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________________ २९.४.३] हिन्दी अनुवाद २३५ मारता है जो ऐसा है वह कहीं भी चला जाये । यह अच्छा है, वह प्रजा और परिजनोंको ताप न दे, मेरे चरपुरुषोंने इसका दुर्दान्त पापमय चरित मुझसे कहा है ।" अत्यन्त दुर्मयकारक होते हुए उस कुमारने अपने मन में विचार किया कि पिताके कोपसे बच्चे मार्ग जानते हैं, पिताके कोपसे विश्वमें त्रिवर्ग सिद्ध होता है। पिताके कोपसे कोई भी क्षयको प्राप्त नहीं होता। पिशाके कोपसे सम्पत्ति घर आती है। पिताके वचन जितने-जितने कड़ ए होते हैं वे परिणाममें उतने ही उत्तने प्रशस्त होते हैं। ये वचन जिसके कर्णकुहरोंमें नहीं जाते उनका जैसा पराभव होता है वैसा ही निश्चयसे मरण होता है। लो, मैं स्वयं दृष्टान्त रूपमें उपस्थित हूँ कि जिसने पितासे सुने पदार्थका उल्लंघन किया। पत्ता-जयशील सुप्रभाके पति काशीराज अकम्पनके द्वारा प्रेषित गुणवान मन्त्री सुमति आकर और प्रणाम कर राजासे कहता है ।।२।। "हे देव, कृष्ण-धवल और लाल रत्न तथा प्रवर वस्त्र ग्रहण करें । हे नवनिधियोंके स्वामी तुम्हें उपहारोंसे क्या ? जलके धड़ोंसे समुद्रको क्या करना ? तो भी भक्तिसे तुम्हारे चरणकमलोंमें अपना सिर रखनेवाले, अपने ही अनुचर जय-विजय और अझम्पनादि राजाओंने जो निवेदन किया है, उसे हे देव, सुनिए । उनका पहला दोष तो यह है कि दोधेबाहुवाले तुम्हारे पुत्रको अपनी ११ कन्या नहीं दी, दूसरा दोष यह है कि वरसमूहको आमन्त्रित किया और स्वयंवर विधि नियोगका प्रदर्शन किया, तीसरा दोष है कि प्रेमकी इच्छा रखनेवाली बाला उससे ( जयकुमारसे) लग गयी और उसके गले में माला डाल दो। चौथा दोष यह है कि परस्त्रीका अपहरण करते हुए तुम्हारे पुरसे युद्ध में लड़ा। पांचवा दोष यह है कि कुमारको बांध लिया और युद्ध रंगमंचके उस वीरको अपने नगर ले आया। यह मुझ द्रोहीकी दोष-परम्परा है कि जिससे मैं आज भी घर नहीं छोड़ता। हे देव, अब मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ, क्या इसका दण्ड सर्वस्व अपहरण है ? क्या मृत्यु, बताइए क्या दण्ड है ?" यह सुनकर राजा भरत उत्तर देता है-“हे काशोराज, मैं कहता हूँ कि पिताकेऋषभनाथके संन्यास ले लेनेपर वही मेरे पिता हैं। जयकुमार मेरा दायां बाहुदण्ड है और जयकुमार बायाँ बाहुदण्ड है। वह जो है वह न चक्र है और न वज्रदण्ड है। जिसमें झपटते हुए गोधोंके द्वारा आंतोंकी माला खायी जा रही है ऐसे युद्ध के समय जो उपकार करता है । पत्ता-जो बल घमण्ड और तीन क्रोधसं जनपदको पीड़ित करता है और जो खोटे मार्गसे जाता है ऐसे पुत्रको मैं खण्डित और दण्डित करता हूँ" ॥३॥ यह कहकर भरतने मन्त्रीको भेज दिया। वह गया। वह अपने स्वामोसे शान्ति पोषित करता है कि राजा तुम्हें पिलाके समान मानता है और जो जय-विजय दोनों शत्रुरूपी अन्धकार
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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