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हिन्दी अनुवाद
२८.२१.१५]
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है। कंचुकी कहती है- "हे महासती सुनिए, यह केरलपति है, यह सिंहलपति है, यह मालवपति है, यह कोकणपति है, यह बर्जरपति है । यह गुर्जरपति है, यह जालन्धरका ईश है, यह वज्जरपति है. ये कम्मोज-कोंग और गंगाके राजा है, सबमें यह, कलिंगका राजा है। यह कश्मीरका राजा है, यह टक्केश्वर है, यह दूसरा तुम्हारा वर है, इसे देखो, सोमप्रभका पुत्र यह सेनापति है जो कुरुकुल के आकाशमें चन्द्रमाको तरह उदित हुआ है । अवरुद्ध कर लिया है धरती और आकाश के अन्तरोंको जिन्होंने ऐसे विषधरोंके समान बरसतो हुई धाराओंोंके द्वारा इसने दिग्विजयमें अनेक राजाओं को जीता है। युद्धमें लेच्छ और अतुच्छ वंशके राजाओं को पराजित किया है। जब वह नवघनके घोष के समान गरजा तो राजा ( सोमप्रभ ) ने उसका नाम मेधेश्वर रख दिया ।" इस प्रकार प्रिय सखीके इन वचनोंको सुनकर उस मुग्धाने अपने नेत्र प्रेषित किये ।
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धता - उस सुलोचनाने जय करनेवाले अपने पतिको इस रूपमें देखा कि उसके रोमरोममें ममको छेदनेवाला कामविकार हो गया ||२०||
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जैसे-जैसे कन्याने पतिको देखा वैसे-वैसे सारथिने रथ आगे बढ़ाया । अशेष राजाओं को छोड़कर तथा पूर्वजन्म के स्नेह-सम्बन्धसे जाकर सत्कामसे प्रकम्पित है गति और गात्र जिसका, तथा लजासे जिसके नेत्र मुकुलित हो गये हैं, ऐसी उसने जयकुमारके लक्ष्मी कोड़ा के भूमिस्थल उरस्थलमें माला डाल दो। उसने अंजलो जोड़े हुए कुमारीको ऐसे ग्रहण कर लिया मानो कामदेवने कुसुमको माला स्वीकार कर ली हो। भरत शीघ्र ही अपने रथके साथ साकेत चला गया। यहाँ युवराजोंमें दुर्बुद्धि बढ़ने लगी। युवराज अकोतिका दुर्मर्षण नामका मन्त्री या जो दुर्धर, दुर्जन, दुष्ट, दुराशय, सज्जनों को दोष लगानेवाला और मिश्रसमूहको सैकड़ों भागों में विभाजित करनेवाला था । मत्सरसे भरकर उसने कहा - "जहाँ अहिंसा होती है वह निश्चयसे धर्म है । अन्त देव हैं वहाँ इन्द्र है, जहाँ मुनिवर है वह इन्द्रिय निग्रह है। जहां राजा है वहाँ रत्नोंका संग्रह है। ऊँट या गधेके द्वारा नर-समूहका अवलम्बन नहीं होता । घण्टावलम्बन राजके शोभित होता है। घोड़ा, हाथी और स्त्री आदि समस्त रहन नरश्रेष्ठ राजाके होते हैं।
पत्ता - राजा अकम्पन पुत्रीकी कोर इशारा किया । इसलिए बालाने इसकी ओर देखा । तुम्हारा अपमान कर चाचाके पुत्र मेघेश्वर ( जयकुमार ) का इसने सम्मान किया ॥२१॥