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________________ २४. ३. १५] हिन्दी अनुवाव ११३ तीर है। वह मानो तुम्हारे भूखरूपी कमलके लिए दिनकर है। वह मानो प्रसारित रूपविलास है। वह मानो बहुत बड़ा कान्तिकोष है, वह मानो विस्तारित विद्यानिधि है, वह मानो अवतरित पुण्य समूह है। यह सुभग मेरे मनको भाता है और जो तुम्हारे आठों अंगोंको जलाता है । जिसके बड़े शिस्तर हैं और जो दुःखनाशक है ऐसे जिन मन्दिरकी उसी प्रकार प्रदक्षिणा देकर कि जिस प्रकार फेन हिम और अट्टहासके समान कैलास पर्वतको इन्द्र देता है, रतिसे विकसित अपने मनको मुकुलित ( बन्द ) कर तथा अपने दोनों हाथ जोड़कर पुण्यहीनोंसे दुलम देवोंको पूजितोंके द्वारा पूज्यकी वन्दना की, विश्ववन्दितोंके द्वारा बन्दनीयकी वन्दना की। पण्डितोंके द्वारा निन्दितोंकी निन्दा करनेवाले जिनवर की वन्दना की। देवका गर्भवास नहीं होता परन्तु शरीरके बिना ( शिवका ) शास्त्र कैसे युक्तियुक्त है । जो जड़जन बुद्धिसे तुच्छ हैं, वे कहते हैं कि वह (शिव) निष्क्रिय निष्कल आकाशकी तरह निराकार शून्य है । पत्ता-हे जिन, आकाशसे अधिक मारी, हिमसे अधिक ठण्डा और तुमसे महान् गुरु कौन है ? वह वैसा ही है, जैसे मुड़ी हुई भुजावाले वन्ध्यापुत्रके ऊपर आकाशकुसुमोंका शेखर ।।२।। जिनकी वन्दना कर, उसने मनिवरोंकी बन्दना की। शुभ करनेवाले वे मुनि मानो गणधर हों । अपने अंगों और नखोंकी कान्तिसे दसों दिशाओंको रंजित करता हुआ दसों दिशाओं में अपना यश फैलाता हुआ, जिसके कुल और हृदयमें कलक नहीं है। व्रतोंका पालन करनेवाली जिसकी मति जिननयमें स्थित है, ऐसा नतशिर वह पट्टशालामें प्रविष्ट हुआ। प्रवेश करते हुए मैंने उसे सामने देखा । अपने सुलिखित चित्तसे उसने पट्ट देखा और श्वास लेते हुए उसने सोचा। इष्टके वियोगसे पीड़ित उस उत्तम पुरुषने जीवन की आशंका करते हुए अपना सिर हिलाया। विजयसमीके लिए विक्रान्त सुन्दर, स्मृत प्रेमसे उस्कण्ठित, सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर ( उसने सोचा ) कि प्रियसंयोग पुण्यसे होता है, रोनेसे नहीं । रोनेसे शरीर नष्ट होता है, शरीर नष्ट होनेपर देव मी प्रवृत्त नहीं होता ( काम नहीं करता ) ( पता नहीं ) वह कहाँ है, कहाँ दिखाई देगी, जो मेरे मनरूपी कमलके भीतर निवास करनेवाली है। "जो वह, वह जो" यह कहता हुआ वह मूर्छित हो गया। वह सौम्य चन्द्रमाके समान दिखाई दिया, धायके द्वारा पूछा गया वह विमन बैठ गया। परिजन दौड़ने (वित ) होनेपर मन कहीं भी नहीं समाता। वह कहती है है पुत्री ! तुम्हारा प्रिय बताती हूँ, जो कुछ उसने कहा है वह तुमसे कैसे छिपा सकतो हूँ। पत्ता-अच्छी तरहसे आच्छादित, बहुत प्रकारसे प्रतिलिखित यह पूर्वभक्चरित राजपुत्रीने अपने सुन्दर हाथसे अपने हृदयके साथ कैसे अंकित कर दिया ।।३।। २-१५
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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