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________________ ३०.८.१३] हिन्दी अनुवाप २६७ रतिके हर्षसे प्रेरित, रतिवरका जीव (हिरण्यवर्मा) जहाँ माला गिरनेवाली थो, वहाँ पहुंचा। उसने आकाशमें विद्याधरीके समान नृत्य करती हुई और धरतीपर गिरती हुई उस पुष्पमालाको ग्रहण कर लिया। भ्रमरोंको धारण करनेवाली पुष्पमाला इस प्रकार दिखाई दो मानो कामने तीरोंको मालाका सन्धान किया हो । दोनोंने चितोंको चापकर रख लिया, दोनोंने गिरते हुए और कांपते हुए नेत्रोंको धारण कर लिया, दोनोंने नागराजोंको दलित करनेवाले मदनरूपी गजेन्द्रको लज्जाका दृढ अंकुश दिया। तब घर उस सुन्दरीको देखनेके लिए गया, इस बीचमें प्रियकारिणी आकर स्थित हो गयो। उसने उसका पट्ट उसे दिखाया। उसने भी अपनी तिरछी निगाहोंसे उसे देखा। देखकर वह पक्षीको कहाना समझ गया। यहां प्रमुख विद्याधर युक्तो प्रभावती स्वजनोंके साथ पिताके घर पहुंची। बहतों के निनाद के साथ आदित्यगति और वायुरथ विद्याधर राजाओंने ऐसा विवाह किया कि नागेन्द्र भी उसका वर्णन नहीं कर सकता। प्रेम. सम्बन्ध से प्रगलित बह रहा है पसोना जिनसे, ऐसे पत्ता-कुलमण्डन और प्रसरिल दृष्टि विकारवाले इन दोनोंका दर्शन, भाषण, गुणविनयदान और श्रृंगार करते हुए समय बीतने लगा ||७|| एक दूसरे दिन कोड़ा करते हुए तथा आकाशको गोदमें चढ़ते हुए ये दोनों हिलते हुए घण्टोंकी ध्वनियोंसे निनादित सिद्ध शिखर नामके जिनालयमें पहुंचे। वहाँपर मोहजालरूपी तरुजालके लिए हताशनके समान जिनेश्वरकी प्रतिमाको पूजफर, फिर कामदेवके व्यामोहका विदारण करनेवाले सर्वोषधि चारण मुनिकी बन्दना कर उन्होंने अपने जन्मान्तर पूछे । मुनिने उन्हें बीती हुई कहानी बता दी। वणिभवमें जो तुम्हारे माता-पिता थे । सुकान्तके अशोक ओर जिनदत्ता, रतिवेगाके श्रीदत्त और विमलश्री ), इस समय शुभकर्मवाले तुम लोगोंके वे ही पुनः माता-पिता हुए हैं। कितना कहा जाये, भवसंसारका अन्त नहीं है। वह बेचारा भववेवका जीव वणिक्वर, मैं यहाँ उत्पन्न हुआ। पहला नाम श्रीवर्मा प्रकाशित हुआ फिर स!षधि चारण कहा गया । तपके प्रभावसे आकाशगमन सिद्ध है और विशेष रूपसे तीसरा अवधिज्ञान मुझे प्राप्त है। पाप दुःखोंका नाश करनेवाले रतिषेण मट्टारकके चरणयुगलको प्रणाम कर में मुक्त हुआ। पत्ता-गुरुवचनरूपी तीखे कुठारसे मैंने संसाररूपी वृक्षको छिन्न-भिन्न कर दिया और पाच बाणोंसे बिद्ध करते हुए मैंने कामको दिशाबलि दे दी ||८||
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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