समुद्रके सन्तरण पोत (जहाज ) आपकी षय हो।
घसा-हे परमपद, आपने एकानेक ( अद्वैत-सणिक आदि विकल्प ) के विकल्पवाले नयके न्यायसे परमतका निवारण किया है, आपने क्षमसे भयभीत स्थावर-जंगम जीवोंके लिए जोवदयाका कथन किया है ।।६||
मिथ्यामोह और रतिको बढ़ानेवाले तीन सौ त्रेसठ मतोंको जीतकर, हे स्वामी, आपने जिस तस्वकी रचना की है, उसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव नहीं जानते। सभोके मनमें श्यामलांगी (सुन्दरी ) निवास करती है, वे विट, समभंगोको क्या याद कर सकते हैं। हे वीतराग, बाप तीनों लोकोंको जानते हैं। तुम परमात्मा और देवाधिदेव हो। मैं तुम्हारी चरणसेवा करूंगा। इस प्रकार जिनकी वन्दना कर, रमणीके दिनको जीलोनाले बारको ग कर उसने उनके साथ सम्भाषण किया-“हे प्रभु, छोड़ दीजिए, में जाता हूँ। प्रसाद करिए, मैं तपश्चरण लूंगा और दुःखका नाश करूंगा?" यह सुनकर राजाधिराज भरत कहता है-“हे जय, लो तुम्ही राज्य ले लो, तुम्हीं राजा हो जाओ । यदि तुम्हें गजपुर पर्याप्त नहीं है, तो परतीतल तथा रत्नों सहित इस समस्त नवनिधिरूपी घड़ोंमें संचित धनसे भी क्या पूरा न पड़ेगा। मैं अन्तःपुरमें प्रवेश करके रहता हूँ। तुम सिंहासनपर बैठकर घरतीका भोग करो।
__ पत्ता-हे सेना प्रमुख, तुम तपोवनके लिए मत पाओ, शत्रुराजाओंसे विजय वृद्धिको प्राप्त तुम-जैसा वीर महासुभट भी (क्या?) विषय कषायोंसे जीता जा सकता है ? 11७)
तब जिन भगवान्के अभिषेक-जलसे मन्दराचलको पोनेवाले इन्द्रने हँसकर कहाहे भरताधिप, आप इसे छोड़ दें, यह जाये। तपलक्ष्मीका घर यह गणघर होगा। तब भरतने देवेन्द्रके लिए इसकी स्वीकृति दे दी । जयकुमारने अपनी पत्नीसे पूछा-"जो पहले हम पिताके घरसे निकले थे, और जब सरोवरवासपर भागकर गये थे और (सामन्त) शविषेणने हमारा पालन किया था, और घरमें शत्रुके द्वारा आगसे जलाये गये थे, जो भंगुर नखोंसे हम विदीर्ण किये गये घे, और दोनों मार्जारके द्वारा मारे गये थे, हम मुनिवर उस दुष्टके द्वारा देखे गये थे, और जो मरघटमें जलाये गये थे, और जो वेक्रियिक शरीरकी शोभा धारण करनेवाले स्वर्गमें वधूवर हुए थे, और जो हमने वनमें भीमसाधुको पुकारा था, और जो वह त्रिलोकनाथ हुआ, हे सुन्दरी, मैं उस
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३७.८११
महापुराण पत्ता-आयण्णिवि पल संसारगइ विहुणियसव्वसरीरए ॥
आमेजिट पिययमु पणइणिय सचन्तु वि गिरिधीरए ||८||
लहुयहिं विजयाइहिं भायरेहि
विजंतु वि धम्मकयायरेहिं । अवगणि तणु जिह पुहइरधु मयभावजणणु णं पीयमन्जु । हैकारिध पुत्तु अणंतील गुरुविणयवंतु परलोयभीर । सड पट्ट णिबंधिवि अयरवेण जिणवर जर्यकारिवि धणरदेण । आरुच्छिवि जीवाजीवमेय परियाणिविणाणाणाणणेय । अरिमित्ति पजिवि सरिस दिदि सिरि लोउ विपणच पंचमुट्ठि। देय भावेण वि मुक्कगंथु मिर्गथु णियच्छियमोक्खपंथु । जउ दिक्खंकिच पणविउ नई हिं अट्टहिं सरहिं सह णरवईहि। तेणंगई बारह सिक्खियाई चोदह पुल्याई स्वलक्खियाई। सो मुणिवरु मेझिवि मोइवासु। जायत गणहरु रिस हेसरासु । घत्ता-संमरमि पुरुषमवर्सचरिउ वम्महपसरणिवारा ॥
अणुगामिणि तुम्बहु होमि हजं संजमु धरमि भडारा ॥९॥
जय वणिवरकुलि वणिवराई रिठभइयई छडियमंदिराई। कयकम्मपहावें विणंठियाई णासंतई काणि णिवडियाई । णियकंतइ सई सुहिहियययेणु जश्यतुं सरि मिलिया सत्तिसेणु । जइयई मुणिवेजावचु कियर हियउल्ला काइं वि धम्मि थिवउ । जइयतुं जायई पारावयाई लझ्यई दोहि वि साक्यवयाई। जयाहुं उप्पण्णई खेयराई लीलालंघियविउलंबराई। रिसिदसणेण विभियमणाई जश्याएं सुराई विणि विजणाई। तइयतुं लग्गिवि व पइ णिरुत्सु भो तुझु परितु जि सहुँ चरितु । णीसेसजीवसंतीयरेण
तं वयणु समिच्छिउ मुणिवरेण । सज्जणगुणगैहणाणंविया
अप्पिय सुंदरिइ सुदियाइ। घल्लिउ सकेसु लुधिषि सणेहु प्रयेसीलगुणहिं भूसियत देख। प्रन्मुंकषियारपलोग्रणाइ लइयर तषचरणु सुलोयणाइ। घत्ता-घुसिणारुण जे थणहारमणि मंडिय ते मलमइलिय ||
णं वम्महपहुअघिसेयघट रयपंगुत्त णिहालिय ॥१०॥
९. १. MB तिणु । २. MB हक्कारिधि पण । ३. MB जयवरेण । ४. MB जयकारेण । ५. M दिव्य ।
६. M सुम्हह होमि; K तुम्हहु होमि।। १०. १. MB णिवडियाई । २. MB सुहं पई। ३. M भक्षु । ४. MB गहणे गदिया। ५. MB
सकेस । ६. MB वयं । ७. MB उम्मुफपियारपलोयणाइ ।
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३७.१०.१४]
हिन्दो अनुवाद सबको याद करता है, आज में अब जाता हूँ। मैं अब अपना परलोक कर्म सिद्ध करूंगा।'
पत्ता-संसारको चंचल गति सुनकर, अपने समस्त शरीरको कपाते हुए, पर्वतकी तरह धीर उस प्रणयिनीने चाहते हुए भी प्रियतमको मुक्त कर दिया ॥८॥
धर्मका आदर करनेवाले विजय आदि छोटे भाइयोंने भी दिये जाते हुए पृथ्वीराज्यको तृणके समान समझा और पिये गये मद्यके समान मदभावको उत्पन्न करनेवाला समझा। उसने अनन्तवीर्य पुत्रको बुलाया, जो गुण और विनयसे युक्त परलोक-भोर था। जयकुमारले उसे राजपट्ट बांधकर, मेघस्वरवाले उसने जिनकी जय-जयकार कर, जीव-अजीवके भेदको जानकर, नाना झानोंसे ज्ञेय जानकर, शत्रु और मित्र में समान दृष्टि कर, पांच मुट्ठियोंसे सिरके बाल उखाड़ लिये, और द्रव्य तथा भावकी दृष्टि से परिग्रहमुक्त हो गया । निग्रन्थ और मोक्षपथको देखनेवाले दीक्षासे अंकित जयको आठ सौ राजाओंके साथ मुनियोंने प्रणाम किया। उसने बारह अंगोंको सोखा और चौदह पूर्वोको उपलक्षित किया। वह मुनिवर मोहपाश छोड़कर, ऋषभेश्वरका गणघर हो गया।
पता-हे कामदेवके प्रसारका निवारण करनेवाले आदरणीय, मैं पूर्वभवको गतियोंको स्मरण करती हूँ, मैं तुम्हारी अनुगामिनो बगो, मैं संयम धारण करूंगी ||९||
जब वणिरवरके कुलमें हम वणिक थे और शत्रुसे भयभीत होकर हमने अपना घर छोड़ा था, अपने किये गये कमके प्रभावसे प्रतारित हम भागते हए जंगल में गये। उस समय सधीजनोंके हृदयका चोर ( सामन्त ) शक्तिपेण अपनी कान्ताके साथ सरोवरपर मिला। जब हम लोगोंने मुनिकी वैयावृत्त्य की और किसी प्रकार हृदय धर्ममें स्थित हुआ । जब हम कबुतर हुए, हम दोनोंने श्रावक व्रत ग्रहण किये । जब हम लीलासे विशाल आकाशका उल्लंघन करनेवाले विद्याधर हुए, जब मुनिदानसे विस्मितमन हम दोनों सुर हुए। तबसे लेकर हम वधू और पति रहे। अरे, तुम्हारा चरित्र ही हमारा चरित्र है। (सुलोचनाके ) ये वचन, निःशेष जीवोंको शान्ति प्रदान करनेवाले मुनियरने पसन्द किये । सज्जनोंके गुणोंको ग्रहण करने में आनन्दित होनेवाली आपिका सुभद्राके लिए अपित उस सुन्दरी सुलोचनाने स्नेहके साथ अपने केश उखाड़कर फेंक दिये और व्रत तथा शीलगुणोंसे अपने शरीरको भूषित कर लिया । उन्मुक्त विचारसे देखनेवाली सुलोचनाने तपश्चरण ले लिया।
घत्ता-केशरसे अरुण तथा स्तनहार-मणियोंसे मण्डित जो स्तन मानो कामदेवरूपी राजाके अभिषेकके घट थे, धूल-धूसरित वे अब मलसे मैले दिखाई दिये ॥१०॥
२-५३
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५
१०
पदक
५
४१८
१०
गंधारिगोरिपन्तियाब विच्छडियघरवावारतत्ति ता पियविओयसिहितवियकाय हा पुत्त परिच्छिकाई पट्ट ईदियई पंच व पीलियाँ मई पावर काई जियंतियाइ इय सा पति सुयंति रिद्धि मंतिहिं विणिवारिय दिष्णकामि auraघरिणि वयपयई यारसंग सुधारिणी सारी श्री शकि देवी अपणु गुहा
महापुराण
११
भुषणत्तयोयसुकरेण उप्पारवि केवलु विमलु णाणु stra अहमंदु सुलोयणा वि मणिय गिव्वाणरई रमाइ होही काम राठ लहिही हुं अमरण अकरणालु पिप्पज्जइ णलिणहु णत्थि मंति जिधम्म लिइ मोहमूलु
पत्ता- गुरु पुच्छर बंभीसुंदरिहिं देव दितोयालोयण || tris कहिं संभव जयरिसिहि होसह केत्थु सुलोयण ||११||
चिरभवविजय परियत्तियाथ । अपरिग्गह थिय जयरायपन्ति । जूर अनंतबरवीरमाय | विg पिणारों को मरट्ट | झाणेण ण णयणई मीलियाई । पद्मविच्छदं तम्पतियाइ ।
सुबहु देति परलोयबुद्धि । थिय रायसासणादधामि । अवरैड संजायच संजईरु | शापुरगामविहारिणी । 'यहि सफतर कहि दाइ ।
मागहमंडलपरमेसरासु खाइयसम्म सिरासु सेणिय कर रिसि पुसियसंकु गगहरु रिसिसंघ तिलयभूउ
१२
ता भणि पदमतिर्थकरेण । जासह जब णिवाणठाणु । सुइभाव भावाभावभावि । सुहुं मुंजिवि बहुसायरसमा । तर चरिवि पणासिवि रो राउ जेवड सलिल तेव पालु | जिधम्म सुबिसुरिंद होंति । जिणधम्मु सन्त्रकलणमू लु ।
घसा - जिणधम्मु पाइषि मूडमइ जो परधम्महु लाइ ॥ weरासी जोणिलक्ख विहरि विडिउ सो कहिं णिग्गइ || १२ ||
१३
चेलिकम लिणिणवणेसरासु । आगामितइयभव जिणवरासु । गोत्तम दिगोत्तंवर मियंकु । जयराउ एकहत्तरिमु हूउ |
[ ३७.११.१
११. १. MB] पत्तिया । २. MB ण जिवीलियाई । ३. MB अवर वि । ४. MB रणिहि ।
१२. १. B कणय २. MB सो सुराउ | ३. MB सुहं मम अकरणणालु । ४. MB पूर्ण वि ।
५. MB मोहजालु । ६. B मुषि ।
१३. १. MB आगम्मि । २. MB असियसं । ३. MB दियगोरों वरं ।
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३७. १३.४]
हिन्यो अनुवाद
११
चिरभवमें अजित गन्धारी, गौरी और प्रशप्ति विद्याएँ उसने छोड़ दी। गृह व्यापारकी तृप्तिको छोड़नेवाली जयकी पत्नी परिग्रहसे होन होकर स्थित हो गयी। तब प्रियके वियोगकी ज्वालासे सन्तप्तकाय अनन्तवीरकी माता पीड़ित हो उठतो है-'हे पुत्र, तुमने राजपष्ट क्यों स्वोकार किया कि बिना अपमें क्या तुमनेर इन्द्रियोंको पीड़ित नहीं किया। ध्यानके द्वारा अपने नेत्रोंको निमीलित नहीं किया। पति-वियोगमें तड़फती हुई और डोत्री हुई मुझसे क्या पाया जायेगा ?" इस प्रकार कहती हुई और अपने पुत्रको परलोककी बुद्धि देती हुई समस्त ऋद्धि छोड़ देती है। परन्तु मन्त्रियोंके मना करनेपर, कामनाओंको पूर्ति करनेवाले राज्यशासनके केन्द्र हस्तिनापुरमें वह स्थित हो गयो। तरूपी जलको नदी, जयकुमारकी वह पत्नी एक दूसरी आर्यिका हो गयो । ग्यारह अंगक्षुतोंको धारण करनेवाली' तथा नाना पुरों और प्रामोंमें विहार करनेवाली राजा अकम्पनकी पुत्रो उस देवीने रत्ना श्राविकाको अपना कयान्तर बताया।
घत्ता-ब्राह्मो और सुन्दरी देवियों ने गुपसे पूछा-"त्रिलोकको देखनेवाले है देव, जयमुनिका अगला जन्म कहाँ होगा, और सुलोधना कहां होगी ?" ||१||
१२
तब भुवनश्यलोकके लिए कल्याणकर प्रथम तीर्थकरने कहा-"जय केवल विमलज्ञान उत्पन्न कर निर्माणस्थानको प्राप्त करेगा। यह सुलोचना भी, भावाभायका विचार करनेवाला अच्युतेन्द्र देव होगी। माना है देवोंकी रति और लक्ष्मीको जिनमें ऐसे अनेक वर्षों तक सुखका भोगकर, यह कनकध्वज राजा होगी, और तपकर तथा रागद्वेषका नाश कर, इन्द्रियशून्य और मृत्यु रहित सुख प्राप्त करेगी। जितना बड़ा पानी, उतना बड़ा नाल कमलके उत्पन्न होता है, इसमें भ्रान्ति नहीं है। जिनधर्मसे पशु भी देवेन्द्र होते हैं। जिनधर्मसे मोह की जड़ नष्ट होती है। जिनधर्म सबके कल्याणका मूल है।
पत्ता जो मूहमति जिनधर्मको छोड़कर परधर्म में लगता है, चौरासी लाख योनियोंके संकटमें पड़ा हुआ वह कहीं निकल पाता है ? ||१२||
मागध मण्डलके परमेश्वर चेलनारूपो कलिनीके लिए नये सूर्यके समान क्षायिक सम्पक्त्वरूपी निधिका ईश्वर, मागामो तीसरे भवमें तीर्थकर होनेवाले राजा श्रेणिकसे, शंकाको पोंछ देनेवाले, ब्राह्मणरूपी आकाशके चन्द्र गौतम ऋषि कहते हैं- "मुनिसंघमें श्रेष्ठ जयराजा
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४२०
महापुराण सईसिद्ध भडारउ दुहविणासु संपत्त सो तिजगग्गवासु । गेहिणि हूई अचुइ सुरिंदु काले महि विहरइ जिणवरिंदु। णिरसणभूसणभूसिड अतु दीसइ सुरयणु तें सहूं चलंतु। आयासह णिवडइ पुप्फविट्टि घउअहियई धमरई चार सहि । जहिपाठ देव तहिं तह जि कमल सरपड जंजा गरुभत्तिविमला जहिं वश्च दहि कासु वि ण दुक्खु जहि वसई तहिं जि केकेल्लि रक्खु । सीहासणु छत्तई विण्णि थंति तिहुयणपहृत्तु णाहह कहति । धत्ता-जाणिनइ सूयरसंवरहिं मृर्गमायंगतुरंगहि ।।।
जिणणाहहु मासिउ परिणवइ सयलजीवमासंगहि ॥१३॥
सुबह दुंदुहि गहि वजमाणु पणवइ जणवउ पुलबजमाणु । देसाहिब उचायति चरुड बहुकुसुमगंधपरिमलित मरुल।
भामंडलु पवरविमंडलाहु गच्छति समउं बहुभेय साहु। Rai .. * गाशितवदयसरीर मणपजवाणि सहावधीर।
देसावहिपरमावहिसमेय . केवलिकेवळणाणेवतेय"। णदिक्विय सिक्लुये संत दंव उत्वियाई बहुरिद्धिवंत । णिहर्येक्खयअक्खयपयसमीह कइगमयवाई वाईहं सीह । जहिं गच्छइ तहिं गच्छति भव्च जहिं अच्छइ तहिं अच्छंति सम्व। माणव तिरिक्त सुरवर असंख हह हुयंति पडदिसिहि संख। झे झं करति झुणि मारीच णचंति परामरसुंदरीड। तुंबुल पारय गायंति मिह भरहें दिट्ठउ पिउँ' 'सुहृ मिविठ्ठ । घत्ता-आच्छित धम्मु महीसरेण अं जिह जेहत पेक्खइ ।।
केवलि परमप्पउ णिक्कनुसु तं तिह तेहउ अक्खा ॥१४॥ ४. MB णिवसण:K णिवसण but correcte it to fणरसण । ५. MB सौहासण। ६. MB मिर्ग। १४. १. M सुम्मइ; B सम्बइ । २. B दोसाहिब । ३, B चारु। ४. M°मलियगरुउ; B मलिट गारु ।
५. M adds after this in second hand and in the margin : चउसहसदलभयसयविहीर । ६. Bणाण । ७. M दुदहसहास। ८. M adds after this in second hand and in the margin : रिसि सयपणास विमुक्क घास । ९ M adds after this in second hand and in ths margin : तेरंथसहस पयडियविवेय; B adds : मणिरंषसहस पडियविषय । १०. M केवलणाण; B केबलिणाणक्क । ११. M adds after this in second band and in the margin : गयणगई उसुण्णहिं समेय; P adds : गयणगई घउसुष्णसमेय । १२. MB 'सिक्खियं । १३. M. adds after this in second hand and in the marpin : दविउणसहसरिजनयमहत; B adds : दहविउणसहस रिजसयसहस, ण ह वयभयदोएस्कु वि गिरी । १४. B णिहिमस्खमसुअक्खयं । १५. MB सव्य । १६. MB जिणू । १५. B सुहाणिविठ्ठ ।
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३७.१४.१५]
हिन्दी अनुवाद इकहत्तरवें गणधर हुए। स्वयंसिद्ध आदरणीय, दुःखका नाश करनेवाले वह तीनों लोकोंके अग्रवास ( मोक्ष ) में स्थित हुए। उनकी गृहिणी सुलोचना अच्युत स्वर्गमें देवेन्द्र हुई। समयके साथ जिनवरेन्द्र धरतीपर विहार करते हैं, वह अनन्त अनाहारके आभूषणसे भूषित हैं। उनके साथ चलता हुमा सुरजन दिखाई देता है। आकाशसे फूलोंकी वर्षा होतो है, चौसठ चमर कुराये जाते हैं, बहू, जहाँ भो पैर रखते हैं यहां-वहाँ कमल होते हैं, गुरुभक्तिसे विमल देवेन्द्र उन्हें जोड़ता है। वह जहाँ चलते हैं, वहाँ किसीको दुःख नहीं होता। वह जहाँ ठहरते हैं, वहां अशोक वृक्ष होता है, सिंहासन और तीन छत्र होते हैं और वे नायको त्रिभुवनप्रभुता घोषित करते हैं।
घत्ता-जिनवरका कहा हुआ समस्त जीयोंकी भाषाके अंगस्वरूप परिणमित हो जाता है। सुअर, सांभरों, मृग, मातंग और अश्वोंके द्वारा यह जान लिया जाता है" ||१३||
___ आकाशमें बजती हुई दुन्दुभि सुनाई देती है; पुलकित होकर लोक प्रणाम करता है। उनके अर्घ-पात्रको देश-देशके राजा उठाते हैं, प्रचुर' कुसुम गन्धसे मिली हुई हवा बहती है। नवसूर्य मण्डलके समान आभावाला भामण्डल तथा अनेक प्रकार साधु साथ चलते हैं। पूर्वागको पारण करनेवाला, तपसे कृश शरीर, मनःपर्यय ज्ञानवाला, स्वभादसे धीर, देशावधि और परमावधिज्ञानसे युक्त केवली, केवलज्ञानरूपी सूर्यसे तेजस्वी, नवदीक्षित, शिक्षक, शान्त और दांत । विक्रियाऋद्धिसे बहु-ऋद्धियोंसे सम्पन्न । इन्द्रियोंके नाशक अक्षयपदमें इच्छा रखनेवाला और केतव आगमवादियों में सिंह । वे जहां जाते हैं, वहां भव्य चलते हैं, वे जहाँ है, वहां सब रहते हैं। मानव, तिर्यंच, असंख्य सुरवर तथा चारों दिशाओं में शंखोंकी हूँ-हूँ पनि होने लगी। झालरें - झं ध्वनि करतो हैं, नर और अमरोंकी सुन्दरियाँ नृत्य करती हैं। तुम्बुर और नारद मीठा गान करते हैं । भरतने पिता जिनको वहाँ बैठे हुए देखा ।
__ महोश्वर भरतने धर्म पूछा। निष्कलुष परम केवली परमपदमें स्थित वह, जो जैसा देखते हैं उसको उसी प्रकारसे वह कहते हैं ।।१४।।
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५
१०
ܐ
५
४२२
महापुराण
१९
विलु वि दुविठु भुवणाई तिणि रयणाई तिणि जीव गई कहिया तिण्णि गुणषय तिष्णि जगि जोय तिणि चचि संसारसैरणु पिमाणु विहु जि दाणु च झाई वि जि बंधु चत्तारि वि बंधविणास
विहू जि णासु
णिज्जरु वि दुविध बज्जरह अरुहु । सलाई तिणि गुत्तीउ सिण्णि । जगवेढणमरु गारव वि तिष्णि । हयकार्ले भासिक काल तिष्णि । बालाss wefog भणितं मरणु । दिवा दीसमाणु । हानिन्यसाय | fara faag गुणगणणिदासु । भासइ णिज्जियजलजायकेउ ।
छत्ता---सञ्ज्ञा।य पंच आयारविधि नाग पंच वैरिई ॥ णिग्गंथ पंच जोईसकुलई पंचेंद्रियई वि सिट्टई ||१५||
अणगारागोरियाई पंच आसव निबंधऊ ७ पंच संसार सरीर होंति पंच छज्जीवका का समय छावासयविधीच पराईड अट्ट पुहईड अट्ठ णव पारायण व सीरधारि वह पत्थ दमे धम्भु दह भाषणसुर भवणंतवासि एयारह रुद्द रवद्दभाव पच्चिस अणुवेक्खयाई बारह रिंद पालियरहूंग
[ ३७.१५ १
१६
पंचस्थिकाय समिदीउ पंच । ली महाणरया वि पंच । गुरु पंच मेठ गिरिवर वि पंच । छल्ले साभाव विसमय वि मय । वत्त विभय सचाहो महीउ | ( वणदेव जीवगुण से षि अट्ठ | ) डिसत्तु वि णव णिहि दुक्खहारि । tray वि दहषि सुकम्भु | फणिस सिसह वह दिसिगय सुहासि । एयारह विह सावय विगाव | बारह जिणवयण विणिग्गया । बारह तब बारहहि सुरंग ।
पत्ता - तेरह परियंगई अक्खियहूं तेरह किरियाठाणई ॥ चदह गुणठाणारोहणई चचद
समापठाण ॥ १६ ॥
१५. १. MB पोग्लु दुबिहू । २. MB गिजर । ३. MB कहियादं । ४. MB संसारगमणु । ५. MB चल उभिण्णा चढविह कसाय ६ MB बिसिट्टई । ७. MB जोयस ।
१६. १. MB गारवयाई । २ MB वहभेय । ३. B अणुवेहावयाई । ४. MB बारह सव बारविह सुयं । ५. MB रविनय ।
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३७. १६. १४]
धनुश्री सुमिरि वीरान ४२३
१५
गुण, मोक्ष, तप और पुद्गल भी दो प्रकारका है। अरहन्त निर्जराको भी दो प्रकारका ते हैं। भुवन सीन हैं, रस्न तीन हैं, शल्य तीन हैं, गुप्तियाँ भी तीन हैं, जीवको गतियाँ भी तीन कही गयी हैं। जगको घेरनेवाले गर्व भी तीन हैं, गुरुव्रत तीन हैं, जगमें भोग भी तीन हैं, समयको नष्ट करनेवालोंने काल भी तीन प्रकारका कहा है। चार गतियाँ, चार प्रकारका संसारका संचरण; बालादि चार प्रकारका भरण भी कहा गया है। प्रमाण चार प्रकारका है, दान चार प्रकारक है; दिखाई देनेवाले द्रव्य भी चार हैं, चार ध्यान हैं, देवोंके निकाय चार हैं, चार-चार प्रकार को, धार-वार कषायें हैं । बन्ध चार प्रकारका है, उनका नाश चार प्रकारका है, गुणगणकी निवास विनय भी चार प्रकारकी है ? बन्ध मोर विनाशके कारण चार हैं। इस प्रकार कामदेवका नाश करनेवाले निन कहते हैं ।
पत्ता - सत् ध्यान पांच हैं, आचार विधि और श्रेष्ठ ज्ञान भी पाँच हैं, निर्ग्रन्थ मुर्ति पाँच प्रकार है, ज्योतिषकुल पांच हैं, इन्द्रियां भी पांच कही गयी है || १५ ||
१६
मुनि और श्रावकके व्रत पांच-पांच है। पाँच अस्तिकाय है। समितियाँ पाँच हैं, आश्रव और बन्धके हेतु पांच हैं । लब्धियों और महानरक पाँच हैं। सांसारिक शरीर पाँच होते हैं। गुरु पाँच होते हैं, सुमेरुपर्वत भी पांच होते हैं। जीवकाय छह होते हैं । समयकाळ छह होते हैं । लेश्याभाव छह होते हैं, सिद्धान्त और मद भी छह होते हैं। द्रव्य छह हैं, आवश्यक विधियाँ छह होती हैं । भय भी सात... प्रकृतियां आठ हैं, पृथिवियाँ आठ हैं, व्यन्तर देव और जीवगुण भी आठ हैं। नो नारायण, नौ बलभद्र, प्रतिनारायण भी नौ, दुःखका हरण करनेवाली निषियों भी
| पदार्थ नौ प्रकारके | दस प्रकारका धर्म । सुकर्मा वैयावृत्य भी दस प्रकारका । भवनान्तवासी भावनसुर दस प्रकार के होते हैं, धरणेन्द्र और चन्द्रमाके साथ दस दिमाज शोभित होते हैं । रुद्र ग्यारह हैं, रुद्रभाव भी ग्यारह हैं। गर्वरहित श्रावक भी ग्यारह प्रकारके हैं। जिन वचनोंसे उत्पन्न पश्चात्ताप और अनुप्रेक्षाएँ बारह । चकका पालन करनेवाले चक्रवर्ती बारह | बारह प्रकार के तप । और श्रुतांग मी बारह प्रकार का ।
पत्ता* --चारित्र्य के प्रकार तेरह और क्रियाके स्थान भी तेरह कहे गये हैं। गुणस्थानोंका आरोहण चौदह प्रकारका है, और मार्गणा के स्थान मौ चौदह हैं ॥ १६ ॥
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महापुराण
[३७. १७.१
अरहते सिद्धतासियाई
चउदह पुज्वाई फ्यासियाई। घउदह मल चउदह चित्तगंथ घउदह कुलयर कयमणुयसंथ । चखदह रयणई गुणिगैहियणाम चवह दसवालिय भूयगाम | पण्णारह कम्मधराविहाय
पण्णारह उचएसिय पमाय । सोलह त्रयणई दुहदारणाई सोलह जिणजम्महु कारणाई । संजम दहसत्त दहट्ट दोस णाज्माणई एकूणवीस । असमाहिणिरय बजरिय वीस कयमणमल सयल वि एकवीस । बावीस परीसह कुमुणिभोस सुयडुज्झयणाई वि तिवीस । तित्थयर भणिय चउवीस ईस मुणिवयमाय पुणु पंचवीस । छन्वीस समासिय वसुभेय गुण सत्तवीस जइवरविहेय । आयारकप्प पचरहवीस
अघसुत्ताई वि एऊणतीस । भणियाई मोहमंदिरई तीस । घत्ता-एयाहिय तीस विवायरस कम्महं कहिय जिणेसें ॥
बत्तीसुवएस मुणीसरह कुडिलाउँचियकेसं ॥१७॥
जंजलि अलि णहि पायालमूलि जं थूलु सुहमु तिजगतरालि । तं पुच्छतहु पण वियसिरासु भासिउं जिणेण भरहेसरासु । गुरु बंदिवि णिदिवि दुरिउ दुट्ठ गउ णिउ णियपुरु णिलयणि पइट्ठ । गरणाहे रय णिहि सुत्तएण सिवितरि गुरुपयभत्तएण। सूयरदाढाखंडियकसेस इललुलिउ णिहालिड तेण मेरु । अक्खिउ पहाइ सुयणहु हिएण सिविणेयविवरणउं पुरोहिएण । किउ णयणगलियजलबिदुपहिं वकछस्थलहारोवरि चुहि । तिद्वारयणियरिविलुकमाणु कालाहिमहामुहि णिवडणु। उद्धरिवि लोउ अण्णाणु दीणु चलदह दिण' वरिससहासहीणु । महि विहरिवि पुठवई एकु लक्खु । केलासु पराइउ गाणचक्नु । पावणवणकुमुमामायमहुरु आरुहिवि पसिद्धः सिद्धेसिहरू । घत्ता-दससहसहि समज महारिसिहि काम कोहणिपणासणु ।।
थि: पुणिम दियहि जिणाहिवइ बंधिवि पलियंकासणु ॥१८||
१७.१. सिर्बताइयाई। २. MR मुणिगणियाणाम। ३. MB णाहाशाणई। ४. MBK सवल ।
५. MB सुयज्मड़यणाई । ६. B तिष्णि वीस । ७. M adds after this : वयसमिदिपमह जपा
जईस 1८. MB एयाहितासि । १८. १. MB मुविणय । २. MB बच्छत्यलु। ३. MB पाणु। ४. MB णिविडमाणु । ५. MB
अण्णाण । ६. MB°दिणु । ७.७ विवरिधि । ८. MB सिद्धिसिंहस : ९. K दह ।
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३७. १८. १३]
हिन्दी अनुवाद
१७
___ अरहन्सके द्वारा सिद्धान्तपर आश्रित चौदह पूर्व प्रकाशित किये गये हैं। चौदह मल हैं, चित्तग्रन्थ भी चौदह हैं, चौदह कुलकर, जो मानव संस्थाका निर्माण करनेवाले हैं। गुणियोंके द्वारा जिनका नाम लिया जाता है, ऐसे चौदह रत्न बताये गये हैं। भूतग्राम भी चौदह बताये गये हैं। कर्मभूमिका विभाग पन्द्रह है, पन्द्रह प्रमादोंका भी उपदेश किया गया है। दुःखका नाश करनेवाले सोलह वचन होते हैं, जिनके जन्मके कारण भी सोलह होते हैं। संयम सत्तरह होते हैं, दोष अठारह हैं, नाथ-ध्यान सन्नीस होते हैं, कुमुनियोंको डरानेवाले बाईस परिग्रह होते हैं "नाथ-ध्यान तेईस होते हैं । तीर्थकर ईश चौबीस होते हैं, मुनिपदको प्राप्त पच्चोस होते हैं; वसुधाके भेद छब्बीस हैं, यतिवरके भेद करनेवाले गुण सत्ताईस हैं। आचार कल्पके अट्ठाईस भेद हैं, और अर्धसूत्रोंके उनतीस । मोहरूपो मन्दिरके तीस भेद कहे गये हैं।
पत्ता-कुटिल और आकुंचित केशवाले जिनेश्वरने कर्मोके इकतीस विकार-रस कहे हैं, और मुनीश्वरोंके लिए बत्तीस उपदेश ॥१७॥
१८
जो जल, थल, नभ, पातालमूल और तिजगके भीतर स्थूल और सूक्ष्म है, प्रणतसिर उसे पूछते हुए भरतेश्वरके लिए आदि जिनने सब बताया। गुरुकी वन्दना कर, और दुष्ट पापकी निन्दा कर भरत अपने नगरके लिए गया, और उसने अपने घरमें प्रवेश किया। रात्रि में सोते हुए जिनवरके चरण-कमलोंके भक्त भरतने स्वप्न देखा कि जिसका शिस्त्र र सुअरको दाबसे खण्डित है, ऐसा सुमेरुपर्वत धरतीपर लुढ़क रहा है। सवेरे भरतने यह स्वजनोंसे कहा। हितकारी पुरोहितने, वक्षःस्थलके हारपर गिरती हुई, नयनोंसे झरती हुई अश्रुबिन्दुओंको धारा द्वारा स्वप्नका विवरण बता दिया। तृष्णारूपी निशाचरीके द्वारा विलुप्त, कालरूपी महासर्पके मुखमें पड़ते हुए, दोनअज्ञानी लोकका उद्धार कर, जब एक हजार वर्षसे कम चौदह दिन शेष बचे, सब एक लाख पूर्व धरतीपर विहार कर ज्ञाननयन ऋषभनाथ कैलास पर्वतपर पहुंचे। पवित्र वनके पुष्पोंके आमोदसे मधुर प्रसिद्ध सिद्ध शिखरपर आरोहण कर
धत्ता-काम और क्रोधका नाश करनेवाले जिनाधिप ऋषभ दस हजार महामुनियों के साथ पूर्णिमाके दिन पर्यकासन बांधकर बैठ गये ॥१८॥
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४२५
महापुराण
[ ३७.१९.१
जाणिव जणणहु जणणचयणु
लड्डेयउ ओ? लिड फरिवि वयणु । सुषिसुद्धबुद्धिसीलावयासु आयश्च भरहु वि अट्ठावयासु । गिरि सोहा चुयमहुआसवेहि जिणु सोहइ द्धहिं आसवेहि । गिरि सोहइ विलियणिज्झरेहि जिणु सोहइ कम्महुँ णिजरेहिं । गिरि सोहइ णाणाधिहम एहि । जिणु सोहइ रिसिहि सुणिम्महि । गिरि सोहाणश्चियमोर
जिणु सोहइ सुरसरमोरयहि । गिरि सोहइ धम्मणएण जेम जिणु सोहइ धम्मणएण तेम । गिरि परियषित सवराहिवेण जिणु पणवते भरहाहियेण । पत्ता-दाणाहु समुग्घायंतरहिं दीहसमयसंताणई॥
वेयणियणामगोसई करइ विणि वि आउपमाणई ।।१९।।
२०
मुणिपवर किट किरियाविहाणु दत्तणेण ससरीरमाणु । णीसारिच दंडायारु जीउ तिजगग्गचरमणरयंतु णीउ । अइपसारिउ पुणु सुरीड णं तिहुयणघरि दिण्ण कवाडु। अपाणन देवे देवणविउ रूंआयार सहस ति थविउ । णीसेसलोयपूरणु करेवि विवरीए चारें संपरेवि। तेजइयकम्मओरालियाई तिपिण वि अंगई णिहालियाई। मुणि मेनिवि तिजल सुहमफिरित संपत्तु पत्थु छिण्णकिरिउ । तहि सुकमाणि आयत अोइ मणवयणकायमकर विहाद। थित देहभंतरि सामिसालु क ख ग घ समक्खरभणणकालु | अच्छंतु वि अंगु ण छिवइ देउ फलछमि व जरदेरंडबीउ । पत्ता-दसणणाणाइहिं वसुसमहि सिद्धगुणहि संपण्णउ ॥ ससहा जोइवि परमपए परमेसरु संपण्णउ ।।२०।।
२१ ता सके कय माणवमणोज अरुहहु पंचमकजाणपुज्ज । सियसिवियहि णिहियस णाहदेहु कालाससिहरि णं अरुणमेहु । भंभाभेरीक्षारिसथाई
सुरतूरिएहिं तुरई हयाई। गायंतिहि किंणरकामिणीहिं णचंतिहिं फणिसीमंतिणीहिं। १९. १. MB जाणिवि समजणणनु । २. M लइयउ । ३. MB ओहल्लि। ४. T; ससमोरएहि इति
पाठे उपशमयुक्ताश्च ते उरगाश्च । ५. B गोत्तहु । २०. १. G सरीछु । २. M फयरापार; B कयासारे; T पयराया। ३. MB विवरी; T विवरोएं।
४. MBT णिव्वालियाई, ५. Bण । ६. MB भरण । ७. MB जरखे। ८. MB वसुसमिहिं।
९. MB जाइबि उड्ढगह तिहयनिहरि पिसण्णव । २१. १. MB सुरतूरएहिं ।
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२७. २१.४]
हिन्दी अनुवाद
पिताके संसार-त्यागका समय जानकर शौत अपना मुख नीचा कर, पवित्र बुद्धि और शीलका आश्रय भरत अश्वापद शिखरपर आया। उसने देखा-गिरि मधुवृक्षोंके च्युत आसवसे शोभित है, जिन रुद्ध आस्रवोंके कारण शोमित हैं, गिरि बहते हुए सरनोंसे शोभित है, जिन कोंकी निर्जराओंसे शोभित हैं, गिरि नाना प्रकारके मगोंसे शोभित है, जिन नाना प्रकारके मदरहित मुनियोंसे शोभित हैं। गिरि नाचते हुए मयूरोंसे शोभित है, शोभा सहित उरगोंसे शोभित हैं, गिरि धर्म नामक ( अर्जुन) वृक्षसे शोभित है, जिन धर्म और न्यायसे शोमित है, जिस प्रकार गिरि शवरराजसे सहित है, उसी प्रकार जिन प्रणाम करते हुए भरतराज से।
धत्ता-तब स्वामी आदिनाथ समुद्घात विशेषसे लम्बे समयकी सन्तानवाले वेदनीय नाम और गोत्र तीनों कर्मोका आयुप्रमाण कर दिया ||१९||
२० मुनिप्रवरने, विशालतामें अपने पारोरके मानका क्रियाविधान किया ( अर्थात् शरीरसे आत्माके प्रदेशोंको बाहर निकालना शुरू किया ), दण्डाकारके रूपमें जीवको बाहर निकाला और उसे तोनों लोकोंके अग्रभागमें, नित्यनिगोद नरकके निकट तक ले गये। फिर उन्होंने सुरीदका अड्डड्ड प्रसारित किया (.............) मानो तीनों लोकोंके लिए किवाड़ दे दिया हो। देवने देवोंसे प्रणम्य अपनेको प्रवर आकारमें स्थापित किया। समस्त लोकका आपूरण कर, फिर विपरीत भावसे संवरण कर ( अर्थात् लोकपूरण, संवरण, रुजक्कार संवरण और दण्डाकार संवरण कर) उन्होंने तेजस्, कामिक और औदारिक तीनों शरीरोंको निश्चल बना लिया। फिर तीनों सूक्ष्म तीन क्रियाओंको छोड़कर चौथे सक्षम किया शक्लध्यानमें स्थित हए। वहां वह आयोग शुक्लध्यानमें अवतरित हुए, वह मन, वचन और कायसे मुक्त होकर शोभित हुए । स्वामी श्रेष्ठ, इस प्रकार अपनी देहके भीतर स्थित होकर जितना समय 'क ख ग घ ङ' समाक्षरोंके कथनका समय है, उसमें विद्यमान होते हुए भी देव शरीरको नहीं छूते। जिस प्रकार छिलका निकल जानेपर पके हुए एरण्डका बोज ( ऊपर जाता है)।
पत्ता-उसी प्रकार वह दर्शनज्ञानादि और आठ सितगुणोंसे सम्पूर्ण हो गये। वह अपने स्वभावसे, जाकर परमपदमें स्थित हो गये ॥२०॥
तब देवेन्द्रने अरहन्तको मानवमनोश पांचवें कल्याण की पूजा की। स्थामीके देहको श्वेत शिविकामें रखा गया, मानो कैलास शिखरपर अरुण मेष हो। सैकड़ों भभा-भेरी, झल्लरि और तुर्य वाद्य देववादकों द्वारा मजा दिये गये । गाती हुई हिम्नर स्त्रियों, नापती हुई नाग स्त्रियों,
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४२८
महापुराण
[३७. २१.५ घिपतिहिं णवकुसुमंजलीहिं उम्भियकल्लोवधयावलीहिं। सहलक्खयधूवविलेवणेहि भिंगारहिं कलसाहिं दप्पणेहिं । आढत्तचित्तथुइकलयलेहि ___ अबरेहिं वि णाणामंगलेहि । कापूरचंदणागुरुतुरुक्स
सले विरक्ष्य खंडिवि विषिह उक्ख । अंति-रिसिपश वाह गायिन अंगु अणंगणासु । पय पणवंदहि तंविरतिडिकु अग्गिदहिं मउडाणलु विमुकु । घत्ता-अलहंतु गरत्तणु थरह रिउ भवपरिभवणहु भग्गउ ।।। सिहि णं संसार तोसियस जिणकमकमलहुं लगा ॥२१॥
२२ उल्ललिउ घूमु घणजेणियसंकु णं सिहिणा मुकर पलकलंकु। पुणु मिलिट गयणि जालाफलाउ तणु पत्सु खपद्धे भपफमा। सहु कुंडहु गणहरजमदिसाइ मुणियर सकारिय पच्छिमाइ। तिषिण वि सिहि पुन्जिय सोत्तिएहिं घय जब तिल घल्लिवि खसिपाह। तं मणिवि पुण्णज्जणु पवित्तु अण्णेकाहि लश्या अगिाहोत्तु। भालेयलि कठि मुजेजुयलसिहरि हिप्पंका णिहियउ णाहिविवरि । अणु मुद्धएसि मच्छग्गभाइ असमंजुर्गु जिह तं सहह काइ। घता-जं तुम्हहं जायउ मोक्खु सुहं तं महु होल पियार७ ॥ इय भणिवि तियाउसु वैदियउ ई रिसहहु केरड ॥२२॥
२३ जेही तुइ तेही होउ बोहि अम्हह विभडारा मेणि समाहि। इय वोसंतहिं कप्पामरेहिं
वंदियश तियाउसु खेयरेहि। तिरदेतहि जोइसगणेहि वंदियउ तियाउसु भावणेहि । गंदादेवीइ महासईद
वंदियउ वियाउसु जसबईइ । भरहेण दुक्खदूमियमण वंदियउ तियाउसु परियणेण । केसरिकिसोरसरि सिहरियासि घणतुहिणकणालि माहमासि । सूरंग्गमि कैसणघउहसीहि णिन्वुइ तित्थंकरि पुरिससीहि । रोवइ सोयाउरु सयणबिंदु सई सोयह भरहु महाणरिंदु । तेलोकमंदिराधारखंभु
कहिं पेच्छमि देव जुगाइर्बमु । घसा-पई विणु जिण अंधई लोयणई दिसर असेसउ सुण्णियउ ।।
उब्भिवि हत्य ओम्माहियत पयर बरायड रेणियह ॥२३॥
२. MB धूम । ३. B पुस । ४. M सयल विश्य खंडिवि; B सलु पिय रमवि संरिधि ।
५. BM वावियउ । २२. १. B जलिय । २. K भप । ३. MB घय तिल जव । ४.० भायलि। ५. MBK भुपजुयल ।
६. MH मुखएस । ७. MB मोगलसुई। २३. १. MB मणसमाहि। २. MB सूरुग्गमि । ३. B किसणं । ४. B पुण्णउ । ५. MB भोमाहियस ।
६. MB हल्लियन ।
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३७. २३.११]
हिम्बो अनुवाद गिरती हुई कुसुमांजलियों, ऊपर उड़ती हुई ध्वजावलियों, फल-अक्षत-धूप और विलेपनोंसे युक्त भिंगारों, कलशों और दर्पणों, प्रारम्भ की गयी विचित्र स्तुतियों के कलकल शब्दों और दूसरे नाना मंगलोंके साथ कपूर-चन्दन-अगुरुसे मिश्रित विभिन्न वृक्षोंको काटकर चिता बनायी गयो; फिर ऋषि परमेश्वरकी पूजा कर, कामदेवका नाश करनेवाले उनके शरीरको उसपर रख दिया गया । चरणोंमें प्रणाम करते हुए, अग्नीन्द्रने मुकुटरूपी अनलसे लाल स्फुलिंग छोड़ा।
धत्ता-मनुष्यत्व नहीं पाने के कारण थरथर कापता हुआ, संसारके परिभ्रमणसे भग्न एवं संसारसे त्रस्त होकर मानो अग्नि जिनवरके चरण-कमलोंसे जा लगी ॥२१॥
मेघकी आशंका उत्पन्न करनेवाला धुआं उठा, मानो आगने अपना मल कलंक छोड़ दिया हो । फिर उसका ज्वालासमूह आकाशसे जा मिला और उसका शरीर आधे क्षणमें वापरूपमें बदल गया। उस कुण्डका ( चितास्थान ) गणधरोंने यमकी दिशा ( पूर्व दिशा) से सत्कार किया, मुनिबरोंने पश्चिम दिशासे, और ब्राह्मणों और क्षत्रियोंने घो, जो तथा तिल डालकर तीन दिशाओंसे आगकी पूजा की। उसे पवित्र पूण्यार्जन मानकर, दूसरे कई लोगोंने अग्निहोत्र यज्ञ स्वीकार कर लिया करुणालकष्ट कोनों बालों के सालुओं, हृदयकमल और नाभिविवरपर, बादमें मस्तक प्रदेश और मुकुटके अग्रभागपर विहित वह भस्म ऐसा मालूम देता है, जैसे शरीर यशसे मण्डित हो।
घत्ता-जिस प्रकार तुम्हें मोक्ष-सुख प्राप्त हुआ है, वह प्यारा सुख मुझे भी हो, यह विचारकर इन्द्रने ऋषभके उस भस्मको वन्दना की ॥२२॥
"हे आदरणीय, जिस प्रकार तुम्हें बोधि प्राप्त हुई, येसो हमारे मनमें भी समाधि हो।" यह कहते हुए कल्पवासी देवों और विद्याधरोंने भस्मको वन्दना की। व्यन्तरदेवों, ज्योतिषगणों और भवनवासियोंने मी भस्मकी बन्दना की। महासती नन्दादेवी और यशोवतीने भस्मकी वन्दना की। दुःखसे पीड़ित मन भरतने और परिजनोंने भो भस्मको वन्दना की। जिसमें सिंहके शावकोंका शब्द है ऐसे पर्वतपर निवास करनेवाले माह माघमें कृष्ण चतुर्दशीके दिन सूर्योदयकालमें पुरुषश्रेष्ठ तीर्थंकर ऋषभके निर्वाण प्राप्त करनेपर शोकसे व्याकुल स्वजन समूह रोने लगता है, महानरेन्द्र भरत स्वयं शोकमें डूब जाता है कि लोक्यरूपी मन्दिरके आधार-स्तम्भ वीर युगके आदि ब्रह्मदेवको मैं कहाँ देखूगा।"
घप्ता हे जिन, आपके बिना नेत्र अन्धे हैं, अशेष दिशाएं सूनी हैं। बेचारो उत्कण्ठित प्रजा अपने दोनों हाथ ऊपर कर रो पड़ो।।२३।।
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४३०
महापुराण
[ ३७. २४.१
तुटुं मज्झ बप्पु जगडिंभवप्पु पई विणु को कहइ कलावियप्पु । पई षिणु को पालइ इट्ठ सिद्ध को विसहइ गुरुतवचरणणि? । पई विणु को आणइ तश्चभेज को होइ देव देवहिं वि देव। पई विणु अणाहु सामिय तिलोउ ता गणहरू भणइ म करहि सोल । इह सो सुउ जो मुत गभि वसइ छिम भिजाइ दुइदलिज रसइ । तु ता देव तित्थयरु पथरु परमप्पड र्यउ अजर अमरु। सक्केण जि तं जि पउत्तु तासु, जो मयताई णासह किलेसु । सो तुहूं कि सोयहि जगणु भणिवि जो जायहु सिधु तमोहु धुणिवि । अरइंतु सरंत होइ धम्मु मा मोह तुई संघहि दुकम्मु । तं णिसुणिदि राएं दुण्णिरिक्खु मई साहारिष तायदुक्खु । पत्ता-गट सुरवइ सरगहु ससुरयणु वंदिवि परमजिणेसरु ।।
मंडलियमहामंहलियवइ साकेयह भरसरु ॥२४॥
सोमप्पा ह्यसुहदुक्खाहेउ सेयंसरा बाहुबलि देउ। गय णिज्वाणहु तिजंगुत्तिमंगि थिय तिणि वि अट्ठमधरणिरंगि। सहुँ गणणा हि वारुपहि णासियमयमोहमहारुपहि। णिवाडियसाख्यिकम्मरेणु कालेण गते वसहसेणु। गड मोक्खहु अषणरमियखयरि एचहि वि तेत्थु साकेयणयरि। कुंकुमविलेउ ढोयंतएण दप्पणयलि मुहूं जोयंतरण। अवलोइवि पंडुरु एक केसु गिदिवि गरजम्मु सुणिब्बिसेसु । जयरायरपुरवरपउरदेस
णियसुबहु समप्पिवि महि असेस । भूएसु भूरिपसरियकिवेण तवचरणु लइड भरहादिवेण। परिवडण चिहुरुप्पाड जाम सप्पण्णार्ड केवलु वासु ताम |
यउ परमेहि परमप्पताणु घउदेवणिकायहिं युग्वमाणु । फेडिवि भन्वहं मणमोहयालु महिमंडलि विहरिवि दीहकालु । घता-गस भरहु वि मोक्खु विसुद्धमा विविहकैम्मबंधणचुद।।
"फणिविसहरकिंणरपवरणरपुप्फयंतगणसंथुस ॥२५| इस महापुराणे विसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फर्यसविरइए महामण्यभरहाणुमणिए महाकावेसगणहररिसहणहमरहणिग्याणगमणं पाम सन्चतीसमो
परिभलेमो समतो॥३०॥ ___ संधि ॥३॥
|| समाप्तमादिपुराणम् ।। २४. १. M दुहमलिंग । २. MB मंडइ । ३. MB हिययदुक्छु । २५. १. MB तिजगुत्तमंगि। २. MB उच्चाएहि । ३. MB°महाभएहि । ४. MB°सारिय: ___T साडिय। ५, MB गणत। ६. MB उवणि । ७. B एतहि तेस्थु । ८. M परस्स ताण;
B परप्पताण । ९. Mकम्मदेहिं चु; B कम्मबंधेहि चुन । १०. MB फणिखेयर ।
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३७. २५. १४]
हिन्दी अनुवाद
४३१
"विश्वरूपी बालकके पिता, तुम मेरे पिता हो । तुम्हारे बिना कलाविकल्प कौन बतायेगा? तुम्हारे बिना इष्ट प्रजाका पालन कौन करेगा? महान तपश्चरणको निष्ठा कौन सहन करेगा? तुम्हारे बिना तत्त्वका रहस्य कौन जानेगा? हे देव, देवोंका देव कौन होगा? हे स्वामी, तुम्हारे बिना यह त्रिलोक अनाथ हो गया।" तब गणधर कहते हैं--"तुम मत शोक करो। यह जो मर गया, वह मरकर गर्भ में बसता है, छीजता है, भेदको प्राप्त होता है और दुःखसे पीड़ित होकर चिल्लाता है । तुम्हारा पिता, हे देव, महान् तीर्थकर, अजर-अमर परमात्मा हो गये हैं। इन्द्रने भी उससे यही कहा कि जो स्मरण करनेवालोंके क्लेशका नाश करते हैं, तुम पिता कहकर, उनके लिए शोक क्यों करते हो? जो तमःसमूहका नाश कर सिद्ध हो गये हैं। अरहन्तको स्मरण करनेवालोंका धर्म होता है, तुम मोहके द्वारा दुष्कर्मका संचय मत करो।" यह सुनकर राजा भरतने बलपूर्वक पिताके दुःखको सहन किया।
पत्ता-परमजिनेश्वरको बन्दना कर इन्द्र देवों सहित स्वर्ग चला गया, तथा माण्डलीक और महामाण्डलीकपति भरतेश्वर साकेत चला गया ॥२४॥
२५
Ratants सुख-दाको कारणको जङ्ग कारेवर समप्रभ, राजा श्रेयांस और देव बाहुबलि भी
निर्वाणको प्राप्त हुए, और त्रिलोकके उत्तमांग आठवीं धरतीको भूमिपर तीनों स्थित हो गये। मदमोहरूपी महारोगका नाश करनेवाले, उद्धार करनेवाले, गणधरोंके साथ, पूर्वार्जित कर्मरजको नाश करनेवाले गण वृषभसेन, समय बीतनेपर मोक्ष गये। यहीं, जहाँ उपवनमें विद्यापरिया रमण करती हैं, ऐसे साकेत नगरमें भी केशरविलेप लगाते हुए, दर्पणतलमें मुख देखते हुए भरतने एक सफेद बाल देखकर निरवशेष मनुष्य जन्मकी निन्दा कर, नगर पाकर परखर प्रचर देश और अशेष धरती अपने पुत्रको समर्पित कर प्राणिमात्रमें कृपाका प्रसार करनेवाले उसने तपश्चरण स्वीकार कर लिया। उखाड़े हुए बाल जबतक धरतीपर गिरें, इतने में उसे केवलशान प्राप्त हो गया। वह स्वपरका रक्षक परमेष्ठी हो गया। चारों निकायोंके देवोंके द्वारा स्तूयमान पह भव्यजनोंके मनके मोहजालको नष्ट कर और लम्बे समय तक धरतीपर विहार कर
पता-विशुद्धमति विविध कर्मबन्धनोंसे रहित, नागों, किन्नरों, प्रवर नरों और ज्योतिषगणोंके द्वारा संस्तुत भरत भी मोक्ष चले गये ।।२५||
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुण-अलंकारोंसे घुक महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा षिरचित्त एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सगणधर ऋषभनाथ
भरत निर्वाण गमननामका सैंतीसवाँ परिच्छेद समास हुआ men
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21
अँगरेजी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवाद
इन टिप्पणियों में सन्धियोंके सन्दर्भ रोमन अंकों में है, जब कि कवकों और पंक्तियोंके अरबिक अंकों 'टी' प्रभाचन्द्रके टिप्पणों की संकेतक है ।
XIX.
भरतने, सम
सोचा कि मैंने जो धन अर्जित किया है, उसका कोई उपयोग नहीं है, यदि मैं इसे योग्य व्यक्तियो नहीं देता, जो कि विशुद्धरूपसे ब्राह्मणके नामसे ज्ञात हैं। भरतके अनुसार ये ब्राह्मण में हैं, जो जिनेन्द्र भगवान् द्वारा बताये गये का पालन करते हैं। ऐसे व्यक्तियोंको उसने उदारतापूर्वक बड़ी मात्रार्थे तस्याति गई उनसे
उसने ऋषभनाथसे पूछा
एक दिन भरने रातके अन्तिम प्रहरमें बुरा सपना देखा । वह बहुत अधिक चिन्तित हो गया । और दूसरे दिन सवेरे ऋषभ जिनसे मिलने गया। प्रार्थना और भक्ति करनेके बाद, कि यह बताइये कि किस पुण्यकर्मसे आप ऋषभ तीर्थकर हुए, और भरत चक्रवर्ती, बाहुबलि वीर व्यक्ति, श्रेयांस दानवीर, और सोमप्रभ योग्य शासक हुए। ऋषभस्वामी ने उन्हें बताया कि किस प्रकार दुष्षमा काल आयेगा कि जब नैतिकता के सब मूल्य पूरी तरह बदल जाएँगे ।
B. बुरा स्वप्न ।
1012-13 वे व्यास जैसे लोगोंको पूरे अधिकार दे देंगे। जो कि बीयर स्त्रीका पुत्र है, और gajarat, जो कि एक गधीका पुत्र है। व्यास, पराशर से सत्यवती के पुत्र बताये जाते हैं। परन्तु मैं इस बातके स्रोतका पता नहीं लगा सका कि दुर्वासाको गर्दभीका पुत्र क्यों कहा गया
12. पंचमजुषि मर
XX.
सबसे पहले भरत सृष्टिको रचना के विभिन्न सिद्धान्तोंका खण्डन करते हैं और बताते हैं-धरती पवन और पानी के तत्व है जिनसे विश्वकी रचना हुई और यह कि ये आरम्भ और अन्तसे रहित हैं। विश्वकी रमा न तो ब्रह्माने की है, और न विष्णु या महेश ने इस सृष्टिकै बीचमें मानवलीक स्थित है जो 'सिरियलोक' कहलाता है, जिसमें कई द्वीप और समुद्र हैं"। सुमेदपर्वतकी पविच विशामें गन्धिल देश हूँ। उसकी राजधानी बलका हूँ। वहाँ राजा अतिबल शासन करता था। उसकी रामी मनोहरा थी। उनका महावल नामका पुत्र हुआ। जैसे ही वह योवनको प्राप्त हुआ, अतिबलने उसे गद्दी पर बैठाकर संन्यास लेनेका निश्चय कर लिया। उसके बाद राजा महाबल शासन करने लगा। उसके चार मन्त्री में महामति, सम्भिन्नमति, सत्यमति मोर स्वयं । एक दिन स्वयंकुशने राजासे सांसारिक आनन्दको पर्पताके बारेमें कहा और उससे जैनधर्मके अनुसार पवित्र जीवन बितानेके लिए अनुशेष किया। तब महामतिने चार्वाक मतका समर्थन करते हुए; वारीर और बारमा एक होनेके सिद्धान्तका प्रतिपादन किया। स्वयं महामति सिद्धान्तका खण्डन किया । इम्मिग्नमति बीयोंके लणिकवाद के सिद्धान्तका समर्थन किया। स्वयंबुद्धने इस मतका भी लण्डन किया । जब सत्यमतिमे अपने माया सिद्धान्तका प्रतिपादन किया, स्वयंकुद्धने इस सिद्धान्तका भी चण्ड क्रिया ।
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४५२ महापुराण
[xx 17. स्वयंबुद्धने तब राजा महाबलको उसके पूर्वज अरविन्दकी कथा सुनायो । उसके हरिश्चन्द और कुरुविन्द नामके दो पुत्र थे। एक दिन अरविन्दके शरीरमैं भयानक बलन हुई। और उसने पाया कि यह किसी भी दवाईसे ठीक नहीं हो सकती; तो उसने अपने पुत्र कुबिन्दसे पशुओं के रक्तका तालाव बनाने के लिए कहा कि जिस में नहानेसे उसका रोग शान्त हो जायेगा। कुरुविन्दने अपने पिताको आज्ञाका पालन किया, परन्तु उसने कृत्रिम रक्त ( लाक्षारस ) के तालाबका निर्माण कराया। अरविन्दने जन द्रालाबमें प्रवेश किया और रक्तका स्वाद लिया तो उसने पाया कि उसके पुत्र ने उसे धोखा दिया । वह उसे मारने के लिए दौड़ा परम्तु रास्ते में गिर पड़ा और अपनी ही तलवारसे मारा गया ।।
महाबलका एक और पूर्वज था दण्डक नामका राजा । उसके पुत्र का नाम मणिमाली था। दण्डकन बहुत-सा धन इकट्ठा किया और मरकर अजगर हुआ। वह घनकी रखवाली करता था। एक दिन मणिमाली घर आया और उसने द्वार पर सांपको देखा । साँपको भी पूर्वभवका स्मरण हो बापा और मणिमालीको अपमा पुत्र समझते हुए उसने उसे नहीं काटा। यह देखकर मणिमालीको आश्चर्य इमा। वह मुनिके पास गया और उसने पूछा कि सौप कौन है? यह जानकर कि वह उसके पिता है, वह घर आया और सापको जैनधर्मका उपदेश दिया। उसने इसका अभ्यास किया और अगले जन्म में देवके रूपमें उत्पन्न मा। देव, मणिमालीके पास आया और उसे एक हार दिया कि जो महाबल पहनते थे।
17. 2-5 चार तत्त्व (परती, पवन, अग्नि और जल) का न कोई आदि है और न शन्त, इन्हें किसीने उत्पन्न नहीं किया | जब ये चार तत्त्व आपसमें मिलते हैं तब चेतनाका चिह्न प्रगट होता है । इन तत्त्वोंमें चेतना उसी प्रकार आती है जिस प्रकार गुड़, जल और मिट्टीसे मदशक्ति उत्पन्न होती है, इसलिए शरीर और बात्मामें कोई अन्तर नहीं है यह चार्वाक सम्प्रदायका सिद्धान्त है ।
18.98 पोरन्दरका सिद्धान्त अर्थात् इन्द्रका सिद्धान्त, जो बृहस्पतिके साध, चार्वाक सिद्धान्तके संस्थापक माने जाते हैं। 10-11 यदि ये तत्त्व विना जीव और आत्माके अपने आप चेवनाका निर्माण करते हैं और एक जारमें शरीरकी रचना कर लेते हैं। तब उस जारमै शरीर उत्पन्न होना चाहिये कि जिसमें उक्त चीजोंका मिश्रण है । दूसरे शब्दोंमें ओवित शरीर पूबमें उत्पन्न हो सकते है ।
19. वह जो ऋषभ मुनिक सिद्धान्तका भक्त है । अर्थात् जिन । 12 बिना निरन्तरता के।
21. टिट्टिभ पक्षी यह कहते हुए कि आकाश गिर पड़ेगा, डर जाता है और अपनी टाँगें उठाकर स्थित हो जाता है गिरते हुए आकाशको सहारा देने के लिए।
XXI.
स्वयंप्रबुद्ध ने आगे महाबलको बताया कि उसके पिता पितामह बड़े महापितामहन अपने पवित्र जीवनसे विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है । यह सुनकर वह भी मन्दराचलपर जिनको बन्दना करने के लिए गया। ठीक इसी अवसरपर, दो पारणमुनि माये । स्वयंबुद्धिने उन्हें प्रणाम किया । और उसने अपने स्वामी महाबल के विषय में पूछा। इसपर उन लोगोंने कहा, कि दसवें भवमें बह निश्चित रूपसे तीर्थकर होनेवाले हैं। लेकिन अपने अतीव कालमें वह राजा श्रीषेण और रानी सुन्दरीका जयवर्मा नामका पुत्र था। चूंकि राजाने अपने छोटे पुत्र श्रोवर्माको राज्य दे दिया, इसलिए जयवर्मान मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। इसो अवसरपर एक विद्याधर खूब ठाटबाटसे भाया । नब मुनि जयवर्मा उससे अत्यधिक प्रभावित हुआ, और उसने यह संकल्प किया कि तपस्याके फल स्वरूप वह भी उसी राजाकी तरह सम्पन्न हो । यही कारण है कि आगामी जन्मम वह महाबलके रूप में उत्पन्न हुआ। स्वयंबुद्ध तब महाबलके पास गया, और उसको दूसरे मन्त्रियोंसे सुरक्षा की कि जो उसे गलत रास्तेपर ले जा रहे थे। महाबलके पास केवल एक वर्ष की आयु वची यो ।
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XX 11 ]
अँगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
४५३
उसने संन्यासमरण से मरनेका निश्चय किया । मृत्युके बाद, वह ईशान स्वर्ग में उत्पन्न हुआ, ललितांगनाम देवके रूपमें | उसकी प्रेयसियाँ स्वयंप्रभा और कनकप्रभा भी थीं ।
2, 12 जिनवरको जो कमल चढ़ाये जा रहे थे, उसने उनमें से एकको लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया ।
4. 40 मुझे बताइए कि क्या महाबल भव्य है ? क्या वह संन्यासग्रहण करने लायक है ! या नहीं । 8. उसने यह इच्छा की कि उसे संन्यासी रीज मिले
XXII,
एक दिन ललितांग ने अपने शरीरपर पड़ी हुई मालाके फूल कुम्हलाये हुए देखे जो इस बातका संकेत था कि उसके जीवनका अन्स निकट आ पहुंचा है। वह बहुत भयभीत हुआ; उसे यह सलाह दी गयी कि उसे अपना अधिक से अधिक जीवन पवित्र कामीने बिताना चाहिए। तब वह जिनकी बन्दना करनेके लिए गया। समय बीतनेपर वह मरकर, वज्रबाहु राजाका वज्रजंध नामका पुत्र हुआ। जब वज्रजंघ धरतीपर बड़ा हो रहा था, उसकी प्रियलमा स्वयंप्रभा अपने पतिके निधनपर खुद्द रोयो, अपनी मृत्युके बाद वह वज्रदन्त राजाकी श्रीमती नामकी पुत्री हुई। उसकी मौ पुण्डरीक्रिणोकी रानी लक्ष्मीमती थी । एक दिन वह श्रीमती आधी नीदमें थी, उसने स्वप्न में देखा कि वह जिनदर्शनको जा रही है कि जिसमें
कई देवता उपस्थित हो रहे हैं। उसे शोत्र हो अपने पूर्वभव और पूर्वपतिकी याद हो आयी और वह धरतीपर बेहोश गिर पड़ी। उसे शीघ्र होश में लाया गया और उसके अभिभावकोंको बुलाया गया । पिता शीघ्र समझ गये कि अन्या प्रेमासक्त है। इसलिए उसने एक चतुर धायकी देख-रेख में उसे रख दिया, यह पता लगाने के लिए कि वह किससे प्रेम करती है। इसी अवसरपर राजाको यह खबर मिली कि यशोधरको केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। उसे आयुधशाला में चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई है। राजा शीघ्र ही जिनकी बन्दना करने के लिए गया और इस कार्य के परिणामस्वरूप उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो गया। वह घर माया और उसने कन्याको उसके पूर्वभव (स्वर्ग) की कहानी सुनायी। उसे यह कहकर आश्वासन दिया कि वह अपने पूर्वभव के प्रेमी से शीघ्र मिलेगी। इसके बाद, वह विश्व मात्राके लिए निकल पड़ा। एक दिन षायने, जो उसकी देख-रेख कर रही थी, उससे अपने मनकी बात बतानेके लिए कहा। इसपर श्रीमतीने उसे बताया कि वह तीसरे पूर्वभवमें एक गरीब व्यापारीकी निर्नामिका नामको सबसे छोटी कन्या थी। उसकी बड़े परिवार में कुल 10 सन्तानें थीं। एक दिन जब निर्नामिका जंगलसे लौट रही थी तो उसने कुछ फल तोड़े । उसने बहुत बड़ी भीड़को देखा, जो जिनकी बन्दना करने के लिए जा रही थी। वह भी वहाँ गयो, और उसने जिनकी वन्दना की और पूछा कि वह गरीब क्यों हुई ? इसपर जिनमुनिने बताया कि उसने पूर्व जन्म में एक मुनिपर कुत्तेका शव रखा था, परन्तु वह इससे अप्रभावित रहे, ठोसरे दिन दयाके कारण उन्होंने उस शवको हटा दिया ।
इस कृत्यके फलस्वरूप वह गरीब हुई है। इसके बाद जिनने उसे धर्मका सही स्वरूप बताया और उससे 150 उपवास करनेके लिए कहा कि जिससे वह इस पापसे मुक्त हो सके। उसने ऐसा ही किया । मृत्यु के बाद वह ईशान स्वर्ग में ललितांग की पत्नी हुई। उसकी मृत्युके छह माह बाद वह भी धरतीपर आयी और श्रीमतीकै रूपमें उत्पन्न हुई। ललियांगके प्रति अपने प्रेमकी याद करते हुए वह बेहोश हो गयी । अपने अतीत जोवनकी कहानीका वर्णन करनेके अनन्तर उसने ललितांगका चित्रपट बनाया और घायको देकर उसका पता लगानेके लिए कहा ।
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महापुराण
[XXIII.
XXII. तब श्रीमतीको धाय ने ललितांगका चित्रपट ले लिया और वह जिनमन्दिर गयी। यहां उसने लोगों से कहा कि जो इस चित्रपटपर अंकित घटनाओंको सही-सही पढ़ देगा वह श्रीमतीसे विवाह करेगा। विभिन्न देशों के राजकुमारोंको भीड़ वहां इकट्ठी हुई, उन्होंने अपना-अपना भाग्य आजमाया, पर व्यर्थ । इस बोर श्रीमतीके पिता विजययात्रास लौट आये। उसने से पूर्वजन्मको कहानी बतायी । वनदन्तने कहा-मेरे पांचवें पूर्वजन्ममें मैं अर्ध-चक्रवर्तीका चन्द्रकीति नामका पुत्र था। जयकीति मेरा एक मिष था । लम्बे समय तक हमने राज्यका उपभोग किया, उसके बाद तपस्या की। मुत्युके बाद अगले भवमें स्वर्गमें देवेन्द्र हुए। उसके बाद हम दोनों बलदेव और वासुदेव हुए; क्रमशः श्रीवर्मन्, विभीषण, श्रीपर और मनोहरा हमारे माता-पिता थे 1 जद हम युवक हुए हमारे पिताने हमें राज्य सौंप दिया। उन्होंने तपकर केवकज्ञान प्राप्त किया। मां घरपर रहीं। परन्तु वे पवित्र धार्मिक कार्य करती रहीं। वह मरकर ललितांग देव हुई। कुछ समय के भीतर, हमारे छोटे भाई, "विभीषण' की मृत्यु हो गयी। मैं उसके शवको कन्धेपर लादकर एक स्थानसे दूसरे स्थानपर भटकता रहा । ललितांग देव (हमारी पूर्वमाता ) ने पइ देखा और मुझे समझाने के लिए वह सामने खड़ा होकर रेतमें-से तेल निकालने लगा। मैंने पूछा-तुम क्या कर रहे हो? और उससे उसका उद्देश्य जानकर मैंने कहा, "तुम रेतसे तेल नहीं निकाल सकते ?" देवने पूछा-"तुम शवको लेकर क्यों घूम रहे हो? क्योंकि यह मुर्दा जीवित नहीं हो सकता ?" तब मैंने अनुभव किया कि मेरा भाई मर गया है। मैंने उसका दाह-संस्कार किया 1 मैंने राज-पाट पुत्रको देकर संन्यास ग्रहण कर लिया। और मरकर अच्युत स्वर्गमें उत्पन्न हमा। दबवन्त फिर ललितांगके पूर्वजन्म बताता है, अन्त में वह उत्पलखेडमें बनजंघ नामसे जन्म लेता है।
XXIV
इस बीप श्रीमतीकी बुद्धिमती पाय चित्रपट लेकर बाहर गयी और कई देशोंका परिभ्रमण करने के बाद उत्पलखेड आयी। वहां उसने मन्दिरमें चित्रपट रखा। बच्चधमे उसे देखा और यह बेहोश हो गया। अब वह होशमें आया तो उससे पूछा गया कि क्या मामला है? उसने अपने मित्रोंसे कहा कि चित्रपट में उसके पिछले जम्मकी घटनाओं का अंकन है जिसमें स्वयंप्रभासे उसके प्रेमका भी चित्रण है। वह प्रेम-वेदनाके दुःखको सहने में असमर्थ है। उसने घायसे पूछा कि उसकी पूर्वजन्मकी प्रेयसी कहाँ उत्पम्न हुई है। वनजंय के पिता वनभानुको यह समाचार दिया गया। उसने आश्वासन दिया कि वह उसके लिए उक्त कन्याका प्रबन्ध करेगा। वह पुण्डरीकिणी नगरी गया। ववदन्तने उसका स्वागत किया और बानका कारण पूछा । चित्रपट की घटमा सुनने के बाद उसने अपनो कन्या श्रीमती वन्यजंघके लिए दे दी। इस प्रकार दोनों प्रेमी-प्रेमिकाओंका संगम हो गया।
xxv. विवाह के बाद वनजंघ और श्रीमती उत्पलखेड लोट आये । उनके 51 युगल बच्चे उत्पन्न हुए। एक बार शरद् ऋतुमे वज्रभानुने एक बादलको एक क्षण में लुप्त होते देखा 1 उसने अनुभव किया कि संसार में प्रत्येक वस्तु क्षणिक है। उसने दीक्षा लेनेका निश्चय किया । वदन्तने भी एक कमल देखा जिसमें एक भ्रमरी मरी हुई थी। वह कमलकी शौकीन यो, वह कमलको नहीं छोड़ सकी हालांकि सन्ध्या समय वह संकुचित हो रहा था। यह देखकर वह उस आनन्दके प्रति उदास हो गया कि जो जीवनमै मृत्यु का कारण होता है । उसका पुत्र अमिततेजने भी घरतीपर शासन नहीं करना चाहा और उसने अपने पिताका अनुकरण किया । तब वदन्तका पोता पुण्डरीक गद्दीपर बैठा । फि वह छोटा । इसलिए उसकी
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XXVIII ]
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
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मने चाहा कि वज्रजंघ-जैसे मित्र उसकी सहायता करें और इसलिए उसने पत्र भेजा। वह उसके स्थानपर छाया । जब वह जंगलमें पड़ाव डाले हुए था उसे युवक साधुओंका जोड़ा मिला जो उसके ही लड़के थे? उसने उनको अपने पूर्व जन्मोंको बतानेके लिए कहा, (जैसे जयवर्मन, महाबल, ललितांग और वज्रजं । तब उन्होंने श्रीमतोके पार पूर्वभव बताये - धनश्री, निर्नामिका, स्वयंप्रभा और श्रीमती । उन्होंने उसके पूर्वभव मन्त्री, पुरोहित, मित्रों और नृत्योंके भी पूर्वभवों का वर्णन किया। उन्होंने यह भी कहा कि आठवें भवमें वह तीर्थंकर होगा । श्रीमती श्रेयांस राजकुमार होगी। यह सुनने के बाद वह पुण्डरी किणी नगर गया। वहाँ उसने अपनी बहुत अनुन्धरीको और युवराज पुण्डरीकको देखा । राज्यकी उचित प्रशासनकी व्यवस्थाके बाद वह घर लौट आया ।
XXVI
Aaja और श्रीमती उत्तर कुरुमें अनिन्द और अज्जया नामसे युगल सन्सान के रूपमें उत्पन्न हुए। वहां उन्हें अपने पूर्वभवका स्मरण हो आया, जबकि चारणमुनियोंका जोड़ा वहाँ आया था। उनमें से एक, और कोई नहीं, महाबलका मन्त्री स्वयंबुद्ध था। इन चारणमुनियोंने भी महाबलके तीन मन्त्रियों की परवर्ती भवपरम्परा बतायो । श्रीधर देव अगले भवमे राजा शुभदर्शी और नन्दासे सुविधि नामका राजकुमार, हुआ। उसने मनोरमासे विवाह किया जो राजा अभयघोषकी कन्या थी। देव स्वयंप्रभा सुविधिका केशव नामक पुत्र हुआ । सुविधि फिर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र उत्पन्न हुआ, और केशव प्रतीन्द्र हुआ उसी स्वर्ग में ।
2. विद्धासु ( प्राकृत विउ ) का अर्थ जानना है, अतः वेदका अर्थ ज्ञान है; असः वेदोंको जीवोंके प्रति दयाकी शिक्षा देनी चाहिए। और इसलिए जो ग्रन्थ जीवहिसाका उपदेश देते हैं, उन्हें वेदके बजाय तलवार कहना चाहिए 1
XXVII.
अच्युतेन्द्र और प्रतीन्द्र दोनों ही क्रमशः राजकुमार बञ्चनाभि और वणिक् धनदेव के नामसे उत्पन्न हुए। वज्रनाभि अपने पुत्र यजदन्तको राज्य देकर संन्यासी हो गया, धनदेव उसका शिष्य हो गया। कठोर तपश्चरण-द्वारा वचनामिने तीर्थंकर नाम और गोत्रका बन्ध कर लिया, और उचित समयमे सर्वार्थसिद्धि में अहमेन्ट उत्पन्न हुआ । उसके बावके जन्ममें वचनाभि ऋषभ तीर्थकर हुए और धनदेव श्रेयांसके रूपमें इसी प्रकार ऋषभके बहुत से अनुयायियों (जिनमें उनके पुत्र भी सम्मिलित थे ) के पूर्वजन्मोंका वर्णन किया । सब भरतने पूछा कि अभी भविष्यमें कितने तीर्थंकर, बलभद्र, वासुदेव, प्रतिवासुदेव तथा चक्रवर्ती होंगे। भने उनकी संख्या बतायो । भरतने की विनय को ।
12. 5-8 यह अवतरण बताता है कि भरीबि ( भरतका पुत्र ) चौबीस तीर्थंकर होगा । यह सुनकर वह आमन्दके मारे नाच उठा। उसके आनन्द और घमण्डका प्रदर्शन हो लम्बे समय तक संसारमें घूमनेका कारण था। उन्हें कपिलका गुरु होना पड़ा कि जिसने सांख्य शास्त्र की रचना की ।
XXVIII.
भरत तथ अयोध्या लौट आये | और स्वप्नोंके लिए पौरोहित्य अनुष्ठान किया । उसने पवित्र जीवन बिताया और जरूरतमन्द तथा गरीब लोगों को दान दिया । उसमे दवार और अ राजाके रूपमें शासन किया। महावीर के शिष्य गौतमने आगे भी वर्णन जारी रखते हुए श्रेणिकसे इस प्रकार कहा, राजा सोमप्रभके चौदह पुत्र थे । उनमें सबसे बड़े का नाम जय था । उसे मुकुट बांधकर, राजगद्दीपर बैठा दिया गया। एक दिन राजा जय जय नन्दन वनमें गया तो उसने एक मुनिको उपदेश देते और नाग
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महापुराण
[XXIX.
नागिनको ससे सुनते हए देखा। अगले वर्ष भी राजा उसी स्थानपर आया तो उसने पाया कि नाग उसे छोड़कर चला गया और यह कि उसकी पत्नीने एक निम्न मातिक साप (जयड्ट) से मित्रता कर ली। राजाने अपने हाथ के कमलके पुष्पसे उन दोनोंको छुआ। राजाने रातमें परनोसे इस घटनाका उल्लेख किया। इसी बीच एक देव भाया और उसने राजासे कहा वह साप, और उसकी पत्नी नागन राजा के द्वारा छुई जाने और उसके नौकरों के द्वारा मारी जानेपर स्वर्गमें देवी हई। इसलिए देव राजाको स्वर्गीय अलंकार देकर चला गया।
___ जयका मन्त्री आया और उसने कहा, सुलोचना एक सुन्दर राजकुमारी है जो राना धकम्पन और रानी सुप्रभा की काया है। उसके पिताने कन्याको पौवनमें देखकर सोचा कि इसके लिए सुन्दर युवा पर ईडना चाहिए । तदनुसार उसने स्वयंवरका आयोजन किया । जयकुमार भी उसमें उपस्थित प्रा और सुलोचनाने उसका वरण कर लिया। राजा अर्ककीत बहुत कुछ हुया क्योंकि उसे मापसन्द कर दिया गया था । उसने जयसे युद्ध करना चाहा। इस अवसरपर सुलोचना जिनके पास गयी और उसने प्रतिज्ञा की कि यदि उसके कारण जय और अर्ककीर्ति, दोनों में से एक भी मरता है तो वह अनशन द्वारा मर जायेगी। युद्ध में, किसी तरह जयने अर्ककीतिको हरा दिया और उसे गिरफ्तार कर लिया। इसलिए सुलोचना घर चली आयी। इस बीच जय अकीतिके पास गया उसे समझाया कि वह उसके प्रति क्रोधको भूल जाये।
XXIX
राजा जय घर लौट आया और उसने अपने पिताको नमन किया। लौटते हए वह गंगानदीके सटपर ठहरा। एक हाथीने सुलोचनापर आक्रमण किया परन्तु वनदेवीने उसकी रक्षा की। सुलोचनाने उस देवीका परिचय पूछा। उसने बताया कि उसे विन्ध्याधी कहते है, वह विन्ध्यकेतु और प्रियंगषीकी कन्या है और वह अपनी वर्तमान स्थितिको इसलिए प्राप्त कर सको क्योंकि सुलोचनाने उसे पांच णमोकार मन्त्र सिखाया था। जयने जिस नागनको छुआ था, और उसके बाद उसके नौकरोंने जिसे मार डाला था, वह गंगामे मगर हुई, और पत्रुताके कारण उसने सुलोचनाको मारने के लिए हाथी भेजा था। एक दिन जय दरबार में बैठा हया था उसने देवी जोड़ेको देखा। उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो माया। वह यह कहते हुए बेहोश हो गया 'रतिवेगा, तुम कहाँ हो ।" बेहोशी दूर होनेपर, सुलोचनाने कहा कि यह मादा कबूतर है और पय उसका स्वामी है । पूर्वमव में ।
शोभापुर नगरम व्रतपाल नामका राजा था । देवश्री उसकी रानी थी। शक्तिषेण उसका मन्त्री पा। उसकी पत्नी अदवीश्री थी। एक दिन एक अनाथ बालक आया। उसने पूछा कि वह बचपनमें क्यों घूम रहा है। लड़केने मन्त्रीसे कहा कि इसकी सौतेली माँने उसे घरसे निकाल दिया है । मन्त्रीने उसे पृषके रूपमें गोदमें ले लिया, और उसका नाम सत्यदेव रखा।
11-12. सुलोचना कहती है कि पूर्वभवमें वह रविसेना नामको कबूतरी थी जब राजा जय पुरुष कबूतर पा रतिवर नामका 1 लोग कपटके द्वारा ठगे जाते हैं। सुलोचनाने पूर्वभषकी जो कहानी सुनायी, उसकी सौतोंने उसपर विश्वास नहीं किया और कहा कि यह उसकी चाल है जिसके द्वारा वह पतिके प्रेमपर विजय प्राप्त करना चाहती है।
12, जय और सुलोचनाके पूर्वजन्मोंकी कहानी यहाँसे प्रारम्भ होती है ।
16. चारण मुनियोंकी एक श्रेणी है। इसके दो प्रकार है-जंघाचारण और विद्याचारण । दोनों प्रकारके मुनि आकाशमें विचरण कर सकते है 1 जंघाचारणको उड़नेकी विद्या चार दिनोंके उपवासोंके परिणामस्वरूप प्रास होती है। जबकि विद्याचारण अपनी विद्या से तीन दिमके उपवाससे उड़ सकते हैं।
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XXXII ] अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
४५७ Xxx. सुलोचना पूर्वभवोंकी कहानी जारी रखती है खासकर उस भवको जब वह प्रभावतीके नामसे उत्पन्न हुई और जय हिरण्यवर्मा। वहां उन्होंने साधु-जीवनकी तपस्या की और संसार तथा स्वर्गमें कई जन्मोंको धारण किया। इन जन्मों में से वे एक जन्म माली और उसकी पत्नी बने । वे वहाँ जिनको फूल चढ़ाते थे। एक दिन दोनोंको सौपने काट खाया। वे मर गये। पर उनमें भोगकी अतृप्त कामना बनी रही। अगले जन्ममे देसकान्त और रतिवेगाके रूपमें उत्पन्न हए ।
XXXI.
सुकान्स और रतिधेगा को अपने पूर्वभवका स्मरण हो आया । उस भव वे एक मुनिसे मिले थे कि जिन्होंने हाल ही में सांसारिक जीवनका परित्याग किया था और कहा था कि पवित्र नियमोंके विषय में वे अधिक नहीं जानते । फिर भी उन्होंने उन्हें जैनधर्मकी कुछ मुख्य बातें बतायी थीं। सुकान्तने तब मुनिसे पूछा, कि यौवनावस्थाम उन्होंने दीक्षा क्यों लो। इसपर मुनिने अपनी जीवनकथा उसे बतायी। प्रसंगवश उसमें सुकेतृ व्यापारी और उसके प्रतिद्वन्दी नागदत्तकी कहानी आती है। नागदत्तको सुदत्ता नामको पत्नी थी। एक बार सुकेतुकी पत्नी अपने पतिको भोजन में रही थी उसे एक भुनि मिले, उसने सम्हें भोजन दे दिया । उसने नागगृहके पास भोजन दिया जो उसके पति के शत्रुका घर था। इस दानके परिणामस्वरूप वहाँ पांच आश्चर्य हुए। विशेष रूपठे स्वर्ण और हीरोंको वर्षा हुई। नागदत ने कहा कि यह धन मेरा है क्योंकि यह नागगृहमें बरसा है । तब सुकेतुने नागदत्त से कहा कि धन वस्तुतः उसको पलीका है क्योंकि यह उसके दानका फल है । नागदप्त ने सारा धन इकट्ठा किया और वह राजाके पास ले गया। वह वहाँ नागदत्तके हाथ में राख हो गया, उसके अनुचर डर गये। नागदत्तने तब वह धन सुकेतुको दे दिया। दूसरे दिन नागदत्तको मन्दिर में एक और रत्न मिला। क्रोधर्मे उसने उसके टुकड़े करने चाहि, परन्तु रत्नने उल्टा उसपर नाघात कर दिया । नागदत्तने मन्दिरमें नागदेवताकी पूजा की, बोर उससे सेनाका वरदान मांगा जिससे वह सुकेतुको पराजित कर सके । भागने कहा कि सुकेतुको मारना असम्भव है। इसके फलस्वरूप सुकेतृमे संन्यास ग्रहण कर लिया। मृत्युके बाद वह देवता बना। उसकी पत्नी वमुन्धरा साध्वी बन गयो और मरकर लिंग परिवर्तनके साथ स्वर्गमें देव हई 1
XXXII. जयने सुलोचनासे उनके पूर्वभवोंकी घटनाओंको पूछा, खासकर उन घटनाओंको, कि जिनका कपन गुणपालने किया था। तब उसने श्रीपाल और उसके साहसिक कार्योका वर्णन किया। श्रीपाल और वसपाल राजा गुणपालके पुत्र थे, कुबेरश्री गुणपालकी रानी थी। गुणपालने सांसारिक जीवन छोड़कर संन्यास ले लिया । एक दिन कुबेरपीको यह खबर दी गयी कि गुणपाल नामक मुनि उद्यानमें ठहरे हुए है। रानी उनके दर्शन करने के लिए गयी। वटक्षके मीचे उद्यानमें एक यक्षका मन्दिर था, जहां लोग उत्सवके कार्यों में व्यस्त थे। वहीं दो स्त्रियों का जोड़ा, जिनमें एकको वेशभूषा मनुष्यको थो, नाच रहा था। राजा वसुपालने आदमी और औरत के तत्वको पसन्द नहीं किया जब कि उसके भाई श्रीपालने कहा कि वे दोनों स्त्रिया है। यह भविष्यवाणी की गयी थी कि जो दोनों में से पुरुषको बेशभूषावालो महिलाको पहचान लेगा, वह उसका निश्चित रूपसे पवि होगा। श्रीपालने जो बहुतसे साहसिक कार्य किये यह उसका प्रारम्भिक बिन्दु था। यह एक पोडेपर बैठा जो आकाशमें गायब हो गया। यह भविष्यवाणी की गयो कि श्रीपाल सात दिन में सुरक्षित लोट आएगा। वस्तुतः धीपाल अपवके रूपमें एक देवीके द्वारा ले जाया गया था। जब श्रीपालसे वेवीने संघर्ष शुरू किया तो उसकी सहायताके लिए जयपाल नामका एक विद्याधर वाया । उस देवसे
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महापुराण
[ XXXIII,
केबाजी
are श्रीपाल छह विद्याधर कन्याओंसे भेंट की, जिनसे उसने अन्त में विवाह कर लिया। इसी प्रकार उसने विद्युद्वेगा विद्याघरी सुखावतो और विष्णुलासे विवाह कर लिया !
XXXIII.
सुखावती, पहली सन्धिमें जिसका वर्णन है, एक विद्याधर कन्या थी। उसके पास चामत्कारिक शक्तियाँ थीं। पहले उसने अपनेको एक वृद्ध महिलाके रूपमें प्रदर्शित किया। लेकिन श्रीपालने जब यह कहा कि उसके पास ऐसी विद्या है जिससे वह किसी भी बीमारीका उपचार कर सकता है, तब उसने वृद्ध महिलाका रूप छोड़ दिया । के दोनों सिद्धकूट गये और वहाँ जिनको बन्दना की। सभी नयी कन्याएँ जो श्रीपालको प्यार करती थीं, वहीं छायीं । उनके सामने सुखावतीने फिर अपनो विद्याका प्रदर्शन किया। उसने श्रीपालको वृद्ध बना दिया और उससे प्रेम करती रही। इससे उसकी मित्र कन्याएं उसका उपहास करने लगीं । उसने राजकुमारके गलेके मोड़का उपचार किया और अपनी बहन प्रभावतीका विवाह कर दिया । इसी बीच में अशनिवेग (विद्युदुगाफा भाई ) वहां आया। उसने श्रीपालको पहचान लिया । उसपर करण किया और विद्युद्वेगाकी सहायतासे वह वहाँ गायब हो गया ।
XXXIV.
सुखावती वापस घर आयो, उसके पिताने श्रीपालसे उसका विवाह करने की बात सोची, परन्तु श्रीपालने इसके पूर्व अपने बड़े भाईको देखने की इच्छा प्रगट की । इसलिए उसे पुण्डरीकिणी ले जाया गया। रास्ते में उसने कई साहसिक कार्य किये उसे जंगल में एक बढ़िया हाथी मिला। हाथीने पहले श्रीपालपर आक्रमण करना चाहा परन्तु श्रीपालने अन्तमें उसे जीत लिया ।
।
XXXV,
सुखावती श्रीपालको साथ लेकर भीड़के सामनेसे पुण्डरीकिणी नगरकी ओर के गयी, आकाशमार्ग से । वह उसे उस क्षेत्रमें ले आयी जहाँसे दुष्ट घोड़ा उसे छोड़ गया था। नागबलने अपनी कन्या शिखाका विवाह श्रीपालसे कर दिया । उससे विवाह करने के बाद श्रीपालको सुखावती आगे ले गयी । इस में दो विद्याधर उसे मिले और उन्होंने पत्थर के खम्भेपर आपात करनेके लिए अनुरोध किया यह कहते हुए कि यदि वह तलवार से खम्भे के दो टुकड़े कर देगा, तो वह चक्रवर्ती होगा। श्रीपालने दो टुकड़े कर दिये । अपने मार्गपर जाते हुए उसे कई राजाओंने अपनी कन्याएँ दीं। समय बीतने पर उसने वे सब रत्न प्राप्त कर लिये जो एक चक्रवर्तीके पास होना चाहिए। धूम्रवेग नामक एक दुए, विद्याधरसे लड़नेके लिए जाते हुए - श्रीपालने पूर्वभवकी अपनी एक माँ ( सत्यवती ) से भेंट की जो इस समय यक्षिणी हो गयी थी। इस प्रकार कई साहसिक कार्योंको सम्पादित करनेके बाद, श्रीपाल सातवें दिन अपनी राजधानी में पहुँचा। उसने अपनी माता कुबेरश्री और भाई वस्तुपालसे भेंट की। श्रीपालने उन्हें बताया कि जो शक्तियों उसे प्राप्त हुई है, वे सुखावती सुधार कार्य सम्पादन के कारण, और वह उसकी पत्नी है ।
XXXVI.
इसपर श्रीपाल से सभी कन्याओं का विवाह कर दिया गया। परन्तु विप्पलाने यह पसन्द नहीं किया कि उसका पति इतनी सारी कन्याओंसे विवाह करे इसलिए वह अपने पिताके घर आ गयी। श्रीपाल, फिर भी, उसके घर गया और उसने वापस चलने के लिए उसे मना लिया। इसी प्रकार सुखावतीको भी उसने अपने पास रहने के लिए राजी कर लिया । इसके बाद उसे चक्रवर्तीके सात रस्म प्राप्त हुए । उचित
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________________ XXXVII अगरेजो टिप्पणिय समयमें उसके यहाँ आयुधशाला चक्र भी प्रकट हुआ / उसे जो कुछ सम्पत्ति मिली, वह असवइकी देखरेख में थी / परन्तु सुखावतीने उसे कंजूस समझा / परन्तु मन्त्रीने कहा कि जसकइ, जिनकी मां होनेवाली है, उनका नाम गुणपाल है। समय आनेपर जसबहने गुणपालको जन्म दिया। समयको अवधिमें भोपालने सुखावतीके पुत्रको गद्दोपर बैठाया, और अपने पुत्र जिन गणरालके आश्रयमें तप किया। मुलोचनाने यह कथा जयको सुनायो। उसने तब पूर्वभवोंके जीवनका अच्छो तरह अनुभव किया, और उसे समस्त विद्या प्राप्त हो गयीं कि जो उसे तन्ध प्राप्त थीं। प्रियं गश्रोने यह सोचा कि सुलोचनाने जो कहानी कहो है वह सच नहीं है / उसे विश्वास दिलाने के लिए, जय राजा और सुलोचना ऋषभ जिनकी वन्दना-भक्ति करने के लिए गये। उनके रास्ते में इन्उने जयको प्रभित धरमेका प्रलोभन दिया, परन्तु वह उसमें खरा चतरा / इन्द्र ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया। जय कैलास पर्वतपर आया। उसने चौबीसों जिनोंकी पन्दना को जिनके मन्दिरोंका निर्माण भरतने कराया या / XXXVII राजा जयने सुलोचनाके साथ होनेवाले जिनौको प्रतिमाओंको नमस्कार किया, और तब ऋषभ जिनके समवशरणमें गया। ऋषभ देवों, साधु-साध्वियों, मनुष्यों और मनुष्यनियों के बीच में बैठे हुए थे। उसने वहाँ अपने पिता और चाचाको देखा कि जो साधु बनकर यहाँ बैठे हुए थे। सुलोचनाने अपने पिता अकम्पनके दर्शन किये, जो और उनके साथ दुसरे कई सम्बन्धो मुनि हो गये थे। जयने ऋषभकी प्रशंसामें एक गीत कहा जिसके बाद उसने भरतसे मुनि बनने के लिए अनुमति मांगी / भरतने पहले तो इसे स्वीकार नहीं किया, परन्तु इन्द्र के हस्तक्षेप करनेपर उसने अनुमति दे दी। मुलीचनाने भी साध्यो बननेकी अनुमति दे दो। ससे मुनिकी बीक्षा दी गयी / उसने पवित्र प्रन्धों का अध्ययन किया। उसके बाद सुलोचना भी साध्वी बन गयी। अब, ऋषभ जिनने भरतके लिए जैनधर्म के सभी सिद्धान्तोंको व्याख्या की। भरत घर लोट माया और उसने उसी रात एक सपना देखा जिसमें मेरु कम्पायमान हो रहा था। अगले दिन सबेरे उसने पुरोहितसे स्वप्नका आशय पूछ। पुरोहित ने कहा-ऋषभ मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं। भरत शीघ्र कैलास पर्वतपर गया / इन्द्र भी वहाँ निर्वाण कल्याणका उत्सत्र मनाने के लिए बाया / इन्द्र और दूसरे देवोंने अग्निवृक्षोंकी चिनगारिया ले ली। अग्निकुमार देवोंने सुलमाने के लिए आग जलायी। उनका शरीर जलकर राख हो गया / देवोंने उसकी बन्दना की। माघ माहके शुक्ल चतुर्दशीको उनका निर्वाण हो गया / भरत अयोध्या वापस आ गये। एक दिन अपने सिरके एक बालको सफेद देखकर भरतने अपने पुत्रको राज्यभार सौंप कर संसारका परित्याग कर दिया। उसे केवलज्ञान प्राप्त हया और उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया।