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________________ २२. १२.३.१. Mono PWN हिन्दी अनुवाद 2 १० मुग्धा पूर्वजन्मके वरको याद करती है—क्या जानें कि वह सुर, नर या किन्नर है ? इस प्रकार परिणामों की प्रवृत्तिका विचार कर पण्डिता धायके लिए पुत्री समर्पित कर जब राजा अपने घर गया तो प्रहरण और उपवनके पालक वहाँ आये। दोनोंने प्रणाम कर राजासे निवेदन किया, " हे देन, ध्यान देकर सुनिए, यशोधरको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, और आयुधशाला में निर्वाध चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई है।" तब राजा सिंहासन छोड़कर सिरमुकुटसे घरती छूकर बोला, "हे अरहन्त भट्टारक ! आपकी जय हो, संसार समुद्रसे पार लगानेवाले आपकी जय हो, त्रिशल्योंकी लताओं को नष्ट करनेवाले आपको जय हो, विनीत और सुजनोंके मनोरथ पूरे करनेवाले | पत्ता -- सब इतने में अन्धकारका नाव करता हुआ, उपशान्त और गर्वको विगलित करने वालोंके लिए भाग्यका विधान करता हुआ दिवसकर (सूर्य) उग आया जो भव्योंके लिए ज्ञान विशेष के समान शोभित है || १० || ११ जिसने अपने दांतोंके आघात से गिरिभित्तियों को विदारण कर दिया है, और जो कानकि ताड़पत्रोंसे भ्रमरोंको उड़ा रहा है ऐसे हाथीपर बैठकर वज्र के समान दांतवाला, अपने मनके अन्धकारका निवारण करनेवाला, चन्द्रमाके समान श्वेत और निर्मल वस्त्र पहने हुए वह सेनाक समवसरण के लिए गया। दूसरा भी यदि ऐसा है, तो यह बात्माका हित करनेवाला है। अशोक उनको उसने अशोकवृक्ष के नीचे बैठे हुए देखा, कुसुमशायक ( कामदेव ) को नष्ट करनेवाले वह कुसुमसे अंचित, दिव्यवाणीवाले मुनि निर्माणके ईश्वर विकाररहित सिंहासनपर आसीन श्रेष्ठ । चामरोंसे युक्त, नित्य देवोंसे सेवनोय, भामण्डल के दीप्तिमण्डलसे आलोकित उनका दुम्बुभिका शब्द दुःखित शब्दका निवारण करनेवाला था । लोक में श्रेष्ठ और संसारका उद्धार करनेवाले | क्षतको आश्रय देनेवाले तीन छत्रोंसे युक्त स्त्री रहित और त्रिकालको स्वयं जाननेवाले । विश्व में वही ब्रह्मा केशव और शिव है, जो नामसे तार्थता बग़ोधर है। उन अनिन्द्यदेवकी उसने भावसे वन्दना की । बढ़ते हुए विशुद्ध भावसे राजाको अवविज्ञान उत्पन्न हो गया। उसको समस्त रूपो द्रव्योंका ज्ञान हो गया । धत्ता--- कनकरससे विद्ध होकर जिस प्रकार लोहा स्वर्णरूपमें बदल जाता है, उसी प्रकार जिनेन्द्र भावसे ध्यान करनेवाले भव्य जीवको ज्ञानभाव प्राप्त हो जाता है ॥११॥ १२ राजा अपने प्रभुकी वन्दना कर घर आया और अपनी कन्याको गोद में बैठाया । सन्तप्त हो रहो उसे उसने मना किया कि हे पुत्री ! स्नेह करनेसे कभी तृप्ति नहीं होती। राजा कहता है, मैं तुम्हें बहुत समय से जानता हूँ कि जब अच्युत स्वर्ग में में सुरवर था। तुम दूसरे स्वर्ग के विमान में
SR No.090274
Book TitleMahapurana Part 2
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages463
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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