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________________ ३३. १२. १५ ] हिन्दी अनुवाद ३५१ ११ जिनेन्द्र भगवान्का स्मरण करनेवालोंको सिंह नहीं खाता। विषसे कर्मुर नाग भी उसके समक्ष नहीं ठहरता। जिसमें तलवारोंके संघर्षसे उत्पन्न मागसे ज्यालाएं उत्पन्न हो रही हैं ऐसे सुभट संग्रामका क्षण आनेपर भो "जिन भगवान् का स्मरण करनेवालोंसे शत्रु पाथर कांपते हैं और धीर होते हुए भी पीछे हट जाते हैं। जिसके गण्डस्थलसे मदबलको धारा बह रही है, चंचल भ्रमर-समूह गुन-गुना रहा है, जो गिरिवरके समान दौड़ता हुआ आता है, जिसके दांत बंधे हुए (नियन्त्रित ) हैं, जो हृदयपर आघात कर रहा है, ऐसा परागसे पीला गजवर भी जिनवरके स्मरणरूपी अंकुशसे नियन्त्रित होकर लड़खड़ा सा है पौर मुड़ जाता है। जिसमें घावोंसे रखत बह रहा है, हाथ और नाक सड़ चुके हैं, ऐसा नष्ट नहीं होनेवाला कष्टकर बचा हुआ कुष्ठ" रोग, क्षय, खांसी और जलोदरके द्वारा शोक उत्पन्न करनेवाले रोग जिन भगवान्का स्मरण करने. से नष्ट हो जाते हैं। जिसमें अथाह पानी है, जिसमें स्वरोंसे दिगन्त आहत है, जिसमें गजों, मगरों और मत्स्योंकी पूछे उछल रही हैं, जो माणिक्योंकी किरणमालासे विचित्र है, जिसकी लहरोंसे बड़े-बड़े यानपात्र विचलित हो उठते हैं, जो जलघरोंसे भयंकर है, ऐसे समुद्र में भी जिनवरका स्मरण करनेवाले कभी नहीं डूबते। घता-शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। वर्षा भी अच्छी और दिन भी अच्छा रहता है। जिनका स्मरण करनेसे तलवार भी परागवाले कमलकी तरह हो जाती है ||११|| १२ वह राजा आगसे अक्षत शरीर निकल आया। वह स्वर्णपिण्डके समान ऐसा शोभित है। वह राजहंस शिलातलपर बैठ गया मानो कमलिनी दलमें राजहंस हो। उस नगरीमें अतिबल नामका विद्यापर रहता है जो विद्यावलसे सामथ्यवाला है। उसकी चित्रसेना नामको दुराचारिणी स्त्री ऐसी थी मानो कामदेवकी सेना हो। जिसके मुखरूपी कुहरसे कठोर अक्षर निकल रहे हैं ऐसे विद्याधर पतिने उस स्वेच्छाचारिणी पत्नीको रातमें डॉटा । वह उस मरघटमें आयी । उसने राजा श्रीपालको आगके मुंहसे निकलते देखा। उसने विचार किया कि विजयलक्ष्मीके घर इस राजाका शरीर इस आगमें जो नहीं जला तो इसके लिए कोई कारण होना चाहिए। अथवा इस कारणका विचार करनेसे क्या? यह विचारकर वह पापी महिला कुतूहलसे उस आगमें घुस गयी। जिसकी सर्वोषधिसे शक्ति आहत हो गयी है ऐसो ज्वालाओंको धारण करने वाली उस विशाल आगसे वह जली नहीं। वह निकलकर उस राजा श्रीपालके पास आकर बैठ गयी। तब मरघटके निवासमें विद्याधर अतिबल आया और अपनी पत्लोके चरणतलपर गिर पड़ा, और बोला कि मैं मूर्ख बुद्धि दुष्टों द्वारा ठगा गया 1 हे प्रिय ! आओ, हम घर चलें । तब कारणका विचारकर वह धूर्त बोली । पत्ता-अपने भाइयोंको बुलाओ, मैं दीप धारण करके जाऊँगी। क्योंकि असतीत्वके मलसे मैली मैं ( बदनाम ) होकर कब तक रहूँगी ॥१२॥
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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