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________________ ३३. १३.१०] हित्वो अनुवाद ३१३ मार्गदर्शक :- आता श्री दुनिशिसारी हाराल तब स्त्रीप्रेमके रससे व्याकुल अतिबल विद्याधरने माइयोंको एकत्रित किया। वह स्वेच्छाचारिणी अन्धकारको नष्ट करनेवाली धक-धक जलती हुई उस आगमें प्रविष्ट हुई। उस आगमें वह उसी प्रकार नहीं जलो, जिस प्रकार मुर्खके द्वारा मायाविनी वेश्या दग्ध नहीं होती। लोगोंने उसकी धन्दना की । शुद्धमतिवाली इस महासतीके लिए आग ठण्डो हो गयो। उस दुश्चारिणोके चरित्रको देखने वाला वह कुमार जो कि शत्रुरूपी वृक्षोंके लिए कृशानु ( आग है), विचार करता है। गर्वहीन शीलको कौन सम्पादित कर सकता है ? कौन शिकारी दयासे सेवित हो सकता है ? बताओ कि राजाका प्रगाद हमेशा किसे मिलता है। घरकी भाग किसे नहीं जलाती है । व्यसनसे संसारमें को व्यर्थ नहीं हुभा । असतीजनसे संसारमें कौन वंचित नहीं हुआ। घता-इस धरतीपर नारियोंसे वंचित नहीं होते हुए कोई नहीं बचा। भरत और पुष्पदन्त दोनोंने देखा कि लोगोंको क्या अच्छा लगता है ॥१३॥ इस प्रकार प्रेसर महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभष्य भरत द्वारा अनुमत इस काम्यका विद्याभरीमाया प्रवचन मामा सेतीसवाँ अध्याय समास हुआ ॥१३॥ २-४५
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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