SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११७ हिम्बी अनुवा २४.७.१२] www. बता-बताओ में क्या करूं, में विरह सहन नहीं कर सकता। हे दूती, प्रियाको मेरे पास छा वो। वह जिस नगर में मोर घरमें स्थित है वहाँ जाकर मेरी कुशलवार्तासे उसे सन्तुष्ट करो" ॥५॥ ६ तब दूनी बोली--"हमारी नगरी पुण्डरीकिणी सब नगरियोंमें श्रेष्ठ है। उसका कल्याण करनेवाला राजा वदन्त है, उसकी आदरणीय महादेवी लक्ष्मीमती है। उसकी कन्या श्रीमती उत्पन्न हुई है, जो प्रियकी याद कर जीवन से विरक्त हो चुकी है। यह कथावृत्तान्त उसने लिखा है। तुमने इसे ( वृत्तान्तको) जान लिया है, तुम निश्चित रूपसे इसके वर हो। यह सोचकर में यहाँ आयी हूँ। पचित्र सम्बन्धी वार्ता निवेदित की।" इस बीच कुमार वहाँ गया कि जो उत्पलखेड नामका नगर था । प्रियके वियोगकी ज्वालासे जलती हुई देहको घरके भूमितल में डाल दिया । युवतीके जाल में पड़ा हुआ वह ऐसा दिखाई दिया, मानो वनव्याधाने मृगको आहत किया हो । धत्ता - रतिसे समृद्ध कामदेवके द्वारा, पाँच बाणोंसे विद्ध वह राजकुमार एकदम छटपटाने लगा। किसी प्रकार उसने अपने प्राण-भर नहीं छोड़े ||६|| 19 दुष्परिणामवाले कामसे वह सन्तप्त है, शीतल चन्दन लेपसे उसका लेप किया जाता है । वह बोलता है, हँसता है, निःश्वास लेता है, विरुद्ध होता है, उठा हुआ बैठ जाता है, मोहसे मुग्ध हो जाता है । हाथ भोड़ता है, बाल बिखराता है। ओठ काटता है, अण्टसष्ट बोलता है। काँपता है मुहता है, विलासोंके साथ जाता है। दूसरेसे प्रच्छन्न उक्तियोंसे पूछता है। एक धरमें वह एकमात्र भी नहीं ठहरता न नहाता है, न धोता है, और न जिनवरकी पूजा करता है। न माभूपण पहनता है और न भोजन ग्रहण करता है, न गेंद खेलता है। न घोड़े पर चढ़ता है। हाथी मोर रथको तो वह आँखोंसे भी नहीं देखता । न गीत सुनता है और न वाद्य बजाता है। केवल ater बन्द कर अपनी प्रियाका ध्यान करता है। एक भी राजविनोद वह पसन्द नहीं करता । हमसे अभिभूत वह कुछ भी नहीं चाहता। तब मन्त्रियोंने राजासे निवेदन किया, "हे देव, पुत्र कामदेव पराभूत है । पत्ता - हे देव ! सती लक्ष्मीमतीकी जो श्रीमती कन्या है, वह उसमें अनुरक्त है, उसको नियति आ पहुँची है, कामाग्निसे सन्तप्त उसका इस समय जीना कठिन है" ||७||
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy