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________________ सन्धि २२ सज्जनोंके मनको सन्ताप देनेवाले रतिसुखका निवारण करनेवाले दुर्दर्शनीय, पाररूपी वृक्षतको मरणरुपी लिहों को प्रशितांगने देने ।::..:: दुर्धर क्षयकालसे आहत, मुरझायी हुई माला उसने देखी । कोमल देवांग वस्त्र कुछ मैले हो गये, उसका शरीर मलसे काला हो गया। उसका भोगोंमें वैराग्य बढ़ गया। आभरणोंका समूह निस्तेज हो गया। शोकसे खिन्न रोता हुआ परिजन और कांपते हुए कल्पवृक्ष उसे दिखाई दिये । मोहित मन वह जैसे ही मानिनीको देखता है वह मानसिक दुःखसे सूखने लगता है। उस अवसरपर कोई देवगुरु उससे कहता है-"नियति के वियोगसे इन्द्र मी नापाको प्राप्त होता है। हे ललितांग देव, भयज्धर छोड़ दो। त्रिभुवनमें अजर और अमर कोई नहीं है । जैसा कि स्वयंबुढने कहा था, यहाँ भी जिसका सेवाफल दिखाई देता है, उन जिनचरणोंको सद्धावसे याद करो जिससे संसारमें किये गये पापसे मुक्त हो सको। है सुभट, खोटो लेश्यासे मनुष्यत्वकी हानि करनेवाली पशुयोनिमें मत पड़ो । संसाररूपी वृक्षकी जड़ोंको नष्ट करनेवाले व्रत और शील तुमसे दूर न हों। पत्ता-भावकी विचित्रताएं रंगनटकी तरह उत्पन्न होती हैं और फिर नष्ट हो जाती है, शाश्वत मोक्षलक्ष्मीको छोड़कर सुरति चेतनाएं ( कृतिभावनाएँ ) दुर्लभ नहीं होती ( अर्थात् उन्हें पाना आसन है ) ||१|| ललितांग उन शब्दोंको सुनकर और बार-बार अपने मनमें मानकर तथा तीर्थों में जाकर शुभ तीर्थकर और परमशुभ करनेवाले चरणोंको चम्मकपुष्पोंसे, कुवलय ( पृथ्वीमण्डर ) का
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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